त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
भूमण्डलीकृत भारत
का किसान और संजीव का कथा साहित्य/डॉ.मीनाक्षी चौधरी
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो
के अनुसार 1995 से 2010 के बीच 2,56,913 किसानों नें आत्महत्या की, जिनमें से तकरीबन दो तिहाई सिर्फ पाँच राज्यों महाराष्ट्र,
कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में की गई। वरिष्ठ पत्रकार पी.साईनाथ का कहना है कि
भूमण्डलीकरण के इन बीस वर्षों में पाँच लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है।
इन आत्महत्याओं के लिए भारतीय गणराज्य की सरकारें दोषी हैं। इसी संदर्भ में डॅा.
मैनेजर पाण्डेय का मानना है कि जिस प्रांत में भी किसानों की आत्महत्या की घटना
होती है वहाँ की सरकार और केन्द्र सरकार पर जनसंहार का मुकद्मा चलाया जाना चाहिए।
उन्होंने भी किसानों की आत्महत्या के लिए केन्द्र सरकार की नीतियों को जिम्मेदार
माना है। यह इस देश की विडम्बना ही है कि मामूली से मामूली उत्पाद की कीमत उसका
उत्पादक तय करता है लेकिन अनाज की कीमत मंडी मे बैठा व्यापारी तय करता है जिसका
उसके उत्पादन में रत्ती भर भी योगदान नहीं है। आज तक किसी अनाज व्यापारी द्वारा
अत्महत्या करने या किसी भी बैंक द्वारा कर्ज ना चुकाने पर व्यापारी को जलील करने
की खबर सुनी है किसी नें?
भूमंडलीकृत भारत में किसानों
की स्थिति बद से बदतर ही हुई है। न तो सरकार और न ही संभ्रांत नागरिकों और लेखकों
ने किसानों की दशा पर पर्याप्त विचार किया है। इन्होंने भूमंडलीकरण की नीतियों से
प्रभावित नगरीय समाज, नारी, युवा-वर्ग, व्यापारियों, नौकरीपेशा लोगों पर तो अपना ध्यान केंद्रित किया है किन्तु अन्य सरकारी
नीतियों की तरह किसान उनकी कृपादृष्टि से उपेक्षित रहा है।
भूमंडलीकृत भारत में किसानों की
दयनीय स्थिति और उसके कारणों को आधार बनाकर लेखन कार्य करने वाले गिनें-चुनें
रचनाकारों में संजीव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। संजीव ने अपनी कहानियों और
उपन्यासों में किसान जीवन के यथार्थ को गहराई से रेखांकित किया है। किसान जीवन से
जुड़े उनके कथा साहित्य में गहन अध्ययन, चिंतन, मनन और अनुभव झलकता है।
डेढ़ बीघा उपजाऊ और चार बीघा बंजर जमीन रखने वाले बेहद गरीब किसान परिवार में संजीव
का जन्म हुआ। बचपन सामंतों के जानलेवा शोषण, खून चूसने वाली गरीबी, दमन और जलालत के माहौल में बीता। संजीव का रचनाकर्म वास्तव
में उनके कटु जीवनानुभवों और गहन विचारों
का समावेश हैं।
संजीव की कहानी ‘तीस साल का सफरनामा’ में सुरजा का गाँव कुसुमपुर आजादी के बाद के गाँव का “एक चलता-फिरता दस्तावेज है।’’ सामान्य किसान किस प्रकार इन वर्षों में बद से
बदतर जीवन की ओर अग्रसर है तथा समृद्ध किसान और समृद्ध होता चला जा रहा है,
इसका प्रामाणिक चित्रण इस कहानी में हुआ है।
स्वतंत्रता के बाद गाँव में विकास हुआ “गाँव में सड़के बनी, ट्यूबवैल गड़े,
नहरें आयी, चकबन्दी हुई, तरह-तरह के विकास और राहत के कार्य किये गये। इन तमाम दौरों से गुजरते हुए आज
सुरजा किसान से मजूर बन गया है और नम्बरदार किसान से महाजन।’’ गाँव के विकास के लिए सरकार और सरकारी अफसरों
को जमीनें पसंद आयी तो सुरजा जैसे छोटे किसानों की। तहसील से गाँव कुसुमपुर तक
पक्की सड़क बनी तो मगर सुरजा जैसे छोटे किसानों की जमीन निगलते हुए। गाँव में जितनी
भी खुशहाली आयी है, वह आयी है
नम्बरदार और उस वर्ग के लोगों के लिए। सरकारी योजनाओं और चकबंदी का फायदा हुआ तो
नम्बरदार को। सूरजा के द्वार पर खड़ा हुआ शीशम का पेड़ भी नम्बरदार के हिस्से में
चला जाता है “जिसे बेचकर कभी
उसने नम्बरदार का कर्ज चुकाने का सपना देखा था।’’ आज जो किसानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है उसके
केंद्र में सरकारी नीतियाँ ही हैं । स्वाधीनता के बाद से ही यदि किसानों पर ध्यान
दिया जाता, भूमिसुधार नियमों को कड़ाई
से व निष्पक्ष रूप से लागू किया जाता और
भूमिहीनों को उचित तरीकों से भूमि आवंटन किया जाता तो आज छोटे व सीमांत किसान जीवन
समाप्त करने के लिए विवश नहीं होते।
स्वतंत्रता के बाद देश में कई
तरह के भूमि सुधार कानून लागू किए गए जैसे बिचैलिया उन्मूलन, काश्तकारी सुधार, हदबन्दी, चकबन्दी आदि।
लेकिन जमींदारों और बड़े किसानों की अफसरों से साँठ-गाँठ, कानूनी दाव-पेंच, सरकार की इच्छाशक्ति की कमी ने इस पर भी पानी फेर दिया। जमींदारों ने हदबंदी
से दायरे के बाहर आने वाली भूमि को अधिकारियों और पटवारियों की मिलीभगत से अपने
रिश्तेदारों, काल्पनिक और मृत
व्यक्तियों के नाम करवाकर हदबंदी कानून की धज्जियाँ उड़ा दीं। संजीव ने अपनी कई
कहानियों में भूमि सुधार संबधी कानून की असफलताओं, उसके कारणों, गरीब लोगों को बरगलाकर उनकी जमीनों के हड़पने का चित्रण किया है। ‘तीस साल का सफरनामा’ कहानी में सरकारी घोषणा के अनुसार भूमिहीनों को भूमि वितरित
हुई मगर गरीब सुरजा को भला कैसे मिलती जबकि रामहरख पाण्डे, लौटन यादव और रमाशंकर सिंह आनन-फानन में अपनी सारी जमीन
बाल-बच्चों के नाम करके भूमिहीन बन गये। भूमिहीन हरिजनों को दी जाने वाली बंजर
जमीन भी हरखू हरिजन, लौटू हरिजन और
शंकर हरिजन के नाम से इन्हीं को मिली। “आखिर कानूनन हरिजन लिखने से इन्हें कौन रोक सकता था।’’ सुरजा ने इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया तो पुलिस ने
उसे धर दबोचा। जेल में अच्छी तरह उसके बदन और मगज की धुलाई हुई, जेल में ही उसे मिर्गी का दौरा आना शुरु हुआ। “सुरजा के इलाज के लिए उसे नम्बरदार का जूता
सुँघाया जा रहा है। अब मिरगी थमने लगी है........ लीजिये थम गयी।’’ नम्बरदार जैसे लोगों का जूता सूँघना सुरजा जैसे
लोगों की नियति है। ये स्थिति केवल कुसुमपुर गाँव की नहीं है, आजादी के बाद हर गाँव में आपको यही तस्वीर नजर
आयेगी। जमीन तो जमीन सुरजा के जन्म पर उसके दद्दा ने द्वार पर जो नीम और महुए के
पेड़ रोपे थे और जो सुरजा के साथ-साथ जवान हुए थे, वे भी अब उनके बाग में दर्ज है। सुरजा को अमीर किसानों
गटरूसिंह और नम्बरदार की चक के बीच की चक मिलती है किन्तु दोनों तरफ से दबते-दबते
छह बिस्से रह गयी थी जिसे अंततः नम्बरदार को लिख देने के बाद कर्ज से उऋण बोला
उन्होंने।
संजीव की कहानी ‘पिशाच’ में नए सामंत और पुराने सामंत वर्ग का चित्रण है। स्वतंत्रता पूर्व पुराने
सामंत किसानों, मजदूरों और
स्त्रियों का शोषण करते थे और स्वतंत्रता के बाद प्रधान, सरपंचों, ग्रामपंचों के
रूप में नए सामंत वर्ग का उदय हुआ। कहानी का प्रमुख पात्र महातम बाबा गाँव का
पुराने सामंत है। सारा गाँव उनकी पुरानी रैयत था। समय करवट बदलता है, और रमेशर गाँव का प्रधान बन जाता है। वह गाँव
की जमीन हड़पता है और बाबा की भी। बाबा पुराने जमाने के सामंत हैं और रमेशर नया
सामंत है। कहानी का पात्र दुबे कथावाचक से कहता है, “बाबा में एक कुटिल पुरोहित और मगरूर सामंत भर था, जबकि रमेशर में उस पुरोहित और सामंत के अलावा
एक काइयाँ मुनीम और मक्कार बनिया भी है।’’ सामंती प्रथा समाप्त होने के बाद भी पुराने सामंत आम जनता से स्वयं को श्रेष्ठ
मानते हैं। जमींदार उन्मूलन कानून के तहत अपनी जायदाद, जमीनें गवा चुके सामंत पुरानी यादों को संजोये रखना चाहते
हैं। बदली हुई परिस्थितियों से आत्मसात करने में उन्हें कठिनाई महसूस होती है।
पिशाच कहानी इसी ढहते हुए सामन्तवाद की करूण त्रासदी है। पुराने सामंत ‘बाबा’ के परिवार की वर्तमान आर्थिक स्थिति दयनीय है। वह कथावाचक से प्रार्थना करते
हैं, “बचवा, कौनू नौकरी-चाकरी होय शहर में तो हमरे नतियवन
को लेई जाओ। और नहीं तो उहाँ तुम्हारा भोजन ही पकायेंगे या दरबानी ही करेंगे। हम
और कुछ नहीं देई सकते तो बामन हैं, असीसेंगे ही।’’
कथावाचक नौकरी की समस्या को बताते हुए गाँव में
ही अपने ट्यूबवैल पर काम करने के लिए कहता है। बाबा यह सुनकर भड़क जाते हैं क्योंकि
कथावाचक का परिवार कभी उनका बंधुआ मजदूर था। उनके मन में सोया हुआ सामंत जाग उठता
है, “तुमरी हिम्मत कइसे पड़ी ई
कहने को....? उहाँ हमरे लड़के
तुम्हारे घर काम करेंगे, भूलि गये कि तुम
काउ हो और हम काउ हैं?’’ बाबा के अंदर
पुराना सामंत जीवित है तो वर्तमान परिस्थितियों से आत्मसात नहीं कर पाता है। बदली
हुई व्यवस्था के प्रति उनके मन में आक्रोश जमा हुआ है जो जब-तब फूट पड़ता है। वह अब
भी स्वयं को अन्य ग्रामीणों से अलग व श्रेष्ठ समझते हैं।
कहानी ‘पिशाच’ में रमेशर गाँव का प्रधान बनने के बाद
धीरे-धीरे गाँव की जमीन व बाग-बगीचों पर कब्जा करने लगता है - “भगवान के घर नियाव था तभी तो रमेशर
ग्राम-प्रधान बन कर गाँव की जमीन हड़पता जा रहा था।’’ पहली बात तो आजादी के बाद भूमिहीनों को मिलने वाली जमीनों
का आवंटन सभी पक्षों को ध्यान में नही रखा गया और जो भूमि गरीबों और दलितों के हाथ
लगी वह अनुपजाऊ या बंजर थी। और जब हाड-तोड़ परिश्रम के बाद उन्होंने जमीन को उपजाऊ
बना लिया तो अगड़ी जात वालों की नजर उन जमीनों पर जम गयी, जमीनों को कब्जाने के लिए नए-नए जाल बिछाए जाने लगे। सीधी
उंगली से घी नहीं निकला तो कभी डरा धमका कर, कभी राजनैतिक पैंतरों का सहारा लेकर दलितों और छोटे किसानों
की जमीनों कों हड़पने के प्रयास अनवरत जारी रहे।
भारत की आजादी के
पाँच से अधिक दशक बीत जाने पर भी गाँवों में भूमि सम्बन्धी समस्या हल नहीं हुई है
तथा यहाँ की अर्द्ध-सामंती और अर्द्ध-पूँजीवादी व्यवस्था में इसका हल संभव भी नहीं
लगता है। कहानी ‘पूत-पूत!
पूत-पूत!!’ में इसी समस्या को सामने
रखा गया है। “उनके पास जमीनें
थी, हम उनके मजूर। बाकी सभी
ने न्यूनतम मजूरी देने की बात मान ली, लेकिन उन लोगों ने नहीं मानी, कहा, हमारी जमीन चाहे परती पड़ी रह जाए, लेकिन हम मजूरी एक भी पैसे नहीं बढाएँगे।’’
श्रमिकों के श्रम की पूरी कीमत न मिलने पर
विद्रोह होना स्वाभाविक है। कहानी में वर्ग संघर्ष का दूसरा कारण भूदान में दी गई
भूमि को वापस लेने का प्रयास है, “वो जमीन थी बंजर।
हम लोगों ने सालों साल खून पसीना बहाकर उसे खेती योग्य बनाया, थोड़ी खुशहाली लौटी तो जमींदारों की नजर लग गयी।
हमें खेत छोड़ देने की धमकी मिली। हम नहीं माने तो ट्रैक्टर से जोत-बो लिए जबरन।’’ कहानी में दोनों वर्गों की सेनाएँ हैं - वीर सेना और मुक्ति
सेना। दोनों के हित अलग-अलग है जिस कारण इनमें आये दिन खूनी-संघर्ष होता है।
संजीव की एक अन्य कहानी ‘मरजाद’ ग्रामीण राजनीति में आरक्षण व्यवस्था के सत्य को उद्घाटित करती है। मिसिर जी
प्रधान के पद पर अपने नौकर धनपत को खड़ा करते हैं क्योंकि, “गाँव ओ.बी.सी. के कोटे में आ गया है, खुद तो खड़ा नहीं हो सकता था सो धनपतिया को खड़ा करा दिया
ताकि परधानी की डोर अब भी उसी के हाथ में रहे।’’ मिसिर जी की इच्छा से धनपत करीमपुरा के नए परधान बन गए
लेकिन इससे धनपत की सामाजिक व आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, वह अब भी मिसिर जी की खाट के ऐन सामने नीचे दो
ईंटों पर उकड़ू बैठता। धनपत अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट है, वह कहता है, “हम तो भरत हैं, राम जी जब तक गद्दी पर नहीं विराजते, उनके खड़ाऊँ........।’’
कहानी में प्रधान मिसिर जी भी निम्न वर्ग
के लोगों की जमीन हड़पने के लिए नई-नई चालें चलते हैं। धनपत कुम्हार की भीट की जमीन
को वह ग्राम-समाज की बताकर कब्जा कर लेते हैं, “जिस भीट के लिए इतना महाभारत हुआ वह भीट ग्राम-समाज की
बताकर मिसिर जी ने कब्जिया लिया। परधान थे वे। कुम्हार मुँह ताकते रह गए।’’
मिसिर जी के पास चालीस बीघा खेत, बाग-बगीचे ईंट का भट्टा आदि है मगर उसे
संतुष्टि नहीं है, वह मुसम्मात काकी
की एक बीघा जमीन हड़पना चाहता है, गाँव का कोई भी
आदमी मुसम्मात काकी के पक्ष में बोल कर मिसिर जी से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता
है। आजादी के पहले जहाँ जोर जबरदस्ती और लठैतों के बल पर जमीनों व फसलों पर कब्जे
किए जाते थे वहीं आजादी के बाद यह काम राजनीतिक पहुँच व राजनेताओं के संरक्षण में
और कानून के नाम पर किए जाने लगे, यानि काम तो वही
रहा बस तरीका बदल गया। संजीव ने इस कहानी में किसान वर्ग में एकता के अभाव की ओर
संकेत किया है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत के
गाँवों का अवलोकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सारी राजनीतिक शक्तियाँ अभी भी
सामंतों के हाथ में ही है। सत्ता बदल गयी है लेकिन शोषक वही हैं। इसी सत्य को
उद्घाटित करती है कहानी ‘प्रेत मुक्ति’। इस कहानी में यहाँ के वनवासियों के मेहनतकश
किन्तु अभावग्रस्त जीवन के दुःख-दर्द का चित्रण है। गाँव की राजनीति के केन्द्र
में है मुखिया जी और उनका पुत्र सुरेन्द्र। डॉक्टर मुर्तजा कथानायक को मुखिया जी
की शक्ति के बारे में बताते हुए कहते हैं - “यह अस्पताल तो अस्पताल; थाना, कचहरी और आगे तक,
मजाल है कोई चूँ कर दे जरा उनके खिलाफ! आज तक
कोई यह नहीं जान सका कि उनकी जमीन कितनी है और कितनी हैं औरतें! जानने का सवाल ही
पैदा नहीं होता, हदबंदी के बाद की
जमीन दूसरों के नाम है, जो उन्हीं के
यहाँ मजदूरी करते हैं।’’ उच्च वर्ग के लोग
हदबंदी कानून में सुराख कर सीमा से बाहर वाली जमीनें अपने रिश्तेदारों या मजदूरों
के नाम कर इन जमीनों के वास्तविक मालिक बने रहे। इसका सीधा नुकसान भूमिहीन मजदूरों
को हुआ और वे स्वतंत्रता के बाद भी मजदूर से किसान नहीं बन सके। संजीव अपनी
कहानियों में बार-बार जमीनों के असमान वितरण, सामंती और उच्च वर्ग के लोगों द्वारा राजनीतिक ताकत हासिल
कर छोटे किसानों और गाँव की साझी जमीन पर कब्जा करने की चालों का खुलासा करते हैं।
मुखिया जी और सुरेन्द्र जैसे लोगों ने ग्रामीण जनता के साथ-साथ नौकरशाही को
भी भयभीत कर रखा है। सुरेन्द्र द्वारा दवाइयों की पर्ची डॉ. मुर्तजा को पकड़ाने पर
वह अस्पताल से जरूरतमंदों को दी जाने वाली दवाइयाँ उसे पकड़ाने लगते हैं, नये डॉक्टर द्वारा इसका विरोध करने पर डॉ.
मुर्तजा उनसे कहते हैं - “अभी क्या देखते
हैं, इन्हीं का क्यों, इनके कुत्तों का भी इलाज करना पड़ेगा मेरी तरह।’’
मुखिया जी के शोषण के चलते मनुष्य एवं पशु
भयानक कुपोषण का शिकार है - “छोटे-छोटे
इंसानों, बौनी औरतों की बहुतायत।
गाय-बकरी तक छोटे-छोटे, फसलें तक
मरी-मरी।........ जिन्हें कायदे का भोजन तक मयस्सर नहीं, उनके लिए अस्पताल क्या दे सकता था? ’’ ‘प्रेत-मुक्ति’ कहानी के बौने पुरुष, स्त्रियाँ, छोटे-छोटे पशु,
मरी-मरी सी फसलें, कुत्ते से भी कमजोर बाघ कई पाठकों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग
सकते हैं, लेकिन लेखक ने इनको टुडी
(धनबाद का पहाड़ी क्षेत्र) में साक्षात रूप में देखा है। इस आदिवासी अंचल की
परिस्थितियों ने संजीव को ‘प्रेतमुक्ति’
कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया।
संजीव की कहानी ‘राख’ में भारत के गरीब गाँवों के किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रण है, “इस ब्लॉक में कोई डॉक्टर न था, मुझे पशुओं के साथ-साथ गाँव वालों का इलाज भी
करना पड़ता, कभी-कभी वह बेलामाइल
इंजेक्शन पशु को भी, आदमी को भी,
ग्लूकोज, विटामिन और कई दूसरी चीजें भी.... मैं न भी करता तो लोग
मुझे बाध्य कर देते.... और अक्सर ठीक भी हो जाते।’’ पशु से मानव बनने के लिए इंसान ने लाखों वर्ष की यात्रा की
है लेकिन गरीबी की मार उन्हें तुरंत ही इंसान से पशु बनने पर मजबूर कर देती है।
भारत में भ्रष्टाचार केवल
शहरी समाज तक सीमित नहीं है। भ्रष्टाचार की जड़ें कस्बों और गाँवों में भी फैली हुई है। गाँवों के राजनेता, प्रशासन के लोगों के साथ मिलकर सोसायटी का माल
हजम कर दरिद्र ग्रामीण जनता का हक मार रहे हैं। । गाँवों में ग्राम सेवकों,
पटवारियों, वार्डपंचों, सरपंचों, प्रधानों द्वारा जनता से रिश्वत लेना, उनके हिस्से की राहत सामग्री हड़प जाना, आजकल आम बातें हैं। ‘प्याज के छिलके’ कहानी में हरिजन नेता रामलगन, मुंशीजी से कहता
है, “तुमने जो खाद भण्डार से
दस बोरा डाई, दस बोरा सल्फेट,
पन्द्रह बोरा यूरिया की हेराफेरी करके झिनकुंआ
को फँसाया है, उसका क्या जवाब
है? अनमोल सिंह ने गाँठों,
कपड़े और क्विंटलों चीनी किसको बाँटी? तुम्हारे राम सुमेर यादव ने ब्लॉक का उन्नत बीज
पिसवाकर बी.डी.ओ. साहब को नहीं पहुँचाया?..... और तुम सबों ने मिलकर अन्त्योदय के मुर्गा-मुर्गी, बकरी, ऊँट, इक्के, सिलाई मशीनें ही नहीं, सूअर तक हजम कर डाले?’’ इसका प्रत्युत्तर देते हुए मुंशी जी रामलगन पर निशाना साधते
हैं, “फुसला-फुसला कर खाना
पूर्ति के लिए सोसायटी से पहले इन्हें कर्ज दिलवाया, फिर डुगडुगी पिटवाकर कुर्की-नीलामी करायी। गरीबों की कोई
इज्जत नहीं होती क्या? हमने तो
अन्त्योदय में कुछ दिलवाया ही है, तुमने तो गाँव की
इज्जत ही लुटवा दी।’’ लेखक यहाँ सरकार
के किसान विरोधी रवैये पर क्षुब्ध हैं, जो किसानों को कुछ हज़ार का कर्ज देकर या माफ कर चिल्ला पौं मचाती है और
उद्योगपतियों को दिए हज़ारों - करोड़ के कर्ज और सब्सिडी की कहीं सुगबुगाहट भी नहीं
होती। कर्ज देने वाली संस्थाएँ कुछ हजार का कर्ज लेने वाले किसानों को कर्ज वसूली
के समय बार बार बेइज्जत करती हैं। रोज रोज की जलालत से परेशान होकर किसान
आत्महत्या का रास्ता इख्तयार करता है। वरिष्ठ पत्रकार राजेश रपरिया ने अपने आलेख
में लिखा है कि हैरानी की बात है कि बैंकों के कर्ज में जहाँ उद्योगपतियों की
हिस्सेदारी है 41.71 प्रतिशत है,
वहीं किसानों की सिर्फ 13.49 प्रतिशत। बावजूद इसके देश के सबसे बड़े बैंक
एसबीआई की प्रमुख अरुंघति भट्टाचार्य का बयान आता है कि किसानों की कर्जमाफी देश
का वित्तीय अनुशासन बिगाड़ सकती है। रिजर्व बैंक के गवर्नर जो नोटबंदी के समय मौन
रहे, बड़े उद्योगों के लाखों
करोड़ के कर्ज पर कुछ नहीं बोले, वो किसानों के कर्ज
को लेकर मुखर है। इसी संदर्भ में आकड़ें बताते है कि बैंकों ने विगत तीन साल में
पूँजीपति कर्जदारों के 1.14 लाख करोड़ रूपए
राइट ऑफ में डाल दिए। इसे राजनीतिक भाषा में कर्ज माफ करना कहा जाता है। ऐसा खाता
जहाँ पैसा लौटने की उम्मीद खत्म मान ली जाती है।
संजीव की कहानी ‘जे एहि पद का अरथ लगावें’ में अवारा वित्तीय पूँजी के चरित्र को गाँवों
की आम जनता के लहजे में समझाने की कोशिश की गई है। अधकपारी के नुनू बाबू एक तिरिन
(तृण) तोड़े बिना ही धनवान बन गये। जबकि गाँव के गरीब-गुरबे लोग खून-पसीना बहाकर भी
दो समय की रोटी का बमुश्किल जुगाड़ कर पाते हैं। कहानी में संजीव ने सरकारी योजनाओं
और नीतियों पर कटाक्ष किया है जो अमीर को और अमीर तथा गरीब को और गरीब बना रही है।
पूँजीपति वर्ग जहाँ बिना परिश्रम के धन लगाकर धन कमा रहे हैं वहीं किसानों को अपने
परिश्रम का उचित मूल्य नहीं मिलता है। “बाबू गनेण सिंघ अपनी मेहनत से उपजाया धान लेकर सरकारी खरीद के लिए महीने भर से
घूम रहे थे, लेकिन कहीं कोई
सुनवाई नहीं।’’ गनेश सिंघ सभी ओर
से दुखी होकर बड़के पोखर में छलाँग लगा देते हैं। देश में किसान फसलों का उचित दाम
नहीं मिल पानें के कारण कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर रहे हैं। किसान जीवन पर शोध
करने वाली लेखिका पुष्पा तिवाड़ी कहती हैं ‘‘सरकार यदि अनाजों की कीमत तय करती है तो टैक्टर और अन्य
वस्तुओं की क्यों नहीं। किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी का विज्ञापन सरकार खूब
करती है लेकिन उद्योग जगत को दी जाने वाली सब्सिडी के बारे में चुप रहती है। सरकार
बिजली में सब्सिडी की बात करती है। हकीकत यह है कि खेती के समय बिजली ही नहीं
रहती।’’लेखिका यहाँ सरकार के
पूँजीपति पोषित रवैये पर क्षुब्ध हैं।
शोषितों और वंचितों के
पैरोकार संजीव आजादी के 70 वर्षों के दौरान
किसानों की स्थिति बद से बदतर होते जाने पर क्षुब्ध हैं। किसानों की व्यथा-गाथा को
अभिव्यक्त करता उनका नवीन उपन्यास ‘फाँस’ महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के बनगाँव के
किसानों, मजदूरों का दर्द बयाँ
करता है। बनगाँव के किसानों के माध्यम से लेखक ने भारत की समूची कृषक जाति की पीड़ा,
उनकी अभावग्रस्त जिंदगी, कर्मठ जीवन शैली और जुझारू प्रवति का वर्णन किया है। संजीव
का यह उपन्यास भूमण्डलीकृत भारत में किसानों की त्रासदी पर केन्द्रीत हिन्दी का
पहला उपन्यास है।
संजीव ने उपन्यास
के लिए बहुत ही प्रासंगिक और ज्वलंत विषय का चुनाव किया है। ज्ञात रहे कि
भूमण्डलीकृत भारत में लगभग 5 लाख से अधिक
किसान आत्महत्या कर चुके है और तकरीबन 1 करोड़ किसानी छोड़ चुके है। क्या यह एक सुनियोजित प्रयास है किसानों से उनकी
जमीन हथियाने के बाद उन्हें उद्योग धंधों में मजदूर बनाकर विकास करने का ? उपन्यास को प्रकाशित हुए अधिक समय नहीं हुआ है
और देश अलग-अलग क्षेत्रों मे किसान आंदोलन उठ खड़े हुए है, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश,
बुंदेलखंड के किसान फसल नष्ट होने पर मुआवजे और
कर्ज माफी की माँग कर रहे हैं। यही लेखक की कालजयी दृष्टि और समकालीन समाज की नब्ज
पकड़ने की कला है। लेखन से पूर्व संजीव ने लम्बा समय विदर्भ में बिताया, वे आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों के
साथ रहे, उनके दुख दर्द में शामिल
हुए। उनकी निरन्तर खराब होती जा रही आर्थिक स्थितियों के कारणों को जानने का
प्रयास किया तत्पश्चात लेखक की भूमिका का निर्वहन किया और एक कालजयी कृति की रचना
की।
विदर्भ के किसानों ने
कपास की अधिक पैदावार के लिए अमेरिकी बीज बीटी का उपयोग किया जो उनके लिए
सत्यानाशी का बीज साबित हुआ। इस बीज से एक तो उनके खेत की जमीन की उर्वरता कम हुई
दूसरा उन्हें कीटनाशकों का प्रयोग काफी मात्रा में करना पड़ा। लागत नहीं निकाल पाने
के कारण उन्हीं कीटनाशकों को पीकर किसान जीवन समाप्त कर रहें हैं। उपन्यास में
विदर्भ के शेतकार (किसान) शिबू, उसकी पत्नी
कलावती और दो बेटियों की कथा उनकी सामान्य जीवनचर्या से शुरू होती है और आगे चलकर
किसान जीवन के दुख, विद्रूपताओं,
विडम्बनाओं से पाठकों को रूबरू कराती है और फिर
सामने आता है सामंती शोषण, कभी न चुकने वाला
कर्ज, अशिक्षा और अंघविश्वास के
अंघेरे में डूबा समाज, झूठे सरकारी
आँकड़े, व्यवस्था द्वारा शोषण। इन
सब में फँसा शिबू, बैंक का पूरा
कर्ज चुकाने के बाद भी शोषण तंत्र से हार कर आत्महत्या कर लेता है और कुँए में
कूदकर जान दे देता है। बावजूद इसके, शिबू की आत्महत्या को किसान द्वारा की गई आत्महत्या की श्रेणी में नहीं माना
जाता, कारण बताया जाता है कि उस
पर कोई कर्ज नहीं था। जमीन बाप के नाम और आत्महत्या बेटा करे तो वह भी किसान
द्वारा की गई आत्महत्या नहीं मानी जाएगी और उसके परिवार को कोई सहायता सरकार
द्वारा नहीं दी जाएगी। सरकारी अफसरों द्वारा इस प्रकार के कई दाँव-पेच लगाकर एक ओर
जहाँ किसान आत्महत्या के आँकडों में कमी लाई जाती है वहीं दूसरी ओर मुआवजे की रकम
भी बचा ली जाती है। हिंदी साहित्य में एक लम्बे अरसे बाद किसानों और उनके सम्पूर्ण
जीवन की व्यथा, कसमसाहट और
मुक्ति की आकांक्षा अभिव्यक्त हुई है।
बनगाँव के किसान हर तरफ से
हार कर हरि की शरण में हैं। बाबाओं, नाग जोगियों, फकीरों के फेर
में पड़े गाँव के अशिक्षित लोग इन ‘कंगले बाबाओं’
से खजाने की आस लगाए हैं। ‘‘कितने ऐसे खजानों पर तो यक्षों और जिन्नों का
पहरा है। ढंग से अनुष्ठान किया जाए तो मजाल है कि खजाना ना मिले।’’ आस्था और परम्पराओं से इन लोगों को मंत्र,
तंत्र और अंधविश्वास भरी भक्ति ही विरासत में
मिली है, जिनकी पट्टी आँखों पर
चढ़ाए ये लोग आज तक कोल्हू के बैल की तरह परिक्रमा करते रहें हैं। इससे मुक्ति के
लिए संजीव ने गाँवों में शिक्षा के प्रचार प्रसार को आवश्यक माना है।
किसान देशवासियों का पेट भरता है,
वह धरती पुत्र है, अन्नदाता है, जिस दिन वो सिर्फ अपने लिए अन्न उपजाने लगेगा उस दिन देश की जनता को इसकी कीमत
का अहसास होगा। भूखे व्यक्ति को अनाज चाहिए, फ्री सिम या फ्री डाटा से उसका पेट नहीं भरने वाला। पेट भरा
हुआ है तो विकास की बातें हैं, शेयर सूचकांक,
डिजिटल इंडिया की बातें हैं, नहीं तो सब बेमानी है। सोचने वाली बात है कि इस
देश में पानी 20 रूपये लीटर बिक
रहा है और गेहूँ 16 रूपये किलो।
पानी की बोतल की एमआरपी, उनका उत्पादन
करने वाली कम्पनियाँ निर्धारित करती हैं, जबकि किसानों के उत्पादन का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार निर्धारित करती हैं।
यानि पूँजीपति अपनी वस्तु को बेचने का मूल्य निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र है
किन्तु किसान अपने अनाज का मूल्य उसकी लागत के अनुसार तय नहीं कर सकता। पूँजीपति
के लिए अधिकतम मूल्य (एमआरपी) और किसान के लिए न्यूनतम मूल्य (न्यूनतम समर्थन
मूल्य)। किसानों के हिस्से का सारा मुनाफा कमाते हैं अनाज मण्डी के व्यापारी, जो उनकी फसलों को औने-पौने दामों में खरीदकर लाखों का
मुनाफा बिना श्रम किए प्राप्त कर लेते हैं। बैंक और कर्ज देने वाली अन्य संस्थाओं
द्वारा कर्ज दिए जाने से पूर्व किसानों की फसल का बीमा करवाए जाने का प्रावधान है
तो फिर फसल खराब होने पर कर्ज वसूली के लिए वो बीमा कम्पनियों के पास जाने की बजाय
किसानों के पास क्यों जा रहे हैं ,कर्ज की रकम बीमा
कम्पनियों से नहीं वसूलने के पीछे कौन से कारण हैं, इस पर विचार करने की जरूरत है।
संजीव की कहानियाँ वर्गीय चेतना की और
संघर्ष की कहानियाँ हैं। लेखक अपनी कहानियों के माध्यम से निम्न वर्ग को शोषण का
विरोध करने के लिए प्रेरित करता है। ‘पिशाच’ कहानी का ‘दुबे’ गाँव के लोगों को पुराने व नये सामंतों का विरोध करने के लिए प्रेरित करता है,
“यहाँ तुम लोगों को हर मर्ज की बस एक ही दवा
सूझती है ...... भाग जाना। अब यहाँ हालत है कि रमेशर के किसी गलत काम की मुखालिफत
के लिए आदमी ढूँढे नहीं मिलते। ... बडकऊ छोटकऊ को सही अर्थ में जिलाने के लिए पहले
इस पिशाच का उच्छेद करना होगा।’’ संजीव की कहानियों में किसान सजग एवं जागरूक है
किन्तु शोषक-शोषित में संघर्ष एवं द्वन्द्व तथा किसी एक इकाई की विजय या पराजय का
उल्लेख नहीं है। ‘प्रेतमुक्ति’
कहानी यहाँ अपवाद है, जिसमें अत्याचारी सामंती पुत्र की हत्या एक किसान वर्ग से
जुड़ा व्यक्ति करता है। हालांकि वह भी किसी संगठित प्रक्रिया का परिणाम नहीं है।
लेखक द्वारा कहानियों में शोषक-शोषित में द्वन्द्व तथा किसी एक वर्ग की विजय या
पराजय का अंकन नहीं किये जाने का कारण यह हो सकता है कि वर्तमान में भारत में
साम्यवादी व्यवस्था नहीं है तथा किसान वर्ग या निम्न वर्ग के लोग इस के लिए एकजुट
तथा संघर्षरत भी नहीं हैं। ऐसी स्थिति में लेखक द्वारा वर्ग-द्वन्द्व या जय-पराजय
का अंकन कहानी को यथार्थ से दूर कल्पनालोक में ले जाने वाला होता है। संजीव जैसे
यथार्थवादी लेखक के लिए शायद यह कार्य कठिन था, अतः उन्होंने कल्पना आधारित घटनाओं के चित्रण से अपनी
कहानियों को दूर रखते हुए किसानों और निम्न वर्ग को संघर्ष के लिए प्रेरित करने का
कार्य किया है।
संदर्भ
- संजीव: ‘तीस साल का सफरनामा’, तीस साल का सफरनामा
- संजीव: ‘पिशाच’, दुनिया की सबसे हसीन औरत
- संजीव: ‘मरजाद’, गति का पहला सिद्धांत
- संजीव: ‘प्रेत-मुक्ति’, प्रेत-मुक्ति
- संजीव: ‘राख’, गुफा का आदमी
- संजीव: ‘प्याज के छिलके’, आप यहाँ है
- पुष्पा तिवारी: भूमंडलीकरण, किसान और भारतीय कथा-साहित्य
- संजीव: ‘जे एहि पद का अरथ लगावें’, गति का पहला सिद्धांत
- संजीव: फाँस
डॉ.मीनाक्षी
चौधरी
प्रवक्ता (हिंदी),डूँगर
महाविद्यालय, बीकानेर
अच्छा आलेख।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जोशी जी
हटाएंसंजीव के कथा साहित्य द्वारा आपने किसानी समस्या का पूर्ण लेखा जोखा यथार्थ के धरातल पर किया हैं....
हटाएंशानदार आलेख...
अनिल कुमार जी, आभार
हटाएंBahut Achha likha hai aapne
जवाब देंहटाएंBahut Achha likha hai aapne
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यावाद
हटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंआज दुबारा आपका लेख पढ़ा, वाकई काफी परिश्रम के साथ व्यवस्थित और सुगठित लेख लिखा है। मीनाक्षी जी धन्यवाद की पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें