अस्तित्व के लिए संघर्षरत किन्नर समुदाय -पूजा मदान
किन्नर, जिनके पास न तो
खुद का कोई घर होता है न खुद की पहचान और न ही कोई रोजगार। ऐसे में सड़कों पर खड़े
होकर भीख मांगने या ट्रेन के डब्बों में ताली पीटकर गाना बजाने के सिवा इनके पास
अन्य कोई चारा नहीं होता। अपने नाम, स्थान, पहचान, भाषा को भूलाकर दूसरे भेष में जीना हर इंसान के
लिए उतना ही मुश्किल होता है जितना कि ऑक्सीजन के बिना साँस लेना। सवर्प्रथम हमारे
लिए यह जानना बेहद महत्तवपूर्ण है कि आख़िर यह ‘वजूद’, ‘अस्तित्त्व’
एवं ‘आइडेंटिटी’ का संकट है क्या?
यह संकट
समाज के किस वर्ग पर सबसे अधिक छाया हुआ है? ऐसे कौन लोग है जो समाज में लगातार अपनी आइडेंटिटी को लेकर
प्रयासरत है ? तथा ऐसा कौन सा
वर्ग है जिसे समाज में विशिष्ट होने का दर्जा प्राप्त है? इसके लिए हमें समाज की उस परिधि को देखना होगा जिसके एक छोर में वह विशेष वर्ग
है जो सभी सुख-सुविधाओं से लबरेज है तो दूसरी तरफ ऐसे तबके भी मौजूद है जिनके पास
खुद की जमीन है लेकिन उस पर उनका अधिकार नहीं है। मैले नहीं है फिर भी उन्हें अछूत
माना जाता है। इनके अतिरिक्त एक ऐसा वर्ग एवं समुदाय भी है जिसे मनुष्य न मानकर
सदैव बहिष्कृत दुनिया में ही गिना जाता रहा है। वह वर्ग है तृतीय लिंगी समुदाय। समाज
के इस बहिष्कृत हिस्से को केंद्र में रखकर चित्रा मुद्गल का ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नालासोपारा’ उपन्यास आया है जिसे इसी वर्ष साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित
किया गया है। चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास
उस बहिष्कृत दुनिया का आख्यान है जिन्हें अक्सर बीच के लोग कहकर समाज और परिवार से
परे धकेल दिया जाता है। उपन्यास के फ्लैप पर भी यह प्रश्न बना हुआ है कि-“गलियों की गाली हिजड़ा को किन्नर कह देने भर से
क्या देह के नासूर छिटक सकते हैं। परिवार के बीच से छिटककर नारकीय जीवन जीने को
विवश किए जाने वाले ये बीच के लोग आख़िर मनुष्य क्यों नहीं माने जाते। ”1 यह एक केंद्रीय सवाल है जिस पर संपूर्ण
उपन्यास टिका हुआ है। उपन्यास का प्रमुख नायक एक ऐसा लड़का है जिसे जननांग विकृति
के कारण परिवार और समाज द्वारा बहिष्कृत कर गुमनामी के उस अँधेरे में धकेल दिया
जाता है जहाँ से प्रकाश की कोई किरण दिखने की उम्मीद नहीं है। नीरजा माधव के ‘यमदीप’, निर्मला भुराड़िया के ‘गुलाममंडी’, प्रदीप सौरभ के ‘तीसरी ताली’ तथा महेन्द्र भीष्म के ‘किन्नर कथा’ इत्यादि
उपन्यासों के बाद अब चित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘नालासोपारा’ इस कसौटी पर खरा
उतरता है।
किन्नर जिन्हें मुख्यधारा के समाज में एक अन्य नाम ‘हिजड़ा’ से भी पुकारा
जाता है। वह समाज में अक्सर हेय, घृणा एवं उपहासी
दृष्टि का ही भोगी रहा है। काफी लंबे संघर्ष और अदालती लड़ाइयों के बाद किन्नर वर्ग
को थर्डजेंडर के रूप में क़ानूनी मान्यता प्राप्त हुई लेकिन सामाजिक सुख-सुविधाओं
से इन्हें सदैव वंचित ही रखा गया। हिजड़ा शब्द इनके अस्तित्व के साथ इस कदर जुड़ गया
जैसे मनुष्य होने का इन्हें कोई हक ही न हो। गाँव के परिवेश में यदि हम देखें तो
अभी भी यह शब्द रूढ़ है क्योंकि गाँव के कुछ अशिक्षित तथा पुरानी रूढ़ियों में बंधे
लोग ऐसे जातिगत शब्दों का प्रयोग करने में अपनी शान समझते हैं। वे आपसी लड़ाइयों तक
में इन शब्दों का प्रहार करते हैं। लेकिन शहरी या आजकल के पढ़े-लिखे लोग किन्नर का
अधिक इस्तेमाल करते हैं। शब्दों की इस अदला-बदली को देखते हुए मन में सीधे-सीधे एक
प्रश्न उठता है कि क्या नाम बदल देने भर से वह सामाजिक सम्मान प्राप्त हो जाता है ?
यदि ऐसा है तो फिर क्यों आज भी ‘दलित’ या ‘हरिजन’ बोलने पर लोगों के भीतर गालीसूचक शब्दों का
निर्माण पहली पंक्ति में आता है। यही स्थिति ‘नालासोपारा’ के नायक विनोद की
भी है। शब्दों की इस हेर-फेर से वह खुद को मुक्त नहीं कर पाता। खुद को किन्नर
पुकारा जाना उसके लिए उतना ही अधिक पीड़ादायक है जितना की हिजड़ा। पत्र में वह अपनी
माँ से कहता भी है- “सुनने में किन्नर
शब्द भले गाली न लगे मगर अपने निहितार्थ में वह उतना ही क्रूर और मर्मान्तक है,
जितना हिजड़ा। किन्नर की सफेदपोशी में लिपटा चला
आता है, उसकी ध्वन्यात्मकता में
रचा-बसा। कोई भूले तो कैसे भूले ?”2
विनोद के माध्यम से लेखिका ने भारतीय समाज के एक ऐसे मुखौटे को पेश किया है जो
आदर्शवादिता की आड़ में जघन्य अपराध करता है, मनुष्य मनुष्य में भेद उत्पन्न करके उन्हें उनके मूलभूत
अधिकारों से वंचित कर देता है। इन मूलभूत अधिकारों में सबसे पहली कड़ी ‘शिक्षा’ होती है। शिक्षा
प्रात करना प्रत्येक मनुष्य का अधिकार होता है। शिक्षित व्यक्ति ही समाज में ‘असमानता’ के भेद को मिटाकर ‘समानता’ को स्थापित करता
है। शिक्षा के अभाव में न तो व्यक्ति आत्मनिर्भर बन पाता है और न ही समाज में अपनी
कुशल अभिव्यक्ति दे पाता है। विनोद असामान्य होते हुए भी सामान्य जीवन जीना चाहता
है। वह पढ़ना चाहता है। दोस्तों संग खेलना चाहता है। चौदह वर्ष तक वह अपने परिवार
में पलता बढ़ता है, स्कूल जाता है,
कक्षा में हर साल टॉप करता है। लेकिन जल्दी ही
उसके इस सपने को उसके अपने पिता द्वारा चकना चूर कर दिया जाता है। पिता के सामने
अपना विरोध जताते हुए वह कहता है- “पप्पा, मैं घर में बैठकर नहीं पढूंगा। सबके साथ पढूंगा। अपनी ही कक्षा में बैठकर। मुझे
स्कूल जाना है। मैं अपना ध्यान रखूंगा। अपनी हिफाजत खुद करूंगा। कब तक मैं अपने
सहपाठियों से टेलीफोन पर होमवर्क नोट करता रहूंगा, पापा ?”3 विनोद का
बार-बार इस तरह से स्कूल जाने के लिए हठ करना शिक्षा के प्रति उसके रुझान को
दिखाता है। यह एक बहुत ही सहज और स्वाभाविक बाल मनोवृति है जो कि सभी बच्चों में
समान रूप से विद्यमान है। एक सामान्य बच्चे की भांति विनोद का मन भी पढ़ने, खेलने को करता है। लेकिन उसके सभी सपनों को
उसके ही पिता द्वारा ध्वस्त कर दिया जाता है। इस संदर्भ में वीणा शर्मा लिखती है
कि- “प्रस्तुत उपन्यास में
लेखिका हर उस विनोद की बात उठाती है, जिन्हें तथाकथित इस रिवाज के चलते घरों से रेवड़ की भांति खदेड़ दिया जाता है। वह
विनोद, जो बहुत पढ़ना चाहता है,
बहुत होशियार भी है, जिसकी मां उसके बहुत बड़े गणितज्ञ होने के सपने देखती हैं,
लेकिन समाज के अन्दर उसके रहने के लिए जगह नहीं
है। ”4
चित्रा मुद्गल ने विनोद के माध्यम से उस गहराती मानवीय संवेदना की ओर हमारा
ध्यान खींचा है जो आजकल के सिष्ट समाज में लगातार खत्म होती चली जा रही है। यह
कहाँ तक तर्कसंगत एवं न्यायसंगत है कि
समान लोगों में भेद उत्पन्न करके उन्हें’ मनुष्यता’ और ‘अमनुष्यता’ के तराजू से तौल दिया जाता है। कभी दलित तो कभी आदिवासी
कहकर समाज से बाहर रहने पर मजबूर किया जाता है तो कभी शारीरिक रूप से विकृत कहकर
उनसे उनके मनुष्य होने के सारे अधिकार छीन स्त्री-पुरुष श्रेणी से अलग तीसरे
पायदान पर खड़ा कर दिया जाता है। यह सिर्फ मनुष्य द्वारा मनुष्य के अधिकारों का
दोहन ही नहीं है अपितु सीधे-सीधे एक के द्वारा दूसरे की आइडेंटिटी को खत्म करना भी
है। इसी आइडेंटिटी अर्थात् पहचान का संकट विनोद के साथ भी बना हुआ है जिसे जबरन
बिन्नी बना दिया जाता है।
बचपन के जो चौदह वर्ष बिन्नी ने अपने माता-पिता, भाई-भाभी के साथ बिताये थे। वह उन्हें हर पल हर क्षण याद
करता है। वह सामान्य लोगों की भांति अपने घर-परिवार में रहना चाहता था लेकिन
मुख्यधारा के लोग उसे अपने समाज का हिस्सा न समझ किन्नर समुदाय की मुखिया चम्पाबाई
को सौंप देते हैं। खुद को मुख्यधारा से दूर फैंके जाने पर बिन्नी मरता नहीं है
अपितु निरंतर संघर्ष करता है। उसका यह संघर्ष मुख्यधारा के साथ-साथ किन्नर समुदाय
से भी है जो खुद को भाग्यवश मनुष्य न मानकर आधे-अधूरे रूप में जीवन जीने को विवश
हो जाते हैं। ऐसे समुदाय का बिन्नी पूर्णत: विरोध करता है। वह अन्य किन्नरों की
भांति बिंदी, टिकुली और
ज़ोर-ज़ोर से ताली पीटने सरीखे गुणों को अपने भीतर नहीं लाना चाहता। बिन्नी के इस
विद्रोही रूप का चित्रण लेखिका ने इस प्रकार से किया है- “उनके लात, घूंसे, थप्पड़ और कानों में गर्म तेल सी टपकती किसी भी
सम्बन्ध को न बख्शने वाली अश्लील गालियों के बावजूद न मैं मटक-मटक कर ताली पीटने
को राजी हुआ, न सलमे-सितारे
वाली साड़ियां लपेट लिपिस्टिक लगा कानों में बुंदे लटकाने को। ”5 विनोद के साथ हुई इस सामाजिक और पारिवारिक
प्रताड़ना को देखते हुए हमारे भीतर एक सहानुभूति पैदा होती है कि एक कम उम्र के
बच्चे को उसके परिवार से मात्र इसलिए अलग कर दिया जाता है कि वह शारीरिक रूप से
अक्षम है। इस अक्षमता के चलते उसे अपनी मूल जड़ों से भले ही दूर होना पड़ता है। या
यूँ कहा जाए कि सामाजिक नियमों के अनुसार वह बिन्नी बनता जरूर है, पर अपने मूल्यों से किसी भी तरह का कोई समझौता
नहीं करता। पत्र द्वारा बा से बातचीत के दौरान वह कहता भी है- “जननांग विकलांगता बहुत बड़ा दोष है लेकिन इतना
बड़ा भी नहीं कि तुम मान लो कि तुम धड़ का मात्र वह निचला हिस्सा भर हो। मस्तिष्क
नहीं हो, दिल नहीं हो, आंख नहीं हो। तुम्हारे हाथ-पैर नहीं
हैं...बच्चे तुम पैदा नहीं कर सकते मगर पिता नहीं बन सकते, यह किसने नहीं समझने दिया तुम्हें। ”6 एक जननांग विकृत
मनुष्य के साथ सामान्य मनुष्यों के द्वारा किये गये व्यवहार को लेकर सूरज पालीवाल
स्पष्ट तौर पर लिखते हैं कि- “चित्रा मुद्गल का
यह उपन्यास एक नई बहस चलाता है, अंदर से कुरेदता
है और अपने मनुष्य होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। हमारे आसपास के वे लोग जो सड़कों
पर, व्यस्त चौराहों पर,
बच्चे होने पर या घर में कोई अन्य उत्सव होने
पर नाचने-गाने, आशीष लेने चले
आते हैं तब क्या हम उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा व्यवहार एक इंसान
दूसरे इंसान के साथ करता है ? नहीं करते तो इस
उपन्यास के बिन्नी की आवाज ध्यान से सुनिये कन्याभ्रूण हत्या के दोषी माता-पिता
अपराधी हैं। उससे कम दंडनीय अपराध नहीं जननांग दोषी बच्चों का त्याग। ”7
विनोद का यह प्रतिरोध केवल सभ्य समाज
से नहीं है अपितु उन लोगों से भी जिन्हें असभ्यता का दर्जा देकर मुख्यधारा में कभी
शामिल ही नहीं किया गया। ये वहीं लोग हैं जो मुख्यधारा का शिकार होकर अपने ही
भाई-बंधुओं के साथ दुराचार करने के सभी हथकंडे अपनाते हैं। उन्हें जबरन छीनकर उनके
माता-पिता एवं परिवार से अलग कर देते हैं। रहम नाम की कोई चीज इन्हें यह जघन्य
अपराध करने से नहीं रोकती। चंपाबाई को जब सूत्रों के माध्यम से विनोद के किन्नर
होने का पता चलता है तब वह बाकी किन्नरों को लेकर उसके घर पर आकर धावा बोल देती है
लेकिन अपने सामने विनोद को न पाकर जब वह उसके छोटे भाई मंजुल को पाती है तब बड़े ही
विरोधी शब्दों में कहती है- “खेल खेल रहे हैं
वे लोग उनके साथ। बच्चा इससे बड़ा है। गनीमत इसी में है, ख़ामोशी से घरवाले असली बच्चे को उनके हवाले कर दें। कोई
हंगामा नहीं मचाएंगे वे। जबरदस्ती पक्की खबर को कच्ची साबित करने पर क्यों तुले
हुए हैं वे लोग। उनकी इज्जत का उन्हें भी ख्याल है। वे खुद भी अपनी इज्जत का ख्याल
करें। ”8 अपने आस-पास सड़कों पर,
बसों में यदि हम देखे तो विनोद या बिन्नी जैसे
हजारों लोगों की भीड़ देखने को मिलती है। इस भीड़ की गहराई में जाने पर ही पता चलता
है कि समाज में इनकी क्या स्थिति है ? और क्यों यह भीड़ अपनी ही बिरादरी की खोजी बनी हुई ? क्या यह भीड़ मानवीयता से परे खड़ी है ? जो उस दर्द को नहीं समझती जिसे उन्होंने खुद
भोगा है। या फिर इस भीड़ के संदर्भ में यह
कहा जाए कि यह एक ऐसे लोकतंत्र की भीड़ है जिसमें सभी को समान रूप से रहने, खाने और जीने के अधिकार दिए गये हैं ? भीड़ के प्रतीक रूप में ही लेखिका ने विनोद को
खड़ा किया है। वह समाज के उन सभी बनावटी नियमों का सिरे से प्रतिरोध करता है जो
मानवीयता के नाम पर एकदम खोखले और बेजान है। इतना ही नहीं वह उस समूचे किन्नरवर्ग
को भी इन खोखले रूढ़िवादी नियमों का बहिष्कार करने के लिए कहता है जिनका शिकार होकर
वे खुद अपने ही वर्ग पर अत्याचार-अन्याय करते हैं। एक राजनीतिक सभा में विनोद सभी
की घर वापसी का आवाहन करते हुए स्पष्ट रूप से कहता है- “बरजिए बिरादरी को। शपथ लीजिए यहाँ से लौटकर आप किसी
लिंगदोषी नवजात बच्चे-बच्ची को, युवक-युवती को
जबरन उसके माता-पिता से अलग करने का पाप नहीं करेंगे। उससे उसका घर नहीं छीनेंगे। उपहासों
के लात-घूसों से उसे जलील होने की विवशता नहीं सौपेंगे। जलालत का नरक भोग कुछ नहीं
सीखे आप ?”9
इस प्रश्न के माध्यम से विनोद किन्नर समुदाय के उस भ्रम को भी तोड़ता है जिसमें
लीन होकर वे खुद को उस समाज का अभिन्न हिस्सा मानने पर आमदा हो जाते हैं। जबकि
वास्तविकता कुछ ओर ही बयां करती है। इसे एक तरह की सोची समझी राजनीतिक चाल भी कहा
जा सकता है कि जिन किन्नरों को मुख्यधारा का समाज शादी-ब्याह या संतानोत्पत्ति के
अवसर पर थोड़े समय के लिए घर बुलाकर आशीष लेना तो जानता है लेकिन उनको घर देना नहीं
जानता। उन्हें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल तो करना जानता है पर उनको संवैधानिक
अधिकार देना नहीं जानता। उन्हें ताली पीटने पर मजबूर कराना तो जानता है लेकिन उनके
हाथों में फाइलें थमाकर रोजगार देना नहीं जानता। समाज का यह दोहरा चरित्र ही तो है
जो एक तरफ खुद को सफेदपोशी चादर में सुरक्षित रखना चाहता है और दूसरी तरफ उसी चादर
की आड़ में शोषित, वंचितों पर जुल्म
ढ़हाता है। ऐसे समाज में न तो विनोद रहना चाहता है और न ही अपनी बिरादरी के लोगों
को उक्त समाज का हिस्सा बनने की सलाह देता है। ऐसे दोहरे एवं शोषक समाज का सिरे से
प्रतिरोध कर वह (विनोद) अपनी बिरादरी को एकत्र होने का आवाहन देता है - “वो, जो आपको इन्सान नहीं समझते। आपके जीने-मरने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अन्धेरे
के बावजूद वो आपकी मैयत को कन्धा देने नहीं पहुंचते। आंसू नहीं बहाते। रुढ़ि नियति
की है। जीवित रहते धिक्कार की चप्पलों से वे आपको पीटेंगे। मरणोपरान्त वे आपको
अपनी ही बिरादरी से पिटवाएंगे। जिनके नवजात शिशुओं को ढूंढ़-ढ़ांढ़ नाच-गाने आशीषने
पहुंचते हैं आप, उन्हीं के घर
दूसरे रोज पहुंचकर देखिए ? घर का दरवाजा
आपके मुंह पर भेड़ दिया जाएगा। ”10
कितनी दर्दनीय स्थिति है इस आधे-अधूरे समाज की कि जिसकी दुआ को सहेज हम भविष्य
में कुछ अच्छा होने की कामना तो रखते हैं लेकिन बात जब इनके अधिकारों की आती तो हम
बड़ी चतुराई से सभ्यतारूपी दरवाजा इनके मुँह पर दें मारते हैं। यह एक के द्वारा
दूजे का हक मारना नहीं है तो ओर क्या है।
संदर्भ सूची
1. मुद्गल, चित्रा, पोस्ट बॉक्स नं. 203 नालासोपारा, सामयिक पेपरबैक्स,
नई दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-फ्लैप
2. वहीं,पृष्ठ-42
3. वहीं, पृष्ठ-15
4. सं-भारद्वाज,
महेश, सामयिक सरस्वती पत्रिका, अप्रैल-जून-2015,
वर्ष :1, अंक :1, नई दिल्ली,
पृष्ठ-78
5. मुद्गल, चित्रा, पोस्ट बॉक्स नं. 203 नालासोपारा, सामयिक पेपरबैक्स,
नई दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-9
6. वहीं, पृष्ठ-50
7. डॉ. नियाज,
शगुफ्ता, थर्ड जेंडर के संघर्ष का यथार्थ, विकास प्रकाशन, कानपुर, संस्करण-2018,
पृष्ठ-31
8. मुद्गल, चित्रा, पोस्ट बॉक्स नं. 203 नालासोपारा, सामयिक पेपरबैक्स,
नई दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-13
9. वहीं, पृष्ठ-187
10. वहीं, पृष्ठ-187
पूजा मदान,पीएच.डी. शोधार्थी,गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय गांधी नगर
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
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