त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
केदारनाथ अग्रवाल: किसानों के प्रति प्रतिबद्ध, संबद्ध, आबद्ध कवि/ रूपांजलि कामिल्या
साहित्य एक ऐसा
सशक्त माध्यम है जिसमें किसी भी देश की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और
आर्थिक यथार्थ का चित्रण रहता है। समाज का यथार्थ सच्चे अर्थ में साहित्य में ही
देखने को मिलता है, क्योंकि कोई भी
साहित्यकार अपने समाज के यथार्थ को अनदेखा कर साहित्य का सृजन नहीं करता है। ऐसा
कभी नहीं होता है कि समाज की धारा कुछ और हो तथा साहित्य की धारा अलग हो। वह
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज की विसंगतियों एवं समस्याओं को अपनी रचनाओं में
अवश्य ही शामिल करता है। भारतीय किसानों की जो दयनीय दशा है, उसका भी अत्यंत मार्मिक, सजीव एवं यथार्थ चित्रण हिंदी साहित्य में उपलब्ध है। हिंदी
कविता में जब हम किसान जीवन के यथार्थ की छानबीन करते हैं तब हम पाते हैं कि
किसानों की दुर्दशा का चित्रण आधुनिक कविताओं से बहुत पहले ही मध्यकालीन कविता में
हो चुका है। तुलसीदास कलियुग के वर्णन के सन्दर्भ में कहते हैं कि “खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,
भलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।”
‘खेत’ किसान के जीविकोपार्जन का सबसे मुख्य साधन है और वही उनके पास नहीं है। कहने
का तात्पर्य यह है कि आज किसानों की जो दयनीय दशा है, उसका आभास तुलसीदास को अपने समय यानी मध्यकाल में ही हो
चुका था। अतः निश्चय ही उनके समय में भी किसानों की हालत बहुत अच्छी नहीं थी|
अर्थात् किसानों की स्थिति कभी भी सुविधाजनक
नहीं रही है| वे शुरू से ही
जीने के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं। आधुनिक हिंदी कविता में भी किसानों के
दुःख-दर्द का वर्णन भारतेंदु युग की कविताओं से ही शुरू हो जाता है। भारतेंदु,
बालमुकुन्द गुप्त, बद्री नारायण चौधुरी ‘प्रेमघन’ की कुछ-कुछ
कविताओं में किसानों के अभिशप्त जीवन की करुण गाथा की झांकी मिलती है। द्विवेदी
युगीन कविता में किसान जीवन के यथार्थ को चित्रित करने की परंपरा को आगे बढ़ाने
वाले कवियों में गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ एवं मैथिलीशरण गुप्त सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।
सनेही जी द्वारा लिखित ‘दुखिया किसान’,
‘कृषक क्रंदन’ आदि एवं गुप्त जी द्वारा रचित ‘कृषक कथा’, ‘भारतीय कृषक’,
‘किसान’ आदि में किसानों की दयनीय दशा का चित्रण किया गया है तथा कृषकों के प्रति
शिक्षित जनता का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा मैथिलीशरण
गुप्त ने ‘भारत भारती’ एवं ‘साकेत’ में परोक्ष रूप से किसानों
की अवस्था तथा मानव सभ्यता के एक महत्त्वपूर्ण आयाम के रूप में किसान जीवन को
प्रतिष्ठित किया है। छायावादी कवियों में किसान जीवन के यथार्थ का सशक्त वर्णन
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कई कविताओं में रूपायित हुआ है। ‘बादल राग’, ‘दीन’, ‘विनय और उत्साह’,
‘पाचक’ आदि कविताओं की केन्द्रीय प्रतीति किसान जीवन ही है। छायावाद के दूसरे कवि
सुमित्रानंदन पंत ने भी किसानों पर आधारित कुछ कविताओं का सृजन किया है। ‘युगांत’, ‘युगवाणी’, ‘ग्राम्या’
संकलन की कई कविताओं में किसान जीवन उपस्थित
है। किसान जीवन पर आधारित उनकी ये कविताएँ प्रगतिवादी कविताओं के अंतर्गत हैं।
भारतेंदुयुगीन कविता से लेकर छायावादी कविता तक, जितने भी किसान सम्बन्धी कविताएँ लिखी गयीं, उन सब में केवल किसान जीवन के दुर्दशा को
अत्यंत मार्मिक एवं करुण ढंग से ही चित्रित किया गया लेकिन प्रगतिवादी कविताओं में
पहली बार किसान जीवन की दुर्दशा के साथ-साथ किसानों में चेतना जागृत करते हुए
संघर्ष के लिए उन्हें प्रेरित किया| यही कारण है कि किसान आन्दोलन को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला और तीव्र स्वर
प्रगतिवादी कविता में ध्वनित होता है। अतः प्रगतिवादी कविता में किसान जीवन का
यथार्थ सबसे अधिक सजग, सुनियोजित एवं
वैचारिक क्षमता लिए हुए है। नागार्जुन, त्रिलोचन, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ आदि इसी धारा के कवि हैं। इसी परंपरा के और प्रमुख कवि केदारनाथ अग्रवाल हैं।
केदारनाथ अग्रवाल
किसानों के प्रति प्रतिबद्ध, संबद्ध, आबद्ध कवि हैं। वह एक ऐसे जनवादी कवि हैं जो
जनवाद के आधार पर जनता की भूमिका तय करते हैं। उनका जनता पर अटूट विश्वास है। जन
सामान्य के यथार्थ की सबसे प्रखर अभिव्यक्ति कवि ने अपनी कविता में मेहनतकश जनता
के माध्यम से किया है। खासकर किसान जीवन की सभी झांकियों के वास्तविक चित्र उनकी कविताओं
में देखे जा सकते हैं। किसान उनकी कविताओं में अपनी जीवंत दुनिया के साथ मौजूद है।
किसान का
सम्पूर्ण जीवन, उसकी समस्त
आशाएं-आकांक्षाएं, उसके सुख-दुःख,
सबकुछ उसकी धरती से ही जुड़े रहते हैं। वे
रात-दिन एक करके अपने अथक परिश्रम से सर्दी, गर्मी एवं बरसात की परवाह किये बगैर धरती को उपजाऊ बनाते
हैं तथा अपने परिवार के साथ-साथ सम्पूर्ण देश के लिए भी फसल उपजाते हैं। इसलिए
केदार इस धरती पर सबसे ज्यादा अधिकार किसान का ही मानते हैं, वही धरती के सच्चे हक़दार हैं। वह लिखते हैं कि
-
“यह धरती है उस
किसान की,
जो मिट्टी का
पूर्ण पारखी,
जो मिट्टी के
संग-साथ ही,
तपकर, गलकर,
जीकर, मरकर,
खपा रहा है जीवन
अपना,
देख रहा है
मिट्टी में सोने का सपना ; . . .
यह धरती है उस
किसान की।” ( ‘धरती’ )
किसान निस्वार्थ
भाव से सम्पूर्ण देश के लिए अन्न उपजाता है पर समाज द्वारा सबसे अधिक वही ठगा जाता
है। केदार जी भारत के इसी किसान पर कविता लिखते हुए इन्हें असली भारत पुत्र कहते
हैं। इतने शोषण, मेहनत एवं ठगे
जाने के बावजूद उनमें सच्चापन बरक़रार रहता है। केदार जी को इन किसानों पर बहुत
गर्व है, वे भारत के अभिमान हैं –
“मैं तुम पर कविता
लिखता हूँ
कवियों में तुमको लेकर आगे बढ़ता हूँ
असली भारत पुत्र तुम्हीं हो
असली भारत पुत्र तुम्हीं हो
मैं कहता हूँ|” ( ‘किसान स्तवन’
)
हमारे देश में
किसान की हालत सबसे ज्यादा दयनीय है। उसके इतने परिश्रम के बावजूद उसे न ही अपना
सही पारिश्रमिक मिल पाता है और न ही भरपेट खाना उसके नसीब में होता है। कैसी
अद्भुत विडम्बना हमारे देश के किसानों की है। दिन-रात मर-मर कर फसल उपजाने वाले,
करोड़ों लोगों के पेट को भरनेवाले स्वयं भूखे
तड़पते हैं। उसे आजीवन गरीबी और अभाव में ही जीवन व्यतीत करना पड़ता है। यह सिलसिला
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। इस प्रसंग का एक मार्मिक चित्र केदार जी के निम्नलिखित
कविता में स्पष्ट दिखाई पड़ता है –
“जब बाप मरा तब यह पाया,
भूखे किसान के बेटे ने :
घर का मलवा, टूटी खटिया,
कुछ हाथ भूमि – वह भी परती। . . .
वह क्या जाने आजादी क्या ?
आजाद देश की बातें क्या ? ?” ( ‘पैतृक संपत्ति’
)
केदार जी की इस
मार्मिक कविता में आज़ादी की निरर्थकता प्रतीत होती है। एक गरीब किसान, जिसके पास न खाने को भरपेट खाना है, न बदन ढांकने को पूरा कपड़ा है और न सर के ऊपर
घर है, उसको देश की आज़ादी से
क्या मतलब ? उसके लिए आज़ादी
की परिभाषा शहरी बुद्धिजीवियों से सम्पूर्ण अलग है और यह स्वाभाविक भी है।
शोषित किसान जब अपने हक़ के लिए आवाज़ उठते हैं
एवं अपने ऊपर हुए अन्याय का प्रतिवाद करते हैं तब उन्हें अभियुक्त एवं अपराधी करार
दिया जाता है। यहाँ किसान के चेतनामय रूप को एवं व्यवस्था के प्रति उसके संघर्ष को
केदार जी ने समाज के सामने प्रतिपादित किया है –
“ अभियुक्त 110 का,
बलवान, स्वस्थ,
प्यारी धरती का
शक्ति पुत्र,
चट्टानी छातीवाला,
है खड़ा खम्भ-सा
आँधी में
डिप्टी साहब के
आगे। . . . ” (‘110 का अभियुक्त’)
तुलसीदास ने
कलियुग के विपक्ष में जिस रामराज्य की कल्पना की थी, उस रामराज्य में केदार जी ने आग लगने की बात की है। तुलसी
रामराज्य की जो छवि प्रस्तुत करते हैं वह रामराज्य कभी आया ही नहीं। इसके विपरीत
एक ऐसा राज्य हमें मिला जहाँ मेहनत करनेवाले किसान भूख से तड़पते रहते हैं और
किसानों का रक्त चूसनेवाले जमींदार, मिल मालिक खा-खा कर पेट बड़ा करते जा रहे हैं। गरीब का शोषण कर अमीर और अमीर
बनता जा रहा है। ऐसे रामराज्य में केदार जी आग लगाने की बात करते हैं –
“आग लगे इस
राम-राज में
ढोलक मढ़ती है अमीर की
चमड़ बजती है गरीब की . . . ” (‘आग लगे इस
राम-राज में’)
अशोक त्रिपाठी ने
केदारनाथ अग्रवाल के सम्बन्ध में लिखा है कि “केदार धरती के कवि हैं - खेत, खलिहान, कारखाने, और कचहरी के कवि हैं। इन सबके दुःख-दर्द,
संघर्ष और हर्ष के कवि हैं। वे पीड़ित और शोषित
मनुष्य के पक्षधर हैं। वे मनुष्य के कवि हैं। मनुष्य बनना और बनाना ही उनके जीवन
की तथा कवि-कर्म की सबसे बड़ी साध और साधना थी।” जनवादी कवि होने
के कारण केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी कविताओं में ग्रामीण प्रकृति को अधिक महत्व दिया
है, जिनमें सर्वत्र किसान
विद्यमान हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में प्रकृति का साक्षात्कार किसान जीवन से
जुड़ी हुई विविध संवेदनाओं से किया है। यह प्रकृति किसान के श्रम से ही परिवर्तित
एवं परिवर्द्धित होता है। प्रकृति में वसंत का आगमन भी किसान द्वारा बोई गयी सरसों
के पीले फूलों के माध्यम से व्यक्त होता है। गुलाबी रंग के फूलों से सजे मुरैठा की
तरह दीखने वाला चने का पौधा किसान के श्रम की गरिमा को उद्घोषित करता है। चौड़े
खेतों में लाखों की अगणित संख्या में गेहूँ सर उठाकर फागुन की हवा के झोंके से
बिना डरे डटकर लहराता रहता है। ये सब किसान के पसीने से सिंचित हैं। केदारनाथ
अग्रवाल की कई कविताओं में किसान का श्रम एवं कर्म अत्यंत जीवन्त रूप में
प्रतिबिंबित होता है। ‘कटुई का गीत’, ‘खेतिहर’, ‘छोटे हाथ’,
‘किसान से’ आदि उनके कुछ ऐसी ही कविताएँ हैं। प्रकृति की सौन्दर्यता,
किसानों के श्रम एवं कर्म से ही बरक़रार है।
खेत और किसान एक
ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का कोई मोल नहीं है। खेत को उपजाऊ
बनानेवाला किसान होता है और किसान के जीविकोपार्जन का मूल आधार खेत ही है। केदार
जी ने खेत और किसान का सम्बन्ध राधा और कृष्ण के जैसा माना है। वह अपने एक कविता
में खेत को राधा के रूप में और किसान को कृष्ण के रूप में प्रतिष्ठित किया है –
“आसमान की ओढ़नी ओढ़े,
धानी पहने
फसल घँघरिया,
राधा
बन कर धरती नाची,
नाचा हँसमुख
कृषक सँवरिया।” ( ‘खेत का दृश्य’)
सरकार किसानों के
लिए न जाने कितनी विकास-योजनाएँ बनाती आ रही है, पर सच्चाई तो यह है कि वे सारी नीतियाँ न तो किसानों की
जमीनी हकीकत से जुडी है और न उनकी बुनियादी समस्याओं से। ये सब राजनीतिक हथियार
हैं, जो बनते तो हैं किसानों
के लिए पर उनका फायदा राजनीतिक दल उठाते हैं जिसे दिखाकर वोट बटोरा जाता है।
वास्तव में किसानों का भला कोई नहीं चाहता। पहले जमींदार उन्हें लूटते थे अब
योजनाओं के आड़ में चेहरे बदलती सरकारें उन्हें लूट रहे हैं। इसीलिए भारतीय किसान
कर्ज में ही जन्म लेता है और अंतिम तक कर्ज में ही डूबा रहता है। फिर अंत में
निरुपाय एवं त्रस्त होकर आत्महत्या कर लेता है। वास्तव में इन योजनाओं का मूल
उद्देश्य किसानों को ऋण के नीचे दबाकर रखने का एक षड्यंत्र मात्र है। इस षड्यंत्र
का स्पष्ट रूप केदार जी की निम्नलिखित पंक्तिओं में मौजूद है, जहाँ वह कहते हैं कि –
“ पंचवर्षी योजना
की रीढ़ ऋण की शृंखला है,
पेट
भारतवर्ष का है और चाकू डालरी है।
संधियाँ व्यापार की अपमान की कटु ग्रंथियाँ हैं,
हाथ
युग के सारथी हैं, भाग्य-रेखा चाकरी
है।| ” ( ‘वास्तव में’ )
केदारनाथ अग्रवाल
के किसान जीवन से जुड़ी हुई इन कविताओं के विवेचन से यह स्पष्ट पता चलता है कि उनकी
कविता में किसानों का दुःख-दर्द भी है, उनके आवेग भी हैं, उनका उत्साह भी
है एवं मेहनत की कला से युक्त चेतना भी है। उनकी कविता मूलतः किसानों की अदम्य
जिजीविषा एवं उनके अथक श्रम को चित्रित करती है। उन्होंने किसान जीवन के यथार्थ के
लगभग सभी पहलुओं को अपनी कविताओं में सफल रूप से प्रतिष्ठित किया है। किसानों के
श्रम एवं कर्म का जीवन्त रूप उनकी कविताओं में देखने को मिलता है। केदार जी की इन
कविताओं का एक और पक्ष मानवीय प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण है। यह सूक्ष्म
निरीक्षण किसान जीवन के माध्यम से ही कवि ने व्यक्त किया है। अतः केदारनाथ अग्रवाल
की कविताओं में भारतीय किसान जीवन का सम्पूर्ण चित्र उपलब्ध है।
-
सन्दर्भ
1. तुलसीदास, कवितावली, गीताप्रेस,
गोरखपुर, पृ. – 116.
2. केदारनाथ अग्रवाल, प्रतिनिधि कविताएँ, ‘धरती’, कविता, पृ. – 30.
3. केदारनाथ अग्रवाल : प्रतिनिधि कविताएँ,
‘किसान स्तवन’, कविता, पृ. –
96-97.
4. केदारनाथ अग्रवाल : प्रतिनिधि कविताएँ,
‘पैतृक संपत्ति’, कविता, पृ. –
34-35.
5. केदारनाथ अग्रवाल : प्रतिनिधि कविताएँ ‘110 का अभियुक्त’, कविता, पृ. – 77.
6. केदारनाथ अग्रवाल : प्रतिनिधि कविताएँ ‘आग लगे इस रामराज में’ कविता, पृ. - 61.
7. अशोक त्रिपाठी, केदारनाथ अग्रवाल, प्रतिनिधि कविताएँ, सम्पादकीय,
पृ. – 11.
8. केदारनाथ अग्रवाल, प्रतिनिधि कविताएँ ‘खेत का दृश्य’, कविता, पृ. – 45.
9. केदारनाथ अग्रवाल, प्रतिनिधि कविताएँ, ‘वास्तव में’, कविता, पृ. – 65.
सन्दर्भ
1. केदारनाथ अग्रवाल
: प्रतिनिधि कविताएँ, संपादक - अशोक
त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, चौथा संस्करण-2016
2. डॉ० रामविलास
शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और
केदारनाथ अग्रवाल,परिमल प्रकाशन,
प्रथम संस्करण- 1986
रूपांजलि
कामिल्या
शोधार्थी (हिंदी विभाग) अंग्रजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय
ई-मेल kamilyarupanjali@gmail.com,मो.7382695721
Nice
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