त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
अवधी की किसान
कविता और बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’/ शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
‘च्यातउ-च्यातउ,
स्वाचउ- स्वाचउ
ओ ! बड़े पढ़ीसउ
दुनिया के’
-बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’
आधुनिक युग में अवधी कविता अपने स्वभाव के
अनुकूल पुनः जनजागरण करती दिखाई देती है। तुलसी के बाद पढ़ीस ने अवधी कविता को
ऊंचाई दी। आधुनिक अवधी कविता में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ का वही स्थान है
जो जो हिंदी में निराला और प्रेमचंद का। इस तथ्य को डॉ. रामविलास शर्मा ने बहुत
महत्वपूर्ण तरीके से स्वीकार किया और फरवरी 1943 में ‘माधुरी’ का पढ़ीस-अंक निकाल कर इसे प्रमाणित भी क्या।
डॉ. शर्मा ‘पढ़ीस ग्रंथावली’ के संपादक भी हैं। ग्रंथावली की भूमिका में
उन्होंने लिखा है कि- “हिंदी में तीन
क्रांतिकारी लेखक थे। प्रेमचंद, निराला, पढ़ीस। ये तीनों लेखक ऐसे थे जो गाँव के थे और
किसानों के जीवन से बहुत अच्छी तरह परिचित थे। किसानों के जीवन से और बहुत से लोग
भी परिचित रहे हैं। इन तीनों लेखकों की विशेषता यह थी कि गाँव में जिन किसानों के
पास जमीन नहीं थी, जो अपनी खेती
नहीं कर सकते थे, जो दूसरों की
बेगार करते थे और उनके खेतों में काम करते थे यानी हरिजन, खेत-मजदूर या कारीगर। इनके जीवन को ये तीनों आदमी बहुत
अच्छी तरह जानते थे। हरिजनों के बारे में केवल ऊपरी सहानुभूति नहीं बल्कि उनके
जीवन को गहराई से जानना, यह इन तीनों
लेखकों की बहुत बड़ी विशेषता थी। और ऐसा चौथा लेखक अभी हिंदी में पैदा नहीं हुआ।”2
रामविलास जी ने यहाँ जो महत्वपूर्ण बात कही इसके अतिरिक्त भी इन लेखकों की
और भी विशेषताएँ थी। जिनमें इनकी प्रगतिशीलता भारतीयता का स्वाभाविक विकास थी,
ये लोक संस्कृति को ताख पर रख कर नगरीय सभ्यता
और पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने वाले नहीं थे, इन्होंने शास्त्र के बनावटीपन को ठुकराकर लोक की
स्वाभाविकता को अपनाया। ये लेखक दलित जातियों से जरूर नहीं थे लेकिन इनके जीवन का
अर्थतन्त्र दलित था। इन्होंने जो भी लिखा है वह इनकी अनुभूति की पराकाष्ठा है।
लेकिन ‘पढ़ीस’ हिंदी में वह स्थान न पा
सके जो निराला और प्रेमचंद को मिला। इसका मतलब यह नहीं कि पढ़ीस का साहित्य निराला
और प्रेमचंद से कमजोर है। वे कई मामलों में निराला और प्रेमचंद से आगे भी हैं। इस
तथ्य को निराला, प्रेमचंद,
अमृतलाल नागर, रामविलास शर्मा, अमृत राय आदि ने अपने-अपने तरीके से स्वीकार भी किया है। निराला तो उनके
काव्य-संग्रह ‘चलल्ल्स’ की भूमिका में संस्कृति की एक उक्ति का सहारा
लेते हुये यहाँ तक कहते हैं, “वयं शस्त्रान्वेषरणे
हत: मधुकर, त्वं खलु कृति”। हिंदी में पढ़ीस के न आ पाने का सबसे बड़ा कारण
हिंदी वालों की आभिजात्यवादी सोच है। वे हिंदी में मीर, गालिब और फ़ैज़ को सामील कर सकते हैं लेकिन हिंदी की जनभाषाओं
के कवियों के लिए उनके इतिहास ग्रन्थों में जगह नहीं। जो लोग आधुनिक अवधी, भोजपुरी, मैथिली, ब्रजी, मगही, राजस्थानी आदि जनभाषाओं को हिंदी की बोली कह कर छुट्टी ले लेते हैं, वे जायसी, तुलसी, विद्यापति,
सूरदास, मीरा को हिंदी के कवि कैसे मान लेते हैं समझ में नहीं आता।
खैर जो भी हो हम यहाँ पढ़ीस की किसानी जीवन की कविता पर बात करेंगे।
मध्यकालीन अवधी में जो स्थान जायसी, तुलसी और रहीम का है, वही आधुनिक अवधी में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’, बंशीधर शुक्ल और चंद्रभूषण त्रिवेदी ‘रमई काका’ का। पढ़ीस ने
आधुनिक अवधी में नई लीक बनाई, वे अवधी के प्रथम
आधुनिक कवि हैं। उनकी आधुनिकता मध्यकालीनता से विद्रोह करती हुई भारतीयता की
स्वाभाविक विकास धारा में है, न कि विदेशी
प्रभावों से प्रेरित आधुनिकता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद का विरोध उसकी
अस्वाभाविकता को लेकर ही किया था, उसके स्वाभाविक
विकास से उन्हें कोई आपत्ति न थी। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि शुक्ल जी जिस
तरह का स्वच्छंदतावाद हिंदी में चाहते थे उसी का विकसित और स्वाभाविक रूप पढ़ीस की
कविताओं में है। डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि-“प्रकृति वर्णन में वह ताजगी है जो अवध की घनी अमराइयों में
पपीहा और कोयल की बोली में होती है और जो पिंजरे में बंद मैना की बोली में नहीं
होती। उनकी कविताओं में वही आनंद है, जो खेत-खलिहानों में घूमने वालों को खुली हवा से प्राप्त होता है। बर्न्स की
तरह पढ़ीस जी ने भी आए दिन की घटनाओं पर कवितायें लिखीं हैं। गाँव में एक बार बहिया
आई थी उसी का आँखों देखा वर्णन उन्होंने ‘हमार राम’ नामक कविता में
किया है। केवल किसान कवि ही लिख सकता है-
तीखि धार ते
कटयिं कगारा
धरती धंसयि पतालु
लखि-लखि विधना की
लीला हम
रोई हाल ब्यहाल
मड़ैया के रखवार
हमार राम ।”3
ऐसी तन्मयता बहुत
कम कवियों में देखी जाती है। यहाँ पढ़ीस जी की तुलना डॉ. शर्मा ने बर्न्स से की है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्वच्छंदतावाद के बारे में जो महत्वपूर्ण बात कही है
उसको डॉ. रामविलास शर्मा के वक्तव्य से जोड़ कर देखें। आचार्य शुक्ल के अनुसार “काव्य को पांडित्य की रूढ़ियों से मुक्त और
स्वच्छंद काउपर (Cowper) ने किया था,
पर स्वच्छंद हो कर जनता के हृदय में संचरण करने
की शक्ति वह कहाँ से प्राप्त करे, यह स्कॉटलैंड के
किसानी झोपड़े में रहने वाले कवि बर्न्स (Rorert Burns) ने ही दिखाया था। उसने अपने देश के परंपरागत प्रचलित गीतों
की मार्मिकता परखकर देश भाषा में रचनाएँ की, जिन्होंने वहाँ के सारे जन समाज के हृदय में अपना घर किया।”4 शुक्ल जी आगे लिखते हैं “काउपर, क्रैव और बर्न्स ने काव्यधारा को साधारण जनता की नाद रुचि के अनुरूप नाना मधुर
लयों में तथा लोक हृदय के ढलाव की नाना मार्मिक अंतरभूमियों में ढाला। अंग्रेजी
साहित्य के भीतर काव्य का यह स्वच्छंद रूप पूर्व रूप से बहुत अलग दिखाई पड़ा।”5 यहाँ हम जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं वह है कि
हिंदी और अंग्रेजी दोनों का स्वच्छंदतावाद अपनी स्वाभाविक दिशा में अग्रसर नहीं था
और शुक्ल जी दोनों से असहमत देखते हैं।
मध्यकालीन रीति परिवेश से मुक्त और आधुनिकता
में उसका स्वाभाविक स्वच्छंदतावाद का विकास लोक भाषाओं के साहित्य में दिखाई पड़ता
है। हिंदी का स्वच्छंदतावाद जिसे छायावाद कहते हैं, वह अंग्रेजी और बंगला के ही रास्ते पर न चला वह भाषा और भाव
दोनों स्तर पर अधिकतर संस्कृत साहित्य की ओर मुड़ गया। हिंदी ने जब यह रास्ता अपना
लिया तो लोक कवियों के लिए वह जगह न बची और अब हिंदी विद्यापति, जायसी, सूर और मीरा वाली हिंदी न रही। जो लोग
विद्यापति, जायसी, सूर और मीरा वाली हिंदी में साहित्य लिख रहे थे,
अपनी जनभाषाओं में सिमटकर रह गए, उस तरफ हिंदी के मूर्धन्य आलोचकों की नजर न
गई।
20वीं शताब्दी के आरंभ में ही हिंदी साहित्य के
इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना घटित होती है और इस तरफ विद्वानों का ध्यान बहुत कम
गया है। बद्रीनारायण लिखते हैं कि, “ 20वीं शताब्दी के आरंभ में द्विवेदी युग के रूप में उभरे साहित्यिक आंदोलन में
जब कविता में छंद, व्याकरण, शुद्धि, अशुद्धि, लोक शब्दों की
जगह हिंदी के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग इत्यादि आभिजात्य और शास्त्रीय उपकरणों पर
अत्यधिक ज़ोर दिया जाने लगा तो शास्त्र और लोक के बीच खाई बढ़ी। अंतर्विरोध तेज हुआ
तो लोक को यह महसूस हुआ कि शास्त्र न तो उसकी इयत्ता को स्वीकार करता है, न ही उसके हितों के लिए संघर्ष करना चाहता है।
ऐसे में लोक का शास्त्र से मोहभंग हुआ।...इसी मोह भंग की रचनात्मक क्षेत्र में
अभव्यक्ति अनेक लोक कवियों के उद्गार के रूप में होती है। 1920 के बाद लोक भाषाओं में अनेक क्षेत्रीय कवियों
का उभार हुआ, जिन्होंने अपने
क्षेत्र में सर्वाधिक लोकप्रियता पाई। चूंकि ये कवि सामान्य जन के मन की, उनकी क्रिया प्रतिक्रियाओं की अत्यंत ईमानदार
अभिव्यक्ति दे रहे थे, इस लिए इनका
जनाधार अत्यन्त मजबूत था। ”6
हिंदी में लोकोन्मुख स्वाभाविक धारा की शुरुआत
भोजपुरी में भिखारी ठाकुर(1887-1971) और अवधी में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’(1898-1942) ने की थी। यह लोकोन्मुख स्वाभाविक धारा की
परंपरा हिंदी में आज भी गतिमान है, यहाँ तक कि
भोजपुरी और अवधी में ही नहीं अनेक मातृभाषाओं में रचना करने वाले कवियों की संख्या
आज सैकड़ों से हजारों में हो गई है। इन कवियों ने अपने लोक की स्वाभाविक छटा को
कविता में बड़ी व्यापकता के साथ प्रयोग किया जो शिष्ट साहित्य में नहीं दिखाई देता।
‘पढ़ीस’ अवध के गंवईं परिवेश में उपजे अवधी भाषा के लोक कवि हैं। उनकी कविताएं वहाँ के
किसानी जीवन की उपज हैं। पढ़ीस की कविताओं का आधार किसान, मजदूर और स्त्रियाँ हैं। इनके दुख-दर्द को एक लोक कवि ही
महसूस कर सकता है और उन्हीं की भाषा में कहा सकता है। पढ़ीस सच्चे अर्थों में लोक
चेतना के कवि हैं। उन्होंने अपने लोक को बड़ी गहराई से देखा है, इसका कारण है कि वे पहले किसान हैं, बाद में कवि। उनकी लोक चेतना शुद्ध भारतीय
प्रगतिशीलता का परिचायक है। भारत की अर्थ
व्यवस्था मूल रूप से कृषि पर निर्भर है और एक किसान की जितनी दीन-हीन दशा हो सकती
है उसका उदाहरण बाहर खोजने की जरूरत नहीं। या बेशर्मी की हद हो सकती है। भारत की
सबसे उपजाऊ भूमि के किसान की स्थिति पढ़ीस की कविता में देखिये-
“दुनिया के अन्नु
देवय्या हम,
सुख संपत्ति के
भरवय्या हम
भूखे नंगे अधमरे
परे
रकतन के आँसू
रोयि रहे
हम का द्याखति अंटा चढ़ीगे
उयि का जानिनि हम को आहिन ॥
ज्याठ की दुपहरी,
भादउं बरखा
माह कि पाला पथरन
मा
हम कलपि-कलपि अउ
सिकुरि-सिकुरि
फिरि
ठिठुरि-ठिठुरि कयि जीउ देयी
ठाकुर सरपट-सो कहिगे
उयि का जानिन हम को आहिन ॥”6
इस कविता के
यथार्थ में ‘उयि का जानिन हम
को आहिन’ अर्थात वह जो सामंत हैं,
जो पूंजीपति हैं, जो लखनऊ और दिल्ली से भारत की अर्थ व्यवस्था सभाले हैं,
वे हमें क्या जाने और क्यों जाने कि हम कौन
हैं। देश का ही नहीं दुनिया का भरण-पोषण करने वाले हम किसान हैं, लेकिन हम ही भूख से मर रहे हैं। दुनिया की
नग्नता को ढकने वाले हम ही नंगे हैं, हम अपने लिए कपड़े की व्यवस्था नहीं कर सकते। याने दुनिया को रोटी कपड़ा देने
वाले हम अपने लिए रोटी-कपड़े की व्यवस्था नहीं कर सकते। उच्च-वर्ग (Capital
Class) हमारे ही श्रम पर वैभव का
विलास भोग रहा है और हम खून के आँसू रो रहे हैं। हमको देख कर ऊपर चढ़ जाने वाले
जमीदार, राजा साहब, नेता जी हमें जानते ही नहीं कि हम कौन हैं। हम
बैसाख-जेठ की चिलचिलाती धूप, सावन-भादों की
मूसलधार बारिश और पूस-माघ के पाला-पत्थरों में जान देते हैं। अपने अथक परिश्रम से
जब हम अन्न उपजाते हैं, फसल कटती है तो
सब ठाकुर साहब की बखार में चला जाता है और हम जस के तस रह जाते हैं।
किसान के दर्द को वही आदमी महसूस कर सकता है जो
किसान हो। इस कविता में गरमी (कलपि-कलपि) बारिश (सिकुरि-सिकुरि) ठंठ
(ठिठुरि-ठिठुरि) का इंद्रिय बोध एक सच्चा किसान कवि ही कर सकता है और इसकी
अभिव्यक्ति अपनी लोक भाषा में ही हो सकती है। पढ़ीस जायसी और तुलसी की परंपरा के
कवि हैं, उनकी जड़ बेबुनियाद नहीं।
और यह सोलहों आने सच है कि जिसे आज आधुनिक हिंदी साहित्य कहते हैं किसानी जीवन को
इतनी संजीदगी से बयान करने वाला कोई कवि नहीं हुआ।
अपने समय के परिवेश को जिस तरह तुलसी ने
अभिव्यक्त किया था उसी तरह पढ़ीस ने अपने आस-पास के जीवन को कविता में समेटा है और
एक किसान कवि होने का पूरा परिचय दिया है। तुलसीदास अपनी ‘कवितावली’ में अपने समय का
चित्र खींचते हैं-
“खेती न किसान को,
भिखारी को न भीख भली
बनिक को बनिज न
चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग
सिद्यमान सोच बस
कहें एक-एकन सो
कहाँ जाई का करी॥”8
ये पंक्तियाँ
उत्तर भारत के एक संत का दर्शन प्रस्तुत करती हैं, जिसने अपने जीवन को एक किसान परिवेश में जिया है। यहाँ सबसे
बड़ी बात यह है कि तुलसी की यह कृति ब्रज भाषा में है, वैसे ब्रज भाषा
प्रेम के एकांगी रूप को ही लेकर चली है , लेकिन तुलसी ने पहलीबार लोकधर्म से जोड़ा है, फिर भी ब्रज भाषा की आगे की कविता अपनी बनी- बनाई गलियों
में ही भटकती रही, इस पथ पर न चल
सकी।
हिंदी में तुलसीदास सबसे बड़े लोकवादी कवि हैं,
तुलसी को अवध की जनता ही नहीं, पूरे देश की जनता आज भी गाती है। लोकवादी होने
का यह भी बड़ा प्रमाण है कि लोक ने उन्हें स्वीकार किया। पढ़ीस ने तुलसी पर एक कविता
उसी तरह लिखी है जिस तरह लोक उन्हें स्वीकार करता है। उसमें कोई भी बनावटीपन नहीं
है।
बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ को डॉ. रामविलास
शर्मा ने हिंदी में वर्ग-चेतना का पहला कवि माना है। यह वर्ग-चेतना उनकी बहुत सी
कविताओं में दिखाई पड़ती है। उन्होंने किसान मजदूर और जमीदार के बीच का फर्क बहुत
अच्छी तरह देखा था। वह राजघराने के शागिर्द बहुत दिनों तक रहे, लेकिन राजघराने का जमीदारीपन उन्हें अपनी तरफ
बिलकुल भी नहीं खींच पाया। वह पक्के देहाती थे और देहाती होने का स्वाभिमान उनमें
था। इसी स्वाभिमान ने तो राजघराना ठुकरा दिया। उन्होंने वहाँ रह कर जमीदार और
किसान-मजदूर के बीच एक गहरा अंतर देखा। यही समझ उनकी कविता में एक क्रांतिकारी के
रूप में दिखाई देती है। पढ़ीस जी की एक कविता ‘उयि अउर आयिं हम अउर आन’ हैं, इस कविता में
उन्होंने वर्ग-संघर्ष की दो टूक बात अपनी मातृभाषा में कही है, वह अद्वितीय है-
“सोंचति समझति
यतने दिन बीते
तहूँ न कहूँ खुली
आँखी ?
काकनि यह बात
गाँठि बाँधउ
उयि अउर आयिं हम अउर आन !
उयि लाट कमहटर के
बच्चा,
की संखपतिन के
परप्वाता,
उयि धरमधुरंधर के
नाती,
दुनिया का बेदु
लबेदु पढ़े,
उयि दया करैं तब
दानु देयिं,
उयि भीख निकारैं
हुकुम करैं,
सब चोर-चोर
मौस्याइति भाई,
एक-एक पर ग्यारह
हैं
तोंदन मा गड़वा
हाथी अस
उयि अउर आयिं हम अउर आन !”9
डॉ. रामविलास
शर्मा इस कविता के बारे में लिखते हैं - "वर्ग चेतना को लेकर लिखी हुई यह
हिंदी की पहली कविता है।"10 उन्होंने आगे यह
भी लिखा है कि "उस समय हिंदी में बहुत कम लोग जानते थे कि वर्ग चेतना किसे
कहते हैं और किसान जमीदार का संघर्ष क्या होता है।"11 पढ़ीस में यह समझ उनकी लोक चेतना से उपजी है, इसे ही हम सच्चे अर्थों में आधुनिक कहेंगे।
दुनिया का बेद-लबेद पढ़ कर यदि आप अपनी जमीन से दूर चले गए, तो आप की क्रांतिशीलता और प्रगतिशीलता शुद्ध ढोंग के सिवा
और कुछ नहीं। ऐसे पढ़े-लिखे याने विशेष अर्थ में होशियार लोगों का वर्ग गँवईं लोक
को नजरंदाज करता रहा और लोक को असभ्य समझता रहा। उनकी दृष्टि में सभ्य और शिष्ट
बाहर से बने-ठने और अपने अंदर के स्वभाव को दबाये हुये याने दोहरे आचरण वाले लोग
हैं। पढ़ीस के व्यंग्य में बड़ी गंभीरता है, 'भले मानुस' कविता में ऐसा ही
व्यंग्य देखिये-
"भलमंसी का जमा
पहिन्दे,
हम आहिन बड़े भले
मानुस।
चद्दरयि चारि
तकिया त्यारह
मलमल मखमली फूल
वाली
महलन माँ मौज
उड़ायिति हयि,
अपछरा नचायी
मतवाली ।
गुदगुदे गद्यालन पर पउढ़े
हम आहिन बड़े भले मानुस।
पूरी पकवानु
मिठाई अउ
छप्पनउ भ्वाग
छत्तिस ब्यिंजन
घिउ के कुल्ला हम
रोजु करी
सरि जाय कठउतिन
भरि भोजन
ह्वैयि जाय अजीरन खाति खाति ।
हम आहिन बड़े भले मानुस ॥"12
शिष्ट संस्कृति
याने शहरी सभ्यता के लोग अपने को भले आदमी इस लिए मानते हैं कि हम भलमनसीदार कपड़े
पहनते हैं, हमारे पास चार-छः अच्छी
चादरें हैं, मलमल की मखमली
दस-बारह तकिया हैं, गुदगुदे गद्दों
पर आराम फरमाते हैं, हम इसलिए भले
मानुष हैं। और हमारे घर शहर के कोठे से सुंदर युवतियाँ मुजरा करने आती हैं,
हम इसलिए भले मानुष हैं। हमारे यहाँ दुनिया भर
के तरह-तरह के व्यंजन बनते हैं, थोड़ा-बहुत खाते
हैं बचता है सो कठौतों में पड़े-पड़े सड़ जाता है, हम लोग भूख से नहीं, खाते-खाते बीमार हो जाते हैं, कुल मिला कर कहने का मतलब - हम शिष्ट हैं, सभ्य हैं, भले मानुष हैं।
सभ्यता की इस मानसिकता का विरोध करती हुई हिंदी
में यह पहली कविता है और ऐसी कविता हिंदी के इतिहास में आज भी दुर्लभ है। इसमें
पढ़ीस ने यह दिखाया है कि इस चलन के दौर में सभ्य होने का दूसरा नाम शोषक है,
क्योंकि मेहनत की गाढ़ी कमाई से गुलछर्रे नहीं
उड़ाए जा सकते। वह इस तथ्य को भी उजागर करते हैं-
"हंयि गाउं गेरावं,
जिमीदारी,
दुइ मिलयि खुलीं
सक्कर वाली
सोंठी साहुन के
परप्वाता,
हंडी चलती मोहर
वाली।
बंकन माँ रुपया भरा परा
तिहिते हम बड़े भले मानुस "13
पढ़ीस ने जिस
देहाती मिजाज में कविताएं लिखी हैं, उनका स्वर अवधी में नई लीक डालता है। वंशीधर शुक्ल और रमई काका पढ़ीस मार्ग के
अनुयाई हैं। इस त्रयी ने अवधी में जो साहित्य रचा वह हिंदी में आज भी दुर्लभ है।
अपने को देवता समझने वाले सभ्य लोग
किसान-मजदूरों को कितनी हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके श्रम को उनका भाग्य समझते
हैं । जमीदार, पूंजीपति किस
नजरिए से इन्हें देखते हैं, पढ़ीस की कविता
देखिये-
"तुम भुंखेन मरउ,
मरउ भइया,
नंगे उघार झख
मारि-मारि
हम तउ मनइन माँ
द्यउता हन
यहु का जानी करतब
तुम्हार
हम पर आनंद रूप बरसयि
हम आहिन बड़े भले मानुस।
तुम घाम लूक की
ऊकन माँ
तावा अस तपउ- तपउ
ज्ञानी।
पाला, पाथर, पानी भ्वागउ
विधना की अजभुत
बनी ।
हम हन पढ़ीस, हम बुद्धिमान
तिहि ते हम बड़े भले मानुस ।"14
याने हम बिलायती
ज्ञान पढ़े-लिखे, बुद्धिमान हैं,
हमको तुम्हारे श्रम से कोई सहानुभूति नहीं।
हमें तो राजमहलों में देवत्व प्राप्त है, किसानों-मजदूरों के श्रम पर हमें मजा करना ही आता है। पढ़ीस की इसी परंपरा में
वंशीधर शुक्ल आते हैं उन्होंने इन्हीं कुलीन धनपतियों पर एक बड़ी महत्वपूर्ण कविता
लिखी है जिसमें उन्होंने राजा के महलों का सच दिखाया है, यहाँ शुक्ल जी का इशारा राजधानी के नेताओं और राजनीतिज्ञों
की ओर भी है। वंशीधर शुक्ल अपनी कविता 'राजा की कोठी' में लिखते हैं-
"ईंट किसानन के
हाड़न की, लगा खून का गारा,
पत्थर अस जियरा
मजूर का, चमक आंखि का तारा।
लगी देस भगतन की
चरबी, चिकनाई जुलमन की,
घंटा ठनकइ
अन्यायन का कथा होइ पापन की ।
जहां बसइ ऊ जम का भइया, खाय खून की रोटी,
हुंवइ बनी बूचड़खाना असि यह राजा की कोठी
॥"15
इस प्रकार वंशीधर
शुक्ल ने भी अपने किसानी नजरिये को राजमहलों और राजसत्ता के शोषण तंत्र को बड़ी
ईमानदारी से बयां किया है। आप अवधी की इस रचनाधर्मिता को देखें। अवधी में इस तरह
की चेतना लाने का वीड़ा पढ़ीस ने उठाया था।वे युग प्रवर्तक कवि हैं।
अवधी में जिस तरह
पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल ने शोषण के विरुद्ध लोकवादी नजरिये से कविताएं लिखीं उसी तरह
चंद्र भूषण त्रिवेदी 'रमई काका'
ने भी अच्छी कविताएं लिखीं। काका की एक कविता 'खरिहान' से कुछ बानगी देखिये-
"यह रासि पैसरम का
फलु है
औ मनसा आसा का
बलु है
यहि माँ पुरिखनि
कै कुलकनि है
खेतिहर के जी कै
ललकनि है
जानै केतनी
अभिलास भरी
हिरदय कै हरस
हुलास भरी
यहु सब का जानै
जिलेदार
बसि प्वात निकारै
का बिचार।"16
हमारे परिश्रम को
भला जिलेदार क्या जानेगा। वह तो बस सूत ब्याज और लगान का दंद-फंद बताकर, खलिहान से ही सब अन्न भर ले जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पढ़ीस ने अवधी काव्य
का मायर बदला। उन्होंने अवधी में जो लीक डाली उस पर चलने वाले सैकड़ों किसान कवि
अवध में पैदा हुये। यह लोक की व्यापक सत्ता का स्वरूप है। उनके महत्व को स्वीकार
करते हुये अमृतलाल नागर लिखते हैं-"हमें याद है उनकी अवधी की अनेक कविताएं
हैं- किसी बड़े हिंदी के कवि की रचनाओं के मुक़ाबले में निःसंकोच रख सकता हूँ।"17 निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि पढ़ीस जैसे
चेतना सम्पन्न किसान कवि भारतीय साहित्य की धरोहर हैं, उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है जिसकी आज साहित्य में नितांत
कमी है।
संदर्भ
1.रामचंद्र शुक्ल.(2007).हिंदी साहित्य का इतिहास.दिल्ली, अशोक प्रकाशन. पृष्ठ 76
2.सं. रामविलास
शर्मा.(1998).पढ़ीस
ग्रंथावली.लखनऊ. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान. पृष्ठ 7.
3. सं.रामविलास
शर्मा.(1943, फरवरी).माधुरी ‘पढ़ीस अंक’ लखनऊ. पृष्ठ 6
4 .रामचन्द्रशुक्ल.(2007).हिंदी साहित्य का इतिहास.दिल्ली, अशोक प्रकाशन.. पृष्ठ 356
5 वही
6. बद्रीनारायण.(1994).लोक संस्कृति और इतिहास. इलाहाबाद.लोकभरती
प्रकाशन पृष्ठ.37
7. .सं. रामविलास
शर्मा.(1998).पढ़ीस
ग्रंथावली.लखनऊ. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान. पृ.79
8. रामचन्द्र
शुक्ल.(1974).तुलसी ग्रंथावली,
द्वितीय खंड,वाराणसी.नागरी प्रचारणी सभा पृष्ठ 186
9. .सं. रामविलास
शर्मा.(1998).पढ़ीस
ग्रंथावली.लखनऊ. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान. पृष्ठ 148
10. वही पृष्ठ 7
11. वही पृष्ठ 8
12. वही. पृष्ठ 107
13. वही. पृष्ठ 107
14. वही पृष्ठ 108
15.मधुप,श्याम सुंदर
मिश्र.(2003).वंशीधर शुक्ल
रचनावली.लखनऊ.उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान.पृष्ठ. 116
16. चंद्र भूषण
त्रिवेदी.(1944) बौछार. लखनऊ.
ग्राम साहित्य मंदिर. पृष्ठ .84
17. .सं. रामविलास
शर्मा.(1998).पढ़ीस
ग्रंथावली.लखनऊ. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान. पृष्ठ 5
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
शोध-छात्र,
हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग,म.गां.अं.हिंदी
विश्वविद्यालय,वर्धा
(महाराष्ट्र)
मो. 7057467780, ईमेल- shailendrashukla.mgahv@gmail.com
बहुत ही सुन्दर प्रयास अवधी के लिए जी धन्यवाद
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