बातचीत : “रंगमंच की सीमाओं को तोड़ना बहुत जरूरी होता है।”- एम.के. रैना
( एम.के. रैना (महाराज कृष्ण रैना) एक भारतीय फिल्म अभिनेता, निर्देशक और प्रसिद्ध थिएटर आर्टिस्ट हैं। वर्ष 1970 में नेशनल स्कूल ऑफ
ड्रामा से पास आउट होने के बाद एम. के. रैना जी ने हिन्दी सिनेमा में काम करना शुरू कर दिया था, इस दौरान उन्होंने कई
फिल्मों में काम किया। साथ ही करीबन 13 भाषाओं में 130 नाटकों को भी सफल रंगमंचीय प्रस्तुति दी। )
1. सर आपने निर्देशन का क्षेत्र क्यों चुना?
2. रंगमंच के लिए आपको आज का माहौल कैसा लगता है?
मुझे लगता है रंगमंच बहुत हो रहा है। अब तो ऐसा
हो गया है कि लोग तबला बजाते हैं...बजाना सिखा नहीं है फिर भी बजाते जरूर हैं, यही हाल रंगमंच का है।
ड्रामा करेंगे ड्रामा का रियाज भले ही ना हो। यानि इस में घुस सकते हैं। दूसरा यह
है कि ड्रामा का क्षेत्र जो मैंने लिखा भी है “भारतीय रंगमंच दुनिया का सबसे बड़ा
स्वयंसेवी इंटरप्राइजेज है।” भारतीय रंगमंच में कहीं-कहीं प्रोफेशन है। बाकी सारा
एमेच्योर थिएटर ही होता है, जिसे हम प्रोफेशन नाम देते हैं। हिन्दी क्षेत्र में
कहाँ है प्रोफेशनल ग्रुप? यहां थिएटर किसी कंपनी जैसा नहीं है, जहाँ मैनेजर होते हैं, डायरेक्टर होते हैं...
लेकिन ऐसा नहीं है। मैंने एक संस्था बनाई तो उसमें ऐसा था कि... आ जाओ तुम भी करो...
तुम भी करो... लेकिन अगर लोग ट्रेंड होते हैं तो निखार आता है प्रोडक्शन में। पर यदि
व्यवसाय के रूप में देखेंगे तो वहां कुछ नहीं है, अगर आप पिछले 60-70 सालों का इतिहास देखें
तो मुझे लगता है कि सुविधाएं परेशानी वाली हो गई हैं... सख्त हो गई हैं। तो कंडीशन
और ज्यादा परेशानी भरी हो गई है। आसान कुछ नहीं हुआ है... जैसे कुछ लोग कहते हैं...
क्यों भाई आपको तो सरकार ग्रांट देती है... तो मैं उनसे कहता हूँ कि सरकार ग्रांट
नहीं भीख देती है। एक अच्छे एक्टर को आप महीने में 6000 देते हैं तो क्या है वह? आप देखिए बढ़ई 1500 रुपए लेता है दिन का, राजमिस्त्री 2000 लेता है, वो 30,000 के काबिल हो गए हैं और ऐक्टर
बेचारा 6000 रुपए महीने पर ही रुका हुआ
है। बिल्कुल भिखारी की स्थिति है... चाहे कोई भी सरकार हो, कभी-कभी करोड़ों रुपए
फेंकते हैं... लेकिन अपने लोगों को देते हैं। जिनको ग्रांट मिलता है वो लोग भी
उससे कुछ तूफानी काम नहीं कर पाते...उसमें से काट के अपने लिए कुछ बचाते हैं। अगर
आप देखें तो मुझे लगता है कि जिनके पास पैसा नहीं है... जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी
नहीं है, वह ज्यादा अच्छा करते हैं।
3. आप विदेश भी जाते रहते हैं तो वहां की सरकार और अपने यहां
की सरकार थिएटर को किस तरह से देखती हैं?
वहां पर थिएटर संस्कृति का एक हिस्सा है। अगर उसमें से हम थिएटर
को निकाल लें तो नेशनल थिएटर, रीजनल नेशनल थिएटर, म्युनिसिपल थिएटर, सब में कंपनी होती है और उनको सालों साल ग्रांट मिलती है...सरकार
भी देती है और बिजनेसमैन भी देते हैं। और वो कभी इनके (थिएटर) काम में दखल नहीं
देते। उनसे पूछा जाता है कि इस साल आप क्या-क्या करना चाहते हैं। जैसे आप बिहार के
सिवान जिले के हैं तो उस हिसाब से सिवान का जो लोकल गवर्नमेंट होगा उनका अपना
नेशनल थिएटर होगा अपने लोगों के लिए। छोटे स्तर पर बड़ा काम करते हैं अच्छे तरीके
से...जिसमें बड़े-बड़े डायरेक्टरों को बुलाया जाता है। वहां पर बहुत बड़ा
ऑडिटोरियम होगा... पहले ही विचार कर लिया जाता है कि फलां डायरेक्टर को इस साल
लाएंगे और यह प्ले करेंगे। तो वही सेंटर तक बढ़ता जाता है ...डिस्ट्रिक्ट लेवल का
जो एक्टर होता है धीरे-धीरे नेशनल लेवल तक इन्वाइट किया जाता है, और नेशनल लेवल पर 10 से 15 कंपनियां होती हैं, सिर्फ एक कंपनी नहीं
होती है। लंदन में लंदन थिएटर के साथ-साथ कई उसी के बराबर के थियेटर होते हैं।
अमेरिका में ब्रॉड भी है, ऑफ ब्रॉड भी है और ऑफ ए ब्रॉड भी है ।यहां ऐसी स्थिति नहीं है। यहां म्यूनिसिपलिटी
का मतलब है गंदी नालियाँ साफ करना। सिविल यहां नाम का है लेकिन सिविल काम नहीं
होता। कलात्मकता तो आप भूल ही जाइए आप तुलना भी नहीं कर सकते ।
4. सर क्या पाश्चात्य देशों में भारतीय नाटकों का मंचन होता
है?
5. भीष्म साहनी का कौन-सा नाटक आप सबसे ज्यादा पसंद करते हैं?
देखिए, उनके सारे नाटक
अच्छे हैं। मुझे उनके सारे नाटक अच्छे लगते हैं। ‘आलमगीर’ और ‘रंग दे बसंती चोला’ के बारे में मुझे
इतनी जानकारी नहीं है, लेकिन बाकी के चार नाटक ‘हानूश’, ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘माधवी’ और ‘मुआवजे’ सभी बहुत बेहतरीन
नाटक हैं। भीष्म साहनी जमीन से जुड़े हुए रचनाकार थे और उनका साहित्य भी आम जनमानस
की बात करता है। मैं हमेशा यह कहता रहा कि भीष्म जी मेरे नाटककार हैं पर मैं यह भी
जानता हूँ कि वह अपने विषय में अपने शब्दों के माध्यम से मजबूत और रचनात्मक हैं, उदाहरण के रूप में
आप उनके सारे नाटक देख सकते हैं।
6. पहली बार जब आपने ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ किया, उसकी कुछ यादें हो तो बतायें।
1980 में, दिल्ली में यह
उड़ती उड़ती खबर सुनाई दी कि भीष्म साहनी ने कबीर के जीवन पर आधारित एक नाटक लिखा है।
मैंने भीष्म जी के परिचित और अपने एक थिएटर के मित्र से बात की कि वह कहीं से मेरे
लिए उस नाटक के स्क्रिप्ट की एक प्रति उपलब्ध करा दे। मुझे अपने क्षेत्र वाले उस
मित्र की वजह से भीष्म जी द्वारा हस्तलिखित नाटक की एक प्रति मिल गई। नाटक में
मुझे बहुत सारी संभावनाएं नजर आयीं। लेकिन मैं यह देखकर हैरान रह गया कि नाटक में
कहीं भी कबीर की कविता या उनके पद नहीं थे सिवाय उन जगहों के जहाँ कुछ अधिक नाटकीयता
लानी थी। मैं उनसे उम्र में छोटा था तो इतने वरिष्ठ लेखक से इसका कारण पूछने की
हिम्मत नहीं हुई। एक दिन हमने अपने निवास स्थल पर रात्रि के भोजन का आयोजन किया और
उसमें भीष्म जी को भी निमंत्रित किया। उसके बाद मैंने कबीर के कुछ दोहों की
रिकॉर्डिंग उनको सुनाई, भीष्म जी उन गानों को सुनते- सुनते खो गए। इसी बीच
मौका देख कर मैंने उनसे कबीर के दोहे को ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ ना शामिल करने का
कारण पूछा। लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने मेरी तरफ देख कर के कहा कि, ‘यार! मुझे आता ही नहीं कैसे
करूं....।’ इतने सरल जवाब की उम्मीद मुझे नहीं थी। मैं जवाब
सुनकर हैरान हो गया।
7. आप निर्देशक और कलाकार के बीच किस प्रकार का संबंध
मानते हैं?
निर्देशक और कलाकार के बीच एक परिवार जैसा संबंध होता है। मैं अपने बच्चों के साथ एक परिवार जैसा माहौल बनाए रखता हूँ वह मेरे लिए परिवार के सदस्यों के बराबर हैं। जितने भी सदस्य होते हैं उनके दिमाग में अगर कोई आईडिया हो तो मैं उसको सुनता हूँ अगर आइडिया मुझे बेहतर लगता है तो मैं उसको यूज में लाता हूँ क्योंकि सब के पास एक अपनी समझ होती है एक ही विषय पर सब के विचार अलग-अलग होते हैं तो उनमें से जो बेहतर विचार होता है उसको प्रयोग में लाने के लिए प्रयास करता हूँ। निर्देशक और कलाकार के बीच एक परिवार जैसा संबंध होना चाहिए। डायरेक्टर किसी प्रोजेक्ट पर काम करता है तो कलाकार को समझाता है कि प्रोजेक्ट क्या है? और उस प्रोजेक्ट में उस कलाकार का विश्वास होना चाहिए जो निर्देशक बतलाता है, तभी वह प्रोजेक्ट सफल हो सकता है।
8. आज के हिन्दी रंगमंच के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या
है?
मुझे लगता है कि आज के हिन्दी रंगमंच का जो हाल
है वह बहुत ही बुरा है। ऑर्गेनाइज कुछ नहीं है...छोटा-मोटा काम इधर-उधर हो रहा है
और सामूहिक रूप से उस काम का कोई स्वरूप निकल कर नहीं आ रहा है। मैं अभी केरल में
बहुत सारे प्ले देख कर के आया हूँ। करीब तीनसौ प्ले ITFOK-इंटरनेशनल थियेटर
फेस्टिवल ऑफ केरला के लिए। उसमें जो सबसे मुझे कमजोर दिखा वह हिन्दी रंगमंच की
प्रस्तुतियां थी तो यह विषय मेरे लिए बहुत परेशान करने वाला है। लेकिन उसी में जो
मुझे सबसे ज्यादा सरप्राइज किया वह हरियाणा का प्ले था। हरियाणा से जो बच्चे आए थे, हम उनको जानते भी नहीं
थे कि वे थिएटर में हैं भी... पर उन्होंने बहुत अच्छा काम किया। देखिए, हिन्दी रंगमंच की स्थिति
बहुत खराब है। अगर हिन्दी रंगमंच का स्वरूप प्रादेशिक भी बनता, जैसे उत्तर प्रदेश का अलग
बनता, राजस्थान का अलग बनता, बिहार का अलग बनता तब भी
कोई बात थी। आज के समय में एक एमेच्योर एक्टिविटी, एक एक्स्ट्रा करिकुलर
एक्टिविटी (Extra curricular
activity) की तरह ही हो रहा है... या उसे ऐसे ही लिया जा
रहा है, गंभीर रूप से ज्यादा कुछ
नहीं हो रहा। दूसरी चीज यह है कि ये जो ग्रांट मिल रही है, सरकार की तरफ से, उसकी होड़ जबरदस्त लगी है, वे ग्रांट लेते हैं और
उससे प्ले जैसे-तैसे कर देते हैं, ना उस पर ज्यादा खर्च होना चाहिए और प्ले हो गया...तो खत्म बात। पहले
लोग दिलो जान लगा कर के काम करते थे, लेकिन अब वह चीज नहीं है। अभी जो संस्थाएं बनी हैं ...सिर्फ ग्रांटों
के लिए थिएटर करती हों, वह उसी दिन खत्म हो जाती हैं, जिस दिन ग्रांट खत्म हो गई। तो बात बन
नहीं रही है। आजकल हिन्दी रंगमंच कदम-ताल ही कर रहा है, वह जो 70-80 का दशक था...उससे नीचे
है... आज हिन्दी थिएटर...उससे ऊपर नहीं जा रहा है। जहाँ भी बड़े-बड़े थियेटर
फेस्टिवल होते हैं वहां पर हिन्दी रंगमंच की या उत्तर भारत के रंगमंच की प्रस्तुतियाँ
कम हो गई हैं। गजब यह है कि नॉर्थ ईस्ट बहुत आगे आ रहा है, वहां पर बहुत बढ़िया काम
हो रहा है, केरल वाले बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं... चेन्नई में बहुत अच्छा काम
कर रहे हैं। हम यह नहीं कह सकते हैं कि लखनऊ में बहुत अच्छा काम हो रहा है पर पहले
की बात कुछ और थी, अभी मौजूदा हालात सोचने पर मजबूर करते हैं। हिन्दी रंगमंच की कोई
दशा और दिशा नहीं दिख रही है।
9. एक निर्देशक के तौर पर आप किस प्रकार के नाटकों का
चुनाव करते हैं?
सबसे पहले तो मैं नाटक का संदर्भ देखता हूँ...प्रोडक्शन वैल्यू देखता हूँ... उससे पहले उस नाटक का किस प्रकार का काम हुआ है... क्योंकि इनोवेशन बहुत जरूरी है, उसमें इनोवेशन चाहिए। ‘आषाढ़ का एक दिन’ अगर कोई आज कर रहा है तो क्यूँ कर रहा है? या तो उसमें कोई नई बात करें, नहीं तो सिर्फ संवादों को खड़ा करके बोलने से क्या फर्क पड़ता है। रंगमंच की सीमाओं को तोड़ना, रंगमंच की दहलीजों को तोड़ना बहुत जरूरी होता है, यानि उसमें कोई नई बात होनी चाहिए, चाहे वह स्टेज की लेबल पर हो, अभिनय के लेबल पर हो, कॉन्सेप्ट के लेबल पर हो या इंटरप्रिटेशन के लेवल पर हो।
योगेश कुमार सिंह
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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