लोकवार्ताओं का सामाजिक एवं ऐतिहासिक महत्व
‘लोकवार्ता’ मूलतः धर्म,
इतिहास, रीति-रिवाज की पारम्परिक-मौखिक अभिव्यक्ति है,जो सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी क्रमिक रूप में चली
आ रही है।लोकवार्ता का प्रमाण हमें वैदिक काल से ही मिलता है। साहित्यिक रूप में
आने से पहले वेद, पुराण, उपनिषद् एवं संहिता आदि वार्ता के ही रूप थे।
महाभारत जैसा ग्रन्थ मात्र एक मनुष्य के चिंतन की देन नहीं है बल्कि इसको कई
पीढ़ियों ने मिलकर सुरक्षित किया है।इसी तरह यशोगान करने वाले चारणों को भी देख
सकते हैं।इसके आलावा हिंदी साहित्य में लोकसाहित्य से गोरखनाथ, खुसरो, विद्यापति, जायसी आदि का
सम्बन्ध विशेष रूप से रहा।भक्ति गीतों का अधिकांश अंश लोकवार्ता के ही रूप में
सुरक्षित है।‘लोकवार्ता’
हमें लोकगीत, लोकनाटक, नौटंकी, लोककथा, लोकोक्ति, मुहावरा, पहेली आदि रूपों में मिलती है।
‘ साहित्य समाज का
दर्पण होता है।’ यह बात केवल
साहित्य पर ही लागू होती है लोकवार्ता पर नहीं। दर्पण का काम है वास्तविकता को
ज्यों का त्यों दिखाना है। जब हम लोकवार्ता के सम्बन्ध में बात करते हैं तो पाते
हैं कि इसमें वाचक की प्रमुख भूमिका होती है। वह परम्परा से सहेजे वार्ताओं के
माध्यम से समाज को दिखाने का प्रयास करता है।लोकवार्ता शिष्ट कहे जाने वाले
साहित्य से एकदम अलग होती है। वार्ता श्रोतावाचक की रूचि के अनुसार बदलती है। यह
जरुरी नहीं की,एक ही कहानी पीढ़ी
दर पीढ़ी उसी रूप में सुरक्षित रहे।समय के साथ उसके कथानक तो वही रहते हैं परन्तु
उसकी भाषा शैली दोनों में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। उदाहरण स्वरूप निम्नलिखित
पंक्तियों को देख सकते हैं -
१. ‘खोला भईया डोलिया क परदा भउजी के उतारी जी
२. ‘खोला भईया करवा क फाटक
भाभी के उतारी जी
उपर्युक्त दोनों भोजपुरी लोक गीत हैं
पर दोनों में भाषिक स्तर आये बदलाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह बदलाव
समय और परिवेश दोनों की देन है। भाषायी स्तर पर बदलाव होते हुए भी दोनों का भाव एक
ही है। ‘बहीना’ की जगह ‘दीदी, ‘भउजी’ की जगह ‘भाभी’ और ‘धन’ की जगह ‘बंदी’ शब्द का प्रयोग
किया गया है | यह भाषागत बदलाव
अनायास या आग्रह से नहीं लाया गया है, यह सायास आया परिवर्तन हैं।जहाँ भाषागत इतना परिवर्तन दिखाई देता है वहाँ किसी
एक लोकभाषा को भाषाई व्याकरण या नियम में बाँधना मुश्किल है। ऐसे दर्पण में समय और परिवेश के अनुसार बदलते
प्रतिबिम्ब का मूल्यांकन किसी स्थिर नियम के तहत नहीं किया जा सकता।
लोकवार्ताओं का मूल्यांकन करने के लिए
साहित्य के पुराने प्रतिमान निरर्थक से जान पड़ते हैं।इनके अध्ययन के लिए नए
प्रतिमानों को गढ़ने की आवश्यकता है।इन प्रतिमानों को गढ़ते समय ध्यान देने की
आवश्यकता है कि- दलित एवं आदिवासी लोकवार्ताओं एवं साहित्य के मूल्यांकन के लिए नए
साहित्यिक प्रतिमान आवश्यक है या नहीं।
हमें लोकसाहित्य/लोकवार्ता को साहित्यिक प्रतिमानों के माध्यम से पूर्णतः
व्याख्यायित या विश्लेषित करने से बचना चाहिए।
आज के युग में जिस शिष्ट साहित्य या
संस्कृति की बात की जाती है, वह लोक की ही देन
है।जिस तरह आधुनिक साहित्यिक भाषाओं की जननी लोक भाषाएँ हैं उसी तरह साहित्य के
रूप के निर्धारण में लोकवार्ताओं का महत्वपूर्ण योगदान है। उदहारण स्वरूपखड़ीबोली
को देख सकते हैं जो भोजपुरी, मगही, मैथिली, बिहारी, अवधी, बुन्देली, ब्रज आदि बोलियों से मिलकर निर्मित हुई है।
लोकवार्ता व्याकरणिक नियम से मुक्त है, उसके नियम वाचक के प्रतिभा के अनुसार बनते-बिगड़ते रहते हैं।
साहित्य में भाषा और व्याकरण के अत्यधिक दबाव के कारण भाव प्रभावित हो जाते हैं पर
लोकवार्ता दोनों से मुक्त अपने भाव को सुरक्षित रखती है। दूसरे शब्दों में कह सकते
हैं कि साहित्य छन्द बद्ध है और लोकवार्ता स्वछंद अबाध गति से प्रवाहमान है।“जो साहित्य, कला और संगीत लोक में रचा बसा है, जनसाधारण के कंठ, आत्मा और जीवन में झंकृत होता रहता है, वही नैसर्गिक है, प्राकृतिक है, शाश्वत है।इस
प्रकार के साहित्य, कला एवं संगीत को
न तो कोई व्याकरण बाँध सकता है और न ही कोई नियम-कायदा।लोक जीवन में समाये हुए
जीवन रस के नितान्त अबोध और मासूम स्वरूप का नाम लोकसंस्कृति है।’’3 लोक साहित्य के अंतर्गत लोक में सुरक्षित
इतिहास, धर्म के साथ-साथ लोकगाथा,
लोक कहानी, लोकोक्ति आदि के ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, नैतिक एवं भाषात्मक महत्व को देख सकते हैं।
अब तक इतिहास को देखने का दृष्टिकोण
सामंतवादी ही रहा है, क्योंकि आज तक
जितना इतिहास मिलता है वह प्राचीन शिलालेखों, ताम्रपत्रों, विदेशी यात्रियों के विवरण और आश्रयदाताओं की यशोगानात्मक रचनाओं के आधार पर
लिखा गया है। इतिहास लेखन में लोक परम्परा की सवर्था उपेक्षा की गयी है। लोक में
सुरक्षित इतिहास पूर्ण रूप से वास्तविक विवरण भले नहीं दे सके, लेकिन जन सामान्य की तत्कालीन राज व्यवस्था के
प्रति क्या प्रतिक्रया रही उसे देखा जा सकता है।उदाहरण स्वरूप इन पक्तियों को देख
सकते हैं –‘आया कंगरेसी ज़माना बिकाय
गवा हमरे कान का बाला।’4 प्रस्तुत पंक्ति में कांग्रेस के शासन काल में
आई महगाई की वजह से आम जनता की क्या स्थिति थी इस बात की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से
देखी जा सकती है।
समाज की अभिव्यक्ति लोक साहित्य में सबसे ज्यादा मिलाती है।लोक साहित्य के
माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित लोक व्यवहार, परम्परा, रीति-रिवाज,
रहन-सहन आदि का परिचय मिलता है। इसका
समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्व है।इसके अलावा सम्पूर्ण समाज का
मानवशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक अध्ययन लोकसाहित्य और लोकवार्ता के बिना संभव नहीं
है।
धर्म, अर्थ और राजनीति का आपस में गहरा सम्बन्ध है। वैदिक काल के
बाद धर्म ने राजनीति और अर्थ को निर्धारित कर दिया। इस निर्धारण में कौन अधिकारी
होगा ?कौन इसके योग्य नहीं है ?
इसके पहले की व्यवस्था को जानना है तो हमें
इसका ज्ञान लोक से ही मिलाता है।लोक व्यवहार का अध्ययन वेदों, पुराणों, स्मृतियों और शास्त्रों के द्वारा संभव नहीं है। इसमें न तो
लोक परम्परा में प्रचलित देवी-देवताओं और विश्वासों का विस्तृत वर्णन मिलाता है और
न ही इनसे अर्थ और राजनीति का क्रमिक अध्ययन किया जा सकता है। वैदिक काल से पूर्व
सामाजिक व्यवस्था कैसी रही होगी, इसको जानने में
लोक परम्पराएँ एवं साहित्य दोनों उपयोगी सिद्ध होंगे। उदहारण स्वरूप हम आदिवासी
समाज और साहित्य को ले सकते हैं।
लोकवार्ता में लोक मंगल की भावना
आमतौर पर देखी जा सकती है। लोकसाहित्य या लोकवार्ता में शिष्ट साहित्य के सामान
द्वन्द नहीं है। लोकसाहित्य का अधिकांश हिस्सा नैतिक मूल्यों का प्रबल समर्थक
है।लोक साहित्य में हमेशा पाप पर पुण्य, अधर्म पर धर्म, अन्याय पर न्याय,
झूठ पर सत्य, अज्ञान पर ज्ञान, लोभ पर त्याग, हिंसा पर अहिंसा
की विजय दिखाई देती है। इसका मूल उद्देश्य लोगों में नैतिक मूल्यों का विकास करना
है । इसमें मनुष्य को मनुष्य समझे जाने का आग्रह अधिक दिखाई देता है ।इस आधार पर
यह नहीं कहा जा सकता कि लोकसाहित्य यथार्थ से दूर कल्पना मात्र है।
लोकवार्ता की अभिव्यक्ति का माध्यम
लोक मानस की चित्तवृत्ति है। यह लोक मानस केवल गांवों में ही नहीं है बल्कि शहरों
में भी है। शहर और गाँव की लोकवार्ता में भाषा के साथ-साथ अभिव्यक्ति में
भिन्नतापायी जाती है।लोकवार्ताओं का परिदृश्य अत्यंत व्यापक है।“साधारण जनता जिन शब्दों को गाती है, रोती है, हंसती है, खेलती है-उन सबको
लोकसाहित्य के अंतर्गत देखा जा सकता है। इस प्रकार, देखते हैं कि लोक साहित्य की व्यापकता मानव के जन्म से लेकर
मृत्यु तक है, तथा स्त्री पुरुष,
बच्चे, जवान और बूढ़े लोगो की सम्मिलित संपत्ति है।’’ उदहारण स्वरूप अगर हम एक लोक कहानी को देखे तो अलग-अलग
भाषाओँ में अलग-अलग रूप में अभिव्यक्त होती दिखयी देती है। बंगला भाषी जब राम की
कहानी सुनाएगा तो वह हिंदी भाषियों में प्रचलित कहानी से अलग होगी।वहीँ बंगाल और
बिहार के सीमा का कहानी सुनाएगा तो हो सकता है उसकी भाषा में तो स्वाभाविक मिलावट
मिलेगी, साथ में हो सकता है दोनों
भाषाओँ में प्रचलित रामकथा को समायोजित कराता हो, जो अनायास नहीं, अपितु सायास ही कर रहा हो। उसने समन्वय करने की पूरी क्षमता विकसित नहीं की है
उसे पीढ़ी से मिली है।‘‘डॉ० सत्येन्द्र
ने लोक साहित्य के सात अवयों - सामग्री, सामग्री-विन्यास, विन्यास-शिल्प,
अभिप्राय-ग्रथन, अर्थ-द्योतन, कथन-शैली एवं व्याप्त मनोस्थिति पर विचार किया है। इन्हें इस उदहारण से समझा
जा सकता है- कृष्ण-चरित्र सामग्री है उस चरित्र का रूपांकन कैसा हो, यह चरित्र विन्यास है इसे किस तरह सुन्दरता
प्रदान की जाए, वह शिल्प विन्यास
है। इसमें किसी घटना, अभिप्राय आदि को
व्यवस्थित करते हुए सम्मिलित किया जाये, यहाँ अर्थ-द्योतन है। सामग्री और अर्थ को कैसे ज्यादा से ज्यादा संवेदनीय और
संप्रेषणीय बनाया जाए, यही कथन शैली है।
लोकअभिव्यक्ति के इस पूरे क्रम में शुरू से अंत तक एक मनःस्थिति काम कराती रहती
है। किसी साहित्य में व्याप्त यह मनःस्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। शब्दंतर से
ही लोकमनद है।’’
तमाम लोक प्रचलित विश्वासों और
मान्यताओं से लोकावार्ताओं के भौगोलिक एवं ऐतिहासिक महत्व को अस्वीकार नहीं किया
जा सकता। सभ्य कहे जाने वाले समाज का
इतिहास हमारे सामने तो प्रस्तुत किया जाता है परन्तु दलित आदिवासी समाज का इतिहास
हम कैसे जानेगें ? इसका साधन क्या
होगा ? क्या सभ्य समाज द्वारा
लिखित इतिहास जनता की तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक,आर्थिक स्थिति का
पूर्ण बोध करता है ? जब हम इन
प्रश्नों की तलाश करते हैं तो तमाम शास्त्र बेमानी लगने लगते हैं। अब तक जो इतिहास लिखा गया है, वह इतिहास केवल राजा महाराजाओं का रहा है। हमें जन सामान्य की अभिव्यक्ति लोकवार्ताओं से
ही मिलती है। दलित-आदिवासी इतिहास लिखने के लिए लोकवार्ता एक प्रकार की संजीवनी
है। अगर देखा जाए तो लोक कथाओं का कोई
वैज्ञानिक आधार नहीं हैपर कुछ अंशो तक इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता |
आजकल लोकसाहित्य के लेखन को लेकर अनेक
प्रयोग हो रहे हैं। कुछ लोग लोक साहित्य को लोक भाषाओँ में ही लिखने के पक्षपाती
हैं, तो कुछ लोग सीधे-सीधे
अनूदित करके। लोकवार्ता की पहली शर्त है कि लोक भाषाओँ में ही लिखा जाए।लोकवार्ता
को अगर किसी अन्य भाषा में लिखा जाएगा तो वह अपने वास्तविक रूप से काफी दूर चली
जायेगी। यहाँ प्रश्न और उठता है कि लोकसाहित्य क्या उसी भाषा में लिखा जाये जिस
भाषा में प्रचलित है? ऐसा करने से गैर
भाषा-भाषी लोग अनभिज्ञ नहीं रह जायेंगे ?इस समस्या का मात्र एक ही समाधान है कि अन्य भाषाओं में मूल भाषा से अनुवाद
करके लिखा जाये। उसके मूल रूप का मूल भाषा में संरक्षण आवश्यक है, लिपि भले ही अलग हो।यह बात अलग है कि जब भी
किसी बोली को हम साहित्यिक रूप देते हैं तो उसके मूल रूप में कुछ न कुछ परिवर्तन
आवश्यक हो जाता है। लेकिन वास्तविकता सेवह उतना दूर नहीं जाती, जितना कि
सीधे-सीधे द्वितीय भाषा में अनुवाद करके लिखने से।
लोकवार्ता को लेकर विद्वानों में
पर्याप्त मतभेद है। कुछ विद्वानोंने इसके
प्रारंभिक रूपको गद्य तो कुछ ने पद्य माना है।इस बात पर बहस करने से पहले भाषा के
आदिम रूप को समझने की जरुरत है | मनुष्य के भावों
की अभिव्यक्ति शुरूआती दौर मेंध्वनि संकेतों के माध्यम से होती थी फिर बाद में
धीरे-धीरे वही ध्वनि संकेत चित्रों का रूप धारण करते चले गए। लम्बे कालानुक्रम के
बाद गद्य या पद्य में अभिव्यक्त हुए। लोकवार्ता एकबड़े अशिक्षित जनसमुदाय का
ज्ञानात्मक साधन रहा है।जो लोकवार्ता से लोकसाहित्य का सफ़र तय करने के बाद उसकी
नहीं रह जाती।
लोकवार्ताएं शिक्षित, अशिक्षित या अर्ध्दशिक्षित समाज के मनोरंजन का
साधन मात्र नहीं है अपितु बदलते समाज और संस्कृति के इतिहास बोध का दस्तावेज हैं।
अब तक इसका मुख्य उद्देश्य मनोरंजन करना रहा है परन्तु आधुनिक समय में चल रहे
वैकल्पिक शोध ने लोकवार्ताओं के सामाजिक महत्व को पहचाना और उसकी सामजिक भूमिका को
नए ढंग से विवेचित एवं विश्लेषित करने का प्रयास किया है। लोकवार्ता के अन्तर्गत
इतिहास, दर्शन, राजनीति, धर्म, विज्ञान, भूगोल, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र आदि
विषय भी आते हैं। लोकवार्ता के माध्यम से संस्कृति, सभ्यता के विकास एवं महत्व को पहचानने का प्रयास किया जा
रहा है। अब तक यही माना जा रहा था कि किसी भी युग की सामाजिक स्थिति को जानना हो
तो केवल इतिहास और लिखित शास्त्र ही मुख्य साधन हैं, अब यह धारणा एकदम निराधार है। शास्त्र और इतिहास केवल राजवंशों की सामजिक
सांस्कृतिक स्थिति को बयान कर सकते हैं, सामान्य जनता की नहीं। सामान्य जनता के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, आर्थिक स्थिति को जानने का सबसे उपयुक्त साधन लोकवार्ता ही
है । अतः लोकवार्ताओं कीविभिन्न क्षेत्रों में भूमिका से इनकार नहीं जा सकता।
सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची
[1]भईया डोली का
परदा उठाईये, मैं भाभी को
उतारू। भाई कहता है –बहन मैं कैसे
डोली का परदा खोलू, मेरी पत्नी रातभर
की जागी हुई है।
[2]भईया गाड़ी कार दरवाज़ा खोलिए, मैं भाभी को उतारू। भाई कहता है –दीदी मैं कैसे कार का दरवाज़ा खोलू, मेरी पत्नी रातभर की जागी हुई है।
[3]अंगिका लोक साहित्य, डॉ. बहादुर मित्र पृष्ठ-41
[4] कांग्रेस का राज आते ही, मेरे कानों का बाला बिक गया।
[5)लोक साहित्य की भूमीका,डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय, पृष्ठ 24
[6]अंगिका लोक साहित्य, डॉ० बहादुर मिश्र, पृष्ठ 7
[7]हिंदी भक्तिसाहित्य में लोकतत्व, डॉ० रविन्द्र भ्रमर, पृष्ठ 5
राज बहादुर यादव
दलित आदिवासी अध्ययन एवं अनुवाद केन्द्र, हैदराबाद विश्वविद्यालय हैदराबाद-500046
सम्पर्क raj.hcu2009@gmail.com, 9450 935 935
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
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