(द व्यूज़
एक्सप्रेस्ड हियर डू नॉट रिफ्लेक्ट दोज़ ऑफ़ दि ऑथर)
१.
रिहायशी इलाक़े में
अलग-अलग मंज़िला औक़ात वाले
हम सैकड़ों पक्के मकान
ऊटपटांग तरीक़े से जमघट बनाए
बैठे हैं उकडू
अपनी-अपनी गोद में
मोटरसाइकलों और कारों का जमावड़ा बिछाए
फुसफुसाते हैं
ठंडी हवा में ठिठुरते
ताकि सुनाई न दे
टेम्पल्स-चर्चेज़-सुपरमार्केट्स
इत्यादि पूजा के स्थलों को
हमारी हठभरी ईशनिंदा
आए बड़े पवित्रता और अनुशासन के गड़गुम्बे
कौनसे वो आज़ाद हैं इंसान की ख़रीद-फ़रोख्त से
ऊँच-नीच से
कमसेकम घरों में लोग रहते हैं प्राकृत अवस्था में
अपनी फितरतों के सबसे क़रीब
यों धूनी रमाकर
या सुफैद परिधान ओढ़कर
खूबसूरत टोपियाँ पहनकर
कोई भुला नहीं देता नग्न फिरने का आनंद
दिन भर चन्दन मलकर
अपने परिवेश का मल दूर करके
इत्र से नहाकर भी
अंततः इन लोगों के शरीर से
निकलेगी तो टट्टी ही
२.
दूर किसी अनजान मकान में किसी औरत की छायाकृति
अपने कपड़े उतारती है
पर ये ऑफिस से थकी-हारी
औरत का
अंधेरों से घिरा,
निस्तेज अनावरण नहीं है
ये उत्तेजना से भरा, मुक्त ह्रदय,
किसी राज्य के अधिपति सा आत्मविश्वासी,
हठधर्मी
आगे बढ़ना उसका तोड़ देता है
अंतर्बंध सारे किसी हतमति के
अवाक् जो देखता/देखती है
उन्माद का बेलगाम बवंडर
३.
हमारे सरों पर लदी
कपोत-विष्ठा की ठंडक चुभना शुरू ही हुई थी
कि उघाड़ दिया
मालकिन ने गर्माहट से भरा कोई कड़ाह
रात की हवाओं में उसके सुखाए
कपड़े तणी पर बेतरतीब उड़ रहे हैं
हवा की तहों में कहीं एक गर्म झोंका
ग़ायब हो जाता है
वो गुस्से में भरी बालकनी पर आती है
गंदले साबुनी पानी का तसला उंडेल देती है
इत्मीनान से जुगाली करती किसी गाय पर
भुनभुनाती हुई डगमग चलती
वो साँस भर कर गालियाँ देती है
तिलिस्मी चिराग़ों से निकले जिन्नात को
जिन्होंने बेढ़ब दे दिया था उसे
जो उसने माँगा था
४.
मेरी तीपड़ पर दीवारों में कई छेदों को,
जिनमें ठोकी गयी कीलें
अपने उद्देश्य के साथ
पंचभूत तत्वों में मिल गयीं हैं,
आंधियों से जमी रेत ने
मावठ के पानी के साथ रेंगते हुए
कीचड़ से बंद कर दिया है
वहाँ क़ैद हैं
प्राचीन सभ्यताओं के रहस्य
और अधपकी मुहब्बतों की लाशें
वहाँ से एक पौधा निकल आया है
पीले रंग के छोटे से फूल को हवाओं में भांजता
आत्मरक्षा में
५.
दूर किसी और जमघट के बीच में
इस्पात के ऊंचे टावर खड़े हैं
अकू-द-शेपशिफ्टर की तरह
वो झुकते नहीं हवाओं के बहाव में
सफेदे के पेड़ों की तरह
कानों में फुसफुसाने को
शहर भर के गुपचुप घटनाक्रम
कोहरे और धुंध के बीच से निकलते
दिव्य दृष्टि की सुराही से झांकते
वो खड़े खड़े सुनते हैं
सार्वभौमिक सत्यों को मन्त्रों की तरह बड़बड़ाते आसमानों को
बरगलाते नहीं उन्हें कोई जादू
झंझोड़ते नहीं चक्रवात
क़ायम रखते हैं वो इंसानियत से हरसंभव दूरी
६.
टेबल पर झुके किसी पिद्दी जीव के ह्रदय का द्वेष
उसकी अँगुलियों से होता
बह निकालता है कीबोर्ड पर
एक्वारेज़िया सा अँधेरे के पर्दों में छेद करता है
निर्जीव शहर को वह सुप्त दानव की उपमा देता है
जिसके नथुनों से नालाई दुर्गन्ध और नम क्रोध लदीं हवाएं
रस्ते के पेड़ों को झकझोरतीं चलतीं हैं
टार के हत्यारे जाल से उसके सींग उलझे हैं
काश कि अपनी सम्पूर्ण ताक़त से वो एक आख़िरी बार
जोर से हिले
और ख़त्म हो जाए उसका होना
उसकी कलम की बला से हम तो हैं
एकरस हुज़ूम
हमारी मुक्त अभिव्यक्तियों का भौंडा प्रदर्शन
अनावश्यक है उसके लिए
कल्पित समाजों के कथ्य से बाहर
और, असाहित्यिक
७.
व्हिस्की से भीगी पतंगों की डोर थामे
कुछ पदचिह्न किलकारियां मारते दौड़ते आए
राजयोग और कालसर्पयोग के संयोजन
से बनीं दुस्साहसी एडियाँ
जिनकी नटराज सी थाप से चूने, सीमेंट और गिट्टी की परतों में
बज उठे जलतरंग
जलती छत पर, जहाँ पानी की बूँद गिरते ही वाष्पित हो जाती है
वे कदम बदलते बुदबुदाते रहे
बोईमारे-बोईकाट्टे की आदिम हूँकारें
हमारी नसों में एड्रिनालिन सी बिजलियाँ दौड़ीं
भूकंप के खिलाफ़ खड़े रखने का माद्दा रखने वाले हम
झूमे लहराए इस बहाव में
संतुष्टि से महसूस किया हमने
सुन्दर कलाकृतियों का छितराकर नष्ट होना
दादी की रेडियो घरघराने जैसी सतत कराह में
सिस्मोग्राफ़िक इज़ाफा
मम्मी पापा की व्यस्त बड़बड़ की ठिठकन
रड़कना छाती में कफ़ का जैसे
महसूसते हैं हम दुपहरी की लगभग नीरव शांति में
श्रांति, सरदर्द और स्वेद से घिरे
झाँकते हैं ख़ाली नीले आकाश में कुछ सर
पगथलियों की ऐंठन और जलन
हाथों से बुझाते हुए
८.
अपने बचे खुचे कमज़ोर तंतु सहलाते हुए
लगभग इंसानों की भीड़ हमारे जमघट को
अविश्वास से घूरती है
सृजन के अम्बार पर
उनकी नज़र पड़ती है ज़रा से लालच के साथ
जहाँ होंगे वो व्यक्ति
विशाल खाली मैदानों में किसी खूँटें से बंधी भैंस होने के बजाय
१.
रिहायशी इलाक़े में
अलग-अलग मंज़िला औक़ात वाले
हम सैकड़ों पक्के मकान
ऊटपटांग तरीक़े से जमघट बनाए
बैठे हैं उकडू
अपनी-अपनी गोद में
मोटरसाइकलों और कारों का जमावड़ा बिछाए
फुसफुसाते हैं
ठंडी हवा में ठिठुरते
ताकि सुनाई न दे
टेम्पल्स-चर्चेज़-सुपरमार्केट्स
इत्यादि पूजा के स्थलों को
हमारी हठभरी ईशनिंदा
आए बड़े पवित्रता और अनुशासन के गड़गुम्बे
कौनसे वो आज़ाद हैं इंसान की ख़रीद-फ़रोख्त से
ऊँच-नीच से
कमसेकम घरों में लोग रहते हैं प्राकृत अवस्था में
अपनी फितरतों के सबसे क़रीब
यों धूनी रमाकर
या सुफैद परिधान ओढ़कर
खूबसूरत टोपियाँ पहनकर
कोई भुला नहीं देता नग्न फिरने का आनंद
दिन भर चन्दन मलकर
अपने परिवेश का मल दूर करके
इत्र से नहाकर भी
अंततः इन लोगों के शरीर से
निकलेगी तो टट्टी ही
२.
दूर किसी अनजान मकान में किसी औरत की छायाकृति
अपने कपड़े उतारती है
पर ये ऑफिस से थकी-हारी
औरत का
अंधेरों से घिरा,
निस्तेज अनावरण नहीं है
ये उत्तेजना से भरा, मुक्त ह्रदय,
किसी राज्य के अधिपति सा आत्मविश्वासी,
हठधर्मी
आगे बढ़ना उसका तोड़ देता है
अंतर्बंध सारे किसी हतमति के
अवाक् जो देखता/देखती है
उन्माद का बेलगाम बवंडर
३.
हमारे सरों पर लदी
कपोत-विष्ठा की ठंडक चुभना शुरू ही हुई थी
कि उघाड़ दिया
मालकिन ने गर्माहट से भरा कोई कड़ाह
रात की हवाओं में उसके सुखाए
कपड़े तणी पर बेतरतीब उड़ रहे हैं
हवा की तहों में कहीं एक गर्म झोंका
ग़ायब हो जाता है
वो गुस्से में भरी बालकनी पर आती है
गंदले साबुनी पानी का तसला उंडेल देती है
इत्मीनान से जुगाली करती किसी गाय पर
भुनभुनाती हुई डगमग चलती
वो साँस भर कर गालियाँ देती है
तिलिस्मी चिराग़ों से निकले जिन्नात को
जिन्होंने बेढ़ब दे दिया था उसे
जो उसने माँगा था
४.
मेरी तीपड़ पर दीवारों में कई छेदों को,
जिनमें ठोकी गयी कीलें
अपने उद्देश्य के साथ
पंचभूत तत्वों में मिल गयीं हैं,
आंधियों से जमी रेत ने
मावठ के पानी के साथ रेंगते हुए
कीचड़ से बंद कर दिया है
वहाँ क़ैद हैं
प्राचीन सभ्यताओं के रहस्य
और अधपकी मुहब्बतों की लाशें
वहाँ से एक पौधा निकल आया है
पीले रंग के छोटे से फूल को हवाओं में भांजता
आत्मरक्षा में
५.
दूर किसी और जमघट के बीच में
इस्पात के ऊंचे टावर खड़े हैं
अकू-द-शेपशिफ्टर की तरह
वो झुकते नहीं हवाओं के बहाव में
सफेदे के पेड़ों की तरह
कानों में फुसफुसाने को
शहर भर के गुपचुप घटनाक्रम
कोहरे और धुंध के बीच से निकलते
दिव्य दृष्टि की सुराही से झांकते
वो खड़े खड़े सुनते हैं
सार्वभौमिक सत्यों को मन्त्रों की तरह बड़बड़ाते आसमानों को
बरगलाते नहीं उन्हें कोई जादू
झंझोड़ते नहीं चक्रवात
क़ायम रखते हैं वो इंसानियत से हरसंभव दूरी
६.
टेबल पर झुके किसी पिद्दी जीव के ह्रदय का द्वेष
उसकी अँगुलियों से होता
बह निकालता है कीबोर्ड पर
एक्वारेज़िया सा अँधेरे के पर्दों में छेद करता है
निर्जीव शहर को वह सुप्त दानव की उपमा देता है
जिसके नथुनों से नालाई दुर्गन्ध और नम क्रोध लदीं हवाएं
रस्ते के पेड़ों को झकझोरतीं चलतीं हैं
टार के हत्यारे जाल से उसके सींग उलझे हैं
काश कि अपनी सम्पूर्ण ताक़त से वो एक आख़िरी बार
जोर से हिले
और ख़त्म हो जाए उसका होना
उसकी कलम की बला से हम तो हैं
एकरस हुज़ूम
हमारी मुक्त अभिव्यक्तियों का भौंडा प्रदर्शन
अनावश्यक है उसके लिए
कल्पित समाजों के कथ्य से बाहर
और, असाहित्यिक
७.
व्हिस्की से भीगी पतंगों की डोर थामे
कुछ पदचिह्न किलकारियां मारते दौड़ते आए
राजयोग और कालसर्पयोग के संयोजन
से बनीं दुस्साहसी एडियाँ
जिनकी नटराज सी थाप से चूने, सीमेंट और गिट्टी की परतों में
बज उठे जलतरंग
जलती छत पर, जहाँ पानी की बूँद गिरते ही वाष्पित हो जाती है
वे कदम बदलते बुदबुदाते रहे
बोईमारे-बोईकाट्टे की आदिम हूँकारें
हमारी नसों में एड्रिनालिन सी बिजलियाँ दौड़ीं
भूकंप के खिलाफ़ खड़े रखने का माद्दा रखने वाले हम
झूमे लहराए इस बहाव में
संतुष्टि से महसूस किया हमने
सुन्दर कलाकृतियों का छितराकर नष्ट होना
दादी की रेडियो घरघराने जैसी सतत कराह में
सिस्मोग्राफ़िक इज़ाफा
मम्मी पापा की व्यस्त बड़बड़ की ठिठकन
रड़कना छाती में कफ़ का जैसे
महसूसते हैं हम दुपहरी की लगभग नीरव शांति में
श्रांति, सरदर्द और स्वेद से घिरे
झाँकते हैं ख़ाली नीले आकाश में कुछ सर
पगथलियों की ऐंठन और जलन
हाथों से बुझाते हुए
८.
अपने बचे खुचे कमज़ोर तंतु सहलाते हुए
लगभग इंसानों की भीड़ हमारे जमघट को
अविश्वास से घूरती है
सृजन के अम्बार पर
उनकी नज़र पड़ती है ज़रा से लालच के साथ
जहाँ होंगे वो व्यक्ति
विशाल खाली मैदानों में किसी खूँटें से बंधी भैंस होने के बजाय
घुल जाते हैं वो
शहर के नथुनों से आविर्भूत फूलते हुए प्रवाहों में
जो रात होते होते न जाने कहाँ समा जाते हैं
यत्र-तत्र बसेरा ढूंढते
यहाँ हमारी खिडकियों से तुम क्षितिज की ओर देखते हुए
दो टके के नास्टैल्जिया में खुद को डुबाते
कविताएँ लिखा करते हो
वीराने घरों और चबूतरों के बारे में
जिन्होंने तुम्हारे प्यार को ठोकर मार कर भगा दिया
और कोसते हो मक्खन में दाँत गड़ाए
हमारी कठोरता को
वो बात अलग है कि तुम जैसे मासूम फुनगे
कठोरता के इस कवच में ही सुरक्षित हैं
तुम्हारी जड़ों के तंतु मोहताज़ हैं
अन्टार्कटिका में पेंगुइनों के जमघट की है जैसे उनके शरीर की गर्मी
अप्रासंगिक भी हैं वो
पर ये तो तुम कभी मानने नहीं वाले
___________________________
आशीष बिहानी, बीकानेर से हैं और वर्तमान में कोशिका एवं आणविक जीव
विज्ञान केंद्र, हैदराबाद से पीएचडी कर रहे हैं।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
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