आलेख : हिंदी कहानियों
पर आधारित हिंदी फिल्में /
जब हम साहित्य और
सिनेमा को लेकर चर्चा करते हैं तो कहा जाता है कि ये “अभिव्यक्ति के दो माध्यम हैं और प्रभाव की दृष्टि से कौन ज्यादा ताकतवर है
यह कह पाना थोड़ा मुश्किल है। साहित्य अभिव्यक्ति का आदिम माध्यम है, जबकि सिनेमा तकनीक आधारित बिल्कुल नया। साहित्य को सिनेमा की जरूरत है
क्योंकि हर कथाकार यह चाहता है कि उसकी कहानी पर फिल्म बने, उसकी
बात जन जन तक पहुँचे। लेकिन सिनेमा को साहित्य की जरूरत है या नही, कहना मुश्किल है। दोनों ही भिन्न और अपनी-अपनी तरह के बेजोड़ कला -माध्यम
हैं। दोनों की प्रकृति, रचना विधान और इसलिए दोनों के असर और
समाज निर्माण की फितरतें भी अलग अलग हैं। तभी तो आज तक कोई भी साहित्य को पढ़कर
डाकू या बलात्कारी नही बना, जबकि सिनेमा से यह भी हो सका है।
कहने की आवश्यकता नही साहित्य का उद्देश्य व्यवसाय नही है, लेकिन
सिनेमा काम बिना व्यवसाय के चल नही सकता। यह भी सत्य है कि दोनों ही एक दूसरे से रस
खींचने का प्रयास करते रहे है।”2
सिनेमा में कहानी
की एक दरकार होती है। कहानी के संवाद, पटकथा, गीत–संगीत,
अभिनय, निर्देशन, छायांकन
आदि कलारूपों के कुशल संयोजन का नाम सिनेमा है, जिसमें फिल्मकार
को लोकेशन के साथ-साथ ढेरों संसाधन और बड़ी टीम, बड़ी पूँजी,
नए से नए तकनीकि ज्ञान की जरूरत होती है। बात संप्रेषण की है। सिनेमा
निर्माण एक सामूहिक काम है। “एक फिल्म के विफल होने का मतलब
है पूँजी का डूब जाना। साहित्य सृजन का काम इससे भिन्न है। यह एक झोंपड़े में बैठे
की साधना है। लेखक कलम- कागज
लेकर दुनिया के किसी भी कोने में बैठ कर अपना सृजन कर सकता है, बस लेखक में प्रतिभा और जीवन- दृष्टि के साथ मेहनत करने की क्षमता होनी
चाहिए। अगर कोई साहित्यिक कृति विफल होती है तो एक लेखक विफल होता है। लेखक सृजन
के लिए जोखिम उठाता है और उसके नफे-नुकसान का जिम्मेदार वह खुद होता है।”3
जहां तक हिन्दी
सिनेमा में साहित्य की बात आती है तो कहना होगा कि “दुनिया भर में साहित्य
पर कईं उल्लेखनीय फिल्में बनी हैं। भारतीय साहित्य भी कम समृद्ध नही रहा है। फिर
चाहे वो कहानी, उपन्यास, नाटक या फिर
कोई भी साहित्यिक विधा हो उस पर फिल्म बनाने से हमेशा संकोच किया गया है। कुछ अलग
तरह के पूर्वाग्रहों से फिल्मकार ग्रस्त रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी धारणा तो यह है
कि साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्में सफल नही होती। दूसरी समस्या किसी उपन्यास को फिल्मी
रूप देने की है। दोनों विधाएँ अलग हैं। साहित्यकार जो लिखता है उसे उसकी मूल भावना
के साथ फिल्माना आसान नही होता।”4
खैर हम यहाँ
बात हिंदी कहानियों पर आधारित हिंदी फिल्मों की करेंगे जो मेरा विषय है। सिनेमा में
साहित्यिक कृतियां शुरू से ही फिल्म-निर्माताओं के लिए प्रेरणा का स्त्रोत रही हैं।
“भारत में बनने वाली पहली मूक फीचर फिल्म दादा साहेब फाल्के ने बनाई जो
भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ʽहरिश्चंद्रʾ पर आधारित थी।
साहित्यिक कृतियों को लेकर ढेरों फिल्में बनी परन्तु कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश
असफल ही रही। पहली बार हिन्दी सिनेमा में स्थापित लेखक के रूप में कथा सम्राट
मुंशी प्रेमचंद का प्रवेश हुआ। जब बोलती फिल्मों के दौर ने प्रेमचंद को याद किया तो
प्रेमचंद अजंता सिनेटोन कंपनी के बुलावे पर मुंबई चले आए। मित्रों ने सावधान भी
किया कि फिल्म जगत का वातावरण उनके हिसाब का नही है। परन्तु उनके हालात अच्छे नही थे
विवश होकर उन्होंने पटकथा लेखन स्वीकार किया। समय गुजरता गया और उन्होने कुछ
कहानियां लिखी। इनमें से एक कहानी ʽमिलʾ जोकि मज़दूरों
की व्यथा पर आधारित थी। फिल्मों ने बोलना अभी शुरू ही किया था। प्रेमचंद की कहानी
पर मोहन भावनानी के निर्देशन में फिल्म ʽमिल मज़दूरʾ बनी। निर्देशक
ने मूल कहानी में बदलाव किए जो प्रेमचंद को पसंद नही थे। फिर अंग्रेजों के सेंसर
ने फिल्म में काफी काँट-छाँट कर दी। इसके बाद फिल्म का, जो रूप सामने आया उसे देख प्रेमचंद को काफी धक्का लगा। उन्होंने कहा यह
प्रेमचंद की हत्या है। प्रेमचंद की यह कहानी फिल्म के निर्देशक और मालिक की कहानी
है। इस फिल्म पर मुंबई में प्रतिबंध लग गया और पंजाब में यह ʽगरीब मज़दूरʾ के नाम से प्रदर्शित
हुई।”5
मुंशी प्रेमचंद
की कहानी ʽशतरंज के खिलाड़ीʾ पर ʽद चेस प्लेयर्सʾ नाम से सत्य
जीत रे ने फिल्म बनाई थी। यह कहानी 1957 के ब्रिटिश भारत की पृष्ठभूमि पर है।
फिल्म में मुख्य किरदारों में संजीव कुमार और शबाना आज़मी थे। राय ने मूल कहानी के
कथ्य को सुरक्षित रखते हुए कहानी के शब्दों में झलकने वाले समय और स्थान विशेष को
वैसा ही पर्दे पर उतार दिया है। “कहानी मूल कलेवर में छोटी है और उसमें
परोक्ष रूप से ही ऐतिहासिकता के दर्शन होते हैं। कहानी में नबाबों की अय्याशी और
उसके सामयिक परिवेश को प्रेमचंद ने प्रमुखता से उभारा है।”6
प्रेमचंद के ही
कहानी ʽसद्गतिʾ के नाम से ही
सत्यजीत रे ने 1981 में फिल्म बनाई थी। इसमें ओमपुरी और स्मिता पाटिल ने मुख्य
भूमिका निभाई थी। यह फिल्म भारतीय जाति-व्यवस्था पर गहरा प्रहार करती है। फिल्म
में छुआछूत की बुराई का चित्रण उम्दा तरीके से किया गया है। आज़ादी से पहले भारत
में जात-पात की कड़ी बेड़ियां, उच्च वर्ग द्वारा निम्न जातियों का शोषण,
इस कहानी के माध्यम से सामने आया है। कृष्ण चौपड़ा ने ʽदो बैलों की
कथाʾ पर ʽहीरा मोतीʾ नाम से फिल्म बनाई। 1979 में सत्येन बोस के निर्देशन में बनी ʽसांच को आंच
नहीʾ का मूल आधार भी प्रेमचंद की कहानी ʽपंच परमेश्वरʾ से था।
मौनी
भट्टाचार्य ने पं. चंद्रधर शर्मा ʽगुलेरीʾ की प्रसिद्ध कहानी
ʽउसने कहा थाʾ पर इसी नाम से
फिल्म का निर्माण किया।। इसमें सुनील दत्त और नंदा मुख्य भूमिका में थे। “फिल्म ʽतीसरी कसमʾ राजकपूर और
वहीदा रहमान की ये फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ʽमारे गए गुलफामʾ पर आधारित है।
इसे शैलेंद्र ने प्रोड्यूस किया और बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित। जिसकी पटकथा और
संवाद खुद रेणु ने लिखे। मित्रता के नाते राज कपूर व वहीदा रहमान जैसे सितारों ने
फिल्म में काम किया।”7
निर्मल वर्मा
की कहानी ʽमाया दर्पणʾ पर प्रसिद्ध फिल्म निर्माता और निर्देशक कुमार शाहनी ने इसी
नाम से फिल्म बनाई। 8 एच.के.वर्मा ने अमृता प्रीतम की कहानी ʽकादम्बरीʾ पर इसी नाम से फिल्म बनाई। “निर्देशक मणिकौल ने हिंदी
हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार मोहन राकेश की कहानी ʽउसकी रोटीʾ पर इसी नाम से
फिल्म बनाई।”8
हिंन्दी सिनेमा
में जब हम गुलज़ार साहब की बात करते हैं तो पता चलता है कि वे सबसे भिन्न निर्देशक
थे। वे स्वतंत्र साहित्यकार थे और कथा वाचन की बारीकियों को बखूबी जानते थे। “गुलज़ार मानवीय रिश्तों के कथाकार रहे हैं, पर
स्त्री-पुरुष के प्रेम संबंधों की विविधता, जटिलता को
उन्होंने जिस खूबसूरती के साथ अपनी फिल्मों में बयान किया है वह हिन्दी फिल्मों की
एक बड़ी उपलब्धि है। उन्होंने कमलेश्वर की दो कहानियों पर– ʽकाली आँधीʾ पर ʽआँधीʾ और ʽआगामी अतीतʾ पर ʽमौसमʾ बनाई और दोनों ही फिल्में मील का पत्थर साबित हुई। ʽआँधीʾ में आरती देवी
और जे.के. दोनों से अलग उन दोनों के बीच के रिश्ते फिल्म में अपनी खामोश उपस्थिति
से दशर्कों का मन छू लेती है।”9
कमलेश्वर की ʽतलाशʾ कहानी को लेकर
ही निर्माता निर्देशक शिवेंद्र सिन्हा ने ʽफिर भीʾ नामक फिल्म का
निर्माण किया। मूल रूप में तलाश कमलेश्वर की एक बहुत छोटी सी कहानी है जिसमें पात्रों
के आपसी संवाद के द्वारा लेखक ने स्थान, परिस्थितियों, घटनाओं
और समय को अधिक महत्व दिया है। मूल कहानी माँ और बेटी के आपसी अंतर्द्वंन्द की कहानी
है। बढ़ते समय के साथ-साथ जहां एक ओर “हिन्दी कथा–साहित्य में
बदलाव आ रहा था वहीं हिन्दी भाषी फिल्मकारों की संख्या भी बढ़ रही थी। फिल्मकार
बासु चटर्जी जो बांग्ला भाषी थे लेकिन उन्होंने हिन्दी साहित्य का गहरा अध्ययन
किया था। उन्होंने मन्नू भंडारी की प्रसिद्ध कहानी ʽयही सच हैʾ पर आधारित एक बहुत खूबसूरत फिल्म ʽरजनीगंधाʾ का निर्माण किया जो काफी लोकप्रिय साबित हुई। हिन्दी
फिल्मों की इस नई धारा को समांतर सिनेमा भी कहा गया।”10
सामांतर
फिल्मों के आरंभिक दौर के फिल्म निर्देशकों में सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, बिमलराय, मृणाल
सेन, तपन सिन्हा, ख्वाजा अहमद अब्बास,
चेतन आनंद, गुरू दत्त, वी.
शांताराम आदि थे। “इसे निस्संदेह भारतीय सिनेमा का स्वर्ण
युग कहा जा सकता है इस दौर में फिल्मों ने प्राय: उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियों को
अपनी रचनाओं का आधार बनाया, जिसके चलते साहित्य की तरह
फिल्मों ने भी समाज का यथार्थ पेश कर अपना राजनीतिक, सामाजिक
और राष्ट्रीय दायित्व निभाया।”11
इसी दौर के हिन्दी
साहित्य को सबसे ज्यादा महत्व और निष्ठाभरी समझ फिल्मकार मणि कौल ने दी। “मणिकौल ने बाद में मोहन राकेश, विजय दान देथा,
मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं पर फिल्में बनाई। कुमार
शाहनी ने निर्मल वर्मा की कहानी ʽमाया दर्पणʾ पर इसी नाम से फिल्म बनाई। इसके इलावा दामुल, परिणिति,
पतंग, कोख जैसी फिल्में भी साहित्यिक रचनाओं
पर बनी।”12
कहानी या
साहित्य की अन्य विधा को फिल्म के ढाँचे में ढ़ालने तक मूल कथ्य में परिवर्तन का डर
हमेशा बना रहता है। क्योंकि कहानी अपने छोटे से दायरे में होती है उस कहानी को तीन
घंटे की फिल्म में ढ़ालना उस के ढ़ाचे में बदलाव की माँग करता है। “प्राय: यह भी हुआ है कि अधिकांश हिंदी फिल्मों पर बनी हिंदी फिल्में या तो
कहानी के कथ्य से भिन्न है या मूल कहानी के मामूलीप्रसंग उनमें डाल दिए। कईं
निर्देशकों ने तो कहानी के मूल कथानक की हत्या कर उसमें अपनी कल्पनाएं ही संजो
डाली। इसलिए कहानी के फिल्म में रूपांतरण पर अनेकों विद्वानों, आलोचकों ने आक्षेप किये हैं और कईं बार तो आरोप तक लगाए जाते है कि अमूक
कहानी पर आधारित फिल्म में मूल कहानी को दबा दिया गया है।”13
गुलज़ार ने
साहित्य और सिनेमा पर बात करते हुए कहा था कि सिनेमा की तुलना में साहित्य का
प्रभाव ज्यादा गहरा और स्थाई होता है, एक फिल्म के जरिए हम पर जो प्रभाव पड़ता है
वह कईं कलाओं का होता है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अनेकों कहानियों, उपन्यासों, नाटकों पर जो फिल्में बनी हैं वे साहित्य
के साथ अपने गहरे रिश्ते को दर्शाती हैं। छोटे पैमाने पर ही सही, साहित्यिक फिल्में बनती हैं जो बराबर फिल्मकारों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित
करती रही हैं।
संदर्भ
1 सिनेमा और साहित्य – हरीश कुमार,
संजय प्रकाशन, 1998, पृ. 84
2 गोपेश्वर सिंह - साहित्य का अनुवाद नही है सिनेमा, जनसत्ता, 21 मई, 2017, पृ. 7
3 गोपेश्वर सिंह - साहित्य का अनुवाद नही है सिनेमा, जनसत्ता, 21 मई, 2017, पृ. 7
4 श्रीशचंद्र मिश्र - हिन्दी साहित्य का फिल्मों से जुड़ा नही गहरा नाता!,
जनसत्ता, 9 जून, 2017,
पृ. 7
5 इकबाल रिज़वी - हिंदी समय
6 सिनेमा और साहित्य–हरीश कुमार, संजय प्रकाशन, 1998, पृ. 116
7 श्रीशचंद्र मिश्र - हिन्दी साहित्य का फिल्मों से जुड़ा
नही गहरा नाता!, जनसत्ता, 9 जून, 2017
)
8 सिनेमा और साहित्य–हरीश कुमार, संजय प्रकाशन, 1998, पृ. 88
9 अशोक भौमिक- सत्तर का सिनेमा और गुलज़ार, जनसत्ता, 29 मई, 2016, पृ. 7
10 साकेत सहाय - साहित्य, सिनेमा और समाज,
जनसत्ता 11 दिसंबर, 2016, पृ. 4
11 अशोक भौमिक - सत्तर का सिनेमा और गुलज़ार, जनसत्ता, 29 मई, 2016, पृ. 7
12 साकेत सहाय - साहित्य, सिनेमा और समाज,
जनसत्ता, 11 दिसंबर, 2016,
पृ. 4
13 सिनेमा और साहित्य – हरीश कुमार, संजय प्रकाशन, 1998,
पृ. 85
मीना
सहायक प्रोफेसर, गार्गी कॉलेज, हिन्दी
विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
सम्पर्क : meenahindi101@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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