विदेशी यात्रियों के यात्रा-विवरणों
में जाति-व्यवस्था -डॉ. ब्रज किशोर
सदियों से भारत विश्व के आकर्षण का केंद्र रहा है। हर काल में इस महादेश की सीमाओं को लांघते हुए अनेक यात्री यहाँ आते रहे हैं। परिवहन के प्राचीन और मध्यकालीन साधनों से जब कोई अनेक कष्टों को सहन करते हुए यहाँ आया होगा तो उसके ऐसा करने के पीछे कोई न कोई खास कारण अवश्य रहा होगा। किसी यात्री के यहाँ आने के पीछे राजनीतिक उद्देश्य था तो किसी के पास धार्मिक, कोई अपनी यायावरी के कारण यहाँ तक पहुँच गया था तो कोई धन के लालच में यहाँ आया था और कुछ ऐसे भी यात्री इस देश में पहुँचे जिन्हें उनकी ज्ञान पिपासा यहाँ खींच लाई थी। यात्रा साहित्य पर विचार करते हुए सुरेन्द्र माथुर का कथन है, " भ्रमण ज्ञान का भंडार है। देश-विदेश का भ्रमण करने वाले, जिनमें निरीक्षण करने की शक्ति है, विविध प्रकार के स्थलों को देखते हैं, हज़ारों व्यक्तियों से उनका संपर्क होता है, विभिन्न ऋतुओं से वे आलिंगन करते हैं और नाना प्रकार के पशु-पक्षियों को वे देखते हैं, इस प्रकार ज्ञान का भंडार उनके पास एकत्रित हो जाता है, जिसे वे अपनी लेखनी द्वारा लिपिबद्ध करके समाज को दे जाते हैं।"1 लेकिन यात्रा का कारण चाहे अध्ययन हो या अपने धर्म का प्रचार करना या फिर यायावरी प्रत्येक यात्री ने भारतीय समाज की विरल खामियों-खूबियों को अपने यात्रा-विवरणों में जरूर रेखांकित किया। इन्हीं में से एक जाति-व्यवस्था के प्रभाव के कारण लगभग सब यात्रियों ने इसके तत्कालीन स्वरूप को चित्रित अवश्य किया।
मेगस्थनीज़ (304-295 ई.पू.)
चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में लगभग पाँच साल तक रहा। इसे यूनानी सम्राट सैल्युकस
ने एक राजनीतिक संधि के तहत यहाँ भेजा था। उसने उस समय के भारत का वर्णन अपनी
पुस्तक ‘टा इंडिका’ में किया। उसके
जाति-व्यवस्था विषयक विवरण से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय भारत की जाति-व्यवस्था
अपने शुरूआती चरण में थी लेकिन उसकी गतिशीलता में शिथिलता आने लगी थी। मेगस्थनीज़
ने अपने विवरण के आरंभ में ही लिखा है कि भारतीय समाज सात जातियों में विभाजित है।
ये सात जातियाँ हैं- 1. दार्शनिक,
जो संख्या में कम हैं लेकिन
प्रतिष्ठा में सबसे श्रेष्ठ हैं। ये समस्त राजकीय कर्तव्यों से मुक्त हैं और
गृहस्थ लोगों के द्वारा बलि प्रदान करने तथा मृतक के श्राद्ध करने के हेतु नियुक्त
किए जाते हैं। इस कार्य के लिए बहुमूल्य दान और स्वत्व पाते हैं। 2. दूसरी जाति में किसान लोग हैं जो दूसरों से संख्या में कहीं अधिक जान पड़ते
हैं, पर युद्ध करने तथा अन्य दूसरी राजकीय सेवाओं से मुक्त
होने के कारण वे अपना सारा समय खेती में लगाते हैं। 3. तीसरी
जाति के अंतर्गत अहीर और गड़ेरिए और साधरणतः सब प्रकार के चरवाहे हैं जो न नगरों में
न ग्रामों में बसते हैं वरन् डेरों में रहते हैं। 4. चौथी
जाति में शिल्पकार (कारीगर) हैं। इनमें से कुछ तो कवच बनाने
वाले हैं और दूसरे उन यंत्रों को बनाते हैं जो किसान और दूसरे लोगों के काम के
होते हैं। यह समाज न केवल कर ही देने से मुक्त है वरन् राज कोषाध्यक्ष से अर्थ
सहायता भी पाता है। 5. पाँचवी जाति सैनिकों की है। 6.
छठवीं जाति के अंतर्गत निरीक्षक लोग हैं। इनका कर्तव्य यह है कि जो
कुछ भारतवर्ष में होता है उसकी खोज और देखभाल करते हैं। 7. सातवीं
जाति मंत्री और सभासद लोगों की है अर्थात जो लोग राजकाज के काम करते हैं।2
मेगस्थनीज़ द्वारा वर्णित भारत की तत्कालीन जाति-व्यवस्था की सबसे बड़ी गड़बड़ी यह है
कि उसने जातियों को विभाजित करते समय इनकी श्रेणीबद्धता पर यथोचित ध्यान नहीं
दिया। उसने सबसे ऊपर दार्शनिक अथवा ब्राह्मण जाति को रखा जिसके बारे में उसने कई
अन्य स्थलों पर और अन्य सभी जातियों से अधिक विस्तार से वर्णन किया तथा सबसे नीचे
राजन्य जाति को रखा। ऐसा लगता है कि उसने
श्रम-आधारित जातियों को बीच में रखने के पीछे उसके व्यवसाय यानी राजदूत होने ने
महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। लेकिन अपने जाति-विभाजन के अंत में वह भारतीय जाति-व्यवस्था
की जड़ता की ओर संकेत करना नहीं भूलता। उसका कथन है कि, ‘‘प्रायः
ये ही भाग हैं जिनमें भारतवर्ष का राजनीतिक समाज विभक्त है। किसी व्यक्ति को अपनी
जाति से विवाह करने अथवा अपने निज के व्यवसाय वा कार्य को छोड़ कोई दूसरा कार्य
करने की आज्ञा नहीं है। उदाहरण के लिए कोई सिपाही किसान नहीं हो सकता अथवा कोई
शिल्पकार दार्शनिक नहीं हो सकता।’’3 इससे स्पष्ट
होता है कि उस समय तक विभिन्न जातियों के बीच की गतिशीलता लगभग समाप्तप्रायः हो
चुकी थी। एक जाति में जन्में आदमी के पास अपनी विशिष्टताओं के आधार पर अपने से ऊपर
की जाति में जाना संभव नहीं रह गया था। कई विरोधाभासी वक्तव्यों से भरे मेगस्थनीज़ के
विवरण में राजा द्वारा श्रम-आधारित व्यवसाय में लगे कारीगरों को हानि पहुँचाने
वालों के लिए सज़ा का जो प्रावधान दिया गया है वह महत्त्वपूर्ण दिखाई देता है। वह
एक से अधिक स्थलों पर लिखता है कि, ‘‘यदि वह किसी कारीगर के
हाथ वा आँख की हानि कर देता है तो वह मार डाला जाता है।’’4 मेगस्थनीज़ के यात्रा-विवरणों के आधार पर हम इतना तो दावे के साथ कह सकते
हैं कि उस समय के भारतीय समाज में जाति आधारित विभाजन के बावजूद हर व्यवसाय को आदर
की दृष्टि से देखा जाता था, यद्यपि ब्राह्मण और राजन्य जाति
को समाज में विशेषाधिकार मिले हुए थे।
बौद्धधर्म के ‘विनयपिटक’ की
प्रति खोजने के लिए ईसा की चौथी शताब्दी के आरंभ में फाहियान (401-441ई.) अपने तीन साथियों के साथ चीन से भारत आया। उसका असली नाम कुंग था।
चीनी भाषा में फाहियान का अर्थ होता है-धर्मगुरु। धर्मिक उद्देश्य के लिए की गई इस
यात्रा में वह उत्तर भारत के कई नगरों से गुजरा। पेशावर से होते हुए उसने यमुना और
गंगा के कछार में बसे नगरों मथुरा, श्रावस्ती, काशी, पटना और गया आदि को समीप से देखा। मथुरा का
वर्णन करते हुए वह लिखता है कि, ‘‘सारे देश में कोई अधिवासी
न जीवहिंसा करता है, न मद्य पीता है और न लहसुन-प्याज खाता
है- सिवाय चांडाल के। दस्यु को चांडाल कहते हैं। वे नगर के बाहर रहते हैं और जब
नगर में पैठते हैं तो सूचना के लिए लकड़ी बजाते चलते हैं, कि
लोग जान जाएँ और बचा कर चलें, कहीं उनसे छू न जाएँ। जनपद में
सुअर और मुर्गी नहीं पालते, न जीवित पशु बेचते हैं, न कहीं सूनागार और मय की दुकानें हैं। क्रय-विक्रय में कोड़ियों का व्यवहार
है। केवल चांडाल मछली मारते, मृगया करते और मांस बेचते हैं।’’5 एक अन्य स्थल पर फाहियान ने राजा अशोक विषयक किम्वदंती सुनाते हुए चांडाल
के बारे में लिखा है। इससे चांडाल जाति के व्यवसाय के बारे में और अधिक जानकारी
मिलती है। अशोक ने एक बार पापियों को सज़ा देने के लिए नरक बनवाने की सोची। उसने
मंत्रियों से सलाह की तो उन्होंने कहा कि नरक तो चांडाल ही बना सकता है। उसका कथन
है कि, ‘‘राजा ने मंत्रियों को भेजा कि चांडालकर्मा मनुष्य
खोजो। उन्होंने जलाशय के तीर पर एक मनुष्य देखा जो विशाल, प्रचंड,
कृष्ण वर्ण, कपिश केश और विडालाक्ष था,
पैर से मछली फँसाता मुँह से पशु-पक्षियों को बुलाता और पशु-पक्षियों
के आते ही प्रहार करता और मारता कि एक भी न बचते। ऐसे मनुष्य को पाकर वे राजा के
पास ले गए। राजा ने गुप्त रूप से आज्ञा दी। तू चारों ओर से स्थान पर ऊँची प्राचीर
बनवा, भीतर भाँति-भाँति के फूल-फल लगा, सुंदर घाटवाला सरोवर बनवा, सवर्तोभावेन मनोहर और
चित्ताकर्षक कि लोग चाव से देखने दौड़ें, कपाट सुदृढ़ बनवाना,
लोग जाएँ तो चट पकड़ लेना, भाँति-भाँति की
यातना पापियों को देना, अवरुद्ध करना, बाहर
कदापि न निकलने देना। (और क्या) मैं भी कदापि जाऊँ तो मुझे
भी पापियों की यातना देना, वैसे ही अवरुद्ध करना। अब मैंने
तुझे नरक का अध्यक्ष बनाया।’’6 उपर्युक्त दोनों
उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मेगस्थनीज़ के समय का कारीगर इस समय तक समाज
से बहिष्कृत होकर चांडाल जाति में बदल चुका था। बौद्धधर्म के प्रभाव के बावजूद
समाज में अस्पृश्यता व्यापक रूप से फैली थी। हालाँकि कि फाहियान के वर्णनों में
अतिशयोक्ति के पर्याप्त लक्षण हैं लेकिन इससे हम उत्तर भारत की जाति-व्यवस्था का
अनुमान तो लगा ही सकते हैं। दक्षिण के विषय में भी फाहियान ने लिखा है कि,
‘‘पर्वत से बहुत दूर पर एक बस्ती दुष्ट आचार-विचार वालों की है। वे
न बौद्ध श्रमण, न ब्राह्मण, न अन्य धर्मों
के जानने मानने वाले हैं।’’7 यहाँ सवाल यह पैदा
होता है कि ‘दुष्ट आचार-विचार वाले लोगों’ से फाहियान का क्या तात्पर्य है? उन्हें दुष्ट की
संज्ञा किसने दी है? स्पष्ट है कि ये लोग मुख्यधारा के
नागरिक नहीं हैं और तत्कालीन सवर्ण जातियों ने इन्हें दक्षिण की तरफ धकेल दिया होगा।
ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मध्य एशिया से अल-बिरूनी (1024-1030 ई.) भारत आया। वह प्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोलशास्त्री था। अब तक भारत में
आए विदेशी यात्रियों में वह सबसे अधिक विद्वान था। वह ईरानी मूल का मुसलमान था। 973 ई. में जन्में अल-बिरूनी को अपनी मातृभाषा ‘ख्वारिज़्मी’
के अलावा अनेक भाषाओं-अरबी, फारसी, सीरियाई, संस्कृत आदि का ज्ञान था। उसने अपने जीवन
काल में सौ से अधिक ग्रंथों की रचना की। ‘किताब-उल-हिंद’
नामक पुस्तक में उसने अपने भारत विषयक अनुभवों को लिपिबद्ध किया।
समाजशास्त्री न होते हुए भी इस पुस्तक में अल-बिरूनी ने तत्कालीन भारतीय समाज की
संरचना पर किसी मझे हुए समाजशास्त्री की तरह विचार किया है। जाति-प्रथा के हर पहलू
को उसने गौर से देखा है। हिंदुओं की जातियों पर चर्चा करते हुए उसका कथन है,
‘‘हिंदू अपनी जातियों को वर्ण कहते हैं और वंशावली की दृष्टि से वे
उन्हें जातक अर्थात जन्म कहते हैं। ये जातियाँ आरंभ से ही केवल चार हैं:
1. इनमें सर्वश्रेष्ठ
जाति ब्राह्मणों की है जिनके संबंध में हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि उनकी
सृष्टि ब्रह्मा के सिर से हुई है। और चूँकि ब्रह्मा प्रकृति नामक शक्ति का ही दूसरा
नाम है और सिर पशु के शरीर का सबसे ऊँचा भाग होता है इसलिए ब्राह्मणों को समस्त
वंश का श्रेष्ठ अंग माना जाता है। यही कारण है कि हिंदू ब्राह्मणों को मनुष्य जाति
में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
2. अगली जाति
क्षत्रियों की है जिनके बारे में उनका कहना है कि उनकी सृष्टि ब्रह्मा के कंधें और
हाथों से की गई थी। उनका स्तर ब्राह्मणों से कुछ अधिक भिन्न नहीं माना जाता।
3. उसके बाद वैश्य आते
हैं जिन्हें ब्रह्मा के कंधें से बनाया गया था।
4. और शूद्र ब्रह्मा के
पैरों से बनाए गए थे।
बाद के दो वर्गों के बीच बहुत अंतराल नहीं है। यद्यपि इन वर्गों में
परस्पर भेद है, फिर भी वे उन्हीं नगरों और गाँवों में एक साथ
रहते हैं और एक ही प्रकार के मकानों और स्थानों में एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहते
हैं।’’8 इस उद्धरण से ज़ाहिर होता है कि अल-बिरूनी
ने भारत आकर हिंदू शास्त्रों का विस्तार से अध्ययन किया था। वर्ण-व्यवस्था की उसकी
धारणा हिंदू धर्मग्रंथों से हुबहू ली गई है। इसमें एक जो महत्त्वपूर्ण बात दिखलाई
पड़ती है वह है वैश्यों और शूद्रों के अंतर की। भले ही वह आज बहुत दिखाई पड़ता हो
परंतु अल-बिरूनी के कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय तक यह अंतर इतना उभरा हुआ
नहीं था। अल-बिरूनी ने इन चार वर्णों के
अतिरिक्त एक ऐसे समुदाय के बारे में लिखा है जिसकी गिनती इन चार वर्णों में नहीं
होती थी। उसके अनुसार, ‘‘शूद्रों के बाद वे लोग आते हैं जो
अंत्यज कहलाते हैं। वे विभिन्न प्रकार के निम्न कार्य करते हैं और उनकी गणना किसी
भी जाति में नहीं होती बल्कि उन्हें किसी विशेष शिल्प या व्यवसाय का सदस्य माना
जाता है। उनकी भी आठ श्रेणियाँ हैं और उनमें धोबी, चमार और
जुलाहों को छोड़कर जिनके साथ कोई भी किसी प्रकार का नाता नहीं रखना चाहता आपस में
शादी-ब्याह भी खूब होते हैं। ये आठ शिल्पी हैं-धोबी, चमार,
बाजीगर, टोकरीसाज और सिपरसाज, नाविक, मछुआरा, बहेलिया और
जुलाहा। चारों जाति के लोग एक ही स्थान पर उनके साथ नहीं रहते। ये शिल्पी चार
जातियों के गाँवों और नगरों के निकट लेकिन उनसे
बाहर रहते हैं।’’9 यानी शिल्पी जातियाँ
किसी वर्ण में शामिल नहीं थीं। अल-बिरूनी के इस कथन से उन विद्वानों के मत का भी
खंडन होता है जो चार वर्णों में ही समस्त भारतीय समाज को समेट लेना चाहते हैं।
निम्न जाति के लोगों का वर्णन करते हुए अल-बिरूनी ने फाहियान की चांडाल विषयक धारणा
का विस्तार किया है।
वह
चांडाल और अन्य वर्णेतर जातियों के बारे में कहता है कि, ‘‘हाड़ी,
डोम (डोंब), चंडाल और बधातउ नामक लोगों की
गणना किसी जाति या व्यवसाय में नहीं होती। वे गंदे काम करते हैं, जैसे गाँवों की सफाई और अन्य छोटे काम। उन सबको एक ही श्रेणी का माना जाता
है और उनमें केवल व्यवसायगत भेद ही होता है। वास्तविकता तो यह है कि उन्हें अवैध
संतान माना जाता है क्योंकि आम लोगों की यह धारणा है कि वे शूद्र पिता और
ब्राह्मणी माता की जारज संतान हैं, इसलिए निम्नकोटि के अछूत
हैं।’’10 यहाँ निम्नजातियों में भी उच्च जातियों
के समान सोपानीकरण को देखा जा सकता है। अल-बिरूनी तत्कालीन अवर्णों में विद्यमान
सोपानीकरण को स्पष्ट करते हुए आगे लिखता है कि, ‘‘जातियों के
नीचे जो वर्ग आते हैं उनमें हाड़ियों का स्थान श्रेष्ठ है क्योंकि वे किसी भी गंदी
चीज़ से दूर रहते हैं। इसके बाद डोम आते हैं जो बाँसुरी बजाने और गाने का काम करते
हैं। इनसे भी नीची जातियों का पेशा वध करना और राजदंड देना है। इनसे भी निकृष्टतम
बधातउ हैं जो न केवल मरे हुए जानवरों का माँस खाते हैं बल्कि कुत्ते और अन्य जंगली
जानवर भी खाते हैं।’’11 यहाँ हमें यह स्मरण रखना होगा
कि फाहियान ने अशोक विषयक किंवदंती में चांडाल द्वारा निर्मित जिस नरक का वर्णन
किया है उसमें भी अपराधियों को दंड देने का काम चांडाल जाति के हिस्से में ही आया
है।
शूद्र वर्ण के कार्यों और उसके जीवन-यापन के तरीकों पर भी अल-बिरूनी ने
संक्षेप में प्रकाश डाला है। उसका कथन है, ‘‘शूद्र ब्राह्मण
के सेवक जैसा होता है जो उसके कामकाज की देखभाल और उसकी सेवा करता है। सर्वथा
दरिद्र होते हुए भी यदि यज्ञोपवीत के बिना नहीं रहना चाहता तो वह क्षौम से बनी
जनेऊ धरण कर लेता है। हर वह कार्य जो ब्राह्मण का विशेषाधिकार समझा जाता है-जैसे
संध्या पूजा करना, वेद-पाठ करना और अग्नि में होम देना- उसके
लिए निषिद्ध है। यहाँ तक कि उदाहरण के लिए यदि किसी शूद्र या वैश्य के बारे में यह
सिद्ध हो जाए कि उसने वेद का पाठ किया है तो ब्राह्मण राजा के सामने उसे अपराधी
ठहराते हैं और राजा उसकी जीभ काट डालने की आज्ञा दे देता है।’’12 प्रस्तुत उद्धरण में दो तथ्य ध्यातव्य हैं, एक तो
यह कि अल-बिरूनी ने शूद्र को तीन अन्य वर्णों का सेवक न बतलाकर विशिष्ट रूप से
ब्राह्मण का सेवक बताया है और दूसरी यह कि शूद्र और वैश्य को धार्मिक अधिकारों की
दृष्टि से लगभग समान बताया गया है। इसका उल्लेख एक अन्य प्रसंग में हम ऊपर भी कर
आए हैं। स्मरण रहे कि ग्यारहवीं सदी का भारत बुद्ध के प्रभाव से लगभग मुक्त हो
चुका था और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का वर्चस्व पुनः स्थापित हो गया था। उपर्युक्त
उद्धरणों से इस बदलाव को सहज ही रेखांकित किया जा सकता है।
इस
प्रकार अल-बिरूनी ने बड़े विद्वतापूर्ण तरीके से तत्कालीन भारतीय जाति-वर्ण
व्यवस्था की तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत की है। उसने भारतीय जीवन पद्धति, यहाँ के
विविध रीति-रिवाजों, संस्कार विधियों का विस्तार से वर्णन
किया है।
अल-बिरूनी
से लगभग छह सौ साल बाद शाहजहाँ के शासन काल के अंतिम दौर में फ्रांसीसी यात्री बर्नियर भारत आया। बर्नियर एक
चिकित्सक था। उसने लगभग आठ साल मुगलों की नौकरी की। वह भी अन्य यात्रियों की तरह
भारतीय जीवन-पद्धति से चमत्कृत था। अपने यात्रा संस्मरणों में उसने राजनीतिक
गतिविधियों को विस्तार से लिखा है। आम समाज का कम वर्णन होने के बावजूद उसके
राजनीतिक वक्तव्यों के बीच में हम समाज की झलक भी पा सकते हैं। गरीब किसानों का
वर्णन करते हुए अपने मित्र को लिखे एक पत्र में बर्नियर लिखता है कि, ‘‘देश के
बहुत से लंबे-चौड़े भाग, जिनको लेकर भारतीय साम्राज्य संगठित
है- सूखे पर्वतों तथा रेतीले मैदानों से कुछ ही अच्छे हैं, खेती
की रीति भी खराब है। आबादी भी बहुत ही कम है और खेती के योग्य भूमि का एक बहुत ही
बड़ा भाग कृषकों के दुखों के कारण से जो हुक्मरानों के अत्याचारों से प्रायः तबाह
और बर्बाद हो जाते हैं खाली पड़ा रहता है। ये बेचारे गरीब आदमी जब अपने कठोर और
लालची हाकिमों की इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते तब न केवल इनके गुजारे की वस्तु
छीन ली जाती है बल्कि इनके बाल-बच्चे भी पकड़कर लौंडी-गुलाम बना लिए जाते हैं।’’13 यहाँ यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि यह गरीब वर्ग किस जाति-वर्ण
से संबंध रखता होगा। निश्चित रूप से यह निम्न जातियाँ ही रही होंगी। बर्नियर इस
वर्ग की व्यथा को और अधिक स्पष्ट करते हुए आगे लिखता है कि, ‘‘इसके अतिरिक्त ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसके पास ये बेचारे अत्याचार के
मारे किसान, कारीगर और व्यापारी जाकर अपना दुखड़ा रोएँ।’’14 समय के साथ-साथ शिल्पी वर्ग पर अत्याचारों में होने वाली क्रमशः बढ़ोतरी
को चिह्नित किया जा सकता है। कारीगर की दुर्दशा अभिव्यक्त करते हुए बर्नियर का कथन
है, ‘‘यह तो समझना ही नहीं चाहिए कि अच्छी चीजें बनाने से
कारीगर का कुछ आदर किया जाता है या उसको कुछ स्वतंत्रता दी जाती है, क्योंकि वह तो जो कुछ करता है केवल आवश्यकता अथवा कोड़ों के डर से करता है।
उसको संतोष और सुख मिलने की कभी आशा नहीं होती, इसलिए यदि
रूखा-सूखा टुकड़ा खाने को और मोटा-झोटा कपड़ा पहनने को मिल जाए तो उसी को यह बहुत
समझता है।’’15
सामंतों के उत्पीड़न के अलावा बर्नियर ने
ब्राह्मणों की कुटिलता का वर्णन भी विस्तार से नाराज़गी भरे शब्दों में किया है।
सती प्रथा में ब्राह्मणों की भूमिका का उल्लेख करते हुए बर्नियर लिखता है कि, ‘‘मैंने
स्वयं देखा है कि एक बार ब्राह्मणों ने एक स्त्री को जो चिता से पाँच-छह कदम दूर
ही से हिचकने लगी थी, ढकेल दिया और एक बार जब एक स्त्री के
कपड़े तक आग लगी और उसने भागना चाहा तो इन ब्राह्मणों ने लंबे-लंबे बाँसों की
सहायता से उसे फिर चिता में ढकेल दिया। मैंने प्रायः ऐसी सुंदर स्त्रियों को देखा
है जो ब्राह्मणों के हाथों से बचकर निकल जाती हैं और उन नीच जाति के लोगों में मिल
जाती हैं जो यह जानकर कि सती होने वाली युवती सुंदर है और उसके साथ अधिक संबंधी नहीं
होंगे तो उस स्थान पर अधिकता से एकत्र हो जाते हैं।’’16 बर्नियर ने ब्राह्मणों के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते हुए लिखा है कि,
‘‘इन ब्राह्मणों के कृत्यों को देखकर कभी-कभी मुझे इतना अधिक दुःख
और क्रोध हुआ है कि यदि मेरा वश चलता तो मैं उनका गला घोंट देता।’’17
उपर्युक्त यात्रा वृतांतों के अध्ययन से हम
जाति-वर्ण-व्यवस्था के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझ सकते हैं। भिन्न-भिन्न देशों, धर्मों और
नस्लों के लोगों की नज़र में भारत की जाति-वर्ण-व्यवस्था के रूढ़िबद्ध होते जाने को आसानी से रेखांकित किया
जा सकता है। राज्य पर शासन किसका है, इससे
जाति-वर्ण-व्यवस्था पर विशेष प्रभाव हमें दिखाई नहीं देता। शासक चाहे बौद्ध
मतावलंबी रहा हो या मुसलमान, क्षत्रिय रहा हो या अंग्रेज़
जाति-वर्ण-व्यवस्था क्रमशः जटिल और कठोर रूप धारण करती गई। जो व्यवस्था अपने
आरंभिक दौर में परिवर्तनीय मानी जाती थी उसमें धीरे-धीरे निम्न से उच्च की ओर जाने
का मार्ग बंद हो गया। सर्वपल्ली राधाकृष्णन का मत है की,
"भारत में मुसलमानों के आगमन से पूर्व जाती-भेद इतना अनुल्लंघय नहीं था।
सामाजिक नियमों में तरलता थी तथा विकास के लिए आवश्यक परिवर्तन को किसी कठोर नियम
के अनुरोध से बलिदान नहीं कर दिया जाता था। पुराणों में ऐसे पुरुषों तथा परिवारों
की कथाएँ हैं जिन्हें हीन वर्ण से उच्च वर्ण प्राप्त हो गया था।"18
विदेशी आक्रमणकारियों के कारण जाति व्यवस्था में आई कठोरता पर विचार करते हुए
राधाकृष्णन ने आगे लिखा है, "जब विदेशियों का आक्रमण
हुआ तो हिंदु घबरा गए एवं आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने तात्कालिक
सामाजिक विभाग को स्थाई बना दिया। परिणामतः कुछ जातियाँ वर्ण-व्यवस्था के बाहर ही
रह गईं।"19 इस व्यवस्था
में विकृत रीति-रिवाजों को आश्रय मिला। संसाधनों पर काबिज वर्णों ने निम्न वर्ण के
आगे बढ़ने के सारे रास्तों को अवरुद्ध कर दिया। ऐसी अलंघ्य रेखाएँ खींच दी गईं
जिनको पार कर पाना निम्न जाति-वर्ण के लिए असंभव हो गया। क्षिति मोहन सेन ने इस
विषय पर कहा है कि, "आज हालत यह
है कि जाति-वर्ण की कल्पना को छोड़ने का अर्थ ही समझा जाता है हिंदु धर्म को छोड़ना।
इच्छा से हो या अनिच्छा से, भारतीय आर्य धर्म आज जाति भेद से
इस प्रकार जकड़ गया है कि उससे उसे मुक्त करने की बात कोई सोच ही नहीं पाता।"20 विदेशी यात्रियों ने इन रेखाओं की पहचान कर
अपने लेखन में निम्न जातियों पर होने वाले अत्याचारों को अभिव्यक्ति दी। इन
वृतांतों में कोई भी प्रत्यक्ष संबंध न होने पर भी संबंधों की एक गहरी अंतर्धारा
को परिलक्षित किया जा सकता है।
सन्दर्भ
सन्दर्भ
1. यात्रा साहित्य का उद्भव और विकास, सुरेन्द्र माथुर, साहित्य प्रकाशन दिल्ली, 1962, पृष्ठ 361
2. मेगास्थिनीज़ का भारतवर्षीय वर्णन, आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली, भाग-6, पृष्ठ
275-277
3. वही, पृष्ठ 277
4. वही, पृष्ठ 295-296
5. चीनी यात्री फाहियान का यात्रा
विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2001, पृष्ठ 64
6. वही, पृष्ठ 86-87
7. वही, पृष्ठ 90
8. भारतः अल बिरूनी, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली,
2013, पृष्ठ 40
9. वही, पृष्ठ 41
10. वही, पृष्ठ 41
11. वही, पृष्ठ 41
12. वही, पृष्ठ 218
13. बर्नियर की भारत यात्रा, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली,
2005, पृष्ठ 129
14. वही, पृष्ठ 142
15. वही, पृष्ठ 145
16. वही, पृष्ठ 193
17. वही, पृष्ठ 193
18. भारत की अंतरात्मा, सर्वपल्ली
राधाकृष्णन, दि अपर इंडिया पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड , लखनऊ, प्रथम हिंदी संस्करण 1953, पृष्ठ 60
19. वही, पृष्ठ 63
20. भारतवर्ष में जाति-भेद, क्षिति मोहन
सेन, हिंदी साहित्य प्रैस, इलाहाबाद, सं. 1952, पृष्ठ 130
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
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