सांगीतिक वीथियों
में विनय पत्रिका
‘विनयपत्रिका‘ भक्तिकाल की एक अत्यंत उत्कृष्ट रचना है। इसमें भक्ति-रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। भक्ति में प्रेम के अतिरिक्त, आलंबन के महत्त्व और अपने दैन्य का अनुभव भी आवश्यक अंग है। इस ग्रन्थ में तुलसी के ह्रदय से इन दोनों अनुभवों की अभिव्यंजनाएं प्रस्तुत हुई हैं जिनसे भक्ति के क्षेत्र में शील-शक्ति और सौंदर्य की प्रतिष्ठा हुई जो वास्तव में मनुष्य की सम्पूर्ण रागात्मिका प्रकृति का परिष्कार करती है। वस्तुतः राम नाम गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति का प्राण है। विनयपत्रिका में गोस्वामीजी की अस्मिता राम-महिमा में समर्पित हो गयी है। राम-नाम की विराटता, गरिमा और प्रभाव ही विनयपत्रिका का प्रतिपाद्य है और गोस्वामीजी का सर्वस्व है। मानव-चेतना का जागरण इसका समष्टिगत प्रयोजन है। इस रचना के मूल में भक्ति के माध्यम से मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के अत्यंत सहज भाव दिखायी पड़ते हैं। जिस प्रकार लोक-व्यवहार से अपने को अलग करके आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होने वाले काम क्रोध आदि शत्रुओं से दूर रहने का मार्ग पा सकते हैं, उसी प्रकार लोक-व्यवहार का पालन करते हुए भी विभिन्न कर्त्तव्यों को पूरा करते हुए भी उसी आनन्द को प्राप्त किया जा सकता है। तुलसीदासजी की भक्ति में शक्ति, सरसता, प्रफुल्लता, पवित्रता सभी का समायोजन है। भक्ति के कारण अंत:करण को जितनी भी शुभ वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं, उन सबको ‘ विनयपत्रिका ’ में देखा जा सकता है।
काव्यकला की दृष्टि से ‘विनयपत्रिका‘ में
उक्ति-वैचित्र्य और अर्थ-गौरव का सजीव वर्णन हुआ है।
इसकी संस्कृतनिष्ठ पदावली ब्रजभाषा के मंजुल रूप को
प्रस्तुत करती है।
तत्सम और तद्भव
शब्दों के योग से लय और प्रभाव में गति बनी रहती है। अरबी, फारसी के साथ
प्रादेशिक शब्दों का भी सहज प्रयोग है. अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा और
रूपक जैसे अलंकारों के प्रयोग से काव्य-सौन्दर्य में वृद्धि हुई है। लोकोक्तियों, मुआवरों और
कहावतों के प्रयोग से लाक्षणिक भाव-सम्प्रेषण समृद्ध हुआ है।
विनयपत्रिका में
संगीत
एक कुशल कवि की यह
विशेषता होती है कि वह छंद-शास्त्र के साथ-साथ संगीत-साहस्त्र में भी पारंगत हो। तुलसी की रचनाओं
के प्रचलित होने का एक कारण यह भी है कि उनमें संगीत के प्रति गहरा रुझान दिखाई
देता है। उनकी
राग-रागिनियाँ रसानुकूल, समयानुकूल, भावानुकूल और शास्त्र-सम्मत हैं। शब्द-विधान
लय-ताल से परिपूर्ण एवं वर्ण-विन्यास सुमधुर हैं। इनकी रचनाओं में
भावनाओं का तीव्र आवेग संगीत के यथोचित प्रयोग से संभव हुआ है। संगीत में राग और
ताल दोनों का ही महत्त्व है। तुलसी ने प्रत्येक राग के स्वरूप के अनुसार ही छंदों का भी
उपयुक्त विधान किया।
इनकी संगीत मर्मज्ञता का
साक्षात् प्रमाण ‘विनयपत्रिका‘ है जिसमें गीति-तत्वों का सुंदर-सरस निर्वहण हुआ है। इसमें गीतिकाव्य
की समस्त विशेषताएं संगीतात्मकता, आत्माभिव्यक्ति, संक्षिप्तता, अनुभूति की एकता
और भावानुरूप - भाषा शैली मौजूद हैं। राग-रागिनियों के आधार पर काव्य सृजन ने इससे अद्भुत
संगीतिकता और गेयता प्रदान की है। एक प्रसंग में
भगवान् , नारद से कहते हैं, जहां मेरे भक्त
प्रेमपूर्वक मेरा कीर्तन करते हैं, वहीं मैं निवास करता हूँ।
“ नाहं बसामी
वैकुंठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति यत्र तिष्ठामि नारद। “
संगीत-कला का भक्ति में
अत्युच्च स्थान है। यही कारण है कि महात्माओं और कवियों ने संगीत-प्रवाह में
अनेक रचनाओं का विधान किया। ‘ विनयपत्रिका‘ भी
संगीत-सौन्दर्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें उन्होंने संगीत-सांगत छंदों का विधान
किया है। संगीत के माध्यम
से ही इसमें इतने मनोरम भाव व्यंजित हो पाए हैं। साथ ही जनसाधारण
में भी इन पदों का प्रचुर प्रसार हो पाया है।
भजनों का प्रचार अन्य छंदों की अपेक्षा अधिक होता है।
‘ विनयपत्रिका‘ के सभी पदों को
गाया जा सकता है।
प्रत्येक पद किसी
न किसी राग में निबद्ध है। प्रत्येक पद के भाव के अनुसार ही उसे किसी विशेष राग या
रागिनी में निबद्ध किया गया है जिसका भाव भाव भी उस पद के भाव के अनुरूप है। इस सूक्ष्मता का
ज्ञान उन्हें बेहतर होता है जिन्हे स्वर-ताल की समझ होती है। एक सफल गायक इन
संगीत छंदों की रचना कर सकता है। इस प्रकार संगीत का प्रभाव समझ कर ‘ विनयपत्रिक‘ के पदों की
विशेषताओं को और भी गहराई से समझा जा सकता है।
विनयपत्रिका की रचना गीतिकाव्य के रूप में है और
गीतिकाव्य अंतर्जगत का काव्य है। उसमें विचारों की एकरूपता संक्षिप्त होकर, व्यक्तित्व को
साथ ले संगीत के सहारे प्रकट होती है। डॉ0 उदयभानु सिंह कहते हैं, विनयपत्रिका उत्तम प्रगीतकाव्य का उत्कृष्ट
नमूना है।” ( तुलसी
काव्य-मीमांसा,
पृष्ठ-469) टेकयुक्त-गीत
शैली के पदों में राग और ताल के सधाव के कारण मनोहारी संगीत का विधान किया गया है। काव्य और संगीत
का यह समन्वय विनयपत्रिका को भावुक भक्तों का कंठहार बना देता है।
उनकी रचनाओं का सृजन
क्षेत्र उत्तरी भारत में ही हुआ इसलिए उनकी गीति-शैली का हिन्दुस्तानी शास्त्रीय
संगीत से सम्बद्ध होना स्वाभाविक है। ‘ विनयपत्रिका‘ में छंदों की अपेक्षा रागों को महत्व दिया गया है। इसमें सर्वत्र
शास्त्रीय संगीत का प्रयोग हुआ है। कुछ पदों में लम्बे अंतरे हैं इसका कारण यह है कि तुलसी
प्रधानत: कवि हैं और उन्होंने संगीत के लिए काव्यरचना नहीं की थी। हालाँकि अधिकाश
पदों में ‘टेक’ और ‘अन्तरा’ की उचित व्यवस्था
है। तुलसी ने विनयपत्रिका
में 20 रागों (आसावरी, बिलावल, विलास, भैरवी, मलार, मारू, रामकली, ललित, विभास, सारंग, सोरठ, सुहों बिलावल, दंडक, कान्हरा, केदारा, जैतश्री, टोड़ी, नट, वसंत और कल्याण )
में पदों को निबद्ध किया है। अधिकांश पदों में कल्याण और बिलावल का इस्तेमाल किया गया है। इनके साथ ही अन्य
रागों की प्रकृति एवं भाव के अनुसार विविध पदों में प्रयोग किया है। प्रत्येक राग का
स्वरूप एवं चलन अपने आप में विशिष्ट भाव की उत्पत्ति करता है। भाव एवं रागों के
समय का अद्भुत संगम एवं प्रयोग उनकी साहित्य और संगीत में पारंगतता को प्रदर्शित
करता है।
देवताओं,अवतारों की
अर्चना, वंदना और
भक्ति-भावना के लिए संगीत-शास्त्र में ध्रुपद एवं
धमार शैली उपयुक्त होती हैं। ठुमरी आदि शैलियाँ श्रृंगार एवं लोक-रंजन के तत्त्व को
प्रकट करती हैं। प्रथम शैली को
ब्रह्म के सगुण और निर्गुण स्वरूप की भक्ति के लिए भक्त कवियों ने आश्रय दिया और
दूसरी शैली को उन संगीतज्ञ कवियों ने अपनाया जिनकी विद्या राजाओं और नवाबों के
आश्रय में पल्लवित हुई। तुलसी राम भक्त एवं निवृतिमार्गी संत थे और राम के प्रति
अपनी अनन्यता का प्रतिपादन उनकी रचनाओं का मुख्य लक्ष्य था। उनकी यह प्रवृत्ति
ध्रुपद,धमार एवं अन्य
गीति-शैलियों से मेल खाती है जो ‘ विनयपत्रिका ‘ के आत्मभिव्यन्जना के तत्व को मर्मस्पर्शी
बनाती है। इसके गीतों में
मीरा एवं सूर की ही तरह लालित्य एवं माधुरी की अनुभूति है। सिद्धांतत: संगीत
के अनुकूल भाव एवं संगीत एवं भाव के
अनुकूल भाषा आवश्यक होती है। इस दृष्टि से तुलसी की गीति-शैली अत्यंत कोमल एवं मधुर है। इसलिए तुलसी के
भक्ति भाव से पूरित पंक्तियों को पढ़ते हुए यदि हम उसमें अपने अंतरतम को मिला लेते
है तो स्वयं को उसी रस-माधुरी में रसा-सिक्त पाते हैं। तुलसी का काव्य, संगीत के तत्त्वों
के यथोचित समावेश से समृद्ध हुआ है। इसमें केवल राग ही नहीं तालों (छंदों) का भी उचित निर्वाह
हुआ है। संगीत की
प्रधानता होने के कारण मात्रिक छंदों का अधिक प्रयोग किया है क्योकि मात्राओं का
प्रयोग संगीत की दृष्टि से लय-ताल के लिए उपयुक्त होता है।
रागों के गायन-वादन समय
को संगीत-शास्त्र में प्राचीन काल से ही महत्त्व दिया जाता है क्योकि प्रत्येक राग
के स्वरूप एवं चलन के अनुसार उस विशेष राग का प्रभाव बढ़ जाता है। समय का विशेष
ध्यान रखने से राग की रंजकता में भी वृद्धि होती और तुलसी ने भाव,प्रसंग,वातावरण,प्रकृति और रंजन
के ही अनुकूल विविध रागों का प्रयोग किया है। संगीतात्मकता, आत्मभिव्यन्जना, संक्षिप्तता और
भावों की एकता ही गेय -काव्य के गुण हैं जो ‘ विनयपत्रिका‘ में उत्कृष्टता
के साथ प्रस्तुत हुए हैं।
मध्यकाल में संगीत अपनी
ऊँचाइयों पर था। उस समय तानसेन,बैजू-बावरा, रामदास एवं
मानसिह प्रभृति आदि प्रसिद्ध संगीतज्ञों का यश फ़ैल चुका था। एइसे में
तुलसीदास पर न केवल साहित्यिक बल्कि
शास्त्रीय संगीत का भी यथोचित प्रभाव पड़ा। अत: यह स्वाभाविक
है कि उनकी रचनाओं में विभिन्न राग-रागिनियों का प्रभाव पडा। उन्हें गीति-शैली
की अपूर्व परम्परा भी मिली जिसका अनुसरण करने हुए उन्होंने तीन गेय-काव्यों की
रचना की- विनयपत्रिका, गीतावली और श्रीकृष्ण गीतावली।
संगीत का अर्थ होता है
जहां माधुर्य और कारुण्य तत्त्व हों। परुष या कटु तत्वों से इसका कोई मेल नही होता है। विनयपत्रिका में
शुरू से लेकर अंत तक शांत एवं भक्ति-भावना का सुन्दर विस्तार हुआ है जो संगीत के
तत्वों के अनुकूल है। तुलसी ने यह सिद्ध कर दिया की राग और कविता के भाव में बड़ा
ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। उन्होंने अपने पदों के लिए जिन भी रागों का चयन किया है वे
सर्वथा उस पद के भाव से सुन्दर सामंजस्य को दर्शातें हैं। भाव की
अन्तार्धारा के साथ रागों की प्रकृति का सुन्दर सामंजस्य उन्हें निश्चित ही
वाग्येयकार के पद पर प्रतिष्ठित करता है। ‘संगीत रत्नाकर’ में शारंगदेवजी
के अनुसार ‘वाक्’ और ‘गेय’ दोनों का कर्त्ता
‘वाग्येयकार’ होता है जिसमें ‘वाक्’ का अर्थ होता है
पद्य-रचना और ‘गेय’ का अर्थ होता है ‘स्वर-रचना’ अर्थात् जो
स्वर-रचना और पद्य-रचना दोनों का ज्ञान रखता हो एइसे विद्वान को प्राचीन-काल में
वाग्येयकार की संज्ञा दी जाती थी। पाश्चात्य विद्वान इन्हें कंपोज़र कहते हैं। वाग्येयकर को
संगीत और साहित्य का उत्तम ज्ञान होना आवश्यक है। इस दृष्टि से
तुलसीदास वाग्येयकार के रूप में सफल सिद्ध हुए हैं।
संगीत का मूलाधार स,रे,ग,म,प,ध,नि ये सात स्वर
हैं। जिनमें स और प तो
अचल स्वर हैं और रे,ग,ध,नि कोमल और म तीव्र भी हो सकते हैं। इस प्रकार कुल
बारह स्वरों के विभिन्न समायोजन से विविध राग-रागिनियों का निर्माण किया गया है जो
दस ठाट से व्युतपन्न होते हैं। इन सभी स्वरों का
प्रभाव अलग अलग होता है, जैसे कोमल स्वर श्रृंगार ,करुण और मधुर
भावों की निष्पत्ति करते हैं। उल्लास और वीरता के लिए शुद्ध स्वरों का अधिक प्रयोग होता
है। संगीत में मुख्य
रूप से श्रृंगार,करुण और वीर रसों के लिए नीं प्रकार के मिश्रण वाले स्वर
अपेक्षित होते हैं। राग में एक वादी स्वर,जिसका सबसे अधिक
प्रयोग हो और एक संवादी स्वर ,जिसका प्रयोग वादी से कुछ कम होता है के द्वारा भी राग की
प्रकृति पता चलती है। जैसे भक्ति एवं करुण रस के लिए रे ,ध कोमल वाले राग
उपयुक्त होते हैं जैसे भैरव,कलिन्गडा ,ललित और तोड़ी आदि। इसी प्रकार कोमल ग,नि वाले राग
श्रृंगार-रस के लिए उपयुक्त होते हैं। सामान्यत: शुद्ध स्वर वाले राग वीरता और उल्लास को प्रकट
करते हैं, जैसे शंकरा, देशकार, हिडोल और भूपाली
आदि। कुछ राग अपवाद भी
हैं ,जैसे राग बिहाग
में सभी स्वर शुद्ध हैं परंतु यह एक गंभीर प्रकृति का राग है और इसका स्वरूप भी
विस्तार को लिए हुए है। तुलसी ने विनय पत्रिका में उन सभी रागों को लिया है जो भक्ति एवं शांत रस को प्रकट करते
हैं। तोड़ी और भैरव आदि
रागों में उन पदों की रचना की है जो करुण रस को निष्पादित करते हैं। उन्होंने
भावानुकूल राग-योजना कर राग की प्रकृति के अनुसार पदों को संगीतात्मकता प्रदान की। साथ ही रागों के
समय को ध्यान में रखते हुए न केवल पदों की भावानुकूलता बल्कि समयानुकूलता का भी
विशेष ध्यान रखा। इसलिए ‘ विनयपत्रिका ‘ के पद उत्कृष्ट
भाव-सौंदर्य से सराबोर हैं। इसमें कुछ स्थानों पर गीतों को सुगमता से ताल-बद्ध भी कर
लिया है। तीन-ताल में
निबद्ध एक उदाहरण प्रस्तुत है :-
“ ऐसो को उदार जग
माहि।
बिनु सेवा जो
द्रवे दीन पर, राम सरिस कोऊ नाही।।
तुलसीदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम,काम सब पूरण करै
कृपानिधि तेरो।।
( वि० प० पद स० 162 )
1
2 3 4
5 6 7
8 9 10 11 12 13 14 15 16
धा धिन धिन धा धा
धिन धिन धा धा तिन तिन ता ता धिन धिन धा
ऐ -
सो - को -
उ दा -
र ज ग
मा -
- हि बि नु से
- वा
- जो -
द्र वे
- दी - न
प र रा
- म स रि स
को ऊ
ना - ही
-
इस पद की रचना सोरठ राग
में हुई है जो खमाज ठाट से उत्पन्न हुआ है। इसे गाने का समय रात्रि का दूसरा प्रहर है। इसमें कोमल नि का
प्रयोग होता है। इस प्रकार
विनयपत्रिका के अनेक गीतों / पदों को ताल-बद्ध भी किया जा सकता है।
निश्चित ही तुलसी ने गेय-परम्परा की पृष्ठभूमि
में मानवतावादी धार्मिक भावनाओं का
गीति-काव्य के रूप में एक सुस्पष्ट चित्र समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। संगीत की
माधुर्यता और साहित्य के अभूतपूर्व समन्वय का प्रमाण विनयपत्रिका के कुछ उदाहरण
निम्नांकित हैं कल्याण राग - इसके
गायन-वादन का समय रात्रि का प्रथम प्रहर है। इसका विस्तार
तीनों सप्तकों में होता है। तात्पर्य यह हुआ कि इस राग में गंभीर भावों का उपयुक्त
विस्तार हो सकता है। अपनी गंभीर वृत्ति के कारण आत्म-निवेदन के प्रसंगों के
अनुकूल है।
उदाहरण के लिए , “ नाथ सों कौन
बिनती कहि सुनावौं। ” ( वि०प० पद स० 208 ) इस पद में तुलसी आत्मनिवेदन करते हुए कहते हैं
कि हे नाथ मैं आपको किस प्रकार अपनी विनती सुनाऊं? मैं जब भी अपने
तीनों प्रकार के पापों , जो मन, वचन और कर्म से उत्पन्न होतें हैं को देखता हूँ और आपकी शरण
में आता हूँ तो ग्लानि से भर उठता हूँ।
बिलावल राग –
इस राग का स्वरूप
उत्तरांग प्रधान है। इसका चलन तार सप्तक में अधिक होता है। गायन-वादन का समय
दिन का प्रथम प्रहर होता है। स्पष्ट है कि इस
राग के माध्यम से ऐसे भावों को अभिव्यंजित किया जा सकता है जिनमें प्रार्थना और
स्तुति हो। ‘ विनयपत्रिका ‘ के कुछ पद इस राग
में निबद्ध हैं और वे भजन के लिए उपयुक्त हैं।
“ ताते हौं बार-बार
देव ! द्वार परि पुकार करत। “ (वि०प० पद स० 134)
भाव यह है कि हे नाथ !
तुम दुःख,नम्रता और दीनता
सुनते ही संकट हर लेते हो, इसलिए मैं सदा द्वार पर पड़ा बार-बार तुम्हे पुकारता हूँ।
केदार राग -
तुलसी ने केदार का सर्वाधिक
प्रयोग किया है क्योंकि इसका सम्बन्ध करुण , श्रृंगार और शांत
रस से है। राग केदार गायन
का समय रात्रि का प्रथम प्रहर है।
“ कबहुँक अम्ब अवसर
पाई। “
(कबहुँक अम्ब अवसर पाई - वि.प. 41 )
यह पद श्रीसीता-स्तुति से
लिया गया है जिसमें करुण रस का परिपाक हुआ है। करुण-रस को
परमात्मा का द्रव-स्वरूप माना गया है। जानकी रघुनाथजी की आल्हादिनी शक्ति हैं। उनका निवेदन श्री
प्रभु अवश्य समझेंगे, इस आशा से तुलसी ने सही सीता जी की स्तुति की है। राग केदार, जो रात्रि में
गाया-बजाया जाता है, उस समय राम के निकट केवल जानकी ही होती है। अतः ऐसे में समय
में माँ को आर्त भक्त के दुखों को सुनने का अवसर मिलेगा और भगवान भी दत्तचित्त
होकर विनती सुन सकेंगे।
इसी राग में निबद्ध एक
अन्य पद में श्रीराम के अद्वितीय सौंदर्य
का वर्णन हुआ है।
“ जयति सिंगार-सर, तामरस-दामदुती
देह, गुनगेह, बिस्वोपकारी। ” ( वि०प० पद स० 41 )
अर्थात, जिनके शरीर की
शोभा श्रृंगार-सरोवर में कमल-माला के सदृश्य है ,जो स्वयं समस्त
दिव्य गुणों के धाम हैं, विश्वामित्र का हित सम्पादन करनेवाले हैं,जो अपने लावण्य
और सौंदर्य से जो करोड़ों कामदेवों का मान भंजन करने वाले हैं , उन श्री
कौशल-किशोर की जय हो।
बिहाग राग –
इस राग की
प्रकृति अत्यंत मधुर है। इसका चलन मन्द्र सप्तक से आरम्भ होता है। प्राचीन ग्रंथों
में इसकी उत्पत्ति बिलावल ठाट से मानी गयी है इसलिए विनयपत्रिका के जिन पदों की
रचना इस राग में हुई है, उन्हें बिलावल राग में भी गाया जा सकता है। यह एक गंभीर
प्रकृति का राग है और इसका प्रभाव और भी बढ़ जाता है जब इसे रात्रि के प्रथम प्रहर
में गाया-बजाया जाता है। यह समय भाव की दृष्टि से भी गहन-गंभीर विषयों की अभिव्यंजना
के लिए उपयुक्त है। इसलिए तुलसीदासजी ने विनयपत्रिका में दार्शनिक-आद्ध्यात्मिक
भावों को प्रस्तुत करने वाले पदों को इसी राग में निबद्ध किया है।
“ केसव ! कहि न जाई
का कहिये।
देखत तब रचना
विचित्र अति, समुझी मनहिं मन रहिये।। “ ( वि०प० पद स० 111 )
हे केशव आपकी अद्भुत रचना
देखकर मैं हतप्रभ रह जाता हूँ और कुछ वर्णन करने की स्थिति में नहीं रहता हूँ।यह पद अत्यंत जटिल एवं
गूढ़ार्थ वाला है जिसमें तुलसी की दार्शनिक चेतना के गहन चिंतन हुए हैं। सगुणोपासना भी
अंतत: निराकार उपासना में समाहित होती है। यह पद इस दृष्टि से भावों की परिपक्वता से
पूर्ण है। उनके अनुसार इस
संसार की रचना किसी निराकार चित्रकार ने कर दी है। निराकार परमात्मा
ने मायारूपी दीवार पर, जो वास्तव में शून्य का आभास दे रही है ,ऐसे विचित्र
चित्र बनाएं है जिनमें न कोई रंग है और न आकृति। केवल संकल्प
मात्र से शून्य के आधार पर और असत का आश्रय लेकर पांचभौतिक रचना का प्रसार किया है। इस प्रकार संसार
की व्याख्या करते हुए अंत में तुलसी कहते हैं कि
कोई इसे सत्य समझता है तो कोई मिथ्या और कुछ इसे दोनों ही मानतें हैं। किन्तु तुलसीदास
इन्हें मात्र भ्रम मानतें हैं। जो इन भ्रमों से छुटकारा पा लेता है ,वही इसके
वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि
ऐसे विषय जिनके भाव-गाम्भीर्य के व्यापक विस्तार की संभावना होती है, राग बिहाग में
प्रस्तुत करने से उत्कृष्टता को प्राप्त करता है।
भैरव राग –
यह एक
प्रात:कालीन संधि-प्रकाश राग है। अत्यंत प्राचीन राग है और इसमें रे,ध कोमल स्वरों के
प्रयोग से इसका मुख्य भाव करुण प्रकृति का है। स्वाभाविक है कि
यह भी गंभीर रागों की श्रेणी में आता है। विनय-प्रार्थना के भावों को अभिव्यंजित करते
कुछ पदों को तुलसी ने इसी राग में बाँधा है।
“ राम-राम रातू,राम-राम जपु जीहा। “ ( वि०प० पद स० 65 )
यहाँ तुलसी अपनी जिव्हा
और मन को लगातार राम नाम रटने को कहते हैं जैसे पपीहा सदा पियु पियु की रट लगाता
रहता है। एक अन्य पद में
आद्ध्यात्मिक नगरी काशी की स्तुति भी इसी राग में करते हुए तुलसी काशी को कलियुग
की कामधेनु का स्वारूप मानते हुए कहते हैं कि चारों पुरुषार्थ ( अर्थ,धर्म,काम मोक्ष ) ही
यहाँ की वास्तविक संपदा है और जिसे इस सुख की इच्छा है उसे काशी में रह कर राम नाम
का स्मरण करते रहना चाहिए।
भैरवी राग –
वैसे तो इस राग
का समय प्रात:काल है। इसमें रे,ग,ध,नि स्वर कोमल होते हैं। परन्तु भजन एवं
पद-गायन में इसका प्रचलन इतना अधिक है कि इसे किसी भी समय गाया जाता है। यह चंचल प्रकृति
का राग है और इसी प्रकार के भावों के द्योतक पदों की रचना तुलसी ने इसी राग में की
है। चंचलता से यहाँ
अभिप्राय गति से है। इस राग में बड़ा ख़याल नहीं गाया जाता बल्कि छोटा ख़याल, भजन, ठुमरी आदि
उप-शास्त्रीय शैलियाँ प्रस्तुत की जाती हैं। विनयपत्रिका का
एक बहुत ही प्रचलित और प्रसिद्ध भजन इसी राग में निबद्ध है।
“ मन पछितैहै अवसर
बीते।
दुर्लभ देह पाई
हरिपद भजु, करम, भाचन अरु ही ते। “ ( वि० प० पद स० 198)
यहाँ भावार्थ यह है कि
अवसर बीत जाने पर तेरे मन को पछताना पडेगा इसलिए जितने भी श्रेष्ठ कार्य हैं, उसे समय रहते
पूरा कर ले। यह मानव देह बड़ी
ही दुर्लभ है और कठिनता से प्राप्त होती है। इसलिए मन, वचन और कर्म से
तु उत्तम कर्म कर।
तोड़ी राग –
इस राग को गाने
का समय दिन का दूसरा प्रहर माना गया है। इसमें मीण्ड और गमक के प्रयोग से रंजकता
उत्पन्न की जाती है।
“ मोहजनित मल लाग
विवध विधि कोटिहू जतन न जाई। “ (वि०प०पद स० 82)
इस पद में तुलसी मनुष्य
को व्यवहारिक ज्ञान का उपदेश देते हुए तमाम विकारों का परिहार करने को कहते हैं। राग तोड़ी में
निबद्ध होने के कारण यह भाव और भी अधिक प्रबलता से प्रकट होता है।
ललित राग –
आद्ध्यात्मिक
प्रकृति के इस राग में दोनों म (शुद्ध एवं तीव्र) का प्रयोग होता है और इसका समय
दिन का पहला प्रहर होता है।
“ खोटो खरो रावरो
हौं ,रावरे सों झूठ
क्यों कहौंगो ,
जानो सबही के मन
की। (वि०प० पद स० 75)
इस पद में तुलसी अपनी
अनन्य भक्ति-भावना को प्रकट करते हुए कहते हैं कि मैं जो भी हूँ,जैसा भी हूँ आपका
हूँ। मैं आपसे झूठ कभी
नही कह सकता। आप तो घट–घट वासी हैं , आपसे क्या छुपा
हुआ है। स्पष्ट है कि इस
पद में भावनाओं का आवेग तीव्र है और इस प्रकार के भावों के प्रस्फुटन के लिए राग
ललित उपयुक्त है।
मल्हार राग –
विनयपत्रिका में
राग मल्हार का भी यथासंभव सुन्दर प्रयोग मिलता है। इसकी प्रकृति
गंभीर है। कहीं –कहीं इन पदों को
राग गौरी में भी निर्दिष्ट किया गया है। एक बहुत ही प्रचलित भजन जिसमें राम की के
सौंदर्य,कृपालुता और
दुखभंजन स्वरूप को प्रस्तुत किया गया है।
“ श्री राम चन्द्र
कृपालु भज मन हरण-भव-भय-दारुनं।
नवकंज-लोचन, कंजमुख, करकंज पदकंजारुनं।। “ (वि०प० पद स० 45)
कान्हरा राग –
इस राग की
प्रकृति गंभीर एवं माधुर्य तत्वों से परिपूर्ण है। इसे गाने का समय
मध्य-रात्रि है। यह समय विश्राम
एवं शान्ति का होता है। इसका विस्तार तीनों सप्तकों में होता है और इसके स्वरूप के अनुसार इसमे भावों की
स्थिरता लम्बे समय तक बनी रहती है। आनन्द दायक स्थितियों का द्योतक यह राग उन पदों के लिए
उपयुक्त है जिसमें मोक्षादि के भाव प्रस्तुत हुए हैं।
“ भजिबेलानायक, सुखदायक रघुनायक
सरिस सरंप्रद दूजो नाहिन।
आनन्दभवन दुख़दवन,सोकसमन,रमारमन गुण गणत
सिराहि न।।
“ (वि०प० पद स० 207 )
रामकली राग –
यह एक चंचल
प्रकृति का राग है इसे गाने का समय दिन का पहला प्रहर है और इसका विस्तार मध्य एवं
तार सप्तक में होता है। विनयपत्रिका की विविध स्तुतियाँ और भजन इसी राग में निबद्ध
हुए हैं।
“ जाँचिये
गिरिजापति कासी जासु भवन अनिमादिक दासी।’ ( पद स० 6 )
“सिव,सिव होइ प्रसन्न
करु दावा” (पद स० 9 )
“जय-जय जगजननि
देवि, सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि,
भक्ति-मुक्ति-दायिनि, भय-हरनि, कालिका।” (वि०प० पद स० 16)
धनाश्री राग –
यह राग सांयकाल
अर्थात दिन के तीसरे प्रहर में गाया जाता है। इसमें ग,नि कोमल लगते हैं। इस राग में तुलसी
ने शंकर जी के दानी स्वरूप की व्याख्या करते हुए कुछ पदों की रचना की है। इसमें ब्रह्मा जी
की विलक्षण चातुर्य ,हास्य,श्रवण-रोचकता और गूढ़ भावना व्यक्त हुई है। शिवजी की असीम
अनंत उदारता को देखकर ब्रह्माजी चिंतित हो गए है कि यदि शिवजी इसी प्रकार सभी को
सरलतापूर्वक दान देते रहेंगे तो उनका खज़ाना शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। इस अपव्यय को
केवल पार्वती ही रोक सकती हैं। यह निश्चय करके एकदिन ब्रह्मा जी कैलाश पर्वत पर जाते हैं।
“बावरो रावरो नाह
भवानी।
दानि बड़ो दिन देत
दये बिनु, वेद-बड़ाई भानी। “ (वि०प० पद स० 5)
इस प्रकार विनयपत्रिका
में आरम्भ से अंत तक ऐसे अपूर्व उदाहरणों को देखा जा सकता है। भक्त में दैन्य, आत्म-समर्पण, आज्ञा, उत्साह, आत्मग्लानि, अनुताप, आत्मनिवेदन आदि
की गंभीरता को शास्त्रीय रागों के माध्यम से सजीवता प्रदान की है। तुलसी के इस
अद्वितीय कार्य ने एक ओर तो साहित्य को अमूल्य निधि प्रदान की तो वहीँ दूसरी ओर
मनोरम भावनाओं की सांगीतिक अभिव्यक्तियों
के माध्यम से राम-ध्वनि को जन-जन तक पहुँचाने में सफल सिद्ध हुए।
डॉ. अनुपमा श्रीवास्तव, जीसस एंड मेरी
कॉलेज, दिल्ली
विश्वविद्यालय
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
एक टिप्पणी भेजें