केवट की भक्ति भावना
२१वीं शताब्दीं में भूमण्डलीकरण के कारण हम बाजारबाद की ओर अग्रसर हो रहे हैं। अर्थ की प्रधानता बढ गई है। वैश्विक क्षितिज छोटा सा लगने लगा है। प्रभुत्व की इच्छा करने वाले आपसे में टकरा रहे हैं। हम दिनों-दिन स्व की समृद्धी के सपने संजोए मस्तिष्क से आन्दोलित होते जा रहे हैं। अतः हृदय तत्व कमजोर होते जा रहा है। फलस्वरूप जीवों में श्रेष्ठ मानव मनुष्यता की परिभाषा से वंचित हो बर्बरता की ओर अग्रसर हो चला है। फलतः शान्ति का उजार होते जा रहा है।
आज जीवन के इस भगदर में प्रभुत्वसम्पन्न
समाज में, स्व के बंधन में बंधे समाज के लिए धार्मिक साहित्यों के अन्तर्गत वशेषतः तुलसी दास द्वारा रचित रामचरित मानस का अध्ययन, मनन और विश्लेषण अति आवश्यक है। क्योंकि तुलसी दास नें मानस
कीनीव
‘सुरसरी सम सबकर हित होई’ के आधार पर रखा है।मानस में वर्णित ‘राम-केवट संवाद’ सम्पूर्ण मानव जीवन के उत्कर्ष की अनकही दास्तां है। यहाँ तुलसी दास ने केवट के जरिए मनुष्यता की परिभाषा को उच्चतम सोपान पर पहुँचाया है। अतः अगामी पंक्तियों में ‘राम-केवट संवाद’ पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।
राम-लक्ष्मण, सीता के वनवास के उपरान्त मानव
रूपी राम के समक्ष एक विकट समस्या आन खड़ी हुई है। उन्हें नदी पार करनी है। वे दूर बैठे केवट को नाव लाने को कह रहे हैं। लेकन केवट उनकी बातें अनसुनी कर, टस-से-मस नहीं होता। कहता है मैं तुम्हारे बातों में फंसने वाला नहीं हूँ। मैं तुम्हें खूब पहचानता हूँ। तुम्हारी मरम को,तुम्हारी शक्ति को ज्ञान है मुझे। मैं तुम्हे अपनी नाव पर तबतक चढने नहीं दूँगा जबतक कि तुम अपने चरण को पखारने (धोने) की अनुमति नहीं दे देते।
मांगी नाव ना केवट आना। कहइ तुम्हार मरम मैं जाना।।
चरनकमलरजकहुँसबुकहई।मानषकरनिमुरिकछुअहई॥
आखिर क्यों केवट राम के चरणों को धोने के लिए उत्तावला है?इसके पीछे क्या रहस्य है?उसके कथन में ऐसे क्या गूढ तत्व है, जिन्हें श्रीराम समझ कर मुस्करा उठते हैं।
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥
केवट द्वारा
कहे गए इन गूढ तथ्यों को वहां उपस्थित कोई भी समझ नहीं पाता।लेकिन राम मंद-मंद मुस्कराते
हुए उसकी बातों को खूब समझ रहे हैं।असुरों के संहार के निमित्त विष्णु मानव रूप धारण
कर धरती परअवतरित हुए हैं।वही परम पिता परमेश्वरआज केवट के समक्ष साक्षात खड़े हैं।इसअवसर
को केवट चुकना नहीं चाहता।आज उसके जन्म- जन्मान्तर का पूण्य फलित होने वला है।
वह अपने भीतर के सारे पाशविकता से मुक्त हो जाना
चाहता है। यही कारण है कि वह श्रीराम के चरणामृत का पान कर, इस भवसागर से मुक्ति
पाना चाहता है। वह करे तो क्या करे। क्योंकि मानवरूपी राम लीला रत हैं और केवट जो कि
अपने जन्म-जन्मान्तर के पुनित कर्मों के फलस्वरूप प्रभू को पहचान चुका
है तो वह भी लीला में पूर्ण सहयोगी बनता है। मानों वह कहता है-‘हे राम! तुम तो वामन अवतार में पूरे जगत को तीन पग में ही नाप लिए थे। आज छोटी सी नदी नहीं पार कर सकते। धन्य हैं बाली जिसके तुम दरबरी बने और धन्य हूँ मैं जिसके समक्ष स्वयं प्रभू राम मेरे तुच्छ जीवन को सार्थक बनाने हेतु साक्षात खड़े हैं।‘इसलिए केवटअप्रत्यक्ष
रूप से राम
के समक्षअपनी कामना को रखताहै। राम-केवट संवाद में भक्त और भगवान के मध्य हुए संवाद भक्ति का उत्कर्ष उदाहरण है।केवट की भक्ति
की पराकाष्ठा है।
इस
प्रसंग में भक्त और भगवान की लीला (अप्रत्क्ष संवाद) अकथनीय है। राम एक राजपूत्र
हैं औरअदना सा केवट हठ कर बैठा है।देखिए उसकी साहस। उसे राजदण्ड का भी भय नहीं है।
लेकिन भक्ति में सब कुछ जायज है। भगवानअपने भक्त के लिए यदि दरबारी बन सकते हैं तो
केवट ने तो एक छोटी सी मांग की है। उसकी
कामना तो पुरी होनी ही चाहिए।
वह बड़ी चालाकी से राम के समक्ष अपनी कामना को प्रस्तुत कर देता है। वह कहता है कि हे राम ! मैंने सुना है कि तुम्हारे चरणों में एक ऐसी (मुरि) औषधि है जो किसी चीज को स्पर्श करत दे तो वह मानव
रूप
में परिवर्तित हो जाता है। इसका स्पष्ट उदाहरण वह पत्थर है जो आपके चरणों के स्पर्श मात्र से नारी के रूप में परिवर्तित हो गया था, तो मेरी नाव की क्या बिसात।देखते ही देखते
मेरी
यह नाव स्त्री बन गई तो मेरा जीवन यापन कैसे होगा।
छुअत शिला
भई नारी सुहाई। पाहन तें न काठ कठिना
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारु। नहिं जानउँ कछु अउर कबारु॥
इसलिए यदि आप पार उतरना ही चाहते हैं तो मुझे अपना पांव पखारने की अनुमति दे दीजिए ताकि आपके पांव में नीहित वह औषधि धूल जाए और मेरी जीविका का साधन बना रहे।
कैसी विडम्बना है, दुनिया को
भवसागर
पार करने वाले राम एक छोटी सी नदी पार करने हेतु गुहार कर रहे हैं- मुझे पार लगाओ, मुझे पार लगाओ। भक्त और भगवान की लीला अपरमपार है। जो भगवान की क्षमता को समझ लिया वह केवट की भाँति अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बना लिया और जिसने नहीं समझा वह मानव होकर भी दानव की प्रवृत्ति से ओत-प्रोत हो अपने बहुमूल्य मानव
जीवन को नरकमय किए हुए है।
केवट
के जन्म-जन्मान्तर की तपस्या पूर्ण हो चुकि है। उसके जीवन का वह क्षण आ चुका है जहाँ वह मनुष्यता की उच्चतम शिखर को प्राप्त करेगा। वह इस अनमोल क्षण को कैसे चुक सकता है। भाग्य उसके दरवाजे पर स्वयं चल कर आया है। एक-एक क्षण को वह भोग लेना चाहता है। केवट राम के चरणामृत का पान करअपने जीवन के सम्पूर्ण पापों से मुक्ति पा लेना चाहता है। आज उसका मानव जीवन सार्थक होगा। इसलिए वह अप्रत्यक्ष राम से कहता है नाव तो एक बहाना है। मैं तो आपके चरणामृत का पान कर मनुष्यता को वरण करना चाहता हूँ। ताकि मेरा यह जीवन सफल हो सके। हे देव! यह छोटी सी मेरी कामना पूर्ण कर दीजिए। हे नाथ!
मैं
राजा दशरथ की शपथ लेता हूँ कि नदी पार करने के उपरान्तआप से कुछ उतराई (मेहनतनामा) भी नहीं लूँगा। भले ही लक्ष्मण की वाण से मुझे अपना जीवन ही क्यों ना खोना पड़े। लेकिन पांव पखाड़े बगैर मैं आप को पार उतारने वाला नहीं हूँ। सत्य ही है यदि पारस के समक्ष होकर भी लोहा स्वर्ण नहीं बन पाया तो वह लोहे कि बदकिस्मती ही कही जाएगी। केवट यहठान लिया है कि या तो ह प्रभू के समक्ष अपने जीवन का त्याग कर इस सांसारिक बंधन से मूक्त हो जाएगा या उनके चरणामृत का पान कर अपनी राक्षसी प्रवृत्तयों से मुक्त हो पूर्ण मानव बन जाएगा।
भगवान भक्त की कामना को खूब समझ रहे हैं। लेकिन अवतारी राम क्या करें उन्हें लीला तो करनी होगी। इसलिए कृपासिन्धु राम मुस्कुराते हुए कहते है- ‘सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥’ लेकिन तुम्हें जो करना है शीघ्रातिशीघ्र करो क्योंकि मेरे पास समय नहीं है। हमें अतिशीघ्र यहाँ से आगे कि यात्रा प्रारम्भ करनी है।
बेगि आनु जल पाय पखारु। होत बिलंबु उतारहि पारु॥
इस पंक्ति का दर्शन करते ही मन में एक प्रश्न घर कर जाता है। राम को किस बात के लिए बिलंब हो रही है। उन्हें वनवास मिला है। वह भी चौदह वर्ष का। कहीं भी काट सकते हैं। फिर इतनी जल्दी क्यों हैँ। जल्दी है क्योंकि राम के पास मात्र चौदह वर्ष की अवधि है। इसी अवधि में उन्हें भारत को एक सूत्र में पिड़ोते हुए, सुदूर लंका तक की यात्रा पुरी करनी है और आर्यावर्त से रावण जैसे अनेकों राक्षसी प्रवृत्त्यों का संहार करना है। राम चाहते तो एकक्षण में ही रावण का संहार कर सकते थे। लेकिन बाहरी आततायियों का संहार करने से पहले आंतरिक कलह पर विजय प्राप्त करना जरुरी था। क्योंकि आन्तरिक कलह के रहते यदि बाह्य कलह पर विजय प्राप्त कर भी लें ते वह विजय चिरस्थाई नहीं हो सकती। यही कारण है कि अयोध्या से पद यात्रा
प्रारम्भ
करते हुए लंका तक की यात्रा करते हैं। पद यात्र का एक ही उदेश्य था “अखण्ड भारत” का निर्माण। तभी रावण वध की सार्थकता सिदध होती और सिद्ध होता माता कैकेयी द्वारा जनमानस के हित हेतु किया गया त्याग। यह सत्य कि यदि माता कैकेयी गरलपान न करती तो आर्यावर्त से आततायियों का संहार संभव न होता। राम को मंत्र बनाने वाली माता कैकेयी है। विदुषी कैकेयी अपनी प्रखर ज्ञान रूपी गणना से यह जान चुकि थी कि रावण-वध कोइ खेल नहीं है। इसके लिए पुरी तैयारी कि जरूरत है। वहभी जनती थी कि यदि राम को राज्य रूपी जंजीर से बांध दिया गया तो असुरों के प्रकोप से भारतीय संस्कृति
कीबहुत क्षति होगी। यही कारणहै कि माता कैकेयी ने सामाजिक लांछना को स्वीकार करते हुए राम के लिए वनवास का वरदान मांगा। वरदान मांगा भी तो बड़े ही सुनियोजित ढंग से, रावण की गतिविधियों का आकलन कर।
सुनहु प्राण पति भात जिका। देहु एक वर भरतहिं टिका॥
दुसर वर मांगहिँ कर जोरी। पुरहुँ नाथ मनोरथ मोरी॥
तापस वेश विशेष उदासी। चौदह बरस राम वनवासी॥
यही कारण है कि राम से केवट शीघ्रातिशीघ्र कार्य सम्पन्न करने को कहते हैं। राम का आदेश पाते हीं आनन्दातिरेक केवट कठवत में पानी भर लाता है और भगवान के चरण कमल को पखारने लगता है। जो सुख देवताओं को भी दुर्लभ है। वह केवट सहज ही भोग रहा है। नदी पार करने के उपरान्त जब राम उसे उतराई देते हैं तो केवट आकुल- व्याकुल हो प्रभू के चरणों से लिपट जाता है। वह कहता है- है नाथ ! आज तो मुझे वह मिल गया है जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरे जन्म-जन्मान्तर के दुख, दोष दूर हो गए। आज मेरा यह मनुष्य जीवन सार्थक हो गया है। बारम्बार राम-लक्ष्मण-सीता के कहने के बावजूद केवट उतराई नहीं लेता। जाते-जाते भी उसकी एक और अभिलाषा पुनः जागृत हो उठती है। बड़े चतुराइ से राम से कहता है- ‘आज विधाता ने मेरे कर्मों का प्रतिफल आपके रूप में साक्षात प्रकट कर दिया है। अभी मुझे कुछ नहीं चाहिए। हां, यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो जब आप वनवास पुरी कर वापस आएंगे तो दे दीजिएगा।’
कैसी
लालसा है केवट की पुनः प्रभू के दर्शन की अभिलाषा। बांध लिया है राम को केवट ने। वे केवट के कर्जदार हैं। उन्हें पुनः केवट के पास आना ही होगा। भगवान को भक्त की इच्छा पुरी करनी ही होगी।
(डॉ.पुष्पा सिहं, एसिटेन्ट प्रोफेसर, मार्घेरीटामहाविद्यालय, असम)
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
बहुत ही बढ़िया व्याख्या । कैकयी जिन्हें हम बचपन से बुरी समझते रहे आज अच्छी लगने लगी । मेरा हमेशा से मानना रहा है कि कुछ गलत या सही नहीं होता सब हमारे तर्क पर निर्भर है । आपने इसे सही साबित किया ।
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