समलैंगिकता और निराला का संस्मरणात्मक
उपन्यास कुल्ली भाट/ डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह
शोध संक्षिप्ति:-
समलैंगिकता का सामान्य अर्थ है समान
लिंग कीा आकर्षण तथा समानलिंगी व्यक्ति के साथ संबंध बनाना। इसके अंतर्गत दो
समानलिंगी व्यक्ति परस्पर शारीरिक संबंध बना यौनसंतुष्टि को प्राप्त करते हैं।
संमलैंगिकता के कई कारण हो सकते हैं जैसे स्त्री या पुरूष का ऐसे स्थान पर रहना
जहां विपरीत लिंगी व्यक्ति उपलब्ध न होता हो। यौन विशेषज्ञ फ्रायड के अनुसार
बालावस्था के समय सेही मनुष्य में यौन भावना का समावेश होने लगता है और जैसे-जैसे
शारीरिक विकास होता जाता है वैसे-वैसे सेक्स की इच्छाएं भी बढ़ती जाती हैं। कुछ लोग
तो पूरी तरह इस भावना की गिरफ्त में आ जाते हैं कुछ अपने आप को इस मनोबल या
परिस्थितियों के कारण बचाने में भी सफल हो जाते हैं। हिंदी साहित्य की लगभग हर
विधा में समलैंगिकता को आधार बनाकर लिखा गया है। प्रस्तुत शोधालेख में निरालाकृत ‘कुल्लीभाट‘‘ में प्रस्तुत समलैंगिकता पर विभिन्न
दृष्टिकोणों से विवेचन किया जा रहा है।
कुंजी शब्दः- कुल्लीभाट, समलैंगिकता, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, व्यावसायिक राजनीति
प्रस्तावना:-
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ का सम्पूर्ण साहित्य चाहे वो पद्य हो या गद्य
गहरे सामाजिक सरोकारों को प्रतिध्वनित काता है। प्रस्तुत कृति ‘कुल्ली भाट‘ का प्रकाशन 1939 में हुआ। इसका अद्यतन संस्करण
2004 में राजकमल प्रकाशन द्वारा किया गया। बाबा नागार्जुन ने अपनी पुस्तक ‘निरालाःएक युग एक व्यक्तित्व में ‘कुल्लीभाट‘ हिंदी
साहित्य की बेजोड़ कृति माना है। कुल्ली से निराला की मुलाकात उनकी ससुराल में हुई
थी। रायबरेली जनपद से लगभग 25 किलोमीटर दूर दक्षिण में उलमऊ नामक स्थान है। यह
स्थान प्राचीन काल से ही साहित्यिक, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, व्यावसायिक राजनीति की दृष्टि से महत्वपूर्ण
स्थान रहा है। पराक्रमी राजा डलदेव, चांदायन
के रचियता कवि मुल्ला दाउद, महर्षि
दालभ्य, कवि एवं महात्मा लालनदास प्रभृति
महापुरूषों की कार्यस्थली रहा है यह स्थान। यही पर निराला की जब प्रथम बार आगमन
हुआ तब उनकी भेंट कुल्ली भाट से हुई। उसी के तांगे से वे अपनी ससुराल पहुंचे थे।
कुल्ली का असली नाम पंडित पथवारीदीन भट्ट था अर्थात वे जाति से ब्राह्मण थे लेकिन
गाँव के लोगों द्वारा उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार होता था। इसी व्यक्ति की जीवनी
को आधार बनाया गया है कुल्लीभाट नामक उपन्यास में।
साहित्य समीक्षा:-
‘अग्निस्नान’उपन्यास में
राजकमल चौधरी ने नारी समलैंगिकता, यौन-विकृति, फिल्म
कल्चर, महानगरों के निम्नवर्गीय समुदाय आदि
विषयों को लेखन का मूल केंद्र बनाया। हिंदी में लिखे इनके लगभग सभी उपन्यास इन्हीं
विषयों पर आधारित हैं। निम्न मध्यवर्ग से उच्च मध्यवर्ग के बीच के इनके सारे पात्र
अपनी आवश्यकताओं की अभिलाषा एवं उनकी पूर्ति हेतु घनघोर समस्याओं, विवशताओं से आक्रान्त दिखते हैं। कतरा भर
सुख-सुविधा के लिए, अपनी
अस्मिता बचा लेने के लिए जहाँ व्यक्ति को घोर संघर्ष करना पड़े वहीं से राजकमल का
हर उपन्यास शुरू होता है। ‘अग्निस्नान
एवं अन्य उपन्यास’ संकलन
में राजकमल चौधरी के पाँच उपन्यास संग्रहीत किए गए हैं, अग्निस्नान, शहर था शहर नहीं था, देहगाथा, बीस रानियों के बाइस्कोप और एक अनार: एक बीमार।
सभी उपन्यास बीती सदी के पाँचवें दशक से आई शिल्पगत और कथ्यगत नवीनता का
प्रतिनिधित्व करते हैं।
सप्तर्षि बसु का नया उपन्यास ‘‘आटम इन माई हार्ट‘‘। इसकी कहानी विनोद नाम के एक युवक के
इर्द-गिर्द घूमती है, जिसका
बचपन में उसके अंकल यौन-शोषण करते हैं। उसके बाद से विनोद अपनी लैंगिक पहचान को
लेकर उलझन में पड जाता है और अंततः खुद को समलैंगिक समझने लगता है। 30 वर्ष की आयु
पार करने भी उसकी समलैंगिक प्रवृत्ति बनी रहती है। इसके बाद उसकी मुलाकात एक
आध्यात्मिक गुरू से होती है, जिनकी
बातों से प्रभावित होकर वह आत्ममंथन करता है और तब उसे महसूस होता है कि वह
समलैंगिक नहीं बल्कि विषमलैंगिक है। उसकी जिंदगी में एक युवती आती है, जिसे वह प्यार करने लगता है। कोलकाता की एक
आईटी कंपनी में प्रोजेक्ट मैनेजर के रूप में काम करने वाले सप्तर्षि ने कहा कि
अपने इस दूसरे उपन्यास के जरिए वे संदेश देना चाहते हैं कि समलैंगिकों के प्रति
हमारे समाज में नजरिया बदलने की जरुरत है। उनके साथ किसी तरह का पक्षपात नहीं किया
जाना चाहिए। सप्तर्षि ने कहा कि वह वे नहीं कह रहे कि सभी समलैंगिक इस तरह के होते
हैं, लेकिन इस उपन्यास में दिखाया गया है कि
एक व्यक्ति बचपन में यौन-शोषण से पीडित होने के बाद किस तरह इस गलतफहमी का शिकार
हो जाता है कि वह एक समलैंगिक है और आत्ममंथन के बाद किस तरह उसे अपनी लैंगिक
पहचान का ज्ञान होता है। सप्तर्षि इन दिनों एक और अनूठा उपन्यास लिखने में व्यस्त
हैं जो आजादी के बाद के समय के कोलकाता के एक अंग्रेजी राक बैंड पर आधारित है। (https://www.jagran.com/sahitya/literature-news-3038.html) पँकज बिष्ट उपन्यास ‘पँखोंवाली नाव’
की
कहानी में दो मित्र थे, जिनमें
से एक समलैंगिक था। इस कहानीको बिष्ट जी द्वारा समलैंगिकता जैसे अछूते विषय को
छूने का साहस करने के स्तर तक समलैंगिकता को ‘बाहर’ या ‘विषमलैंगिक’ दृष्टि से देखा एवं सुनाया गया है, उसमें कथा के समलैंगिक पात्र के प्रति आत्मीयता
अभाव है।
'टेढ़ी लकीर' उपन्यास 1944 में प्रकाशित हुआ। इस्मत चुगताई
का उपन्यास 'टेढ़ी लकीर' ऐसे परिवारों पर व्यंग्य है जो अपने बच्चों की
परवरिश में कोताही बरतते हैं और नतीजे में उनके बच्चे प्यार को तरसते, अकेलेपन को झेलते एक ऐसी दुनिया में चले जाते
हैं, जहाँ जिस्म की ख्वाहिश ही सब कुछ होती
है। इस्मत चुग़ताई ने 'टेढ़ी
लकीर' के ज़रिये समलैंगिक रिश्तों को एक रोग
साबित करके उसके कारणों पर नज़र डालने पर मजबूर किया। (http://bharatdiscovery.org/india/ इस्मत_चुग़ताई)
महान उपन्यासकार ई.एम. फोर्स्टर
द्वारा रचित प्रसिद्ध उपन्यास ‘मॉरिस’ उनकी मृत्यु के बाद जब 1978 में प्रकाशित हुआ
तब पश्चिमी जगत को पता चला कि जिस संबंध को वे लोग दुष्कर्म मानते हैं वो उनके
पथप्रदर्शक प्राचीन यूनान में अत्यंत सामान्य संबंध था। इस उपन्यास पर इसी नाम से
1987 में एक फिल्म भी बनी थी जिसे जेम्सं आइवरी ने निर्देशित किया था। सिकंदर और
नेपोलियन की सेना में समलैंगिक संबंध सहज थे। आज भी दुनिया की प्राय: सभी सेनाओं
में समलैंगिक संबंध सामान्यं माने जाते हैं। इसकी वजह साफ तौर पर लंबे समय तक
स्त्री से दूर रहना है। कई देशों की सेनाओं और दूसरी नौकरियों में समलैंगिकों को सामान्य
व्यक्ति की तरह सभी अधिकार मिले हुए हैं।
माइकल एंजिलो समलैंगिक थे। उनका जन्म
6 मार्च 1475 को इटली में हुआ। इस महान
कलाकार को अनेक विधाओं में महारत हासिल थी। वो कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, वास्तुकार और इंजीनियर था। लियोनार्दो विंसी का
समकालीन यह महान कलाकार यूरोप में पुनर्जागरण का नायक था। मात्र 24 साल की उम्र
में उसने अपनी महान कलाकृति ‘पिएता’ रच दी थी, जिसमें सूली से उतारने के बाद ईसा मसीह अपनी
मां मेरी की गोद में लेटे हुए हैं। माइकल एंजिलो को रोम के लगातार सात पोप, कई गिरजाघर और गुंबद बनाने का काम देते रहे और
उसने दुनिया की अनुपम कलाकृतियां रचीं जो आज भी मानवीय सभ्यता और कला-संस्कृति की
बेशकीमती धरोहर है। उसके रचे महान मूर्तिशिल्प ‘स्टेच्यू ऑव डेविड’ में आप उसकी कला का अद्भुत सौंदर्य ही नहीं वरन
उसकी समलैंगिक छवि भी देख सकते हैं। सिस्टीन चैपल की छत पर बने महान चित्रों में ‘क्रिएशन ऑव एडम’ में माइकल एंजिलो की समलैंगिक मानसिकता को बहुत
खूबसूरती के साथ देखा जा सकता है। (http://prempoet.blogspot.in/2009/07/blog-post_12.html)
वर्जीनिया वुल्फ का नाम साहित्य के
क्षेत्र में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। 1882 में लंदन में जन्मी इस महान
लेखिका के साथ उसके सौतेले भाइयों ने बचपन में इस कदर दुराचार किया कि वो जिंदगी
भर उन भयावह क्षणों को नहीं भूल पाई। तभी तो वो इतना कुछ लिख पाई जिसे हम आज
नारीवादी लेखन कहते हैं। यह जानना भी कई बार कितना भयानक होता है कि इस विचार का
जन्म कितनी अंतहीन यातनाओं से गुजरने के बाद हुआ है। वुल्फ की त्रासदी यह थी कि वो
अकेली नहीं बल्कि उसकी बहनें भी भाइयों की कमसिन वासना का शिकार हुईं। वर्जीनिया
ने शादी की किंतु कभी भी पति के साथ सामान्य स्त्री की तरह दैहिक आनंद के लिहाज से
खुश नहीं रही। जिंदगी में उसकी बड़ी उम्र की महिलाएं गहरी मित्र रहीं। कुछ के साथ
वर्जीनिया के शारीरिक संबंध भी रहे। यौन संबंधों के लिहाज से वुल्फ बहुत आजाद खयाल
महिला थी। उसकी कहानियों में आप तत्कालीन उच्चमध्य्वर्गीय अंग्रेज समाज के भीतर
व्याप्त दोमुही मानसिकता को साफ देख सकते हैं जिसमें स्त्री की हैसियत सजावटी
गुडि्या से अधिक नहीं है। वर्जीनिया वुल्फ ने अपने उपन्यास ‘द वॉयेज आउट, ऑरलैंडो और बिटविन द एक्ट्स में सेक्सु और पात्रों
की मानसिक उथलपुथल का गजब का चित्रण है।(http://prempoet.blogspot.in/2009/07/blog-post_12.html
समलैंगिकता को विषय बनाकर लिखी गई
कहानियों में इस्मत चुगताई की ‘लिहाफ’ एक बेहतरीन कहानी है। वे अपनी 'लिहाफ' कहानी के कारण ख़ासी मशहूर हुईं। 1941 में लिखी
गई इस कहानी में उन्होंने महिलाओं के बीच समलैंगिकता के मुद्दे को उठाया था। जिस
काल खंड को आधार बनाकर यह कहानी रची गई, उस समय समलैंगिकता एक अपराध था, लेकिन समलैंगिकता की प्रवृति समाज में बड़े
पैमाने पर परिलक्षित थी। चोरी छुपे बहुत से लोग अपनी यौनावश्यकताओं को पूरा करते
थे । उस दौर में किसी महिला के लिए यह
कहानी लिखना एक दुस्साहस का काम था। इस्मत को इस दुस्साहस की कीमत चुकानी पड़ी, क्योंकि उन पर अश्लीलता का मामला चला, हालाँकि यह मामला बाद में वापस ले लिया गया।
आलोचकों के अनुसार उनकी कहानियों में समाज के विभिन्न पात्रों का आईना दिखाया गया
है।
रुथ वनिता तथा सलीम किदवाई द्वारा
सम्पादित अँग्रेजी पुस्तक ‘‘भारत
में समलैंगिक प्रेम - एक साहित्यिक इतिहास‘‘ (“Same seÛ love in India & a
literary history” edited by Ruth Vanita and Saleem Kidwai, Penguin India, 2008) कुछ आधुनिक लेखकों की रचनाओं की
बात करती है। जर्मनी के विद्वान मैगनस हर्शफील्ड की शोध पुस्तक ‘फीयर होमोसेक्शुअलिटी’ वर्ष 1914
में प्रकाशित हुई । यह पुस्तक दो ऐसे पुरुषों की कहानी है जो एक-दूसरे के
लिए शारीरिक आकर्षण रखते हैं। इस किताब को समलैंगिकता की एंसाइक्लोपीडिया कहा जाता
था। (https://hindi.speakingtree.in/allslides/history-of-homosexuality-493826/265488) एडवर्ड कारपेंटर ने
जर्मन भाषा में एक किताब और फ्रांसीसी विद्वान रेफोल्विक ने इस विषय पर एक गंभीर
शोध ग्रंथ लिखा ।
वात्सायन कृत ‘कामसूत्र’ में भी समलैंगिकता से जुड़े कुछ उल्लिखित हैं।
हालांकि वात्सायन के कामसूत्र में यह सब पूरी तरह निषेध और स्वास्थ्य के लिए संकट
के तौर पर दर्शाया गया है लेकिन इससे यह प्रमाणित अवश्य होता है कि प्राचीन भारत
में भी समलैंगिक संबंध मौजूद थे।
अभिमत :-
इस विषय पर बहुत से हिंदी लेखकों ने
लिखा है जैसे कि राजेन्द्र यादव,निराला, उग्र तथा विषेशकर, विजयदान देथा जिन्होंने राजस्थानी में लिखा, उस सब को ‘‘समलैंगिक साहित्य‘‘ कह सकते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी ही क्या लगभग सभी भाषाओं के साहित्य
में ही समलैंगिक संबंधों की चर्चा किसी ना किसी रूप में देखने को मिलती रही है।
यद्यपि बहुत कम लेखक इसे स्वीकार करेंगे, परंतु ये सत्य है कि अनेक लेखकों में समलैंगिक संबंधों की प्रवृत्ति
परिलक्षित होती रही है। अंग्रेजी के कवि
अशोक राव ऐसे लेखक हैं जो स्वयं को वर्षों से गर्वपूर्वक समलैंगिक कहते आए हैं और
समलैंगिकों के अधिकारों के लिए संघर्ष भी करते रहे हैं। विश्व में अनेक महानतम
लेखक, कलाकार और दार्शनिक ऐसे हुए हैं जो
समलैंगिक थे। मोनालिसा के महान चित्रकार और शल्य चिकित्सक लियोनार्दो विंसी, महान दार्शनिक सुकरात, महान चित्रकार माइकल एंजिलो, जॉन ऑव आर्क, अरस्तू, जूलियस सीजर, वर्जीनिया वुल्फ, महान संगीतकार चायकोवस्की, शेक्सपीयर, हेंस क्रिश्चियन एंडरसन, लार्ड बायरन, सिकंदर महान, अब्राहम लिंकन, नर्सिंग आंदोलन की प्रणेता फलोरेंस नाइटेंगल और
अनेक महान लोगों के बारे में जानकारी मिलती है कि ये सब कम या अधिक मात्रा में
समलैंगिक थे।
ऊपर उल्लिखित महान लोगों के काम से
दुनिया आज भी अभिभूत है । सीधा तात्पर्य यह है कि यौन वृत्ति का प्रतिभा से कोई
संबध नहीं होता है। विगत दशकों में पूर्व
की तुलना में लेखन और साहित्य विधाओं में कल्पना कम सत्यतता अधिक तथा आपबीती को प्रस्तुत करने की बातें उठीं ।
साहित्य में स्त्री लेखन, शोषित
एवं जनजातियों आधारित लेखन, दलित
साहित्य जैसी विधाएँ बन कर मजबूत हुई हैं। अब साहित्य में थर्ड जेंडर समुदाय
आधारित लेखन भी अपनी दस्तक दे चुका है।
इन्हीं दमित और हाशिये से भी बाह्यीकृत जन समूहों में समलैंगिक तथा
अंतरलैंगिक व्यक्ति समूह भी आता है। इन पर आधारित लेखन की भी अलग साहित्यिक विधा
बनी गयी है जिसे अंग्रेजी में क्वीयर लेखन (क्वीयर राइटिंग्स) के नाम से जाना
जाता है। शब्दकोश के अनुसार ‘‘क्वीयर‘‘ का अर्थ है विचित्र, अनोखा, सनकी या भिन्न, अर्थात् आम लोगों से भिन्न लोग। लेकिन अँग्रेजी
में ‘‘क्वीयर‘‘ का आधुनिक उपयोग ‘‘यौनिक भिन्नता‘‘ की दृष्टि से किया जाता है। तात्पर्य यह है कि
इस तरह के लेखन को ‘‘समलैंगिक-अंतरलैंगिक
लेखन‘‘ कहने के स्थान पर ‘‘यौनिक भिन्न लेखन‘‘ कहना समुचित लगता है।
कुल्ली भाट उपन्यास:-
उपन्यास का नायक है पं. पथवारीदीन भट्ट
अर्थात् कुल्ली,
जिसे कुल्लीभाट कहा गया है। प्रस्तुत
उपन्यास में निराला जी ने आरम्भ में ही अपने चिर अभिप्सित मन्तव्य को इन शब्दों
में प्रकट किया है-‘‘बहुत
दिनों की इच्छा एक जीवन-चरित्र लिखूँ, अभी तक पूरी नहीं हुई; चरित
नायक नहीं मिल रहा था, ठीक
जिसके चरित में नायकत्व प्रधान हो।.... कितने जीवन चरित्र पढ़े सबमें जीवन में चरित
ज्यादा।’’(नंदकिशोर नवल, 1997) लम्बे समय के हिंदी साहित्य क्षेत्र के
अनुभवों और प्राप्त उपेक्षा के आधार पर निराला आगे लिखते हैं-‘‘मैं हिंदी के पाठकों को भरसक चरितार्थ करूँगा, पर...मुझे कामयाबी न होगी, यह मैं बीस साल से जानता हूँ।’’(नंदकिशोर नवल,1997) इसी उपन्यास में अपने साहित्यिक संघर्ष
की चर्चा करते हुए निराला लिखते हैं- ‘‘अनेक आवर्तन-विवर्तन के बाद मैं पूर्ण रूप से साहित्यिक हुआ।... इस
तरह अब तक अनेक लड़ाइयाँ लड़ी।... हिंदी के काव्य-साहित्य का उद्धार और साहित्यिकों
के आश्चर्य का पुरस्कार लेकर मैं गाँव आया।’’(नंदकिशोर नवल, 1997)
‘‘कुल्ली भाट‘‘ अपनी
कथावस्तु और शैली-शिल्प के नएपन के कारण न केवल उनके गद्य-साहित्य की बल्कि हिंदी
के संपूर्णा गद्य-साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि कहा जा सकता है। प्रस्तुत उपन्यास
इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि कुल्ली के जीवन-संघर्ष के बहाने यह निराला के
व्यक्तिगत सामाजिक जीवन को भी प्रस्तुत करता है और इस प्रकार से यह महाकवि निराला
जी की आत्माकथा कहा जाता है। यही कारण है कि सन 1939 के मध्य में प्रकाशित यह
उपन्यास तत्कालीन प्रगतिशील धारा के अग्रणी साहित्यकारों के लिए एक चुनौती के रूप
में उपस्थित हुआ तथा इसने समाजोद्धार तथा देशोद्धार का का राग अलापने वाले
राजनीतिक परिदृश्यों को दर्पण दिखाने का कार्य कियाय।
कुल्ली के साथ इस प्रकार के व्यवहार के
कारण की ओर संकेत निराला ने किया है जिसके आधार पर यह रचना और भी समकालीन हो जाती
है। कुल्ली एक समलैंगिक व्यक्ति था। विदित ही है पारंपरिक भारतीय समाज में
समलैंगिकता आदि को कोढ़ से कम नहीं माना जाता है। आम जनता की राय में अप्राकृतिक
यौनांक्षा वाला व्यक्ति सामाजिकों के साथ सामन्य व्यवहार नहीं कर सकता और उसकी यही
मानसिक विकृति उसके शारीरिक लक्षणों में भी झलकती है। इस विकृति के कारण उसे कभी
भी समाज में सम्मानजनक स्थान तो दूर सामान्य स्थान भी प्राप्त नहीं होता है। समाज
ऐसे व्यक्ति को पूरी तरह से हाशियाकृत कर देता है और उसका जीवन नर्क से भी बदत्तर
हो जाता है।
‘‘कुल्ली भाट‘‘ का प्रारंभ ही एक विचित्र समर्पण से किया गया
है निराला ने-‘‘इस पुस्तिका के समर्पण के योग्य कोई
व्यक्ति हिंदी साहित्य में नहीं मिला, यद्यपि कुल्ली के गुण बहुतों में हैं, पर गुण के प्रकाश में सब घबराए ।‘‘ निराला के मन में बहुत दिनों से एक जीवन चरित
लिखने की इच्छा थी लेकिन कोई मिल नहीं रहा था-‘‘जिसके चरित में नायकत्व प्रधान हो।‘‘ निराला जी बहुती तीक्ष्ण दृष्टि के साथ परिवेश
का अवलोकन करते थे, उन्हें
सामान्यतः ऐसे लोग अधिक मिले जिनमें ‘जीवन से चरित ज्यादा‘ था
तथा जिनके जीवन चरित का उन्होंने अवलोकन किया उनमें ‘भारत पराधीन है, चरित बोलते हैं‘ अधिक थे। और अंतः उन्हें बोध हुआ कि जीवन में
अगर कमजोरी है तो उसका बखान अतिश्योक्तिपूर्णता के साथ वास्तविकता से परे बढ़ चढ़ कर
किया जाता है,
जो कि व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व
को प्रस्तुत नहीं करता है बल्कि अधिकांशः सबल पक्षों का ही प्रस्तुतीकरण करते हुए
निर्बल या बुराईयों को छिपा लिया जाता है। सत्य से परे प्रस्तुतीकरण अज्ञानता की
ओर ले जाना ही कहा जा सकता है और अज्ञानता को फिर भी बुरा नहीं कहा जा सकता है।
सोची समझी रणनीति के तहत यदि साहित्यकार सिर्फ आदर्शमूलक प्रस्तुतीकरण ही करता है
तो वह साहित्य कालजयी नहीं हो सकता, क्योंकि
सत्य को कुछ काल के लिए छिपाया जा सकता है पंरतु मिटाया नहीं जा सकता है। हिंदी साहित्य में
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनमें सत्य को छुपाकर जनसामान्य को गुमराह करने का
कार्य किया गया परंतु आज वो सत्य उजागर होते जा रहे हैं। इन्हीं सत्यों के उजागर
होने की प्रक्रिया में अस्मितामूलक साहित्य का प्रादुर्भाव माना जा सकता है। पंरतु
निराला ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने जातिगत ब्राह्मणत्व के दरकिनार कर सत्य को
प्रस्तुत करने का कार्य भी किया,जो
कि अपने आप में एक सच्चे व्यक्ति की प्रतिबद्ध होना कहा जा सकता है।
साहित्य का प्रमुख प्रतिपाद्य सामाजिक
चेतना होता है और साहित्यकार द्वारा प्रस्तुत जीवन चरितों
तथा चित्रण ही जनमानस के
लिए प्रेरणास्रोत का कार्य करता है। अगर चरित्र असत्यमूलक हुए तो लोग भी असत्यता
की ओर ही प्रवृत्त होंगे। निराला की यही चिंता होती थी और उनका पूरा-पूरा प्रयास
समाज के सत्य चरितों को जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत करना होता था और प्रस्तुत
उपन्यास में भी निराला जी कुल्ली का समलैंगिक होना छुपाया नहीं है बल्कि उसे कथा
का ह्रदय बनाकर सम्पूर्ण ताने बाने को बुना है। निराला सच्चा नायक चाहिए था, नायक अर्थात जो आगे ले जाए और निराला के जीवन
में कुल्ली की यही भूमिका पुस्तक का विषय है।
प्रारंभ में ही निराला ने स्पष्ट कर
दिया है कि हास्य इस उपन्यास का प्रधान तत्व है। आगे का प्रसंग निराला के
व्यक्तिगत जीवन से संबंधित है, जिसमें
हास्य और व्यंग्य दोनों का बड़ा ही मनोहरी समावेश है। हिंदू समाज में व्याप्त या
प्रचिलत हास्यास्पद रीति रीवाजों पर हास्य एवं व्यंग्य के माध्यम से तीखा प्रहार
किया गया है। समाज में एक रस्म है गौना होने की, पहले यह होता था कि विवाह के बाद पत्नी पिता के
ही घर रह जाती थी और दो चार साल बाद जब गौना होता है, तभी वह पारिवारिक सुख ले पाती थी। पिता के साथ
निराला गौना कराकर पत्नी को ले आने ससुराल जाते हैं। पत्नी के आने के पाँचवें दिन
ही निराला के ससुर अपनी लड़की को बिदा कराकर ले गए। निराला के पिता को यह बात बुरी
लगी तो उन्होंने दूसरे विवाह की धमकी दे डाली । सास सुनकर घबराईं । वापस भेजने के
लिए दामाद को पत्र दिया। पिता ने सलाह दी कि जल्दी विदा कर दें इसके लिए खूब खाना
और खर्च कराना । इसके बाद लंबा प्रसंग निराला की ससुराल यात्रा का है जो बंगाल के
एक युवक की उत्तर प्रदेश के ग्रीष्मकाल से रूबरू होने का खुलासा भी है। आमतौर पर
बंगाली और बंगाल में रहने वाले लोगों को जलवायु और वातावरण के अनुसार कोमल माना
जाता है। स्टेशन पर कुल्ली से मुलाकात और उनकी धज का वर्णन भी उसी हास्य से सराबोर
है।
सुसराल पहुंचने के विवरण के माध्यम से
निराला जी ने समाज में प्रचलित जाति, लिंगभेद आदि पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। जब निराला कुल्ली के
एक्के से ससुराल पहुंचते हैं तो पत्नी एवं सास उसके इक्के से आने का कारण पूछती
हैं तो निराला उत्तर में कह देते हैं कि ‘‘आजकल सब चलता है।‘‘ इस कथन से बहुत से अनकहे और कहे सत्य
प्रस्फुटित होते हैं। निराला ब्राह्मण थे इसलिए वे सोचते हैं शायद पत्नी और सास को
दलित के इक्के में जाने से ऐतराज हुआ है और इसी से पूंछ रही हैं। निराला के
संज्ञान में नहीं था कि वह कुल्ली भाट समलैंगिक है और सास तथा पत्नी एक समलैगिक
के साथ इक्के में आने के कारण पूंछ रही है। ‘आजकल सब चलता है‘ कहने पर दोनों को निराला के समलैंगिक लोगों को
पसंद करने का भ्रम होता है और दोनों परेशान हो जाती है। यह समपूर्ण प्रसंग ही
इशारों में होनेवाली बातचीत और निराला की उससे अनभिज्ञता के जीवंत विवरण से
परिपूर्ण है। अंततः निराला की जिद पर उनकी सास झल्लाकर कहती हैं ‘तुम लड़के हो, माँ-बाप की बात का कारण नहीं पूछा जाता।‘‘
अधिकांश कृतियों के समान ही इस उपन्यास
में भी कुल्ली के माध्यम से निराला के विद्रोही स्वभाव का परिलक्षण होता है और
बहुत से प्रसंगों में तो बहुत ही मुखर होकर आता है। मानव स्वभाव है कि किसी को यदि
कोई कार्य करने से रोका जाए तो वह कम से कम उस काम को एक बार तो जरूर करके देखना
चाहता ही है और फिर विद्रोही स्वभाव का व्यक्ति तो उस कार्य को बार-बार करता है
ताकि टोकने वालों को अहसास करा सके कि मैं तो ऐसा ही हूं। ससुराल में सभी कुल्ली
के साथ निराला को जाने से रोकते हैं परंतु निराला को तो जिस काम से रोका जाए वही
अधिक आकर्षित करता है। निराला ने प्रस्तुत उपन्यास में अपने इस स्वभाव का
विस्तारपूर्वक वर्णन किया हैं वे बताते हैं कि बचपन में गाँव की एक पतुरिया के
यहाँ खाना खाने से घर के लोग मना करते थे, लेकिन निराला ने फिर भी खाया और उन्हें पिता की
बहुत मार भी खानी पड़ी।
साहित्यकारों, आलोचकों तथा स्वयं निराला जी द्वारा स्वयं
विद्रोही कहा गया परंतु मेरे विचार से वे विद्रोही नहीं थे, अपने नाम के अनुरूप वे निराले व्यक्तित्व के
स्वामी थे। उनकी रचनाधर्मिता का विकास चेतना एवं संघर्ष के माध्यम से हुआ।
स्वाधीनता, प्रकृति प्रेम, आत्मसंघर्ष, जिजीविषा उनके साहित्य के प्रमुख विषय रहे हैं।
निराले व्यक्तित्व का स्वामी कुछ निराला,कुछ हटकर ही करेगा और इसी स्वभाव के कारण मना करने के बावजूद वे
कुल्ली के पास जाते थे, उससे
मिलते थे। सास उनके साथ एक नौकर लगा देती हैं । कुल्ली निराला को गाँव घुमाते हैं
और बार बार नौकर को साथ भाँपकर परेशान होते हैं। निराला नौकर को रूह लाने के लिए
भेज देते हैं । कुछ कुछ यह देखने की उत्सुकता भी थी कि कुल्ली आखिर इतना बदनाम
क्यों हैं। कुल्ली निराला को गाँव का टूटे किले का भ्रमण कराता हैं और निराला के
वापस लौटने की बात करने पर वह निराला को अपने घर ले आता है। घर पर वह निराला के मन
की थाह लेने का प्रयास करते हुए पूंछता है-‘मान लो कोई बुरी लत हो तो दूसरों को इससे क्या? अपना पैसा बरबाद करता हूँ ।‘‘ वस्तुतः भाट का संकेत उसकी अपनी समलैंगित
प्रकृत्ति की ओर होता है परंतु निराला संदर्भ से अनभिज्ञ होने के कारण उसे अपना
अंतरीय समझते हुए कहते है-‘दूसरों
की ओर उंगली उठाए बिना जैसे दुनिया चल ही नहीं पाती।‘‘ यहां निराला की बेबाक प्रकृति का परिलक्षण होता
है और वैसे भी जो लोग अपनी विचारधारा एवं सोच के अनुरूप आगे बढ़ते है वे दुनियां में उंगली उठाने वालों की परवाह
करते ही कहां हैं। कुल्ली इसे अपने संकेत के प्रति सकारात्मक संकेत मान लेता हैं
और निराला को पान देते समय उनकी उंगली दबा देता है। समलैंगिक लोगों की यह
प्रकृत्ति होती है कि वे किसी भी अपनी ओर आने के लिए स्त्रियों की भांति शारीरिक
भंगिमाओं से संकेत देते हैं।
निराला भाट द्वारा पान देते समय उंगली
दबाए जाने को ससुराल के संबंध के रूप में लेते हैं, इससे कुल्ली उत्साहित होकर दूसरे दिन मिठाई
खाने का न्यौता देते हुए हिदायत देते हैं ‘‘किसी से कहना मत क्योंकि यहाँ लोग सीधी बात का
टेढ़ा अर्थ लगाते हैं।‘‘ आमतौर
पर यौन अभिविन्यास को तीन श्रेणियों बांट कर देखा जाता है। प्रथम, विषमलैंगिक या हेटरोसेक्शुअल- दूसरे लिंग के
लोगों के प्रति भावनात्मक, रोमांटिक, या यौन आकर्षण, जैसे स्त्री के प्रति पुरुष काय या पुरुष के
प्रति स्त्री का। द्वितीय समलैंगिक या होमोसेक्शुअल- अपने जैसे लिंग के लोगों के
प्रति भावनात्मक, रोमांटिक
या यौन आकर्षण,
यानि पुरुष के प्रति पुरुष का आकर्षण,जिसे “गे” कहा जाता है। स्त्री के प्रति स्त्री के आकर्षण हो “लेस्बियन” कहते है। तृतीय, उभयलैंगिक या बायसेक्शुअलरू पुरुषों और महिलाओं
के प्रति भावनात्मक, रोमांटिक
या यौन आकर्षण- अर्थात् उभयलैंगिक पुरुष का पुरुषों और स्त्रियों के प्रति तथा
उभयलैंगिक स्त्री का पुरुषों और स्त्रियों के प्रति यौन आकर्षण।‘‘(https://sansadhan.wordpress.com)
इस प्रकरण के बाद निराला ससुराल लौटते
हुए नौकर को कहते हैं कि घर पर बताना मत कि हम सब साथ नहीं थे। नौकर थोड़ा बेवकूफ
था और निराला की सास द्वारा पूछताछ किए जाने पर बता देता है कि वह निराला और भाट
के साथ नहीं था। घर पर लोग आशंकित तो थे ही इस खबर से निराला के प्रति उनका रुख
ठंडा हो जाता है और वे सभी निराला को भी समलैंगिक समझने लगते हैं। चूंकि निराला के
मन में तो उस प्रकार का कोई मनोभाव था ही नहीं सो वे घर में फैले तनावपूर्ण
वातावरण में भी मजे ले लेकर ब्यौरा देते हैं।
ससुरालियों के विरोध के बाद भी निराला
कुल्ली के यहाँ जाते हैं। उन्हें आते देखकर कुल्ली निश्चिंत हो जाता है कि निराला
भी अपनी समलैंगिकता की लत के कारण ही भाट की ओर आकर्षित हो गए हैं और इसीलिए उसके
पास आए हैं। वह निराला को घर ले आता है,लेकिन निराला उसकी बातों का अर्थ नहीं समझ पाते। यह प्रसंग बहुत ही
रोचक बन पड़ा है। असल में बंगाल में प्रेम शब्द का प्रयोग इतनी प्रचुरता से
इस्तेमाल होता है कि कुल्ली जब कहते हैं कि ‘मैं तुम्हे प्यार करता हूँ’ तो उतनी ही सहजता से निराला जवाब देते हैं ‘प्यार मैं भी तुम्हें करता हूँ’। कुल्ली बिना कुछ समझे कहते हैं ‘तो फिर आओ’ निराला को ‘समझ में न आया कि कुल्ली मुझे बुलाते क्यों हैं‘। उत्तर दिया ‘आया तो हूँ ।‘ कुल्ली हार गए ‘पस्त जैसे लत्ता हो गए।‘‘ बंगाल में ‘आमी तुमाके भालो बासी, वाक्य सामान्य तौर पर किसी भी अंतरंग या मित्र
के लिए आम बोल चाल के लहजे में बोल दिया जाता है परंतु समलैंगिक भाट इसे अपनी
प्रकृति तथा पारिवेशिक भिन्नता के कारण एक समलैंगिक का दूसरे समलैंगिक के प्रति
वासनामयी प्रेम के रूप में जाता है।
निराला प्रकरण को अपनी पत्नी को भी बता
देते है और वस्तुत स्थिति तथा भाषाई भिन्नता के कारण उत्पन्न स्थिति से निराला को
परिचित कराने के लिए वह उन्हें हिंदी सीखने की प्रेरणा देती है। वे हिंदी सीख लेते हैं और उद्घोष के समय अपना परिचय खड़ी
बोली के आधुनिक साहित्य से कराया। ऊपर की घटना के कुछ दिन बाद ससुराल में गीत गायन
का सार्वजनिक आयोजन हुआ। उसमें निराला की पत्नी ने गीत गया। दूसरे दिन निराला
बंगाल चले आए।
निराला बंगाल पहुंच कर हिंदी सीखने में
व्यस्त थे। उन्हीं दिनों तार आया कि पत्नी सख्त बीमार हैं। ‘स्त्री का प्यार उसी समय मालूम दिया जब वह
स्त्रीत्व छोड़ने को थी।‘‘ निराला
नहीं आते है और कई वर्ष बाद जब ससुराल जाते हैं तो पता चलता है कि पत्नी का देहांत
हो चुका होता है। प्लेग के कारण उनकी पत्नी की असमय मृत्यु हो गई। इस प्रकरण के वर्णन
में निराला ने प्लेग की भयंकरता का बहुत ही मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया है। दुखी
होकर निराला कोलकता वापस चले जाते हैं तथा जीविका चलाने के लिए नौकरी करने लगते
हैं लेकिन अपने विंदास स्वभाव के कारण ज्यादा समय तक नौकरी चल नहीं पाती है।
निराल पुनः ससुराल आते हैं और इस बार
ससुराल जब कुल्ली से भेंट होती है तो वे पाते हैं कि कुल्ली बदल चुका है। असहयोग
आंदोलन के प्रभाव ने कुल्ली को एक नेता के रूप में परिवर्तित कर दिया है। ‘‘इधर कुल्ली अखबार पढ़ने लगा था और उसने त्याग भी
किया था । अदालत के स्टांप पेपर बेचता था वह कार्य भी छोड़ दिया था। असहयोग आंदोलन
एवं महात्मा गांधी की बातें करने लगा था। ‘‘कुल्ली का किसी मुसलमान स्त्री से प्रेम हुआ
था। उसने निराला को बताया, क्यों
बताया था यह संभवतः समलैंगिक सोच ही रही हो किंतु मुसलमान स्त्री यो किसी अन्य से
भी प्रेम करने पर निराला को क्या आपत्ति हो सकती थी। यहीं से कुल्ली के नायकत्व का
प्रारंभ उपन्यास में होता है। कुल्ली ने विवाह किया। उस विवाह का बहुत विरोध हुआ
किंतु निराला ने उसका पूरा-पूरा साथ दिया और पूर्ण होने तक उनके साथ डटे रहे। एक
समलैंगिक कुल्ली में निराला नायकत्व देखते हैं और उसे अपनी कथा का नायक बनाने का जोखिमपूर्ण कार्य
करते हैं ये निराला की सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचायक है। सर्वविदित कि निराला
स्वभाव से ही नहीं साहित्य में भी विद्रोही थे और उनके विद्रोही स्वभाव के कारण ही
उनकी मित्रता कुल्ली से हो जाती है। निराला ने कुल्ली को देखकर लिखा था, मनुष्यत्व रह-रह कर विकास पा रहा है। अर्थात
निराला ने कुल्ली में मनुष्यता का विकास देखा था। डाॅ. रामविलास शर्मा ने लिखा है-’’कुल्ली के सगे भाई जैसे बिल्लेसुर हैं। उनके मन
का ढांचा पगली भिखारिन के दिमाग से कहीं मिलता-जुलता है-कुछ सनकी, कुछ बेवकूफ-पर जीवट में वह कुल्ली जैसे हैं।
ब्राह्मण वाली प्रतिष्ठा की चिंता न करके बकरियाँ पालते हैं, सारे गाँव का मुकाबला करते हैं। जीवन-संघर्ष का
उद्देश्य, बहुत सीधा सा, अपने अस्तित्व को कायम रखना है। निराला ने
बिल्लेसुर की दुःखानुभूति और वीरता के बारे में कहते हैं, ’बिल्लेसुर, जैसा लिख चुके हैं, दुःख का मुँह देखते-देखते उसकी डरावनी सूरत को
बार-बार चुनौती दे चुके थे। कभी हार नहीं खाई।‘‘ कथा के अनेक पृष्ठों में जो चित्रित किया गया
है, भाव रूप में यही उसका सारांश है।‘‘(डॉ. रामविलास शर्मा, 1990)
निराला के कथा साहित्य में उनके द्वारा
तात्कालीन परिवेश के अनुसार नए सामाजिक यथार्थ को विभिन्न आयामों में प्रस्तुत
करने की आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है। वे अंर्तर्जातीय विवाह, विधवा-विवाह, दहेज, साम्प्रदायिकता, जातीयता
को अपनी कहानियों का विषय बनाते हुए कुछ परंपरा से हट कर प्रस्तुत करने के आग्रही
रहे। निराला का कथा साहित्य अपने आस-पास के जीवन से बहुत ही आंतरिक संबद्धता रखता
है। वे ग्रामीण जीवन से अधिक संबद्ध थे, अतः उनकी अधिकतर कथाओं का विषय ग्रामीण जीवन से निःसृत है। रामविलास
शर्मा के अनुसार-‘‘समाज
में ऊँच-नीच व भेदभाव, सदियों
से चला आता रूढ़िवाद, किसान-जमींदार
का संघर्ष, किसानों का भय, उनका संगठन करने की कठिनाइयाँ-यह सब निराला ने
सतर्क होकर देखा और चित्रित किया है।’’(रामविलास शर्मा,1990)
कुल्लीभाट द्वारा अछूत लोगों को शिक्षादान करने के लिए पाठशाला खोली। स्वाभाविक था
कि कुल्ली जाति से ब्राह्मण था और वह दलितों, अछूतों के शिक्षित करने का कार्य करें तो
असरदार और रसूख वाले स्थानीय लोगों द्वारा कुल्ली का विरोध होना ही था, सो खूब विरोध हुआ। जातिवाद की पराकाष्टा तब
दिखाई देती है जब शिक्षित सरकारी अफसर भी उनसे दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते।
उनकी राय को निराला ने उपन्यास में दर्ज
करते हुए लिखा है कि ‘‘अछूत
लड़कों को पढ़ाता है, इसलिए
कि उसका एक दल हो, लोगों
से सहानुभूति इसलिए नहीं पाता, हेकड़ी
है, फिर वह मूर्ख क्या पढ़ाएगा?-तीन किताब भले पढ़ा दे। ये जितने कांग्रेस वाले
हैं, अधिकांश में मूर्ख और गवाँर। फिर
कुल्ली सबसे आगे है। खुल्लमखुल्ला मुसलमानिन बैठाए है।‘‘ कुल्ली निराला को अपनी पाठशाला ले जाता है।
निराला वहां जाते हैं और उनके प्रति अपनी उछ्छल भावनाओं को निस्संकोच भाव से
व्यक्त करते हुए कहते हैं -‘‘इनकी
ओर कभी किसी ने नहीं देखा। ये पुश्त दर पुश्त से सम्मान देकर नत मस्तक ही संसार से
चले गए हैं। संसार की सभ्यता के इतिहास में इनका स्थान नहीं।-फिर भी ये थे, और हैं।‘‘ भाव रोके नहीं रुक रहे ‘मालूम दिया, जो कुछ पढ़ा है, कुछ नहीं, जो कुछ किया है, व्यर्थ है, जो कुछ सोचा है, सवप्न। कुल्ली धन्य है। वह मनुष्य है, इतने जम्बुकों में वह सिंह है। वह अधिक
पढ़ा-लिखा नहीं,
लेकिन अधिक पढ़ा-लिखा कोई उससे बड़ा
नहीं।‘‘ अछूतों में स्पर्श के प्रति जो भय था
उसे दूर करते हुए निराला ने उनके हाथ से फूल ग्रहण किए। यहां जातिवादी प्रथा के
प्रति निराला खुला विद्रोह प्रदर्शित होता है। इस घटना के अगले दिन की निराला और
कुल्ली की बातचीत बहुत कुछ वर्तमान समाज के वातावरण का स्मरण कराती है। निराला
कुल्ली को बताते हैं कि ‘‘कुछ
सरकारी अफसरों से मेरी मुलाकात हुई थी। वे आपसे नाराज हैं, इसलिए कि वे नौकर होकर सरकार हैं, यह सोचते हैं, आप उन्हें याद दिला देते हैं, वे नौकर हैं, उन्हें रोटियाँ आपसे मिलती हैं।’‘ कुल्ली बहुत ही निर्भीक एवं निश्चिंत भाव ने
कहता है-‘‘और भी बातें हैं। भीतरी रहस्य का मैं
जानकार हूँ, क्योंकि यहीं का रहनेवाला हूँ। भंडा
फोड़ देता हूँ।‘‘
कुल्ली को लगता है कि यहाँ कांग्रेस भी
नहीं है। इतनी बड़ी बस्ती, देश
के नाम से हँसती है, यहाँ
कांग्रेस का भी काम होना चाहिए।‘‘ निराला
को लगा ‘‘कुल्ली की आग जल उठी। सच्चा मनुष्य
निकल आया, जिससे बड़ा मनुष्य नहीं होता।‘‘ कुल्ली के इस रूप से एक आम आदमी भी नहीं माने
जाने वाले समलैंगिक कुली की राष्ट्रभक्ति एवं समाजोद्धारक रूप का दिग्दर्शन होता
है।
विधवा-विवाह और दहेज की समस्या निराला
के समय में उतनी ही विकट थी जितनी आज है, परंतु नहीं थी ऐसा नहीं कहा जा सकता है। यदि सही मायनों में विचार
किया जाए तो विधवा विवाह बहुत कम मात्रा में तब होते हैं उस समय की तुलना में
वर्तमान में विधवा विवाह की ओर लोगों का दृष्टिकोण ज्यादा सकारात्मक है। निराला ने
‘ज्योतिर्मयी’ कहानी में इन ज्वलंत समस्याओं को आधार बनाया
है। पुरूषों द्वारा निर्मित शास्त्रों तथा सामाजिक नियमावली ने स्त्रियों को बंदी
और गुलाम बनाकर रख छोड़ा है। ज्योतिर्मयी कहानी का नायक विजय कहता है, ‘‘पतिव्रता पत्नी तमाम तपस्या करने के पश्चात्
परलोक में अपने पति से मिलती है।’’ इस
पर कहानी की नायिका उससे एक प्रश्न पूछती है-‘‘अच्छा बतलाइए तो, यदि वही स्त्री इस तरह से स्वर्ग में अपने
पूज्य पति-देवता की प्रतिक्षा करती हो, और पति देव क्रमशः दूसरी, तीसरी, चैथी
पत्नियों को मार-मार कर प्रतीक्षार्थ स्वर्ग भेजते रहें, तो खुद मरकर किसके पास पहुँचेंगे?’’(नंद किशोर नवल,1997) इस प्रश्न से पति पूरी तरह से निरूत्तर
हो जाता है, क्योंकि इस समाज में आचारण नियमावली
सिर्फ स्त्रियों के लिए अनिवार्य बनाई गई पुरूष को चरित्रहीनता की खुली छूट सी मिल
रही है।
कुल्लीभाट का एक मुसलमान स्त्री से
संबंध बनता हैं तथा वह उसे अपने घर में स्त्री की तरह रखने लगता है परंतु उसका एक
मुस्लिम स्त्री को साथ रखना समाज के ठेकेदारों को रास नहीं आता है। जबकि, जब कुल्लीभाट दो वक्त के खाने के लिए भी मोहताज
रहता तब कोई भी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आता है बल्कि उसके समाज में अछूत बना
दिया गया होता है। लोगों ने उसे स्वीकार नहीं किया और ना ही देवी के मंदिर में
जाने की अनुमति दी। इस संबंध में निराला ने समाज पर करारा व्यंग्य करते हुए
उपन्यास में कहा है-‘‘कहते
हैं, बिल्ली को तुलसी की माला पहनाकर लाया
है।’’...गुरू जी के मठ में खलबली मच गयी। उनके
चेले बिगड़ जायेंगे, तो
आमदनी का क्या नतीजा होगा, और
फिर अयोध्या जी हंै, जहाँ
रामजी की जन्मभूमि पर बाबर की बनायी मस्जिद है-हिंदू-मुसलमान वाला भाव सदा जागृत
रहता है, सोचकर, समझकर चेले ने कहा, ‘आप जाइए, हम उसे छल करने की शिक्षा देंगे।‘’ वह आदमी चला आया। मेरे पास चिट्ठी आई, ‘तुमने हमसे छल किया इसलिए कंठी बाँधकर, उल्टे मंत्र से माला जपकर अपना दिया मंत्र वापस
लेंगे।’’(नंदकिशोर नवल,1997)
हिंदी भाषी प्रदेशों में आज भी यदि कोई
भावना सर चढ़कर बोलती है तो वह है जातिवाद और यह भावना सम्प्रदायवाद, रूढ़िवाद, अंधविश्वास को दिन ब दिन बढ़ा रही है। शिक्षा के
प्रसार के साथ जातिगत सोच को कम होना माना जाना चाहिए था परंतु यहां लोग जितना
अधिक शिक्षित हो रहे हैं जातीयता उतनी ही बढ़ती जा रही है। शैक्षणिक संस्थाओं में
जहां सभी पीएचडी आदि उपाधि धारक होते हैं। एक सवर्ण व्यक्ति भी उतना ही शिक्षित
होता है जितना कि कोई दलित वर्गीय शिक्षक परंतु उच्च शिक्षित दलित को उस कार्यालय
या संस्थान का सबसे छोटा कर्मचारी अर्थात् सवणर्् चपरासी भी अपने बराबर मानने को
आज भी तैयार नहीं होता है। अन्य शिक्षक भी जातिवादी दुर्भावना से वशीभूत होकर ही
उसके साथ व्यवहार करते हैं। जब तक हिंदी जाति सामाजिक भेदभाव के बंधन को तोड़कर आगे
नहीं बढ़ती तब तक उनमें जातीय चेतना का विकास संभव ही नहीं है, सिर्फ इसी भेदभाव ने इन प्रदेशों की चहुंमुखी
प्रगति को बाधित किया है कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस संबंध में डॉ.
रामविलास शर्मा का कथन है कि “गरीब
जनता को आधार बनाकर जब तक समाज में हिंदू-मुसलमान का भेद-भाव नहीं मिटाया जाता तब
तक हिंदी भाषी जनता भीतर से सुदृढ़ नहीं हो सकती, इसी तरह जब तक समाज में जाति-बिरादरी का भेद
बना हुआ है, तब तक हिंदी जाति भीतर से कमजोर बनी
रहेगी। भारतीय इतिहास में यह बार-बार देखा गया कि जब जाति बिरादरी का भेद मिटता है, तब साम्प्रदायिक भेद भी खत्म होता दिखाई देता
है। सांप्रदायिक भेदभाव से मुक्त, और
जाति-प्रथा के ऊँच-नीच भेद से मुक्त, समाज के दोनों तरह के पुनर्गठन एक दूसरे से जुड़े हुए है। यही कारण है
कि निराला लगभग एक ही समय, इन
दोनों पर एक साथ, ध्यान
देते हैं।(रामविलास शर्मा,2012)
निराला द्वारा अपनी कृतियों में हिंदी प्रदेश की जातिवाद की समस्या पर पर्याप्त
रूप से विचार मंथन किया है। उनके चिंतन में एक तरफ द्विज और शूद्र मिलते हैं तो
दूसरी तरफ हिंदू और मुसलमान परिलक्षित होते हैं। “द्विज और शूद्र का भेद मिटाकर जातीय एकता को
सुदृढ़ करना, समस्या का यह एक पक्ष था।
हिंदू-मुस्लिम भेद मिटाकर जातीय एकता को सुदृढ़ करना, यह समस्या का दूसरा पक्ष था। सन् 1930-40 वाले
दशक में निराला समस्या के इन दोनों पक्षों पर बराबर ध्यान केंद्रित कर रह थे। समस्या के किसी भी पक्ष को हल करने क लिए आगे
बढ़ो तो रूढ़िवाद से टक्कर अनिवार्य थी। सामाजिक रूढ़िवाद जातीय एकता के कैसे आड़े आता
है, किन-किन रूपों में प्रकट होता है, इस सबका चित्रण निराला ने काफी विस्तार से किया
है। रूढ़िवाद का एक रूप देवी और चतुरी चमार में है, दूसरा रूप सुकुल की बीवी कहानी में है।‘‘(रामविलास शर्मा,2012)
कुछ समयोपरांत ससुराल आने पर निराला को
कुल्ली के बीमार होने का समाचार प्राप्त होता है। अब तक कुली समाज में विरोधी
भावना से ही सही परंतु खासा प्रसिद्ध हो चुका होता है। कुछ लोग उसके कार्याें को
अच्छा भी मानते हैं और सराहना भी करते हैं। ससुराल वाले बताते हैें कि ‘‘कुल्ली बड़ा अच्छा आदमी है, खूब काम कर रहा है, यहाँ एक दूसरे को देखकर जलते थे, अब सब एक दूसरे की भलाई की ओर बढ़ने लगे हैं, कितने स्वयंसेवक इस बस्ती में हो गए हैं।’‘ निराला उनसे मिलना चाहते थे उनके साले साहब
जाकर कुल्ली को ले आए। ‘कुल्ली
स्थिर भाव से बैठे रहे। इतनी शांति कुल्ली में मैंने नहीं देखी थी जैसे संसार को
संसार का रास्ता बताकर अपने रास्ते की अड़चनें दूर कर रहे हों।‘’ निराला कुल्ली से महात्मा गांधी को लिखी चिट्टी
की याद दिलाते हैं तो कुल्ली मुस्कराकर रह जाते हैं। इसी बहाने वे एक ऐसी बात कहते
हैं जो नेता और कार्यकर्ता का द्वंद्व उभारती है-‘‘कहने से भी बाज न आएँगे कि सिपाही का धर्म
सरदार बनना नहीं है। लेकिन सरदार सरदार ही रहेंगे- सैकड़ों पेंच कसते हुए, ऊपर न चढ़ने देंगे।‘‘ कुल्ली के इस कथन से कार्यकताओं की उस मानसिकता
को बोध होता है जिसमें बहुत सारे काम करने के बाद भी उनकी उपेक्षा की जाती है तब
उनका मन आहत हो जाता है और वे अपने आप में सिमट जाते हैं। निराला फिर गांधी जी की
चिट्ठी की बात पूछते हैं। कुल्ली जवाब में बताते हैं-‘‘मैंने सत्रह चिट्ठियाँ (सत्रह या सत्ताईस कहा,याद नहीं) महात्मा जी को लिखीं लेकिन उनका मौन
भंग न हुआ। किसी एक चिट्ठी का जवाब महादेव देसाई ने दिया था। बस, एक सतर- इलाहाबाद में प्रधान आफिस है, प्रांतीय, लिखिए।‘‘ कुल्ली ने बताया कि जवाब में उन्होंने लिखा ‘महात्मा जी, आप मुझसे हजार गुना ज्यादा पढ़े हो सकते हैं, तमाम दुनिया में आपका डंका पिटता है, लेकिन-आपको बनियों ने भगवान बनाया है, क्योंकि ब्राह्मणों और ठाकुरों में भगवान हुए
हैं, बनियों में नहीं।‘‘कुली के माध्यम से निराला जी का यह कथन
राजनीतिक पार्टियों में भेदभाव तथा समाज में व्याप्त उस परंपरा पर व्यंग्य करता है
जिसमें समाज का बनिया वर्ग अपने धन के माध्यम से बनियात्तर लोगों को नेता या शासक
बनाता है और अपने हितों को साधन आराम से करता है। नेतागण भी अपने फंडदाताओं को
उपकृत करने में जारा भी कोताई नहीं करते हैं। जो व्यक्ति समाजोद्धार का कार्य करता
है। समाज को एक नई दिशा प्रदान करता है, जागृति का अलख जगाने का प्रयास करता है उसका पार्टियों और राजनेताओं
में कोई भी मूल्य नहीं होता है।
कुल्ली आजादी के पहले के नेताओं को
कठघरे में खड़ा कर देता है। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भी लिखा। खुद उनके ही मुख
से सुनिए ‘पहले तो सीधे सीधे लिखा,-लेकिन उनका उत्तर जब न आया-तब डाँटकर लिखा। अरे, अपने राम को क्या, रानी रिसाएँगी, अपना रनवास लेंगी।‘‘ यहां अग्रणी या प्रसिद्ध नेताओं में श्रेष्ठता
का दंभ स्पष्ट दिखाई देता है।
उपन्यास के अंत में निराला ने स्पष्ट किया है कि कुल्ली की तबीयत कराब होने
पर उनकी सहायता के लिए कांग्रेस की स्थानीय शाखा धन देने को तैयार नहीं, जबकि विजयलक्ष्मी जी के स्वागत के लिए स्थानीय
नेता सब कुछ करने को तैयार हैं। तब की कांग्रेस भी आज की कांग्रेस से बहुत जुदा
नहीं थी। छल से निराला कुछ पैसे ले आते हैं लेकिन कुल्ली बचते नहीं। उनकी मृत्यु
के बाद की नौटंकी तो जैसे विद्रोही से समाज का अंतिम बदला हो। ‘‘दाह के लिए कुल्ली वंश के कोई दीपक बुलाए गए
हैं, उनकी स्त्री चूँकि विवाहिता नहीं, इसलिए उसके हाथ से अंतिम संस्कार न कराया
जाएगा।‘‘ उनकी स्त्री के हाथों पिंडदान कराने को
कोई राजी नहीं। हारकर निराला खुद यह जिम्मेदारी उठाते हैं। उपन्यास का यह अंतिम
प्रकरण स्पष्ट सिद्ध करता है कि ये जालिम समाज इंसान को जीते जी तो चैन से रहने ही
नहीं देता, मरने के बाद भी उसकी दुगर्ति करने से
बाज नहीं आता। अपनी झूठी और थोथी परंपराओं को थोप कर ही मानता है।
प्रस्तुत उपन्यास निराला को प्रेमचंद
की परंपरा में स्थापित करने का कार्य करता है। एक नगण्य समलैंगिक व्यक्ति बहुत ही
गौण स्थिति से अपने चरित्र को सदाचार की उनंत उंचाईयों तक ले जाता है। इतना ही
नहीं बल्कि वह अपने साथ ही कथाकार को भी उच्चता प्रदान करने में सहायक होता है। यह
उपन्यास निराला की अपनी रामकहानी का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत है। इसमें उनकी
विद्रोही चेतना तो अभिव्यक्त हुई ही है कुल्ली के बहाने उनकी सामाजिक सचेतनता, राजनीतिक के प्रति सोच आदि भी स्पष्ट रूप से
उजागर हुई है।
साहित्य का सरोकार समाज और सामाजिकों
से होता ही है और साहित्य वही जीवंत बन पड़ता है जिसमें पात्रों का चयन इसी के भीतर
से किया जाए। काल्पनिक पात्रों के माध्यम से रचित कृति कई बार चमत्मकृत कर सकती है
परंतु उसका जुड़ाव समाज से उतना नहीं होता जितना कि इसके अपने पात्रों से होता है।
प्रस्तुत उपन्यास में भी निराला ने पात्रों का चयन अपने आस-पास के सामाजिक वातावरण
से किया है। सास, साला, उनकी पत्नी हो या कुल्ली भाट सभी उनके जीवन से
जुड़े हुए पात्र हैं। विदित है कि भारतीय समाज अनंत काल से विभिन्न वर्गों में
विभाजित है। ’कुल्लीभाट‘ निराला जी की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से एक
है। कथा का नायक समाज से परित्यक्त और उपेक्षित हैं, किंतु उसमें सद्चरित्रता एवं मानवता कूट-कूटकर
भरी हुई है। ऊपर तौर पर कमजोर चरित्र प्रतीत होने के बावजूद कुल्लीभाट में समाज से
संघर्ष करने की अपार क्षमता है। कुल्लीभाट अल्पशिक्षित हैं किंतु वह समाज और
सामाजिकों को बहतु अच्छी तरह से पहचानता एवं समझता है और पूरी तरह से आत्मसजग
व्यक्ति हैं। छोटी जगह एवं अल्पशिक्षा के बावजूद समाज के प्रति उसकी जागरूकता समाज
को वास्तव में चरित्र नायक प्रदान करती है।
निराला ने कुल्लीभाट का नायक के रूप
में चयन ऐसे ही नहीं किया। उन्होंने कुल्ली के चरित्र की विशेषता उनकी सहिष्णुता
में देखी। वह विचारशील आदमी थे। दूसरों का उपकार करना उनकी प्रकृति थी। कष्ट सहकर
भी दूसरों की सेवा करते थे। राजनीति की समझ भी थी। रूढ़ियो को उन्होंने अस्वीकार
किया और एक मुसलमान स्त्री से विवाह किया। उनका जीवन भी संघर्षमय रहा और जीवन का
अन्त भी करुणा से भरा हुआ था। छल-कपट से दूर कुल्ली का महत्व लोगों ने बाद में
समझा। निराला ने इस कथा के बहाने उच्च समाज पर व्यंग्य किया है। यह व्यंग्य
सकारात्मक है। निराला ने नागार्जुन की तरह जवाहरलाल नेहरू की भी आलोचना की है।
निराला और नागार्जुन दो ही ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने नेहरू की सीधी आलोचना की है। रविभूषण
ने लिखा है-’’निराला और नागार्जुन कभी संघर्षविमुख
नहीं हुए। उन्होंने समझौतों को महत्व नहीं दिया। नेहरू समझौतों के साथ रहे। यह ’ट्रांसफर आॅफ पावर‘ था। नागार्जुन को यह आजादी नकली लगी थी कि ’कुछ ही लोगों ने स्वतंत्रता का फल पाया।‘ नेहरू की जब तक प्रगतिशील दृष्टि थी, निराला ने प्रशंसा की। दृष्टि के बदलने के साथ
कवि दृष्टि भी बदली।‘‘
इस तरह निराला ने अपने उपन्यासों में
अपने समय की राजनीति के अनेक पक्षों पर दृष्टिपात किया है। कुल्ली भाट की असली
क्षमता उसके व्यंग्य में है। इसका उपयोग निराला ने एक हथियार के रूप में किया है
और उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली है। इन उपन्यासों के विवेचन से स्पष्ट है कि
सामाजिक समानता के आंदोलन में निराला ने हिस्सा लिया, किसानों के समर्थन में जमींदारों से लोहा लिया
और इन गतिविधियों को अपने उपन्यासों में मूर्त किया। यह कोई साधारण बात नहीं थी कि
उन्होंने ऐसे चरित्रों को मूर्त किया है, जो शायद हिंदी साहित्य में दुर्लभ है। उन्होंने इससे उपन्यास-रचना के
क्षेत्र का विस्तार किया।
कुल्लीभाट की कथावस्तु का विस्तार हो
सकता था, किन्तु तब उसके प्रभाव पर असर पड़ सकता
था और शायद तब उसका व्यंग्य भी इतना धारदार नहीं होता। डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक
लिखा है-’’कुल्लीभाट‘ का व्यंग्य एक पूरे युग पर है। एक ओर बंगाल की
मध्यवर्गीय संस्कृति है, रहस्यवाद
की बातें हैं,
साहित्य और संगीत की चर्चा है, दूसरी ओर समाज के अछूत हैं, उच्च वर्गों की असहनशीलता है, हिंदू-मुसलमान का तीव्र भेदभाव है, बड़े-बड़े नेताओं में सच्ची समाज सेवा के प्रति
उपेक्षा है, कल्पना की उड़ान भरने वाले कवियों में
क्रांति का दंभ है। कुल्ली की पाठशाला की ठोस जमीन पर मनोहर कल्पनाएँ चूर हो जाती
हैं। यहाँॅ वह सत्य दिखायी देता है, जिससे
साहित्य और समाज के नेता आँख चुराते हैं। जल के ऊपर संतोष की स्थिरता जान पड़ती है, लेकिन नीचे जीवन का नाश करने वाला कर्दम छिपा
हुआ है।‘‘(डॉ. रामविलास शर्माः1997)
निराला रचनात्मक क्षेत्र में अपने
परिवेश से पूरी तरह सम्बद्ध रचनाकार थे। तत्कालीन भारतीय नवजागरण की गहरी छाप उनके
रचना कर्म में द्रष्टव्य है। आलोचक गोपाल राय का मानना है कि-‘‘हिंदी उपन्यास का भारतीय नवजागरण से गहरा संबंध
है। बंगाल और महाराष्ट्र की तुलना में हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की प्रक्रिया कुछ
बाद में आरम्भ हुई, इसलिए
हिंदी में उपन्यास का आरम्भ भी, बँगला
और मराठी की अपेक्षा, तनिक
बाद में हुआ। यों तो राजनीतिक दृष्टि से हिंदी क्षेत्र में पुनर्जागरण का आरम्भ
1857 ई. के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से माना जाता है, पर सामाजिक क्षेत्र में पुनर्जागरण का आरम्भ
मुख्यतः आर्य समाज की स्थापना और उसके आंदोलन के साथ हुआ। बंगाल से आरम्भ हुए
पुनर्जागरण की लहर 1860 के आसपास हिंदी क्षेत्र को छूने लगी थी। स्त्री शिक्षा का
आंदोलन, विधवा-विवाह का समर्थन, बाल और वृद्ध विवाह का विरोध आदि इसी के
परिचायक थे।’’(गोपाल राय, हिंदी उपन्यास का इतिहास, पृ.23)
प्रस्तुत उपन्यास भी प्रचलित उपन्यास
के ढाँचे को तोड़कर रचा गया है। इसमें बहुत से स्थलों पर आत्मकथा का बोध होता है तो
अधिकांशतः संस्मरणात्मक कथा का। संस्मरण कुल्ली का है और आत्मकथा निराला की। अतः
इसे संस्मरणातमक आत्कथा कहा जा सकता है परंतु कथ्य की व्यापकता इस औपन्यासिक रूप भी
प्रदान करती है। कथ्य का प्रस्तुतीकरण भी बहुत ही रोचक एवं प्रासंगिक है। कुल्ली
भाट विषय और शैली की दृष्टि से निराला का नवीन प्रयोग है। आलोचकों ने ‘कुल्ली भाट’ को निराला की रेखाचित्र शैली की औपन्यासिक कृति
माना है। रेखाचित्र होते हुए भी इसमें जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण आदि विधाओं के तत्व पर्याप्त मात्रा
में सन्निहित है। शैली वैविध्य इसकी प्रमुखता है। इसमें कहीं कथात्मक शैली को
अपनाया गया है तो कहीं विशुद्ध वर्णनात्मक तो कहीं व्यंग्यात्मकता है और कहीं पर
शुद्ध निबंधात्मक शैली का परिलक्षण होता है। यह कृति निराला के वैयक्तिक जीवन
प्रसंगों से उद्भूत है, परिणामस्वरूप
इसमें घटनापरक तथ्यात्मकता, अनुभव
की गहनता का सर्वत्र परिलक्षित होता है। निराला का उपन्यास ‘कुल्ली भाट’ उनके अनुभव की ही कलात्मक अभिव्यक्ति हैं
कुल्ली निराला के मित्र थे। जीवन चरित लिखने के लिए जिस जीवन की तलाश में निराला
बहुत दिनों से थे वह उन्हें कुल्ली में दिखाई पड़ा। ‘‘जीवन चरित जैसे आदमियों के बने और बिगड़े कुल्ली
भाट ऐसे आदमी न थे। उनके जीवन का महत्व समझे ऐसा अब तक एक ही पुरूष संसार में आया
है, पर दुर्भाग्य से अब वह इस संसार में
रहा नहीं-गोर्की। पर गोर्की में भी एक कमजोरी थी; वह जीवन की मुद्रा को जितना देखता था, खास जीवन को नहीं।’’(पं. नंदकिशोर नवल,1997) कहने का आशय यह कि निराला जीवन की
मुद्राओं की तुलना में ‘खास
जीवन’ को अधिक महत्व देते थे, इसीलिए उन्होंने जीवन चरित्र लिखने के लिए
कुल्ली का चयन किया। भाषा शैली एवं चरित्र चित्रण की उदात्ता के मामले में यह एक
उच्च कोटि का उपन्यास है। ‘‘कुल्ली
भाट कुल्ली भाट अपनी कथावस्तु और शैली-शिल्प के नएपन के कारण न केवल निराला के
गद्य-साहित्य की बल्कि हिंदी के संपूर्ण गद्य-साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है।
यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि कुल्ली के जीवन-संघर्ष के बहाने इसमें निराला का
अपना सामाजिक जीवन मुखर हुआ है और बहुलांश में यह महाकवि की आत्मकथा ही है। यही
कारण है कि सन् 1939 के मध्य में प्रकाशित यह कृति उस समय की प्रगतिशील धारा के
अग्रणी साहित्यकारों के लिए चुनौती के रूप में सामने आई, तो देशोद्धार का राग अलापने वाले राजनीतिज्ञों
के लिए इसने आईने का काम किया। संक्षेप में कहें तो निराला के विद्रोही तेवर और
गलत सामाजिक मान्यताओं पर उनके तीखे प्रहारों ने इस छोटी-सी कृति को महाकाव्यात्मक
विस्तार दे दिया है, जिसे
पढ़ना एक विराट जीवन-अनुभव से गुजरना है।‘‘( http://rajkamalprakashan.com/ default/kullibhat)
’कुल्लीभाट‘ उपन्यास में चरित्र कम जीवन तत्वों की अधिकता
है,जिसका प्रमाण पूरे उपन्यास में
परिपूर्ण है। निराला ने बड़े उद्देश्य को लेकर इस छोटे से उपन्यास की रचना की है।
इस उपन्यास को ध्यान में रखकर नागार्जुन ने एक महत्वपूर्ण बात कही है-’’बड़े नगरों में रहकर आधुनिकता और प्रगतिशीलता का
निर्वाह बड़ी आसानी से किया जा सकता है। सनातन रूढ़ियों से जकड़े हुए ग्रामतंत्री
समाज के बीच रहते हुए क्रांतिकारी निराला का वह जीवन चैमुँहें संघर्ष का जीवन था।
यहाँ इलाहाबाद जैसे शहर में हम उस संघर्ष का आभास नहीं पा सकेंगे और अब पच्चीस-तीस
वर्ष हो रहे हैं, बैसवाड़े
के ग्राम्यांचल का वह समाज भी अवश्य बदला होगा।‘‘(नागार्जुन,2011) निराला ‘कुल्ली’ के चरित्र का वर्णन करते हैं तो उसके पीछे उनकी
मंशा साफ जाहिर है- व्यक्ति को उसकी सम्पूर्णता में समझना, सिर्फ उसकी कमियों को ही न देखना बल्कि उसके
सामथ्र्य को भी रेखांकित करना। निराला के व्यक्तिगत जीवन की उपेक्षा, उनकी शक्ति को न पहचाना जाना भी उपन्यास में
व्यक्त हुआ है-‘‘संसार में साँस लेने की भी सुविधा नहीं, यहाँ बड़ी निष्ठुरता है; यहाँ निश्चल प्राणों पर ही लोग प्रहार करते हैं; केवल स्वार्थ है यहाँ।’’(नंदकिशोर नवल, 1997) राजकुमार सैनी का मानना है-‘‘कुल्ली भाट’ निराला के व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया को
उद्घाटित कर देता है। सन् 1937 में-कुल्ली
भाट’ की रचना हुई और यही वह समय है जब
निराला आभिजात्य सौंन्दर्य और तत्त्संबंधी अभिरूचियों के मोहपाश से मुक्त होकर
जनवादी मूल्यों और अभिरूचियों की ओर तेजी से आकृष्ट हुए।’’(राजकुमार सैनीः 1981) आलोचक डॉ. राजेन्द्र
कुमार का मानना है-‘‘स्व’ और ‘पर’ को
परस्परता में इस तरह साधना कि जीवन दोनों तरफ से खुलता चला जाये, न इधर के पूर्वाग्रह उसे आँख दिखायें, न उधर की वास्तविकताएँ उससे आँख चुराएँ-यह कला
निराला के यहाँ परवान स्वीकार करने को तैयार न थे। पिता के लाख मना करने के बावजूद
निराला ने पं.भगवानदीन की पतुरिया के यहाँ खाना न छोड़ा।
उपसंहार :-
अंत में यही कहा जा सकता है कि
प्रस्तुत उपन्यास एकाधिक पक्षों सहित्य निराला जी की रचनाशीलता, सामाजिक प्रतिबद्धता, साहित्य कौशल का बहुत ही उत्कृष्ट नमूना है।
जहां यह उनके जीवन का वृतांत कहता है वहीं समलैंगिकता को भी बहुत ही सशक्त रूप से
प्रस्तुत करता है। एक समलैंगिक व्यक्ति में जीव वैज्ञानिक दुर्बलताओं के होने के
बावजूद उसके व्यक्तित्व में राष्ट्रीयता, चारित्रिक उत्कृष्टता को उद्घाटित करता यह उपन्यास जहां निराला के
व्यक्तिगत जीवन का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज
है वहीं समलैंगिकता की बहस की दृष्टि से भी उत्कृष्ट कृति कहा जा सकता है। ‘स्रवन्ति’ पत्रिका
की सह-संपादक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने विगत माह हैदराबाद मंे आयोजित एक संगोष्टि
में ‘नई सदी के हिंदी साहित्य में किन्नर
विमर्श’ पर प्रस्तुत किए गए शोध पत्र में कहा
कि “किन्नर विमर्श की दृष्टि से नीरजा माधव
कृत ‘यमदीप’, निर्मला भुराडिया कृत ‘गुलाम मंडी’, महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’ और प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ इस उपेक्षित और हाशियाकृत समुदाय की जीवन शैली, उनकी समस्याओं, उनकी पीड़ा, उनका आक्रोश, संघर्ष और जिजीविषा की कहानी को पाठक के समक्ष
प्रस्तुत करते हैं तथा सोचने के लिए बाध्य करते हैं।’’ उन्होंने यह भी कहा कि “हिंदी कथासाहित्य में किन्नर विमर्श के बीज
1939 में प्रकाशित निराला जी की संस्मरणात्मक कृति ‘कुल्ली भाट’ में उपलब्ध होते हैं। बाद में नई कहानी दौर के
प्रमुख लेखक शिवप्रसाद सिंह की ‘बहाव
वृत्ति’ और ‘विंदा महाराज’ शीर्षक कहानियों में इसका अंकुरण हुआ।” इस वक्तव्य को उनके ब्लाॅग पर पढ़ने के बाद ‘कुल्ली भाट‘‘ को पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई, चूंकि मैं यमदीप को ही इस दिशा में पहला प्रयास
मान रहा था। वस्तुतः निराला का यह उपन्यास उस प्रकृति में थर्ड जेंडर का उपन्याय
नहीं है जिस प्रकार के यमदीप, मैं
भी औरत हूं, किन्नरकथा, गुलाम मंडी,तीसरी ताली, मैं पायल आदि हैं।
संदर्भ :-
1. https://www.jagran.com/sahitya/literature-news-3038.html
2. http://bharatdiscovery.org/india/
इस्मत_चुग़ताई
3. http://prempoet.blogspot.in/2009/07/blog-post_12.html
4. https://hindi.speakingtree.in/allslides/history-of-homosexuality-493826/265488
5. नंदकिशोर
नवल, निराला रचनावली, भाग-4, (कुल्ली भाट), पृ.23
6. नंदकिशोर
नवल, निराला रचनावली, भाग-4, (कुल्ली भाट), पृ.24
7. नंदकिशोर
नवल,निराला रचनावली, भाग-4, (कुल्ली भाट), पृ.58-59
8. https://sansadhan.wordpress.com
9. डॉ.
रामविलास शर्माः निराला की साहित्य साधना (भाग-दो), पृ.168-169
10. रामविलास
शर्मा, निराला की साहित्य साधना-2, राजकमल, प्रकाशन, दिल्ली-1990, पृ.473
11. नंद
किशोर नवल, निराला रचनावली, खण्ड-4, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-1997, पृ.306
12. नंदकिशोर
नवल, निराला रचनावली-4, पृ.67
13. रामविलास
शर्मा- भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग-2, संस्करण-2012,किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-595
14. रामविलास
शर्मा-भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग-2,संस्करण-2012, किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.-599 एवं 600
15. डॉ.
रामविलास शर्माःनिराला,पृष्ठ
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16. गोपाल
राय, हिंदी उपन्यास का इतिहास, पृ.23
17. पं.
नंदकिशोर नवल,
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18. http://rajkamalprakashan.com/
default/kullibhat
19. नागार्जुनःसबके
दावेदार, फरवरी 2011, पृष्ठ 7
20. नंदकिशोर
नवल, निराला रचनावली, भाग-4, (कुल्ली भाट), पृ.70
21. राजकुमार
सैनीः साहित्यस्रष्टा निराला,1981, पृ. 82
डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह,सहायक प्रोफेसर (हिंदी),राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
जलेसर, एटा, उत्तर प्रदेश,फोन - 7500573935,ईमेल- vickysingh4675@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
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