व्यंग्यकार
प्रदीप पंत की कहानियों में राजनीति पर व्यंग्य/ कदम सीमा तुलसीराम
प्रदीप पंत का जन्म 24 एप्रैल 1941 हल्द्वानी जिला नैनीताल, उत्तराखंड में जन्म हुआ। इनके पिताजी दुर्गादत्त पंत जी ने स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था, उन्होंने आजादी के बाद पत्रकारिता का कार्य किया। माताजी का नाम ललिता पंत है, इन्हें उत्तराखंड के कुमाऊ जिसे कूर्मांचल भी कहा जाता है, वहाँ की लोक संस्कृति में बहुत दिलचस्पी थी। उन्होंने ‘पूर्वांचल के संस्कार गीत’ और ‘पूर्वांचल के होली गीत’ दो पुस्तकों की रचना की। व्यंग्यकार प्रदीप पंत को अपने घर के साहित्यिक वातावरण से साहित्य सृजन की प्रेरणा मिली है। प्रदीप पंत निरंतर चालीस-पचास साल से साहित्य सृजन कर रहे हैं। उपन्यासकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, अनुवादक, समीक्षक, संपादक हैं।
एक समारोह में डॉ. गंगाप्रसाद विमल ने कहा- “आज प्रदीप पंत को व्यंग्यश्री से सम्मानित करके हिंदी भवन ने
अभी तक दिए जाने वाले व्यंग्यश्री सम्मानों में इजाफा किया है। प्रदीप पंत ऐसे
व्यंग्यकार हैं, जिन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, राजनीतिक हर प्रकार की
विसंगतियों पर व्यंग्य लिखे हैं। पंत, परसाई के बाद के उन लेखकों में से हैं जिनका
लेखन का दायरा विषयगत विविधता के कारण बहुत व्यापक है।”1
प्रदीप पंत का हिंदी साहित्य में मूर्धन्य स्थान है।
साहित्य
और राजनीति के बीच गहरा संबंध है यानी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। आदिकाल से ही
साहित्य में राजनीति का चित्रण होता आया है। राजनीति से समाज और साहित्य में बदलाव
आता है। समय-समय पर बदलती राजनीतिक परिस्थितियाँ साहित्य पर गहरा प्रभाव डालती है।
समाज और राचनीति के आपसी घनिष्ठ संबंधों पर मुंशी प्रेमचंद ने कहा है कि - “जिस भाषा के साहित्य का साहित्य अच्छा होगा, उसका समाज भी
अच्छा होगा, समाज के अच्छे होने पर स्वभावत:
राजनीति भी अच्छी होगी। ये तीनों साथ-साथ चलनेवाली चीजे हैं, इन तोनों के उद्देश्य
एक हैं। यथार्थ में साहित्य और राजनीति का मिलन बिन्दू है।”2 प्राचीन काल से साहित्य पर धर्म का
प्रभाव अधिक रहा है। उसके साथ-साथ राजनीतिक परिस्थितियों का भी प्रभाव है, तथा
उसका विवरण प्रत्येक काल के साहित्य में आया है। ‘महाभारत’ जैसी बड़ी रचना में राजनीति का चित्रण हुआ है। साहित्य और
राजनीति समाज को नैराश्यपूर्ण अंधकार से बाहर निकालने के कार्य करते हैं। लेखक समाज
पर पड़े परिणामों का अध्ययन साहित्य के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। साहित्य और
राजनीति की आधारभूमि एक ही होती है और दोनों में परस्पर गहरे संबंध स्थापित हैं।
लेखक जिस समाज में रहता है, वह सामाजिक परिवेश
और परिस्थितियों से प्रभावित होता है। वह जिस माहौल में साँस लेता है, उससे दैनंदिन
समस्याओं का उसके स्वभाव और संवेदनशीलता पर गहरा असर पड़ता है। लेखक समाज में रहते
हुए सामाजिक अनुभूतियों को आत्मसात करते हुए समस्याओं का भी सामना करता है। आसपास
के माहौल और स्वयं का अनुभव, भोगा हुआ यथार्थ उसका प्रमाणिक यथार्थ दस्तावेज बनता
है। लेखक समाज की समस्याओं को अपनी साहित्यिक रचनाओं में अभिव्यक्त करता है। लेखक
अपने साहित्य सृजन में अर्थशास्त्री, नेता, राजनीति की तरह समस्याओं को स्थूल रूप
में प्रस्तुत नहीं करता है। वह रोटी, कपड़ा, मकान, सामाजिक विषमता आदि समस्याओं के
समाधान के लिए नारेबाजी नहीं करता, रैलियों का आयोजन नहीं करता, वह भाषणबाजी भी
नहीं करता, वह उसे सूक्ष्म रूप में साहित्य के माध्यम से समाज के सामने रखता है। साहित्यकार
समाज को अपनी पैनी दृष्टि से देखता है। राजनीति जनता के हित में प्रयत्नशील होती है और साहित्य भी उससे प्रभावित है।
आजाद
भारत में राजनीति में स्वार्थी प्रवृत्ति ने जन्म लिया। नेताओं में राजनीतिक इच्छा
का अभाव, स्वार्थ की भावना, पद की लालसा अधिक बढ़ गयी है। प्रशासनिक वर्ग सत्ता और
नेताओं की पिछलग्गू बना है और आम जनता की उपेक्षा करता है, यह वर्ग नेताओं के
भ्रष्टाचार में सहभागी है। राजनीति में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी चरम सीमा पर पहुँच
गयी हैं। आम जनता की उपेक्षा के कारण व्यक्ति की आर्थिक स्थिति निरंतर गिरती गयी
है। कहानीकार प्रदीप पंत ने भारतीय राजनीति के यथार्थ की छवि को कहानी ‘वह यत्र-तत्र-सर्वत्र’
में दर्शाया है। इस कहानी के दो पात्र भारतीय राजनीति पर चर्चा करते हुए आगे बढ़ते
हैं। उनमें एक दोस्त अर्थशास्त्री है। चुनावों के दौरान वे अति व्यस्त हो जाते
हैं। उनके पास अपने परिवार बीवी-बच्चों को मिलने तक का समय नहीं है। एक मित्र
सोचता है कि ये मेरा मित्र अचानक चुनाव के समय ही इतना व्यस्त क्यों हो जाता है? उसे इस बात का पता चलता है। उन्होंने देखा कि वह सवेरे एक
पार्टी के दफ्तर में होता है, दोपहर को दूसरी, शाम को तीसरी और रात को चौथी पार्टी
के दफ्तर में। यह देखकर वह चौंक जाता है और अपने मित्र को पूछा कि अरे ये माजरा
क्या है? मित्र ने कहा कि हर पार्टी मुझे
बुलाती है। आगे उन्होंने कहा कि देश में अर्थशास्त्रियों की भारी कमी है। अर्थशास्त्री
अमर्त्य सेन की तरह गरीबों में साक्षरता, शिक्षा प्रसार और स्वास्थ्य संबंधी मूलभूत
सविधाएँ पहुँचाने की बात करते हैं, वे भी भला कोई अर्थशास्त्री हैं। उदारीकरण ने
अर्थशास्त्र की परिभाषा ही बदल दी है। जो इस परिभाषा को समझता है, वही असली
अर्थशास्त्री है। अर्थशास्त्री मित्र ने आगे कहा कि इसलिए मुझ जैसे अर्थशास्त्री
की हर एक पार्टी को जरूरत है। प्रत्येक पार्टी अपना चुनावी घोषणापात्र का आर्थिक
मुद्दा मुझसे लिखवाती है। कहानीकार प्रदीप पंत ने भारतीय राजनीति के यथार्थ को इस
प्रकार बयाँ किया है -
“मैंने
कहा, ‘यह तो करिश्मा है।”
वह बोला, “कोई
करिश्मा नहीं है। पहले हर पार्टी जब विरोध पक्ष में होती थी तो उदारीकरण के खिलाफ
होती थी, लेकिन सत्ता में आते ही वह कहने लगती कि उदारीकरण जारी रहेगा, तभी हमें
ऊर्जा मिलेगी, विश्व बैंक से सहायता मिलेगी। अब हर पार्टी सत्ता में आने से पहले
ही अपने चुनाव घोषणा पत्र में लिख डालती है कि आर्थिक सुधार जारी रहेंगे। मैं इसी
बात को अलग-अलग पार्टियों के चुनाव घोषणापत्र में अलग-अलग ढंग से लिख डालता हूँ। कहीं
आर्थिक सुधार उदारीकरण कहलाते हैं, कहीं अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण और कहीं खुली
अर्थव्यवस्था। सबका मतलब एक ही है।”3
भारतीय राजनीति की यह सच्चाई है।
विपक्ष हर संभव सरकार के निर्णयों का विरोध करता है। जब वह सत्ता में आता है तो
पूर्व सरकार के सभी नियमों को लागू करता है। पूर्व मनमोहन सिंह की सरकार ने आधार
कार्ड, एफडीआई के निर्णय लिये थे तब विपक्ष के नेताओं ने उसका पूरजोर विरोध किया।
सत्ता बदलते ही मोदी सरकार ने आधार कार्ड, एफडीआई जैसे निर्णयों को अनिवार्य कर
दिया। भारतीय राजनीति की यही सच्चाई है। गरीबी दूर करने, किसानों की आर्थिक सुधार
के लिए आर्थिक सुधार पैकेज उनको दिया जाता है किंतु यह पैकेज उन तक पहुँचता ही
नहीं है। मित्र ने अर्थशास्त्री से पूछा गरीबी कैसे दूर होगी, क्या तुम चाहते हो कि
अपने देश में गरीबी रेखा न हो? प्रदीप पंत ने कहानी के द्वारा
राजनीति के षड़यत्र को दर्शाया है- “हाँ,
यही चाहता हूँ मैं।” मैंने कहा।
उसने ठहाका लगया, “बहुत
खूब! अगर गरीबी रेखा नहीं होगी तो गरीबी
दूर करने की योजनाएँ और कार्यक्रम कैसे बनाए जाएँगे?
लगता है, तुम चाहते हो कि ये योजनाएँ और कार्यक्रम न हों। यह राष्ट्र–विरोधी सोच
है और तुम इसकी चर्चा किसी से मत करना।”
मैं चकित भाव से उसकी ओर देखने लगा।
वह धारा प्रवाह बोल रहा था, “ये जो आर्थिक सुधार, उदारीकरण वगैरह हैं, इनका भी संबंध गरीबी
रेखा से है। जितने अधिक आर्थिक सुधार होंगे, जितना ज्यादा उदारीकरण होगा, उतनी
अधिक गरीबी रेखा बढ़ेगी और तब उतनी ही ज्यादा मात्रा में गरीबी दूर करने की
योजनाएँ और कार्यक्रम बनेंगे। इस तरह उदारीकरण और गरीबी दूर करने की योजनाएँ और
कार्यक्रम बनेंगे। इस तरह उदारीकरण और गरीबी दूर करने के कार्यक्रमों का एक-दूसरे
से घनिष्ठ संबंध है। आधुनिक अर्थशास्त्र के इस सिद्धांत को समझने की कोशिश करो।”4 यही भारतीय राजनीति की सच्चाई है। गरीबों
के लिए, किसान सुधार के लिए योजनाओं में करोड़ों के भ्रष्टाचार होते हैं, इसमें
राजनेता मालामाल होते हैं और गरीब, किसान सदियों से उसी दयनीय स्थिति में जीवन जी
रहे हैं।
भारतीय राजनीति में कई नेता अशिक्षित, अनपढ़
हैं, वो इतने के बाद मंत्री बन जाते हैं। मंत्रियों के पास सामाजिक ज्ञान का अभाव
होता है। प्रदीप पंत ने ‘मंत्री जी के भाषण’ कहानी में इस स्थिति को दर्शाया है, किस प्रकार ऐसे नेताओं
ने देश को पीछे धकेल दिया है- “मंत्री जी धाराप्रवाह बोले जा रहे
थे, “विनिवेश बहुत अच्छी चीज है। ‘वि’ माने नहीं और ‘निवेश’ माने पैसा लगाना। मतलब कि सरकार अब
उद्योग-धंधों पर पैसा नहीं लगाएगी। जिन पर लगाया है, उन्हें बेचेगी, क्योंकि सरकार
उदार है। इसीलिए हम उदारीकरण की बात करते हैं। उदारता के साथ उद्योग-धंधों को
बेचना चाहते हैं। लेकिन हमारे देश के उद्योगपति उदारतापूर्वक बेचे जाने वाले
उद्योग-धंधों को भी खरीदने के लिए आगे नहीं आना चाहते हैं। कोई बात नहीं। हम
प्राचीन संस्कृति के पुजारी हैं। हमारी प्राचीन संस्कृति में उदारीकरण का परिचय
देते हुए कहा गया है – वसुधैव कुटुंबकम् !
अर्थात सारी धरती, सारा भूमंडल कुटुंब है ! इसीलिए
पूरे भूमंडल में कहीं से भी कोई भी हमारे उद्योग-धंधों को खरीदने आए, हम
उदारतापूर्वक, यहाँ तक कि घाटे में भी, उन्हें बेचने को तैयार हैं। कुछ लोग
मंडलीकरण में विश्वास करते हैं, हम भूमंडलीकरण में विश्वास करते हैं। तो यह है
विनिवेश, उदारीकरण और भूमंडलीकरण...”5 भारतीय राजनीति में कई नेताओं की यही असलीयत रही है और आज भी
है। आजादी के बाद देश में सांप्रदायिक दंगे हुए, धर्म, जाति और क्षेत्रवाद,
भाषावाद आदि के मुद्दे चुनावों के आधार बनाये जाते हैं। देश को आजादी मिलना हर एक भारतीय
व्यक्ति का लक्ष्य था और आजादी मिलने के बाद देश में एक नया संविधान लागू हुआ और लोगों
को लगा कि सभी को सभी अधिकार मिलेंगे, किंतु ऐसा नहीं हो सका और जनता का मोहभंग हो
गया। भारतीय राजनीति का परिदृश्य आजादी के बाद तीव्र गति से बदलता गया। डॉ.
लक्ष्मीराय ने इस स्थिति को दर्शाते हुए लिखा - “स्वतंत्रता
के उपरान्त भारतीय राजनीतिक और सामाजिक जीवन में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन आयें।
स्वतंत्रता ने जहाँ आर्थिक और सामाजिक विकास के द्वार उन्मुक्त किये वहाँ सत्ता के
केन्द्रीयकरण और आर्थिक स्रोतों के एकाधिकार के कारण कई समस्याएँ भी उठ खड़ी हुईं।
इसके साथ देश में एक सुविधाभोगी सम्पन्न वर्ग अस्तित्व में आया, जिससे जनसाधारण का
दारिद्रय निरन्तर बढ़ता गया। कुछ सम्पन्न लोगों के हाथों में सत्ता और अर्थ के
पूंजीभूत होने के कारण मानवीय प्रवृत्तियों, सामाजिक व्यवहारों और पारस्पारिक
सम्बन्धों में भी अन्तर उपस्थित हुए, फलत:
प्रजा और शासक के बीच की विसंगति भी बढ़ी।”6 प्रदीप पंत ने अपनी कहानियों में भारतीय राजनीति, सामाजिक
स्थिति और आर्थिक विषमता की वास्तविकता को उजागर किया।
देश में चुनाव के माहौल में नेता लोग पैसा
जुटाने में लग जाते हैं। देश में कभी-कभी सूखा पड़ता है, तब मुख्यमंत्री सूखा
सहायता के लिए चिंतित होकर योजनाओं पर विचार विमर्श करते हैं। प्रदीप पंत ने ‘सूखा सहायता की राजनीति’ कहानी
में सूखा सहायता पर होने वाली राजनीति और आर्थिक सहयोग में होनेवाले भ्रष्टाचार की
वास्तविकता को उजागर किया है। मुख्यमंत्री ने बैठक में अन्य मंत्रियों से कहा कि
भाइयों, जैसा कि आप सभी जानते हैं, आगामी चुनाव निकट आया है। उसके लिए अभी से ही
तैयारी में जुट जाना चाहिए। इधर राज्य में भयंकर सूखा भी पड़ा है। छोटा-मोटा सूखा
पड़ता तो लोग ध्यान नहीं देते लेकिन भयंकर सूखा पड़ गया है, इसलिए लोगों के ध्यान
उसपर रहेंगे। सूखा सहायता के लिए अच्छे चंदे इकट्ठे हो जायेंगे। किंतु ध्यान रहे
कि हमारे विरोधी पहले ही चंदे इकट्ठा कर लें। इसके लिए सावधान रहने की आवश्यकता
है। राजनीतिक दल ऐसे मौके के फायदे उठाकर करोड़ों के भ्रष्टाचार करते हैं। इस
कहानी के पात्र मंत्री श्री रामखिलावन कहते हैं- “सूखा
और चुनाव दोनों के लिए धन की आवश्यकता है।” सूखा
सहायता मंत्री श्री रामखिलावन ने बात आगे बढ़ाई, “सच
तो यह है कि सूखे के लिए कम चुनाव के लिए अधिक धन की आवश्यकता है। अत: क्यों न हम लोग राज्य भर में सूखा सहायता के नाम पर धन
इकट्ठा करें और उसका उपयोग चुनावों में कर डालें। सूखे से तो चंद मामूली लोग ही
मरेंगे, लेकिन अगर चुनावों में धन की कमी से हम हार गए तो इस प्रदेश का क्या होगा! कौन बेड़ा पार लगाएगा!”7 यह कितनी बड़ी विडंबना है, मंत्री को सूखा से पीड़ित लोगों
की चिंता नहीं है, उन्हें सूखा के नाम पर चंदा इकट्ठा कर चुनाव जीतकर सत्ता में
आने की चिंता है। भारतीय राजनीति में आज की यह सच्चाई है। नेताओं की कथनी और करनी
में बहुत फर्क है। नेता, मंत्री बड़े-बड़े वादे करते हैं और सत्ता में आकर जनता को
ठगते हैं। लोगों से इकट्ठा किया हुआ धन चुनाव में लगा दिया जाता है। मंत्री कहते
हैं कि लोगों के धन हैं, लोगों पर ही खर्च होंगे। जहाँ तक सूखे मे सहायता के धन खर्च
करने की बात है, वो तो केंद्र सरकार का दायित्व है। दूसरे मंत्री ने कहा कि
मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के पास जाकर सूखा सहायता के लिए धन की मांग करें। यदि
केंद्र सरकार पर्याप्त सहायता न दे तो हमें इसी को चुनाव का मुद्दा बना देना
चाहिए। कहानीकार ने इस भ्रष्ट राजनीति की वास्तविकता को दिखाया है। सूखा पीड़ित
लोगों की सहायता के लिए विशेषज्ञों के द्वारा सूखा पीड़ित क्षेत्रों का हवाई
सर्वेक्षण किया जाता है।
अखिर
उसकी रिपोर्ट पेश की जाती है। “मुख्यमंत्री भी मुस्कराए और
मुस्कराते हुए प्रदेश की राजधानी लौट आए! लौटकर
उन्होंने केंद्र सरकार के खिलाफ जोरदार अभियान छेड़ दिया, “दैवी विपत्ति में राज्य को आर्थिक सहायता देने के बजाय
केंद्रीय मंत्री शराब की दुकानें खोलने की राय दे रहे हैं। ऐसा नहीं कि शराब की
दुकानें खोलने पर हमें आपत्ति है। हमें कतई आपत्ति नहीं है। राज्य की जनसंख्या हर
साल बढ़ रही है और शराब पीने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। यह एक अच्छी बात है।
इससे प्रतीत होता है कि हमारे राज्य में समृद्धि आ रही है। लेकिन हम राज्य की आय
के स्रोतों से क्यों सूखा-सहायता करें, हमें केंद्र सरकार से धन चाहिए।”8 मुख्यमंत्री के इस बयान से यह समझ
सकते हैं कि देश की राजनीति की क्या हालत है!
कहानीकार ने भारतीय राजनीति पर करारी चोट करते हुए व्यंग्य किया है। देश में
प्रतिवर्ष कहीं बाढ़ आती है तो कहीं सूखा पड़ जाता है। पीड़ित लोगों को मुआवजा कभी
पहुँचता ही नहीं है। आर्थिक सहायता नेताओं के खाते में पहुँच जाती है। यही सच्चाई
है। देश में जगह-जगह शराब की दुकानें खोली जा रही हैं, जिससे सरकार को भारी टैक्स
मिलता है। शराब से प्रतिवर्ष हजारों लोगों की जानें जाती हैं, अपघात होते हैं।
सरकार में बैठे मंत्रियों को सिर्फ पैसा चाहिए, लोगों की जान की कीमत उनके लिए
महत्व की नहीं हैं, उनके लिए शराब की दुकानें महत्व की हैं। यह वर्तमान भारतीय
राजनीति की वास्तविकता है, जिसे कहानीकार ने कहानियों के माध्यम से साहित्यजगत के
सामने प्रस्तुत किया है।
हर एक राजनीतिक दल धर्म-जाति को आश्रय देते
हैं। हर एक राजनीतिक दल धर्म-जाति को देखकर ही प्रत्याशियों को चुनाव में उतारता
है। कोई दल सत्ता में आने के बाद मंत्रिमंडल में भी जाति-धर्म को देखकर ही मंत्री
पद देता है। आजादी के बाद देश की राजनीतिक मूल्यों का विघटन होता गया। आजादी के
लिए नेता और जनता ने अपनी जानों की कुर्बानियाँ दीं। लेकिन आजादी के बाद राजनीति
में लिप्त भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद रिश्वतखोरी, सांप्रदायिकता, मूल्यहीनता बढ़ती
गयीं। वर्तमान राजनीति का नाम सुनते ही लोग उसकी ओर तिरस्कार की दृष्टि से देखने
लगे हैं। देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार चरम-सीमा पर है, इसलिए लोग उससे उबने लगे
हैं। प्रतिदिन समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में नेताओं के घोटालों की खबरें आती
हैं। भारतीय राजनीति की आज की स्थिति में अधिकांश नेता, मंत्रियों पर क्रिमिनल केस
और भ्रष्टाचार के आरोप हैं। राजनीति में बाहुबली और अत्याचारी लोगों ने प्रवेश
किया है। भ्रष्ट और सांप्रदायिकता से युक्त राजनीति में सज्जन और अच्छे लोग दूर
होते जा रहे हैं। अगर कोई सज्जन व्यक्ति राजनीति में आता है, तब भ्रष्ट राजनीति
उसका शोषण करती है। राजनीति में इस कदर भ्रष्टाचार लिप्त हो गया है कि आम जनता की
उपेक्षा हो गयी और सदियों से जो मूलभूत अधिकारों से वंचित थे वे आज भी वंचित ही रह
गए हैं। उनके इस स्थिति की जिम्मेदार भारतीय भ्रष्ट राजनीति ही है।
कहानी
‘मुन्ना भाई का नया धंधा’ का पात्र मुन्ना भाई लांड्री वाला था। लेकिन कुछ दिन बाद उसने
यह धंधा बंद कर दिया है। वह कहता है कि वाशिंग-मशीन बनाने वालों ने हम धोबियों को
ही धोबीपाट दे दिया है। अब मुन्नाभाई ने कुर्ता-पजामा की दुकान खोल रखी है। वहाँ
पर कई नेता सफेद टोपी, कुर्ता खरीदने के लिए आते हैं। वह नेताओं से बातचीत भी करता
है। एक नेता कहता है कि टाउन हाल में जलसा होने वाला है। हजारों लोगों की बैठने की
जगह है। हमने दो सौ लोगों का इंतजाम कर लिया है और आठ सौ लोगों की भीड़ चाहिए। मुख्यमंत्री
आनेवाले हैं, इज्जत का सवाल है और एक भी सीट खाली न रहे। मुन्ना भाई लोगों को लाने
की रेट पूछता है- “ट्रक-ट्रैंपों के किराए की दर अलग से
नोट करवाते हैं और भीड़ पहुँचाने का दिन, तारीख, समय खुद नोट करते हैं। लगे हाथों
बता देते हैं, “पैसा एडवांस देना होगा, जनाब! भाव-ताव कोई नहीं।” फिर
पूछते हैं, “कैसी भीड़ चाहिए? झुग्गी-झोपड़ी वाले लोग या थोड़ा पढ़े-लिखे, या फिर...”
नेताजी बताते है, “गरीबों
के उद्धार के लिए सी.एम. भाषण देने वाले हैं। उनके कल्याण की दो-एक एक स्कीमों की
घोषणा भी करेंगे। इसलिए झुग्गी-झोपड़ी वालों की भीड़ होनी चाहिए। औरतें ज्यादा
हों। परेशान और थकी-हारी सी। कुछेक की गोद में बच्चे भी हों-फटेहाल से।”9 यह देश की राजनीति की असली सच्चाई है।
नेताओं की कथनी और करनी में कितना अंतर है, इस संवाद से समझ सकते हैं। आज के कुछ
राजनीतिक नेताओं को समाजहित से कोई मतलब नहीं है, उन्हें अपने स्वार्थहित की
ज्यादा चिंता है।
संदर्भ
ग्रंथ
2.
डॉ. एम.
गंभीर – साठोत्तरी हिंदी काव्य में राजनीतिक चेतना, पृ.सं. 20
3.
प्रदीप
पंत – प्रदीप पंत के 101 प्रतिनिधि व्यंग्य, पृ.सं. 188
4.
वही,
पृ.सं. 189
5.
वही,
पृ.सं. 125
6.
लक्ष्मीनारायण
– आधुनिक हिंदी नाटक चरित : सृष्टि के विविध आयाम, पृ.स. 461
7.
प्रदीप
पंत – प्रदीप पंत के 101 प्रतिनिधि व्यंग्य, पृ.सं. 101
8.
वही,
पृ.सं. 172
9.
वही,
पृ.स. 105
कदम सीमा तुलसीराम, पीएच.डी. हिंदी
कदम सीमा तुलसीराम, पीएच.डी. हिंदी
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,हैदराबाद,मो. नं. 9440728195
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
अपने अभ्यासपुर्ण आर्टिकल से प्रदीप पंतजीको सही न्याय मिला है.अभिनंदन सीमा!...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें