तुलसीदास
एवं जातिगत आक्षेप
तुलसीदास को जाति-पांति से कोई लेना देना
नहीं था फिर भी उन पर जातिवादी होने का आरोप लगते रहे हैं। वे संत महात्मा थे। संत
महात्माओं की कोई जाति नहीं होती है। वे जाति-पाति से बहुत ऊपर उठे हुए होते हैं। उनका
जीवन अपने लिए नहीं दूसरों के लिए होता है। वे पूरे संसार के लिए जीते हैं, संसार के लिए मरते हैं। अपने लिए तो सभी
जीते हैं लेकिन जो दूसरे के लिए जीता है वही महान कहलाता है।
तुलसीदास के समकालीन पोंगा पण्डितों ने
तुलसी को तरह-तरह के कष्ट देते रहे हैं। उनकी बढ़ती हुई प्रसिद्धि से वे परेशान थे क्योंकि
उनके धर्म की गर्म बाजार ठंडा पड़ने लगा था। जनता को बेवकूफ बनाकर पैसा एंठने का सौदा
कमजोर होने लगा था। ब्राह्मणवादियों ने उन पर चौतरफे हमले किए उन्हें तरह-तरह के जाति
सूचक शब्दों से संबोधित किया। प्रवाद बढ़ता ही गया, लोग तुलसी को भला-बुरा कहने लगे। तुलसी
इन सारी चीजों से अनभिज्ञ नहीं रहे। उन्हें लोगों का प्रवाद अच्छा नहीं लगता क्योंकि
वे भक्त कवि थे। भक्त को जाति-पांति से क्या मतलब। इसलिए वे लोगों को जवाब भी देते
रहे।
‘लोग कहे पोच सो न सोच न संकोच मेरे
ब्याह न बरेखी जाति-पांति न चहत हो।’
जगदीश शर्मा तुलसी के जातिगत आक्षेप पर
लिखते हैं कि ‘‘तुलसीदास ने अपने समकालीन शासकों की अकड़ के समान ही अपने विषय में फैलाए
जा रहे प्रवाद की भी अनदेखी नहीं की। उससे आहत होकर उन्होंने खीझ भरे शब्दों में अपना
आक्रोश व्यक्त किया। उनके जाति के संबंध में तरह-तरह की बातें फैलाने वालों को उन्होंने
झिड़क दिया है।’’1 तुलसीदास
के शब्दों में-
‘धूत कहो अवधूत कहो, रजपूत कहो,
जोलहा कहो कोऊ।
काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब,
काहू की जाति बिगारब न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को,
जाको रूचै सौ कहै कछु कोऊ।
मांगि के खइबो मसीदा को सोइबो,
लइबो को एक न देबे को दोऊ।’
तुलसीदास को रामभक्ति प्रिय थी । उसके आगे उन्हें किसी प्रकार की जाति-पांति
मान्य नहीं थी। भक्त भगवान के सिवा किसी अन्य से कोई संबंध नहीं रखना चाहता, फिर भी लोग उन्हें जाति बंधन में बाँधकर
रखना चाहते थे। इस पर तुलसीदास कहते हैं कि लोग कितने न समझ है कि वे यह कहावत भी नहीं
जानते कि जो ‘गोत्र’ स्वामी का होता है वही सेवक का भी। वे जो
भी है जैसे भी है श्रीराम के हैं। उन्हें चाहे कोई बुरा कहे या भला, दुष्ट कहे या सज्जन कोई फर्क नहीं पड़ता।
वे किसी के दरवाजे पर धरना दिए थोडे़ बैठे हैं। उनके लिए जाति-पांति का कोई महत्व नहीं।
न वे किसी के काम आने वाले हैं। न उनके कोई काम आने वाला है। उन्हें केवल एक राम-नाम
का भरोसा है।
मेरे जाति-पांति न चाहो काहू के जाति-पांति
मेरे कोऊ काम के न हो कोऊ के काम को
लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब
भारी है भरोसो तुलसी के एक राम को।
वास्तव में भक्त जब भगवान को पूरी तरह समर्पित
हो जाता है तो उसका संसार से कोई वास्ता नहीं रह जाता। वह संसार से अपने लिए कोई अपेक्षा
नहीं रखता, पर लोक के मंगल की कामना अवश्य करता है। संसार में ही वह ईश्वर दर्शन
करने लगता है।
तुलसीदास पर हमला उनके समय में भी जारी
था जो जातिवादी ब्राह्मणों द्वारा किया गया। उन्हें षड्यंत्र करने वाला, दगाबाजी करने वाला, अनेक कुसाजों को रचने वाला कहकर नकारा गया।
आज भी तुलसी पर हमले जारी हैं जो तथाकथित बुद्धिजीवियों एवं आधुनिक विमर्शकारों द्वारा
हो रहे हैं उन्हें ब्राह्मणवादी एवं नारी विरोधी कहकर अपमानित भी किया जा रहा है। तुलसीदास
इन हमलों से और निखरते चले गये आज भी लोगों की जुबान पर सबसे ज्यादा वही ही छाए हुए
हैं। चाहे वह विरोधी हो या प्रशंसक। तुलसीदास अपने निंदकों को उन्हीं की भाषा में जवाब
भी देते रहे। वे शांत होकर बैठने वालों में से नहीं थे। वे लिखते हैं कि ‘खल परिहास होइ हित मोरा, काक कहै कल कंठ कठोरा’ तुलसी पर जैसे-जैसे हमेले होते गए वैसे-वैसे
उनकी तरफ से प्रतिक्रिया भी आती गई। समाज में हो रही तरह-तरह की चर्चाओं को वे अपने
साहित्य में व्यक्त करते हैं-
कोउ कहै करत कुसाज दगाबाज बड़ो
कोउ कहे राम को गुलाम खरो खूब है
साधु जानै महासाधु, खल जानै महाखल
बानी झूठी सांची कोटि उठत हबूब है
चहत न काहू सो न करत काहू की कछू
सबकी सहत उर अंतर न ऊब है
तुलसी को भलो पोच हाथ रघुनाथ ही के
राम की भगति भूमि मेरी मति दूब है
(कवितावली)
गोपेश्वर सिंह ने अपने एक लेख ‘तुलसीदास अझेल हमलों के बीच’ में लिखते हैं कि-‘‘नये साहित्यिक विमर्श में तुलसीदास पर हमले
तेज हुए हैं, हमले उनके काल में भी हुए थे, तब ब्राह्मणवादियों ने किये थे, आरोप था कि इसने देवभाषा में रामकथा न कहकर
गँवारों की भाषा में लिखी है। जिन गँवारों की भाषा में उन्होंने कविता लिखी, आज उसी वर्ग से आये लेखक उनको ब्राह्मणवादी
मानकर हमले कर रहे हैं, रांगेय राघव, मुक्तिबोध आदि भी इसी आरोप के साथ उन पर
हमला कर चुके हैं। बावजूद इसके तुलसी, उनकी कविता उनकी रामायण की लोकप्रियता निष्कंप
शिखा सी प्रकाशमान है।’’2
तुलसीदास पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप
लगता है क्योंकि उन्होंने अपनी रचना में ब्राह्मणों की बहुत प्रशंसा की है। ब्राह्मणों
की प्रशंसा किन कारणों से की शायद यह जानने का प्रयास नहीं किया गया। ब्राह्मणों से
संबंधित प्रशंसात्मक उक्तियों को उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है। जैसे ‘चहहु विप्र उर कृपा घनेरी, विप्र द्रोह पावक सम जरई, सापत ताड़त परस कहंता, पूजहि विप्र कहइ अस संता, पूजहि विप्र शील गुन हीना।शूद्र न गुन गन
ज्ञान प्रवीना’ इत्यादि उपरोक्त पंक्तियां में तुलसी ने ब्राह्मण शब्द का एक बार भी प्रयोग
नहीं किया है बल्कि उनके स्थान पर विप्र शब्द रखा। अनुष्ठानादि कर्म करने वालों को
विप्र कहा जाता है। वर्ण व्यवस्था तुलसी की स्वयं निर्मित की हुई नहीं थी। उनसे पहले
वेदादिग्रंथों में वर्णव्यवस्था का प्रावधान पहले से था। तुलसी ने बस उसका समर्थन ही
किया है। वर्णव्यवस्था का निर्माण शायद समाज को सुचारू रूप से चलने के लिए ही की गई
थी। वह व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर थी। परस्पर सभी वर्णों में सहयोगात्मक
भाव लिए हुई थी। किसी को ऊंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं। तुलसीदास ने इसी कर्म के
आधार पर वर्णव्यवस्था का समर्थन किया था। बाद में वर्णव्यवस्था को जब जाति के आधार
पर स्वीकार किया जाने लगा तो उसमें विकार अवश्य आ गया उसमें तरह-तरह की जातियाँ पैदा
हो गई। लोग एक दूसरे को जातिगत विभेदीकरण के कारण हेय दृष्टि से देखने लगे। ऊंच-नीच
की भावना पनपने लगी पर तुलसी ने जिस कर्म आधारित वर्णव्यवस्था का समर्थन किया है उसमें
जाति-पांति, ऊंच-नीच भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। यदि ऐसा होता तो तुलसी के प्रिय
पात्र राम शबरी के जूठे बेर नहीं खाते। भारद्वाज मुनि निषादराज को गले नहीं लगाते क्योंकि
वह नीची जाति का था, भारद्वाज मुनि ऊंची जाति के थे। यहाँ तक कि मुनि उससे जबरदस्ती गले मिलते
हैं क्योंकि निषादराज अपनी हीनताबोध से पीछे सरकता जा रहा था-‘राम सखा मुनि बरबस भेंटा’।
तुलसी के ‘रामराज्य’ में भी छुआ-छूत, जातिवाद, भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। चारों वर्ण
के लोग ‘राजघाट’ पर एक साथ स्नान करते थे-
‘राजघाट सब विधि सुंदर बर, मज्जहि तहाँ बरन चारिउ नर’
सभी लोग अपने-अपने धर्म के अनुसार आचरण
करते थे। उनमें किसी प्रकार का भय शोक नहीं था। सभी नीरोग और सुखी थे-
‘वरनाश्रम निज-निज धरम निरत वेद पथ लोग
चलहि सदा पावहि सुखहि नहि भय शोक न रोग।’
वर्णाश्रम व्यवस्था में ब्राह्मणों को सर्वाधिक
ऊंचा स्थान दिया गया था। उनका कार्य लोगों को शिक्षा-दीक्षा देना था उन्हें धन संग्रह
एवं भोग विलास से दूर त्याग तपस्या से जीवन बिताना पड़ता था जो कुछ राजाश्रय या भिक्षा
से मिल जाता उसी से जीवन निर्वाह करना होता था। नरोत्तम दास ने भी ‘सुदामा-चरित’ में लिखा है कि ‘‘बाभन कै धन केवल भिक्षा’’। इसलिए तुलसीदास ने ऐसे ही उपरोक्त गुणों
से युक्त ब्राह्मणों की प्रशंसा की है जो वशिष्ट ओर विश्वामित्र के कोटि के थे। ऐसे
ब्राह्मण यदि किसी को भला बुरा भी कह दें तब भी वे पूज्य थे।
जैसे कि स्पष्ट हो गया कि तुलसी द्वारा
समर्थित वर्ण व्यवस्था कर्म के अनुसार थी। यदि कोई ब्राह्मण आचरण विहीन एवं संस्कार
हीन है तो वह जन्म से ब्राह्मण होते हुए भी शूद्र की श्रेणी में आता है। यदि कोई शूद्र
आचरण एवं संस्कार युक्त है उसके कृत्य महान हैं तो वह शूद्र होते हुए भी ब्राह्मण कहलाएगा।
इसी प्रसंग में तुलसी ने लिखा कि शूद्र कितना भी गुणी और ज्ञानी क्यों न हो यदि वह
आचरण भ्रष्ट एवं संस्कार विहीन है तो वह पूज्य नहीं हो सकता और यदि ब्राह्मण आचरण एवं
संस्कारवान है उसके पास यदि शील और गुण नहीं है तो भी वह पूज्य है। रावण भी ब्राह्मण
था किन्तु अपने आचरण एवं कर्म से राक्षस हो गया था। इसलिए वह वध के योग्य हो गया। हनुमान
वानर जाति के थे लेकिन अपने कर्म एवं आचारण से महान एवं पूज्य हो गये। तुलसीदास ने
सिद्ध किया कि कोई व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान होता है वाल्मीकि और व्यास अपने
कर्म से ही महान हैं। उदयभान सिंह ने तुलसी के बारे में लिखा है कि ‘‘उन्होंने ब्राह्मणों को जो इतना महत्त्व
दिया है उसका हेतु स्वार्थ सिद्ध या परम्परा निष्ठा मात्र नहीं है, वह युग की आवश्यकता से प्रेरित है। तत्कालीन
विश्रृंखलित एवं पराजित हिन्दू जाति के संगठन की जरूरत थी, अपने परम्परागत सामाजिक नेतृत्व के कारण
ब्राह्मण ही उसका केन्द्र हो सकता था इसलिए तुलसी ने उसे गौरव दिया।’’3
तुलसीदास समाजद्रष्टा एवं भविष्यद्रष्टा
दोनों थे, समाज को उन्होंने खुली आंखों से देखा था समाज में जहाँ कहीं भी कुछ गलत
होते देखा वहाँ फटकार जरूर लगाई। उनकी दृष्टि से कोई नहीं बच पाया। चाहे वह शूद्र हो
या ब्राह्मण, स्त्री हो या पुरुष। उन्हें किसी वाद के अंतर्गत रखना उचित नहीं लगता।
उन्होंने ब्राह्मणों की जहाँ प्रशंसा की है वहीं उनकी पथ-भ्रष्टता को लेकर निंदा भी
की है। उन्होंने धर्मविहीन, विषयों में लीन रहने वाले ब्राह्मणों को
सोचनीय बताया ‘सोचिउ विप्र जो वेद विहीना’ तजि निज धरम विषय लवलीना’ उन्होंने अपने युग के ब्राह्मणों को दुष्ट
भी कहा क्योंकि ब्राह्मण आचरण विहीन, निरक्षर, लोलुप कामी और पराई जाति की स्त्रियों के
स्वामी हो गये थे-‘विप्र’ निरक्षर लोलुप कामी। निराचार सठ वृषली स्वामी।
आचरण भ्रष्ट ब्राह्मणों से किसी चीज की
आशा नहीं की जा सकती थी। उनके हाथ में कोई चीज सुरक्षित नहीं रह गई थी किसी प्रकार
के अनुशासन को भी नहीं मानते थे। वेद बेचने में भी वे कोताही नहीं बरतते थे। इसलिए
तुलसीदास लिखते हैं-
‘द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन
न्हि कोउ मान निगम अनुशासन’
सीता स्वयंवर में तुलसी के पात्र लक्ष्मण
ब्राह्मणों को कठोर शब्दों में निंदा करते हुए कहा कि ‘द्विज देवता धरहिं के बाढे़’ ब्राह्मण देवता घर में ही बडे़ होते हैं।
मैं इसे ब्राह्मण समझ कर छोड़ दे रहा हूँ नही तो आज हमारे हाथों से इसे कोई नहीं बचा
सकता था।
अतः तुलसीदास पर किसी प्रकार का जातिगत
आरोप लगाना स्वस्थ्य मानसिकता का परिचय देना नहीं है। वे भक्त कवि थे। जाति-पांति से
बहुत ऊपर उठ चुके थे। उनका उद्देश्य राम भक्ति के अलावा सामाजिक क्षेत्र में स्वस्थ्य
एवं मजबूत समाज का निर्माण करना था। इसमें कोई दीन दुखी न हो, समता का राज हो विषमता नाम की कोई चीज न
रह जाए। सभी अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए कर्म करें। सभी सुखी और संपन्न रहे। इसलिए
उन्होंने रामराज की स्थापना की जो गांधी के ‘सर्वोदय समाज’ के काफी निकट है।
संदर्भ:
1. गोस्वामी तुलसीदास आधुनिक संदर्भ में, जगदीश शर्मा, राजस्थानी साहित्य संस्थान, जोधपुर, प्रथम संस्करण 1995,
पृष्ठ 25
2. भक्ति आंदोलन और काव्य, गोपेश्वर सिंह, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2017,
पृष्ठ 130
3. तुलसी काव्य मीमांसा, उदयभान सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2011,
पृष्ठ 419
4. तुलसीदास, रामचन्द्र तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2009,
पृष्ठ संख्या 102
(काली सहाय, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली)
(काली सहाय, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली)
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
बहुत सुंदर व्याख्या
जवाब देंहटाएंit is a good poem
जवाब देंहटाएंHa lodu ha..
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