सिनेमा के बहाने वर्तमान की पड़ताल - डॉ. तरुण (संदर्भ
: ‘कलयुग’ और ‘लव, सैक्स और धोखा’)
सिनेमा के बनने की कहानी से लेकर सिनेमा के पनपने और विकसित होने तक
जो सवाल उठते रहे हैं उनमें सिनेमा की संदर्भसापेक्षता और दर्शकों की भावनाओं या
संस्कारो अथवा संस्कृति पर चोट होने से एक ख़ास तबके की भावनाएँ अक़्सर आहत होती
रही हैं। सवाल उठता है कि सिनेमा में सैंसरशिप की ज़रूरत और उसकी महत्ता क्या है? इन्हीं
संदर्भों में हम सिनेमा की संदर्भवत्ता के संदर्भ में श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘कलयुग’ पर और दर्शकों में संस्कारगत विवेक के अभाव
और सैंसरशिप के संदर्भ में दिबाकर बैनर्जी की फ़िल्म ‘लव,
सैक्स और धोखा’ का संक्षिप्त मूल्याँकन करने का प्रयास कर
रहे हैं और साथ ही इस फ़िल्म की मार्फ़त अश्लीलता की वर्तमान बहस पर एक संक्षिप्त
टिप्पणी करते हुए उसके पैमाने के वर्तमान संदर्भों का प्रश्न उठाने का प्रयास किया
गया है।
कलयुग के संदर्भ में धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ और पीयूष मिश्रा द्वारा ‘गुलाल’ फ़िल्म में गाये गए गीतों का संदर्भसापेक्ष मूल्याँकन करते हुए यह दिखाने
का प्रयास किया गया है कि कैसे धर्मवीर भारती का अंधा युग और श्याम बेनेगल की
फ़िल्म कलयुग में महाभारत की कथा का प्रयोग करते हुए भी अपनी विशिष्टता को कैसे
स्थापित किया गया है। कलयुग का असली चेहरा आख़िर किस प्रकार हमारे समाज का आईना
है। आइये देखें
‘कलयुग’ का असली चेहरा
१९८०-८१
में आई श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘कलयुग’ महाभारत के प्लॉट का
इस्तेमाल करते हुए भी इससे स्वयं को अलगा लेती है। इसके चरित्र असल में महाभारत के
चरित्र न होने पर भी उन चरित्रों सरीखे दिखते हैं। इस फिल्म का निर्माण शशि कपूर
ने किया था जिसमे महाभारत की कथा का सहारा लेते हुए समकालीन संदर्भों में एक ही
वंश के दो औद्योगिक घरानों के बीच की प्रतिस्पर्धा को दिखाने का प्रयास किया गया
था यह प्रतिस्पर्धा कब एक युद्ध में परिणत हो जाती है इसका पता नहीं चलता। संभवत्
निर्देशक को भी नहीं, यह फिल्म का एक असंतुलित पक्ष है। कैसे एक
औद्योगिक प्रतिस्पर्धा में शामिल लोग आँख के बदले आँख की मांग करने लगते हैं फिल्म
में इसका प्रदर्शन है। महात्मा गाँधी ने कहा था कि अगर आँख के बदले आँख की मांग की
गई तो सारी दुनिया अंधी हो जाएगी। गाँधी जी ने इस बात को कहते हुए जरूर ही
तत्कालीन महायुद्धों-विश्वयुद्धों को ध्यान में रखा होगा। कलयुग के
चरित्र इसे अपनी स्मृति से विस्मृत करने में ही संलग्न दिखते हैं।
हालाँकि
‘कलयुग’ श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित एक ऐसी फिल्म है जिसमें महाभारत की कथा को
अपनी पटकथा का आधार बनाया गया है लेकिन यह तब भी महाभारत की कथा न होकर उस कथा की
कलयुगीन(समकालीन) दशा का
चलचित्रांकन है एक अन्य संदर्भ में कलयुग महाभारत नामक महाकाव्य का संदर्भ बिंदु
है। हाँ केवल संदर्भ-बिंदु, समकालीन संदर्भ-सापेक्षता
में उसका मूल्याँकन नहीं। यही मेरे लिए इस फिल्म को ख़ास बनाता है। श्याम बेनेगल
इस फिल्म में महाभारत की कथा का केवल आधुनिक संदर्भ-बिंदु खोजने की
कोशिश करते हैं और उसे बखूबी रूप में अभिव्यक्त भी करते हैं लेकिन उसका मूल्याँकन
वह दर्शक पर छोड़ते हैं। श्याम बेनेगल उस रिस्क को उठाते हैं जिसे बहुत सारे
निर्देशक छूना नहीं चाहते। एक एपिक की कथा को उठाकर भी न उठाना श्याम बेनेगल ने
संभव किया है। रचनाकार के समक्ष इस तरह का जोखिम हमेशा रहता है। ऐसा जोख़िम स्वयं
धर्मवीर भारती के सामने ‘अंधा युग’ लिखते वक्त भी था।
श्याम
बेनेगल की ‘कलयुग’ के संदर्भ में मुझे धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’ यदि याद आता है तो उसका कारण भी यही है
जैसाकि अंधा युग की भूमिका में धर्मवीर भारती लिखते हैं, “पर एक नशा होता है - अंधकार
के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों
से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतरते जाने का और फिर अपने
को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा
के कुछ कणों को बटोरकर, बचाकर, धरातल तक ले जाने का - इस
नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला मिला रहता है कि उसके आस्वादन के
लिए मन बेबस हो उठता है।”
स्वातंत्र्योत्तर
भारत और उससे पहले और स्वतंत्रता या विभाजन के दौरान का भारत बार-बार
इस कलयुग को देखता रहा है। निश्चित ही यह युग आस्था की मृत्यु के पश्चात जन्मा था
जिसके बीज द्वापर युग में ही डल गये थे। जब महाभारत संभव हुआ। बेनेगल धर्मवीर
भारती की भाँति महाभारत की कथा की समकालीन संदर्भ-सापेक्षता का
मूल्याँकन नहीं करते। इससे कई समीक्षकों के लिए यह फिल्म बेनेगल जैसे बड़े
निर्देशक की एक कमज़ोर फिल्म मानी जा सकती है लेकिन कहीं न कहीं यह कमज़ोरी ही
फिल्म की सबसे बड़ी खूबी मानी जानी चाहिए। महाभारत और अंधायुग में कृष्ण केंद्रित
कथा है जबकि कलयुग की कथा करन (कर्ण) की केंद्रीयता की कथा है। कलयुग की
आंतरिक अर्थसत्ता का मूल्याँकन तभी संभव है जब करन (कर्ण) की
आधुनिक संदर्भवत्ता का मूल्याँकन दर्शक कर सकें। संभवत् यहीं से श्याम बेनेगल
दर्शक के लिए समीक्षा की राह बनाते हैं। मुझे ये उनके बहुत बाद की फिल्म ग़ुलाल (निर्देशक, अनुराग कश्यप) में गाये पीयूष
मिश्रा के गीतों में मिलती है इस फिल्म के एक दृश्य में पीयूष मिश्रा रामधारी सिंह
दिनकर की कविता का समकालीन संदर्भ मे गायन करते हैं। कहीं कहीं इस गीत में कलयुग
का केद्रीय विचार छिपा है –
‘ये देख गगन मुझमे में लय है, ये देख पवन मुझमें लय है।
मुझमें
लय है संसार सकल, मुझमे धरती आकाश सकल
ये
देख महाभारत का रण, मुर्दों से भरी हुई भू है।
पहचान
कहाँ इसमे तू है।’
कलयुग
महाभारत के चरित्रों को आज के संदर्भ में और समय की इस वर्तमानता में खोजने की
कोशिश करती है। कुछ लोग कहेंगे कि यह महाभारतयुगीन चरित्रों का कलयुगीन रूपांतरण
है पर ऐसा कहकर कहीं न कहीं हम इस फ़िल्म से हट जाते हैं। मैं कहूँगा यह फ़िल्म
महाभारत के चरित्रों का कलयुगीन रूपांतरण ही नहीं बल्कि महाभारत की वर्तमान
संदर्भसापेक्ष पैरोडी है और निश्चित ही जिसमें समकालीन समयबोध शामिल है।
मुझे
फिर पीयूष मिश्रा याद आते हैं –
‘इस देश में जिस शख़्स को जो काम था सौंपा।
उस
शख़्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी।।‘ (गुलाल)
कलयुग
में जितने भी किरदार (शख़्स) हैं कहीं न कहीं वो अपने काम की
कार्यविधियों का विरोध करते हैं कलयुग का मूल संकट और अंधा-युग
का मूल संकट यहां आकर एक समान हो जाता है। अनास्था यहाँ भी हावी है विश्वास की डोर
यहाँ भी टूटती है। महाभारत में जहाँ कर्ण और दुर्योधन का मैत्री विश्वास अंत तक
कायम था ‘कलयुग’ में धनराज के मन में करन के प्रति अविश्वास
बढ़ता है। वह उसे दग़ाबाज़ मानता है और करन की मौत के बाद आत्महंता बनता है।
संस्कारगत विवेक और ‘लव, सैक्स और धोखा’
कुछ साल पहले सुनील शानबाग द्वारा निर्देशित नाटक 'सैक्स,
मोरेलिटी और सेंसरशिप' देखा था। इसमें गालियों की भरमार थी और मैं बार-बार ये
सोच रहा था कि शुक्र है हमारे बुज़ुर्ग लोग यहाँ नहीं आये वर्ना उनकी नैतिकता के
पैरों तले हम बेवजह कुचले जाते। इस नाटक
में सुनील शानबाग ने 'सखाराम बाइनडर' को
उपजीव्य बनाकर इस अनैतिक दौर में 'सैक्स' और 'मोरेलिटी' को परिभाषित
करने की सफल कोशिश की है। यह कोशिश सफल इसलिए है कि न सिर्फ यह सैंसरशिप के
वास्तविक पैमानों को खोलती है बल्कि इस तथाकथित नैतिकता और मूल्यों के युग में आज
के वक़्त की असलियत को सैंसर करने के षड्यंत्र को भी दिखाती है।
'लव, सैक्स और धोखा'(निर्देशक : दिबाकर बैनर्जी) में भी मुझे कुछ ऐसा ही अनुभव होता है फर्क
सिर्फ इतना है कि वहां असलियत को सैंसर करने के षड्यंत्र को दिखाया गया था और यहाँ
असल जिंदगी को, जिससे बहुधा हमें मुँह फेरने की आदत है। ‘लव, सैक्स और धोखा’ (LSD) को
देखने के क्रम में एक दर्शक कई वर्गों में हमें दिखता है एक वर्ग वह है जो इस
फिल्म में 'सैक्स' की आस लिए गया था
हालाँकि इसकी उम्मीद कम है क्योंकि सैक्स दर्शन अब दुर्लभ नहीं रहा उससे वैबसाईट
भरी पड़ी हैं।
एक वर्ग और है इसे हम बौद्धिक वर्ग कह सकते है इसने दिबाकर बैनर्जी
की पहली दोनों फिल्में 'खोंसला का घोंसला' और
'ओये लक्की, लक्की ओये' देखी हैं जो दिबाकर के प्रयोगों की प्रगतिशील समझ से वाक़िफ़ है जो
वस्तुत: दिबाकर बैनर्जी के इस नए प्रयोग को देखने गया था दिबाकर ऐसे दर्शक को
निराश नहीं करते बिलकुल सुनील शानबाग की तरह।
इस फिल्म की रिलीज़ के दिन(१९ मार्च) शाम को जब घर लौटा तो एक मीडिया
चैनल पर एक समीक्षक को इस फिल्म को कोसते हुए सुना, यूँ तो वो भी उनकी
पिछली दोनों फिल्मों के प्रशंसक थे लेकिन इस फिल्म के शीर्षक में 'सैक्स' शब्द को देखकर ही वे भभक उठे, उन्हें शिकायत थी कि दिबाकर इस फिल्म से समाज में अश्लीलता फ़ैलाने की
कोशिश कर रहे हैं। शायद इससे उनकी नैतिकता प्रभावित हुई थी।
तब तक मैंने फिल्म नहीं देखी थी लेकिन जब देखी तो कहीं से भी वो
अश्लील या फूहड़ नहीं लगी बल्कि इससे कही ज्यादा सेक्सुअल सीन तो हमें महेश भट्ट की
फिल्मों में देखने को मिल जाते हैं। यदि आप उसे अश्लीलता माने तो?
हालांकि यह फिल्म उन लोगों को निराश कर सकती है जो सिनेमा को एक
मनोरंजन और आनंद प्रदान करने वाली विधा मानते हैं, यह उन लोगों में भी
खीज पैदा कर सकती है जो इसमें 'लव,सेक्स
और धोखा' की जगह 'प्यार, इश्क और मोहब्बत' पर सैक्स कैसे हावी होता है?
यह देखने गए हों। साथ ही यह उन लोगों के लिए भी निराशा और गुस्से का
सबब साबित हो सकती है जो समाज में व्याप्त अनैतिकता और विद्रूप स्थितियों से मुँह
फेरने को ही मूल्य और नैतिकता मानते हों इस तरह के लोग दरअसल एक तरह के यूटोपिया
में रहने के आदि हैं लेकिन जो लोग दिबाकर बैनर्जी के काम से परिचित हैं वो इन सब
ढकोंसलों को दरकिनार करते हुए एक बौद्धिक दर्शक की हैसियत से इस फिल्म को देखने के
खूबसूरत पर खतरनाक एहसास से वाकिफ ज़रूर होंगे।
दिबाकर का यह नजरिया वाकई काबिलेतारीफ है कि बिना किसी शूटिंग लोकेशन
के, बिना किसी बड़े नामी हीरो-हिरोइन के, और फिजूलखर्ची
किये बिना वह हमें हमारे समाज-तंत्र की विद्रूप स्थितियों की खबर दे देते हैं। वे
दरअसल व्यावसायिक सिनेमा के दौर में जोखिम लेते हुए एक बौद्धिक नज़रिए को कायम
रखने का प्रयोग कर रहे हैं। ये हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम इसे एक सकारात्मक नज़रिए से देखें ना कि इसे एक 'सेक्स को बढ़ावा देने वाली फिल्म' कहकर नकार दें।
सच तो यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे आप अनैतिक या सेक्सुअल
कहेंगे, यह तीन छोटी डोक्युमेंटरी को मिलाकर बनी एक फिल्म है क्या आज भी प्रेमियों
को मौत की सजा नहीं सुनाई जाती? क्या आज भी भारत में
ज़्यादातर सैक्स स्कैंडल हिडन कैमरों की मदद से नहीं बनते? क्या
मीडिया में 'पैड न्यूज़' या 'ब्लैकमैलिंग' नहीं होती? अगर
दिबाकर इन्हें हमारे सामने रख़ रहे है तो हमें इन्हें स्वीकार करने में हिचक क्यों
हो रही है? क्या फिल्म के शीर्षक में 'सैक्स'
शब्द के होने के कारण ही ये बखेड़ा खड़ा हो रहा है यदि ऐसा है तो
हमें इससे उबरने की ज़रुरत है।
दिबाकर अपनी इस फिल्म में शायद यह दिखाना चाहते हैं कि छोटा-बड़ा हर
कैमरा अपने आप में एक निर्देशक है इन मायनो में निर्देशक, निर्देशक
कम एडिटर की भूमिका ज्यादा निभाता जान पड़ता है l क्योंकि
कैमरा तो सिर्फ शूट करता है लेकिन निर्देशक उस शूटिंग को (LSD के सन्दर्भ में) सही मायने में एडिट करता चलता है इस फिल्म की तीन
कहानियों को एक ही कलात्मक विचार में पिरोने की सफल कोशिश के दौरान दिबाकर
डायरेक्टर-कम-एडिटर बन गए हैं ज़रूरत है इस तरह के नए प्रयोगों को तवज्जो देने की
ताकि हर गली हर नुक्कड़ पर एक निर्देशक, एक एडिटर का ख्वाब जन्म ले सके। साहित्य में यह कहा जाता है कि ऐसी कोई वस्तु
नहीं जिस पर कविता न लिखी जा सके। इस फिल्म के सन्दर्भ में दिबाकर हमें यही बताने
की कोशिश करते हैं।
यह फिल्म हमें रश्मि(एक कैरेक्टर) जैसी उन तमाम लड़कियों के बारे में
सोचने के लिए विवश करती है जो ना चाहते हुए भी उस स्कैंडल का हिस्सा हैं जिसका
दायरा घर से लेकर मीडिया की चहल-पहल और यू-ट्यूब तक फैला है यह फिल्म शायद सबसे
दर्दनाक तरीके से एक साँवली, भावुक(ईमानदार) लड़की की बदकिस्मती को ही
नहीं दिखाती बल्कि इस ठरकी समाज के उस नंगेपन को भी दिखाती है जो कहता है कि 'कपडे उतारने के बाद काली-गोरी सब अच्छी लगती हैं।'
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
एक टिप्पणी भेजें