आलेख : अश्वेत क्रांति और जॉर्ज
फ्लॉयड /
सन
1960 में अश्वेत आन्दोलन का नेतृत्व करनेवाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर को
अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देनी पड़ी। कहा जा
रहा है कि अमेरिका में इन दिनों जो विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, वह मार्टिन लूथर
किंग की हत्या के बाद दूसरा बड़ा जन-आंदोलन है और हो भी क्यों न आखिर चुप्पी साधे
रहने की भी तो एक सीमा होनी चाहिए। जब-जब इस सीमा का अतिक्रमण हुआ है तब-तब अश्वेत
समुदाय ने अपना सिर अन्याय के विरोध में उठाया है। इससे पूर्व यदि अश्वेतों के साथ
हो रहे अन्याय की बात की जाए तो उस समय भी इसका पुरज़ोर विरोध हुआ था। अश्वेतों के
नेता मार्टिन लूथर किंग ने इस मुहिम की शुरुआत की और रंगभेद तथा नस्लभेद की नीति का
विरोध करते हुए सन “1963 ई. में राजधानी वाशिंगटन में दो लाख अश्वेतों के साथ एक
जुलूस निकाला। यह जुलूस अश्वेत मानस की इच्छाओं और समानता के अधिकार से प्रेरित था
जिसने आगे के बीस वर्षों में इतिहास बदल डाला।”[1]
लेकिन जैसा कि कहा जाता है ‘इतिहास खुद को बार-बार दोहराता है , जॉर्ज के साथ हुए
इस वीभत्स घटना से यही सिद्ध होता है कि उनके लिए इतिहास सदियों से भी नहीं
बदला...!
46 वर्षीय जॉर्ज फ्लॉयड की जिस
निर्दयता के साथ हत्या हुई वह आत्मा को झकझोरकर रख देनेवाली है। हत्या का अंदाज़ भी
बड़ा अनोखा था! फ्लॉयड को मिनेसोटा के मिनियापोलिस में ‘कप फूड्स’ स्टोर के बाहर
पुलिस ने पहले हिरासत में लिया, फ़िर उसकी गर्दन पर घुटनों के बल ( 8 मिनट 46
सेकेण्ड तक ) अपनी जेब में हाथ डाले हुए ऐसे बैठा रहा मानों कोई शेर हिरण को दबोचे
हुए हों। इस दौरान फ्लॉयड 6 बार बेहोश भी हुए लेकिन शोविन का वह क्रूर ‘शो’ तबतक
चलता रहा जबतक फ्लॉयड की मृत्यु नहीं हो गयी। यह मृत्यु महज़ 20 डॉलर के नकली नोट
को लेकर आरंभ हुए उस विवाद के कारण हुई जिसे देकर फ्लॉयड ने ‘कप फूड्स’ नामक स्टोर
से सिगरेट का एक डब्बा ख़रीदा था। जब स्टोरवाले को उन्होंने 20 डॉलर का भुगतान किया
तो उन्हें लगा कि यह नकली है और इसकी सूचना उन्होंने तुरंत पुलिस को दी।
मिनियापोलिस में यह एक प्रोटोकॉल भी है कि यदि कोई नकली रुपये पकड़ में आएं तो उनकी
सूचना आपराधिक सेल अधिकारियों को दिया जाए। बस यहीं से शुरू हो गयी थी जॉर्ज
फ्लॉयड की हत्या की रणनीति! जी हाँ इसे रणनीति ही कहना उचित होगा क्योंकि
अफ्रो-अमेरिकन के बीच होनेवाली इस तरह की घटनाओं के पीछे हमेशा एक रणनीति के तहत
ही ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता रहा है। एक षड्यंत्र रहा है जो नस्लीय भेदभाव और
असामनता को बनाये रखने में मदद करता है।
दक्षिण
अमेरिका के समाज में किस तरह श्वेतों का प्रभुत्व था और किस तरह अश्वेतों को
रंगभेद का सामना करना पड़ता था (है भी!) ; इसके बारे में मार्टिन लूथर किंग ने कहा
था, रंगभेद और नस्लीय भेदभाव का अनुभव मुझे तब हुआ, जब एक जूते के दुकान के श्वेत
कर्मचारी ने उन्हें पीछे की श्रेणी में जाकर बैठने के लिए कहा- “बेहतर होगा कि
आपलोग पीछे की तरफ़ कुर्सियों पर बैठकर अपनी बारी का इंतेज़ार करें।”[2]
इसी से जुड़ा एक अन्य उदाहरण माया एंजेलो की आत्मकथा ‘आई नो व्हाय द केज्ड बर्ड
सिंग्स’ के संदर्भ में है, जहाँ वह लिखती हैं कि किस क़दर स्टंप्स में श्वेत
बच्चियों एवं स्त्रियों ने उनकी दादी को अपमानित किया था-“ छोटी बच्चियों के समूह
ने दादी के आगे ऐसे नृत्य किया जैसे कोई कुत्ते का छोटा पिल्ला हो और इसे देखकर
उसके साथी ज़ोर-ज़ोर से ठहाका मारने लगीं।”[3]
माया एंजेलो इस घटना के संबंध में लिखती हैं कि किस क़दर उनकी दादी (मॉमा) बिना
किसी विरोध के चुपचाप खड़ी इस अपमान को सहती रहीं। बिना अपनी गर्दन घुमाये, बिना
अपने हाथों को हिलाये। यह सब देखकर मैं अंदर ही अंदर आग की तरह जल रही थी, जैसे
जुलाई की धूप जलती है। शायद मॉमा जानती थीं कि घृणा एक ऐसा परजीवी है, ऐसा रोग है
जो एक पवित्र आत्मा को भी नष्ट कर देता है। ‘गॉड हैव मर्सी ऑन दोज़ हू हेट।’
उपर्युक्त
उदाहरण का पर्याय यही है कि जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु का कारण क्या केवल 20 डॉलर का
वह नोट ही था अथवा अश्वेत रंग के प्रति वह घृणा का भाव भी जिन्हें देखते ही या तो
उन्हें ज़िन्दा जला दिया जाता था या फ़िर उन्हें गोली मार दी जाती थी अथवा उन्हें
तरह-तरह से अपमानित किया जाता था। जॉर्ज की हत्या के गर्भ में अनेक ऐसे प्रश्न
मुंह बाये खड़ी हैं जिनके उत्तर के लिए इतिहास की ओर रुख़ करना ज़रूरी हो जाता है।
आखिर घृणा का वह कौन-सा रूप हो सकता है जिसने एक मनुष्य की जान ले ली।
जॉर्ज
फ्लॉयड बहुत मिलनसार व्यक्ति थे, खुशमिजाज़ रहनेवाले थे ; यह कहना था ‘कप फूड्स’ के
मालिक माइक अबुमयालेह का। उनके अनुसार फ्लॉयड ‘कप फूड्स’ के नियमित ग्राहक थे।
फ़िर...! नियमित ग्राहक के साथ इतनी बर्बरतापूर्ण कृत्य कैसे हो पाया, सवालिया
निशान खड़े करता है। शायद मालिक का वहाँ न होना ही जॉर्ज फ्लॉयड की मौत का सबब बना।
लेकिन यह एक दूसरा पहलू है। सच यही है कि फ्लॉयड की मृत्यु प्राकृतिक नहीं
अप्राकृतिक है (अन-नैचुरल डेथ)। अब इसके पीछे वहां की मीडिया या कर्मचारी चाहे जो
भी तर्क प्रस्तुत करे कि वह नशे में था, खुद को संभाल नहीं पा रहा था इत्यादि
इत्यादि...! लेकिन हकीक़त यही है कि जॉर्ज फ्लॉयड नहीं रहे, उसकी हत्या हो चुकी थी!
यहाँ अनायास ही रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ की पंक्तियाँ याद आ गयी –
“ चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।”[4]
सच है!
शायद फ्लॉयड भी समझ चुके थे कि उनकी हत्या होगी और यह हत्या किसी गोरी चमड़ी वाले
(श्वेत) के हाथों ही होगी। जिस नस्लीय भेदभाव और रंगभेद को अफ्रो-अमेरिकंस ने झेले
हैं उसका यह एकमात्र उदाहरण नहीं है बल्कि ऐसे अनेक उदाहरणों से इतिहास के पन्ने
पटे पड़े हैं। जिनका उल्लेख करना समीचीन हो जाता है।
मार्टिन
लूथर किंग ने इस नस्लीय भेदभाव के पीछे आर्थिक कारण को महत्वपूर्ण माना है।
उन्होंने महसूस किया कि नस्लगत भेदभाव और आर्थिक भेदभाव के बीच गहरा रिश्ता था।
जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु के पीछे का सबसे बड़ा कारण भी यही आर्थिक आधार ही रहा (20
डॉलर)। बाउंसर और सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी करनेवाले जॉर्ज का काम-धंधा भी इस
कोरोना काल में मंदा हो चला था। ऐसे में आर्थिक तंगी का अंदाज़ा लगाना ज़्यादा मुश्किल
नहीं क्योंकि हर दूसरा आदमी इस समय आर्थिक परेशानी से जूझ रहा है। परंतु फ्लॉयड की
हत्या के गर्भ में 20 डॉलर का वह नोट कम और जातिगत घृणा का भाव अधिक प्रबल रहा है।
वैसे तो अश्वेतों के साथ हो रहे इस भेदभाव का इतिहास बहुत पुराना है, परंतु उसकी
चिंगारी आज भी रह-रह कर सुलगती रहती है।
अश्वेतों
के संघर्ष का इतिहास आरंभ होता है अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन से और उससे भी
पहले से जब दास-प्रथा की शुरुआत हुई। अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन के प्रणेता थे
मार्टिन लूथर किंग। दास-प्रथा के गर्भ से जो पीढ़ी निकली उसने नागरिक अधिकारों के
लिए संघर्ष किये और इन संघर्षों में मार्टिन लूथर किंग अश्वेतों के मसीहा के रूप
में उभरकर सामने आये। किंग ने तेरह वर्षों तक जन-अधिकारों के पक्ष में विभिन्न
गतिविधियों का संचालन किया। मानवाधिकारों के लिए लड़े। मानव अधिकार आंदोलन की
प्रेरणा मार्टिन लूथर किंग को महात्मा गाँधी से मिली। गांधीजी के अहिंसा प्रतिरोध
को अपनाकर उन्होंने रंगभेद और ग़रीबी की जंज़ीरों से अश्वेत जनता को मुक्ति दिलाने
के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू किये। उन्होंने घृणा को प्रेम व् भाईचारे से
जीतने का प्रयास किया।
इतिहास
में दर्ज़ मोंटगोमरी सिटी बस की घटना को एक बड़ा कारण माना जाता है जिसकी वजह से
अश्वेत अधिकार आंदोलन की गति तीव्र हुई। वर्षों से मोंटगोमरी में सिटी बसों के
ड्राइवर अश्वेत यात्रियों के साथ दुर्व्यवहार करते आये थे। अश्वेतों के प्रति किसी
तरह का शालीन बर्ताव नहीं किया जाता था। मोंटगोमरी के तकरीबन 50,000 अश्वेत नागरिक
सिटी बसों में प्रचलित रंगभेद की नीति के शिकार हो रहे थे। मोंटगोमरी बस बहिष्कार
मुद्दे ने उस वक्त आंदोलन का रूप ले लिया, जब रोज़ा पार्क्स नामक एक अश्वेत स्त्री
ने बस में अश्वेतों के लिए निर्धारित स्थान पर बैठने से इंकार कर दिया। इस संबंध
में रोज़ा पार्क्स का कहना था कि – “इसके पीछे किसी तरह की कोई योजना नहीं थी।
खरीददारी की वजह से मैं बहुत थक गयी थी। मेरे पाँव में दर्द हो रहा था। मैं सचमुच
नहीं जानती कि उठने के लिए मैं क्यों तैयार नहीं हुई।”[5]
आगे
चलकर रोज़ा पार्क्स से ही इस आंदोलन को गति मिली और इस आंदोलन का प्रारंभ हुआ। “यह
घटना 1 दिसंबर 1955 की है। इस घटना के बाद रोज़ा पार्क्स एक ऐसे समुदाय का प्रतीक
बन गयी थीं जो तीन सौ पचास वर्षों के अन्याय के चलते थककर चूर हो गया था।”[6]
मोंटगोमरी बस घटना ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया, कारण था रोज़ा पार्क्स को
दण्डित किया जाना। रोज़ा को दण्डित किये जाने के बाद ऐसा तूफ़ान खड़ा हुआ, जिसने
विश्व इतिहास में एक नये अध्याय का सूत्रपात किया।
मोंटगोमरी
के संघर्ष के बाद की स्थिति को सामने रखते हुए मार्टिन लूथर किंग ने कहा था- “एक
रात की बात है – धमकी और गाली भरे कई फ़ोन आने के बाद मैं रसोई में चला गया और
उन्हें भूलने की कोशिश करने लगा। मैं ज़ोर-ज़ोर से प्रार्थना कर रहा था।”[7]
मार्टिन लूथर किंग आगे लिखते हैं कि इस घटना के बाद उनका संकल्प और अधिक मज़बूत हुआ।
लेकिन उपद्रवी वहीं नहीं रुके थे बल्कि उन्होंने मार्टिन लूथर किंग के घर पर गोले
तक बरसाये। यानि कि किंग के धैर्य की परीक्षा अभी और होनी बाक़ी थी।
वहीं
दूसरी तरफ़ अश्वेतों के साथ एक के बाद एक अमानवीय घटनाएं उस दौरान होते रहे थे।
जॉर्जिया टेरेसा गिलमोर अपनी आपबीती का ज़िक्र करते हुए कहती हैं कि – “ जब वह एक
बस में सवार हुई तो ड्राइवर चिल्लाया – नीचे उतर काली कहीं की। जाकर पिछले दरवाज़े
से चढ़ो!”, “स्टेला ब्रुक्स ने बताया कि जब उसके पति ने बस ड्राइवर की आज्ञा का
पालन नहीं किया तो उसे गोली मार दी गयी।”, “रिचर्ड जोडेन ने बताया कि उसकी गर्भवती
पत्नी को एक श्वेत यात्री के लिए बस की सीट छोड़नी पड़ी।”[8]
तमाम ऐसी घटनाओं को सिर्फ़ इसलिए अंजाम
दिये जा रहे थे क्योंकि उनका रंग काला था, उनके होठ मोटे और भद्दे दीखते थे
इत्यादि।
लेकिन
स्थितियां आज भी कुछ खास बदली नहीं हैं! आज भी आंदोलन की वही लहर फूट पड़ी है जो
रोज़ा पार्क्स के समय फूटी थी। जॉर्ज फ्लॉयड की 6 वर्षीय बेटी जियाना जब अपने पिता
के कंधों पर सवार होकर, हवा में लहराती हुई अपनी मासूम आवाज़ में गुनगुनाती है – “डैडी चेंज्ड द
वर्ल्ड” तो लगता है वाकई में उस नन्हीं बच्ची की भविष्यवाणी सच हो गयी। जॉर्ज की
मृत्यु के बाद जिस प्रकार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उसने इतिहास के उन ढंके हुए
पन्नों को फिर से उलट कर रख दिया है। जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु तीन कारणों से हुई - एक
तो आर्थिक कारण और दूसरे नस्लीय भेदभाव और तीसरे रंगभेद। जॉर्ज को उसी घृणा और
पूर्वाग्रहों से भरी नियत की कीमत चुकानी पड़ी जो अश्वेत समुदाय सदियों से झेलते आ
रहे थे।
दरअसल नागरिक अधिकार आंदोलन के पीछे
जो सबसे बड़े मुद्दे थे वह थे अश्वेतों के प्रति समाज में असामनता का भाव और
सामाजिक न्याय पाने की जद्दोजहद। अश्वेत समाज में व्याप्त अशिक्षा, ग़रीबी,
बेरोज़गारी और रंगभेद की त्रासद स्थितियां ही इस आंदोलन की उपज थी। जिसमें लगभग सौ
वर्षों बाद बदलाव की किरण दिखने लगी थी मार्टिन लूथर किंग के आने के बाद। मार्टिन
लूथर किंग अश्वेत समाज में मसीहा बनकर उभरे थे। दास-प्रथा के गर्भ से जो पीढ़ी
निकली उसने नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष किये और इन संघर्षों में मार्टिन लूथर किंग
जूनियर नेता के रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत हुए।
दास-प्रथा
सन 1620 ई. से लेकर सन 1865 तक जारी रही। उस दौरान अमेरिका के लिए 1.20 करोड़ दास
भेजे गये। इतना ही नहीं उन्हें जहाज़ों में इतनी ज़्यादा संख्या में भर दिया जाता था
कि बड़ी तादाद में उनके दम घुटने, भूख लगने और प्यास के कारण मृत्यु हो जाती थी।
इसी दौरान लगभग 18 लाख दासों की मृत्यु रास्ते में ही हो गयी।
सन
1777 ई. में जब अमेरिका ब्रिटेन से स्वतंत्र हुआ तो दास-प्रथा को समाप्त करने की मुहिम
भी तेज़ हुई। जिसे सफ़ल बनाने में 27 वर्ष लगे। अमेरिका ने 1 जनवरी 1808 ई. में
दास-प्रथा को समाप्त करने के लिए कानून लागू किये। परंतु ये क़ानून सिर्फ़ दस्तावेज़
बनकर रह गये। दास-प्रथा पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई थी।
वैसे
विश्व में दास-प्रथा का इतिहास बहुत पुराना है। ग्रीक और रोमन शासनकाल में भी
युद्ध में पराजित होनेवालों को दास बना लिया जाता था। ऐसा माना जाता है कि ‘स्लेव’
शब्द की उत्पत्ति पूर्वी यूरोप में ‘स्लोवेनिक’ क्षेत्र से हुई जहाँ मध्ययुग से ही
दास-प्रथा चली अ रही थी।
“सन
1793 में जब एलीविटनी नामक वैज्ञानिक ने कपास को उसके बीज से अलग करने के लिए रूई
जिन का आविष्कार किया तो अमेरिका के साथ-साथ यूरोप में भी रूई की खपत एवं मांग
बढ़ने लगी।”[9]
इसका परिणाम यह हुआ कि दासों की और अधिक संख्या में आवश्यकता महसूस की जाने लगी।
“सन 1619 में कुछ अश्वेत लोगों (जिन्हें बाद में दास बना दिया गया) को जेम्स टाउन
में बसाया गया। आरंभिक दौर में इन्हें वेस्टइंडीज़ से लाया जाता था। किन्तु बाद में
सन 1674 में रॉयल अफ्रीका कंपनी ने अश्वेत दासों को अफ्रीका से जहाज़ों में भरकर
लाना शुरू किया।”[10] इन
दासों की बड़ी संख्या में ख़रीद – फ़रोख्त की जाती थी। अश्वेत दासों की कद-काठी के
हिसाब से उनकी बोली लगायी जाती थी। जो जितना बलिष्ठ और हृष्ट-पुष्ट दीखता था उसकी
बोली उतनी ही ऊँची लगायी जाती थी। इतना ही नहीं बल्कि दासों की बोली लगने से पूर्व
उनकी तारकोल अथवा तेल से मालिश की जाती थी ताकि वे दिखने में और अधिक मज़बूत लगे।
सत्रहवीं
शताब्दी के आरंभिक वर्षों में बार्बाडोस और वेस्टइंडीज़ के देशों से अश्वेत दास
वर्जीनिया में लाये गये। प्रारंभ में तो इनकी स्थिति उपनिवेश के अन्य मज़दूरों जैसी
ही थी। परंतु ज्यों-ज्यों मज़दूरों की मांग बढ़ती गयी, त्यों-त्यों इन श्रमिकों की
स्थिति दासों में परिवर्तित होती गयी।
उपर्युक्त
संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण इस बात का प्रमाण है कि अमेरिका में जो अफ्रो-अमेरिकन
यानी अश्वेत समुदाय नागरिक अधिकार प्राप्त कर रहने लगे तो श्वेत समुदाय ने उन्हें
सहज ही स्वीकार नहीं लिया बल्कि इस स्वीकारोक्ति के पीछे का इतिहास बहुत क्रूर,
अपमानजनक और अमानवीय रहा है। आज भले ही जॉर्ज फ्लॉयड जैसे लाखों लोग अमेरिका के
नागरिक बनकर रह रहे हों परंतु जो ज़मीनी हक़ीक़त है, वह यही है कि एक अश्वेत आज भी इन
गोरी चमड़ी वाले श्वेतों के बीच ‘मिसफिट’ ठहरते हैं। सन 1950 और 1960 के दशक में
अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ़ मार्टिन लूथर किंग जूनियर की अगुवाई में अहिंसक
प्रतिरोध अपनाते हुए जो नागरिक अधिकार आंदोलन चलाया गया था, उसकी दास्तान
युगों-युगों तक मानव-जाति को प्रेरणा देती रहेगी।
जॉर्ज
फ्लॉयड की हत्या के बाद जिस प्रकार से प्रदर्शनकारियों ने “ब्लैक लाइव्स मैटर”
लिखकर विरोध जताया, वह इतिहास में हुए उन घटनाओं की भी पुनरावृत्ति है जो उनके साथ
सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में होना आरंभ हो चुका था। इक्कीसवीं सदी में भी
यदि कुछ नहीं बदला तो वह है जॉर्ज फ्लॉयड
और उसके समुदाय के लोगों का जीवन! आज भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा
जाता। आज भी उन्हें अपने होने का एहसास कराना पड़ता है। अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी
पड़ती है। सच ही तो है यह लड़ाई क्योंकि – “ब्लैक लाइव्स मैटर...!”
‘ब्लैक’
शब्द और रंग ही मानो एक ‘पैरासाइट’ की तरह चिपका हुआ हो उनके जीवन से जो औरों के
लिए घृणा का सबब बन गया था (है भी)। इस शब्द से जुड़ा एक और तथ्य भी हमारे सामने
मौजूद है जिसे इतिहास में ‘ब्लैक पावर’ के नाम से जाना जाता है। ‘ब्लैक पावर’ का
ज़िक्र “सन 1967 में उस समय सामने आता है जब वियतनामी युद्ध हुए और टेलिविज़न के
परदे पर मलिन बस्तियों के अश्वेत युवाओं तथा पुलिसकर्मियों की झड़पों के दृश्य नज़र
आने लगे थे। सन 1967 में 75 शहरों में हिंसक टकराव हुए थे।”[11]
इसके अतिरिक्त “न्यूजर्सी के नेवार्क में हिंसा के दौरान 26 अश्वेतों की जानें गयी
थीं, मिसिगन के डेट्राइट में हफ्ते भर तक हिंसा जारी रही थी और 40 लोगों की मौत
हुई थी।”[12] इस
घटना (1965) ने शहर में तनाव का माहौल पैदा कर दिया था, अश्वेतों के इलाक़े धू-धू
कर जलते रहे थे ; परिणामस्वरूप हिंसा बेक़ाबू होती जा रही थी। उस समय राष्ट्रपति
जॉनसन ने मिसिगन के गवर्नर के अनुरोध पर 4700 सैनिकों की तैनाती करवायी थी नेवार्क
में। सन 1965 में हुई इस घटना की मार्टिन लूथर किंग ने निंदा की। मार्टिन लूथर
किंग जिस गांधीवादी विचारधारा को लेकर आगे बढ़ रहे थे, अब लोग उसी का विरोध करते हुए
‘ब्लैक पावर’ का आह्वान करने लगे थे।
दरअसल
‘ब्लैक पावर’ का सिद्धांत यह कहता है कि – “किसी भी हमले का जवाब हिंसक तरीके से
देना सीख लें और चुपचाप अपने ऊपर होनेवाले हमले को बर्दाश्त नहीं करें।”[13]
उस समय का यह नारा आज भी कितना प्रासंगिक है कि अमेरिका के मिनियापोलिस में ‘ब्लैक
लाइव्स मैटर’ का पोस्टर हरेक के हाथ और पीठ पर चिपका हुआ दीख रहा है।
वैसे तो ‘ब्लैक पावर’ के सिद्धांत की
शुरुआत काफ़ी पहले ही हो चुकी थी। जब वर्ष 1920 के दशक में मार्क्स गार्वी ने
अश्वेतों के अधिकारों के लिए आंदोलन चलाया था। आगे चलकर इस सिद्धांत को मेलकॉम
एक्स ने भी अपनाया था।
जॉर्ज
फ्लॉयड को भी अश्वेत समुदाय से होने के कारण ही उन्हें इतनी प्रताड़ना सहनी पड़ी।
फ्लॉयड की हत्या मानवता को शर्मसार करती है। मानवता मनुष्य को सामाजिक और समाज को
मानवीय बनाकर उसे मुक्ति का मार्ग दिखाती है।
उत्तरी
कैरोलीना में जन्में फ्लॉयड ह्यूस्टन में रहते थे। बाद में काम के सिलसिले में वह
मिनियापोलिस में रहने लगे। वहीं पर सिक्यूरिटी का काम भी करते थे। जॉर्ज फ्लॉयड के
साथ हुए इस अमानवीय व्यवहार की निंदा करते हुए ‘नेशनल एसोसिएशन फॉर द एड्वांमेंट
ऑफ़ कलर्ड पीपल’ ने कहा कि – “ये हरकतें हमारे समाज में काले लोगों के खिलाफ़ एक
खतरनाक मिसाल बनाती हैं जो नस्लीय भेदभाव, ज़ेनोकोविया और पूर्वाग्रह से प्रेरित है।
हम अब और मरना नहीं चाहते।”[14]
यह वक्तव्य वाकई में अश्वेत समुदाय की पीड़ा को अभिव्यक्त करने जैसा है ।
हालाँकि
भारत में भी स्थितियां बहुत ज़्यादा अच्छी नहीं कही जायेगी। क्योंकि यहाँ नस्लभेद
भले ही न हो लेकिन जातिभेद बहुत गहरे तक घुसपैठ की तरह काबिज़ है। हमारे समाज में
बस एक यह जाति है जो कभी नहीं जाती। आज भी जाति, धर्म और लैंगिक आधार पर भेदभाव, शोषण
और हत्या होना बहुत साधारण सी बात हो गयी है। लोग मरते रहते हैं लेकिन दोषियों के
खिलाफ़ कोई सख्त क़ानूनी क़दम नहीं उठाये जाते। अमूमन हर जगह यही बदहाली देखने की आदत
सी हो गयी है हर समाज को। अमेरिका से इतर भारत में जातिवाद और धर्म दोनों की
कट्टरता एक बहुत बड़ा कारण है निर्दोषों की जान लेने के मामले में। प्रतिदिन
अख़बारों में ऐसी घटनाएँ पढ़ने को मिल जाती है जिसमें हत्या की वजह या तो जाति भेद
है अथवा साम्प्रदायिक। इन हत्याओं के पीछे
दिमाग किसका यह एक बड़ा और अनसुलझा सवाल है! दरअसल ये समस्याएं कोई देशज या
क्षेत्रीय समस्याएं नहीं हैं वरन यह एक वैश्विक समस्या है जिसका प्रमाण फ्लॉयड की
हत्या है जिसके विरोध में आज लगभग 50 देशों ने अपना सिर उठाया है। इतना ही नहीं
बल्कि हर उस दमनकारी नेता अथवा शासकों की प्रतिमाएं गिरायी जा रही हैं जिनका नाम
इतिहास में एक गुलाम ख़रीदार के रूप में मौजूद रहा था। (अश्वेतों को गुलाम बनाये
जाने की संक्षिप्त जानकारी उपरोक्त में दिया जा चुका है।) सत्रहवीं शताब्दी के दास
व्यापारी एडवर्ड कॉल्सटन की प्रतिमा को ब्रिसॉल हार्बर में गिराया जाना इस बात का
प्रतीक है कि हम (अश्वेत) अब और गुलाम बनकर नहीं रह सकते, नहीं जी सकते। अश्वेतों
के उत्पीड़न का हर वो काला अध्याय यह समुदाय मिटा देना चाहते हैं जो उनके अतीत के
भोगे हुए असंख्य कष्टों को उधेड़े।
तभी तो
जॉर्ज फ्लॉयड के ये अंतिम शब्द ‘आई कांट ब्रीद...’ आज लोगों के लिए मंत्र-सा बन
गया है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा (प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति) फ्लॉयड
की मृत्यु पर गहरा शोक व्यक्त करते हुए लिखते हैं – “मैंने वह वीडियो देखा और मैं
रोया। इस घटना ने मुझे एक तरह से तोड़कर रख दिया।”[15]
बराक ओबामा का यह रोना केवल फ्लॉयड
के लिए रोना नहीं था वरन अपने उस अतीत के लिए भी रोना था, जिसे आज भी बार-बार
दोहराया जा रहा है। जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु ने अमेरिकी समाज और कानून व्यवस्था पर
सवालिया निशान लगा दिया है। लेकिन समझने वाली बात यह भी है कि फ्लॉयड के साथ हुई
यह घटना कोई पहली घटना नहीं है। बीबीसी हिन्दी न्यूज़ की एक रिपोर्ट के अनुसार “13
मार्च को ब्रेओना टेलर की हत्या उस समय कर दी गयी थी जब उसके घर पर छापा मारा गया
था। इससे भी पूर्व 23 फ़रवरी को हथियारबंद गोरों ने 25 वर्ष के अहमद आर्बेरी की
हत्या कर दी थी।” आश्चर्य तो इस बात की है कि अफ़्रीकी–अमरीकी लोगों में से तुरंत
सज़ा पाने का मापदण्ड अफ़्रीकी अश्वेतों के लिए पहले तय है। गोरों को सज़ा मिलती भी
होगी या नहीं इसका आंकड़ा बहुत कम है।
इस
संदर्भ में डेटाबेस का यह आंकड़ा देखने लायक है, जिसे बीबीसी न्यूज़ की एक रिपोर्ट
में प्रस्तुत किया गया है। डेटाबेस के अनुसार – (1) किसी निहत्थे गोरे व्यक्ति की
तुलना में किसी काले व्यक्ति के पुलिस द्वारा मारे जाने की संभावना चार गुना अधिक
है। (2) पुलिस की गोली से मरनेवालों में अधिकतर पुरुष हैं। उनमें से आधे 20 से 40
वर्ष की उम्र के बीच के हैं। (3) साल 2015 से लेकर अबतक पुलिस की गोली से औसत हर
दिन तीन लोगों की मौत हुई है। इसके अलावा एक जो सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात है
वह यह कि साल 2019 में केवल 27 दिन ऐसे थे जब पुलिस ने किसी को मारा न हो। (बीबीसी
न्यूज़/हिन्दी)
चिंताजनक
स्थिति यह है कि देश की कुल आबादी का 13 फ़ीसदी होने के बावजूद भी मरनेवालों में 24
फ़ीसदी काले लोग थे (हैं)।
यद्यपि
इसीलिए ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ का यह नारा हरेक के जुबान पर है। यह नारा भी उस समय
अस्तित्व में आया जब माइकल ब्राउन की हत्या कर दी गयी थी।
‘ब्लैक’
शब्द को आधार बनाकर कई ऐसे संगठन सामने आ रहे थे जिनका मुख्य उद्देश्य था श्वेत
प्रभुओं के विरुद्ध अश्वेतों का आंदोलन, उनकी प्रतिक्रियाएं और उनके संघर्ष। सन
1965 में कार्मीवेल (जन्म 1941, त्रिनिदाद के पोर्ट ऑफ़ स्पेन में, बाद में अमेरिका
के नागरिक बने। शिक्षा – वाशिंगटन की हॉवर्ड विश्वविद्यालय में) ने अलबामा में
अश्वेतों के एक समूह की मदद ‘ब्लैक पैंथर’ पार्टी बनाने में की। यह पार्टी मई 1966
में ऑकलैंड में अस्तित्व में आया था। ‘ब्लैक पैंथर पार्टी’ का उद्देश्य शुरू में
पुलिस की बर्बरता से अश्वेतों की रक्षा के लिए आयोजित किया गया था। इसके संस्थापक
ह्युई पी.न्यूटन, एल्बर्ट हावर्ड और बॉबी सील थे। उसी दौरान सन 1966 में ही
मिसिसिपी में मेरडीथ की ‘भय के विरुद्ध यात्रा’ नाम से नारे लगे जिसमें कार्मीवेल
और मार्टिन लूथर किंग सीधे एक-दूसरे के संपर्क में आये। दोनों में एक-दूसरे के
प्रति आदर का भाव होते हुए भी विचारों में मतभेद रहा था।
मार्टिन
लूथर किंग ने भी अश्वेत समाज के लोगों की मुक्ति के लिए बहुत संघर्ष किये और उनकी
मुक्ति के लिए नारा दिया – ‘आई हैव ए ड्रीम’। यह ड्रीम था दमितों और शोषितों की
आज़ादी का। दुर्भाग्यवश जिस गांधीवादी विचारधारा को लेकर मार्टिन लूथर किंग आजीवन
चले, अंततः उनकी भी हत्या (39 वर्ष की आयु में) कर दी गयी! दरअसल यह हत्या मार्टिन
लूथर किंग की नहीं हुई बल्कि उस गांधीवादी विचारधारा की हुई जिसपर लोग, समाज और
राष्ट्र कभी भी विजय हासिल नहीं कर सके। अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए मार्टिन
हिंसा का समर्थन नहीं कर सके। फ्लॉयड की मृत्यु के बाद भी जिस प्रकार अमेरिका में
गांधीजी की प्रतिमा को क्षति पहुंचाई गयी उससे यही साबित होता है कि अहिंसा पर
हिंसा सदैव भारी पड़ा है।
अश्वेत समाज सदियों से दमित और शोषित रहा है।
दमनकारी नीतियों के कारण उनका जीवन सदैव भय और आतंक के साये में पला है। यहाँ तक
कि इस दमनकारी और शोषणकारी नीति के शिकार बड़े-बड़े साहित्यकार भी हुए। फ़िर चाहे वह
पॉल लॉरेन्स डनबर हो, सईद जोंस हो, एलिस वाकर हो या फिर माया एंजेलो।
माया
एंजेलो ने अश्वेत समुदाय के अधिकारों के लिए, उनके सम्मानपूर्ण जीवन जी सकने के
लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। माया एंजेलो ने मार्टिन लूथर किंग और मेलकॉम
एक्स के साथ मिलकर काम किया। उनके साथ वह भी जुलूसों में शामिल हुईं। अपने साहित्य
के माध्यम से समाज में व्याप्त रंगभेद और नस्लभेद के खिलाफ़ लिखना आरंभ किया।
बहुमुखी प्रतिभा की धनी माया एंजेलो ने विपुल मात्रा में रचनाएं कीं। अपनी
आत्मकथाओं के सात खण्ड लिख डाले। इनमें सर्वाधिक चर्चित आत्मकथा है – ‘आई नो व्हाय
द केज्ड बर्ड सिंग्स’। जिस पीड़ा को अश्वेत समाज झेल रहा था उसे माया भी बचपन में
झेल चुकी थीं। झेल चुकी थीं उस अपमान को जिससे उनकी दादी हर दिन रू-ब-रू हो रही
थीं। अपनी कविता ‘ऑन द पल्स ऑफ़ मॉर्निंग’ में माया एंजेलो लिखती हैं –
“आज चट्टान रोती है
तुम खड़े हो सकते हो मुझपर –
लेकिन मेरे पीछे अपना चेहरा मत छिपाओ
पूरे विश्व की सीमा के पार एक नदी सुंदर गीत
गाती है...”[16]
कितनी मार्मिक और यथार्थ काव्य–पंक्तियाँ
हैं। सच ही तो है जॉर्ज फ्लॉयड उस समय चट्टान ही तो थे जब शोविन उनकी गर्दन पर चढ़
बैठा था। वह ज़िंदगी की भीख मांगता रहा और शोविन अपनी नफ़रत को कम न कर सका...!!
‘हेट इज़ द पैरासाइट ऑफ़ अ पियोर हार्ट।’
नागरिक अधिकार आंदोलन कई स्तरों पर
लड़े गये। इनमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मानवाधिकारों के लिए भी आंदोलन हुए। जिनमें
से कुछ सफ़ल हुए और कुछ असफ़ल रह गये। जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु के गर्भ में छिपा हुआ
मानवाधिकारों के लिए लड़ा जानेवाला वह असफ़ल आंदोलन यही है...फ्लॉयड की मृत्यु!
जबतक देश में पुलिसिया बल मानवता के
प्रति संवेदनशील नहीं होंगे, तब तक हर रोज़ ऐसे न जाने कितने फ्लॉयड मरते रहेंगे और उनके अंतिम
वाक्य होंगे – ‘आई कांट ब्रीद...!’, ‘आई कांट ब्रीद...!’
सन्दर्भ
1. गरिमा श्रीवास्तव (2015), ‘माया एंजेलो : स्वर्ग का आह्वान’,
प्रतिमान, वर्ष -3, खण्ड – 3, अंक -1, (जनवरी-जून), पृष्ठ. 302
2. दिनकर कुमार, ‘मार्टिन लूथर किंग’, चिल्ड्रेन बुक टैम्पल,
दिल्ली, संस्करण : 2016 : पृष्ठ. 19
3. माया एंजेलो, ‘आई नो
व्हाय द केज्ड बर्ड सिंग्स’, रैंडम हाउस, यू.एस.ए., प्रथम संस्करण : 1969 : पृष्ठ. 34
4. hindivibhag.in
5. दिनकर कुमार, ‘मार्टिन लूथर किंग’, चिल्ड्रेन बुक टैम्पल,
दिल्ली, संस्करण : 2016 : पृष्ठ. 63
6. वही
7. वही, पृष्ठ. 66.
8. वही, पृष्ठ. 68
9. किरण दात्तार, ‘अमरीका का इतिहास’, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय
निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 1997 : पृष्ठ. 3.
10. वही, पृष्ठ. 3
11. दिनकर कुमार, ‘मार्टिन लूथर किंग’, चिल्ड्रेन बुक टैम्पल,
दिल्ली, संस्करण : 2016 : पृष्ठ. 137.
12. वही, 137
13. वही, पृष्ठ. 138.
14. बीबीसीन्यूज़। हिन्दी ; 30 मई 2020
15. वही
16. गरिमा श्रीवास्तव (2015), ‘माया एंजेलो : स्वर्ग का आह्वान’,
प्रतिमान, वर्ष – 3, खण्ड – 3, अंक – 1,(जनवरी - जून), पृष्ठ. 297
चैताली
सिन्हा
(शोधार्थी,
हिन्दी), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (CI।)
क/ओ-
धर्मपाल, म/सं- 401/1 सी.डी. मुनीरिका, बुद्ध विहार, निकट
जेएनयू दिल्ली – 110067, सम्पर्क : chaita।isinha4u@gmai।.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
बहुत- बहुत धन्यवाद्' अपनी माटी'🙏🙏
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