त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
प्रेमचंद
और किसान विमर्श/ डॉ. मीनाक्षी जयप्रकाश सिंह
प्रेमचंद की कथा दृष्टि मूलत: किसान और गांव पर आधारित है। इनका संपूर्ण कथा साहित्य प्रत्यक्षत: इन्हीं दो विषयों के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है। भारतीय जीवन पर अंग्रेजी शासन और अपनी ही अशिक्षा, अज्ञानता तथा स्वार्थांधता का दोहरा दबाव था जिसमें भारतीय जीवन को आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, मानसिक आदि सभी स्तरों पर गुलाम बनने को मजबूर कर दिया था। एक तरफ तो ब्रिटिश सरकार अपने फायदे के लिए भारतीयों का शोषण कर रही थी, वहीं कुछ ऊँचे वर्ग के धनी भारतीय इस बहते पानी में हाथ धो रहे थे, जिसके कारण भारतीयों को न सिर्फ विदेशी, अपितु देशी मार भी सहनी पड़ रही थी, जिसने उनके आत्मविश्वास की कमर तोड़ दी थी।
भारतीय जनता इतनी अज्ञान, इतनी भोली-भाली थी कि शासन प्रणाली के दो मुंहे कष्ट को वह
समझ नहीं पा रही थी और सामाजिक बुराइयों तथा विदेशी शासक के दो पाटों के बीच बुरी
तरह पिसती जा रही थी। भारत जैसे महान देश की सबसे बड़ी विडंबना भी थी कि देश की 80 प्रतिशत जनता, जिसने देश को देश बनाया था, शासन प्राणाली के द्वारा सबसे ज्यादा उपेक्षा का शिकार हो
रही थी। वह किसान जो अपने खून-पसीने से भूमि को सींचता था, रोपता था और पूरे देश की जनता के लिए अनाज पैदा करता था,
अंग्रेजों की भूमि व्यवस्था के कारण वही अब
नीलामी और बेदखली की ठोकरें खा रहा था, भूमिहीन हो रहा था। किंतु अनेक ठोकरें खाकर भी वह किसान और गृहस्थ होने के
मरजाद रूपी मोह को त्याग नहीं पा रहा था। किसानी की मरजाद एक ऐसी वस्तु है,
गृहस्थ कहलाने का गौरव एक ऐसा मोह है जिसे
किसान अपनी इच्छा से चाहकर भी छोड़ नहीं पाता। प्रेमचंद गरीबों की इस भावना का
वर्णन करते हुए कहते हैं –‘‘कृषि प्रधान देश
में खेती केवल जीविका का साधन नहीं है, सम्मान की वस्तु भी है। गृहस्थ कहलाना गर्व की बात है। किसान गृहस्थी करता है। मान-प्रतिष्ठा का मोह औरों की भांति
उसे घेरे रहता है। वह गृहस्थ रहकर जीना और गृहस्थी ही में मरना भी चाहता है।
उसका बाल-बाल कर्ज से बंधा हो, लेकिन द्वार पर
दो-चार बैल बांधकर वह अपने को धन्य समझता है। उसे साल में 360 दिन आधे पेट खाकर रहना पड़े, पुआल में घुसकर राते काटनी पड़े, बेबसी से जीना और बेबसी से मरना पड़े, कोई चिंता नहीं, वह गृहस्थ तो है। यह गर्व उसकी सारी दुर्गति की पुरौती कर
देता है।’’1
पूंजीवाद के प्रभाव ने किसानों को
अचानक ही अत्यधिक व्यावहारिक बना दिया था। जिसके कारण वे सम्मिलित परिवार प्रथा
को तोड़कर एकल परिवार बसाने लगे, पूरा माहौल स्वार्थ
पूर्ति की सोच को उत्तेजित करने वाला था, जिससे लोग अदूरदर्शी होकर अपनी ही जमीनों का बंटवारा करने लगे, भाई-भाई का न रहा, एक ही जमीन सभी भाइयों में बंटकर टुकड़ा भर हो जाती थी।
जिसका परिणाम यह हुआ कि वही जमीन जो पूरे घर का पेट भरती थी, अब अलग होकर एक ही परिवार का पालन करने में
असमर्थ थी। पूंजीवादी अंग्रेजों के इन कुकृत्यों के साथ ही किसानों के कोमल
हृदयों में द्वेष, स्वार्थ और जलन
की भावनाओं का भी प्रवेश हुआ। डाह और शक के कारण पहले तो परिवार अलग होने लगे,
फिर भी संतुष्टि नहीं हुई तो एक-दूसरे की
खुशियों से जलने लगे। एक भाई के घर में जश्न होता तो दूसरे के कलेजे पर सांप
लोटता था, एक भाई के घर में शोक
मनता था तो दूसरा मिठाइयां बांटता था। स्वयं प्रेमचंद ने अलग्योझा के विषय में
अपनी एक कहानी में कहा है –‘‘उसने गांव में
दो-चार परिवारों को अलग होते देखा था। वह खूब जानता था, रोटी के साथ लोगों के हृदय भी अलग हो जाते हैं। अपने हमेशा
के लिए गैर हो जाते हैं। फिर उसमें वही नाता रह जाता है, जो गांव के और आदमियों में।’’2
यही अलग्योझा धीरे-धीरे भारतीय जनता
की भूमि आौर भूमि के साथ मानस को बांट रही थी जिसका फायदा अंग्रेज उठा रहे थे।
समाज कई वर्गों में बंटता जा रहा था। प्रत्येक ऊंचा वर्ग अपने से निचले वर्ग पर
अधिकार जमाता था। अधिकार की श्रेणी पद से ज्यादा धन पर आधारित थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि सबसे गरीब तबके के
किसान, मजदूर और श्रमिकों का
जीवन शासन और शोषण के अनगिनत तहों के नीचे दबता-पिसता और संकुचित होता जा रहा था।
जमींदार, कारिंदे, पटवारी, साहुकार इत्यादि
के रूप में प्रेमचंद ने अपने कथा-साहित्य में इन्हीं तहों का बड़ा ही
सूक्ष्म चित्रण किया है और बड़ी ही स्पष्टता से दिखाया है कि इनके पंजों के नीचे
किस तरह किसान लगान और कभी न खत्म हो सकने वाले ऋण-भार से दबा हुआ था। इसी ऋण और
ब्याज से किसान जीवन में महाजनी पूंजीवाद या महाजनी सभ्यता का प्रवेश हुआ जिसकी
पूरी प्रक्रिया का वर्णन कृष्णदेव झारी ने अपने शब्दों में बड़ी स्पष्टता से किया
है –‘‘गांवों में महाजनी
पूंजीवाद प्रचलित था। यह महाजनी शोषण कई प्रकार का था। गांव में जिस किसी के पास
चार पैसे हुए, वही महाजन बनने
लगा था। सूअर का खून मुंह लग गया था।’’3 इस महाजनी सभ्यता ने लोगों को इतना हृदयहीन और संवेदनाशून्य बना दिया था कि
यही किसान जो खुद उधार लेने पर ब्याज के बोझ के नीचे दबा रहता है, महाजनों को गालियां देता है, उनकी हृदयहीनता एवं अमानुषिकता पर ताने कसता
है, खुद दो-चार पैसे जमा हो
जाने पर उसी व्यवहार को अपनाने लगता है। प्रेमचंद ने इसे ‘महाजनी सभ्यता’ कहा है। जिस सभ्यता में पैसा ही
सबकुछ है। मानव के भाव पूर्णत: मूल्यहीन हो गए हैं। जहां पैसे के कारण मनुष्य खुद
को भी बेचता है, उसके ईमान का,
धर्म का कोई मोल नहीं, बिजनेस ही विजनेस है, वहां भावुकता से कोई सरोकार नहीं। और इसी मान्यता के
विरोधी थे प्रेमचंद। उनका साहित्य इस का विरोध शाश्वत प्रमाण है। प्रेमचंद ने अपने
निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ में महाजनी सभ्यता की विशेषताओं को बताते हुए
लिखा है -- ‘‘इस महाजनी सभ्यता
में सारे कामों का गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है,
तो इसलिए कि महाजनों, पूंजीपतियों को ज्यादा-से-ज्यादा नफा हो। इस दृष्टि से
मानो आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य-समाज दो भागों में बंट गया
है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने
वश में किए हुए है।’’4
दूसरा सिद्धांत बताते हुए प्रेमचंद
आगे कहते हैं –‘’इस सभ्यता का
दूसरा सिद्धांत है ‘बिजनेस इज
बिजनेस। अर्थात व्यवसाय है उसमें भावुकता के लिए गुंजाइश नहीं। पुराने जीवन
सिद्धांत में वह लटृठमार साफगोई नहीं है, जो निर्लज्जता कही जा सकती है और इस नवीन सिद्धांत की आत्मा है। जहां लेन-देन
का सवाल है, रूपये-पैसे का
मामला है, वहां न दोस्ती का गुहर
है, न मुरौवत का, न इंसानियत का। ‘बिजनेस’ में दोस्ती
कैसी। जहां किसी ने इस सिद्धांत को आड़ ली और लाजवाब हुए। फिर आपकी जबान नहीं खुल
सकती।’’5
जिस भूमि पर किसान का अस्तित्व और
जीविका अवलंबित थी, वही भूमि क्रमश:
हाथ से निकलते जाने पर किसान की अवस्था सोचनीय होती जा रही थी, उसका विश्वास टूटता जा रहा था और इससे उसकी
आर्थिक स्थिति, सांस्कृतिक
स्थिति, सामाजिक स्तर निम्नतम
कोटि का होता जा रहा था। अनावृष्टि, अतिवृष्टि और प्राकृतिक प्रकोपों से जान बचाकर जो फसल घर में आती थी, अब अंग्रेजों की नीति से नकद के रूप में उसे भी
लगान के रूप में निगल लिया जाता था, वह भी अत्यंत निर्दयता से, तिस पर करेला पर
नीम चढ़े का काम करते थे हमारे ही देश के तथाकथित पूंजीपति और जमींदार, जमींदारों के कारिेंदे जो अंग्रेजों की
निर्दयता और कठोरता से रत्तीभर भी कम न रहने की प्रतियोगिता में थे।
प्रेमचंद अपने साहित्य में किसानों
के हक की बात करते हैं। वे चाहते है कि जमीन उसी की हो जो उसे रात-दिन खटकर जोतता
है, उसकी नहीं जो महलों में
बैठकर उनके पसीने पर ऐश करता है। किसानों को उनका हक दिलाने की बात प्रेमचंद ने ‘प्रेमाश्रम’ के पात्र प्रेमशंकर के माध्यम से कही है –‘‘भूमि उसकी है जो उसको जोते। शासक को उसकी उपज
में भाग लेने का अधिकार इसलिए है कि वह देश में शांति और रक्षा की व्यवस्था करता
है, जिसके बिना खेती हो नहीं
सकती। किसी तीसरे वर्ग का समाज में कोई स्थान नहीं है।’’6
ऋण भार से ग्रस्त, भूमि से हीन होकर और गरीबी से त्रस्त होकर भूख
से मरते हुए गरीब किसान के पास कोई चारा नहीं बच रहा था सिवाय इसके कि वह औद्योगिक
जगत की तरफ मजदूर बनकर दौड़े और यही प्रेमचंद का दर्द था, यही तकलीफ थी जो प्रेमचंद को दु:ख पहुंचा रही थी। उन्होंने
अपने कई उपन्यासों और कहानियों में किसान से मजदूर बनने की प्रक्रिया का बड़ा ही
हृदय-विदारक और यथार्थ चित्रण किया है। जैसे गोदान की संपूर्ण कथा ही होरी से गोबर
बनने की, किसान से मजदूर बनने की
कथा है। होरी पूरे जीवन में अपने किसान होने के गौरव को खोना नहीं चाहता, ऋणों का असीमित भार उसे पंगु बना देता है,
भूख उसे अशक्त बना देती है, अलग्योझा उसकी कमर तोड़ देता है, धार्मिक पाखंड उसके चोटों पर नमक छिड़कता रहता
है, बिरादरी का डर और डांड का
बोझ उस पर कहर बनकर बरसता है, लगान उसकी
रही-सही कसर पूरी करता रहता है, किंतु होरी फिर
भी अपने किसान होने के गर्व से अभिभुत रहने में ही संतुष्टि खोजता है। यह गर्व
आखिर क्या था, जो किसान को भूमि
से बांधे रखता है ? किसान भूमि को
सींचकर, बंजर में भी अन्न पैदा
कर सकता है, रात-दिन, वर्षा पाला, धूप-जाड़ा की परवाह न करता हुआ वह हाड़ फाड़कर खेती करता है,
सिर्फ इस गौरव-ज्ञान से कि यही अन्न पूरा देश
खाएगा, इसी अन्न पर पूरे देश का
जीवन निर्भर करता है। पूरा देश भले यह सोचे या न सोचे, पूरा देश भले किसान की उपेक्षा करे, उसकी जरूरत और उसके महत्व को भूल जाए, पर किसान भी अगर अपने महत्व को, भूमि के महत्व को भूल जाए तो इस देश की क्या
अवस्था होगी ? यदि किसान एक-एक
करके मजदूर बन जाएंगे तो खाद्य-संकट पूरे देश को निगल जाएगा। इस ज्ञान और बोध से
भले ही हमारे शिक्षित जन अछूते हैं या जान-बूझकर स्वार्थ लोभ में अंधे बने रहें,
किंतु एक अनपढ़ किसान इस बात को भली-भांति जानता है, अपने उस गुरु-कर्म से पूरी तरह परिचित होने के
बावजूद भी वह अपना कर्म निर्ब्याज भाव से बिना किसी अभिमान के पूरा करता है। वह
अपनी महत्ता का फायदा उठाना नहीं जानता और इसी कारण से लोग उसका फायदा उठाते जाते
हैं। ‘गोदान’ का होरी अपनी भूमि को अपना बनाए रखने की हर
संभव कोशिश करता है, किंतु अंतत: इस
देश की व्यवस्था उसे मजदूर बनने पर विवश कर देती है और यही पीड़ा अंतत: होरी की
जान ले लेती है। किंतु हर किसान होरी नहीं होता जो मरते दम तक जमीन को सीने से
चिपटाए रखे। होरी जैसी सहनशीलता हर किसान में नहीं होती, इसका चित्रण प्रेमचंद गोबर के माध्यम से करते हैं जो गांव
की अव्यवस्था, अत्याचार,
गरीबी और अनाचार से ऊबकर शहर चला जाता है तथा
खन्ना की मिल में मजदूर बन जाता है। प्रेमचंद ने अपनी अंतर्दृष्टि से इस पूरे
भावी को देख और समझ लिया था। उन्होंने जो चित्रण किया, वह आज अपने भयावह विकराल रूप में खाद्य संकट बनकर पूरे देश,
पूरे विश्व के सामने मुंह बाए खड़ा है।
किसानों से ही बनता है गांव। किसानों
की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती ही जा रही थी, तो स्वभावत: गांवों की स्थिति भी गिरती जा रही थी –‘‘गोबर ने घर पहुंचकर उसकी (घर की) दशा देखी, तो ऐसा निराशा हुआ कि इसी वक्त यहां से लौट
जाय। घर का एक हिस्सा गिरने-गिरने हो गया था। द्वार पर एक बैल बंधा हुआ था,
वह भी नीमजान। धनिया और होरी दोनों फूले न
समाये लेकिन गोबर का जी उचाट था। अब इस घर के संभलने की क्या आशा है। वह गुलामी
करता है, लेकिन भरपेट खाता तो है।
केवल एक ही मालिक का तो नौकर है। यहां तो जिसे देखो, वही रोब जमाता है। गुलामी है, पर सुखी। मेहनत करके अनाज पैदा करो और जो रुपये मिले,
वह दूसरों को दे दो। आप बैठे राम-राम करो।’’7
यह तो होरी के घर की दशा है। गांव की
दशा भी कुछ अलग न थी –‘‘और यह दशा कुछ
होरी ही की न थी। सारे गांव पर यह विपत्ति थी। ऐसा एक आदमी भी नहीं, जिसकी रोनी सूरत न हो, मानो उनके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों
की तरह नचा रही हो। चलते-फिरते थे, काम करते थे,
पिसते थे, घुटते थे, इसलिए कि पिसना
और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था। जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग जैसे उनके जीवन में सोते सूख गए हों, सारी हरियाली मुरझा गई हो।’’8
सच ही तो है, सिर्फ ब्रिटिश शासन के दबाव में पूरे देश की ऐसी अवस्था हो
गई थी, कि अब धीरे-धीरे लोगों
में चरमराहट और सुगबुगाहट पैदा होने लगी थी। बेबसी और परवशता ने सभी को पंगु बना
दिया था तो किसानों की क्या पूछ। उन पर तो एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं,
शासन करने वाले दर्जनों प्रार्थी थे, वह भी निर्दयता से निरंकुशता से तिस पर भूखे
पेट, खाली तन और सैकड़ों बंधन
लादकर। बहुत देर तक तरसते रहने के बाद पानी पीकर भी व्यक्ति को वह सुख नहीं मिलता,
जो प्यास के तुरंत बाद मिलता है और अगर उसे
पता हो कि वह पानी भी सिर्फ देखने के लिए है, तब तो कोई बात ही नहीं। यही दशा उन गरीब किसानों की हो रही
थी। जिस फसल के लिए वे रक्त-मांस सुखाकर काम करते थे, उसको देखकर भी उन्हें खुशी नहीं है, जो प्राकृतिक, स्वच्छ माहौल गांवों का वरदान है, उसको पाकर भी उन्हें सुख नहीं। उनकी समस्त इंद्रियां सुन्न पड़ गई है,
इंद्रियों ने इतना बर्दाश्त किया है कि अब उस
पर कुछ असर नहीं पड़ता। प्रेमचंद के शब्दों में –‘‘जेठ के दिन हैं, अभी तक खलिहानों में ही तुलकर महाजनों और कारिंदों की भेंट हो चुका है और जो
कुछ बचा है, वह भी दूसरों का
है। भविष्य अंधकार की भांति उनके सामने है। उसमें उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता।
उनकी सारी चेतनाएं शिथिल हो गई हैं।’’9
किसानों के खलिहान में अनाज है,
किंतु वे जानते हैं कि उनके सिर पर लगान का बोझ
भी है, पूरा खलिहान खाली करने के
बाद भी लगान के रुपये बाकी थे, उन्हें चुकाने
के लिए महाजन से जो ऋण लिया था उसका मूल और सूद भी चुकाना है, आखिर अनाज में एक दाना भी तो अपना नहीं,
फिर खुश क्योंकर हों। ऋण और ब्याज के क्रम
में एक और अध्याय जुड़ेगा तभी पेट भरेगा अन्यथा पूरा वर्ष चने फांकने होंगे,
फिर उसकी इंद्रियां शिथिल क्यों न हों,
जब पेट ही खाली हो तो इंद्रियों में शक्ति का
संचार कहां से हो। और इसी अर्धचेतना की दशा का वर्णन प्रेमचंद ने आगे किया है –‘‘द्वार पर मानों कूड़ा जमा है, दुर्गंध उड़ रही है, मगर उनकी नाक में न गंध है, न आंखों में ज्योति। सरेआम द्वार पर गीदड़ रोने लगते हैं,
मगर किसी को गम नहीं। सामने जो कुछ मोटा-झोटा आ
जाता है, वह खा लेता है, उसी तरह जैसे इंजिन कोयला खा लेता है। उनके बैल
चूनी-चोकर के बगैर नाद में मुंह नहीं डालते, मगर उन्हें केवल पेट में कुछ डालने को चाहिए। स्वाद से
उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। उनकी रसना मर चुकी है। उनके जीवन में स्वाद का लोप हो
गया है। उनसे धेले-धेले के लिए बेईमानी करवा लो, मुटृठी-भर अनाज के लिए लाठियां चलवा लो। पतन की वह इंतहा
हैं, जब आदमी शर्म और इज्जत
को भी भूल जाता है।’’10
सरकार और जमींदारों की उपेक्षा के
कारण कृषि की उन्नति ठप्प हो गई थी। पूंजीवादी सभ्यता के विकास के कारण मिल,
कारखानों आदि की स्थापनाएं हो रही थीं जो
किसानों के लिए अहितकर थीं क्योंकि किसान की उपज को उद्योग-धंधे के लिए सस्ते
दामों पर खरीदा जाता था, जिससे किसानों को
तो फायदा नाम-मात्र का होता था, पर पूंजीपति उससे
कई गुना फायदा कमा रहे थे। किसानों का जीवन उस हाशिये पर पहुंच चुका था, जहां उन्हें बचने के लिए कीचड़ में सनना ही
पड़ता। अपनी जान बचाने के लिए किसानों को या तो मजदूर बनना पड़ता था, या अपनी जान गंवानी पड़ती। और ये भी न होता तो
पेट की आग बुझाने के लिए उन्हें कोई भी बुरा काम करने में झिझक न होती। जब पेट
खाली है, घर नहीं बचा, भूमि नहीं बची, सम्मान गया, नाम गया तब खेती करो, मजदूरी करो या
लाठी चलाओ या चोरी करो, सब एक ही जैसे हो
जाते हैं। और उन किसानों की क्या समझ आए, उनकी तो चेतना ही समाप्त हो गई है।
प्रेमचंद ने इस संपूर्ण प्रक्रिया को,
होरी से गोबर बनने की पूरी क्रिया को समझा था,
देखा था और बहुत ही करीब से महसूस किया था। यही
कारण है घटना-प्रधान तिलस्मी–ऐयारी की
कहानियां पढ़कर भी उनका मन ऐसी रचनाओं की तरफ नहीं भटका बल्कि उससे अर्जित लेखन-कला
को उन्होंने अपनी इन अनुभूतियों की, किसानों के दु:ख को सबके सामने लाने के लिए अस्त्र के रूप में प्रयुक्त
किया।
प्रेमचंद ने अपनी कथा-सृष्टि की
सार्थकता इसी में समझी कि वे अपने माध्यम से किसानों की स्थिति को, उनके दुख को, उनकी दुविधा को, उनके कुचलते हुए आत्मसम्मान को जनता के सामने पेश कर सकें, और उससे भी बड़ी बात, उन्हें यह बता सकें कि किसान को जितनी ज्यादा जरूरत पूरे
भारत के साथ और सहानुभूति की है, उससे कहीं ज्यादा
जरूरत पूरे भारत को किसान की है, क्योंकि किसान
ही बिना स्वार्थ के पूरे देश को अन्न दे सकता है, उसका पेट भर सकता है। वैसे भी, प्रेमचंद को औद्योगिकरण से अगर बहुत ज्यादा नफरत न थी,
तो उन्हें उससे लगाव भी नहीं था। प्रेमचंद
औद्योगिकरण को भारतीय समाज के लिए हानिकारक ही समझते थे। ‘रंगभूमि’ में उन्होंने
सूरदास के माध्यम से औद्योगिकरण के संपूर्ण गुण-दोषों की व्याख्या करवाई है –‘‘सरकार बहुत ठीक कहते हैं, मुहल्ले की रौनक जरूर बढ़ जाएगी, रोजगार लोगों को फायदा भी खूब होगा। लेकिन जहां यह रौनक
बढ़ेगी, वहां ताड़ी-शराब का भी तो
परचार बढ़ जाएगा, बस्तियां भी तो
आकर बस जाएंगी, परदेसी आदमी
हमारी बहू-बेटियों को घूरेंगे, कितना अधरम होगा।
दिहात के किसान अपना काम छोड़कर मजूरी के लालच से दौड़ेंगे, यहां बूरी-बूरी बातें सीखेंगे और अपने बुरे आचरन अपने गांव
में फैलायेंगे। दिहातों की लड़कियां, बहुएं मजरी करने आएंगी और यहां पैसे के लोभ में अपना धरम बिगाड़ेंगी। यही रौनक
शहरों में है। वही रौनक यहां हो जाएगी। भगवान न करे, यहां वह रौनक हो।’’11
‘प्रेमाश्रम’ के रायकमलानंद औद्योगिकरण के सहस्रों ताम-झाम के बावजूद भी
यह स्वीकार नहीं करते कि सहस्रों किसान कुली बनकर अपने भाग्य को सराहेंगे। उन्हें
अच्छी तरह पता है कि किसान मजबूरी में ही मजदूरी के पेशे को अपनाते हैं, दिली खुशी से नहीं। किसानों की मरजाद छोड़ने में
उनका गौरव कुचल जाता है। कमलानंद कहते हैं –‘’किसान कुली बनकर कभी अपने भाग्य-विधाता को धन्यवाद नहीं
दे सकता, उसी प्रकार जैसे कोई आदमी
व्यापार का स्वतंत्र सुख भोगने के बाद नौकरी की पराधीनता को पसंद नहीं कर सकता।
संभव है कि अपनी दीनता उसे कुली बने रहने पर मजबूर करे, पर मुझे विश्वास है कि वह इस दासता से मुक्त होने का अवसर
पाते ही तुरंत अपने घर की राह लेगा और फिर उसी टूटे-फुटे झोपड़ी में अपने बाल-बच्चों
के साथ रहकर संतोष के साथ कालक्षेप करेगा।’’12
प्रेमचंद भी नहीं चाहते थे कि शहर की
रौनक गांवों के गरीब और भोले किसानों के संपर्क में आए। वे जानते थे कि हमारे देश
की आधी से अधिक जनता गांवों में बसती है और खेती करके अपना पेट भरती है। अगर वह भी
मजदूरी करने लगे तो खाद्य-संकट तो उत्पन्न होगा ही, भारतीय संस्कृति भी खतरे में पड़ जाएगी, स्त्रियों का जीवन नरक बन जाएगा, अनाचार फैलेगा, अनैतिकता का प्रसार होगा। किसानों की दुरवस्था और खेती में
भर पेट रोटी न मिल सकने की मजबूरी में प्रेमचंद किसानों के लिए एक नया विकल्प
ढूँढकर देते हैं। प्रेमचंद औद्योगिकरण की प्रत्येक क्रिया-प्रक्रिया से अच्छी
तरह वाकिफ हैं। वे भली-भांति जानते हैं कि उद्योगपति अपने मजदूरों को सुख-सुविधा
देते हैं, एक अच्छा जीवन स्तर
प्रदान करते हैं। एजेंट कहता है –‘’हम कुलियों को
जैसे वस्त्र, जैसा भोजन,
जैसे घर देते हैं, वैसे गांव में रहकर उन्हें कभी नसीब नहीं हो सकते। हम उनकी दवादारू का,
उनकी संतानों की शिक्षा का, उन्हें बुढ़ापे में सहारा देने का उचित प्रबंध
करते हैं। यहां तक कि हम उनके मनोरंजन और व्यायाम की भी व्यवस्था कर देते हैं।
वह चाहें तो टेनिस और फुटबॉल खेल सकते हैं, चाहें तो पार्कं में सैर कर सकते हैं। सप्ताह में एक दिन
गाने-बजाने के लिए समय से कुछ पहले ही छुट्टी दे दी जाती है। जहां तक मैं समझता
हूं पार्कों में रहने के बाद कोई कुली फिर खेती करने की परवाह नहीं करेगा।’’13 किंतु
प्रेमचंद का होरी इन सुखों का लालची नहीं है, उसे तो अपनी मरजाद प्यारी है। वह कहता है –‘‘मजूर बन जाये, तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाये तो मजूर हो जाता है।’’14
‘कर्मभूमि’ के काशी के मुंह से भी ऐसी ही बातें कहलाकर प्रेमचंद साबित
कर देना चाहते हैं कि होरी अकेला ही ऐसा किसान नहीं है जो खेती में मरजाद समझता है,
अपितु उसके जैसे अनेकों इन्सान हैं जो किसानी
को अपने पूर्वजों की मर्यादा-प्रतीक के रूप में चिपकाए हुए हैं। काशी कहता है –‘’मजूरी, मजूरी है, किसानी, किसानी है। मजूरी लाख हो, तो मजूर ही कहलाएगा। सिर पर घास लिए चले जा रहे
हैं। कोई इधर से पुकारता है – ओ घासवाले ! कोई
उधर से। किसी की मेड़ पर घास कर लो, तो गालियां मिले।
किसानी में मरजाद है।’’15
और फिर प्रेमचंद खुद भी तो अंधे नहीं
थे। वे देख रहे थे कि सूरदास की जमीन पर जबसे मिल लग गई है तब से –‘‘यहां बड़ी चहल-पहल रहती थी। दुकानदारों ने भी
अपने-अपने छप्पर डाल लिए थे। पान, मिठाई, नाज, गुड़, घी, साग, भाजी और मादक वस्तुओं की दुकानें खुल गई थीं। ...दस-ग्यारह बजे रात तक यहां
बड़ी बहार रहती थी। कोई चाट खा रहा है, कोई तंबोली की दुकान के सामने खड़ा है, कोई वेश्याओं से विनोद कर रहा है। अश्लील हास-परिहास, लज्जास्पद नेत्र-कटाक्ष और कुवासनापूर्ण हाव-भाव का अविरल
प्रवाह होता रहता था। ...प्रत्येक प्राणी स्वच्छंद था, उसे न किसी का भय था, न संकोच। कोई किसी पर हँसनेवाला न था।’’16
अत: प्रेमचंद इस मूल्यहीनता को किसी भी
कीमत पर अपनाने को तैयार न थे। किसानों के रोजगार के लिए उन्होंने घरेलू शिल्प
के प्रचार पर जोर दिया। रायसाहब के मुंह से वे अपने इस मंतव्य को जनता के सामने
लाते हैं –‘’किसानों को यह
विडंबनाएं इसलिए सहनी पड़ती हैं कि उनके लिए जीविका के और सभी द्वार बंद हैं। निश्चय
ही उनके लिए जीवन-निर्वाह के अन्य साधनों का अवतरण होना चाहिए, नहीं तो उनका पारस्परिक द्वेष और संघर्ष उन्हें
हमेशा जमींदारों का गुलाम बनाए रखेगा, चाहे कानून उनकी कितनी ही रक्षा और सहायता क्यों न करे। किंतु यह साधन ऐसे
होने चाहिए जो उनके आचार-व्यवहार को भ्रष्ट न करें, उन्हें घर से निर्वासित करके दुर्व्यसनों के जाल में न
फँसाएं, उनके आत्माभिमान का
सर्वनाश न करें और यह उसी दशा में हो सकता है जब घरेलू शिल्प का प्रचार किया जाए
और वह अपने गांव में कुल और बिरादरी की तीव्र दृष्टि के सम्मुख अपना-अपना काम
करते रहें।’’17
पूंजीवाद के आगमन, उसके आगमन के साथ हमारी नैतिकता में परिवर्तन
और मूल्यों में गिरावट को प्रेमचंद बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे। प्रेमचंद
महाजनी सभ्यता के कट्टर विरोधी थे और इस सभ्यता से उत्पन्न समस्याओं के कारण
चिंतित भी थे। उनका मुख्य विषय था समाज में व्याप्त आर्थिक शोषण का पर्दाफाश
करना और गांव में रहने वाले किसानों की स्थिति को आम जनता तक पहुंचाकर उसमें
मूलभूत बदलाव करना। इसी कारण प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में किसानों की स्थिति पर,
भारतीय गांवों की स्थिति पर और कृषि व्यवस्था
पर पूरी निष्ठा से चित्रण किया।
भारतीय किसान अर्थव्यवस्था की रीढ़
माने जाते हैं। इनके वगैर खुशहाल देश की उम्मीद करना बेमानी होगी। जब तक किसान
खुश नहीं होंगे तब तक भारतीय व्यवस्था पूरी तरह से मजबूत नहीं होगी। भारत की
चतुर्मुखी विकास के लिए भारतीय किसानों का उद्धार होना जरूरी है।
संदर्भ
1. प्रेमचंद, कर्मभूमि,
डायमंड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या –
243
2. मेहता, प्रयागराज,
प्रेमचंद साहित्य में भारतीय जनता का चित्रण,
संपादक – कोठारी, कोमल/देथा,
विजयदान ‘प्रेमचंद के पात्र’ संस्करण : 1970, अक्षर प्रकाशन,
दिल्ली, कुल पृष्ठ संख्या – 19-31, पृष्ठ संख्या –
21
3. झारी, डॉ. कृष्णदेव,
उपन्यासकार प्रेमचंद और उनका गोदान, प्रथम संस्करण : 1965, भारतेंदु भवन, चंडीगढ़, पृष्ठ संख्या –
10
4. प्रेमचंद, महाजनी सभ्याता,
संपादक – मिश्र, सत्यप्रकाश,
प्रेमचंद के श्रेष्ठ निबंध, संस्करण : 2003, ज्योति प्रकाशन, इलाहाबाद, कुल पृष्ठ –
132-138, पृष्ठ संख्या –
132
5. वही, पृष्ठ संख्या –
135
6. प्रेमचंद, प्रेमाश्रम,
अनुपम प्रकाशन, पटना, संस्करण : 2008,
पृष्ठ संख्या – 272
7. प्रेमचंद, गोदान, रजत प्रकाशन, मेरठ, संस्करण : 1995,
पृष्ठ संख्या – 272
8. वही, पृष्ठ संख्या –
272
9. वही, पृष्ठ संख्या –
272
10. वही, पृष्ठ संख्या – 272
11. प्रेमचंद,
रंगभूमि, अनुपम प्रकाशन, पटना, संस्करण : 2005, पृष्ठ संख्या – 70
12. प्रेमचंद,
प्रेमाश्रम, अनुपम प्रकाशन, पटना, संस्करण : 2008, पृष्ठ संख्या – 67
13. वही, पृष्ठ संख्या –
67
14. प्रेमचंद,
गोदान, रजत प्रकाशन, मेरठ, संस्करण : 1995, पृष्ठ संख्या –143
15. प्रेमचंद,
कर्मभूमि, डायमंड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या –
127
16. प्रेमचंद,
रंगभूमि, अनुपम प्रकाशन, पटना, संस्करण : 2005, पृष्ठ संख्या – 366
17. प्रेमचंद,
प्रेमाश्रम, अनुपम प्रकाशन, पटना, संस्करण : 2008, पृष्ठ संख्या – 68
डॉ. मीनाक्षी जयप्रकाश सिंह
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