त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
किसान जीवन की करुण कथा - ‘फाँस’ (संजीव)/भानु प्रताप प्रजापति
प्रसिद्ध
कथाकार संजीव का उपन्यास ‘फाँस’ किसानों
की समस्याओं पर केन्द्रित है। इस उपन्यास को संजीव ने इस देश के किसानों को
समर्पित किया है। उपन्यास के समर्पण में संजीव जी लिखते हैं कि- “सबका
पेट भरने और तन ढकने वाले देश के लाखों किसानों और उनके परिवारों को जिनकी ‘हत्या’ या ‘आत्महत्या’ को
हम रोक नहीं पा रहे हैं।” इस उपन्यास का सृजन संजीव ने महात्मा
गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के अपने एक वर्ष के अतिथि लेखक
(2011-12) के कार्यकाल के दौरान किया। संजीव उपन्यास के आभार वक्तव्य में लिखते
हैं कि- “इस उपन्यास को आधार देने का श्रेय
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
को जाता है, जहाँ (2011-12) के एक वर्ष के दौरान
अतिथि लेखक के रूप में मैंने इसकी शुरुआत की, जहाँ
से विदर्भ के विभिन्न जिलों की भूमि और भूमिपुत्रों की दशा-दिशा और दुर्दशा देखने
और समझने का मुझे अवसर मिला।” इस प्रकार उपन्यासकार संजीव
विश्वविद्यालय के अपने प्रवास के दौरान विदर्भ के किसान परिवारों के बीच गए और
उनके दु:ख-दर्द के साथ वहाँ की जमीनी हकीकत को भी जाना-समझा। इस सिलसिले में संजीव
उन किसान परिवारों से भी मिले जिनके परिजन
ने किसी कारणवश आत्महत्या कर ली थी। इस प्रकार वह किसानों की वास्तविक एवं जमीनी
हकीकत से परिचित हुए और साथ ही इस क्षेत्र तथा समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक
एवं राजनैतिक परिस्थितियों आदि से भी। इस प्रकार से संजीव का यह उपन्यास उनके
द्वारा किए गए फील्ड वर्क एवं गहन शोध का परिणाम है। ‘फाँस’ उपन्यास
की कथा कुल 42 अंकों तथा 255 पृष्ठों में समाहित है। इसमें विदर्भ के किसानों की
कथा के साथ-साथ भारत के उन तमाम किसानों तथा उनके परिवारों की कथा कही गयी है जो
खेती किसानी के कर्ज़ से परेशान होकर आत्महत्या कर लेते हैं।
पिछले
दो-तीन दशकों में विकराल रूप से बढ़ती किसान आत्महत्याएँ ही इस उपन्यास की
पृष्ठभूमि रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एन. सी. आर. बी. - नेशनल
क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के ताजा आँकड़ों के अनुसार- वर्ष 2014 के मुक़ाबले वर्ष 2015
में किसान आत्महत्याओं में 2% की बढ़ोत्तरी हुई है और अब यह प्रतिशत बढ़कर 42% हो
गया है। 30 दिसंबर 2016 को जारी एन.सी.आर.बी. रिपोर्ट ‘एक्सिडेंटल
डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015’ के अनुसार वर्ष 2015 में 12,602
किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की। वर्ष 2014 में यह संख्या 12,360
थी जबकि वर्ष 2015 में यह संख्या बढ़कर 12,602 हो गई। इस प्रकार देखा जाए तो वर्ष
2014 के मुकाबले 2015 में किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों के आत्महत्या के मामले
में 2 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई। इन आँकड़ों के अनुसार- महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा
किसानों ने आत्महत्या की है। सूखे की वजह से साल 2014 और 2015 खेती के लिए बेहद
खराब साबित हुआ। इसका सबसे ज्यादा असर महाराष्ट्र में दिखाई दिया। इन मौतों में
करीब 87.5 फीसदी केवल सात राज्यों में ही हुई हैं। साल 2015 में महाराष्ट्र में
4,291 किसानों ने आत्महत्या की। किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र के
बाद कर्नाटक है। कर्नाटक में वर्ष 2015 में 1,569 किसानों ने आत्महत्या कर ली।
तेलंगाना (1400), मध्य प्रदेश (1290), छत्तीसगढ़
(954), आंध्र प्रदेश (916) और तमिलनाडु (606) भी इसमें
शामिल हैं । इस रिपोर्ट के अनुसार किसानों और खेतों में काम करने वाले मजदूरों की
आत्महत्या का कारण कर्ज, कंगाली, और
खेती से जुड़ी दिक्कतें हैं। आँकड़ों के अनुसार आत्महत्या करने वाले 73 फीसदी
किसानों के पास दो एकड़ या उससे भी कम जमीन थी। ताजा जनगणना आँकड़ों के अनुसार-
पिछले कुछ वर्षों में किसानी छोड़ चुके किसानों की संख्या 80 लाख से भी अधिक है।
इसका कारण शायद एक ठोस व कारगर कृषि-नीति का अभाव है। इस प्रकार आज खेती-किसानी एक
मज़बूरी और संभावित मौत का नाम है। यह एक ऐसा मार्ग है जिस पर कोई विकल्पहीनता की
ही स्थिति में चले तो चले, पर स्वेच्छा से इस पर कोई नहीं चलना
चाहता। फिर भी इस देश में विकल्पहीन किसानों की कमी नहीं है। बहुत से ऐसे लोग हैं
जिनके पास खेती-किसानी के अलावा और कोई चारा भी नहीं है। एक शेतकरी (शिबू) की बेटी
कलावती कहती भी है- “इस देश के सौ में चालीस शेतकरी आज ही
खेती छोड़ दें अगर उनके पास कोई दूसरा चारा हो। 80 लाख ने तो किसानी छोड़ भी दी।”
इस प्रकार किसानों की आत्महत्या से
संबंधित प्रस्तुत यह आँकड़े, उनके आत्महत्या के पीछे के कारणों, परिस्थितियों, तथा
किसानों व किसान परिवारों की दयनीय दशा आदि को दर्शातें हैं। यह उपन्यास किसानों
की इसी ज़मीनी हक़ीक़त को हमारे सामने पेश करता है। किसानों में भी इसमें सुखाड़
विदर्भ क्षेत्र के किसानों की समस्याओं को प्रमुख रूप से उठाया गया है। विदर्भ के
बारे में सभी का मानना है कि- “विदर्भ कृषि का ज्वालामुखी है। सुप्त
ज्वालामुखी। कर्ज़ उतारना तो दूर, किसानों की आमदनी ही इतनी कम है कि
खेती में बने रहना मुमकिन नहीं।” विदर्भ
में कपास और गन्ना की खेती प्रमुख रूप से होती है। अत: यह उपन्यास मुख्य रूप से
कपास किसानों की समस्या पर केन्द्रित है, लेकिन
उपन्यास में कुछ ऐसे भी कथा-प्रसंग आएं हैं जिनके माध्यम से गन्ना किसानों की भी
समस्याओं पर विचार किया गया है। आज भूमंडलीकरण और सूचना संक्राति के इस दौर में
जहाँ कोई भी चीज़ कुछ मिनटों तथा सेकेंडों में वायरल होकर कहाँ से कहाँ पहुँच जा
रही है, वहीं पर इन किसानों की समस्याओं तथा
इनकी आत्महत्याओं से संबंधित कोई भी सही आँकड़ा, खबर
या रिपोर्ट किसी भी समाचार चैनल या समाचार पत्र की सुर्खियाँ नहीं बनती हैं।
सुर्खियाँ में तो छाए रहते हैं सेलिब्रेटी लोग। “मीडिया
की हजार-हजार आत्महत्याएँ कोई खबर नहीं बन पातीं हैं। खबर बनती है मुंबई में चल
रहे लक्मे फैशन वीक की प्रतियोगिता। 512 खबरिया चैनल जुटे हैं उसे कवर करने को।” इस प्रकार यह उपन्यास मीडिया के इस
दोहरे चरित्र को भी उजागर करता है।
‘फाँस’ किसान
जीवन से संबंधित प्रेमचंद के गोदान के बाद हिंदी का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास
है। इस उपन्यास के विषय में प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि- “भारत
में अब तक तीन लाख से अधिक संख्या में किसानों ने आत्महत्या की है। यह मानवता के
इतिहास की एक भयावह त्रासदी है और अमानवीय समाज-व्यवस्था का भीषण अपराध भी। इस
त्रासदी और अपराध के प्रतिरोध की प्रवृत्ति पैदा करने वाला यह उपन्यास ‘फाँस’ प्रेमचंद
के कथा साहित्य की प्रगतिशील परंपरा का आज की स्थिति में विकास करेगा” (उपन्यास
के फ्लैप से साभार)। सच में प्रेमचंद के ‘गोदान’ के
बाद भारतीय किसान जीवन की त्रासदी को प्रस्तुत करता ‘फाँस’ हिंदी
साहित्य का एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। किसान के लिये गाय, बैल, भेड़-बकरी, मुर्गा-मुर्गी
आदि सभी परिवार के ही अभिन्न अंग होते हैं। यही सब उसकी मुसीबत के समय काम आने
वाले बैंक बैलेंस और पूँजी भी होते हैं। उपन्यास में शिबू के वडील (पिता) का यह
कथन- “लालू ज्यादा नहीं चल पाएगा, बदलकर
दूसरा ले लेना। माकड़ू बैल घर का वासरू (बछड़ा) है। मकरी गाय की निशानी। ‘उसके
बाद गाय नहीं ले पाये हम। उसे मत बेचना।”
गोदान के दृश्यों की याद दिलाता है। साथ ही
जुताई करते हुए कीचड़ में फँसे बैल ‘लालू’ की
मौत का मर्मांतक चित्रण ‘दो बैलों की कथा’ के
हीरा और मोती की भी याद दिलाता है। उपन्यास में किसान ‘शिबू’ (शिवनरायण)
के साथ घटित होने वाली अनेक अप्रिय घटनाएँ उसे एकदम से तोड़ देती हैं। तमाम तरह की
समस्याओं से जूझता ‘शिबू’ अब
बहुत परेशान रहने लगता है। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? अकेले
होता तो शायद खेती-किसानी छोड़कर किसी शहर में कमाने-धमाने चला जाता लेकिन दो-दो
जवान बेटियों को छोड़कर वह कहाँ जा सकता था। परेशान और निराश होकर झिझक बस वह
कभी-कभी बोल देता इस बार किसानी छोड़ दूँगा। इस पर उसकी छोटी बेटी (कलावती) किसी
विद्वान का हवाला देते हुए कहती है कि - “शेती
कोई धंधा नहीं, बल्कि एक लाइफ स्टाइल है-जीने का तरीका, जिसे
किसान अन्य किसी भी धंधे के चलते नहीं छोड़ सकता। सो तुम बाबा.... तुम लाख कहो कि
तुम खेती छोड़ दोगे, नहीं छोड़ सकते। किसानी तुम्हारे खून
में है।”
यह
उपन्यास तमाम प्रकार की समस्याओं, विसंगतियों एवं हादसों की एक लम्बी
श्रृंखला हमारे सामने प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास एक प्रकार से किसानों तथा
किसानों की आत्महत्या से संबंधित उनके बयान का हलफ़नामा है। उपन्यास की शुरुआत
महाराष्ट्र (विदर्भ) राज्य के यवतमाल जिले के एक सुखाड़ गाँव ‘बनगाँव’ के
चित्रण के साथ होती है। ‘बनगाँव’ का
चित्रण करते हुए उपन्यासकार लिखता है कि- “भला
कोई कह सकता है कि सुखाड़ के ठनठनाते यवतमाल जिले के इस पूरबी छोर पर ‘बनगाँव’ जैसा
कोई गाँव भी होगा जो आधा वन होगा, आधा गाँव, आधा
गीला होगा, आधा सूखा। स्कूल में लड़कों के साथ
लड़कियाँ भी, जुए में भैंस के साथ बैल भी। जो भी
होगा आधा-आधा।” भारत
के प्रत्येक गाँव की तरह ही इस ‘बनगाँव’ में
भी लड़कियों के प्रति वही सोच और नजरिया है, जो
हिन्दी प्रांतों में। ‘छोटी मुलगी’ (कलावती)
स्कूल के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम (धानौरा में आयोजित) के बाद अपनी सहेली मंजुला
के साथ उसके गाँव ‘मेंडालेखा’ क्या
चली गई, तूफान आ गया, मानो
अनर्थ हो गया। ‘बनगाँव’ में
यह बात आग की तरह फैल गई कि ‘कलावती, शिबू
की छोटी मुलगी स्कूल से घर नहीं लौटी।’.....‘और
पढ़ाओ इन मुलगियों को, जैसे बैरिस्टर बनेगी।’ पिता ‘शिबू’ इस
घटना के बाद से छोटी (कलावती) का स्कूल जाना बंद करवा देता है। शायद कलावती को एक
लड़की होने की सज़ा मिली थी। यह प्रकरण लड़के-लड़कियों के प्रति समाज में व्याप्त
भेद-भाव को भी दर्शाता है। इसी ‘बनगाँव’ का
निवासी है एक आम शेतकरी (किसान) ‘शिबू’ तथा
उसका परिवार। इस परिवार में ‘शिबू’ (शिवशंकर)
के अलावा उसकी पत्नी ‘शकुन’ (शकुन्तला)
उसकी दो बेटियाँ ‘छोटी’ (कलावती)
और ‘बड़ी’ (सरस्वती)
हैं।
यह परिवार तमाम प्रकार की परेशानियों, मुश्किलों
के बीच संघर्ष करते हुए अपना जीवन जी रहा है। ‘शिबू’ और ‘शकुन’ का
भी वही सपना है जो हर माँ-बाप का होता है। ‘शिबू’ की
भी चाहता है कि अपनी दोनों लड़कियों को पढ़ा-लिखाकर एक अच्छे से घर में ब्याह दे।
लेकिन खेती-किसानी के कर्ज़ में शिबू इस कदर लगातार फँसता चला जा रहा था कि उसे
उसकी पारिवारिक जिम्मेवारियाँ पूरी होती नहीं दिख रही थी। खेती-किसानी के सीमित
साधन, आर्थिक तंगी तथा सूखे की मार झेलता ‘शिबू’ इस
खेती-किसानी के लिए सरकारी बैंकों तथा सेठ-साहूकारों से इतना कर्ज़ ले चुका था कि
यह कर्ज़ अब उसके गले की ‘फाँस’ बन
चुका था। ऐसे में अपनी दोनों मुलगियों की शादी के लिए दहेज के लाखो रुपये तथा गाड़ी
के पैसे वह कहाँ से ले आता। ‘शिबू’ के
अन्तर्मन में द्वंद चल रहा था कि वह क्या करे। किसी तरह उसने अपनी बायको (पत्नी)
की मदद से एक दिन अपने गले में पड़े कर्ज़ रूपी फंदे को निकाल तो लेता है लेकिन उसके
बाद भी वह समय और समाज की मार झेल नहीं पाता, अंतत:
एक दिन कुएँ में कूदकर जान दे देता है। पीछे छोड़ जाता है जवान बेटियाँ और
रोती-बिलखती पत्नी शकुन को, जिसने गले की हसुली बैंक के कर्ज़ और
ब्याज़ चुकाने के चक्कर में बेच दी थी। कर्ज़ के बोझ तले दबे होने के कारण शकुन के
लिए उसकी हसुली भी एक ‘फाँस’ बन
गई थी। शकुन को अब रह-रहकर याद आ रही हैं पति की बातें, कहता
था- “रानी, ये
कर्ज़ गले की फाँस है निकाल फेंको और जिस दिन मैंने निकाल फेंका, वह
जैसे निहाल हो गया, गाँव भर में लड्डू बँटें, गीत
गाते हुए बरसात में भीगते हुए नाचता रहा।”
लेकिन शिबू की कहानी किसी एक किसान या एक घर की
कहानी नहीं है बल्कि आत्महत्या के लिए मजबूर उन समस्त भारतीय किसानों की महागाथा
है जो इस खेती-किसानी के पेशे में बुरी तरह फँसकर अपना जीवन दाँव पर लगा दे रहे
हैं। इस प्रकार से यह कथा विदर्भ के किसानों की कथा के साथ-साथ समस्त भारतीय किसानों
तथा उनके परिवारों की भी की व्यथा-कथा है। उपन्यास की पात्र छोटी (कलावती) कहती
है- “भारतीय किसान कर्ज़ में जन्म लेता है, कर्ज़
में ही बड़ा होता है, कर्ज़ में ही मर जाता है।” यह कथन कितना हृदयविदारक, मारक, भयावह
किन्तु आज के समय का भी एक कटु सत्य है।
आत्महत्या
के बाद मुआवजा बाँटने के लिए सरकारी उपक्रम पात्र-अपात्र का निर्धारण करता है। यह
देखा जाता है कि आत्महत्या करने वाला ‘पात्र’ है
कि ‘अपात्र’।
मुआवजा के लिए पीड़ित किसान परिजनों को अब यह साबित करना होता कि मृतक पात्र था
अपात्र नहीं, इस दुख की घड़ी में भी उन्हें उसके
पात्र होने का सबूत पेश करने के लिए कितनी भाग-दौड़ करनी पड़ती है। फिर भी सरकारी
अफसरों को इसे नकारने तथा मृतक किसान की आत्महत्या को अपात्र घोषित करने में तनिक
भी अफसोस नहीं होता। आत्महत्या के बाद पात्र-अपात्र का निर्धारण करने में हमारी
सरकार और उसके उपक्रम किस हद तक अमानवीय और हिंसक हो सकते हैं इसका सशक्त उदाहरण
यह उपन्यास प्रस्तुत करता है। बैंक का कर्ज चुकाने में अपनी पूरी ज़िंदगी की कमाई
लुटा देने के बाद सूखेपन और सरकारी नीतियों की मार झेलते किसी किसान की आत्महत्या
सरकारी दस्तावेजों में सिर्फ इसलिए किसान की आत्महत्या के रूप में दर्ज नहीं होती
कि बैंक में अब उसके नाम पर कर्ज़ की कोई रकम बाकी नहीं है। इस प्रकार से यह तो
केंद्र तथा राज्य सरकार द्वारा सरकारी राहत कोषों की राशि बचाने की एक साज़िश है जो
किसान-विरोधी ही साबित होती हैं। इस प्रकार यह उपन्यास किसानों की दारुण-दशा और
सरकारी नीतियों आदि की विस्तृत पड़ताल करते हुए उसकी मारक समीक्षा प्रस्तुत करता
है। ‘शिबू’ तो
आत्महत्या कर ही लेता है लेकिन आत्महत्या को गलत बताने वाला हमेशा इस पर
ज्ञान-दर्शन देने वाला ‘सुनील’ भी
आत्महत्या कर लेता है। ‘सुनील’ कहता
था, एक भी आदमी ने अगर मेरे रहते आत्महत्या की तो
मेरे जीवन को धिक्कार है और उसी सुनील ने सबसे पहले आत्महत्या की। सुनील एक बड़ा
खेतिहर था। सबका सलाहकार, सबका आदर्श। लेकिन बड़ी खेती तो नुकसान
भी बड़ा होगा। ऊपर से महत्वाकाँक्षी योजनाओं के असफल होने की निराशा। किसी भी
प्रकार की कोई बीमा सुरक्षा भी नहीं। इन सभी से निराश सुनील यह कदम उठाता है। कहाँ
इसका फिकरा था कि- ‘हिम्मते मर्दां मदते खुदा।’ लेकिन
वह खुद ही हिम्मत हार गया और एंडोसल्फान पीकर मौत को गले लगा लिया था। “बुत
बनता गया सुनील-इन सबका दोषी मैं हूँ, सबकी
हिम्मत बँधाने वाला खुद ही हिम्मत हार बैठा। हवा में फ़िकरे उड़ रहे थे- ‘कभी
कर्ज़, कभी मर्ज़, कभी
सूखा कभी डूब।’ दूसरा फ़िकरा-‘भूत
से शादी करोगे तो अपना घर चिता पर ही बनाना पड़ेगा।’ सो, सुनील
आज भूत बन चुका था। जो खुद भी डूबा औरों को भी ले डूबा।” पीछे छोड़ जाता है पत्नी, बेटियाँ, और
बेटे बिज्जू (विजयेन्द्र) को जो अपनी पढ़ाई छोड़कर चला आता है इसी पेशे में
पिसने।
यह
उपन्यास सरकार की नीतियों और उनके विकास के नाम पर पेश किए जा रहे अविवेकपूर्ण
मॉडल की भी कलई खोलता है। विकास का यह नारा और मॉडल एकदम से झूठा साबित हो रहा है
और देश का किसान दिन-प्रतिदिन और तबाह होता जा रहा है। उपन्यास में चित्रित
गाय-प्रकरण इसका जबर्दस्त उदाहरण है। इसमें प्रत्येक किसान को 20 से 25 हजार की
गाय सिर्फ 5 हज़ार रुपए में दे दी जाती है। इसके लिए सबको लोन भी दिया गया। गाय तो
सभी ने ले ली। जो तीस-तीस किलो दूध भी देती हैं। लेकिन समस्या थी इन गायों के
चारा-पानी आदि की। इतना दूध देने वाली गायों को खिलाया क्या जाए? ‘सुनील’ ने
सुझाव दिया था- वरसीम बोओ। ये क्या चीज़ है- सिंगदाना। सिंगदाना नहीं, एक
घास, गाय को मजबूत करने वाली घास। योजनाकारों ने
सोचा था कि दूध का धंधा रोज पैसा लाएगा। सैद्धांतिकी के इस पक्ष पर उन्होंने कभी
गौर ही नहीं किया कि विदर्भ की सूखी धरती पर मवेशियों को खिलायेंगे क्या और दूध
बेचेंगे कहाँ।” यहाँ
तो लेने के देने पड़ गए। इन गायों का दूध जब बेचने के लिए बाजार गए तो उसके कोई
खरीददार ही नहीं। लोगों का कहना था कि- इस दूध से पेट खराब हो जाता है अत: कोई
दुकानदार लेने को तैयार नहीं। इससे किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ, लाभ
हुआ तो बिचौलियों और दलालों को। पहले जब ये गाय दी गई थीं तो उन्हें कमीशन मिला और
अब मजबूरी में जब किसानों को बेचनी पड़ रही हैं तो भी इनको बिचवाने का भी कमीशन।
इस
उपन्यास में यह भी दिखाया गया है कि किस तरह से पहले किसानों को बी. टी. (बैसिलस
थुरिंजिएंसिस) यानी कि जी. एम. (जेनेटिकली मोडिफ़ाएड) बीजों का इस्तेमाल करने के
लिए पहले बहलाया-फुसलाया जाता है। “शेतकरी
(किसान) की एकता तोड़ने के लिए या उनके उद्धार के नाम पर भगवान जाने सन 2002 में
आया था कापूस (कपास) का महाबीज बी. टी. कॉटन बीज़।” इसके लिए उन्हें बुला-बुलाकर कर्ज़ भी
दिया गया। लेकिन उस समय इसकी जो शर्तें थीं वह झूठी साबित हुईं। “बी.
टी. कॉटन इस आश्वासन के साथ आया था कि प्रथम दो छिड़काव के बाद कीटनाशक कि जरूरत कम
पड़ती जाएगी। मगर उल्टा हुआ। ईल्लियाँ क्या मरती, मिलबाग
जैसे कई भुनगे पैदा हो गए। ऐसे जर्म्स इसके पहले यहाँ नहीं थे। अब इन्हें मारने के
लिए और ज्यादा तगड़े कीटनाशक की जरूरत आ पड़ी। फल यह कि फसल, बीज़, मिट्टी, पानी, मित्र
कीड़े और मित्र पक्षी सबका नाश।” यही
नहीं पहली बार तो पैदावार अच्छी होती है लेकिन दूसरी बार फिर से नया बीज़ लेना पड़ता
है। एक तो किसान सूखे की मार और प्राकृतिक आपदाओं के कारण कर्ज़ के बोझ तले पहले से
दबे हुये हैं उस पर बार-बार बीज़ खरीदना उन्हें और भी ज़्यादा कर्ज़ में डुबा देता
है। सरकार द्वारा दिल्ली में बैठे-बैठे बनाई गईं और लागू की गईं नीतियाँ और
योजनाएँ किसान विरोधी साबित होने लगीं। ऐसे में उन्हें लगातार होती आ रही हानि ही
उन्हें आत्महत्या के रास्ते पर ले जाती है। इस अपराध के अलावा इनके पास और कोई
विकल्प नहीं रह जाता। अत: वह आत्महत्या जैसे अपराध के लिए मजबूर हो जाते हैं।
सुनील को इसी बात का मलाल रहा –“दिल्ली में बैठकर क्यों बना ली सरकारों
ने हमारे गाँवों के कायाकल्प की योजना? क्यों
जगाए सपने-बी. टी. बीज़ की तरह बाँझ सपने? मर
गए लोग। हमसे पूछते हम बताते-बड़े नहीं, छोटे-छोटे
सपने चाहिए हमारे गाँव को।” इस
प्रकार से यह उपन्यास किसानों की ओर तो हमारा ध्यान आकर्षित करता ही है साथ ही
भारतीय कृषि नीति पर भी प्रश्न-चिह्न खड़ा करता है।
यह उपन्यास सरकारी योजानाओं एवं
नीतियों की भी पोल खोलता है। केंद्र सरकार द्वारा किसानों के लिए लागू की जा रही नीतियाँ
ज़्यादातर सही नहीं है और जो हैं भी वह कारगर नहीं रही हैं। भारत एक कृषि प्रधान
देश रहा है और यहाँ किसान ही देश का अन्नदाता कहलाता है। लेकिन यही अन्नदाता किसान
विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करते हुए, जीवन
और मौत से जूझते हुए सभी का पेट तो भरता है किसी तरह लेकिन वह खुद भूखा रह जाता
है। पिछले तीन-चार दशकों से देश में किसानों की आत्महत्या करने की प्रवृत्ति जिस
कदर बढ़ी है वह भारत जैसे खाद्यान में आत्मनिर्भर या किसी भी देश के लिए सही या
अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती है। “यह
कोई महामारी या ऐसी कोई विपत्ति नहीं आयी है कि भारत सहित दुनिया भर के किसान
बेमौत मारे जा रहे हैं। यह वैश्विक व्यवस्था का नया रूप है जिसमें किसान को हाशिये
पर धकेला जा रहा है। आत्महत्या एक संक्रामक व्याधि की तरह देश के उन राज्यों में
जा रही है जहाँ अब तक नहीं थी।”
आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, विदर्भ, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़
के किसानों की भी यही स्थिति है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप
उदारीकरण को प्रोत्साहन दिया गया और जिसमें नई-नई नीतियाँ बनाई गईं और योजनाएँ
लागू की गईं। लेकिन यह नीतियाँ और योजनाएँ किसानों के लिए अभी तक उपयोगी सिद्ध
नहीं हुई हैं। “उदारीकरण के चलते सरकार का रवैया ही
कारपोरेट वाला हो चुका है-बिल्कुल ठुस्स यांत्रिक। कारपोरेट कल्चर या बहुराष्ट्रीय
कंपनियाँ जाहिर तौर पर किसी बड़ी पूँजी की प्रसूत होती हैं, बड़ी
पूँजी बाज़ार में लाभ कमाने के उद्देश्य से आती हैं। उसकी सामाजिक जिम्मेवारी सिर्फ
इतनी होती है कि ग्राहक या उपभोक्ता जिंदा रहे। इन्हें और इनके प्रतिनिधि नेताओं
को जमीन कि गुणवत्ता, सिचाई कि प्रकृति और पैदावार से कोई
मतलब नहीं।” यही
कारण कि भूमंडलीकरण की नीतियाँ किसानों के लिए बेअसर रही हैं। लेकिन यह सोचने कि
बात है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि जो उत्पादन या अनाज उत्पन्न कर रहा है वह भूखा
है और इन उत्पादों की दलाली करने वाले सेठ-साहूकार दिन प्रतिदिन मालामाल हो रहे
हैं। इस प्रकार से यह उपन्यास किसानों के प्रति हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए हमारे
सामने ढ़ेर सारे प्रश्न भी खड़ा कर देता है जिसका उत्तर या समाधान शायद ही किसी के
पास हो। इस प्रकार से यह उपन्यास सिर्फ़ विदर्भ के गाँव बनगाँव की ही कथा नहीं है
बल्कि यह तेलंगाना, आंध्र-प्रदेश, कर्नाटक, बुंदेलखंड
(उत्तर प्रदेश) एवं छत्तीसगढ़ के किसानों के साथ-साथ सम्पूर्ण भारत के किसानों की
व्यथा-कथा है। समीक्षक विवेक मिश्र के अनुसार- “फाँस
उपन्यास को पढ़ना आज के समय में देश की सबसे अवसादपूर्ण घटना से, हादसों
की एक लम्बी श्रृंखला से गुजरना, उससे रूबरू होना है। यह एक ऐसे विषय को
हमारे सामने ला खड़ा करता है जिससे हम लगातार मुँह छुपाते आए हैं और वह लगातार किसी
प्रेतछाया सा हमारे अतीत-वर्तमान और भविष्य पर मँडराता रहा है।
‘फाँस’ किसी
एक किसान, किसी एक खेतिहर परिवार, किसी
एक गाँव या फिर किसी एक प्रांत की खेती और किसानी की समस्याओं की कथाभर नहीं है, बल्कि
यह उस घाव के नासूर बनने की कथा है जिसमें कई दशकों से, कहें
की आजादी से बहुत पहले से धर्म, अंधविश्वास, जटिलजातीय
संरचना, शोषण के सामंती सामाजिक ढांचे के कीड़े
बिलबिला रहे हैं और उसमें राजनैतिक उपेक्षा और भ्रष्टाचार का संक्रमण भी बुरी तरह
फैल गया है। ये खेती (जिसे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है) के
कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित हो जाने
की कथा है।”
वास्तव में किसानों की समस्याओं का समाधान
तभी हो सकता है जब सरकार और राजनेता राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर किसानों के हित
के लिए एक साथ मिलकर काम करेंगे। किसानों और मजदूरों की समस्याओं को सिर्फ़ चुनावी
मुद्दा नहीं बनने देंगे। सिर्फ़ चुनाव के समय आर्थिक-पैकेज और प्रलोभन न देकर एक
कारगर नीति और टिकाऊ समाधान की बात करेंगे। अन्यथा किसानों की समस्याओं का समुचित
समाधान संभव न होगा। यह उपन्यास सिर्फ़ किसानों की समस्याओं, उनकी
दयनीय दशा एवं दुर्दशा तथा उनकी आत्महत्याओं का ही भयावह सत्य नहीं प्रस्तुत करता
अपितु किसानों को यह समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक
तथा राजनीतिक पहलुओं के साथ-साथ क्षेत्र विशेष में अच्छी पैदावार देने वाली फसलों, फसलों
की क़िस्मों व उन्नत बीजों, उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग, खाद
बनाने की विधि, खेती करने की सही विधियों-प्रविधियों
आदि के बारे में भी बतलाता है और साथ-साथ पैदा हुई अनेक प्रकार की समस्याओं का
समाधान भी प्रस्तुत करता है। इसलिए इस उपन्यास के दो पक्ष दिखाई देते हैं। एक पक्ष
किसानों की समस्याओं एवं उनकी आत्महत्याओं की पड़ताल करता है तो दूसरा पक्ष
समस्याओं के समाधान खोजता आगे बढ़ता है। इस खोज में शामिल हैं मृतकों के परिजन
जिनमें सुनील का बेटा बिजयेन्द्र, शिबू और शकुन की छोटी (कलावती) तथा बड़ी
(सरस्वती), शकुन, सिंधुताई, अशोक, मंगल
मिशन वाला मल्लेश, विजय राव वापट राव नाना तथा सबके लिए
आदर्श गाँव ‘मेंडालेखा’ के
दलित दादा जी खोबरागड़े जी जिन्होंने एच. एम. टी. धान विकसित किया लेकिन
विश्वविद्यालय इसे अपना धान मानते हुए इसका पेटेंट अपने पास रखते हुए इसे दुगुने
दाम पर बेचने लगता है।
इस प्रकार इसमें ऐसे वैज्ञानिक सोच वाले तथा पढ़े-लिखे लोग
भी हैं। इन लोगों को पता है कि आत्महत्या या जान देने से कुछ नहीं होने वाला, यदि
व्यवस्था को बदलना है तो लड़ना होगा संघर्ष करना होगा। ये लोग ‘मंथन’ जैसी
संस्था का गठन इसी उद्देश्य से किया गया है। साथ ही ‘कलावती
कुंज की कालियाँ’ में उन बच्चों को सहारा दिया जाता है
जिन बच्चों के माता-पिता आत्महत्या कर लिए हैं या किसी कारण वश इस दुनिया में नहीं
हैं। इस प्रकार यह उपन्यास हमारे सामने सिर्फ़ प्रश्नों एवं समस्याओं का पहाड़ ही
नहीं खड़ा करता अपितु उसका समाधान भी प्रस्तुत करता है। किसानों और मजदूरों के साथ
हो रहे अत्याचार और अन्याय में हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक
एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ भी कम ज़िम्मेवार नहीं हैं। भूमंडलीकरण को बढ़ावा देने
वाली तथा उसे संचालित करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं (विश्व बैंक, गाट, आइ.
एम. एफ़.) के साथ सरकार और कारपोरेट जगत भी इसकी जिम्मेदार हैं। इन सबकी आपस में
मिलीभगत है। उदारीकरण के नाम पर बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है।
राजनेताओं को सिर्फ वोटबैंक की राजनीति करनी है। धर्म के ठेकेदारों को धर्म और
नैतिकता की आड़ में सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना है। इस प्रकार से ये सभी लोग
किसानों तथा गरीब मजदूरों की समस्याओं का समाधान ढूँढने की बजाय अपना व्यक्तिगत
हित साध रहे हैं।
इस उपन्यास में गरीब किसानों, दलितों, तथा
आदिवासियों के विकास और विस्थापन के साथ-साथ उनके जंगल तथा वहाँ संसाधनों के
अधिकार-क्षेत्र आदि का यथार्थ के धरातल पर विस्तार से वर्णन करता है। इस उपन्यास
के विषय में प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह लिखते हैं कि- “अपनी
इस साहित्यिक विरासत के आधार पर आज यही कहने को जी चाहता है कि भूमंडलीकरण के
आक्रामक दौर में नष्ट होती हुई ग्राम संस्कृति और आत्महत्या के लिए विवश किसानों
को केंद्र में रखकर किया जाने वाला कथा-सृजन ही अपनी सार्थकता प्रमाणित कर सकता
है।”(उपन्यास के फ्लैप से साभार)
संदर्भ ग्रंथ सूची
1फाँस, संजीव, पृष्ठ सं.-17
2फाँस, संजीव, पृष्ठ सं.-66
3फ़ांस संजीव, पृष्ठ सं.-183
4फाँस, संजीव, पृष्ठ सं.-16
5फाँस, संजीव, पृष्ठ सं.-17
6फाँस, संजीव, पृष्ठ सं.-9
7फाँस, संजीव, पृष्ठ सं.-11
8फाँस, संजीव, पृष्ठ सं.-105
9फाँस, संजीव, पृष्ठ सं.-185
10फ़ांस, संजीव, पृष्ठ सं.-72
11 फ़ांस, संजीव, पृष्ठ
सं.-68-69
12 फ़ांस, संजीव, पृष्ठ
सं.-37
13 फ़ांस, संजीव, पृष्ठ
सं.-199
14 फ़ांस, संजीव, पृष्ठ
सं.-72
15 फ़ांस, संजीव, पृष्ठ
सं.-195
16 , संजीव, पृष्ठ
सं.-109
17 ‘फाँस’ उपन्यास
एक सामूहिक सुसाइड नोट है, विवेक मिश्र, सिताब
दियारा, 5 फरवरी, 2016
भानु प्रताप प्रजापति
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय हैदराबाद
सम्पर्क:9441376914,ई-मेल bppraja@gmail.com
बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है आप ने
जवाब देंहटाएंउम्मीद है भविष्य में भी आप से ऐसा ही आलोचनात्मक कार्य होता रहे
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