अप्रतिम
बिज्जी वाया मालंचद तिवाड़ी -नीलम
जाँगिड़
दुनियाभर के लिए राजस्थान का लोकजीवन और उसकी लोककथाएँ हमेशा से आकर्षण का
विषय रहा है। बिज्जी अर्थात् विजयदान देथा ने लोक के इस आकर्षण को कथाओं के बाने
में जिस तरह बुना, उसने उन्हें
राजस्थानी कथालोक से एकमैव कर दिया। वे लोक के कुशल चितेरे थे। यही कारण है कि जब
भी बात राजस्थानी लोक की होती है तो सबसे पहले बिज्जी याद आते हैं। कथापुरूष
विजदान देथा शहरों से दूर ही रहे हैं। बोरुंदा गाँव उनका स्थायी निवास रहा है। यह
जोधपुर से कोई साठेक किलोमीटर दूर स्थित है। वही गाँव, जहाँ रहते हुए उन्होंने अपनी देशज बतकहियाँ अंदाज में
सैकड़ों जीवंत कथाएँ बुनी। ऐसी बतकहियाँ वही बुन सकता है, जिसने उसे डूबकर जिया हो। बोरूंदा के लोक ने बिज्जी को और
बिज्जी ने बोरूंदा को पहचान दी। कुछ इस तरह कि अब वे दोनों एक-दूसरे के पर्याय बन
गए हैं। इसी लोक में डूबकर उन्होंने राजस्थानी लोककथाओं की ऐसी फुलवारी रची कि
पूरी दुनिया वाह-वाह कर उठी। पुरातन कथाओं को आधुनिक रूप तो उन्होंने दिया ही है।
लोक-कथाओं के पुनर्लेखन के साथ-साथ उन्होंने कई नये भावबोध की कथाएँ भी लिखी।
कथाएँ भी ऐसी जिसे अपढ़ और पढ़े-लिखे दोनों बूझ सकें।
यह एक तथ्य है कि विजयदान देथा, गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित
होने वाले दूसरे भारतीय हैं। कथा लेखन में उनकी अगाध आस्था रही है; उससे भी ज्यादा कथा वाचन में। अपने लेखनकर्म पर
उन्हें सर्वाधिक संतोष तो तब मिलता, जब लोग बिना उनका नाम जाने, धड़ाधड़ उनकी
कहानियाँ बाँचा करते। इसी के चलते जब मणि कौल (दुविधा), प्रकाश झा (परिणति) और अमोल पालेकर (पहेली) जैसे समर्थ
फिल्मकार उनकी कहानियों से जुड़े तो वे कहानियाँ रूपहले परदे पर साकार हो उठी। वे
जानते थे कि उनका-सा साहस और प्रेम के रस में रंगा स्थानीयताबोध अन्यत्र दुर्लभ
है। राजस्थान और पश्चिम दक्षिण एशिया के इतिहास और लोकसंस्कृति के संरक्षण के
उद्देश्य से उन्होंने कोमल कोठारी के साथ मिलकर ‘रूपायन’ नामक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण संस्थान को जन्म दिया। असल में बिज्जी की दुनिया प्रकृति से बिछोह
में कराहती मनुष्यता की दुनिया है। उनकी कहानियों के नायक / नायिका उस साझेपन /
सामूहिकता में विश्वास प्रदर्शित करते हैं, जिसे आज की हमारी दुनिया लगातार भूलाती जा रही है। बिज्जी
का बेजोड़पन इसी में है कि उन्होंने यह सब किया और बिना किसी शोर-शाराबे के,
बोरूंदा के अपने घर के एक छोटे से कमरे में
रहकर किया।
बिज्जी प्रकृति के हर जीव की टोह लेने वाले ममतालु कथाकार हैं। संभवतः प्रकृति
से इसी गहरे जुड़ाव के ही कारण वे अपने अंतिम समय की टोह लेने में समर्थ हो सके।
भौतिक स्तर पर एक भरे-पूरे पारिवारिक जीवन और एक व्यक्ति के रूप में उसकी ढेरों
उपलब्धियों और स्मृतियों को तो वे जीते-जी परख ही चुके थे और शायद चुक भी रहे थे।
पर उनकी अभिलाषा एक लेखक के रूप में वे हमेशा जिंदा रहने की थी। जीवन के अन्तिम
पड़ाव में भी वे अपने जीवन के बाद के लेखकीय जीवन के प्रति आश्वस्त होना चाहते थे।
कितनी भली थी उनकी चाहना!
बिज्जी किसी भी तरह की भाषायी दीवारों के धुरविरोधी थे। दो भाषाओं के बीच पुल
बनाने वाला अनुवाद-कर्म तो वे खुद ही शुरू कर चुके थे। राजस्थानी में तो वे लिख ही
रहे थे। हिंदी को भी उनका अगाध स्नेह मिला। वे हिंदी की ताकत और उसके भविष्य को
लेकर आश्वस्त थे। अंतिम समय में वे अपनी सभी कहानियों का हिंदी अनुवाद करवाना
चाहते थे। ऐसे में उनके सामने यक्षप्रश्न यह था कि सैकड़ों पृष्ठों में फैली उनकी
राजस्थानी कहानियों का अनुवाद करे कौन? अपनी कई कहानियों का अनुवाद तो वे खुद कर चुके थे। कुछेक का अनुवाद उनके पुत्र
कैलाश कबीर ने किया। बहुतेरी ऐसी थी जो अछूती रही।
बिज्जी कईयों को इसके लिए समर्थ मानते थे। पर वे उन सबके अधैर्य से वाकिफ थे।
इन ‘कईयों’ में उनके दामाद चंद्रप्रकाश देवल और बेटे कैलाश
कबीर भी शामिल थे। फिर कॉपाराइट, घरेलू कहासुनी और
बँटवारे की कहासुनी अलग से। कौन इसमें माथा लगाए। सब मिलाकर शेष बचे, उनके मानसपुत्र मालचंद तिवाड़ी। किसी दिन मौका
देख उन्होंने मालचंद का हाथ अपने हाथ में लेकर, उनसे वादा ले लिया कि बिना अनुवाद किए वे यहाँ से लोटेंगे
नहीं। ‘बोरूंदा की डायरी’
असल में बिज्जी के मालचंद पर किए अटूट भरोसे की
कथा है।
लेखक मालचंद तिवाड़ी मूलतः कवि हैं। गद्य भी अच्छा लिखते हैं। उसमें भी कथा,
कथेकर और अनुवाद तीनों। एस.जी. वेल्स के ‘टाइम मशीन’ के ‘काल की कल’
शीर्षक से किए उनके सरस अनुवाद से सहृदय पाठक
वाकिफ होंगे। पश्चिम के किसी सर्वकालिक उपन्यास का इतना बेहतर अनुवाद अन्यत्र कम
ही देखने को मिलता है। सूफी और जन कथाओं के वे बड़े गंभीर पाठक रहे हैं। उनके
द्वारा किए सूफी और जेन कथाओं के समकालीन पाठों ने आपको जरूर ही चौंकाया होगा!
उनमें हमारे समय की बहुतेरी विडंबनाएँ और त्रासदियाँ अपने खालिस व्यंजनाओं के साथ
अनायास ही जीवंत हो उठती है। मालचंद ने यह सब इतनी चतुराई से किया है कि वह देशकाल
से परे अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सफल रही। सार्वकालिक रचनाएँ यही तो करती आई
हैं। वह हर समय में उतनी ही प्रासंगिक होती है, जितनी की अपने समय में वे रही होंगी। इसी सुगढ़ व सहृदय रचनाशीलता
के चलते मालचंद बिज्जी के लाडले बने रहे।
'बोरूंदा की डायरी' असल में बिज्जी
के रचना संसार और बिज्जी की वैयक्तिक दुनिया का प्रवेशद्वार बन पड़ी है। बिज्जी के
संस्मरण वाया मालचंद की डायरी। यह रचना संस्मरण विधा में भी नया जोड़ती है। आमतौर
पर संस्मरण बिखरे होते हैं पर यहाँ वे डायरी शैली में लिखे गए हैं। इसलिए उनमें एक
क्रमबद्धता मिलती है। खुद लेखक के लिए डायरी शैली में संस्मरण लिखना अपने आप में
अनूठा अनुभव रहा है। इसे पढने के दौरान लगता है जैसे बिज्जी हमारे आसपास ही कहीं
बैठे है और हमें तौल रहे हैं।
'बोरूंदा की डायरी' में बिज्जी के
बचपणे और हँसोड़पणे के कई जीवट वृत्तांत मिलते हैं, जैसे – एक साक्षात्कार
के संदर्भ में वे मालचंद से कहते है कि “तू ही विजयदान देथा बनकर बैठ जा और इण्टरव्यू दे दे” और फिर तुरंत खुद ही सज-संवरकर पूछते हैं, “क्यों, लग रहा हूँ न दूल्हे जैसा?” जनकवि हरीश
भादानी की मृत्यु पर लिखी मालचंद तिवाड़ी की श्रद्धांजली के आलोक में बिज्जी का यह
कहना कि “मुझ पर भी लिखकर पढ़ा दे
मुझे। मरने के बाद तो दूसरे ही पढ़ेंगे, मैं कैसे पढूंगा?”, पाठकों के रौंगटे
खड़े कर देता है। सच में, यह बिज्जी ही कह
सकते थे। राजस्थानी की सौंधी बतरसिया महक ‘बोरूंदा डायरी’ की सबसे बड़ी
खासियत है। वरना गद्य तो दूसरे भी लिखते है पर मजाल है कि उनमें वह मिल जाए। ऐसा
अपनी मातृभाषा के प्रति सम्मान से ही संभव हो पाता है। हिंदी का भविष्य उसकी
बोलियाँ में हैं वरना अकेली खड़ीबोली हिंदी को अधिक समय तक खड़ा न रख पाएगी।
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ इसके सबसे बड़े उदाहरण थे।
'बोरूंदा की डायरी' में 11 जनवरी 2013 से लेकर बिज्जी के निधन के एक दिन बाद 11 नवंबर 2013 तक अनवरत लिखी गयी टीपें शामिल हैं। जिसमें बिज्जी
जैसे-के-तैसे समा गए हैं। बिज्जी का व्यक्तित्व मालचंद का कद बढा गया। और फिर
एकमात्र वही तो थे जो अपने तमाम संकटों और आपाधापी के बावजूद बिज्जी की अपेक्षाओं
पर खरा उतरे। बिज्जी की अपेक्षाओं पर खरा उतरना तलवार की धार पर धावने से कम नहीं।
इसे आप ‘बोरूंदा डायरी’ में हर कहीं पाएंगे। कहीं-कहीं तो अति हो जाती
है। पर हीरे को निखरने में समय तो लगता ही है। इसलिए लेखक इसका श्रेय अप्रतीम
बिज्जी की सृजनात्मक प्रतिभा को देते है, जिसे आप उपशीर्षक ‘बिज्जी का
विदागीत’ में महसूस सकते हैं।
इसमें बिज्जी और मालचंद दोनों का पुस्तकप्रेमी रूप खूब निखरा है। फिर बिज्जी द्वारा
प्रयुक्त संदर्भसूत्रों को एक किताब की शक्ल लाने का संकल्प तो मालचंद ले ही चुके
हैं। उम्मीद है वह भी कभी-न-कभी सामने आएगा ही।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019) चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा
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