हिन्दी भाषा का विकास : मिथक
एवं यथार्थ - गोपाल कुमार
भारतीय भाषाओं में भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी का महत्व सर्वविदित है। हिन्दी भारत-सरकार की राजभाषा ही नहीं, वरन् भारत की सर्वप्रमुख अघोषित सम्पर्क भाषा भी है। उत्तरी भारत में हिन्दी की व्यापकता के बारे में ‘भाषा-सर्वेक्षण’ की भूमिका में जॉर्ज ग्रियर्सन लिखते हैं – “इस प्रकार यह कहा जाता है और सामान्य रूप से लोगों का विश्वास भी यही है कि गंगा के समस्त काँठे में, बंगाल और पंजाब के बीच, अपनी अनेक स्थानीय बोलियों सहित, केवल एकमात्र प्रचलित भाषा हिन्दी ही है। एक दृष्टि से यह ठीक है और इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सर्वत्र हिंदी अथवा हिंदोस्तानी शासन की भाषा है और ग्रामीण स्कूलों में यही शिक्षा का माध्यम भी है।... इस क्षेत्र के लोग द्विभाषा-भाषी हैं अतएव व्यवहार में उन्हें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती और ये लोग नहीं चाहते कि शासन-कार्य के लिए अनेक भाषाएँ स्वीकार कर कठिनाई उत्पन्न की जाय।...”[1] जॉर्ज ग्रियर्सन स्पष्ट रूप से पंजाब से लेकर बंगाल तक के बीच की गंगा-घाटी में हिन्दी और उसकी बोलियों का प्रसार बतलाते हैं। प्रायः विद्वानों ने हिन्दी की अठारह बोलियों का जिक्र किया है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में – “हिंदी क्षेत्र की 18 बोलियाँ (पश्चिमी हिंदी के अंतर्गत – खड़ी बोली, बाँगरू, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली; पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी; बिहारी में मैथिली, मगही, भोजपुरी; राजस्थानी में मेवाती-अहीरवाटी, मालवी, जयपुरी-हड़ौती, मारवाड़ी-मेवाड़ी; तथा पहाड़ी में पश्चिमी पहाड़ी, मध्य पहाड़ी, पूर्वी पहाड़ी = 18) व्युत्पत्ति की दृष्टि से अलग-अलग अपभ्रंशों से विकसित हुई हैं।”[2] इन पाँच उपभाषाओं अथवा अठारह बोलियों के अतिरिक्त पंजाबी को भी कई विद्वानों ने हिन्दी की परिधि में समेटने की चेष्टा की है। धीरेन्द्र वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘ग्रामीण हिंदी’ में हिन्दी की छठी उपभाषा के रूप में ‘पंजाबी’ को भी शामिल किया है। ‘ग्रामीण हिंदी’ की इस विषय-सूची में हिन्दी की उपभाषाओं एवं बोलियों की सूची इस प्रकार दी गई है – “क. पश्चिमी उपभाषा – 1. खड़ी बोली, 2. बाँगरू, 3. ब्रजभाषा, 4. कन्नौजी, 5. बुंदेली, ख. पूर्वी उपभाषा – 6. अवधी, 7. बघेली, 8. छत्तीसगढ़ी, ग. बिहारी उपभाषा – 9. भोजपुरी, 10. मगही, 11. मैथिली, घ. राजस्थानी उपभाषा – 12. मारवाड़ी, 13. जयपुरी, 14. मालवी, ङ. पहाड़ी उपभाषा – 15. कुमायूँनी, 16. गढ़वाली, च. पंजाबी उपभाषा – 17. पंजाबी”[3] इस बात की भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पंजाबी की लिपि अलग होने के कारण उसे कुछ विद्वान अलग भाषा के रूप में मान्यता देते आ रहे हों लेकिन अधिकांश विद्वान हिंदी को बोलियों के उसी वर्गीकरण को मानते हैं जैसा रामस्वरूप चतुर्वेदी ने किया है।
हिन्दी को पाँच उपभाषाओं का
समुच्चय माना जाता है जिसके अंतर्गत कुल 18 बोलियों की गिनती की जाती है। अधिकांश विद्वानों के मान्यतानुसार, इन बोलियों की उत्पत्ति विभिन्न प्राकृत भाषाओं
से मानी गई है और इन प्राकृतों का मूल संस्कृत को माना गया है। प्रकारान्तर से
हिन्दी की उत्पत्ति संस्कृत से ही मानी गई है।
किशोरीदास वाजपेयी, रामविलास शर्मा, डॉ. धर्मवीर आदि का जोर इसी बात की ओर अधिक है कि प्राचीन
काल में संस्कृत के समानान्तर बहुत-सी जनभाषाएँ एवं जनबोलियाँ भी मौजूद थीं जिनमें
आज की भारतीय भाषाओं की ‘आत्मा’ बसी हुई है। इन्हीं भारतीय भाषाओं में हिन्दी
भी शामिल है जिनका विकास संस्कृत की समकालीन जनभाषाओं से हुआ है। यह एतिहासिक तथ्य
है कि भारत पर हजारों वर्षों से बाहरी आक्रमण होते रहे और बाहर के लोग यहाँ की
भौगोलिक विशिष्टताओं के कारण यहाँ आकर बसते गए। ऐसे में बाहरी भाषाओं से भारतीय
भाषाओं का लगातार सम्पर्क बना रहा और भारतीय भाषाओं में स्वाभाविक परिवर्तन होता
रहा। इसका एक प्रमाण आधुनिक भारतीय भाषाओं में कई विदेशी शब्दों के रूप में देखा
जा सकता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में कई विदेशी भाषाओं के शब्द ऐसे घुल-मिल गए
हैं कि यह पता लगाना भी अत्यंत मुश्किल हो जाता है कि ये शब्द मूलतः भारतीय हैं भी
या नहीं। प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकास हो या आधुनिक भारतीय भाषाओं का, यह निरंतर लम्बे समय तक चली विकास-प्रक्रिया का
हिस्सा है। परस्पर सम्पर्क एवं संघर्ष से प्राचीन एवं अर्वाचीन जनभाषाओं के स्वरूप
में निरंतर परिवर्तन आने के कारण हिन्दी तथा अन्य अर्वाचीन भारतीय भाषाओं का विकास
हुआ है।
हिन्दी भारत-सरकार की राजभाषा के रूप में ही नहीं, बल्कि भारत की सबसे बड़ी सम्पर्क भाषा के रूप में भी अपने
अस्तित्व में रही है। अतः भारतीय भाषाओं में हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की आवश्यकता
सबसे अधिक महसूस की गई और विदेशों में भी भारतीय भाषाओं में सर्वाधिक हिन्दी का ही
अध्ययन किया जाता रहा है। भाषा-वैज्ञानिकों की दृष्टि भी हिन्दी को लेकर काफी सजग
एवं सचेत रही है। हिन्दी की उत्पत्ति को लेकर प्राचीन से लेकर अर्वाचीन, भाषा-वैज्ञानिकों ने अपना सिर खपाया है।
हिन्दी की उत्पत्ति को लेकर भाषा-वैज्ञानिकों की परम्परागत मान्यता यही रही है
कि हिन्दी भाषा ने संस्कृत से पालि, पालि से प्राकृत, प्राकृत से
अपभ्रंश और अपभ्रंश से आधुनिक हिन्दी तक का सफर तय किया है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा
के अनुसार – “भारत की अन्य
आधुनिक आर्यभाषाओं के समान हिंदी भाषा का जन्म भी आर्यों की प्राचीन भाषा से हुआ
है।”[4] इस स्थापना को और भी
स्पष्ट करते हुए धीरेन्द्र वर्मा लिखते हैं - “1000 ईसवी के बाद मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा के अंतिम रूप
अपभ्रंश भाषाएं धीरे-धीरे बदल कर आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का रूप ग्रहण कर लिया
और गंगा की घाटी में प्रयाग या काशी तक बोली जाने वाली शौरसेनी और अर्धमाग्धी
अपभ्रंशों ने हिन्दी भाषा के समस्त प्रधान रूपों को जन्म दिया।”[5] धीरेन्द्र वर्मा आर्यों की प्राचीन भाषा
(अप्रत्यक्ष रूप से ‘संस्कृत’)
से हिन्दी के जन्म की संभावना व्यक्त करते हैं।
उदयनारायण तिवारी के शब्दों में – “विकास की दृष्टि से इसकी (हिन्दी की) उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी संक्षेप में
जान लेना आवश्यक है। भारत के इतिहास में गंगा-जमुना के बीच की भूमि अत्यधिक पवित्र
मानी गयी है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही हिमालय तथा विन्ध्यपर्वत के बीच की भूमि
आर्यावर्त के नाम से प्रख्यात है। इसी के बीच में मध्यदेश है, जो भारतीय-संस्कृति तथा सभ्यता का
केन्द्र-बिन्दु है। संस्कृत, पालि तथा शौरसेनी
प्राकृत, इस मध्यदेश के विभिन्न
युगों की भाषा रही थी। कालक्रम से इस प्रदेश में शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचार हुआ।
यह कथ्य (बोलचाल) शौरसेनी अपभ्रंश ही कालान्तर में हिन्दी के रूप में परिणत हुआ।”[6]
श्यामसुंदर दास लिखते हैं – “भारत की पंजाबी,
हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं की परस्पर तुलना करने से यह
बात सहज ही ध्यान में आ जाती है कि ये सब भाषाएँ सजातीय हैं और इनकी उत्पत्ति एक
ही मूल से हुई है।”[7] और इन सजातीय
भाषाओं का मूल उनकी दृष्टि में ‘संस्कृत’ ही है। उन्हीं के शब्दों में – “भारतवर्ष की भिन्न-भिन्न भाषाओं के बोलने वाले
यद्यपि एक-दूसरे से इस समय सर्वथा अलग-अलग जान पड़ते हैं, पर वास्तव में वे एक ही मूल वा स्रोत से निकले हैं। यह मूल
भाषा संस्कृत है और वह जाति, जिससे इस समय
भारतवर्ष में इतनी अधिक जातियाँ और उपजातियाँ हो गई हैं, ‘आर्य जाति’ है।”[8] श्यामसुंदर दास भारत की सभी जातियों को ‘आर्य जाति’ की संतान मान लेते हैं और उनकी दृष्टि में आर्य जाति की मूल
भाषा संस्कृत होने के कारण हिन्दी एवं उनकी ‘सजातीय भाषाओं’ की उत्पत्ति भी संस्कृत से ही हुई है।
कामता प्रसाद गुरु हिन्दी के क्रमिक विकास को संक्षेप में इस तरह प्रस्तुत
करते हैं – “वैदिक काल में
शिष्ट समाज की भाषा संस्कृत थी; पर जनसाधारण उस
समय भी एक प्रकार की साधारण भाषा बोलते थे, जो प्राकृत कहलाती थी। इस प्राकृत से आगे पाली और द्वितीय
प्राकृत का जन्म हुआ। कालांतर में ये भाषाएँ व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा बाँध
दी गईं; जिसका परिणाम यह हुआ कि
बोल-चाल की भाषा अपभ्रंश हो गई। अपभ्रंश भाषाएँ भी व्याकरण के नियमों के अंतर्गत आ
गईं; तब सर्वसाधारण के लिए सरल
भाषा की आवश्यकता पड़ी। इस समय आधुनिक देशी भाषाओं का जन्म हुआ। हिंदी भाषा का
उद्गम भी इसी समय हुआ। हिंदी का जन्म प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं की उन शाखाओं से
हुआ जो शौरसेनी और अर्द्ध मागधी कहलाती थीं।”[10] कामता प्रसाद गुरु की अवधारणा से यह तो स्पष्ट होता है कि
हिंदी का विकास बोल-चाल की भाषा ‘अपभ्रंश’ से हुआ लेकिन अपभ्रंश के मूल का स्पष्टीकरण
नहीं हो पाता। उन्होंने लिखा है कि जब कालांतर में संस्कृत, पालि, प्राकृत भाषाएँ
व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा बाँध दी गईं, तो फिर ‘अपभ्रंश’ बोलचाल की भाषा बन गई। लेकिन इससे यह स्पष्ट
नहीं हो पाता कि अपभ्रंश का विकास पूर्वोक्त भाषाओं से हुआ या अपभ्रंश का अस्तित्व
पहले से ही था? कामता प्रसाद
गुरु की यह दुविधा उस समय और गहरी हो जाती है जब वे स्पष्ट रूप से हिन्दी को
संस्कृत से उत्पन्न बताते हैं। वे संस्कृत से हिन्दी का विकास बताते हुए लिखते हैं
– “जो भी हो यह बात निश्चित
हुई है कि आर्य लोग, जिनके नाम से
उनकी भाषाएँ प्रख्यात हैं, आदिम स्थान से
इधर-उधर गये और भिन्न-भिन्न देशों में उन्होंने अपनी भाषाओं की नींव डाली।... जो
लोग पूर्व को आए उनके दो भाग हो गए। एक भाग फारस को गया और दूसरा हिन्दूकुश को पार
कर काबुल की तराई में से होता हुआ हिंदुस्तान पहुँचा। पहले भाग के लोगों ने ईरान
में मीडी (मादी) भाषा के द्वारा फारसी को जन्म दिया, और दूसरे भाग के लोगों ने संस्कृत का प्रचार किया, जिससे प्राकृत के द्वारा इस देश की प्रचलित
आर्यभाषाएँ निकली हैं। प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकली हुई इन्हीं भाषाओं में
से हिंदी भी है।”[11] कामता प्रसाद
गुरु संस्कृत से हिन्दी का विकास बताते हैं जिसमें प्राकृत बीच की कड़ी है।
हालाँकि कई अन्य विद्वानों की तरह वे भी संस्कृत के दो रूप बताते हैं – वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। वैदिक संस्कृत
को वे भारत आने वाले आर्यों की आदिभाषा बताते हैं। उन्हीं के शब्दों में –
“जब आर्य लोग पहले-पहल भारतवर्ष में आए तब उनकी
भाषा प्राचीन (वैदिक) संस्कृत थी। इसे देववाणी भी कहते हैं, क्योंकि वेदों की अधिकांश भाषा यही है। रामायण, महाभारत या कालिदास आदि के काव्य जिस परिमार्जित
भाषा में हैं, वह बहुत पीछे की
है।
अष्टाध्यायी आदि व्याकरणों में ‘वैदिक’ और ‘लौकिक’ नामों से दो प्रकार की भाषाओं के उल्लेख पाये जाते हैं और दोनों के नियमों में
बहुत कुछ अंतर है।”[12] कामता प्रसाद
गुरु की मान्यता यह है कि संस्कृत बेहद क्लिष्ट भाषा रही है। इसलिए स्त्रियों,
बालकों और शूद्रों से उसका उच्चारण ठीक से न कर
पाने के कारण एक नई भाषा का जन्म हुआ जिसे गुरु ने ‘प्राकृत’ का नाम दिया है।
उन्हीं के शब्दों में – “अशोक के
शिलालेखों और पतंजलि के ग्रंथों से जान पड़ता है कि ईसवी सन् के कोई तीन सौ बरस
पहले उत्तरी भारत में एक ऐसी भाषा प्रचलित थी जिसमें भिन्न-भिन्न कई बोलियाँ शामिल
थीं। स्त्रियों, बालकों और
शूद्रों से आर्यभाषा का उच्चारण ठीक-ठीक न बनने के कारण इस नई भाषा का जन्म हुआ था
और इसका नाम ‘प्राकृत’ पड़ा। ‘प्राकृत’ शब्द ‘प्रकृति’ (मूल) शब्द से बना है और उसका अर्थ ‘स्वाभाविक’ या ‘गँवारी’ है।”[13] कामता प्रसाद
गुरु जिस प्रकार संस्कृत के दो भेद बताते हैं – प्राचीन (वैदिक) और नवीन (लौकिक), उसी प्रकार वे प्राकृत के भी दो भेद बताते हैं – पहली प्राकृत और दूसरी प्राकृत। वे अनुमान
लगाते हैं कि पहली प्राकृत का अस्तित्व वेदों के समय में भी था और यह भाषा वैदिक
संस्कृत के समानांतर उपयोग में लाई जाती थी। उन्हीं के शब्दों में – “वेदों में गाथा नाम से जो छन्द पाए जाते हैं,
उनकी भाषा पुरानी संस्कृत से कुछ भिन्न है,
जिससे जान पड़ता है कि वेदों के समय में भी
प्राकृत भाषा थी। सुविधा के लिए वैदिक काल की इस प्राकृत को हम पहली प्राकृत
कहेंगे और ऊपर जिस प्राकृत का उल्लेख हुआ है उसे दूसरी प्राकृत। पहली प्राकृत ही
ने कई शताब्दियों के पीछे दूसरी प्राकृत का रूप धारण किया।”[14] इसके बाद कामता प्रसाद गुरु ‘संस्कृत’ अर्थात् आधुनिक संस्कृत भाषा की उत्पत्ति पर विचार करते हैं
- “वैदिक काल के विद्वानों
ने देववाणी को प्राकृत की भ्रष्टता से बचाने के लिए उसका संस्कार करके व्याकरण के
नियमों से उसे नियन्त्रित कर दिया। इस परिमार्जित भाषा का नाम ‘संस्कृत’ हुआ, जिसका अर्थ ‘सुधारा हुआ’ अथवा ‘बनावटी’ है। यह संस्कृत भी पहली प्राकृत की किसी शाखा
से शुद्ध होकर उत्पन्न हुई है।”[15]
कामता प्रसाद गुरु की अवधारणाओं से बहुत सारे प्रश्न खड़े होते हैं। जैसे –
यदि ‘स्त्रियों, बालकों और
शूद्रों’ से आर्यभाषा का उच्चारण
ठीक-ठीक न हो पाता था तो वे पहले किन भाषाओं में बातें करते थे? क्या आर्यों की भाषाएँ केवल पुरुषों, व्यस्कों एवं सम्भ्रांत लोगों के लिए ही बनी
थीं? पुरानी संस्कृत और नई
संस्कृत के साथ-साथ पहली प्राकृत और दूसरी प्राकृत की अवधारणाओं में स्पष्टता नहीं
है कि किनसे कौन-सी भाषाएँ उत्पन्न हुईं? हिन्दी भाषा को मूल रूप से इनमें से किससे उत्पन्न माना जाय? इन अवधारणाओं से किसी निष्कर्ष पर पहुँचना
मुश्किल प्रतीत होता है।
संस्कृत और प्राकृत के दो-दो रूपों से आगे बढ़कर कामता प्रसाद गुरु हिन्दी के
विकास की अगली कड़ी ‘अपभ्रंश’ की ओर आते हैं और आधुनिक आर्यभाषाओं का विकास ‘अपभ्रंश’ से बतलाते हैं। उन्हीं के शब्दों में – “प्रत्येक प्राकृत के अपभ्रंश पृथक्-पृथक् थे और
वे भिन्न-भिन्न प्रांतों में प्रचलित थे। भारत की प्रचलित आर्यभाषाएँ न संस्कृत से
निकली हैं और न प्राकृत से; किंतु अपभ्रंशों
से। लिखित साहित्य में बहुधा एक ही अपभ्रंश भाषा का नमूना मिलता है जिसे नागर
अपभ्रंश कहते हैं। इसका प्रचार बहुत करके पश्चिम भारत में था। इस अपभ्रंश में कई
बोलियाँ शामिल थीं जो भारत के उत्तर की तरफ प्रायः समग्र पश्चिमी भाग में बोली
जाती थीं। हमारी हिंदी भाषा दो अपभ्रंशों के मेल से बनी है एक नागर अपभ्रंश,
जिससे पश्चिमी हिंदी और पंजाबी निकली है;
दूसरी अर्धमागधी का अपभ्रंश जिससे पूर्वी हिंदी
निकली है और जो अवध, बघेलखंड और
छत्तीसगढ़ में बोली जाती है।”[16] कामता प्रसाद
गुरु के अनुसार हिंदी की उत्पत्ति का प्रत्यक्ष संबंध न तो संस्कृत से है और न ही
प्राकृत से बल्कि अपभ्रंश से है। लेकिन कामता प्रसाद गुरु इस प्रश्न का समाधान
नहीं कर पाते कि हिंदी की उत्पत्ति का अप्रत्यक्ष संबंध किससे माना जाय – संस्कृत से, प्राकृत से या अन्य किसी स्रोत से? हिंदी के विकास को कामता प्रसाद गुरु इस प्रकार दिखाते हैं [17] :-
हिंदी भाषा के विकास-क्रम को
कामता प्रसाद गुरु ने उपर्युक्त हिंदी विकास-क्रम के वृक्ष के माध्यम से अत्यंत
स्पष्टता के साथ दर्शाया है। हिन्दी के इस विकास-वृक्ष का अवलोकन करने से यही
ज्ञात होता है कि कामता प्रसाद गुरु ने प्राचीन संस्कृत से लौकिक संस्कृत एवं पहली
प्राकृत का विकास माना है और लौकिक संस्कृत एवं पहली प्राकृत के मेल से दूसरी
प्राकृत अर्थात् पालि का विकास दिखाया है। फिर अपभ्रंशों से होते हुए हिन्दी का
विकास दिखाया गया है। हालाँकि यह भी गौर करने वाली बात है कि कामता प्रसाद गुरु ने
इस विकास-वृक्ष के इतर जो वर्णन किये हैं, उनमें और विकास-वृक्ष में थोड़ा-बहुत अंतर भी दिखाई देता है। एक ओर उपर्युक्त
विवरणों में जहाँ गुरु प्राकृतों के मेल से ‘संस्कृत’ की उत्पत्ति
दिखाते हैं, वहीं विकास-वृक्ष
में उन्होंने ‘लौकिक संस्कृत’
का विकास केवल ‘प्राचीन संस्कृत’ से ही दिखाया है। जो भी हो, इतना स्पष्ट है
कि कामता प्रसाद गुरु हिन्दी का विकास मूलतः प्राचीन संस्कृत से दिखाते हैं। इससे
स्पष्ट होता है कि कामता प्रसाद गुरु उन भाषाविदों में शामिल हैं जिन्होंने हिन्दी
को ‘संस्कृत’ से उत्पन्न माना है।
श्यामसुंदर दास भी कामता प्रसाद
गुरु के इस ‘विकास-वृक्ष’
का समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं – “आरंभ से ही जनसाधारण की बोलचाल की भाषा प्राकृत
थी। बोलचाल की भाषा के प्राचीन रूप के ही आधार पर वेद-मंत्रों की रचना हुई थी और
उसका प्रचार ब्राह्मण ग्रन्थों तथा सूत्र-ग्रन्थों तक में रहा। पीछे से वह
परिमार्जित होकर संस्कृत रूप में प्रयुक्त होने लगी। बोलचाल की भाषा का अस्तित्व
नष्ट नहीं हुआ। वह भी बनी रही। पर इस समय के प्राचीनतम उदाहरण उपलब्ध नहीं हैं।
उसका सबसे प्राचीन रूप जो हमें इस समय प्राप्त है, वह अशोक के लेखों तथा प्राचीन बौद्ध एवं जैन-ग्रंथों में
है। उसी को हम प्राकृत का प्रथम रूप मानने के लिए बाध्य होते हैं। उस रूप को ‘पाली’ नाम दिया गया है। पाली के अनन्तर हमें साहित्यिक प्राकृत के दर्शन होते हैं।”[18]
इसके बाद श्यामसुंदर दास ने साहित्यिक
प्राकृतों से अपभ्रंशों और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं (जिनमें हिंदी भी
शामिल है) का विकास दिखाया है। गौर करने वाली बात यह है कि वे जहाँ एक ओर यह लिखते
हैं कि ‘आरंभ से ही जनसाधारण की
बोलचाल की भाषा प्राकृत थी’, वहीं वे
प्राकृतों की उत्पत्ति भी ‘वैदिक संस्कृत’
से दिखाकर अंततः यही प्रमाणित करने का प्रयास
करते हैं कि मूलतः संस्कृत से ही हिंदी का विकास हुआ है। प्राकृत के विकास के बारे
में वे लिखते हैं – “इस बात की पुष्टि
में बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं कि प्राचीन वैदिक भाषा से ही प्राकृतों की
उत्पत्ति हुई है, अर्वाचीन संस्कृत
से नहीं।”[19] श्यामसुंदर दास
की अवधारणों से भी कई प्रश्न खड़े होते हैं। जैसे – यदि आरंभ से ही जनसाधारण की बोलचाल की भाषा ‘प्राकृत’ थी तो प्राकृतों का जन्म वैदिक संस्कृत से किस प्रकार हुआ?
क्या वैदिक संस्कृत अपने समय की एकमात्र भाषा
थी? क्या उस समय समस्त
भारतवर्ष में केवल वैदिक संस्कृत ही बोलचाल की भाषा के रूप में प्रयोग में लाई जा
रही थी?
रामविलास शर्मा ‘संस्कृत’ से हिन्दी की उत्पत्ति को नहीं मानते और ‘संस्कृत’ को लेकर भी कई विचार प्रकट करते हैं जिनमें से कई विचार
एक-दूसरे का सीधा विरोध करते हैं। एक ओर अपनी पुस्तक ‘भाषा और समाज’ में वे लिखते हैं – “संस्कृत किसी
आर्य नाम की नस्ल की भाषा नहीं थी। उसके निर्माण में अनेक भाषा-परिवारों का योग
रहा है।... संस्कृत भारत की एकमात्र भाषा कभी नहीं रही।”[20] दूसरी ओर वहीं वे ‘भारत के प्राचीन भाषा-परिवार और हिंदी’ के पहले खंड में लिखते हैं – “आर्य गण-भाषाओं में जो भाषा संस्कृत नाम से
विख्यात हुई, वह मूलतः मध्यदेश
की भाषा थी।”[21] फिर इसी पुस्तक
के तीसरे खंड में वे लिखते हैं – “मूल संस्कृत भाषा
अथवा मध्यदेश की मूल आर्य भाषा में ल् की अपेक्षा र् की प्रधानता थी।”[22] एक ओर यह कहना कि ‘संस्कृत किसी आर्य नस्ल की भाषा नहीं थी’ और दूसरी ओर संस्कृत के लिए मध्यदेश की ‘मूल आर्य भाषा’ शब्द का प्रयोग करना कहीं न कहीं किसी दुविधा की तरफ इशारा
करता है। जो भी हो, इसमें कोई संदेह
नहीं है कि रामविलास जी ‘संस्कृत -> पालि -> प्राकृत -> अपभ्रंश ->
हिन्दी’ के इस विकास या उद्भव की परम्परा को मानने से इन्कार करते
हैं।
भारत और विदेशों में भी यह लगभग
प्रचलित मान्यता है कि भारत की सबसे बड़ी सम्पर्क भाषा हिन्दी का मूल संस्कृत में
निहित है लेकिन स्वयं संस्कृत से हिन्दी का उदय मानने वाले डॉ. भोलानाथ तिवारी के
शब्दों से ही इस मान्यता पर संदेह होना शुरू हो जाता है। भारतीय विद्वान संस्कृत
को देववाणी मानते थे और अरब के लोगों के लिए अरबी खुदा की भाषा थी, वहीं यहूदी लोग हिब्रू को ईश्वर-प्रदत्त भाषा
मानते रहे हैं। संभवतः ईश्वर से संबंध जोड़े जाने के कारण ही संस्कृत को सभी
भारतीय भाषाओं की जननी माना जाता रहा है। डॉ. भोलानाथ तिवारी के शब्दों में –
“भारतीय पंडित वेदों को अपौरुषेय मानते रहे हैं।
उनका दृढ़ विश्वास रहा है कि संस्कृत को ईश्वर ने बनाया...। संस्कृत को ‘देवभाषा’ कहने में भी उनके इसी विश्वास की ओर संकेत है।”[23] डॉ. भोलानाथ तिवारी आगे कहते हैं – “बौद्ध ‘पालि’ को भी इसी प्रकार मूल
भाषा मानते रहे हैं, और उनका विश्वास
रहा है कि भाषा अनादि काल से चली आ रही है।”[24] भाषा की दैवीय उत्पत्ति का यह सिद्धान्त अब किसी भी भाषा की
उत्पत्ति के संदर्भ में प्रभावी नहीं रह गया है क्योंकि आज के युग में विज्ञान के
विकास के साथ-साथ ईश्वर में आस्था एक व्यक्तिगत विषय बनकर रह गया है। आज के समय
में डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को मान्यता दी जाती है, अतः हर बात की तरह भाषा के विकास का श्रेय भी
ईश्वर को नहीं दिया जा सकता। आज के इस भौतिकवादी युग में संसार में विभिन्न धर्म
हैं और इनके अनुयायी निरंतर आपसी संघर्ष में लगे रहते हैं। हर धर्म के अपने-अपने
सिद्धांत और अपने-अपने ईश्वर हैं और साथ ही अपने-अपने ईश्वरों द्वारा प्रदत्त
भाषाएँ भी हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में जब धर्म और ईश्वर की अवधारणा ही खतरे
में आ गयी है, तब ईश्वर को किसी
भी भाषा का उत्पत्तिकर्ता मानना भी केवल कल्पना मात्र ही समझा जाएगा। वैसे भी आज
भाषा की उत्पत्ति कै दैवीय सिद्धांत के विरुद्ध कई तर्क दिये जाते रहे हैं। जैसे –
यदि भाषा के निर्माता भी ईश्वर ही थे तो फिर
मनुष्य की भाषाओं में इतनी असमानताएँ क्यों हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृत भाषा का संबंध देवताओं
से जोड़ना भी संस्कृत को भारत की सभी भाषाओं की जननी मानने का एक कारण रहा है।
लेकिन कई भाषा-वैज्ञानिक ऐसे भी हैं जो हिन्दी में व्यवहृत होने वाले तत्सम शब्दों
की भरमार दिखाकर हिन्दी की उत्पत्ति संस्कृत से साबित करने में लगे रहे हैं।
1925 ई. में प्रकाशित अपनी छोटी-सी पुस्तक ‘हिन्दी भाषा की उत्पत्ति’ में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अधिकांश
भाषा-संबंधी वही सिद्धांत दोहराये हैं जो जॉर्ज ग्रियर्सन के हैं। उन्हीं के
शब्दों में – “हिन्दुस्तान में
सब मिलाकर 147 भाषायें या
बोलियाँ बोली जाती हैं। उनमें से हिन्दी वह भाषा है जिसका सम्बन्ध एक ऐसी प्राचीन
भाषा से है जिसे हमारे और यूरपवालों के पूर्वज किसी समय बोलते थे।”[28] उनका इशारा निश्चित रूप से आर्यों के बाहर से
आगमन और हिंदी की उत्पत्ति के स्रोत भारत से बाहर से आये हुए आर्यों की किसी
प्राचीन भाषा की ओर है। लेकिन जहाँ तक हिन्दी की उत्पत्ति का सवाल आता है तो वे
अपनी मौलिक अवधारणा देते हैं। वे इसी पुस्तक के उपसंहार में लिखते हैं – “आज तक कुछ लोगों का ख़याल था कि हिन्दी की जननी
संस्कृत है। यह बात भारत की भाषाओं की खोज से ग़लत साबित हो गई। जो उद्गमस्थान
परिमार्जित संस्कृत का है, हिन्दी जिन
भाषाओं से निकली है उनका भी वही है। इस बात को सुनकर बहुतों को आश्चर्य होगा।
सम्भव है उन्हें यह बात ठीक न जँचे, पर जब तक इसके ख़िलाफ़ कोई सबूत न दिये जायँ, तब तक इस सिद्धान्त को मानना ही पड़ेगा।”[29] इसी अवधारणा को आगे चलकर किशोरीदास वाजपेयी,
रामविलास शर्मा और डॉ. धर्मवीर जैसे भाषाविदों
ने स्वीकार किया है।
आधुनिक भारत के प्रमुख भाषा-वैज्ञानिकों में से एक आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी
शब्दानुशासन’ में हिन्दी की
उत्पत्ति के संस्कृत से माने जाने पर सवाल खड़े किये हैं। उनकी इस मान्यता पर
रामविलास शर्मा और डॉ. धर्मवीर भी अपनी मुहर लगाते हैं। डॉ. धर्मवीर ने अपनी
पुस्तक ‘हिन्दी की आत्मा’ में इस बात पर जोर दिया है कि संस्कृत के
समानान्तर बहुत-सी जन-भाषाएँ बोली जाती थीं जिनमें आधुनिक हिन्दी की ‘आत्मा’ बसी हुई है। डॉ. धर्मवीर के शब्दों में – “यह एक भ्रम फैलाया गया है कि उत्तर भारत की सभी आर्य भाषाएँ
संस्कृत से निकली हैं। निश्चित रूप से ये सभी भाषाएँ संस्कृत से प्रभावित हुई हैं
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि संस्कृत उनकी जननी है। इस बात की ओर
भाषा-वैज्ञानिकों का ध्यान जाना चाहिए कि संस्कृत ने अपने आरंभ काल में अनेक शब्द
इन भाषाओं से लिए हैं।... विद्वानों को कभी इस साधारण बुद्धि से भी काम लेना चाहिए
कि संस्कृत ने भी अन्य भाषाओं से शब्द या धातुएँ ली होंगी।”[30]
संस्कृत को सबसे प्राचीन भारतीय भाषा मानने के पीछे सबसे प्रबल तर्क यह दिया
जाता है कि भारत के सर्वाधिक प्राचीन साहित्य इसी भाषा में उपलब्ध हैं। इस तर्क को
खंडित करते हुए डॉ. धर्मवीर लिखते हैं – “यह सच है कि साहित्य किसी भाषा में ही लिखा जाता है लेकिन उस भाषा विशेष का
साहित्य भी हो, यह उसकी उत्पत्ति
जानने के लिए अनिवार्य नहीं है। भाषा बिना किसी तथाकथित साहित्य और बिना किसी लिपि
के भी हो सकती है।”[31] इस प्रकार की
मान्यता पर खीज व्यक्त करते हुए डॉ. धर्मवीर आगे लिखते हैं – “यह दुःख की बात है कि कुछ विद्वान भाषा के
साहित्यिक और राज भाषा के रूप तक पहुँच कर ही अपने काम की इति समझ लेते हैं। अधिक
से अधिक वे भाषा के धार्मिक पक्ष तक जा कर रुक जाते हैं। उन्हें यह ध्यान नहीं
रहता कि किसी भी समय में साहित्यकारों, राज कर्मचारियों और धार्मिक नेताओं की संख्या बहुत कम होती है। जनता का बड़ा
हिस्सा मजदूरों और किसानों से मिल कर बनता है। उन मजदूरों और किसानों की भी एक
भाषा हुआ करती है।”[32] यह एक ऐतिहासिक
तथ्य है कि पुराने जमाने में मजदूरों और किसानों तक शिक्षा की मूलधारा की पहुँच
नहीं थी और आज भी कमोबेश ये वर्ग आधुनिक शिक्षा की पहुँच से दूर हैं। ऐसे में इनकी
बोल-चाल की भाषा को नज़रअंदाज करना उचित नहीं होगा। भारत में आदिवासी समाज भी
सदियों तक तथाकथित मुख्य धारा के समाज से अलग-थलग रहा है लेकिन इसका यह मतलब कदापि
नहीं निकाला जा सकता कि उनकी कोई भाषा नहीं रही है या उनकी कोई संस्कृति नहीं रही
है। प्राचीन साहित्य में कई ऐसी रचनाएँ (विशेषकर नाटकों के रूप में) मिलती हैं
जिनमें विभिन्न पात्रों की भाषा में अंतर साफ देखा जा सकता है। डॉ. धर्मवीर इस ओर
संकेत करते हुए लिखते हैं – “प्राचीन काल के
संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र संस्कृत नहीं बोलते हैं। वे केवल प्राकृत
बोलते हैं। प्राचीन भाषाओं के विद्वान बताते हैं कि संस्कृत नाटकों में जिस
प्राकृत का प्रयोग हुआ है वह रूढ़ प्राकृत है। प्राकृत एक नहीं रही होगी, बल्कि हर भौगोलिक क्षेत्र में अलग-अलग
प्राकृतें रही होंगी। हम प्राकृत के कई प्रकार सुनते भी हैं। लेकिन संस्कृत के
नाटकों में एक ही प्राकृत का प्रयोग मिलता है। यह ऐसी रूढ़ प्राकृत है कि यह भी
निश्चित नहीं किया जा सका है कि यह किस क्षेत्र की प्राकृत रही होगी।”[33]
डॉ. धर्मवीर इस जनभाषा (प्राकृत) के बारे में स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं –
“संस्कृत नाटकों में जिस प्राकृत का पहली बार
प्रयोग किया गया है, वह किसी क्षेत्र
विशेष की प्राकृत रही होगी। उसका एक विस्तृत जनाधार रहा होगा। इस बात की पूरी
संभावना है कि राजधानी के क्षेत्र की आम जनता उसे बोलती होगी। बाद में राजधानी से
दूर के क्षेत्रों की विभिन्न जन भाषाओं पर भी वही प्राकृत आरोपित कर ली गई होगी।”[34]
लेकिन भाषा-वैज्ञानिकों ने संस्कृत के
महिमामंडन के दौरान जन-भाषाओं की उपेक्षा की और संस्कृत को ही सभी भारतीय भाषाओं
की जननी घोषित कर दिया। जबकि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि सामाजिक संदर्भों के बिना
भाषा का कोई अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि भाषा का विकास समाज में ही होता है और
किसी भी भाषा के विकास को समझने के लिए उस भाषा से संबंधित समाज के विकास को समझना
आवश्यक है। कोई भी भाषा कभी भी अपने समाज से अलग नहीं हो सकती, क्योंकि भाषा का प्रयोग समाज में ही संभव है।
इसलिए भाषा के स्वरूप में भी परिवर्तन भी समाज में ही संभव होता है। साथ ही जो
समाज जितना बड़ा होता है, उसमें भाषाओं के
स्वरूप में उतने ही अंतर देखने को मिलते हैं।
भारतीय समाज कभी भी बंद समाज नहीं रहा है। इस समाज में विभिन्न कारणों से
परस्पर सम्पर्क और भाषागत आदान-प्रदान विभिन्न रूपों में निरंतर होता रहा है। ये
भी निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत पर हजारों वर्षों से विदेशी आक्रमण होते
रहे और बाहर के लोग यहाँ की भौगोलिक विशिष्टताओं के कारण यहाँ आकर बसते गए। ऐसे
में बाहरी भाषाओं से भारतीय भाषाओं का लगातार सम्पर्क बना रहा और भारतीय भाषाओं
में स्वाभाविकता से परिवर्तन होता रहा। इसका एक परिणाम आधुनिक भारतीय भाषाओं में
कई विदेशी शब्दों के रूप में देख सकते हैं। विभिन्न भारतीय भाषाओं में कई विदेशी
भाषा के शब्द ऐसे घुल-मिल गए हैं कि यह पता लगाना भी अत्यंत कठिन हो जाता है कि ये
शब्द मूलतः भारतीय हैं या अभारतीय।
भारतीय भाषाएँ प्राचीन काल से ही विश्व की अनेक भाषाओं के सम्पर्क में रही हैं
और दोनों में शब्द, ध्वनि आदि कई
स्तरों पर आदान-प्रदान होता आया है। ऐसे में यह तथ्य आश्चर्यजनक नहीं माना जा सकता
कि प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं एवं कई पाश्चात्य भाषाओं में ध्वनि, शब्द-रचना, वाक्य-रचना आदि के आधार पर कई प्रकार की समानताएँ देखी जाती
हैं। हालाँकि इन्हीं समानताओं को आधार बनाकर कई पाश्चात्य एवं भारतीय
भाषा-वैज्ञानिकों ने भारतीय एवं पाश्चात्य भाषाओं को एक ही ‘भाषा-परिवार’ की भाषाएँ सिद्ध करने का प्रयास किया है, लेकिन इस तथ्य को भी पूर्णतः उपेक्षित नहीं किया जा सकता कि
भारतीय एवं पाश्चात्य भाषाओं में ध्वनि, शब्द-रचना, वाक्य-रचना आदि
में व्याप्त समानताएँ भारत एवं शेष विश्व के समाजों के बीच परस्पर सम्पर्कों के
परिणाम हैं, न कि दोनों की
उत्पत्ति का मूल स्रोत एक है। केवल पाश्चात्य भाषा-परिवारों से ही नहीं, भारतीय भाषाओं का सम्पर्क चीनी, अरबी एवं दक्षिण-पूर्वी देशों की भाषाओं से भी
होता रहा है और भारतीय भाषाओं पर कई विदेशी भाषाओं के सम्पर्क का प्रभाव भी
स्पष्टतः देखा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि विदेशी भाषाओं से निरंतर सम्पर्क से
केवल भारतीय भाषाएँ ही प्रभावित हुई हैं, बल्कि कई विदेशी भाषाओं पर भी भारतीय भाषाओं के सम्पर्क का प्रभाव देखा जा
सकता है। वैसे भी हिन्दी किसी एक विशेष भाषा या बोली का नाम नहीं है। इसके
अन्तर्गत कई उपभाषाएँ एवं बोलियाँ आती हैं और इनके रूपों में भी विभिन्न स्तरों पर
कई प्रकार के अंतर भी देखे जा सकते हैं।
हालाँकि संस्कृत की प्राचीनता सर्वविदित है और व्याकरण की दृष्टि से इसकी
समानता यूरोप की कई पुरानी भाषाओं जैसे लैटिन, ग्रीक आदि से भी पाई जाती है। डॉ. धर्मवीर शायद हिन्दी की ‘आत्मा’ में प्रवेश करने के चक्कर में कई बार अतिशयोक्ति का प्रयोग भी कर बैठते हैं।
जैसे उन्हीं के शब्दों में – “यह इतिहास का सच
है कि जब संस्कृत, फारसी और
अंग्रेजी के कारण खड़ी बोली का नामोनिशान मिट जाना चाहिए था, यह उलटे इन भाषाओं के सम्मुख सिर तान कर खड़ी
हो गई है। खड़ी बोली हिन्दी चुपचुप इन तीनों भाषाओं के कारण समृद्ध होती चली गई
थी। इसने तीनों भाषाओं के शब्द ग्रहण करने आरंभ कर दिये थे। संयोग से देश में
लोकतंत्र का समय आ गया और भारत के नए संविधान ने हिन्दी को राज भाषा का स्थान दे दिया
है। यहाँ केवल यह कहना शेष रह जाता है कि खड़ी बोली अपने खड़ी बोली क्षेत्र में
बोली के रूप में तब भी जीवित रही जब संस्कृत, राज भाषा और साहित्यिक भाषा थी और तब भी जब फारसी और
अंग्रेजी राजभाषाएँ बनी रहीं। इस तर्क से खड़ी बोली पाणिनि द्वारा व्याकरण बद्ध की
गई संस्कृत से भी पुरानी बोली सिद्ध होनी चाहिए।”[35]
डॉ. रामविलास शर्मा इस तथ्य पर जोर देते हैं कि भाषाओं का विकास, या दूसरे शब्दों में कहें तो भाषा में परिवर्तन,
आपसी सम्पर्क का परिणाम होता है। जिस समाज का
इतिहास जितना पुराना होगा, जिस समाज का अन्य
समाजों से सम्पर्क जितना अधिक होगा, उस समाज का विकास भी उतना ही अधिक होगा और उस समाज की भाषा का शब्द-भंडार भी
उतना ही बड़ा होगा। हर भाषा का विकास उसके समाज के ऐतिहासिक एवं भौगोलिक
परिप्रेक्ष्य में ही संभव है। हर भाषा का विकास उसके सामाजिक संदर्भों पर आधारित
रहा है। अतः भारत संघ की राजभाषा हिन्दी का विकास भी उसके सामाजिक संदर्भों को
ध्यान में रखकर देखा जाना चाहिए।
भारतीय भाषाओं में भारतीय संघ की
राजभाषा हिन्दी का महत्व सर्वविदित है। हिन्दी भारत-सरकार की राजभाषा ही नहीं,
वरन् भारत की सर्वप्रमुख अघोषित सम्पर्क भाषा
भी है। हिन्दी वास्तव में पाँच उपभाषाओं एवं 18 बोलियों का समुच्चय है। इन बोलियों की उत्पत्ति विभिन्न
प्राकृत भाषाओं से मानी गई है और इन प्राकृतों का मूल संस्कृत को माना गया है।
प्रकारान्तर से हिन्दी की उत्पत्ति संस्कृत से ही मानी गई है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी, किशोरीदास
वाजपेयी, रामविलास शर्मा, डॉ. धर्मवीर, आदि का जोर इसी बात की ओर अधिक है कि प्राचीन काल में
संस्कृत के समानान्तर बहुत-सी जनभाषाएँ एवं जनबोलियाँ भी मौजूद थीं जिनमें आज की
भारतीय भाषाओं की ‘आत्मा’ बसी हुई है। इन्हीं भारतीय भाषाओं में हिन्दी
भी शामिल है जिसका विकास संस्कृत की समकालीन जनभाषाओं से हुआ है। प्राचीन भारतीय
भाषाओं का विकास हो या आधुनिक भारतीय भाषाओं का, यह निरंतर लंबे समय तक चली विकास-प्रक्रिया का हिस्सा है।
संदर्भ सूची
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हिन्दी की आत्मा; पृ. 17
[31] वही; पृ. 19
[32] वही
[33] वही; पृ. 20
[34] वही
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[36] रामविलास शर्मा;
भाषा और समाज; पृ. 208
[37] वही; पृ. 219
[38] वही; पृ. 229
[39] वही; पृ. 217
[40] वही; पृ. 216-217
डॉ. गोपाल कुमार, (पी-एच.डी.
हिन्दी),अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद (तेलंगाणा), gopal.eflu@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
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