सांप्रदायिकता का जीवंत दस्तावेज: त्रिशूल -रहीम मियां

सांप्रदायिकता का जीवंत दस्तावेज: त्रिशूल/ रहीम मियां

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में शिवमूर्ति का त्रिशूलउपन्यास सांप्रदायिकता का जीवंत दस्तावेज प्रतीत हो रहा है। आज के परिदृश्य में जिस प्रकार राम नाम का राजनीतिकरण हुआ है और रामराज्य की जो नई परिकल्पना की जा रही है, वह तुलसीदास के रामराज्य की कल्पना से कितना मेल रखता है, यह जानने के लिए त्रिशूलउपन्यास अपने आप में महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं, यह उपन्यास दंगों की राजनीति और जाति प्रथा के विकृत स्वरूप की गहरी पड़ताल करती नजर आ रही है।

त्रिशूल’ आज के समय में व्याप्त धार्मिक एवं राजनीतिक उथल-पुथल की कहानी हैजहां देशव्यापी सांप्रदायिक तनावजातिगत विद्रूपता एवं हिंसा की साजिश को निर्भयता से बेनकाब किया गया है। जहां शास्त्री जैसा पात्र हिंदू के नाम पर ढोंग करता है और पाले जोकि छोटी जाति का लोक गायक हैहिंदू धर्म ग्रंथों से चुन-चुन कर बुराइयों को सामने लाता है और इसी कारण शास्त्री उसका वध भी कर देता है। आज देश में जिस प्रकार धार्मिक उन्माद फैल रहा है। अपने- अपने धर्मों को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ लगी हैलेखक अपने कथन द्वारा धर्म के स्वरूप को समझाने की कोशिश करते हैं -अन्य धर्मों ने ईश्वर की कल्पना अपने समाज को नियंत्रित करनेउसकी बेहतरी के लिए कीजबकि हमने इसका उपयोग किया अपने ही भाइयों का शोषण करने और हराम की कमाई खाने के लिए। यही नहींहमने अपने शोषण से अपने भगवान तक को नहीं बख्शा। उन्हें कोर्ट - कचहरी तक घसीटा है।

हम आज जितना ही उत्तर आधुनिक होते जा रहे हैंउतना ही धार्मिक उन्मादी भी बनते जा रहे हैं। त्रिशूल उपन्यास में 1990 के बाद के भारत का चित्रण है ,जहां सांप्रदायिक तनाव ही नहीं जातिगत उत्पीड़न की कथा को भी पिरोया गया है। चाहे वह पाले की कथा हो या पागल दास की। शास्त्री जैसे लोग अपने ही धर्म के किंतु नीची जाति के पाले की हत्या कर जश्न मनाने से भी बाज नहीं आते हैं। धर्म आज व्यक्तिगत आस्था का विषय ना होकर अंधी आस्था का पर्याय बनता जा रहा है। आए दिन गौ - रक्षक दल द्वारा मोब लिंचिंग की घटना आम होती जा रही है। श्री राम के नारे लगवानाहिंदुस्तानी होने का सबूत बन रहा है। उपन्यास में महमूद के छाती पर त्रिशूल रखकर कहा जाता है-
बोल सालेजय सिरिराम!” भीड़ जुटने लगती है।

बोलता है कि यही त्रिशूल तेरी.....
भय से महमूद की आंखें चित्तीकौड़ियों की तरह फैल जाती है
पेंट खोल साले की।
बोल रामहमारे बाप है।
अल्ला अकबर पाप है।
नहीं बोलेगातेरी मां की....” 


ऐसी घटनाएं हमें बेचैन ही नहीं करती है बल्किभारतीय मूल्यों पर भी प्रश्नचिन्ह उत्पन्न करती है। लेखक यहाँ यह बतलाने की कोशिश करता है कि काला पहाड़ जैसा आदमी क्यों काला पहाड़ बनाइस समस्या की ओर संकेत करते हुए प्रोफेसर अरुण होता’ ने ठीक ही कहा है कि - सच है कि त्रिशूल राम मंदिर - बाबरी मस्जिद विवाद को आधार बनाकर रचा गया है। लेकिनयह उपन्यास आज भी अपनी सार्थकता प्रतिपादित करने में समर्थ है। आज भी जाति और धर्म के नाम पर धर्म उन्मादी नेता अलगाव को बढ़ावा दे रहे हैं। घृणा की भावना को फैलाए जा रहे हैं।

सांप्रदायिकता हो या जातिवाद भारतीय समाज की यह कोई नई समस्या नहीं है। सांप्रदायिकता कहते ही हिंदू - मुस्लिम संप्रदाय की बात उठ चलती है। वही जातिवाद कहते हीसवर्ण और दलित जातियों के बीच के संघर्ष का बोध हो जाता है। यह दोनों ही चीजें भारतीय जनमानस में वर्षों से इस कदर घर कर बैठी है कि हम चाह कर भी इससे मुक्त नहीं हो पाते हैं। हम जब - जब इन समस्याओं से उबरने की कोशिश करते हैंराजनीतिक दल इन्हीं दो संवेदनाओं को अपनी कूटनीतिक एवं राजनीतिक चालों से हवा देता है और हम उत्तर- आधुनिक युग में भी मध्ययुगीन हो जाते हैं। संप्रदायिकता ऐसी भावना है कि इसके जन्म होते ही हमारी पहचानहमारे सारे गुण गायब हो जाते हैं और सारी चीजें आकर धर्म पर केंद्रित हो जाती है। हम अपने धर्म से पहचाने जाने लगते हैं। उपन्यास में हम देखते हैं कि जब तक शास्त्री जी यह नहीं जानते कि महमूद मुस्लिम हैशास्त्री का वह प्रिय चेला होता है। चाय बनवानालड्डू बटवानासारे कार्य महमूद शास्त्री के घर में करता है। तब शास्त्री का धर्म नष्ट नहीं होता है। और महमूद का धर्म पता चलते ही मानों एकदम से दुश्मन बन जाते हैं- मैं कहता हूंअभी भी वक्त है कि इन कटुओं को खदेड़ कर पाकिस्तान भगा दिया जाए। वरना पचास साल बाद क्या होगा जानते हैं?” 


मंदिर - मस्जिद मुद्दा उपन्यास में जिस कदर चरम पर हैवह स्थिति हमें आज के परिवेश की याद दिलाती है। उन मुद्दों के बीच महमूद नाम का युवक सब कुछ सुनते हुए भी तटस्थ रहता है। इससे पहले न तो लेखक को महमूद के मुस्लिम होने का बोध हुआ और न महमूद को ही यह बोध हुआ कि वह मुस्लिम है और किसी हिंदू के घर में काम करता है। हिंदू धर्म में गाय के प्रति गहरी आस्था है और आज इस आस्था का भी राजनीतिक प्रयोग मानव हिंसा में किया जा रहा है। इसकी पहचान शिवमूर्ति ने अपने उपन्यास में गहराई से किया है। जब शास्त्री जी जैसे लोग लेखक के गाय रखने पर सच्चे हिंदू होने वाली बात कहते हैं- क्यों नहीं साहब! गाय पाल कर आप सच्चे हिंदू का धर्म निभा रहे हैं । गो ब्राह्मण की सेवा। आपको देखकर ही लगता है कि आप आस्थावान व्यक्ति हैं और जीवन का मूल है आस्था।

सांप्रदायिकता की आग फैलाने में अफवाहों का गहरा हाथ होता है। पहले अफवाह एक कान से दो कान होता था किंतुआज तो अखबार और सोसल मीडिया इन अफवाहों का हब बना हुआ है। लेखक ने एक जगह इन अखबारों की भी खबर ली है। वे लिखते हैं–“वे दिन गएजब अफवाहें फैलाने का काम संचार माध्यमों से कटे दूरदराज के अनपढ़ देहाती करते थे। उनके लिए अफवाहें खबरों के अभाव की पूर्ति करती थी ।अब यह काम भी अखबारों ने अपने हाथ में ले लिया है।“ अफवाहों और झूठ का फायदा लेकर ही सांप्रदायिक सौहार्द को कमजोर करने का प्रयास होता है। ऑडियो और कैसेट द्वारा भड़कीले भाषण सुना कर अघोषित कर्फ्यू की स्थिति पैदा की जाती है। किसी के गांव न पहुंचने की खबर को भी तूल देकर बलिदान का नाम दिया जाता है और उसके गांव अस्थि - कलश भेजा जाता है। उपन्यास में हम देखते हैं -अस्थि-कलश भेजने में पूरी तत्परता दिखाई जा रही है। जैसे ही खबर पहुंचती है- अमुक गांव के राम गरीब और घसीटे नाम के दो राम भक्त 15 दिन बाद भी वापस गांव नहीं पहुंचेउनके अस्थि -कलश रवाना कर दिए जाते हैं। इन अस्थि-कलशो में उन राम भक्तों की अस्थियां कितनी होती है यह प्रश्न ही निरर्थक है।

आज भी हिंदुस्तान में लोग मुसलमान के नाम से डरते हैं। मानोमुसलमान होना सबसे खतरनाक है। हमारी मानसिकता में मुसलमानों को लेकर एक नकारात्मक सोच ने घर कर रखा है। लोग न तो मुसलमान (मुसल्लीम ईमान वाला) को जान पाते हैं और ना ही इस्लाम को। अधिकांश लोग मुसलमान और इस्लाम को अखबार और सोशल मीडिया से जानते हैं। उपन्यास में भी लेखक ने अपने बच्चे के माध्यम से इस सोच को बताया हैजो हमारे मानस पर बैठा हुआ है।



‘’मुसलमान कौन होते हैं बेटा?”

‘’बच्चे पकड़ने वालेआग लगाने वालेछुरा भोंकने वाले?”

‘’किसने बताया?”

‘’सभी बच्चे जानते हैं।

‘’उन्हें किसने बताया?”

‘’पता नहीं।

‘’तुमने किसे बताया?”

‘’महमूद को।

‘’उसने क्या कहा?

‘’वह हंस रहा था।

मैं हंसकर कहता हूं, “बेटामुसलमान तो महमूद भी है।

नहीं पापा।बेटा आशंकित होते हुए कहता है,”वह तो भाई जान है।“ 


सांप्रदायिक तनाव के समय जब महमूद आदमी से मुसलमान बन जाता हैतो शास्त्री जी उसे अपने बेटे के अगवा करने के झूठे इल्जाम में फंसा कर पुलिस द्वारा पिटवा कर मोहल्ले से निष्कासित करवा देते हैं। यह कथा किसी स्थान विशेष की न होकर संप्रदायिक तनाव के दिनों कीपूरे भारत की कथा बन जाती हैजिसे लेखक ने संवेदनात्मक तरीके से जोडा है। सांप्रदायिकता की आग इतनी तेज होती है कि हम पर धर्म हावी हो जाता है। महमूद इतने सालों तक लेखक के घर रह कर भी मुसलमान ही रहा और सारे मोहल्ले का काम करके भी वह उनका न हो सका। जो उनका कभी नहीं थासांप्रदायिकता ने उसे महमूद का अपना बना दिया। दो अपरिचितों के बीच कोई रिश्ता न होते हुए भीधर्म हमारा रिश्ता बना देता है। और सालों - साल साथ रह कर भी हमें हमारा धर्म एक दूसरे से अलग कर देता है। उपन्यास के अंत में जब महमूद को छोड़ने के लिए नाई के लड़के के आने की बात होती हैतब लेखक सोचता है- ” मैं रोमांचित हो जाता हूं। सचमुच क्या निहायत गाढ़े दिनों में अपने ही काम आते हैंअपना कौन हैपराया कौनआज तक हम इसके अपनेथे। आज पराए हो रहे हैं। वे लड़के कल तक पराए’ थे। आज जाते-जाते सगे हो गए।

महमूद का लेखक के घर को छोड़कर जाना साधारण घटना नहीं है। अपने घर से विस्थापित होना है और वह भी शास्त्री जैसे लोगों के कारण। लेखक इस बात पर जोर देते हैं कि महमूद अब कहां जाएगा?- “तब किस घर गया होगा महमूदकहीं नियति को यही तो मंजूर नहीं कि वह किसी- न- किसी काला पहाड़‘ की शागिर्दी करें।” महमूद का इस तरह जाना भारतीय संस्कृति का विनाश होना है। लेखक कहता है –“लगता है महमूद के साथ ही हमारी युगो - युगो से संचित सहिष्णुताउदारताऔर विश्वबंधुत्व की पूंजी आज इस घर को हमेशा - हमेशा के लिए अलविदा करके जा रही है।“ ‘राधेश्याम सिंह’ ने इंडिया इंसाइड’ पत्रिका में ठीक ही लिखा है-  त्रिशूल में सांप्रदायिकताधार्मिक कट्टरता को उतरने की कोशिश की गई है और जातिवाद के घातक प्रभाव का वर्णन है। जातिवादसांप्रदायिकता और धर्मांधता का यह त्रिशूल महमूद की छाती में कम हमारे ग्रामीण समाज की छाती में ज्यादा धसा हुआ है।

अमेरिका में आतंकवादी हमले होने के बाद हर मुस्लिम को शक की नजर से देखा जाने लगा था। आतंकवाद कहते ही लंबी दाढ़ी और टोपी वाला नक्शा सामने आ जाता है। सोचने वाली बात है कि आतंकवाद का ऐसा चेहरा साम्राज्यवादी ताकतों और मीडिया की ही देन है। ऐसा माहौल बनाया गया है कि इस खास चेहरे से हर किसी को नफरत हो जाए। हिंदुस्तान में इसे धार्मिक सांप्रदायिकता का रंग दिया जाता है। चुन-चुन कर हिंदू और मुसलमान के अंतर को समझाया जाता है और ऐसा कुछ संगठन बखूबी करते हैं। उपन्यास का शास्त्री जी ऐसे ही संगठन के विचारों के पालक हैं। राम मंदिर- बाबरी मस्जिद विवाद‘ में वह सांप्रदायिक एजेंडा लेकर सामाजिक सौहार्द को नष्ट करने का काम करते हैं। उनके अनुसार इतिहास में हुई सारी गलतियों का जिम्मा सिर्फ मुसलमान ही है । वह कहते भी हैं – ‘’आप काशी में मथुरा में जा कर देखिए किस तरह मंदिर की छाती पर चढ़कर मस्जिद मूंग दल रही है। इसी मथुरा में सिकंदर लोदी ने मंदिरों को तोड़करमूर्तियों के अवशेषों से कसाईयों के बटखरे बनवा दिए थे। हमारे इन मर्म -स्थलों पर आक्रांताओ को घाव करने की क्या जरूरत थी और अगर यह ज्यादती या भूल हुई है तो इसे सुधारा क्यों नहीं जा सकता?“ शास्त्री जी के अनुसार मुसलमान यकीन के लायक ही नहीं है और एक दिन महमूद भी कथावाचक के सारे परिवार को मार कर चंपत हो जाएगा। वे तो कुरान के आयत की भी झूठी व्याख्या करते हुए समझाते हैं कि हिंदू ही मुसलमान के कट्टर दुश्मन हैइसलिए मुसलमानहिंदुओं के विश्वास के काबिल नहीं। इस बात पर लेखक इतिहास से उदाहरण देकर इसके विरोध में कहता है –“ऐसा आप किस आधार पर कह रहे हैंआपको मालूम हैहल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की घुड़सवार सेना का प्रधान मुसलमान और अकबर का प्रधान सेनापति हिंदू था। इसी अयोध्या में हिंदू मंदिरों के प्रबंधक मुसलमान थे और वर्तमान में है।

 लेखक ने उपन्यास में केवल मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिंदू सांप्रदायिकता की बात भी कही है और यह दिखाने की कोशिश की है कि हिंदू संप्रदाय किस प्रकार एक झूठ से डरे हुए हैं। शास्त्री जी का वस चले तो सारे मुसलमानों को पाकिस्तान भगा दे। उनके कथन में एक झूठ का डर दिखता है जब वह कहते हैं - एक-एक मुसल्ला चार-चार शादी कर रहा है और एक-एक से चौदह-चौदह बच्चे निकाल रहा है। परिवार -नियोजन इनके लिए हराम है। यही रफ्तार जारी रही तो पचास साल बाद देश की दो-तिहाई आबादी मुसलमान होंगे। तब दो - तिहाई बहुमत से देश का संविधान बदला जाएगा। और भारतवर्ष इस्लामिक कंट्री’ घोषित होगा। देश के सारे मंदिरों को तोड़कर मस्जिदे बनाई जाएंगी। हजारों हजार बाबरी मस्जिदें। भारत माता जार -जार रोएगी। मैं साफ - साफ देख रहा हूंदेश फिर बाबर की संतानों की गुलामी में जकरा जाने वाला है।

जातिवादी व्यवस्था पर शिवमूर्ति ने अपने कई उपन्यासों में गहरी चोट की है जिसकी मिसाल तर्पण’ उपन्यास में सबसे अधिक है। त्रिशूल उपन्यास में भी उन्होंने पाले के माध्यम से भारतीय समाज में किस प्रकार जातियों में मिलावट किया गयायह बताना नहीं भूलते हैं। पाले अपने भाषण में कहता है- “ शांत शांत। यह भी सुनिए। इस नारे से कोई ऊंचा कोई दूसरा नारा शायद ही हो दुनिया में। लेकिन अपने पुरखों के इस नारे में भाई लोगों ने ऐसी मिलावट की कि एक से बढ़कर हम साढ़े चार हजार हो गए। साढ़े चार हजार जातियां। इसमें भी सैकड़ों तो ऐसी जिनकी परछाई पड़ने मात्र से निर्जीव लोटाथारीबावडीतक अपवित्र हो जाए। जितनी जाती-पाँति और छुआछूत वसुधैव- कुटुंबकम का नारा देने वालों ने फैलाया।.....इनके आदमी तो आदमी देवी - देवता और भगवान तक जातिवादी है। आज से नहीं,अनादि काल से।“ इस जातिवादी व्यवस्था के शिकार होने से वे राम को भी नहीं छोड़ते हैं और भगवान राम को भी ब्राह्मणवादी चंगुल में फंसा मानते हैं। उपन्यास में कथन है– “हम कथनी -करनी का अंतर समझाने निकले हैं। राम जब तक जंगल में  छोट भाइयों’ के बीच रहते हैंतब तक शबरी के घर खाने और केवट को गले लगाने से परहेज नहीं करतेलेकिनजैसे ही अयोध्या पहुंचते हैं ब्राह्मणवाद के चंगुल में फंस कर मैले हो जाते हैं। गर्भवती पत्नी को घर से निकालने और तपस्वी का सिर काटने लगते हैं। ऐसी खतरनाक जगह है अयोध्या। हम ब्राह्मणवाद के चंगुल में फंस कर मैले हो गए राम को धोकर शुद्ध करने निकले हैं। हमें तो  ऐसा भगवान चाहिएजो हमारे थक जाने पर घंटे-दो-घंटे के लिए हमारे हल की मुठिया थाम सके। अयोध्या के राजा हमारा खेत जोतने आ सकते हैं?“ राम भक्त होकर राम को ठगने की बात आम है। एक कहावत है- मुंह में राम -राम बगल में छुरा” ऐसे राम भक्तों से बचने की सलाह मानो वक्ता उपन्यास में दे रहा है। मानोयह आज के समय का आईना है। उपन्यास में हम देखते हैं- “ जैसे पार्टी बाज राम भक्तों के लिए कहता था कि इनकी माया में मत फसीए। ए मारिचकी संतान है। मारिच ने भी राम का नाम लिया था। पर क्या वह राम भक्त थाउसने तो राम का नाम लेकर खुद राम को ठग लिया था। ऐसे ही ठगहार हैं ये राम-भक्त।

सांप्रदायिकता की आग को फैलाने में दोनों संप्रदायों का हाथ होता है। कभी गौ-मांस को आधार बनाया जाता हैतो कभी मुसलमान और काफ़िर के बीच अंतर समझाया जाता है। कभी सहिष्णुता और असहिष्णुता पर बहसें चलाई जाती हैतो कभी लव जिहाद और घर वापसी का दौर चलाया जाता है। और यह काम दोनों संप्रदाय के लोग अपने -अपने तरीके से करते हैं। लेखक ने एक स्थान पर उपर्युक्त प्रसंग को निडर होकर उठाया है। -दिनों दिन कितना विकृतकितना असहिष्णु होता चला गया हमारा धरम कि महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में बछिया खाकर पंडित ज्ञानी वसिष्ठ तृप्त होते हैं। कृतार्थ होते हैं। महाराज रत्निदेव के यहां जिन अतिथियों के लिए प्रतिदिन दो हजार गाय काटी जाती हैजिनके चमड़े और खून से बुंदेलखंड के चर्मणवती नदी बह जाती है। उनमें से एक भी विधर्मी नहीं होतात्याज्य नहीं माना जाता और कालांतर में समाज के ज्यादा प्रबुद्ध हो जाने पर धोखे या जबरदस्ती से गाय की सूखी हड्डी मुंह में चले जाने भर से भाई हमेशा - हमेशा के लिए भाई से अलग हो जाता है।“ सांप्रदायिक दंगों का फायदा केवल राजनेता ही नहीं लेते हैं बल्किहर वह इंसान जो स्वार्थी है,  इसका फायदा उठाता है और मारा जाता है साधारण जन। उपन्यास में भी मुस्लिम बहुल इलाके में तीन घरों के जलने की खबर अखबार में आता हैतो इधर गांव में जो नाई की दुकान थीउसे भी किसी ने आग के हवाले कर दिया है और आगजनी में नाई के लड़के का नाम भी नामजद किया जाता है। इसका फायदा उधर मंदिर का पुजारी उठाता हैजो नाइ के जमीन पर कब्जा कर बैठता है। -झोपड़ी वाली जगह पर दो चौकिया जोड़ कर ,उस पर कंबल बिछाए बैठा हनुमान मंदिर का पुजारी लोटे में चाय पी रहा है। हनुमान जी ने रातोंरात दर्जी की झोपड़ी वाली जमीन को अपने परिसर में मिला लिया था।“ तो उधर शास्त्री जी राम मंदिर वहीं बनाने के नाम पर चंदा वसूलता है और रसीद देता है।

धर्म का रोजगार कहें या धर्म का राजनीतिकरणआज यह व्यवसाय अपने जोरों पर है। अयोध्या में जिस प्रकार धर्म का हाहाकार दिखाई देता है और राजनीतिक दल धर्म के तवे में जिस प्रकार अपनी -अपनी रोटी सेकने में लगे रहते हैंइसकी पोल उपन्यास में पाले नामक पात्र अपने भाषण में खोलता है ।-भाइयों! छोटे -बड़ेअमीर -गरीबपेड़रुखनदी,  पोखर सबको मेरी बंदगी । .... अभी – अभी आपने अयोध्याजी में अजवै नजारा देखा। धरम को हाहाकार । .....कुछ लोग हमारे धरम का रोजगार करने निकल पड़े । हमारे भाई लोगो को बलि चढाने को रोजगार। जैसे बलि देने के पहले बकरे को टिका लगाते हैं वैसे ही वे हमारे माथे पर धरम का टीका लगाने के लिए गांव – गांव घूमने लगे ताकि हम धरम के नाम पर मूँड कटाने में आनाकानी न करें। तो हमें अपने भाईयों को सावधान करने के लिए निकलना पड़ा।“ पाले चुकी छोटे जात से आता है और सवर्णों का वह विरोधी हैवह सनातन धर्म पर भी कई सवाल खड़ा करता है और इसे भी धर्म पर मिलावट का नाम देता है।- हमारी आबादी कितनी हैनब्बे करोड़। और हमारे देवी-देवताओं की बानवे करोड़। छत्तीस कोटि देवता और छप्पन कोटि भवानी । एक -एक आदमी के कंधे पर एक -एक मुफ्त खोर सवारी गाठ़े हैं। देवता कौनमुफ्त खोर!  जो हल की मुठिया नहीं थामता। कमाते हैं हम। भोग लगाता है वह।  हम खटने के लिए पैदा हुए हैं और वे भोगने के लिए। और देवी -देवता भी कैसे-कैसेकोई गुरु की पत्नी पर चढ़ बैठता है तो कोई अपनी सगी बेटी पर.... थू थू! इससे बढ़कर मिलावटइससे ज्यादा गिरावट और क्या होगी?

वर्तमान समय में शहरों के नाम परिवर्तन का प्रचार-प्रसार बढ़ा है और इसे शुद्धिकरण का नाम दिया जा रहा है। हालांकि नामकरण परिवर्तन कोई नई घटना नहीं है ।यह ऐतिहासिक दौर से लगातार जारी है। इसके पक्ष में इतिहास में हुई गलती को सुधारने का तर्क दिया जाता रहा है। इस तर्क पर प्रहार करते हुए उपन्यास में लेखक कहते हैं –“अपने शूद्र राजा बृह्दृथ का सिर काटकर राजा बने ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने चौसठ हजार  बौद्ध बिहारो  को मटियामेट किया था। आज के न जाने कितने मंदिरों के नीचे ध्वस्त बौद्ध बिहारो के अवशेष दबे हैं। अगर बौद्धगण आज अपने ध्वस्त बौद्ध बिहारों का पुनर्निर्माण उन्हीं गर्भगृह पर करने की जिद शुरू कर दे तो.....साड़े चार सौ साल पुरानी गलती का सुधार शुरु हुआ है तो लगे हाथों एक्किस-बाइस सौ साल पुरानी गलती भी सुधार ली जाए।..... यह भी तय हो जाना चाहिए कि किन-किन और कब तक की गलतियोंज्यादतियों का सुधार किया जाएगा।

शिवमूर्ति एक ग्रामीण कथाकार है। इसलिएगांव के पशुओं और पंछियों का चित्रण करना वे नहीं भूलते हैं। इनकी लेखनीइनकी संवेदनाओं से जुड़ जाती है। जिस महमूद के प्रति पूरे मोहल्ले वाले संवेदनाहीन हो जाते हैंउसी मार खाए महमूद के प्रति संवेदना एवं प्यार उनके द्वारा पाले गए जानवर दिखाते हैं ,जिनकी सेवा में महमूद कभी थकता नहीं था --"दोपहर में ऑफिस से होता हुआ बच्चों को लेकर लौटता हूँ तो देखता हूँमहमूद बाहर धूप में गाय के पास चारपाई बिछाए नंगे बदन औधे मुँह पड़ा है। शायद सो गया है। गाय उसके सिर के बालों को बड़े मनोयोग से चाट रही है। चाटते- चाटते रूकती है। कुछ सूंघती है। पीठ पर बैठे हुए कौवे के लिए पूँछ उठाती है। कान हिलाती है। और फिर चाटने लगती है।  कौआ पूँछ के आसपास की किलनियां निकाल रहा है । बछड़े का मुंह महमूद के पैताने तक पहुंच रहा है। वह उसके तलवे में अपना थुथून रगड़ रहा है।  हम लोगों ने तो गाय को कुछ बताया नहीं।  उसने  महमूद के दुख को कैसे जानाकैसे उसे सांत्वना देने की जरूरत समझीराम जाने।



अत: उपर्युक्त विवेचन के पश्चात हम कह सकते हैं कि शिवमूर्ति जी द्वारा रचित यह उपन्यास एक ओर हिंदू- मुस्लिम सांप्रदायिकता को दर्शाती हैतो दूसरी ओर भारतीय समाज के जातिवादी स्वरूप की परतों को उभारती है। उपन्यास में यह दिखाया जा रहा है कि किस कदर धर्म का राजनीतिकरण होता है और सांप्रदायिकता की आग को फैलाया जाता है। साथ ही पाले जैसा नागरिक जो हिंदू होने के बावजूद अपनी ही जाति के सवर्णों द्वारा हत्या का शिकार होता है। अतः निष्कर्ष के रूप में विपिन तिवारी’ के शब्दों में कहे तो–“1992 के बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने, 2002 के गोधरा दंगों ने और अब हाल के असम दंगों ने शिवमूर्ति जैसे लेखकों को और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है। वास्तव में जब तक समाज की सामंती व्यवस्था और मानसिकता समाप्त नहीं होगीजब तक सांप्रदायिक शक्तियां पराजित और समाप्त नहीं हो जाएंगीतब तक स्वस्थ और अखंड भारत का स्वप्न दु:स्वप्न ही रहेगा।


संदर्भ-ग्रंथ
1.      ‘त्रिशूल’-   उपन्यास -  शिवमूर्ति।

2.      ‘संवेद’- फरवरी – अप्रैल, 2014,- शिवमूर्ति- विशेषांक।

3.      ‘इंडिया - इंसाइड’- साहित्य – वार्षिकी, 2016,- शिवमूर्ति -विशेषांक।

4.      ‘लमही’ - अक्टूबर – दिसंबर, 2012, शिवमूर्ति -विशेषांक।

5.      ‘मंच’- जनवरी-मार्च, 2011,- शिवमूर्ति- विशेषांक।



अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019)  चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा

Post a Comment

और नया पुराने