साधू ओझा संत
सबका अपना–अपना
क्षेत्र है, कोई अध्यात्म की आड़ लेकर अपना कारोबार चला रहा है, कोई तंत्र विद्या
के बल पर, कोई ज्योतिष को आधार बनाकर और कोई भूत-प्रेत, झाड़-फूक के चक्रव्यूह में
फंसाकर सीधे–साधे लोगों को अपना शिकार बना रहा है। अध्यात्म का सहारा लेकर
ठगने वाले इधर बीच कई बाबा सिलसिलेवार हवालात में भी गए हैं, कई जाने की तैयारी
में हैं। फिर भी कई बाबा ठाट से ऐय्यासी भरी जिन्दगी बीता रहे हैं न उन्हें कानून
का डर है, न इन्सान का, न भगवान का। तंत्र विद्या को लेकर हम अख़बारों में पढ़ते ही
रहते हैं कि कैसे सुख–समृद्धि का लालच देकर नरबलि जैसी घटना तक को अंजाम दे देते
हैं। इंद्रजाल, वशीकरण, पति को कैसे बस में रखें, प्रेमिका कैसे बनाएँ, नौकरी कब
मिलेगी, शादी कब होगी, यह सब क्या है, तंत्र और ज्योतिष का ही तो कमाल है।
भूत-प्रेत का डर तो हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक विश्वास की धरोहर है, जिसे बचपन में
हर आदमी को झेलना ही पड़ता है। वह भय इतना खौफनाक होता है कि कई आदमी तो बड़े होने
तथा तरह–तरह की वैज्ञानिक बातों के बावजूद भूत–प्रेत का भय उनका पीछा नहीं छोड़ता
है। जैसे कि आज यह जानने के बावजूद की चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण का अपना एक
वैज्ञानिक कारण है फिर भी लोग चेतन-अवचेतन मन उससे जुड़े अन्धविश्वास का पालन करते
ही हैं।
भारतीय
समाज में बाबाओं के मनोविज्ञान का चरित्रांकन करते हुए प्रेमचन्द ने भी लिखा है – ‘हिन्दू
समाज में पूजने के लिए केवल एक लंगोटी बांध लेने और देह में राख मल लेने की जरूरत
है ;अगर गांजा और चरस उड़ाने का अभ्यास भी हो जाए, तो और भी उत्तम। यह स्वांग भर
लेने के बाद फिर बाबा जी देवता बन जाते हैं। मूर्ख हैं, धूर्त हैं, नीच हैं पर
इससे कोई प्रयोजन नहीं। वह बाबा हैं। बाबा ने संसार को त्याग दिया, माया पर लात
मार दी और क्या चाहिए। अब वह ज्ञान के भंडार हैं, पहुंचे हुए फकीर हैं। हम उनके
पागलपन की बातों में मनमानी बारीकियां ढूँढ़ते हैं, उनको सिद्धियों का आगार समझते
हैं। फिर क्या है, बाबा जी के पास मुराद मांगने वालों की भीड़ जमा होने लगती है।
सेठ साहूकार, फैले अमले, बड़े-बड़े घरों की देवियाँ उनके दर्शनों को आने लगती हैं।
कोई यह नहीं सोचता कि यह मूर्ख, दुराचारी, लम्पट आदमी क्योंकर लंगोटी लगाने से
सिद्ध हो सकता है…. इस अन्धविश्वास से
मतलब निकालने वालों के बड़े-बड़े जत्थे बन गए हैं। ऐसी कई जातियां पैदा हो गई हैं,
जिनका पेशा ही है, इस तरह स्वार्थ से भोले–भाले लोगों को ठगना। ये लोग रूप भरना
खूब जानते हैं, बाबाओं की पेटेंट शैली में बातचीत करने का और नये-नये हथकंडे खेलने
का इन्हें खूब अभ्यास होता है…..बस, भक्तों का
आना शुरू हो जाता है, बाबा जी संसार मिथ्या है का उपदेश देने लगते हैं, उधर घी,
शक्कर और आटे की झड़ी लग जाती है, लकड़ियों के कुंदे गिरने लगते हैं, कुछ भक्त लोग
इन त्यागियों के लिए कुटी बनाना शुरू कर देते हैं और मर्द भक्तों से कहीं अधिक
संख्या स्त्री भक्तों की होती है। कोई लड़के की मुराद लेकर आती है, कोई अपने पति को
किसी सौतिन के रूप-फ़ांस में से छुड़ाने के लिए। जिन लफंगों को दो आने रोज की मजूरी
भी न लगती, वे ही हिन्दुओं के इस अन्धविश्वास के कारण खूब तर माल उड़ाते हैं, खूब
नशा पीते हैं और खूब मौज करते हैं और चलते वक्त सौ –पचास रूपये कोई ब्रह्मभोज
कराने या भंडारा चलाने के लिए वसूल लेते हैं….जिस समाज में इतने मुफ्तखोरों का भार लदा हुआ है, वह
कैसे पनप सकता है, कैसे जाग सकता है। ये लोग बार–बार यही प्रयत्न करते हैं कि समाज
अन्धविश्वास की गर्त में मूर्छित पड़ा रहे, चेतने न पावे। हमें खूब चकाचक माल
खिलाओ, स्वर्ग में तुम्हें इससे भी बढ़ियाँ माल मिलेगा।’
भारत में
अन्धविश्वास के कई परत हैं। अन्धविश्वास, आदमी पर चौतरफा हमला करता है। वह हमारे
समाज में इस कदर समाया हुआ है कि वह एक सांस्कृतिक मूल्य बन चूका है। फिर भी कुछ
अन्धविश्वास सीधे-सीधे समझ में आ जाते हैं किन्तु कुछ अन्धविश्वास ऐसे भी हैं जो
हमेशा पढ़े–लिखे लोगों के लिए भी जिज्ञासा और कौतुहल की तरह ही हैं। जैसे
भूत-प्रेत, बला, शैतान इत्यादि। जब कोई स्त्री या पुरुष एक विशेष प्रकार के हरकत
करने लगते हैं तब कहा जाता है कि उसे भूत ने पकड़ लिया है। घर में यदि किसी की अकाल
मृत्यु हुई हो, तो यह कहा जाता है कि उसी ने पकड़ा है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह
कहा जाता है किसी पड़ोसी ने उसपर भूत कर दिया है। या फिर कोई ऐसी जगह जहाँ मान्यता
रहती है कि यहाँ भूत रहता है, यह स्त्री या पुरुष उधर से गुजर रहा था उसे प्रणाम
नहीं किया या गलती से वहां पेशाब कर दिया, इस लिए भूत ने उसे पकड़ लिया। आदि आदि
तरह की कहानियां प्रचलित हैं। मैंने गाँवों में देखा है कि कैसे भूत-प्रेत को लेकर
पड़ोसियों में मार-पिट, खून-खराबे तक हो जाते हैं। अपने ही गाँव में सुनने को मिला
कि एक व्यक्ति की मृत्यु बीमारी के कारण हो गई थी किन्तु बाद में किसी ने कह दिया
कि अमुक व्यक्ति ने बाण(बान) मरवा दिया था। फिर दो समूहों में इसे लेकर भयंकर
मार-पीट हुई। आज के इस अत्याधुनिक वैज्ञानिक युग में ऐसी घटना विचलित करती है। भला
कोई बाबा या ओझा ‘बान’ मारने लगे तो बड़े-बड़े लोगों को ‘जेड’ और ‘वाई’ सुरक्षा में
भला चलने का क्या औचित्य रह जाएगा? उसका दुश्मन जब चाहे किसी बाबा अथवा ओझा से बान मरवा
सकता है। किन्तु हमारी शिक्षा व्यवस्था इतना जागरूक कहाँ बना पाती है कि हम चीजों
को तर्क की कसौटी पर कस सकें।
इधर बीच
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सुधीर कक्कड़ की चर्चित किताब ‘साधु ओझा संत’ पढ़ने को मिली
जो हमारी तमाम तरह की जिज्ञासाओं को समझाने में मदद करती है। सुधीर कक्कड़ मूलतः
मनोचिकित्सक हैं, इसलिए इस चीज को
मनोविज्ञान के धरातल पर समझाने का प्रयास करते हैं। इस किताब में कई ओझाओं, पीरों
से बातचीत शामिल है, भूत-प्रेत के लिए चर्चित बालाजी मंदिर का भी भ्रमण किया है
फिर उस अवलोकन के आधार पर उसका मनोवैज्ञानिक व्याख्या करते हैं। आधुनिक चिकित्सा
पद्धति के विकास तथा शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बावजूद आज भी भारतीय जनमानस में
साधुओं-ओझाओं, आदि के प्रति विश्वास पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। इसे आधुनिक
विज्ञान और राज्य की अक्षमता कहें या जनसाधारण के मन में बैठा अन्धविश्वास कि आज
भी ऐसी–ऐसी खबरें सुनाई दे जाती हैं जिन पर सहज ही विश्वास नहीं हो पाता है। इस
किताब में सदियों से साधुओं, ओझाओं, स्थानीय वैद्यों और संतों द्वारा जारी
परम्परागत मनोचिकित्सा पद्धतियों का विश्लेषण करते हुए उनके रहस्यों का उद्घाटन
किया गया है। सुधीर कक्कड़ मनुष्य के जो मनोरोग हैं उसकी बहुत बारीक़ पड़ताल करते हैं।
ओझाओं की शब्दवाली में जो भूत-प्रेत है वहीं मनोचिकित्सा के शब्दावली में मनोरोग
है। यह मनोरोग या भूत-प्रेत का कारण समाज का ढांचा है, जिसमें कई तरह की सामाजिक
यौन वर्जनाएं हैं। या फिर वह मानसिक असंतुलन और तनाव है जिसके बीच आदमी सामंजस्य
नहीं बैठा पाता है। कई स्त्रियों या युवतियों को एक उम्र में मनो-उन्माद
(हिस्टीरिया) हो जाता है। इसका कारण कामेच्छा का दमन है। सुधीर कक्कड़ शुरुआत में
इस विषय पर अध्ययन के लिए एक ‘पीर’ के यहाँ जाते हैं उसके यहाँ कई युवतियां प्रेत
से निजात पाने के लिए आती रहती हैं। भूत–प्रेत अथवा मनोरोग के मामले में सबसे
महत्वपूर्ण होता है स्वप्न, कि उसे किस प्रकार के स्वप्न आते हैं। फिर उस स्वप्न
को समझकर पीर अपने सलाह या सुझाव देते हैं। वह पीर कुरान की आयतें पढ़कर, पानी में फूंक मारकर इत्यादि तरीके से इलाज करता है। पीर ने सुधीर कक्कड़ को बताया कि एक
युवती बड़ी भोली और सुंदर थी उसके सपने में भी एक आदमी आता था और उससे मुंह काला
करना चाहता था। लड़की राजी नहीं थी। लेकिन वह इस डर से सो नहीं पाती थी कि कहीं
नींद में ऐसा न हो जाए। मैंने उसे पवित्र जल पीने को दिया उसकी हालत सुधर गई।
लेकिन कुछ दिनों बाद फिर दूसरा आदमी उसके सपने में आकर यही सब कुछ चाहने लगा।
मैंने उससे पूछा तो बोली कि सपने में मुझे अपनी खिड़की के बाहर एक पुराना पेड़ दिखाई
देता है उसके डाल पर पशु बैठे रहते हैं। बेटी चो।। बाबा ने गाली देते हुए कहा, “अब
मुझे पता चल गया कि वह क्यों नहीं सो पाती तथा हर रोज बीमार क्यों हो जाती है। ये
सारे शैतान उसके घर में एक–एक करके घुसने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। मैंने उसके
पिता से कहा कि जल्द से जल्द उसकी शादी कर दें। शादी के बाद उसके साथ एक मर्द होगा
तो ये शैतानी रूहें उसका पीछा छोड़ देंगी और किसी अन्य को ढूढ़ लेंगी। उसके पिता ने
मेरी बात मान ली अब वह लड़की बिलकुल ठीक है।’ इस घटना को सुधीर कक्कड़ भूत-प्रेत के
मुहावरे में न जाकर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करते हैं - ‘इसे साधारण
भाषा में सोचें तो कहा जा सकता है कि लड़की सोना नहीं चाहती थी। उसे भय था कि सोने
पर उसकी यौन-इच्छाएँ जाग उठेंगी। इन यौन इच्छाओं को वह निषिद्ध समझती थी। ये
इच्छाएँ निषिद्ध इसलिए थीं, क्योंकि उसके अंदर अपने ही सगे सम्बन्धियों से
यौनतुष्टि का प्रयास छुपा हुआ था। इन इच्छाओं को वह जानवर की शक्ल में बदलकर हटा
देना चाहती थी परन्तु उसका यह प्रयास सफल नहीं हुआ। मैं यह भी सोचता हूँ कि बाबा
को इन यौन–इच्छाओं के अत्याचारी स्वरूप का पता था। तभी उन्होंने भूत के लिए ‘बेटी
चो।।’ गाली का प्रयोग किया। ऐसा लगता है कि बाबा के महिला मरीज जब ‘डर लगने’ की
शिकायत करते थे, तो वे दरअसल ‘चिंताग्रस्त’ (Anxiety–Neurusis) ‘चिंता व्यग्रता’ या
चिंता प्रतिक्रिया (anxiety
–reaction) जैसे
मनोवैज्ञानिक पदों में समझी जाने वाली स्थितियों के बारे में बताते थे। फ्रायड के
बाद के मनोविश्लेषक होने के नाते हम कह सकते हैं कि इस मरीज की चिंता एक भय से
पैदा हुई थी। यह भय उसके अंदर स्वाभाविक ‘यौन उद्वेग’ के रूप में मौजूद था।
हालाँकि किसी मरीज के अंदर किस तरह की बैचेनी है, उसकी यौन इच्छाएं किस तरह की हैं।
यह पता लगाना आसान नहीं होता है। हमें इसके लिए मरीज के लक्षणों को ज्यादा बारीकी
से देखना पड़ता है। उसके जीवन के इतिहास की ज्यादा गहराई से पड़ताल करनी पड़ती है।
तभी जाकर यह पता चलता है कि किसी चिंता का जन्म प्रवृत्तिगत मूलावेगों के भर उठने
के कारण हुआ है अथवा परांह (सुपरइगो) दंड के भय के कारण अथवा ‘अलगाव के दुःख’ के
पुनरावृति के कारण हुआ है।” मनोरोगों को अभिव्यक्त करने की शब्दावली और मुहावरे
दोनों के यहाँ अलग-अलग मिलती हैं। बाबा के लिए यह भूत-प्रेत, चुड़ैल, शैतान, बला हैं,
वही मनोचिकित्सक के यहाँ हिस्टीरिया इत्यादि जैसे वैज्ञानिक शब्दावली हैं।
सुधीर
कक्कड़ भरतपुर के प्रसिद्ध बालाजी मन्दिर में भी जाते हैं जहाँ पर भूत-प्रेत से
सम्बन्धित मरीज ही आते हैं। वे लिखते हैं कि “हमने देखा कि बालाजी मंदिर में जो
व्यक्ति इलाज के लिए पहुँचते हैं, उनमें अधिकांश हिस्टीरिया पीड़ित होते हैं। इनमें
बहुतेरी युवा स्त्रियाँ होती हैं। यदि पारम्परिक भाषा में कहें तो उन पर
प्रतिबंधित कामेच्छा तथा आक्रमकता के भूतों का साया होता है।” इसी स्नायुविकार या
मनोविकार को भारतीय सांस्कृतिक शब्दावली में भूत या चुड़ैल के रूप में पुकारा जाता
है। कक्कड़ अपने अध्ययन में लगभग सभी प्रकार के ओझाओं से मिलते हैं। छोटानागपुर
आदिवासी इलाके में जो इस तरह के कार्य करते हैं उन्हें भगत कहकर पुकारते हैं। वहाँ
तो यहाँ तक मान्यता थी कि कोई ढंग का खा-पी रहा है तो पड़ोसी ईर्षा करते हैं तो
भूत इसी कारण पकड़ लेते हैं। कक्कड़ कहते हैं कि मैंने जब अयाता यानि भगत से पूछा कि
इर्ष्या और शैतान के प्रकोप के बीच क्या सम्बन्ध है तो वह तन्द्रावस्था में चला
गया। हमलोग अकसर देखते हैं कि ओझैती में कोई व्यक्ति या मरीज तन्द्रावस्था में चला
जाता है। इसके लिए लय, संगीत अथवा जोर–जोर से साँस लेने, गर्दन हिलाने की
प्रक्रिया अपनाई जाती है। भगत भी इस तरह की गतिविधि को अपनाते हैं। इस स्थिति में
आ जाने के बाद मनुष्य के आवेग स्थिति बहुत संवेदनशील हो जाती है। सार्जेंट नामक
विद्वान् ने कहा है कि तन्द्रावस्था में मनोवेग अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं और
मरीज में स्नायुकायिक परिवर्तन आ जाते हैं। इस परिवर्तन के कारण रोगी की पहली वाली
मनसगत आचार रूढ़ि टूटती है और इस अवस्था में चिकित्सक अथवा पुजारी जो भी कुछ कहता
है वह रोगी के मन को जच जाती है। ब्रेनवाशिंग या बिजली के झटके देकर जिस तरह उपचार
किया जाता है कुछ–कुछ वैसी ही उपचार विधि यह भी है। इस तकनीकी का उपयोग सिर्फ ओझा–गुनिया
ही नहीं करते हैं बल्कि भगवान रजनीश भी अपने आश्रमों में इसी तकनीकी को अपनाते थे।
हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश, बिहार में ‘शिवचर्चा’ नामक कार्यक्रम में भी इसी
तकनीकी को अपनाया जाता था। जिसमें कुछ महिलाएं जोर –जोर से साँस लेकर, ढोलक, हारमोनियम
की थाप पर तन्द्रावस्था में चली जाती थी।
मनुष्य का
अस्त-व्यस्त जीवन तथा जिन्दगी के भागदौड़ के बीच सामंजस्य न बना पाना भी मनोरोगी
बना देता है। हमारे मन अथवा चेतना के भीतरी भाग के कई परत हैं उदाहरण के लिए
अवचेतन, अन्तर्चेतन, सहचेतन इत्यादि। जिसे मनोवैज्ञानिकों ने समझने का प्रयास किया
है कि कोई व्यक्ति किसी खास स्थिति में क्यों चला जाता है? विशेष प्रकार के हरकत
क्यों करने लगता है? मन को समझने की
प्रक्रिया फ्रायड और युंग के समय में अधिक विकसित हुई है। इसमें बकायदे गहराई से मनोरोगी
की भावना, आवेग और स्वप्न इत्यादि को समझने का प्रयास किया जाता है कि उसकी
मनोग्रस्तता के कारण क्या हैं? मनोचिकित्सक
कारणों के तह तक जाते हैं मरीज का बारीक़ अध्ययन व अवलोकन करते हैं फिर उसका
विश्लेषण और व्याख्या करते हैं।
सुधीर कक्कड़ अपने अध्ययन में राधास्वामी
सम्प्रदाय के सत्संगों में भी भाग लेकर उनके शिष्यों की मनोरचना को समझने का
प्रयत्न करते हैं। देखा जाए, तो भारतीय समाज में गुरु की महिमा और महत्व को बहुत
बढ़ा-चढ़ाकर महिमामंडित किया गया है। बिना गुरु के मोक्ष या मुक्ति नहीं मिल सकती इस
तरह की मान्यता भी हमें गुरुओं की खोज की ओर अग्रसर करती है। इसलिए अमूमन मनुष्य
किसी न किसी गुरु के तलाश में रहते हैं। सत्संग की अपनी एक भव्यता होती है। मध्यकालीन
समय में कबीर, नानक, सूर इत्यादि संतों ने सत्संग और गुरु की जो महिमा बताई है वह
सभी के अवचेतन मन में कहीं न कहीं रहती है। राधास्वामी सम्प्रदाय में महराज जी अपना
उपदेश रोजमर्रा की जिन्दगी में घटने वाली घटनाओं को उदाहरण रूप में देते हैं। घर
में पति –पत्नी का झगड़ा, रोग का सताना, संतान की कामना, दारू-शराब की बुराइयाँ,
तमाम तरह की चिंताओं का गुरु जी ऐसा चित्र खीचतें हैं कि अनुयायियों को अपना सा
लगने लगता है। इन संदेशों का किसी भी भारतीय के लिए भावनात्मक रूप से बड़ा महत्व है।
इससे उसे बड़ा बल मिलता है और उसके मन में इन संदेशों के लिए बहुत आकर्षण है
क्योंकि बचपन से ही ऐसी बातों को सुनता आया है। राधास्वामी सम्प्रदाय में दीक्षा
लेने से बहुत से ऐसे व्यक्तियों को, जिनका जीवन गहरे दुःख या अवसाद से भर जाता है
वह शांति की तलाश में यहाँ आते हैं। यदि इसे मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो
सत्संगी अपने अंदर आत्महीनता को महसूस करते हैं और महराज को श्रेष्ठ और आदर्श
मानते हैं। इसीलिए सत्संगी यह कहते हुए सुने जाते हैं कि “मैं तो उनके पांव की धूल
भी नहीं हूँ।” मेरे अंदर जितनी भी अच्छाई, सद्गुण, ज्ञान हैं सब गुरु जी की कृपा
से है। वह यह भी मान लेते हैं कि महराज जी की शक्ति उनके अंदर भी चली आती है,
महराज जी के आत्म में उनका भी आत्म शामिल हो गया है। सुधीर कक्कड़ इन सभी
गतिविधियों का बहुत ही सूक्ष्म तरीके से मनोवैज्ञानिक व्याख्या करते हैं। इन सभी
के साथ इस पुस्तक में तांत्रिकों के उपचार पद्धति का भी रहस्योद्घाटन करते हैं।
जिनका विवरण यहाँ देना सम्भव नहीं है। इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य मनोरोग की
परम्परागत उपचार पद्धतियों का मनोविज्ञान के आलोक में रहस्योद्घाटन करना ही है, जो
आज भी हमारे लिए किसी चमत्कार और कौतुहल से कम नहीं है। इनके उपचार के तरीकों से
वे कहीं–कहीं सहमत भी होते हैं किन्तु ध्यान से देखा जाए तो बाबाओं और ओझाओं
द्वारा इस पेशे में व्यक्ति को मुर्ख बनाकर ज्यादा से ज्यादा पैसा उगाने की
प्रवृति ही अधिक काम करती है। ये छोटी सी छोटी बीमारी को भी भूत का आतंक बताकर
नाटकीय कर्मकांड के द्वारा सिर्फ पैसा कमाते हैं। ये भूत का ऐसा चित्र खीचतें हैं
कि सामान्य आदमी तो तुरंत ही इनकी बातों में आ जाता है। बात-बात में एक महिला ने
मुझे बताया कि उसके घर में एक सदस्य की वजह से (जिनके ऊपर मनोरोग का प्रभाव है)
भूत-प्रेत, झाड़-फूक का माहौल हमेशा बना रहता है जब उस महिला की शादी तय हो गई तो
ओझा ने कहा कि इसका कोख मार दिया गया है यानि माँ नहीं बन सकती है। घर वाले घबरा
गए तुरंत उस ओझा के कहे अनुसार रात्रिकालीन समय में नाटकीय ढंग से कर्मकांड करवाया
गया, ओझा ने उस कर्मकांड करने की एवज में हजारों रुपये भी ऐंठ लिए, यह कैसी
मुर्खता है कि शादी से पहले ही ओझा बता देता है कि इसे बच्चा पैदा नहीं होगा। और
घर वाले आसानी से मान जाते हैं। हालाँकि उस महिला ने इसका विरोध किया था किन्तु घर
के दबाव के आगे झुकना पड़ा। इतना ही नहीं कई–कई बाबा तो इसकी आड़ में महिलाओं से
व्यभिचार भी करते हुए पकड़े जाते हैं, यह सब देखकर ऐसा लगता है कि जब तक भारतीय
समाज में पिछड़ापन, गरीबी, और पर्याप्त जागरूकता की कमी रहेगी तब तक इनका पेशा और
कारोबार ऐसे ही इत्मीनान से चलता रहेगा।
(2)
जितेन्द्र यादव |
इस अंक के सम्पादन में सहयोग के लिए साथी ज्ञानप्रकाश
यादव के प्रति हम आभारी हैं। इस अंक के लिए आकर्षक चित्र साथी दिलीप डामोर ने उपलब्ध कराया है उनके प्रति भी हम आभारी हैं। हाल ही में साहित्यिक जगत के दो नामचीन लेखक,
कवि दूधनाथ सिंह और कुंवरनारायण हमारे बीच नहीं रहे उन्हें अपनी माटी की तरफ से
श्रद्दांजलि।
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर