त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
मुसलमान जमींदारों और मध्यवर्गीय
किसानों का संवेदनापूर्ण अंकन:आधा गांव/ डॉ.मौह.रहीश अली खां
राही मासूम रज़ा
स्वातंत्र्योत्तर युग के सुप्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार हैं। आपने अपने उपन्यासों
में राष्ट्र और राष्ट्र के नागरिकों की अंतः एवं बाह्य मनः स्थितियों को भली-भांति
दर्शाया है। इस संबंध में चंद्रदेव यादव ने अपने आलेख ‘परदे के पीछे की दुनिया’ में लिखा है, ‘स्वातंत्र्योत्तर युग के हिंदी उपन्यासकारों में राही मासूम रज़ा एक महत्वपूर्ण
उपन्यासकार हैं। उनके उपन्यास उनके युग की सामाजिक समस्याओं और सामाजिक
ह्रास-विकास के साक्षी हैं। अजनबियत, अकेलापन और अस्तित्त्वहीनता स्वातंत्र्योत्तर युग की परिस्थितियों की देन है।’1 अर्थात् राही द्वारा लिखित लगभग समस्त उपन्यास
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्समाज में होने वाली उठा-पटक को यथार्थ रूप में
प्रस्तुत करते हैं। सांप्रदायिकता, सामाजिक विघटन,
भारत विभाजन एवं जातिवाद आदि समस्याएं आपके
उपन्यासों के मुख्य विषय रहे हैं।
समकालीन कथाकारों में
महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली सुप्रसिद्ध लेखिका डॉ. नमिता सिंह सांप्रदायिकता को
राही की चिंता का मुख्य विषय बताते हुए लिखती हैं, ‘राही की एक मुख्य चिंता सांप्रदायिकता के संबंध में थी। वह
उस भारतीयता के पैरोकार थे, जिसकी सांस्कृतिक
परंपरा मिली-जुली तहजीब है। सांप्रदायिकता के खिलाफ उनकी लड़ाई अंतिम समय तक रही।
समाज को बांटने वाली शक्तियों और राजनेताओं के विरुद्ध उनकी कलम हमेशा चलती रही।
चाहे वह आडवाणी जी हों या बाल ठाकरे हों, सैयद शहाबुद्दीन हों या इमाम बुखारी हों...उन्होंने किसी को नहीं बख्शा।’2 इसी प्रकार प्रो. कुंवरपाल सिंह ने भी अपनी
पुस्तक ‘राही और उनका रचना-संसार’
की भूमिका में लिखा है, ‘राही का पूरा लेखन सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक सतत् संघर्ष
है। उनका पूरा लेखन हिंदुस्तानी सभ्यता-संस्कृति और उसकी साझी विरासत का प्रबल
पक्षधर है। राही हमेशा उन शक्तियों और प्रवृत्तियों का विरोध करते रहे हैं जो
भारतीय जनता की एकता को धर्म, संप्रदाय,
क्षेत्रीयता, जातिवाद और भाषा के आधार पर अपने राजनैतिक और आर्थिक
स्वार्थों के लिए बांट रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने भविष्य के परिवर्तनों और
सामाजिक संरचना की धड़कनों को स्वर और शब्द दिए हैं।’3 अतः राही ने निडर होकर अपनी लेखनी चलाई। आपने वही लिखा जो
देखा अर्थात् अपने समय के सच को यथार्थ रूप में लिखना ही राही की विशिष्ट पहचान रही है।
राही मासूम रज़ा ने मजदूर,
किसान एवं कारीगरों के प्रति होने वाले अमानवीय
व्यवहार के संबंध में भी अपनी चिंता व्यक्त की है। आपका मानना है कि इस श्रमजीवी
वर्ग के साथ जो अत्याचार एवं अमानवीय व्यवहार स्वतंत्रता पूर्व होता था वैसा
अक्षम्य एवं दंडनीय व्यवहार स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद असंभव है क्योंकि अब इस
वर्ग के लगभग सभी व्यक्ति समानता एवं स्वाभिमान की भावना के चलते एकत्रित होकर
संघर्ष करने पर उतारू हैं। जैसा कि प्रो. कुंवरपाल सिंह की मान्यता भी है,
‘राही स्वतंत्रता का सूर्य उगने के अवसर पर
जमींदारी व्यवस्था, ऊंची जाति के
हिंदू मुसलमान तथा छोटी जाति के हिंदू और मुसलमानों में आए परिवर्तन का सूक्ष्म
विश्लेषण करते हैं। उन्हें आर्थिक प्रश्नों और सामाजिक सम्मान की भावना से जोड़ते
हैं। राही का विश्वास है कि बड़े लोग इन श्रमजीवी किसानों, मजदूरों और कारीगरों के साथ जिस तरह का अमानवीय व्यवहार
करते रहे हैं, वह अब संभव नहीं
है। समानता और स्वाभिमान की भावना ने इन जातियों को एकता के सूत्र में बांध दिया
है। धर्म पीछे चला गया है।’4 अर्थात् राही ने
श्रमजीवी वर्ग का पक्ष लेते हुए उन्हें अपने अधिकार एवं सम्मान के लिए जागरूक एवं
संघर्षरत दिखाया है। उच्चवर्ग के शोषण एवं अत्याचार से डरकर भागने में निम्नवर्गीय
श्रमिक लोगों का हित नहीं है, बल्कि इन
समस्याओं से मिलकर मुकाबला करने में ही भलाई है। राही का सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गांव’ इस बात का जीता-जागता सुबूत है।
निस्संदेह कहा जा सकता है
कि ‘राही हिंदी में प्रेमचंद,
यशपाल तथा मुक्तिबोध की परंपरा में हैं जो बड़े
रचनाकार के साथ चितंक भी हैं। देश, समाज, उसकी अखंडता, एकता और साझी विरासत की रक्षा और विकसित करना तथा विघटनकारी
और सांप्रदायिक शक्तियों के पीछे कौन-सी शक्तियां काम कर रही हैं। उनका उद्घाटन
करना और बेबाकी से उनकी ओर इंगित करना राही के रचनाकर्म का प्रमुख उद्देश्य रहा
है। हिंदी की जनवादी परंपरा में राही एक प्रमुख स्तंभ हैं। जिनके कर्म कविता,
उपन्यास, व्यंग्य लेख और साहित्यिक लेख और फिल्मी लेखन तक फैले हुए
हैं।’5अर्थात् राही का रचना
संसार काफी विशाल है। आपने अपनी लेखनी के माध्यम से हिंदी साहित्य सेवा के साथ-साथ
देश सेवा करके एक सच्चा हिंदुस्तानी होने का फर्ज अदा किया है। आपने निडर होकर
साहित्य सृजन किया और अपने समय के सच को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया। अतः जैसा
आपने देखा वैसा ही लिखा, किसी की परवाह
किए बगैर।
सन् 1966 में प्रकाशित ‘आधा गांव’ राही मासूम रज़ा
का सुप्रसिद्ध उपन्यास है, जिसमें
मुस्लिम-परिवेश को बड़े अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है। मुस्लिम समुदाय के
विभिन्न क्रिया-कलापों, उनके रहने के
तौर-तरीकों, पहनावों, उत्सव एवं त्यौहारों को भलीभांति पाठकों के
सम्मुख रखा गया है। मुस्लिमों के साथ-साथ हिंदुओं को भी वर्णित किया गया है तथा
साथ ही हिंदू-मुस्लिम आपसी व्यवहार एवं तालमेल को भी प्रदर्शित किया गया है।
‘आधा गांव’ का कथा स्थल राही का अपना ही पैतृक गांव ‘गंगौली’ है जो कि गाजीपुर जिले (उ.प्र.) की मौहम्मदाबाद तहसील के कासिमाबाद थाने में गाजीपुर से उत्तर दिशा में बारह मील दूर स्थित है। ‘गंगौली नाम का यह गांव शीया और सुन्नियों में, सैयदों और जुलाहों में, उत्तर पट्टी और दक्खिन पट्टी में और यदि आस-पास के पुरवों को भी लें तो हिंदुओं और मुसलमानों में, छूतों और अछूतों में और एक निश्चित सीमा तक जमींदारों और असामियों में बंटा हुआ है। पूरी कहानी इन्हीं में तनी कसी है और कहानीकार, इनमें से हर एक को छूने के प्रयास में कथासूत्र को करघे की ढ़रकी की तरह एक सिरे से दूसरे तक दौड़ता रहता है।’6 अर्थात् ’आधा गांव’ एक तरह से पूरे भारतीय समाज को चित्रित करने वाला उपन्यास है। इसमें स्वतंत्रता के पश्चात् हाशिए पर धकेला जा रहा मुस्लिम समाज तथा सांप्रदायिकता के नए उभार ..... आदि की ओर उपन्यासकार ने संकेत किया है। अतः इस उपन्यास में आजादी से पूर्व और पश्चात् के ग्रामीण परिवेश का परिवर्तित समाजिक जीवन, राजनीति, उभरता शिक्षित मध्यवर्ग एवं नए बदलते सामाजिक-राजनीतिक मूल्य आदि को बखूबी दिखाया गया है।
‘आधा गांव’ की विषय-वस्तु के संबंध में प्रो. गोपालराय ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी उपन्यास का इतिहास’ में एक स्थान पर लिखा हैं, ’’ ‘आधा गांव उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के गांवों
में रहने वाले मुसलमान जमींदारों और मध्यवर्गीय किसानों की जिंदगी के एक हादसे का
चित्रण करने वाला उपन्यास है। इस उपन्यास में राही ने गंगौली के मुसलमानों की
स्वाधीनतापूर्व खुशहाल जिदंगी से आरंभ कर आजादी के बाद उनकी दयनीय स्थिति, अपने ही वतन में बेगाना बन जाने, सामान्य जीवन धारा से कट जाने और आर्थिक दृष्टि
से विपन्न हो जाने का मार्मिक चित्रण किया है।’7 अर्थात् ’आधा गांव’
में उपन्यासकार ने पूर्वांचल के एक गांव गंगौली
में सदियों से रहते आ रहे मुसलमान जमींदारों और किसानों की बिखरती हुई जिंदगी का
अत्यंत संवेदनापूर्ण अंकन किया है। इसीलिए राही मासूम रज़ा को, गांवों में किसान और जमींदार के रूप में अपनी
सारी आर्थिक-सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ जीवन यापन करने वाले मुस्लिम समाज का
संपूर्ण चित्र प्रस्तुत करने वाला प्रथम उपन्यासकार माना जाता है।
राही मासूम रज़ा ने इस
उपन्यास में सबसे पहलें वर्ग भेद की समस्या को दर्शाया है। ‘आधा गांव’ आंचलिक उपन्यास
है। इस उपन्यास में मुख्यतः दो वर्गों को उभारा गया है। पहला जमींदार-वर्ग तथा
दूसरा मजदूर किसान वर्ग। जमींदार-वर्ग के हाथों मजदूर किसान वर्ग का शोषण किया
जाता है और उसे दबाकर भी रखना चाहता है। जैसा कि स्वयं लेखक ने उपन्यास में लिखा
है, ‘जब वह सलीमपुर पहुंचे तो
अशरफुल्लाह खां किसी आसामी को गालियां दे रहे थे। फुन्नन मियां को देखते ही
उन्होंने गालियां देना बंद कर दिया और बोले, ‘साले अगर परसों तक लगान और कर्ज मय सूद के न आया तो
ढ़ोर-डांगर, सब नीलाम करवा दूंगा।
अपने इन लाट साहब को भी ले जा और इन्हें बतला कि जमींदारों से कैसे बातचीत की जाती
है।’8
‘सामने ही एक तंदुरुस्त दमकता हुआ नौजवान मुर्गा
बना हुआ था। उसकी पीठ पर ईटों का एक मीनार-सा बना हुआ था। जब वह मीनार हटाया गया
तो कई मिनट तक वह खड़ा न हो सका। वह खड़ा होने के बाद भी अपनी पीठ सहलाता रहा।‘‘सलाम कर जमींदार को।’’ बाप ने उसे कुहनी मार कर सरगोशी में कहा। उसने खां साहब को
सलाम किया। फिर अपने बाप के साथ चला गया।।’9 यहां पर अशरफुल्लाह खां एक जमींदार हैं तथा आसामी कोई
खेतिहर मजदूर है। जमींदार लोग, मजदूर खेतिहर
लोगों को पूरी तरह से नष्ट करना चाहते हैं। इसीलिए नगरों की स्थिति भी यही है।
नगरों में मिल मालिक (पंूजीपति) एवं मिल मजदूरों में यही संघर्ष दिखाई देता हैै।
शहरों में यूनियनों के अनुसार कार्य किया जाता है। राही लिखते हैं, ‘अरे जब जमींदारी खत्म हो जय्यहे, तई किसान लोग जमींदारन को हिआँ रहे दीहें भला?
अइसा-अइसा जुलुम जोतिन हैं, ई लोग? जुलुम त खैर हुआँ भी है।
मिल-मालिक सब आफत जोते हैं। बाकी हमरे लोगन की यूनियनों सालन की चीरे रह थी।’10 अर्थात् जमींदारी के खात्मे के बावजूद भी
वर्गों का संघर्ष ज्यों की त्यों जारी रहा। अतः जमींदारी व्यवस्था के रहते एवं
टूटने के पश्चात् मुस्लिम जमींदारों तथा शिल्पी वर्गकी नाजुक एवं दयनीय स्थिति को ‘आधा गांव’ में यथार्थ एवं कलात्मक रूप में सविस्तार प्रस्तुत किया गया
है। इस संबंध में ‘आधा गांव’
एक अद्वितीय उपन्यास है।
आजादी मिलने के कुछ वर्षों
बाद ही भारत विभाजन हुआ और पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही हिंदुतान में जमींदारी
प्रथा का अंत भी हो गया। जमींदारी समाप्त होते ही इन लोगों (जो पहले जमींदार थे)
के सामने आर्थिक समस्या खड़ी हो गई। मेहनत करना इन लोगों ने सीखा नहीं था। वहां पर
रहकर छोटे-मोटे काम करना अच्छा नहीं समझते थे। इसलिए अब उनके घर छूटने लगे,
’जमींदारी के खात्मे ने इनकी शख्सियतों की
बुनियादें हिला दीं। वे घरों से निकले और जब घर ही छूट गया तो गाजीपुर और कराची
में क्या फर्क है।’11 अतः जमींदारी
प्रथा की समाप्ति के साथ ही समाज का पूरा ढ़ांचा टूट गया। यहां का जमींदार अपने
पैत्रक स्थान को छोड़कर इतनी दूर चला गया, जहां कोई काम करके जीने में उसे शर्म महसूस न हो। अर्थात् यहां का
मुसलमान पाकिस्तान नहीं गया और यदि वह गया
भी तो हिंदुओं के डर से नहीं। वह कराची गया, लाहौर गया, गया गया, ढ़ाका गया पर पाकिस्तान नहीं गया। यही ’आधा गांव’ की हकीकत है।
संदर्भ:-
1. संपा.- प्रो. कुंवरपाल सिंह; राही और उनका रचना-संसार; शिल्पायन प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली;
2004; पृ. 211.
2. अमर उजाला,
आगरा, 12 मार्च 2010; में प्रकाशित डॉ. नमिता सिंह का लेख, ‘अलीगढ़ में राही मासूम’ से साभार उद्धृत; पृ. 16.
3. राही और उनका
रचना-संसार; भूमिका, पृ. 7.
4. वही; पृ. 92.
5. वही; पृ. 32.
6. वही; पृ. 98.
7. प्रो. गोपालराय;
हिदी उपन्यास का इतिहास; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2002; पृ. 292.
8. राही मासूम रज़ा;
आधा गांव; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1966; पृ.147.
9. वही; पृ. 147.
10.वही; पृ. 281.
11.वही; पृ. 293.
डॉ.मौह.रहीश
अली खां
पूर्व शोध छात्र, हिंदी विभाग, भाषा, भाषा विज्ञान,
संस्कृति एवं विरासत संस्थान हरियाणा केंद्रीय
विश्वविद्यालय, जांट-पाली,
महेंद्रगढ़,मो-8607239434
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