आलेख:शिवमूर्ति का रचना कर्म -रेणु चौधरी

                           शिवमूर्ति का रचना कर्म/ रेणु चौधरी 

शिवमूर्ति ग्रामीण समाज के कथाकार हैं। वास्तव में कोई भी व्यक्ति जब कथाकार बनने के लिए कलम पकड़ता है तो सबसे पहले अपने अनुभव को कलमबद्ध करता है। शिवमूर्ति के पास अनुभव के रूप में उनके गाँव का जीवन इतना धनी है कि शिवमूर्ति उसी को लिखते हैं। गाँव का एक भरा-पूरा संसार उनके पास है। उसमें अनेकों कहानियां हैं। कहानी से निकलती हुई कहानियां। मेले- ठेले, नदी-नाले, तालाब-पोखरे, जीव-जंतु, दादी-नानी, मामा-मामी, घर-परिवार आदि। शिवमूर्ति ने इन सब को नजदीक से देखा-भोगा, महसूसा है।

 उनके सृजनात्मक व्यक्तित्व का विकास ग्रामीण परिवेश में हुआ। वास्तव में शिवमूर्ति ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े एवं उसी में रचे-बसे कथाकार हैं। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार ‘‘शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के विश्वसनीय कथाकार हैं। किसान जीवन को अपनी रचना का विषय उन्होंने किसी साहित्यिक प्रवृत्ति या साहित्यिक आकांक्षा के तहत नहीं अपनाया है। वे ग्रामीण एवं किसान जीवन के सहज रचनाकार हैं। उनका व्यक्तित्व, रहन-सहन, बोली-बानी सब कुछ ग्रामीण और किसानी है। एक आंतरिक ठसक के साथ। वे जितने विनम्र हैं उतने ही दृढ़! यह भी लगता है कि उन्हें अपने लेखन के प्रति आत्मविश्वास भी है। इस आत्मविश्वास का आधार रचित वस्तु की गहरी सूक्ष्म और व्यापक जानकारी है निजी फर्स्ट हैंड जानकारी।’’1  मुक्तिबोध  इसे ही रचना का प्रथम क्षण कहते हैं।

शिवमूर्ति में कथाकार का बीजारोपण बचपन में ही हो गया था। बचपन की स्मृतियाँ ताउम्र मनुष्य के साथ रहती हैं। उस समय अनुभव की पोटली एकदम रिक्त पड़ी रहती है। उसमें जो अनुभव पहले आते हैं- वे एकदम फर्स्ट हैण्डअनुभव होते हैं। अनुभव बहुत अच्छे हों या बेहद तीखे, उनका अपना अतिरिक्त महत्व होता है। फिर तो आप बड़े होते जाइए, अनुभवों को भरते जाइए। लेकिन हर दूसरे-तीसरे चौथे या नये अनुभव को आप पहले अनुभवों से तौलते हैं। यह एक अनायास चलने वाली प्रक्रिया है। इसलिए प्रत्येक रचनाकार अपने बचपन और किशोरावस्था के दिनों को शिद्दत से याद करता है। शिवमूर्ति कहते हैं ‘‘बचपन और किशोरावस्था में मन की स्लेट साफ और नई-निकोररहती है। उस समय का देखा-सुना पूरी तरह जीवंत और चमकीले रूप में सुरक्षित रहता है। शायद यही उम्र होती है मन में लेखकीय बीज पड़ने और अंकुरित होने की।’’2  रचनाकार के इन बीजों को शिवमूर्ति ने अपनी स्वानुभूति और अनुभूति से सींचा है। कहने का तात्पर्य यह है कि शिवमूर्ति अपनी रचनाओं में जिन ग्रामीण समाज के पात्रों और ग्रामीण जीवन की समस्याओं को व्यक्त करते हैं, वे उनके निजी जीवन के भोगे हुए और ग्रामीण समाज में घट रहे यथार्थ के प्रतिबिम्ब हैं। शिवमूर्ति के बारे में कमल नयन पांडे कहते हैं ‘‘भोक्ता के तौर पर गंवई जीवन-स्थितियों को स्वयं भोगते हुए उन्हें स्वानुभूति हासिल होती है। अर्थात सीधी-साधी अनुभूति। द्रष्टाके तौर पर गंवई जीवन-स्थितियों को स्वयं भोगते हुए गंवई जन को देखकर उन्हें स्वानुभूतिहासिल होती है। इसी स्वानुभूतिऔर सहानुभूतिके संधि-स्थल पर शिवमूर्ति का कथाकार उभार और आकार पाता है। संभवतः इसीलिए शिवमूर्ति की कहानियों में समकालीन गाँव और गंवई जीवन का ठेठ व ठोस यथार्थ व्यंजित हुआ है। शिवमूर्ति की कहानियों में तेजी से बदल रहे गाँव की साफ झलक दिखलाई पड़ती है।  बदल रहे गंवई जन के आज जो नए सपने हैं, जो इरादे हैं, जो प्राथमिकताएँ हैं, इन सब को इनकी कहानियों में पढ़ा जा सकता है। आज गंवई समाज के भीतर परस्परता टूट रही है। आत्मकेंद्रीयता बढ़ रही है। मानवीय करुणा विलोपित हो रही है। उपकारी मन गुम हो रहा है। भ्रष्टाचार निरापद रूप में बढ़ रहा है। कहीं अराजकता बढ़ रही है तो कहीं आत्मभीति से अवसाद बढ़ रहा है। बहुआयामी पतनशीलता के नित नए कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं। इन सब दारुण दशाओं और त्रासद परिणतियों के उत्तरदायी घटकों व कारकतत्वों की साफ पहचान कराती हैं, शिवमूर्ति की कहानियां।’’3  वास्तव में दुनिया की सारी श्रेष्ठ कहानियां इसी स्वानुभूति और सहानुभूति के लीलाजगत से निकल कर समाज में अपना स्थान ग्रहण करती हैं। डॉ. शभुनाथ ने लिखा है ‘‘कथा-वस्तुतः यथार्थपरक और यथार्थेत्तर के बीच एक आनंदमय खेल है, जो मानव सभ्यता की शुरुआत से जारी है।’’4  शिवमूर्ति ने अपने कथा-साहित्य में ग्रामीण समाज का प्रतिनिधित्व किया है। वास्तव में प्रेमचंद, रेणु, राही मासूम रजा और नागार्जुन के बाद भारतीय किसानों के अभिशप्त जीवन को चित्रित करने वाले कहानियों का भारतीय समाज और साहित्य में आगमन कम होता गया। आजादी के बाद नई कहानियों के कहानीकारों का आगमन होता है। ये सारे कहानीकार मध्यवर्गीय भारतीय समाज से आते हैं। इनके पिता सरकारी नौकरियाँ करते थे और शहरों में रहते थे। इसलिए ये सभी बचपन से ही शहरों में रहे। यहीं इनकी पढ़ाई- लिखाई हुई। इसलिए नई कहानियों में गाँव पीछे छूट गये थे।

शिवमूर्ति का जन्म होता है 1950 ई. में एवं जब वे लिखना छपना शुरू करते हैं तो उनके गाँव का अनुभव अपने पूरे वैभव के साथ हमारे सामने खड़ा होता है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं ‘‘निस्संदेह शिवमूर्ति गांव की जिंदगी में इतने रचे बसे हैं कि उन्हें पढ़ते हुए रेणु और श्रीलाल शुक्ल की याद आती है। गांव में किसान के साथ उनके पशु-पक्षी विशेषतः गाय-बैल जरुर आते हैं। रेणु, शेखर जोशी, विद्यासागर नौटियाल की कथाओं में इनकी जगह है।’’5  इससे स्पष्ट हो जाता है कि शिवमूर्ति ग्रामीण चेतना के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। शिवमूर्ति जब तेरह साल के थे तभी से उन्होंने कहानी लिखनी शुरु कर दी थी। तेरह साल की उम्र ही क्या होती है? फिर भी शिवमूर्ति के शब्दों में ‘‘मेरी उम्र तेरह साल की रही होगी। मैंने कक्षा सात पास की थी जब मैंने पहली कहानी लिखी थी।... उसकी एक चरित्र है मंगली। हमारे गाँव का एक लड़का था। जिसकी कहानी मैंने लिखी थी। कृषि की कॉपी पर जिसकी एक साइड कृषि-यंत्रों के चित्र बनाने के लिए प्लेन रहती थी। उसी भाग पर लिखी थी। पैन्सिल से। वही मेरा पहला प्रयास था’’’6 लेकिन शिवमूर्ति इस कहानी को कभी प्रकाशित नहीं करते हैं। बस बताते हैं कि लिखी। यानी शिवमूर्ति के अंदर लेखक बनने का बीज तो बहुत कम उम्र में पड़ गया था। वह अंकुरित होता है और पाँच साल बाद। शिवमूर्ति की पहली कहानी मुझे जीना है’ ‘युवकपत्रिका में सन् 1968 ई. में छपी। उस समय उनकी उम्र 18 वर्ष थी। यह कहानी शोषण के विरुद्ध प्रतिकार की कहानी है। लेकिन शिवमूर्ति इस प्रकार की कहानियों को अपनी कहानियों में नहीं गिनते हैं। जैसे सेना के जवान अपनी नौकरी के पाँच  सालों की ट्रेनिंग को अपनी पोस्टिंग में नहीं गिनते। ठीक वैसे ही। फिर भी आधार का काम तो यह ट्रेनिंग ही करती है। शिवमूर्ति भले मुझे जीना हैको अपने कहानी संग्रह में शामिल न करें। लेकिन शोषण के प्रति आवाज उठानाही उनकी कहानियों के लिए आधार का काम करती है। शिवमूर्ति के मन में शोषण के प्रति वितृष्णा बचपन से थी जिसे उन्होंने अपनी कहानियों में अभिव्यक्त किया है। शिवमूर्ति ने वही लिखा जो उन्होंने जिया। उन्होंने कभी भी समाज सुधारक की भूमिका का पाखण्ड नहीं किया। वे हमेशा लेखकीय पाखण्ड से मुक्त रहे। उनकी कहानियों के पात्र पाठकों के साथ सहज ही जुड़ जाते हैं |

   समकालीन लेखकों से अलग शिवमूर्ति के कथा साहित्य में कथा तत्वकी उपलब्धता पर्याप्त मात्रा में होती है। इनकी रोचकता और घटनाओं की बुनावट पाठक को कहानी से बाँधे रखती है। शिवमूर्ति के कथा लेखन में अधिकांशत: इनके भोगे यथार्थ के तत्व उपस्थित रहते हैं। वे अपने जीवन की या अपने आस-पास की घटनाओं को अपने साहित्य में इस तरह से उपयोग में लाते हैं कि वह मूलकथा का प्रासंगिक अंग बन जाता है। शिवमूर्ति के अधिकांश पात्र तो इनके आस-पास (जानने वाले) और अपनेही होते हैं। एक लेख में इन्होंने लिखा है ‘‘मुझे कलम पकड़ने के लिए बाध्य करने वाले मेरे पात्र होते हैं। उन्हीं का दबाव होता है जो अन्य कामों को रोककर कागज कलम की खोज शुरू होती है। जिन्दगी के सफर में अलग-अलग समय पर पात्रों से मुलाकात हुई, परिचय हुआ। इनकी जीवंतता, जीवटत, दु:ख या इन पर हुए जुल्म ने इनसे निकटता पैदा की। ऐसे पात्रों की पूरी भीड़ है।...कितने-कितने लोग हैं। कुछ जीवित, कुछ मृत, कई चरित्रों के समुच्चय। सब एक-दूसरे को पीछे धकेलकर आगे आ जाना चाहते हैं।’’7

 वह चाहे कसाईबाड़ाका अधरंगी या तिरिया चरित्तरकी विमली, ‘केशर-कस्तूरीकी केशर, ‘त्रिशूलका पाले, ‘तर्पणके पियारे और राजपती, ‘आखिरी छलांगके पहलवान, ये सभी पात्र एवं इनसे जुड़ी कथाएँ लगभग सत्य रूप में वर्णित हैं। 1968 ई. से लेकर आज तक इनका लेखन कर्म जारी है। हिन्दी के आधुनिक कथाकारों में शिवमूर्ति की एक अलग पहचान है। इनकी रचनाओं में कथ्य और शिल्प का एक नया प्रयोग दिखाई देता है। शिवमूर्ति को साहित्य के प्रति लगाव उनके अपने परिवेश एवं परिवार से मिला है। शिवमूर्ति के लेखन में सबसे महत्वपूर्ण इनकी भाषा है। भाषा में भी गाँव की सरल- सहज, मुहावरों और बोल चाल की भाषा जो सहज ही सम्प्रेषणीय होती है। इन्होंने ग्रामीण भाषा एवं लोकोक्तियों का भी जमकर प्रयोग अपनी रचनाओं में किया, जिससे रचना में एक अलग तरह की शक्ति आ जाती है।

  शिवमूर्ति के लेखन में सबसे ज्यादा योगदान उनकी पत्नी सरिता जी का है। सरिता जी ही उनकी कहानियों की पहली श्रोता भी होती हैं। शिवमूर्ति सरिता जी के बारे में कहते हैं ‘‘सरिता जी तो हमारी पितु-मातु सहायक स्वामि सखा सब कुछ हैं। उनके ही टोकने-पीटने से मैं एक जमाने में बेरोजगार से बा-रोजगार हुआ था। उन्हीं के पीछे पड़ने से लेखक बना रह गया। वे लेखक के लिए जरुरी कच्चे माल-कथानक संवाद और गीत की सबसे बड़ी खान हैं,स्टोर हैं।...और वे मेरी रचनाओं की पहली श्रोता/ पाठक भी होती हैं।’’8 

 शिवमूर्ति के रचनात्मक विकास में इनके परिवेश और पत्नी का महत्वपूर्ण योगदान तो है परंतु साथ-सा बचपन में देखे गए नाटक या नौंटकी के संवाद और उसकी कथा के रोमांच ने शिवमूर्ति को कहानी विधा को और आकृष्ट किया। शिवमूर्ति की कहानियां ज्यादातर ग्रामीण परिवेश की आर्थिक, सामाजिक स्थितियों को केन्द्र में रख कर लिखी गई हैं। इनके यहाँ भुखमरी, गरीबी, शोषण और व्यवस्था को लेकर प्रश्नों की झड़ी हैं। इनकी कहनियाँ व्यवस्था के वीभत्स रूप को उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में दिखाती हैं। इनकी कहानियों के पात्र ज्यादातर शोषित और दलित एवं दमित दिखाई पड़ते हैं। खास कर गाँव, किसान एवं मजदूर के जीवन को उन्होंने दर्ज किया है। एक तरह से हम देख सकते हैं कि शिवमूर्ति की कहानी का जो कथानक है वह गाँव के समय और समाज का सच्चा और कच्चा चिट्ठा है। शिवमूर्ति के रचनात्मक व्यक्तित्व के विकास में स्वातंत्र्योत्तर काल के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का स्वर उजागर होता है। शिवमूर्ति ने अपनी रचनाओं में उस समय के समाज के यथार्थ को पकड़ा है तथा उसी को नायक की भूमिका में रखकर सृजनात्मक कर्म को आगे बढ़ाया। शिवमूर्ति की कहानियों में आर्थिक प्रश्न को ज्यादा उभारा गया है।

शिवमूर्ति की कहानियों में बदलते ग्रामीण परिवेश का यथार्थ चित्रण है। भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक शोषण के दृश्य आजादी के बाद बढ़ते गये हैं। शासन प्रशासन तथा सरकारी कार्यों में राजनीतिक  स्वार्थ का दायरा बढ़ता गया। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि स्वार्थी लोगों के लिए समाज व्यक्ति और राष्ट्र से कोई मतलब नहीं रहा व्यक्तिगत हितों के लिए वे मानवीय मूल्यों का शोषण करने लगे। इनके चारित्रिक पतन को शिवमूर्ति ने अपनी दृष्टि से देखा और लिखा। राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को जस का तस शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में उजागर किया है। कसाईबाड़ाशिवमूर्ति की एक ऐसी कहानी है जिसमें राजनीतिक प्रशासन के भ्रष्ट स्वरूप को उकेरा गया है। शिवमूर्ति ने अपने जीवन में जो कुछ अनुभव किया उसका वर्णन उनकी कहानियों में दिखाई देता है। उन्होंने भोगे हुए यथार्थ को अपनी रचनात्मकता के माध्यम से व्यक्त किया। या यूँ कहें कि शिवमूर्ति ने व्यक्तिगत जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं का सृजनात्मक रूप में चित्रण बड़ी सजीवता के साथ किया है। शिवमूर्ति की कहानियों की पृष्ठभूमि में उत्तर भारत का समाज है। उसमें भी पूर्वी हिस्सों पर वे ज्यादा केन्द्रित हैं। शिवमूर्ति सृजनात्मक लेखन के क्षेत्र में एक पैनी दृष्टि लेकर आते हैं और कहानी को बराबर सत्य की मानवीय विचारधारा के साथ जोड़ने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इनकी कहानियों में सामाजिकता का पहलू तो हमेशा से था लेकिन शुरूआती दिनों में उनकी रचनात्मक दृष्टि उतनी साफ नहीं थी जो कि बाद की कहानियों में दिखाई देती है।

 शिवमूर्ति के रचनात्मक व्यक्तित्व पर प्रेमचंद और रेणु के प्रभाव हैं। ये रेणु की भाषा-शैली से काफी प्रभावित हैं। इसलिए इनकी रचनाओं पर रेणु की भाषा-शैली की छाप दिखाई पड़ती है। उनकी कहानियों में हमें मानव जीवन के विविध पक्षों के चित्रण जिंदादिली के साथ मिलते हैं। वे रचना को सही ढंग से प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश करते हैं। शिवमूर्ति अपनी रचनाओं की सृजनात्मकता के लिए खाद-पानी अपने पास के जीवन से ही ग्रहण करते हैं। शिवमूर्ति कहते हैं ‘‘मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या विचारधारा से नियंत्रित नहीं होता। जीवन को उसकी सघनता और निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं। पहले का यथार्थ यह था कि कसाईबाड़ाकी हरिजन स्त्री सनीचरी धोखे-जबरदस्ती से मार दी जाती थी...उसकी खेती-बारी हड़प ली जाती थी। आज का यथार्थ तर्पणमें है। सनीचरी जैसे चरित्रों की अगली पीढ़ी रजपतिया के साथ जबरदस्ती का प्रयास होता है तो गाँव के सारे दलित इकट्ठा हो जाते हैं। सिर्फ इकट्ठा नहीं बल्कि उस लड़ाई में वे हर संकट का सामना करते हैं। वे लड़ाई जीतने के लिए हर चीज का सहारा लेते हैं। उसमें उचित या अनुचित का सवाल भी इतना प्रासंगिक नहीं लगता। उनके लिए हर वह सहारा उचित है जो उनके संघर्ष को धार दे सके। पहले थोड़ा अमूर्तन भी था। अब टोले का विभाजन दो प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में सामने खड़ा है। जातियों के समीकरण पहली कतार में आ गये हैं। 1980 ई. से 2000 ई.तक जो परिर्वतन आया वह साफ मेरी रचनाओं में दिखता है।...दुखी-दलित लोग संगठन बना रहे हैं एका बनाकर सामने आ रहे हैं।’’9  इससे स्पष्ट होता है कि शिवमूर्ति अपने समय और समाज को उसकी पूरी वास्तविकता के साथ पकड़ते हैं, क्योंकि कोई भी रचना समय सापेक्ष होती है, उससे इतर नहीं।

 शिवमूर्ति की कहानियों के केन्द्र में मुख्य पात्र स्त्री हैं। वह स्त्री चाहे दलित हो या सवर्ण। उनका कहना है कि दलित स्त्री तो प्रताड़ित है ही, जो गैर दलित हैं वे भी प्रताड़ित हैं। शिवमूर्ति यथार्थवादी कथाकार हैं। लेकिन उनका यथार्थ एक आयामी यथार्थ नहीं है। उनका यथार्थ बहुत गुम्फित होता है। याद आते हैं मुक्तिबोध ‘‘यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं, साथ ही पूरा यथार्थ गतिशील होता है। अभिव्यक्ति के विषय बन कर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है वह भी ऐसा ही गतिशील है, और उसके तत्व भी परस्पर गुम्फित हैं। यही कारण है कि मैं छोटी कविताएँ लिख नहीं पाता और जो छोटी होती हैं वे वस्तुतः छोटी न होकर अधूरी होती हैं।’’10  इसलिए जैसे मुक्तिबोध की कविताएँ लम्बी होती जाती हैं, वैसे ही शिवमूर्ति की कहानियां। शिवमूर्ति की लगभग सारी कहानियां औपन्यासिक विन्यास लिए हुए हैं। लार्जर दैन लाइफकी कहानियां हैं, शिवमूर्ति के यहाँ। इसलिए जैसे रीयल लाईफ’ (सचमुच के जीवन) में आप पचासों लोगों से एक दिन में मिलते हैं और सैकड़ो लोगों को देखते हैं, ठीक वैसे ही शिवमूर्ति के यहाँ यथार्थ चित्रित हो जाता है। कंवल भारती लिखते हैं ‘‘शिवमूर्ति आदर्शवादी नहीं हैं....वह यथार्थवादी हैं। यथार्थ कितना वीभत्स हो, वह उसे वैसे ही चित्रित करने में विश्वास करते हैं। इसलिए उनकी कहानियां गाँवों के यथार्थ की एक बेहतरीन फोटोग्राफी हैं।’’11 अपनी पूरी अंतर्वस्तु और कथातत्व के साथ । साथ ही साथ यथार्थ का एक भी ऐसा कोना नहीं छोड़ते कि जिससे किसी को कुछ मौका मिले। गाँव के वर्णन, भाषा-बोली, राजनीति के साथ-साथ लोकगीतों की ऐसी सुंदर और मनमोहक छवि प्रस्तुत करते हैं कि बरबस ही वाहऔर फिर उस गीत के दर्द समझते हुए आहनिकल पड़ते हैं।

निष्कर्षतः शिवमूर्ति हमारे समय के प्रेमचंद की परंपरा के एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं। शिवमूर्ति का जन्म एक गरीब ग्रामीण परिवार में हुआ था। इसलिए ग्रामीण समाज से उनकी कहानियां नाभिनालबद्ध हैं। साथ ही साथ गाँव की गरीबी और उसकी समस्याएँ उनके कथासंसार में प्रमुखता से स्थान पाती हैं। शिवमूर्ति का जीवन बचपन से ही बहुत संघर्षपूर्ण बीता। इसलिए संघर्ष उनकी कहानियों का बीज तत्व है। उन्होंने कुछ कहानियां और कुछ उपन्यास लिखकर हिन्दी कथासाहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया, बिल्कुल महान कहानीकार चन्द्रधर शर्मा गुलेरीकी तरह। गुलेरी जी तीन कहानियां ही लिखकर हिन्दी कथासाहित्य में अमर हो गएं, उसी तरह शिवमूर्ति का रचना संसार भी है, कम लेकिन महत्वपूर्ण। शिवमूर्ति का पूरा साहित्य ग्रामीण समाज पर आधारित है। शिवमूर्ति एकमात्र ऐसे हिन्दी कहानीकार हैं जो ग्रामीण जीवन के अलावा और किसी जीवन या समाज के बारे में कुछ लिख ही नहीं पाये हैं।

 गाँव से निकलने के बाद शिवमूर्ति ने स्कूल मास्टरी, रेलवे की नौकरी और लखनऊ में अफसर की नौकरी की। इतनी सारी नौकरियों और इनसे प्राप्त अनुभवों को आत्मसात् करने के बावजूद भी शिवमूर्ति सिर्फ और सिर्फ अभी तक गाँव की ही कहानियों को लिपिबद्ध करते आ रहे हैं। इससे शिवमूर्ति की प्रतिबद्धता का हमें पता चलता है। शिवमूर्ति यदि चाहते तो अपनी नौकरी के अनुभवों को भी कथासाहित्य में पिरो सकते थे। शिवमूर्ति ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में गाँव की आपबीती को बहुत ही कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है। एक साक्षात्कार में शिवमूर्ति की आत्मस्वीकृति है कि ग्रामीण जीवन की ही इतनी अलिखित कहानियां हैं कि मुझे लगता है कि एक जीवन इसके लिए नाकाफी है। कहा जा सकता है कि शिवमूर्ति हिन्दी कथा-साहित्य के श्रेष्ठ ग्रामीण कथाकार हैं। शिवमूर्ति की कहानियों को पढ़ने का मतलब है कि उत्तर भारत की जनता के जीवन को पढ़ना।

सन्दर्भ ग्रंथ-

1.  संपादक मयंक खरे,अतिथि संपादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011 पृष्ठ सं-32 
2.  वही, पृष्ठ सं-166 
3.  वही, पृष्ठ सं-58 
4.  डाँ शम्भुनाथ, संस्कृति की उत्तरकथा, वाणी प्रकाशन, सं-2000, पृष्ठ सं-46 
5.   संपादक मयंक खरे, अतिथि संपादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011 पृष्ठ सं-35 
6.  प्रधान  सं- विजय राय, अतिथि संपादक सुशील सिद्धार्थ, लमही, अक्टूबर-दिसम्बर,2012, पृष्ठ सं-10
 7.  संपादक मयंक खरे, अतिथि संपादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011 पृष्ठ सं-164 
8.  संपादक, रवीन्द्र कालिया, नया ज्ञानोदय, जनवरी, 2008, पृष्ठ सं-109 
9.   शिवमूर्ति, मेरे साक्षात्कार, पहला संस्करण 2014, पृष्ठ सं-120-121 
10. मुक्तिबोधः एक साहित्यि की डायरी, पृष्ठ सं-29-30 
11. संपादक मयंक खरे, अतिथि संपादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011 पृष्ठ सं-203 



रेणु चौधरी (शोधार्थी),गंगा हॉस्टल, जे.एन.यू (9968615613),ई-मेल - renu.jnu14@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019)  चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा

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