शोध लेख :भारतीय संस्कृति के उन्नायक गोस्वामी तुलसीदास का रचना वैविध्य/डॉ. हीरा मीणा

                 भारतीय संस्कृति के उन्नायक गोस्वामी तुलसीदास का रचना वैविध्य


     
गोस्वामी तुलसीदास भारतीय संस्कृति और जनमानस के महाकवि काव्यस्रष्टा और जीवनदृष्टा रहे है। मध्यकालीन साहित्य में उन्होनें समाज का आर्दश रूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने ऐसा  साहित्य  रचा जो भारतीय जनमानस का सबसे पवित्रअलौकिकसर्वमान्यधर्मशास्त्र बन गया। तुलसीदास जी की दृष्टि सर्वव्यापी और लोकमंगलकारी थी। उन्होंने तत्कालीन समाज की विसंगतियों और विद्रूपताओं को आर्दश और नैतिकता की संकल्पना में लोकजीवन में गहरे से उतार दिया है। उनके द्वारा रचित काव्य ग्रंथ हिन्दी साहित्य और भारतीय जनमानस की अनमोल धरोहर है। भविष्य निर्माता तुलसीदास जी का रचना संसार भारतीय जनमानस में आर्दश और संस्कृति के मूल्यों के रूप में बसा हुआ है इसीलिए भारतीय संस्कृति के उन्नायक लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास जी ही माने जाते है।

        हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार भारतवर्ष का लोक-नायक वहीं हो सकता है, जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो भारतीय समाज में नाना भाँति की परस्पर विरोधिनी  संस्कृतियां, साधनाएं, जातियों, आचार-विचार  और पद्वतियां प्रचलित है।1 भक्तिकाव्य के कवियों में तुलसीदासजी सर्वाधिक प्रसिद्ध  सर्वमान्य लोकनायक, लोककवि, जनहितकारी, लोकमंगलकारी, और भक्त कवि के नाम से जाने जाते है। गोस्वामीजी हिन्दी साहित्य के ऐसे कवि है जिन्होंने अपनी रचना का मूल उद्देश्य लोकमंगलका विधान करना स्वीकार किया हैं।

       “सामान्यतः लोकशब्द से तात्पर्य है सामान्य जन और मंगलसे तात्पर्य है कल्याण2 अर्थात सामान्यजन का कल्याण ही लोक मंगल कहलाता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है कि आप कवि थे भक्त थे, पंडित थे, सुधारक थें, लोकनायक थें और भविष्य के स्रष्टा भी थे।गोस्वामी तुलसीदासजी  मध्यकालीन काव्य के ऐसे कवि है जिन्होंने अपनी काव्य रचना का मूल उद्देश्य लोकमंगल का विधान करना स्वीकार किया है। उन्होंने स्वयं लिखा है -

                           कीरति भनिति भूति भल सोई।
                           सुरसरि सम सब कहं हित होई।।

         अर्थात र्कीति कविता और ऐश्वर्य वही अच्छा होता है जो गंगा के समान सबका हित करने वाला हो। तुलसीदास जी के समकालीन समाज की सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल की हलचलें सम्पूर्ण समाज को प्रभावित कर रही थी। विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का साम्राज्य स्थापित हो जाने पर भारतीय जनमानस को छल छद्म एवं जधन्य अपराधों के द्वारा शोषित और प्रताडित किया जा रहा था। कुछ विद्वानों के अनुसार इसाई धर्म के प्रभाव  के कारण लोग अध्यात्म की ओर झुकने लगें। कुछ के अनुसार स्वानुभूति से लोग अध्यात्म की ओर जाने लगें।  शासन और जीवन की अस्थिरता से लोगों का मन विरक्ति और अध्यात्म की और बढ़ता जा रहा था। समाज में निचलें स्तर के पुरूष और स्त्री दरिद्र, अशिक्षित और रोग-ग्रस्त  थे। जीवन घोर त्रासदियों  से घिर रहा था। वैरागी हो जाना मामूली बात थी। जिनके घर की संपत्ति नष्ट हो गयी या स्त्री मर गयी संसार में उनके लिए कोई आर्कषण नही रहा वहीं तुरंत संन्यासी बन गया। चारों ओर घोर निराशा और वैराग्य तेजी से जन-जन में अपनी गहरी पैठ बनाने लगा था।

          हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने तत्कालीन समाज का जीवंत चित्रण इस प्रकार किया है कि समाज में धन की मर्यादा बढ़ रही थी दरिद्रता हीनता का लक्षण समझी जाती थी। पंडितों और ज्ञानियों का  समाज के साथ कोई भी संपर्क नही था। सारा देश विश्रृंखल, परस्पर विच्छिन, आर्दशहीन और बिना लक्ष्य का हो रहा था एक ऐसे आदमी की आवश्यकता थी,जो इन परस्पर विच्छिन  और दूर-विभ्रष्ट टूकडों में योग-सूत्र स्थापित करें तुलसीदास का आविर्भाव ऐसे समय में ही हुआ।3

           तुलसीदास का प्रारम्भिक जीवन घोर अभावों और दुरूखों से गुजरा था। अभुक्त-मूल में पैदा होने से उनके माता-पिता ने उन्हें छोड़ दिया था। इनका बचपन दर-दर भीख मॉंगकर गुजरा। भूख की अग्नि में जाति-पॉंति का भेद भस्म हो गया। वे सुजाति-कुजाति के टुकड़ों पर पले बढ़े थे। स्वयं के माता-पिता और समाज के उच्च वर्ग ब्राह्मण समुह की उपेक्षा और तिरस्कार झेलते हुए धर्म और जाति के बंधन शीथिल पडने लग गए थे।

           “जीवन के तमाम सारे छद्म, छल-फरेब, पाखंडों का एक जमघट, धूर्त्तता-कुटिलता के कार्य व्यापार, एक ऐसा समाज जिसमें ठग हैं, व्याभिचारी हैं, झूठे और बेईमान हैं ,लम्पटता हैं ।  काशी के धर्म के पाखंड तथा कदाचार,चोर,उचक्के, बटमार सब उन्हें मिलते है। धर्म के ध्वजावाहकों का असली चेहरा उनकी ऑखों के सामने आता है। पाप, दुष्कर्म, अकाल, माहमारी, दारिद्रय का एक पूरा संसार उनके समक्ष उद्घाटित होता है चापलूसी, स्वार्थ, मानवीय, सामाजिक, पारिवारिक, नाते-रिश्तों का क्षय, उन्हें भीतर से हिला देता है।4

           तुलसीदास जी ने जन-जन की पीडा को दूर करने के लिए लोकमंगल की कामना को सिद्ध करते हुए श्री राम के आदर्श रूप की संकल्पना को समाज में स्थापित किया। तुलसी की विलक्षण प्रतिभा इस बात में हैं कि उन्होंने भक्त और रचनाकार की भूमिकाओं का एक साथ सफल निर्वाह किया है।

           रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार तुलसी के राम का आदर्श चरित्र इस प्रकार रेखांकित है   तुलसी राम का चरित्र चुनते हैं अपने लिए जो मर्यादा पुरूषोतम हैं और हर तरह से आदर्श के प्रतिरूप हैं, आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र, आदर्श भ्राता, सबसे अधिक आदर्श पति और आदर्श शासक।5
राम भक्ति का आरम्भिक रूप दक्षिण के आलावार संतों से माना जाता है। उत्तर भारत में राम भक्ति के आचार्य के रूप में रामानंद जी का नाम लिया जाता है। राम भक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में गोस्वामी तुलसीदासजी ही माने जाते है। ईश्वर में पूरी आस्था और मनुष्य में पूरा सम्मान यह दोनों दृष्टियां तुलसीदास जी में एक दूसरे से जुड़ी हुई है। भक्त और रचनाकार की सफल भूमिका के कारण तुलसी के काव्य की पहुँच घर-घर में है। राम कथाओं के माध्यम से भक्ति का तुलसी ने गृहस्थ जीवन का आदर्श चित्रण किया है। तुलसी की प्रमाणिक रचनाओं में 12 ग्रन्थों को मान्यता प्राप्त है:-

       1 रामचरित्रमानस, 2. जानकी मंगल, 3 पार्वती मंगल, 4 गीतावली, 5 कृष्ण गीतावली6 विनय पत्रिका7 दोहावली8 बरवै रामायण9 कवितावली ( हनुमान बाहुक ),   10  वैराग्य संदीपनी11 रामज्ञा प्रश्न, 12 रामलला नहछू  - है। इन काव्य रचनाओं के अतिरिक्त अन्य रचनाएं भी मिली हैं।  रामचरित्रमानस मर्यादा पु्रूषोषतम राम के जीवन चरित्र को दर्शाने वाला श्रेष्ठ महाकाव्य है, जिसमें गोस्वामी जी ने भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन, भक्ति और कवित्त का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है। इस महाकाव्य में 7 काण्ड है दृ बालकाण्ड, अध्योध्यकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किस्किंधाकाण्ड, सुन्दरकाण्डलंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड है।

         आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार गोस्वामी जी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता। जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है। सब पक्षों के साथ उसका सामन्जस्य है।  न उसका कर्म या धर्म से विरोध है, न  ज्ञान से धर्म तो उसका नित्यलक्षण है।6

       तुलसीदास जी की रामभक्ति साधना, साहित्य, धर्म और संस्कृति के रूप में वर्तमान समाज की रीढ़ के रूप में अवस्थित है। लोक कवि तुलसीदास एक और समाज सुधारक, धार्मिक जीवनदृष्टा, दाशर्निक संत, महात्मा, जनहितकारी के रूप में तो दूसरी और विराट समन्वय और लोकमंगल की कामनाओं से समाज को व्यापक रूप में जोडने का कार्य किया है।

तुलसीदास ने सभी परस्पर विरोधी धार्मिक विचारों को अपने जीवन दर्शन से ऐसी दिशा प्रदान की है जिससे शंकर के अद्वैतवादी दर्शन तथा शाक्तों का अनुसारण करने वाले विरोधी पक्ष को भी अधर्म, तथा पापाचार से हटाकर शुद्ध राम भक्ति में लाने का सफल प्रयास किया  है। गोस्वामी जी ने राम तथा शिव को परस्पर एक दूसरे का प्रशंसक दिखाकर शैवों तथा वैष्णवों को अत्यन्त निकट लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।  उनकी मौलिक दार्शनिक मान्यताओं में सगुण, अगुण, ज्ञान, भक्ति तथा कर्म का औचित्य और महत्व स्थापित किया है। उन्होंने सभी मत-मतान्तरों से ऊपर उठकर सगुण रामभक्ति के माध्यम से ज्ञान, कर्म तथा भक्ति का अद्भूत समन्वित सियाराममयमानवतावादी जीवन दर्शन दिया है। 

गोस्वामी जी की भक्ति-भावना मूलतरू लोकसंग्रह की भावना से अभिप्रेरित है। जिस समय समसामयिक निर्गुण भक्त संसार की असारता का आख्यान कर रहे थे और कृष्ण भक्त कवि अपने आराध्य के मधुर रूप का आलम्बन ग्रहण कर जीवन और जगत् में व्याप्त नैराश्य को दूर करने का प्रयास कर रहे थे, उस समय गोस्वामी जी ने मर्यादा पुरूषोत्तम राम के शील, शक्ति और सौन्दर्य से मंडित संवलित अद्भुत रूप का गुणगान करते हुए लोकमंगल की साधनावस्था के पथ को प्रशस्त किया तुलसी का समन्वयवाद उनकी भक्ति-भावना में भी दिखाई देता है। रामचरितमानसमें उन्होंने राम और शिव दोनों को एक-दूसरे का भक्त अंकित करके वैष्णव एवं शैव सम्प्रदायों को एक ही सामान्य भावभूमि प्रदान की है।7

        गोस्वामी जी का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब धर्म, समाज, राजनीति, आदि सभी क्षेत्रों में विषमता, विभेद एवं वैमनस्य व्याप्त था। धार्मिक क्षेत्र में अनेक सम्प्रदाय भ्रष्ट हो चुके थे। मुस्लिम साम्राज्य का प्रभाव और विस्तार बढ़ता जा रहा था। नाथपंथी योगियों, एवं वाममार्गी सिद्धों, शैवों, शाक्तों, अद्वैतवादी वैष्णवों द्वैतवादी वैष्णवों तथा अनेक धार्मिक पंथों तथा संप्रदायों ने हिंदू समाज की धार्मिक जड़ें खोखली कर दी थीं। राम और कृष्ण के सगुण भक्तों में भी परस्पर काफी मतभेद उभर  रहे थे। मुस्लिम शासक तलवार के आतंक और बल से हिन्दूओं को मुस्लिम धर्म की गिरफ्त में ले रहे थे। अपनी रचनाओं द्वारा गोस्वामी तुलसीदास ने भारतीय जीवन और संस्कृति तथा उसके आदर्शों का मूर्त रूप प्रस्तुत किया है। संगीत और जीवन के भावों से युक्त होने के कारण तुलसी का रामचरितमानस और विनयपत्रिका अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ हैं। उनके काव्यों में आचार, धर्म, नीति, दर्शन, संस्कृति और काव्य अपने उत्कृष्ट रूप में प्राप्त होते हैं। इसी से गोस्वामी जी को लोकमानस का रससिद्ध कवि तथा भक्त माना जाता है। उनकी मूल चेतना समन्वयवादी है। उन्होंने निर्गुण, सगुण, शैव, वैष्णव, राम-भक्ति निवृति संबंधी दृष्टिकोणों को समन्वित करके जीवन का एक परिमार्जित रूप प्रस्तुत किया है।8

          मध्यमकालीन भक्ति काव्य में गोस्वामी तुलसीदासजी श्रेष्ठ स्थान रखते है। तत्कालीन युग में रामचतिमानस की रचना करके संपूर्ण मानवता और समाज का मार्गदर्शन किया है गोस्वामी जी मध्य-युग के ही नहीं वरन आधुनिक युग में भी भक्ति और आदर्शों के कारण जननायक के रूप में जाने जाते है। प्रसिद्ध इतिहासकार वेन्सेंट स्मिथ ने इन्हें अपने युग का सर्वश्रेष्ठ महापुरूष माना है और इन्हें अकबर से भी महान इस कारण स्वीकार किया है कि इन्होंने जो करोड़ों मानव-हृदयों पर शाश्वत विजय अपनी रचनाओं द्वारा प्राप्त की है उसके सामने सम्राट अकबर की राजकीय विजय नगण्य है।9

तुलसीदास जी के काव्य की सफलता का श्रेय उनकी लोक समन्वय शक्ति में है उन्हें लोक और शास्त्र दोनेां का बहुत व्यापक ज्ञान प्राप्त था। उनकी भाषा शैली एक प्रकार से समन्वय की विराट प्रक्रिया रही है। उस समय संस्कृत भाषा अपने चरम स्तर से  प्रकाण्ड पण्डितों को प्रभावित कर रही थी आमजन इससे अनभिज्ञ और अछूता था। तुलसीदासजी ने जन भाषा अवधि और ब्रज को अपने रचना कर्म का आधार बनाकर इसे भक्ति काव्य से जन-जन का कण्ठाहार बना दिया।

हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार उनकी भाषा में भी एक प्रकार के समन्वय की चेष्टा है। वह जितनी लौकिक है, उतनी ही शास्त्रीय। उसमें संस्कृत का मिश्रण बड़ी चतुरता से किया गया है .......... उसमें एक ऐसा लचीलापन है जो कम कवियों की भाषा में मिलता है ........जायसी की भाषा में एक ही प्रकार का सहज, सरल भाव है, चाहे वह राजा के मुॅंह से निकली हो या रानी के मुँह से।  किंतु तुलसीदास की भाषा विषयानुकूल तथा वक्ता और  बोदधा-स्रोता के अनुसार हो जाती है। परिचारिका की भाषा और रानी की भाषा में अंतर है, निषाद की भाषा जितनी ही सरल और अकृत्रिम है, वशिष्ठ की भाषा उतनी ही वैदगध्यमंडित और परिष्कृत तुलसीदास के पहले किसी हिंदी-कवि ने  इतनी मार्जित भाषा का प्रयोग नहीं किया था। काव्योपयोगी भाषा लिखने में तो वे कमाल करते है।10

      गोस्वामी जी की रचनाओं का मूल उद्देश्य लोकमंगल है जो समाज एवं परिवार में नैतिक और आदर्श मूल्यों की स्थापना से ही संभव है रामचरितमानसमहाकाव्य समाज और परिवार में अपने पात्रों के चरित्र  से इन आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना करता आया है। तुलसीदास जी ने एक तरफ आदर्शों  की स्थापना की है तो दूसरी तरफ भारतीय समाज की पतनोन्मुख दशा और उसके कारणों को भी रेखांकित कर उन्हें दूर करने का प्रयास भी किया है। कवितावली में समाज की भयावह दुरावस्था का चित्रण इस प्रकार किया है-

खेती न किसान को भिखारी को न भीख भलि।बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।।
जीविका विहिन लोग सीधमान सोच बस।कहैं एक-एकन सौं, कहॉं जाइ का करी।।11

          दरिद्रता से लोगों का हाल-बेहाल है। किसान को खेती नहीं है, भिखारी को भीख नहीं मिलती है। व्यापार सारा चैपट हो गया है। चाकरी ( रोजगार )  किसी को नहीं मिल रहा। सब और लोग जीविकाविहीन हो गये है, जीने के लाले पड़े हुए हैं। सब तरफ  से विपन्न लोग एक-दूसरे से पूछते हैं कि कहॉं जायें ?..क्या करें ?... तुलसीदास का जीवन घोर अभावों और विपन्नता में गुजरा था वे जन-जन की पीड़ा को स्वयं भुगत चुके थे इसीलिए उन्होंने अपनी रचना में लोक पीड़ा को सशक्त रूप से उपस्थित किया है इससे पहले राज  स्तुति और स्वस्तुति की रचनाएं ही ज्यादातर देखने को मिली हैं। तुलसीदास जी की रचनाओं की प्रासंगिता तत्कालीन समय से  लेकर आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। वे संत, कवि, महात्मा ही नहीं वरन भविष्य स्राष्टा भी थे। आज भी समाज इसी भयावह दौर से गुजरता हुआ दिखाई दे रहा है। खेती न किसान को......................कहॉं जाइ का करी।

गोस्वामी जी स्वयं ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के उपरांत भी जात-पात, उँच-नीच के भीषण शोषण से गुजरते है। जन्म लेते ही माता-पिता द्वारा परित्याग, समाज के सभी वर्गों से भीख मांगकर अपना जीवन यापन करना, समाज के सब वर्गों को समान महत्व देने के कारण उच्चवर्ग के ब्राह्मण पंडितों द्वारा प्रताडित किया जाना तुलसीदास जी को वर्णाश्रम धर्म के खिलाफ खड़ा कर देता है जो उन्हें आज भी प्रासंगिक सिद्ध करता है।

वर्णाश्रम की त्रुटियों के खिलाफ तुलसीदास जी के विचारों को बच्चनसिंह ने इस प्रकार अंकित किया है:- जिस वर्णलोक की स्थापना के लिए तुलसीदास विकल थे, वे स्वयं उसके शिकार हो जाते हैं। संभवतः पंडित वर्ग उनके ही वर्ण पर उँगली उठाने लगा था इसीलिए क्षुब्ध होकर उन्हें कहना पड़ा कि कोई मुझे कुछ भी कहे, मुझे किसी की बेटी से बेटा ब्याह कर उसकी जात नहीं बिगाड़नी हैं .................... न  मेरी कोई जाति-पॉंति है और न किसी की जाति-पॉंति से कोई मतलब है। विवशता-भरी वाणी में वे कहते हैं: -

मॉंग के खैबों मसीत के सोइबो।
  लैबों को एक न दैबों को दोऊ।।

        वर्णाश्रम धर्म के इतने बड़े समर्थक के वर्ण के प्रति संदेह कितनी बड़ी विडंबना है।12 तुलसीदासजी ने अपनी रचनाओं में अपने समय की परिस्थितियों का यथातथ्य वर्णन किया है। वर्णाश्रम धर्म की वकालत के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों, ऊंची-नीची विषम परिस्थितियों, मानवीय संवेदनाओं, बेरोजगारी, अकाल, दारिद्रय, राज व्यवस्था के भ्रष्ट आचरण आदि विषयों से उनकी तत्कालीन युगबोध और उस काल के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में सशक्त रूप से पहचान स्थापित करती है।
संत तुलसीदास जी की प्रतिभा महान और अंतदृष्टि गहरी है। तुलसी की भक्ति पद्धति में नवधा भक्ति का पूर्ण स्वरूप दृष्टिगोचर होता है नवधा भक्ति का अंतर्गत श्रवण, कीर्तन, पादसेवन, अर्चना, वंदना, दास्य, सख्य, नाम स्मरण और आत्म निवेदन आते हैं। तुलसी ने राम नाम की महिमा का प्रतिपादन स्थान स्थान पर किया है। वे कहते है: 

राम जपु राम जपु राम जपु बावरे।
घोर भव नीर निधि नाम निज नाव रे।।

        इनकी भक्ति साधना विशेष रूप से आत्मनिवेदन और दास्य भाव की कही जाती है। विनयपत्रिकामें गोस्वामी जी की इस आत्म निवेदन और दास्य भाव की झलक इस प्रकार से है:-
 
तू दयालू दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी। हौं अनाथ पातकी, तू पाप-पुंजहारी।।
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कोन मो सो। ब्रह्म तू है जीव हौं, तू ठाकुर हौं चेरों।।

गोस्वामी जी राम के शील, शक्ति और सौंदर्य पर मुग्ध है पर अपने और राम के बीच सेवक और सेव्य भाव को स्वीकारते है। तुलसी की भक्ति में दैन्य की प्रधानता है इस दैन्य के कारण वे अपने इष्टदेव को महान एवं सर्वगुण, सम्पन्न तथा स्वयं को तुच्छ, छोटा, खोटा और पापी मानते हैं। आत्म निवेदन की इस प्रवृत्ति के कारण वे कहते है कि: -

राम से बड़ो है कौन। मोसो कोन छोटो राम सौ खरो है कौन मोसो कौन खोटो ??

लोक कल्याण की दृष्टि से तुलसीदास जी का काव्य अत्यन्त उपादेय है उन्होंने आदर्श की नींव पर भविष्य के समाज की उज्जवल आधारशीला निर्मित की है। नवधा भक्ति से साहित्य को जन-जन तक पहुॅंचा दिया है। सेवक सेव्य भाव से समाज का हर वर्ग ईश्वर भक्ति से स्वानुभूति प्राप्त कर आदर्शों  को ग्रहण करता रहा है। गोस्वामी जी को लोक और शास्त्र के व्यापक ज्ञान की अनुभूति थी उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। जाति, धर्म, भाषा, सामाज, संस्कृति और भक्ति के समन्वय से रामचरितमानस, विनयपत्रिका और अन्य ग्रन्थों के माध्यम से आज भी समाज के सभी वर्गों का  चहुँमुखी मार्गदर्शन कर रहे है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोस्वामी तुलसीदास जी का महत्व बताने के लिए अनेक विद्धानों की उक्तियों का संयोजन इस प्रकार किया है नाभादास ने इन्हें कलिकाल का वाल्मीकि’  कहा था।  स्मिथ ने इन्हें मुगलकाल का सबसे महान व्यक्तिमाना था, ग्रियर्सन ने इन्हें बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोक-नायककहा था, और यह तो बहुत बार कहा है कि उनकी रामायण उत्तर-भारत की बाइबिल है।14

           इन सभी उक्तियों का तत्पर्य यही है कि तुलसीदास असाधारण शक्तिशाली कवि, लोकनायक और महात्मा थे। गोस्वामी तुलसीदास जी साहित्यिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से बेजोड़ है। इसी कारण साहित्य, संस्कृति, भाषा, आदर्श, भक्ति आदि के संगम के कारण लोक नायक तुलसीदासमध्यकाल से लेकर आज आधुनिक काल में भी घर-घर में अपना सर्वोच्च स्थान बनाये हुए है। तुलसीदास जी की रचनाऍं जन-जन का कण्ठाहार बनकर सुख, शांति, भक्ति, श्रद्धा, संस्कृति और आदर्शों की अनमोल धरोहर के रूप में मानवीयता को अपने अमृत से अभिसिंचित कर पल्लवित और पोषित कर रही है।

संदर्भ:
1    हिन्दी साहित्यः  उद्भव और विकास, हजारी प्रसाद द्विवेदी  पृष्ठ संख्या 131  
2    हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, डॉं अमरनाथ पृष्ठ 318
3    हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारी प्रसाद द्विवेदी पृष्ठ संख्या 98
4    हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृष्ठ 216
5    हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी पृष्ठ 49
6    हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पुष्ठ 147 
7    हिन्दी साहित्य  का इतिहास, संपादक डॉं. नगेन्द्र पुष्ठ 189 
8    हिन्दी साहित्य का परिचयात्मक इतिहास डॉं. भागीरथ मिश्र पुष्ठ 68 
9    हिन्दी साहित्य का परिचयात्मक इतिहास डॉं. भागीरथ मिश्र पुष्ठ 66  
10   हिन्दी साहित्यः  उद्भव और विकास, हजारी प्रसाद द्धिवेदी  पृष्ठ संख्या 134 
11   भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य, शिवकुमार मिश्र, पृष्ठ संख्या 209
12   हिन्दी साहित्य का दूसार इतिहास, बच्चन सिंह, पृष्ठ संख्या 147
13   साहित्यिक निबंध, डॉं रेणु वर्मा, पृष्ठ संख्या 71
14   हिन्दी साहित्यः उद्भव और विकास, हजारी प्रसाद द्विवेदी  पृष्ठ संख्या 125 

(डॉ. हीरा मीणा,दिल्ली विश्वविद्यालय)

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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