वर्तमान सन्दर्भों में तुलसी-काव्य की प्रासंगिकता
तुलसीदास भारत के लोकप्रिय
कवि हैं. उन्होंने अपने काव्य में भारतीय संस्कृति के प्रेरक और उज्जवल पक्षों को
प्रेरणादायक ढंग से प्रस्तुत किया है. इस रूप में काव्य के माध्यम से भारतीय
संस्कृति के विभिन्न तत्वों को समझने की दृष्टि से तुलसी-काव्य सर्वाधिक समर्थ और
सशक्त साधन है. हिन्दी और हिंदीतर अनेक विद्वानों द्वारा तुलसी-काव्य पर विचार, व्याख्या और विश्लेषण प्रस्तुत किये जा
चुके हैं. तुलसी-काव्य के मर्म को समझने और समझाने की यह यात्रा निरंतर जारी है
किन्तु यह भी सत्य है तुलसी-काव्य पर अभी तक जितना लिखा और कहा जा चुका है, वह अपर्याप्त
है. “तुलसी की पहुँच
घर-घर में है, या वे व्यापक
समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं तो इसका मुख्य कारण यह है कि गृहस्थ जीवन और आत्म
निवेदन इन दोनों अनुभव-क्षेत्रों के वे बड़े कवि हैं. ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ के युग्म में जैसे सब कुछ सिमट आया हो.” (पृष्ठ-49, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरुप चतुर्वेदी) वस्तुतः तुलसीदास के सम्पूर्ण
कृतित्व में अब भी वह प्रेरक और सम्मोहिनी शक्ति विद्यमान है जो पहले लिखे और कहे
गए से आगे बढ़कर सोचने और उसे अभिव्यक्त करने के लिए पाठकों और आलोचकों को निरंतर प्रेरित
करते हुए सक्रिय बनाए रखे हुए है. निश्चित रूप से, तुलसीदास की काव्य-सरिता में
ऐसे अनेक अमूल्य मोती छिपे हुए हैं जिनकी थाह मर्मज्ञ गोताखोर-मनीषियों को अभी तक नहीं
लग सकी है. तुलसीदास के इसी गुण ने इतने वर्षों बाद भी भारतीय मानस-पटल पर अपना
स्थान अक्षुण्ण रखा हुआ है. इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल ने तुलसीदास के विषय में बड़े आदर के साथ लिखा है - “यदि कोई पूछे कि जनता के ह्रदय पर सबसे अधिक विस्तृत अधिकार
रखने वाला हिन्दी का सबसे बड़ा कवि कौन है तो उसका एक मात्र यही उत्तर ठीक हो सकता
है कि भारत-ह्रदय, भारती-कंठ
भक्त-चूडामणि गोस्वामी तुलसीदास.” (पृष्ठ–175, गोस्वामी
तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल)
आजकल आधुनिकता के नाम पर
परम्परा को तोड़ने की प्रवृत्ति बलवती होती जा रही है किन्तु परम्परा में से ही आधुनिकता
के अंकुर प्रस्फुटित होते हैं. इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि तुलसीदास के ‘रामचरित्
मानस’ का अवगाहन करके ही भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के मुख्य प्रेरक और प्रतिनिधि
महात्मा गाँधी को ‘रामराज्य’ की अवधारणा और उसे स्थापित करने की प्रेरणा मिली थी. मध्यकाल में जब भारतीय संस्कृति संक्रमण और
भटकाव के दौर में थी, तब अत्यंत आत्मविश्वास के साथ तुलसीदास ने ही भारतीय
संस्कृति के मूल्यों को न केवल स्थापित किया बल्कि राम-कथा में उनके व्यावहारिक
रूप को प्रदर्शित किया. तुलसीदास का यह महत् कार्य आधुनिक समय में भी मानव-संसृति
को आचार, विचार और व्यवहार के स्तर पर लाभान्वित कर रहा है - “‘सत्य मूल सब सुकृत सुहाए’, ‘धरम न दूसर सत्य समाना’, ‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं’, ‘उत्तर प्रति-उत्तर मैं कीन्हा’, ‘नर तन सम नहिं कवनिउ देही’, ‘जिन्हकें रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी, ‘जौ अनीति कछु भाषौ भाई, तौ मोहि बरजहु भय बिसराई’ जैसी उक्तियों के द्वारा तुलसी ने जिन मूल्यों
को मध्यकाल में अपने काव्य में प्रतिष्ठापित किया था वे उन मूल्यों के काफी निकट
हैं, जिन्हें आज का विज्ञान
अपने विकास के लिए आवश्यक मानता है.” (पृष्ठ–17, तुलसी के हिय
हेरि, विष्णुकांत शास्त्री)
वर्तमान समय की मानुषी
प्रवृत्तियों को देखते हुए इसे उपभोक्तावादी संस्कृति प्रधान समय कहा जाता है जिसमें
आत्मीयता, नैतिकता, मर्यादा, लोकमंगल आदि भारतीय संस्कृति के प्रधान मूल्यों का निरंतर
क्षरण और हरण होता दिखाई दे रहा है. ऐसी विकट और विषम स्थिति में महाकवि तुलसीदास
कृत साहित्य की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ गयी है. ‘रामचरित् मानस’ में जिस प्रकार
तुलसीदास ने महत् मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की है यदि वे आज के मनुष्य द्वारा अपना
लिये जाएं तो वर्तमान जीवन की यांत्रिकता से बचते हुए जीवन का वास्तविक आनंद उठाया
जा सकता है. मानव-जीवन संघर्षों की यात्रा है और इस यात्रा में आने वाले उतार-चढ़ाव
ही मनुष्यता की कसौटी होते हैं जिनमें मानव-मन के विविध भाव, स्तर और संकल्प देखने
को मिलते हैं - “मानव-प्रकृति के
जितने अधिक रूपों के साथ गोस्वामीजी के ह्रदय का रागात्मक सामंजस्य हम देखते हैं, उतना अधिक हिन्दी भाषा के और किसी कवि के ह्रदय का नहीं.
यदि कहीं सौन्दर्य है तो प्रफुल्लता, शक्ति है तो प्रणति, शील है तो हर्षपुलक, गुण है तो आदर, पाप है तो घृणा, अत्याचार है तो क्रोध, अलौकिकता है तो विस्मय, पाषंड है तो कुढन, शोक है तो करुणा, आनंदोत्सव है तो उल्लास, उपकार है तो कृतज्ञता, महत्त्व है तो
दीनता तुलसीदासजी के ह्रदय में बिंब-प्रतिबिंब भाव से विद्यमान है.” (पृष्ठ– 85, गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल)
तुलसीदास लोकदृष्टा
कवि होने के साथ ही दूरदृष्टा भी थे. उन्होंने अपने समय में मानव-धर्म की राह में आघात
करने वाली प्रवृतियों का बड़ी सूक्ष्मता से अधययन किया और लोकमंगलकारी समाधान भी
जनता के सामने प्रस्तुत किया. “ईश्वर में पूरी
आस्था और मनुष्य का पूरा सम्मान ये दोनों दृष्टियाँ तुलसी में एक दूसरे से जुड़ी
हुई हैं. ‘सिया-राममय सब जग जानी I करहुँ प्रनाम जोरि जग पानी I’ जैसी पंक्तियाँ
इस गहरे आत्म-विश्वास पर ही लिखी जा सकती हैं, जहाँ ईश्वर और
मनुष्य दोनों की एक साथ प्रतिष्ठा हो. ‘सिया राम’ यदि उनकी भक्ति के लिए आश्रय-स्थल हैं तो ‘सब जग’ उनके रचना-कर्म के लिए. ..... अनुभूति और
अभिव्यक्ति का जैसा संश्लिष्ट रूप रचना में वस्तुतः प्रत्याशित है वह ईश्वर और
मनुष्य की इस एकरूपता में से निकलता है.” (पृष्ठ-49, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरुप चतुर्वेदी)
तुलसीदास ने भक्ति को
लोक-धर्म-सापेक्ष माना है. उन्हें ऐसी भक्ति से चिढ थी जो पाखण्ड और अनाधिकार
चर्चा पर केन्द्रित हो. उन्होंने सच्चे मन से राम की सरला भक्ति को महत्त्व दिया. आज भारत में तथाकथित स्वयंभू धर्मगुरुओं की
बाढ़-सी आ गयी है जिनके वाग्जाल में मनुष्य-जीवन भ्रमित ही हो रहा है. ऐसी स्थति
में तुलसीदास-प्रतिपादित भक्ति सबसे पहले मनुष्य को उसकी मनुष्यता का अहसास करवाते
हुए उसमें आत्मविश्वास भरकर ‘राम’ के सामने खड़ा करती है - “तुलसी की सबसे बड़ी
विशेषता है – ‘मनुष्य की उच्चता पर अखंड विश्वास’. इसीलिए ह्रासोन्मुख युग-जीवन के
बीच उनहोंने दिव्य मानव-मूर्ति की प्रतिष्ठा की. इसीलिए वे मनुष्य, भगवान् और
ब्रह्म में एकता स्थापित कर सके.” (पृष्ठ–69, गोस्वामी तुलसीदास, डॉ. रामचंद्र
तिवारी) इस रूप में भक्ति का पहला चरण मनुष्य को उसकी मनुष्यता का गहराई अहसास करना
भक्ति का पहला चरण है.
आधुनिक समय के केंद्र में
मनुष्य है और “आधुनिक दृष्टि परलोक की चिंता न कर इहलोक में, इसी जीवन को सुखी
बनाने के लिए सतत संघर्ष की प्रेरणा देती है. मनुष्य के दुःख-कष्ट के लिए वह भाग्य
को नहीं, अज्ञान एवं सामाजिक दुर्व्यवस्था को जिम्मेदार मानती है. तुलसी ने भाग्य
और परलोक को स्वीकारते हुए भी उद्योग और इहलोक के महत्त्व को भली-भाँति प्रतिपादित
किया है. सामाजिक दुर्व्यवस्था ........ रावणी अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष उन्हें
भी अभीष्ट है. राम-रावण के युद्ध के माध्यम से उन्होंने बाहर और भीतर चलनेवाले शुभ
और अशुभ के द्वंद्व में शुभ का समर्थक, राम का सैनिक बनने की जबरदस्त प्रेरणा दी
है.” (पृष्ठ–23, तुलसी के हिय हेरि, विष्णुकांत शास्त्री) इस दृष्टि से देखें तो
आधुनिक जीवन की अनेक समस्याओं का निराकरण अकेले ‘रामचरितमानस’ के अवगाहन और
कियान्वयन से स्वयंमेव हो जाता है.
समय के प्रति निष्ठा और उसका सदुपयोग
वर्तमान जीवन की सबसे बड़ी और अपरिहार्य आवश्यकता है. आज के आपाधापी और भाग-दौड़ से
भरे जीवन में समय की कमी सभी को महसूस हो रही है. समय का सदुपयोग करते हुए कोई काम
समय पर पूर्ण कर पाना आज सबसे बड़ी चुनौती है. ‘टाइम मैनेजमेंट’ को साध पाना सबके
वश की बात नहीं रह गयी है जिसके कारण आज ‘टाइम मैनेजमेंट’ के गुरुओं की भी बाढ़-सी
आ गयी है. तुलसीदास जी ने मध्य-काल में समय के इस महत्त्व को समझकर राम-कथा में इसे
साधने के सूत्र भी दिए हैं – “तुलसीदास की मान्यता है, ‘लाभ समय को पालिबो, हानि
समय की चूक. सदा बिचारहिं चारुमति सुदिन, कुदिन, दिन दूक’ सामर्थ्य रहते हुए भी
ठीक समय पर ही ठीक काम करना चाहिए, तुलसी ने इस सिद्धांत की पुष्टि में श्री राम
का उदाहरण देते हुए लिखा है, ‘समरथ कोउ न राम सों तीय-हरण अपराधु, समयहि साधे काज
सब समय सराहहिं साधू.’ समग्र कल्प की दृष्टि से होगा सत्ययुग सर्वगुण-संपन्न युग,
पर अपने छोटे-से जीवन में बीते हुए समय की तुलना में आनेवाला समय कितना अधिक
महत्त्वपूर्ण है, इसका संकेत देते हुए तुलसी ने कहा है, ‘न करु बिलंब, बिचारु
चारुमति बर्ष पाछिले सम गिलो पल’ देर न कर, सुबुद्धि से सोच कि पिछले वर्षों के
समान (मूल्यवान) है अगला पल. बचे हुए जीवन के एक-एक क्षण को इतना महत्त्व देना आज
भी सुसंगत है.” (पृष्ठ–25, तुलसी के हिय हेरि, विष्णुकांत शास्त्री)
तुलसीदास भारतीय जन-मानस की नब्ज को पकड़कर उसका सटीक
उपचार बताने वाले रचनाकार हैं. भारत की जनता की जटिल संरचना में अनेक स्तरों पर
विरोधाभास और द्वंद्व दिखलाई पड़ते हैं. यह स्थिति मध्यकाल में भी थी. उस समय
तुलसीदास अपने काव्य के माध्यम से समन्वय का सिद्धांत लेकर आये और पारस्परिक
विरोधी मतों और जीवन-दृष्टियों व शैलियों में समन्वय के द्वारा जीवन की समुचित
दिशा निर्धारित करने का मन्त्र भारतीय जनता को दिया. आज का भारत अनेक प्रकार की
समस्याओं से ग्रस्त है जिनमें अधिकांश का कारण अतिवादिता है. ऐसी स्थिति में यदि
तुलसी की समन्वय-भावना को अपनाकर आगे बढ़ा जाय तो तनाव कुछ ढीला हो सकता है. इस
सन्दर्भ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है – “तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सफलता मिली उसका कारण
यह था कि वे समन्वय की विशाल बुद्धि को लेकर उत्पन्न हुए थे. भारतवर्ष का लोकनायक
वही हो सकता है जो समन्वय करने का अपार धर्य लेकर सामने आया हो. ....... उन्हें
लोक और शास्त्र दोनों का बहुत व्यापक ज्ञान प्राप्त था. ......... लोक और शास्त्र
के इस व्यापक ज्ञान ने उन्हें अभूतपूर्व सफलता दी. उसमें केवल लोक और शास्त्र का
ही समन्वय नहीं है, वैराग्य और
गार्हस्थ का, भक्ति और ज्ञान
का, भाषा और संस्कृत का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का, भाववेग और अनासक्त चिंतन का, ब्राह्मण और चांडाल का, पंडित और अपंडित का समन्वय, रामचरितमानस के आदि और अंत दो छोरों पर जाने
वाली पराकोटियों को मिलाने का प्रयास है. इस महान समन्वय का आधार उन्होंने रामचरित
को चुना है. इससे अच्छा चुनाव हो भी नहीं सकता था.”
वर्तमान समय का भारत पाश्चात्य
संस्कृति के अन्धानुकरण की प्रवृत्ति से भी जकड़ा हुआ है. दूरद्रष्टा तुलसीदास की
विवेकपूर्ण दृष्टि ने संस्कृति के इस संकट को अपने समय में भाँप लिया था. विचारवान
तुलसीदास जी ने ‘दोहावली’ में लिखा है –
“मनि भाजन मधु,
पारई पूरन अमी निहारि I
का छाड़ियँ, का
संग्रहिय, कहहु बिबेक बिचारि I”
अर्थात् मणियों से बने बर्तन में भरी शराब के सामने
मिट्टी की परई में भरे अमृत का त्याग उचित है? चकाचौंध के सामने त्याग और संग्रह
का चयन विवेकपूर्ण विचार करते हुए होना चाहिए. कहना न होगा आज की भौतिकता प्रधान
संस्कृति में तमाम तकनीकी सुविधाओं के संग्रह के बावजूद क्या मनुष्य जीवन का
वास्तविक आनंद ले पा रहा है? - तुलसीदास जी ने इस प्रश्न को इतने वर्षों पहले अपने
साहित्य में पाठकों को सचेत करते हुए उनके विचारार्थ रख दिया था. वर्तमान समय में
भारतीयों की पाश्चात्य संस्कृति के पीछे लगी अंधी दौड़ के सन्दर्भ में इस प्रश्न की
प्रश्नवाचकता कहीं गहरे अर्थ को व्यंजित करती है.
इस प्रकार कहा जा सकता है
तुलसीदास को गए भले ही चार सौ से अधिक वर्ष हो गए हों किन्तु उनकी विविध
काव्य-कृतियों में उपस्थित उनके विचारों को यदि पूर्वाग्रह से मुक्त होकर संतुलित
दृष्टि रखते हुए परखा जाय तो वर्तमान समय और सन्दर्भों में उनकी उपयोगिता अवश्य
समझ में आएगी. वस्तुतः “तुलसीदास की
विचारधारा का विपुलांश आज भी वरणीय है. श्रीराम (सगुण या निर्गुण ब्रह्म, अवतार, विश्वरूप, चराचर व्यक्त जगत या चरम मूल्यों की समष्टि और
स्रोत – उनका जो भी रूप आपकी
भावना को ग्राह्य हो) के प्रति समर्पित, सेवाप्रधान, परहित-निरत, आधि-व्याधि-रहित जीवन; मन, वाणी और कर्म के
एकता; उदार, परमत सहिष्णु, सत्यनिष्ठ, समन्वयी दृष्टि; अन्याय के प्रतिरोध के लिए वज्र-कठोर, प्रेम-करुणा के लिए कुसुम कोमल चित्त; गिरे हों को उठने, और बढ़ने की प्रेरणा और आश्वासन; भोग की तुलना में तप को प्रधानता देनेवाला, विवेकपूर्ण, संयत आचरण; दारिद्र्यमुक्त, सुखी, सुशिक्षित, समृद्ध, समतायुक्त समाज; साधुमत और लोकमत का समादर करनेवाला
प्रजा-हितैषी शासन – संक्षेप में यही
आदर्श प्रस्तुत किया है तुलसी की ‘मंगल करनि, कलिमल हरनी’ वाणी ने.” (पृष्ठ–29, तुलसी के हिय
हेरि, विष्णुकांत शास्त्री) इस
रूप में तुलसीदास द्वारा वर्णित मंगल भावना को अपनाकर वर्तमान समय और जीवन के
विभिन्न तनावों, विषमताओं और समस्याओं को न केवल दूर किया जा सकता है बल्कि आने
वाली पीढ़ियों को भी दिशा-निर्देशित किया जा सकता है.
डॉ. आशा, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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