सामाजिक
न्याय और राष्ट्रवाद
(1)
“यहाँ समानता सिर्फ समान लोगों के बीच है। असमान लोगों को
समान की बराबरी में खड़ा करने का मतलब है असमानता को बनाए रखना” – मण्डल कमीशन
संविधान
निर्माताओं ने जिस राष्ट्र की संकल्पना की थी, उस राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में मुख्य बात यह समाहित थी कि देश में
लंबे अरसे तक जिन वर्गों को हाशिये पर ढकेला गया था, उनका उत्थान हो, उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जाए। जो जातियाँ या समाज हजारों सालों से
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक
रूप से पिछड़ गई हैं उनकी भागीदारी बढ़ाई जाए। उनके प्रतिनिधित्व की समुचित व्यवस्था
की जाए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सबसे ज्यादा धार्मिक और सामंती शोषण की मार
इन्हें ही झेलनी पड़ी हैं और आज भी बदस्तूर जारी हैं। मैं इस शोषण के विस्तार में
नहीं जाना चाहता हूँ, जिसको अमूमन लोग जानते ही हैं।
यहाँ चर्चा वर्तमान व्यवस्था की नीतियों को लेकर
है कि कैसे सामाजिक न्याय की हत्या की जा रही है। लाखों आदिवासियों के लिए विस्थापन हो रहा हो यानी उन्हें अपने जल, जंगल, जमीन से खदेड़ने की साजिश चल रही हो। आदिवासी, दलित
और पिछड़ों के आरक्षण को निष्प्रभावी और कमजोर बनाया जा रहा हो। सवाल है कि वे कौन लोग बच जाते हैं जिनके लिए व्यवस्था दिन रात
मेहनत कर रही है। आज ‘सूचना का अधिकार’
कानून हमारे पास है। आप किसी भी संस्थान, विभाग या
विश्वविद्यालय के कर्मचारियों की कैटेगरी और उनकी संख्या का अनुपात जान सकते हैं।
इधर बीच कई संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले प्रोफेसरों की कैटेगरीवाइज़ सूचियाँ सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत मिली हैं। जिसमें 80 से 90 प्रतिशत तक शिक्षक सामान्य वर्ग के यानी ऊंची जाति के हैं। आजतक चैनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के चालीस केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 1 अप्रैल 2018 तक, 1125 प्रोफेसर में 39 दलित और 6 आदिवासी प्रोफेसर हैं जबकि ओबीसी का एक भी प्रोफेसर नहीं है। ये आंकड़ें हमें हैरान कर देती हैं कि इतना ही नहीं 2620 एसोशिएट प्रोफेसर में दलित 130, आदिवासी 34 जबकि ओबीसी इसमें भी नहीं हैं। इसी तरह यदि असिस्टेंट प्रोफेसर की आंकड़ों को देखें तो 7741 असिस्टेंट प्रोफेसर में 991 दलित,423 आदिवासी और मात्र 1113 ओबीसी हैं जबकि सवर्ण असिस्टेंट प्रोफेसर 5130 हैं। राज्य के विश्वविद्यालयों में क्या आंकड़ा होगी, अब आप अनुमान लगा सकते हैं। अब सवाल उठता है कि आजादी के इतने लंबे वक्त के बाद भी एक वर्ग और कुछ जातियों का एकाधिकार और वर्चस्व क्यों नहीं टूट पाया? अभी हम इसी चुनौती और शिकायत का सामना कर रहे थे कि उसके साथ ही विश्वविद्यालयों में बैकलॉग की भर्तियों को पूरा करने का दबाव बनाया जा रहा था तभी उससे भी बड़ा और खतरनाक निर्णय हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से आ गया। जिसको तकनीकी भाषा में 13 पॉइंट रोस्टर कहा जा रहा है अर्थात पहले जो शिक्षक भर्तियाँ विश्वविद्यालय में विश्वविद्यालय को इकाई मानकर की जाती थी अब उसके लिए विभाग को इकाई मानकर पूरी की जाएंगी।
उदाहरण के लिए मान लीजिये किसी विश्वविद्यालय के
इतिहास विभाग में यदि 3 पोस्ट प्रोफेसर की आती हैं तो वहाँ कोई आरक्षण नहीं मिलेगा
क्योंकि शुरू की 3 पोस्ट सामान्य( unreserved)
हैं, यदि 4 पोस्ट रहती हैं तो चौथा ओबीसी को
मिलेगा। इसी तरह 5 वां और छठवाँ फिर सामान्य को मिलेंगी उसके बाद 7 वां पोस्ट यदि आएगी तो एससी वर्ग को मिलेगी। 8 वां ओबीसी को उसके बाद 9, 10, 11 फिर सामान्य सीट रहेंगी, 12 वां ओबीसी, 13 वां फिर सामान्य सीट उसके बाद यदि
14 वां सीट होगी तब जाकर एस॰टी॰ यानी किसी आदिवासी को मिलेगी। इसको वास्तविक धरातल
पर देखा जाये तो किसी भी विभाग में दो या तीन पोस्ट से ज्यादा की भर्तियाँ नहीं
आती हैं। जबकि पहले किसी विश्वविद्यालय को आधार बनाकर शिक्षक भर्तियाँ की जाती थीं,
जिसे 200 पॉइंट रोस्टर कहा जाता था उसमें दलित, पिछड़ा और
आदिवासी का पूरा आरक्षण 49॰5 प्रतिशत पूरा मिल जाता था। यानी किसी विश्वविद्यालय
में पूरे विभाग को मिलाकर 50 सीटें आती थीं तो उसका आधा लगभग आरक्षित रहती थीं। लेकिन
इस नए रोस्टर के हिसाब से आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग कोई व्यक्ति किसी विश्वविद्यालय में पढ़ तो सकता है लेकिन वहाँ
प्रोफेसर नहीं बन सकता। इतना खतरनाक प्रावधान तो ब्रिटिश राज में भी नहीं लागू हुआ
होगा जितना की इस स्वतंत्र भारत में लागू हुआ है। कल्पना कीजिये कि हम
किस तरह का भारत बनाना चाहते हैं। यदि दबे–कुचले वर्ग से उनका अधिकार छिन लिया
जाएगा तो एक सशक्त राष्ट्र के निर्माण में वे क्या योगदान देंगे? वे इस देश के एक मामूली अधिकार विहीन और प्रतिनिधित्व विहीन नागरिक मात्र
बनकर रह जाएंगे। इस मुद्दे को लेकर पिछले दिनों ‘संसद से सड़क’ तक हंगामा भी हुआ लेकिन उसका कोई निष्कर्ष अभी तक नहीं निकला। सरकार पर
इसके लिए अध्यादेश लाने का दबाव भी बनाया गया लेकिन देखो क्या होता है?
कितनी
अजीब विडम्बना है कि जिस उच्च वर्ग का नौकरियों पर 80 से 90 प्रतिशत तक का
एकाधिकार है उसके लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का
प्रावधान बिना किसी आयोग के सिफ़ारिश के कर दिया लेकिन जिसकी भागीदारी अभी सुनिश्चित
नहीं हो पा रही थी, उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करने की बजाय और उसे घटाने के षड्यंत्र
होने लगा। यानी एक विरोधाभाषी भारत का निर्माण हो रहा है। सम्पन्न को और सम्पन्न
किया जा रहा है, कमजोर को और कमजोर किया
जा रहा है। गैर बराबरी को मिटाने के बजाय उस खाई को और चौड़ा व गहरा करने के उपक्रम
हो रहे हैं।
सबसे
दिलचस्प बात तो यह है कि जब से 13 पॉइंट रोस्टर लागू हुआ है। देश के अलग –अलग कई
विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर की भर्तियों की बाढ़ आ गयी है। इससे भी अनुमान लगा
सकते हैं कि जो भर्तियाँ कई सालों से नहीं निकल रही थीं वह अचानक क्यों आने लगीं। इस
पर्दे के पीछे की बात को समझना ही असली भारत को समझना है। इधर कुछ महीने के भीतर
आई हुई भर्तियों का हम विवरण देना चाहेंगे कि आप खुद देख लीजिये की उसमें आरक्षण
व्यवस्था की किस तरह धज्जियां उड़ायी जा रही हैं।
विश्वविद्यालय
1.इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति
विश्वविद्यालय –
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
52 51 1 0 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
52 51 1 0 0
2.ABवाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय भोपाल -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
18 18 0 0 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
18 18 0 0 0
3.केंद्रीय विश्वविद्यालय हरियाणा
-
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
80 80 0 0 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
80 80 0 0 0
4.केंद्रीय विश्वविद्यालय तमिलनाडु -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
65 63 2 0 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
65 63 2 0 0
5.केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
33 33 0 0 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
33 33 0 0 0
6.काशी हिन्दू विश्वविद्यालय -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
99 79 13 7 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
99 79 13 7 0
7.सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
60 52 5 3 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
60 52 5 3 0
8.इलाहाबाद विश्वविद्यालय -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
163 126 30 7 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
163 126 30 7 0
9.CSJMविश्वविद्यालय कानपुर -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
15 15 0 0 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
15 15 0 0 0
10. केंद्रीय
विश्वविद्यालय झारखंड -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
63 58 4 1 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
63 58 4 1 0
11.केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
58 51 2 0 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
58 51 2 0 0
12.महात्मा गांधी विद्यापीठ -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
63 58 4 1 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
63 58 4 1 0
13.वीर बहादुर सिंह पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय-
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
28 24 4 0 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
28 24 4 0 0
14.जननायक चंद्रशेखर विश्वविद्यालय -
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
60 50 10 0 0
कुल पद
857 751. 75 19 0
कुल पद, जनरल, ओबीसी, एससी, एसटी
60 50 10 0 0
कुल पद
857 751. 75 19 0
नोट –
इसमें 5 सीट पंजाब विश्वविद्यालय में पीडबल्यूडी की हैं।
(स्रोत् - सभी आंकड़ें विज्ञापन एवं समाचार पत्र से ली गई हैं)
अब इस आंकड़ें को देखकर कोई भी सामाजिक
न्याय पसंद व्यक्ति चुप कैसे बैठ सकता है। भारत के 14 विश्वविद्यालयों के 857
प्रोफेसर की सीट में ओबीसी को मात्र 75 और एससी को 19 सीट और आदिवासी बिलकुल शून्य
हैं। आजाद भारत में इतना बड़ा धोखा वंचित समुदाय के साथ शायद ही कभी हुआ हो, जो वर्तमान में हो रहा है। इसलिए वंचित समुदाय को इस पर ठहरकर सोचने
और अपने अधिकारों की लड़ाई तेज करने की जरूरत है। यह रोस्टर सवर्णवादी मानसिकता की
उपज है इसलिए इसे वापस लेना ही होगा।
(2)
‘अपनी माटी’ पत्रिका का यह 28-29 वां संयुक्तांक इस
बार थोड़ा देर से निकल रहा है। इसके लिए हमें खेद है। पत्रिका की सामग्री में हर
बार की तरह विविधताओं का ख्याल रखा गया है। हमें उम्मीद है अंक अच्छा लगेगा।
अभी हाल ही में हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष
नामवर सिंह का देहांत हो गया उन्हें ‘अपनी माटी’ पत्रिका की तरफ से श्रद्धांजलि। हमारे देश के उन ज़ाबाज शहीदों को सलाम जो पुलवामा हमले में हमारे बीच नहीं रहे।शहीदों के परिवार जन के दुःख में हम सभी साथ है।शहीदों को हार्दिक नमन।
जितेंद्र
यादव
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
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