संघर्षमय
जीवन की सशक्त अभिव्यक्तियां/ साक्षी सिंह
"गत कुछ वर्षों में हिंदी दलित साहित्य में जो हलचल
दिखाई दी है उसमें कई नाम उभरे हैं, उनमें से
एक नाम डॉ. श्योराज सिंह बेचैन का है. श्योराज सिंह बेचैन का कार्य
शोध, आलोचना, कथा, कविता और पत्रकारिता आदि
कई विधाओं में है. लेखन कि उनकी हर विधा के केंद्र में दलित समस्या है, दलित जीवन के प्रश्नों से
जूझता हुआ उनका अत्यंत संवेदनशील कवि है और वह अपनें पूरे दायित्व बोध के साथ है".(1)
उपरोक्त कथन डॉ. ओमप्रकाश वाल्मीकि ने हिंदी के प्रसिद्ध दलित कवि, आलोचक और चिन्तक डॉ. श्योराज सिंह बेचैन के
सन्दर्भ में कहा है. डॉ. बेचैन हिंदी दलित साहित्य और चिंतन के प्रमुख हस्ताक्षर
हैं. उपरोक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि बेचैन जी साहित्य की विभिन्न विधाओं
में सक्रीय और सशक्त भागीदारी निभा रहे हैं. इनकी रचनाओं का केन्द्रीय विषय दलित जीवन
की समस्याएं ही हैं लेकिन इनकी लेखनी सिर्फ दलित समस्याओं तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि
हर दमित शोषित तबके के लिए बेचैन जी संवेदनशील साहित्यकार के रूप में सामने आते हैं.
इन्होने महिलाओं, मुसलमानों, मजदूरों और अश्वेतों के साथ भी अपनी पीड़ाओं को एकाकार कर
के देखा है. बेचैन जी की रचनाओं का संसार काफ़ी बड़ा और गहरा है.
डॉ. बेचैन का कविता संग्रह 'चमार की चाय' वाणी प्रकाशन द्वारा २०१७
में प्रकाशित किया गया जिसमें उनकी १९८० से लेकर अब तक की छोटी-बड़ी कुल ५७ कविताओं
को संकलित किया गया है.
चमार की चाय में
संकलित कविताओं में हमें पर्याप्त विषय वैविध्य देखनें को मिलता है. इस संकलन की कवितायेँ, इतिहास के साथ किये गए घालमेल, परम्परागत जड़ता, सामाजिक ढाँचे और राजीतिक
चालाकियों के माध्यम से जाति प्रथा की चालाकियों एवं अनाचार के समीक्षक के रूप में
प्रस्तुत की गई हैं.
कवि का ह्रदय, भारतीय समाज में जाति के नाम पर हो रही कुटिलताओं और दलितों
के साथ हो रहे छल कपट के प्रति प्रश्नवाचक हो कह उठता है कि-
" जन्म हुआ उस घर में मेरा,
श्रम-सेवा कर जीता है
मैं कहता हूँ गौरव है यह,
द्विज जन कहें नीचता है
मान किया जिसका भी मैंने,
उसनें क्यों अपमान किया?"(2)
किसी भी काम के आधार
पर या किसी जाति विशेष में पैदा होनें पर किसी मनुष्य को नीच कहे जाने या उसके साथ
अमानवीय व्यवहार किये जाने का पूरजोर विरोध करते हुए कवि बताता है कि-
"ऊँच-नीच कुछ नहीं-
अलग जाति हैं हम
...........................
बेशक
हम वंचित हैं
हम अभाव ग्रस्त हैं
अन्याय त्रस्त हैं
अधिकार हीन
तो इन सबका मतलब
कोई, किसी तरह-
का नीच होना नहीं है"(3)
कवि व्यक्ति की गरिमा और अधिकारों की पैरोकारी करता हुआ यह
स्पष्ट करता है कि इंसान चाहे किसी भी देश, काल, लिंग और आर्थिक परिस्थिति में जन्म ले उसे अपनें हिस्से के
अधिकार मिलनें ही चाहिए और उसे इन अधिकारों से कदापि वंचित नहीं किया किया जाना चाहिए.
इस विषय पर बेचैन जी मानवीय मूल्यों के साथ-साथ भारतीय संविधान में भारत के सभी नागरिकों
को प्रदान किये गए 'गरिमा पूर्ण जीवन के अधिकार' के प्रति भी अपनी निष्ठा
व्यक्त की है. वे लिखते हैं कि-
"फूल लाल रंग का हो
या सफ़ेद रंग का
सभी को चाहिए
अपनें-अपने
हिस्से का वसंत"(4)
श्योराज जी नें अपनी कुछ कविताओं में दलित स्त्री की पीड़ाओं
और क्षमताओं को भी उधृत किया है. वे लिखते हैं कि-
"उन्होंने पुख्ता-
इन्तेजाम कर लिया है
तुम्हें प्यार से मारनें का
.........................
पर किसे अंदाजा है तुम्हारी कुव्वतों का
कि तुम
कितनी मेहनती
कितनी वफादार
कितनी जुझारू
कितनी सहनशील
बहिष्कृत बच्चों की
अस्पृश्य माँ हो"(5)
कवि आह्वान करता है कि दलित और स्त्री दोनों को एक साथ हो
कर साझा मुक्ति संघर्ष करना चाहिए. वे मुक्ति संघर्ष के विफल होनें को लेकर भी चिंतित
है और दलितों और स्त्रियों दोंनों के अलग-अलग मोर्चों पर मुक्ति संग्राम को वे इसकी
बड़ी वजह मानते हुए लिखते हैं कि-
" और मुक्ति युद्ध
दलित स्त्री को साथ-
साथ ना रहनें से
विफल रहा है"(6)
हालाँकि, मुक्ति के साथ मोर्चे का विचार आशंकित करनें वाला है क्योंकि 'स्त्रीवादियों' और 'दलित स्त्रीवादियों' दोनों नें ही इस विचार की
मुखालफत करते हुए ये माना है की दलित आन्दोलन के चरित्र में कहीं ना कहीं पितृसत्तात्मक
मूल्य अभी भी बचे हुए हैं और वे ना तो स्त्रियों का नेतृत्व को स्वीकारते हैं और ना
ही उनकी समस्याओं और प्रश्नों को दलित समस्याओं और प्रश्नों के जितनी तरजीह देते हैं, इसलिए जिस प्रकार प्रगतिशील
और मार्क्सवादी आन्दोलन के भीतर जाति प्रथा बनी रहनें के कारण दलित आन्दोलन उनसे भिन्न
रहता है उसी प्रकार दलित आन्दोलन में पितृसत्तात्मक मूल्यों के होनें से स्त्री और
दलित-स्त्री आन्दोलन दलित आन्दोलन
से भिन्न है. किन्तु बेचैन जी की 'संवाद' कविता सन्दर्भ में उल्लेखनीय है, जिसमें कि शायद उन्होंने
आत्मालोचना के माध्यम से दलित-स्त्री के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को बड़ी ही ईमानदारी से
लिखा है-
"...मैं जानती हूँ
तुम सो नहीं सकोगे
गांधी जी नहीं
तुम अम्बेडकर ही बनोगे
मैं मर गई तो किसी
ब्राह्मणी से पुनर्विवाह करोगे"(7)
बेचैन जी, हालिया निजाम की कारस्तानियों से बदहाल दलितों की स्थिति
से भी बेपरवाह नहीं हैं और सरकारी तंत्र के किसानों के प्रति संवेदनहीन रवय्ये पर प्रहार
करते हुए लिखते हैं कि-
"इच्छा मृत्यु,
मांग रहे हैं,-
दलितों के पचास परिवार
मांग नहीं यह
राजनीति है
टी.वी. पर बोली सरकार"(8)
इस संग्रह की प्रमुख
कविता 'चमार की चाय' गहरी संवेदनाओं के साथ समाज
और व्यवस्था पर कई प्रश्न खड़े करती है. पूरी कविता का शिल्प कथात्मक है जिस के माध्यम
से कवि नें एक गरीब दलित छात्र के जीवन की त्रासदी को दर्शाया है कि किस प्रकार पहले
ग़रीबी और फिर जाति उसकी शिक्षा के मार्ग में बाधा बनती है. कविता के माध्यम से कवि
एक गहरा प्रश्न पाठक के मन पर छोड़ जाता है कि-
"वह बालक
मुर्दा लवार उठाने गया
किसी नें नहीं रोका
बूट पालिश करनें
फुटपाथ पर बैठ गया
किसी नें ऐतराज नहीं किया
होटल पर बर्तन धोने लगा
किसीने उसके
पढनें का इंतज़ाम नहीं किया
लेकिन जब वह बालक कालेज जानें योग्य हुआ और एक मित्र की सहायता
से एक चाय की दूकान खोल कर उससे अपना और अपनी पढ़ाई का हरच निकालनें लगा तो-
"एक दिन एक ओबीसी मित्र आया
और उसके दरवाज़े पर
लिख कर चला गया-
कि यहाँ 'चमार की चाय मिलती है'
फिर क्या था
'चमार की चाय'
पीना तो दूर
छुई भी नहीं जा सकी"(9)
दलितों के साथ-साथ महिलाओं और मुसलामानों पर हो रहे शोषण
पर तो कवि की दृष्टि जाती ही है साथ ही वे अश्वेतों के साथ हुए नस्लीय उत्पीड़न और भेदभाव
के प्रति भी संवेदनशील हैं. वे अपनी कई कविताओं में भारतीय दलितों की तुलना अश्वेतों
से करते हैं और कहते हैं कि 'अछूत और अश्वत जोड़ते हैं हमें'. 'गंगी बब्बा चोखा मेला' कविता में वे लिखते हैं
कि-
"ओबामा के दादा-
रसोइया थे ब्रिटिश आर्मी में
और मेरे बब्बा
गुलाम भी थे और अछूत भी"(10)
कवि मानता है कि यदि इस गोरक्षक और मानवभक्षक समाज से खुद
को बचाना है तो ब्राह्मणवादी-जातिवादी व्यवस्था से शोषित-उत्पीड़ित सभी लोगों को भाई-चारे से काम लेना होगा और
सामूहिक रूप से इस संकट से निकलनें की लड़ाई लड़नी होगी-
"तुम संघर्ष नहीं करोगे तो
प्रेम और भाई चारे की
डूबा ही देंगे नैया
दलित औ मुस्लिम
डूब जाएंगे-
बचेगी केवल गैया"(11)
आज़ादी से पूर्व सभी नें ये सपना देखा था कि आजादी के बाद
देश संविधान के अनुसार चलेगा और एक समता मूलक समाज की स्थापना होगी जिसमे सभी को सम्मान
से जीने का अधिकार मिलेगा. किन्तु स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी भारतीय समाज में
जाति व्यवस्था अपने विकृत और विकराल रूप में विद्यमान है जो लाखों लाख देशवासियों के
हितों और जीवन पर कुंडली मारे बैठी है. इससे हताश हो कर कवि लिखता है कि-
"यह दलितों का कत्लेआम
सैंतालीस के बाद से अब
लेता नहीं रुकने का नाम
.....................................
मातादीन भंगी के बच्चे मिला ढोएँ
उधम सिंह चमार
के घर में
हिन्दू आग लगाने पहुंचे
अब यह देश
चलेगा कैसे?
................................................
स्वराज
दलितों पर गैर-दलितों का राज ही"(12)
धर्म और संस्कृति के सन्दर्भ में भी बेचैन जी नें अपनी कविताओं
के माध्यम से अपना पक्ष स्पष्ट रूप से रखा है. दलितों को हिन्दुओं में गिनने की गांधीवादी
अवधारणा का खंडन करते हुए वे लिखते हैं कि जिस समाज(हिन्दू) में दलित अछूत माने जाते
हैं वे उस समाज का हिस्सा नहीं हो सकते साथ ही वे डॉ. अम्बेडकर की सभी मान्यताओं
को शिरोधार्य मानते हुए उनके बौद्ध धर्म स्वीकार लेनें की मुखालफत करते हैं और कहते
हैं कि-
"...बाबा साहब की
सब शिक्षाएं शिरोधार्य हैं
पर बुद्ध कि शरण में जाना
उचित है या अनुचित
मेरे रैदास, मेरे कबीर
मेरे अछूतानन्द मेरी स्मृतियों में आना मुझे समझाना"(13)
बैचैन जी का मानना है कि जातिवादी उत्पीड़न से मुक्ति की लड़ाई
दलितों और महिलाओं को खुद लड़नी होगी और उसके लिए आवश्यक है कि दलित समाज शिक्षित हो
और शिक्षा और ज्ञान के माध्यम से वो मनुवाद को मात दे सके. 'मनु को मात' शीर्षक कविता में उन्होंने
लिखा भी है कि-
"मनु एक भूत है
डरावना भूत
अनपढ़ बच्चों
और पर्दाकाश महिलाओं को
यह भूत सरेआम खा जाता है
.........................................
मनु गरियाने से नहीं
अपनी विद्या बुद्धि बढानें से मात खाता है"(14)
सन्दर्भ ग्रंथ सूची-
(1)-चमार की चाए, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१७, भूमिका, डॉ. ओम प्रकाश वाल्मीकि
(2)-वही, पृष्ठ सं.-४१
(3)-वही, पृष्ठ सं.-१३०
(4)-वही, पृष्ठ सं-१३१
(5)-वही, पृष्ठ सं-१७७
(6)-वही. पृष्ठ सं. ८०
(7)-वही. पृष्ठ सं.-१६०
(8)-वही. पृष्ठ. सं.-८१
(9)-वही. पृष्ठ सं.-११८
(10)-वही. पृष्ठ संख्या-१५९
(11)-वही. पृष्ठ सं.-१३३
(12)-वही. पृष्ठ सं.-८४-८५
(13)-वही. पृष्ठ सं.-१२२
(14)-वही. पृष्ठ सं.-१४७-१४८
साक्षी सिंह,शोधार्थी, हिन्दी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
एक टिप्पणी भेजें