कहानी संग्रह ‘फूलों के बाड़ा’ में संघर्षशील समाज/ सत्य प्रकाश सत्य
कहानी सच्चे अर्थों में समाज के यथार्थ रूप को अभिव्यक्त करने का सशक्त माध्यम
रही है। प्राचीन समय की जनप्रेरित पंचतंत्र की कहानियों, मध्यकाल में आख्यानमूलक कहानियों और आधुनिक युग में प्रेमचंद
युगीन सामाजिक कहानियों को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है। समकालीन कहानियां जहाँ
आमजन के अधिक नजदीक पहुंची हैं, वहीं 21वीं सदी की कहानियां समाज के ज्वलंत मुद्दों को
अभिव्यक्त करती हुई दिखाई पड़ती हैं। इस अभिव्यक्ति में लेखकों ने रोजमर्रा की
घटनाओं का जिक्र बखूबी किया है। साहित्य के सन्दर्भ में यह कहा जाता है कि लेखक
जिस समुदाय से सम्बन्ध रखता है, उसके लेखन में उस
समुदाय की संवेदना अधिक रच-बस जाती है। यह बात मुक्तिबोध के कथन ‘संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक अनुभूति’
के अधिक नजदीक दिखाई पड़ती है। इस प्रकार सर्जक
के सामने स्वानुभूति और सहानुभूति का प्रश्न भी समाप्त हो जाता है। मो.आरिफ़ इसी
शैली और संवेदनात्मकता के रचनाकर हैं। उनकी कहानियों की बानगी एक सीमित बानगी न
होकर विराट परिवेश को निर्मित करती है। उनकी कहानियों में प्रेमचंद की कथागत
विशेषताएँ भी हैं और सामाजिक समस्याओं के गढ़ने का नया ढंग भी मौजूद है। यह दोनों
विशेषताएं उन्हें यथार्थ के और नजदीक लाकर खड़ा करती हैं। उनकी कहानियाँ
साम्प्रदायिकता के वातावरण से आगे निकलकर समाज के विभिन्न संदर्भों को उजागर करने
का माध्यम बनती हैं।
वर्तमान युवा पीढ़ी के रचनाकार आज विभिन्न सामाजिक समस्याओं को अपने रचनात्मक
संसार का आधार बनाकर साहित्य सृजन कर रहे हैं। हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. नामवर
सिंह समकालीन कहानियों के सन्दर्भ में अनायास ही चिंता प्रकट नहीं करते बल्कि उसके
पीछे की रणनीति को भी चिन्हित करते हैं उनका कहना है कि ‘आज की हिंदी कहानियों से मुस्लिम पात्र लगभग गायब है।’
कमलेश्वर प्रबुद्ध लेखक नयी कहानी के दौर का
जिक्र करते हुए कहते हैं कि “उस दौर की
अधिकांश कहानियों की औरतें हिन्दू पत्नियाँ हैं, हिन्दू बहनें हैं, हिन्दू ननदें हैं, हिन्दू सासें
हैं...मुसलमान वेश्याएँ हैं और ईसाई कुल्टाएँ हैं। आदमी हिन्दू पति हैं, हिन्दू भाई हैं, हिन्दू ससुर हैं, मुसलमान गुंडे हैं और भ्रष्ट ईसाई हैं। यह हिन्दूपन इस हद तक हावी हुआ कि
अनजाने ही हमारे लेखक भी ‘हिन्दू’ बने रहे...उन्होंने मुसलमान पात्रों को नहीं
छुआ। अगर बहुत जरूरत पड़ी तो एकाध मुसलमान वेश्याओं को उन्होंने पकड़ा या पतित किस्म
के ईसाइयों को उठा लिया।”1 आलोचकों के मतों
के अनुसार कहा जा सकता है कि आज का कहानीकार अपने समाज के जातिवाद, परम्परावाद, बेईमानी, अवसरवाद, भ्रष्टाचार, आर्थिक समस्या और धार्मिक रूढ़ियों में इस कदर जकड़ा हुआ है
कि वह सच और झूठ के बीच की खाई को पाटने की अपेक्षा उस खाई पर पर्दा डालने का कार्य
कर रहा है। हिन्दी कथा साहित्य के भीतर इस प्रकार के प्रश्न उठाना अनायास ही नहीं
हैं। इसके परिणाम स्वरूप पिछले कुछ दशकों में जिस प्रकार विमर्शो का प्रभाव बढ़ा है,
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि साहित्य
को देखने व समझने का नया दृष्टिकोण निर्मित हुआ है। मो. आरिफ़ की कहानियाँ धर्म,
जाति, स्त्री शोषण, शिक्षा, बेरोजगारी, लाचारी, प्रेम, पुरुषवाद, सरकारी तंत्र का शोषण, विस्थापन जैसे अनेक पहलुओं को पूरी ईमानदारी से उद्घाटित
करते हैं।
हिंदी कहानी के शाश्वत मूल्यों की पड़ताल समय समय पर विद्वानों द्वारा की जाती
रही है। समय के अनुरूप साहित्यकारों की समझ और सामाजिक उपादानों को अपनाने को लेकर
आलोचक प्रश्नचिह्न लगाते रहे हैं। आज 21वीं सदी में प्रश्न उठाना लाजमी है कि क्या सच में कहानी अपने शाश्वत मूल्यों
पर खरी उतरती है? क्या जिस प्रकार
समाज में हिंसा, क्रूरता और वैमनस्यता
ने पैर फैलाये हैं, उसी प्रकार
रचनाकारों ने अभिव्यक्ति का नया ढंग भी ईजाद किया
है? क्या 21वीं सदी में तीव्र वैश्वीकरण, बाज़ार और सूचना प्रौद्योगिकी के युग में
कहानियां तेजी से बदलते हुए मानवीय मूल्यों को सशक्त ढंग से अभिव्यक्त कर पा रही
हैं। मो. आरिफ़ की कहानियां आज के दौर को न केवल व्यवस्थित ढंग से उद्घाटित कर रही
हैं, बल्कि एक नया प्रश्न जो
नयी कहानी से लेकर अंतिम दशक तक दबी रह गयीं उसे सामने रख रही हैं। मो. आरिफ़ मूलतः
हिन्दी भाषा के कथाकार हैं, ‘फूलों का बाड़ा’
उनका कहानी संग्रह है। इस संग्रह में कुल दस
कहानियाँ सम्मिलित हैं।
मो. आरिफ़ की कहानियों में जो सामाजिक समस्याएँ उभरकर आई हैं उनमें प्रमुख रूप
से शिक्षा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सामंतवादी प्रथा, सरकारी मुलाजिमों द्वारा शोषण, स्त्री शोषण,
जातिगत शोषण और धार्मिक शोषण आदि की समस्याएँ
है। उनकी कहानियों में सामाजिक शिक्षा व्यवस्था के दो रूप सामने आते हैं एक
मुस्लिम और दूसरा हिन्दू परिवार की शैक्षणिक स्थिति। इसे दो भागों में बाँटना
जरूरी है क्योंकि आजादी के बाद मुस्लिम अल्पसंख्यक और हिन्दू बहुसंख्यक हैं। ‘मौसम’ कहनी में मुस्लिम जीवन को चित्रित किया गया है। परिवार में शिक्षा की स्थिति
के बारे में रचनाकार लिखते हैं कि “इस घर में दो-दो
पोस्ट ग्रेजुएट हैं...।” मेरी बात बीच से
काटते हुए रशीदा ने जोड़ दिया, “दोनों में एक
फर्स्ट क्लास फर्स्ट और दूसरा सेकेंड क्लास सेकेंड।” मैंने बिना हँसे अपनी बात पूरी की... “और दो-दो ग्रेजुएट हैं और एक इंटर
मीडियेट...कुल पांच...पर सबके बीच में एक भी नौकरी नही।”2 मुस्लिम परिवार की यह स्थिति कोई काल्पनिक नहीं है,
बल्कि इस संदर्भ को सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से
पढ़ा और समझा जा सकता है- “आठ राज्यों में
मिले आकड़ों के मुताबित शिक्षा विभाग में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 6.5 प्रतिशत है जो उनकी प्रतिशत हिस्सेदारी की
तुलना में करीब करीब आधी है।”3 रचनाकार ने इस
कहानी में पिता की शिक्षा के संदर्भ में लिखा है कि “एमएससी फिजिक्स, फर्स्ट क्लास फर्स्ट। बीएससी गुड सेकेंड डिविजन। लेकिन फिर इंटर और हाईस्कूल
दोनों ही प्रथम श्रेणी में। और सबसे नीचे रखी थी उनकी बीएड की डिग्री जिसके बारे
में उन्होंने कभी बताया ही नहीं था। अपने आपको कभी एमएससी बीएड नहीं कहा। हमेशा
कहते एमएससी फिजिक्स, फर्स्ट क्लास
फर्स्ट।”4 अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के फासले को इस कहानी
के परिवेश से समझना चाहिए जबकि उनका मित्र सरकारी स्कूल में पढ़ाता है। ऐसा बिलकुल
नहीं है कि पिता ने कही नौकरी के लिए आवेदन ही नहीं किया हो “उस फ़ाइल में कुछ और सबूत थे। तमाम काल लेटर्स,
जहाँ फिजूल में अब्बू ने इंटरव्यू दिये होंगे।
अख़बारों की कतरने जिसमें नौकरियां थीं, पर अब्बू के लिए नहीं।”5 छोटा बेटा इकबाल
इस हद तक कहने पर मजबूर है कि “सारा दोष
हमारे-आपके नाम में है बड़े भाई। पाँचों पढ़े-लिखे, लेकिन पाँचों बेकार। क्या यह महज इत्तेफाक है, या फिर इसे बैडलक कहकर हवा में उड़ा दें।”6 बड़ा बेटा प्राइवेट स्कूल में अभी लगा था छोटा
बेटा घर पर ट्यूशन पढ़ाता है। छोटी बहन रशीदा भी ट्यूशन में हाथ बटाती है तथा “राशिदा भी ट्यूशन के साथ कपड़े सिलती है। अम्मी
कपड़े के साथ आंगनबाड़ी में पढ़ाती हैं।”7 इसे हमारे समाज की विडंबना कहिये या
मुस्लिमों के साथ दोहरा बर्ताव यह दोनों ही बातों पर प्रश्न खड़ा करती है। सरकार की
सारी योजनाओं का क्या हुआ जो कभी अल्पसंख्यक के नाम पर बनी थी।
भारत में स्त्रियों को प्राचीन काल से ही हाशिये पर धकेला गया, उनके लिए अनेक कानून बनाए गए। मो. आरिफ़ की
कहानियों में स्त्री के कई रूप दिखाई देते हैं। एक ओर मुस्लिम समुदाय की स्त्री और
दूसरी ओर हिन्दू समुदाय की स्त्री स्थिति है। हिन्दू या मुस्लिम दोनों ही समुदायों
में स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष उन्नति नहीं दिखाई देती। मुस्लिम स्त्री की
स्थिति मो. आरिफ़ ने दिखाने का प्रयास किया है इस कहानी में जहाँ “राशिदा भी ट्यूशन के साथ कपड़े सिलती है। अम्मी
कपड़े के साथ आंगनबाड़ी में पढ़ाती हैं।”8 इनकी शिक्षा वर्तमान शिक्षा को ध्यान में रखा जाए तो कम नहीं है “और दो-दो ग्रेजुएट हैं और एक इंटरमीडियेट...कुल
पांच...पर सबके बीच में एक भी नौकरी नही।”9 किन्तु मुस्लिम समाज की स्त्री हिन्दू समाज से कहीं अधिक उपेक्षित हैं एक अपने
समाज के पुरुष के पितृसत्ता से, वहीं दूसरी ओर
धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक होने के कारण भी। मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा और
सामाजिक समानता की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए नासिरा शर्मा कहती हैं “शताब्दियों से मुसलमान औरत अपनी कमजोरियों,
अशिक्षा, बेजा भय से अत्याचार का शिकार होती आई है और इस पीड़ा को ही
अपनी नियति और इस्लाम धर्म की नीति मानकर सबकुछ सहती रहीं है | जहाँ रही, वहीं के भेस में अपने को ढालने की कोशिश की और सबको खुश
रखने में अपने औरत होने की सार्थकता समझी |”10
हिन्दू स्त्री के शोषण का रूप ‘लू’, ‘फुर्सत’, ‘आग’, साइकिल की सवारी’
और ‘फूलों का बाड़ा’ कहानी में सामने
आता है। ‘लू’ कहानी में रिक्शा चालक जोगी पासवान की पत्नी
मांस पकाती है। इस्पेक्टर चौहान बड़े चाव से खाता है और रात में उसकी पत्नी के साथ
कुकर्म करता है। सुबह होते ही वह इस्लामपुर जाने को तैयार हो जाता है। रिक्शेवाला
ले जा रहा होता है। इस्पेक्टर को उसकी पत्नी के साथ बिताई रात याद आती है वह कहता
है “तेरी घरवाली अच्छी है।”
इस अच्छी होने की कसक तभी तक ठीक रहती है,
जबतक जोगी यह नहीं बताता है कि “ऊँची जात की है...सिंहनी। भगा के लाया हूँ
मालिक।”11 मो. आरिफ़ ने समस्याओं को बहुत ही सटीक ढंग से
रखने का प्रयास किया है। इस संग्रह की ‘आग’ कहानी पुर्णतः युद्धरत
स्त्री की कहानी है। कहानी में नायक की माँ अपने ही समाज में जड़ जमा चुकी दहेज़
प्रथा के कारण आज संघर्ष कर रही है, उसका बेटा बोलता है “माँ अस्पताल में
थीं अधजले शरीर के साथ...मृत्यु से संघर्ष करतीं।”12 यह मृत्यु का
संघर्ष आधुनिक युग में नहीं उपजा है यह संघर्ष सदियों से बनायी और गढ़ी गयी परम्परा
एवं संस्कृति का हिस्सा है। जिसमें सभी नियम और कानून केवल स्त्री हेतु बनाये जाते
थे। आज भी उस परम्परा को बनाने वाले समाज में मौजूद हैं। उस परम्परा के पालनहार
हमारे बीच में ही होते हैं। युद्धरत स्त्री की दुर्गति में ऐसा नहीं है केवल
पुरुषों का हाथ रहा है, बल्कि इसमें
स्त्रियों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है। आग लगाते समय बच्चे के पिता ने उस बच्चे
को अपने पैरों से जकड़ लिया था। वहीं उसकी दादी और बुआ के संदर्भ में वह बच्चा
बोलता है “मम्मी चिल्लाये जा रही
थीं। किसी ने कहा डालो। किसी ने कहा माचिस ही नहीं मिल रही है। फिर गड़ गड़ गड़ डब डब
डब की आवाज। जैसे पीपे से पानी गिरता हो। मैंने अपने पैर को मुक्त करके मुन्ना को
जगाना चाहा। वह जाग जाता तो हम दोनों मिलकर पिताजी का मुकाबला करते।”13 ठीक
इस प्रकार ‘साइकिल की सवारी’ कहानी में दिखाया गया है कि सामंतवादी प्रथा के
अभी भी लक्षण हमारे गाँव में मौजूद हैं। किस प्रकार गाँव के सामंती, मुखिया, उच्च जाति के लोग परस्त्री और निम्न जाति की स्त्री का शोषण
किया करते थे उसे देखा जा सकता है “तो सुन जोखुआ,
हम तेरी मेहरिया को मजा चखाएँगे। तब समझेगी
बलात्कार क्या होता है।”14 इतना ही नहीं जबरन उसके ही घर में उसके साथ
दुराचार होता है “सरोजवा के ऊपर
अत्याचार में टोले के कुल सात पुरुष शामिल हुए। घर में ही धर दबोचा। पहले दोनों
हाथ चारपाई में कस के बाँध दिया, फिर मुँह में
कपड़ा ठूँस दिया।”15
इस संग्रह की सबसे बड़ी और मार्मिक कहानी ‘फूलों का बाड़ा’ ही है। इस कहानी की स्त्री शहरी समाज की है जिसकी दो बेटियां हैं। उसका पति
आनंद छोटी मोटी नोक झोक से पत्नी पर शक करने लगता है। शक का दायरा इतना बढ़ जाता है
कि दाम्पत्य प्रेम की जगह आपसी वैमनस्यता और उपेक्षा का भाव जन्म ले लेता है।
जिसके कारण दोनों पति पत्नी अपने रिश्ते को ताक पर रख किसी दूसरे स्त्री और पुरुष
के साथ मिलना और समय देना प्रारंभ कर लेते हैं। अंत में स्थिति यह बनती है कि पति
पत्नी को बोलता है “अब नहीं रह सकता
तुम्हारे साथ...लेट अस पार्ट आवर वेज...मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ महारानी
सेतिया...तुम भी मुझे मुक्त कर दो।”16 इस सब के बीच स्त्री अपने प्रेमी के
अधिक नजदीक पहुँचती है। और अंत में वह प्रेमी भी उसके साथ बलात्कार करता है “वह गलियाँ बकने लगा-हाथ हटा साली ! हाथ हटा
वहाँ से मादर...। मैं गिड़गिड़ाने लगी-शान्तनु नहीं...शान्तनु नही...”17 ये सब शब्द निराधार साबित होते हैं। जिसके बाद
शान्तनु मेहरोत्रा ने “लेकिन वह मेरी
देह में सेंध लगाकर चला गया। मदान्धता के उस एक घिनौने पल में उसने मेरी पूंजी
मुझसे छीन ली।”18 मो. आरिफ़ के सन्दर्भ में प्रियं अंकित लिखते
हैं “आरिफ़ अपनी कहानियों का
परिवेश बड़ी ही कुशलता से रचते हैं। उनके चरित्र इसी परिवेश का हिस्सा बनकर अपने
यथार्थ का साक्षात्कार करते हैं।”19
जातिप्रथा भारत की आत्मा में बसी है। जाति को हटाना मुश्किल ही नहीं बल्कि
नामुमकिन है। यह जाति का जंजाल प्रेमचंद से लेकर उसके बाद के लेखकों की कहानियों
और उपन्यासों में भी ठीक उसी प्रकार विद्यमान रहा है। हिन्दी साहित्य के भीतर की
अनेक समस्याओं को विशेषज्ञों और मर्मज्ञों ने बहुत ही बारीकी से विश्लेषित करने का
प्रयास किया है, किन्तु तथाकथित
समीक्षकों को यह जातिप्रथा की समस्या नजर ही नहीं आती। इस बात से इनकार नहीं कर
सकते कि भारत में शोषण का आधार जाति है। मो. आरिफ़ की कहानियों में भी इस प्रकार के
अनेक विद्वेष और संवेदनहीनता भरे जातिगत शोषण मिल जाते हैं। ‘फूलों के बाड़ा’ संग्रह की कहानी ‘लू’, ‘फुर्सत’ और ‘साइकिल की सवारी’ आदि कहानियों में
जातिगत आधार पर शोषण को न केवल प्रमुखता से दिखाया गया है, बल्कि मजदूरी करने वालों की जाति भी पहले से ही निर्मित है।
उच्च जाति का व्यक्ति केवल सभी उच्च पदों पर रहेगा, निम्न जाति का व्यक्ति निम्न पदों पर रहेगा, यदि इस नियम में भिन्नता आती है तो उच्च वर्ग
को सबसे अधिक परेशानी होती है। ‘लू’ कहानी में जब रिक्शेवाला बताता है, मैं अपनी पत्नी को भगा कर लाया था। तो पुलिस वाला उसे बुरी तरह पीटता है। अपने साथ
पकड़ के ले जाता है। सरकारी तंत्र समाज के आम जन का कैसे शोषण करता है। उसे कहानी
के माध्यम से समझा जा सकता है। लेखक इस कहानी के माध्यम से पुलिस के अत्याचार को
दिखाता है। रिक्शा चालक जोगी पासवान हैं जिस लड़की को भगा कर शादी किया था रचनाकार
उसकी जाति के विषय में कहता है कि वह “राजकुमार सिंह की रिश्तेदार है। असली नाम सुशीला है, सुशीला सिंह।”20 इंस्पेक्टर चौहान ने जिसके कारण रिक्शेवाले वाले को “मांचो...साला...मर्डर करके यहाँ छुपा है...गैंग में काम
करता है...सुपारी लेता है बैंचो...बीस हजार का इनाम है साले के ऊपर...पुलिस से
कैसे बचेगा साले... भाग रहा था मांचो...घुसा दूँगा साले पूरी रिवाल्वर अन्दर...चल
साले मुम्बई की जेल की हवा खा...चल अपने असली घर तब पता चलेगा...।”21 ठीक
ऐसा ही एक प्रसंग ‘फुर्सत’ कहानी में आया है जिसमें दिखया गया है कि “सुखलाल की मौत का सुनकर ज्यादा धक्का नहीं लगा मुझे।
बुढ्ढा काफी दिनों से बीमार था। कई बीमारियों से एक साथ लड़ रहा था। काम तो उसका हम
सभी को पानी पिलाने का था, पर बन्दा अपने
पंडित होने से इतना आतंकित था कि गिलास पकड़ने मात्र से उसका हाथ काँपता था।
विशेषकर पासवानजी को पानी देना होता तो गिलास में उँगली डालकर ही ले जाता।”22 मो.
आरिफ़ की कहनियाँ गागर में सागर भरने की परिचायक हैं। एक कथा के भीतर अनेक समस्याओं
को सामने रखते हैं। ऐसा वाकया ‘साइकिल की सवारी’
में दिखाई देता है “बस दो मिनट पाहिले कउनो कहा कि रेप-सेप का मामला है। राम
आसरे मिसिर तो बच निकले लेकिन सरोजवा को किसी तरह टोले लाया गया।”23 भारतीय सामाज की समस्या यही है कि शोषक और
शोषित में बंटा हुआ है। भारत में उच्च जाति की स्त्री का शोषण अलग मुद्दा है जबकि
निम्नजाति की स्त्री का शोषण दूसरा मुद्दा है। अक्सर समीक्षक एक ही तराजू में
दोनों समस्याओं को तौल देते हैं किन्तु स्त्रीवादी आलोचकों ने इसे दो भिन्न भिन्न
पहलुओं से देखने का प्रयास किया है। उच्च वर्ग की स्त्री केवल पितृसत्तात्मक
व्यवस्था से लड़ती है, जबकि निम्न जाति
की स्त्री सामाजिक आधार पर वर्ण व्यवस्था से लड़ती है। अपने ही परिवार में पनप रही
पितृसत्ता से लड़ती है तथा स्त्रियों में भी निम्नवर्गीय स्त्री होने से उसे कई
प्रकार के शोषण झेलने पड़ते हैं। मो. आरिफ़ की कहानियों में यह प्रसंग मिलता है।
उनकी ‘साइकिल की सवारी’ कहानी में राम आसरे मिसिर उच्च कुल के ब्राह्मण
हैं जो निम्न जाति की स्त्री के साथ कुकर्म करते हैं। यह सामाजिक आधार पर वर्ण
व्यवस्थागत शोषण है। वहीं उसका पति भी इस कुकर्म में साथ देता है क्योंकि राम आसरे
ने उसे सेकेंड हैंड साइकिल तोहफे में दी थी “अरे बुजरी, पेट से थी तो
लाया था तुझे। दो से छूटी थी रे...। मेरी बिहायता नहीं है तू। बाबू पर ऊँगली उठाती
है नीच। कच्चा चबा जाऊँगा...कच्चा।”24 यह पितृसत्तात्मक शोषण का रूप है। यह
ऐसा बीज समाज में बोया गया है कि उसे उखाड़ना फेंकना बहुत मुश्किल है, किन्तु नामुमकिन नहीं है। बस महिलाओं को समझने
की जरूरत है। प्रियं अंकित मो. आरिफ़ की सोच के सन्दर्भ में लिखते हैं “आरिफ़ की कुशलता यह है कि वह सवर्णों की मजेदार
उक्तियों और चटाखेदार लहजों वाली भाषा के भीतर उन विडंबनात्मक स्थितियों का सृजन
करते हैं जो मनुष्य के खिलाफ बर्बरता और क्रूरता को परत-दर-परत उद्घाटित करती चलती
हैं।”25
जब स्त्री स्त्री का शोषण करती है वह एक परिवार में भी होता है। ‘आग’ कहानी में स्त्री द्वारा स्त्री शोषण का बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील प्रसंग
आया है। इस कहानी में जब बड़े लड़के की शादी की बात सामने आती है तो वही माँ दहेज़
में दो लाख रूपये की मांग रखती है जिसे कभी दहेज़ के कारण आग से जलाया गया था। उसका
लड़का कहता है कि “जिस आग में माँ
जली थी, जिस आग में पिता और उनके
घरवालों ने माँ को जलाकर मार डालने की कोशिश की थी, जिसकी लपटों में हम दोनों भाई वर्षों से झुलस रहे थे,
जिसकी आंच और ताप ने एक बाहरी व्यक्ति को सच्चा
हितैषी बना दिया था...वह आग तो उनके अन्दर लगी ही नहीं थी।”26
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता को स्थान दिया गया है।
किन्तु आजादी के लगभग साठ सालों में भी यह ख़त्म नहीं हुआ। आज वर्तमान समाज में
धार्मिक आधार पर शोषण विशेष रूप बना हुआ है। आज मजहब के नाम पर केवल हिन्दू और
मुसलमान ही भारत में लड़ रहे हैं ऐसा नहीं है। भारत में राजनीतिक फायदे के लिए कभी
सिख-हिन्दू के बीच, कभी
हिन्दू-मुसलमानों के बीच, कभी
सिख-मुसलमानों के बीच, तो कभी इसाई के
साथ, तो भाषा के आधार पर लड़ाई
करवाकर साम्प्रदायिक दंगे कराते रहते हैं। मो. आरिफ़ की कहानियों में धार्मिक आधार
पर शोषण का जो स्वरूप दिखाई देता है वह केवल हिन्दू और मुसलमान के बीच अधिक है। इस
संग्रह में उनकी ‘तार’, ‘मौसम’ और ‘सत्यमेव जयते’ आदि कहानियां पुर्णतः मुस्लिम परिवेश को आधार
बनाकर लिखी गयी हैं। इन कहानियों में मुख्यतः मुस्लिम समाज में व्याप्त शिक्षा,
व्यवसाय, आर्थिक स्थिति, स्त्री समस्या और बेरोजगारी जैसी प्रमुख समस्याओं को उजागर किया गया है। ‘तार’ कहानी में देश के मुसलमानों के व्यवसाय को दर्शाता है। मुसलमानों का इत्र,
कुर्सी बुनना और तेल आदि का व्यवसाय रहा है जो
अब धीरे धीरे ख़त्म हो रहा है। जिसके कारण बड़ी संख्या में मुस्लिम युवा बेरोजगार हो
रहे हैं। इस कहानी में नायक का तेल बेचना खानदानी पेशा था। उसकी शीशी पर व्यापार
के उद्देश्य से लिखा है “यह तेल दिल्ली,
श्रीनगर, अमृतसर, लाहौर और पेशावर
तक भेजा जाता है। जबकि बंटवारे के बाद पकिस्तान नहीं जाता था। लेकिन चिब्बी पर
इबारत बरकरार थी।”27 जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है और
गुनाह यह है “शिशियों में यहाँ
से तेल भर कर जाता है और वहां से तबाही का लिक्विड आता है।”28 किन्तु जब मोहल्ले के लोग भी शक की नजर से
देखने लगे तो उन्होंने वह धन्धा बंद कर दिया। यहाँ साम्रदायिकता जैसी समस्या कैसे
बेरोजगारी को बढ़ाती है इस कहानी में देखा जा सकता है। दूसरी कहानी ‘मौसम’ एक मुस्लिम परिवार की कहानी है। इस कहानी में सबसे छोटा बेटा इकबाल बोल गया “सारा दोष हमारे-आपके नाम में है बड़े भाई।
पाँचों पढ़े-लिखे, लेकिन पाँचों
बेकार। क्या यह महज इत्तेफाक है, या फिर इसे बैडलक
कहकर हवा में उड़ा दें ?”29 तीसरी कहानी ‘सत्यमेव जयते’ है जिसमें सत्यमेव जयते अर्थात सत्य की जीत ! किन्तु इस कहानी का रचना विधान
ऐसा है कि झूठ की जीत होते हुए भी सत्य की जीत होती है। इस कहानी में मानवीयता की
जीत होती है न कि स्वार्थ की। यह कहानी उस सत्य की और इशारा करती है जिस समाज में
झूठ, मक्कारी और लूट खसोट भले
ही बढ़ जाए किन्तु मानवीयता जिन्दा रहेगी भले ही किसी रूप में रहे।
इस संग्रह की दो कहानियां ‘पापा का चेहरा’
और ‘अंतिम अध्याय’ भिन्न भिन्न
समस्याओं को केंद्र में रख कर लिखी गयी हैं। इन दोनों कहानियों की समस्याएँ नई
जरुर हैं किन्तु रोजमर्रा और सभी के साथ घटने वाली हैं। इक्कीसवीं सदी के भारत में
परीक्षा से विफल होने के बाद युवाओं का आत्महत्या जैसे कदम उठाना एक गंभीर समस्या
है। अपने बच्चों की परवरिश में माता-पिता की अहम् भूमिका होती है, किन्तु यदि माता पिता ही बच्चे पर अधिक नंबर
लाने पर जोर देने लगेंगे तो बच्चों की मानसिक दबाव पड़ना लाजमी है | दूसरी कहानी ‘अंतिम अध्याय’ में उस समाज का चित्रण है जो पढ़ता लिखता भारत जैसे अविकसित देश में है किन्तु
अपने जीवन यापन के लिए वह भारत से अलग विकासशील देश में चाहता है। इस कहानी में भी
इसी समस्या को दर्शाया गया है एक सातवें-आठवें दशक का समय था जब युवा अपने गाँव
छोड़कर शहर में बसना चाहते थे। आज का युवा भारत छोड़कर विदेश में बसना चाहता है। इस
प्रकार के स्वेच्छा से विस्थापन परिवार में एकांत और ऊब को बढ़ावा देते हैं “कहानी जब शुरू हुई जब हमारे सनी ने अमेरिका
जाने का फैसला लिया। हम बहुत खुश हुए। मैं सचमुच बहुत खुश थी। फिर सनी ने वहीं बस
जाने का फैसला कर लिया। यह खबर हमारे छोटे से परिवार के लिए एक सुखद धक्का जैसे
थी।”30 इस प्रकार से विदेश में
बसना भारत की कई समस्याओं को सामने लाता है, इसके पीछे भारत में सुविधाओं और नौकरियों इत्यादि का अभाव
भी है।
मो. आरिफ़ की कहानियों के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि उनकी कहानियों में
मध्यवर्गीय जीवन की विभिन्न समस्याएँ मुखरित हुई हैं। इन कहानियों में
स्त्री-पुरुष संबंधों को बेहतर करने सुगबुगाहट है। जिससे समाज में नैतिकता,
समानता, धर्मनिरपेक्षता को समाप्त करने की बजाय उसको उत्तेजित करके
और गति प्रदान कर रही हैं और सामाजिक वैमनस्यता को खारिज कर रही हैं। मो. आरिफ़ की
कहानियों में केवल मुस्लिम जीवन का ही चित्रण नहीं, बल्कि हिन्दू समाज की विभिन्न समस्याओं को नए कलेवर के साथ
दिखाया है।
सन्दर्भ सूची
1. कमलेश्वर,
नयी कहानी की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-1978,
पृष्ठ संख्या-23
2. आरिफ़, मो., फूलों का बाड़ा, प्रकाशक भारतीय
ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण-2008,पृष्ठ संख्या-46
3. पृष्ठ संख्या-159,
2006
4. आरिफ़, मो., फूलों का बाड़ा, प्रकाशक भारतीय
ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण-2008,पृष्ठ संख्या-45
5. वही, पृष्ठ संख्या-46
6. वही, पृष्ठ संख्या-46
7. वही, पृष्ठ संख्या-44
8. वही, पृष्ठ संख्या-44
9. वही, पृष्ठ संख्या- 46
10. शर्मा, नासिरा, राष्ट्र और मुसलमान, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2011,
पृष्ठ संख्या-92
11. आरिफ़, मो., फूलों का बाड़ा, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण-2008,
पृष्ठ संख्या-14
12. वही, पृष्ठ संख्या- 53
13. वही, पृष्ठ संख्या-55
14. वही, पृष्ठ संख्या-85
15. वही, पृष्ठ संख्या-86
16. वही, पृष्ठ संख्या-105
17. वही, पृष्ठ संख्या-109
18. वही, पृष्ठ संख्या-109
19. अंकित, अंकित, पूर्वाग्रहों के विरुद्ध, आधार प्रकाशन, संस्करण-2011, पृष्ठ संख्या-145
20. आरिफ़, मो., फूलों का बाड़ा, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण-2008,
पृष्ठ संख्या-15
21. वही, पृष्ठ संख्या- 17
22. वही, पृष्ठ संख्या-32
23. वही, पृष्ठ संख्या-82
24. वही, पृष्ठ संख्या-84
25. अंकित, अंकित, पूर्वाग्रहों के विरुद्ध, आधार प्रकाशन, संस्करण-2011, पृष्ठ संख्या-145
26. वही, पृष्ठ संख्या-64
27. वही, पृष्ठ संख्या-26
28. वही, पृष्ठ संख्या-26
29. वही, पृष्ठ संख्या-46
30. वही, पृष्ठ संख्या-92
सत्य प्रकाश सत्य,शोधार्थी- पीएच.डी. हिन्दी,गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय गांधी नगर
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
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