आलेख : हिन्दी एवं उर्दू : एक भाषा के दो रूप / डॉ. गोपाल कुमार
समकालीन
उर्दू और हिन्दी, दोनों की आधारभूमि ‘खड़ी बोली’ है और इन्हें लेकर अंग्रेज़ों के आने तक कोई
विवाद न था लेकिन अंग्रेज़ों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ (Divide and Rule) की
नीति के तहत भारत के दो सबसे बड़े धर्मों, हिन्दू एवं मुस्लिम के बीच कई स्तरों पर
अलगाव पैदा करने का भरसक प्रयास किया जिनमें भाषा भी एक थी। हिन्दी साहित्य के
भारतेन्दु युग से इस विवाद को हवा दी जाने लगी। इसमें पाश्चात्य और भारतीय, दोनों
विद्वान शामिल थे। अंग्रेज़ों ने भाषा को धर्म से जोड़ने का प्रयास किया और इस
प्रयास में उन्हें सफलता भी हाथ लगी। इसे मात्र एक संयोग नहीं कहा जा सकता कि धर्म
के आधार पर देश का विभाजन हुआ और विभाजन के पश्चात् भारत की राजभाषा ‘हिन्दी’ और पाकिस्तान की
राजभाषा ‘उर्दू’ घोषित की गई।
भारत की बोलचाल की भाषा को कई विद्वान ‘हिन्दुस्तानी’ का नाम देते हैं
जिनसे हिन्दी एवं उर्दू का विकास हुआ। ओंकार ‘राही’ लिखते हैं – “अंग्रेजों
के कम्पनी शासन की स्थापना के पूर्व हिन्दुस्तानी जन-साधारण की (देशव्यापी) भाषा
के रूप में प्रचलित हो चुकी थी। कम्पनी सरकार ने अपने हितों को दृष्टिगत करते हुए
फारसी और हिन्दुस्तानी भाषा को ही अपनाया। 1837 का, लोकभाषाओं को स्थान देनेवाला
रेग्यूलेशन इस बात का प्रमाण है। लोकभाषा हिन्दुस्तानी को कहते थे, हिन्दी को
नहीं।”[1] ‘हिन्दुस्तानी’ के लिए ‘हिन्दवी अथवा
हिन्दुई’ शब्द का भी प्रयोग किया जाता रहा है। ‘हिन्दुस्तानी’ की विशेषता बताते
हुए ओंकार ‘राही’ लिखते हैं– “हिन्दुस्तानी प्रांत-विशेष अर्थात् सूबा हिन्द की
मूल जनता की भाषा थी, जिसमें ‘ठेठ’ शब्द अर्थात् हिन्दी के शब्दों का अत्यधिक
प्रयोग होता था और जिसमें जहाँ एक ओर शुद्ध संस्कृत की शब्दावली का अभाव रहता था,
वहाँ दूसरी ओर अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी कम ही मिलता था।”[2] ओंकार ‘राही’ ने ‘हिन्दुस्तानी’ से उर्दू और हिन्दी का विकास बताया है। वे लिखते
हैं – “...हिन्दी और उर्दू इसी मूल हिन्दुस्तानी के दो
रूप थे और हैं भी अर्थात् हिन्दी और उर्दू का विकास हुआ तो हिन्दुस्तानी से ही।
परन्तु उनका विकास एक-दूसरे पर आश्रित नहीं, एक दूसरे से सम्बद्ध नहीं।”[3] ओंकार राही की ये विचार जॉन गिलक्राइस्ट की
मान्यताओं पर आधारित हैं। जॉन गिलक्राइस्ट की मान्यता यह थी कि “अरबी-फारसी सभी हिन्दुस्तानी कहलाईं और संस्कृत
शब्दों के बाहुल्य से युक्त भाषा हिन्दी बन गई।”[4] फ्रैडरिक महोदय की मान्यता गिलक्राइस्ट से थोड़ी
अलग है। “फैडरिक महोदय हिन्दुस्तानी को उर्दू कहना अधिक
पसन्द करते हैं और उधर संस्कृत को हिन्दवी की कुंजी कहकर हिन्दवी को संस्कृत पर
आश्रित कर देते हैं। हिन्दी की कुंजी फारसी है, हिन्दुस्तानी और उर्दू की कुंजी भी
यही है। अर्थात् उनके मत में हिन्दी, हिन्दुस्तानी उर्दू सब एक हैं, केवल हिन्दवी
में भेद है अर्थात् वह संस्कृत से सम्बन्ध रखती है।”[5] ओंकार राही द्वारा दिये गए गिलक्राइस्ट और
फ्रैडेरिक के उद्धरणों में कई विरोधी बातें दिखाई पड़ती हैं। एक तो यह कि ‘हिन्दी’, ‘हिन्दवी’, ‘हिन्दुई’, ‘हिन्दुस्तानी’, ‘उर्दू’ आदि शब्दों का प्रयोग
किन भाषाओं के लिए किया जाय, यही स्पष्ट नहीं है। यह स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता
है कि इन भाषाओं के नामकरण को लेकर भी विद्वान एकमत नहीं हैं। जहाँ तक ओंकार राही
ने लिखा है कि ‘लोकभाषा हिन्दुस्तानी को कहते थे, हिन्दी को
नहीं।’ गिलक्राइस्ट और फ्रैडेरिक जैसे विद्वानों की
मान्यताओं पर आधारित ओंकार राही का यह कथन पूरी तरह गलत है। ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग ही
जनसाधारण की भाषा के लिए किया जाता था। इसका प्रमाण सूफ़ी कवि नूर मुहम्मद की इस
पंक्ति से मिलता है जो उन्होंने ‘अनुराग बाँसुरी’ के आरंभ में लिखी है –
“हिंदू मग पर पाँव न
राखेउँ। का जौ बहुतै हिंदी भाखेउँ।।”[6]
‘उर्दू’ शब्द का तो जन्म ही
बहुत बाद में हुआ है। मुसलमानों की भाषा के लिए ‘फारसी’ या ‘पारसी’ शब्द का प्रयोग होता था जिसकी पुष्टि नूर
मुहम्मद की इन पंक्तियों से होती है –
“कामयाब कह कौन
जगावा। फिर हिंदी भाखै पर आवा।।
छाँड़ि पारसी कंद नवातैं। अरुझाना हिंदी
रस बातैं।।”[7]
नूर मुहम्मद की
उपर्युक्त पंक्तियाँ प्रमाणित करती हैं कि भारत की जनभाषा के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का इस्तेमाल
काफ़ी पहले से ही होता आ रहा है जिसमें ‘फ़ारसी’ के प्रभाव से तथाकथित ‘उर्दू’ भाषा का विकास हुआ।
इस संबंध में बाबूराम सक्सेना का कथन द्रष्टव्य है – “मुसलमान विजेताओं के रूप में हिन्दुस्तान आए।
स्वभावतः फ़ारसी भाषा, जो उनकी मातृभाषा थी ‘शाही’ भाषा बनी।... चूँकि लोगों को नयी भाषा सीखने का
चाव हुआ करता है। इसी कारण उस समय के लोग भी पुरानी प्रथा छोड़ने और नये शब्द और
मुहावरे ग्रहण करने लगे। देशी भाषा में, जिसे अब संभ्रान्त नागरिक छोड़ने लगे थे
और जो अब गाँवों तक सीमित होती जा रही थी, लोगों को अब कोई रस न आता था। अतएव
नूतनता के प्रेमियों ने नयी भाषा के प्रति ध्यान दिया और उसे बड़े चाव और उत्साह
के साथ सीखने लगे।”[8] इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रविनन्दन सिंह इस
निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “आमजन द्वारा उदारता
से अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण करने से नयी भाषाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। उर्दू भी
भाषायी समन्वय का परिणाम है।”[9] हिन्दी में फ़ारसी के प्रभाव से बोलचाल की भाषा
में कोई खास अंतर न आया लेकिन इस तथाकथित नई भाषा ‘उर्दू’ को फ़ारसी लिपि में लिखे जाने की परम्परा विकसित
हुई जो आज तक कायम है।
हिन्दी और उर्दू के बीच अलगाव की धारणा को
प्रबल कर अंग्रेज़ी शासनकाल में धार्मिक उन्माद फैलाने का काफी प्रयास किया गया।
हिन्दी को हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा साबित करने का भरसक प्रयास
किया गया। फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी ने फ्रांस में बैठे-बैठे ही इस विवाद को
भड़काने में अपना अनुपम योगदान दिया। उन्हीं के शब्दों में – “हिन्दी में हिन्दू धर्म का आभास है वह हिन्दु
धर्म जिसके मूल में बुतपरस्ती और उसके आनुषंगिक विधान हैं। इसके विपरीत उर्दू में
इस्लामी संस्कृति और आचार-विचार का संचय है। इस्लाम भी ‘सामी’ मत है और
एकेश्वरवाद उसका मूल सिद्धान्त है; इसलिए इस्लामी
तहजीब में ईसाई या मसीही तहज़ीब की विशेषताएँ पाई जाती हैं।”[10] हिन्दी के प्रति उनकी पक्षपाती भावना का पता
उनके इन्हीं शब्दों से चल जाता है – “इस वक्त हिन्दी की
हैसियत भी एक बोली (डायलेक्ट) की सी रह गई है।”[11] तासी के वक्तव्यों से इस बात की झलक मिलती है कि
एक ईसाई धर्मावलम्बी होने के कारण उनका झुकाव इस्लाम धर्म की ओर है और उर्दू को
इस्लाम धर्म से जोड़ने के कारण वे हिन्दी के प्रति हेय-दृष्टि रखते हैं।
धर्म से किसी भाषा का संबंध जोड़ना किसी भी
प्रकार से उचित नहीं माना जा सकता। जैसे अरबी को इस्लाम धर्म की भाषा मानने के
बजाय उसका संबंध अरब राष्ट्र से जोड़ना बेहतर होगा, उसी प्रकार हिन्दी का संबंध
भारत राष्ट्र से जोड़ना उचित प्रतीत होता है। यह अकारण नहीं है कि एकमात्र यहूदी
राष्ट्र होने के बावजूद इजरायल ने हिब्रू के अलावा अरबी को भी अपनी राजभाषा के रूप
में मान्यता प्रदान की हुई है। भाषा का संबंध धर्म से अधिक परिवेश से होता है
जिसका सीधा संबंध समाज से है।
हिन्दी और उर्दू के बीच अलगाव का प्रयास कई
भारतीय विद्वानों ने भी किया। जैसे शिवदान सिंह चौहान हिन्दी और उर्दू के संबंध
में पुरानी रटी-रटाई बातें फिर से दोहराते दिखाई देते हैं – “सर्वप्रथम यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि
हिन्दी और उर्दू दो भिन्न भाषाएँ हैं।... हिन्दी और उर्दूवालों को यह स्वीकार कर
लेना चाहिए कि ये दोनों अलग-अलग स्वतंत्र भाषाएँ हैं।... ये दोनों पृथक भाषाएँ
खड़ी बोली की ज़मीन पर संस्कृत और फ़ारसी के खाद-बीज से उत्पन्न दो पौधों के समान
हैं, अतः दो भिन्न संस्कृतियों हिन्दू और मुस्लिम की प्रतीक हैं।”[12] स्पष्ट है कि शिवदान सिंह चौहान गार्सा द तासी
की उन्हीं पुरानी घिसी-पिटी बातों को दोहरा रहे हैं जिनका कोई आधार नहीं।
उर्दू और हिन्दी के संबंध के बारे में
आचार्य रामचन्द्र वर्मा लिखते हैं – “यदि वास्तविक दृष्टि
से देखा जाए तो उर्दू कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं। वह हिन्दी का ही एक ऐसा रूप है
जिसमें बहुधा अरबी, फारसी, तुर्की आदि की ही अधिकांश संज्ञाएँ और विशेषण आदि रहते
हैं।”[13] आचार्य रामचन्द्र वर्मा यह दर्शाते हैं कि
हिन्दी में ही यदि संज्ञाओं और विशेषणों के रूप में अरबी, फारसी, तुर्की आदि के
शब्द डाल दिये जाएँ तो वह उर्दू का रूप ले लेगी। जहाँ एक तरफ आचार्य रामचन्द्र
वर्मा उर्दू के स्वतंत्र अस्तित्व को मानने से इन्कार करते हैं, वहीं दूसरी तरफ वे
स्वयं ही लिखते हैं – “उर्दू एक स्वतंत्र भाषा बन गई है और उसमें
बहुत-सा अच्छा साहित्य भी वर्तमान है और इसलिए उर्दू भाषा और साहित्य भी बहुत-कुछ
अध्ययन करने की चीजें हैं।”[14] आचार्य रामचंद्र वर्मा अप्रत्यक्ष रूप से यह
मानते हैं कि उर्दू मूलतः कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। दरअसल आचार्य के यह कहने के
बजाय कि कि ‘उर्दू स्वतंत्र भाषा बन गई है’, यह कहना अधिक उचित होता कि ‘उर्दू एक स्वतंत्र भाषा बना दी गई है’। इससे यह बात अधिक स्पष्ट होती कि उर्दू को
फ़ारसी लिपि का सहारा लेकर एवं उसमें अरबी-फ़ारसी के शब्द जबरन डालकर एक नई भाषा
के रूप में विकसित कर दिया गया। हालाँकि आचार्य की बातों से यह तो स्पष्ट है कि
हिन्दी एवं उर्दू मूलतः एक ही भाषा है और आम जनता द्वारा किये जाने वाले प्रयोग के
तौर पर दोनों में कोई अलगाव नहीं है।
हिन्दी एवं उर्दू की बुनियादी एकता की बातें
करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं – “हिन्दी और उर्दू
बुनियादी रूप से एक हैं; उनके साहित्यिक, शिष्ट रूप में आज भेद है, उसे
दूर करना चाहिए। दोनों का भाषा-क्षेत्र एक है। दोनों का सामाजिक परिवेश एक है।...
हिन्दी-उर्दू एक ही जाति की भाषा है, दोनों का साहित्य एक ही जाति का साहित्य है,
उनमें एक ही राष्ट्रीय जागरण की झलक है, दो राष्ट्रों के जागरण की नहीं।
मार्क्सवाद में कहीं भी इसका प्रमाण नहीं है कि धर्म के आधार पर भाषा या जाति का
निर्माण किया गया हो।”[15] हिन्दी और उर्दू की बुनियादी एकता को साबित करना
रामविलास जी का मूल उद्देश्य रहा है। ‘उर्दू’ शब्द का चलन भाषा के तौर पर बहुत बाद में शुरू
हुआ। पहले तथाकथित उर्दू के कवि भी अपनी भाषा को ‘हिन्दी’ या ‘रेख्ता’ ही कहा करते थे। रामविलास शर्मा लिखते हैं – “अलगाव का अहसास न होने से उर्दू लिखने वाले
मुसलमान कवि अपनी भाषा को हिन्दी या रेख्ता कहते थे। अठाहरवीं सदी के अन्त तक
उर्दू नाम का चलन न हुआ था। सबसे महत्व की बात यह है कि मीर, ग़ालिब, सौदा जैसे
उर्दू भाषा के संस्थापक कवियों ने कभी हिन्दी का आधार पूरी तरह नहीं छोड़ा। छोड़ना
दरकिनार, हिन्दी भाषा के सरस शब्दों का बहुत ही कलात्मक प्रयोग अक्सर उन्हीं के
यहाँ मिलता है।”[16] कई बार तो उर्दू के शायरों की भाषा इतनी सरल हो
जाया करती है कि उनमें अरबी-फ़ारसी के शब्द ढूँढ़ने से भी नहीं मिलते। जैसे सौदा
द्वारा रचित निम्न पंक्तियाँ:-
“अजब तरह की है वह नार। उसका क्या मैं करूँ विचार।
दिन
वह डोले पी के संग। लाग रहे निश वाके संग।”[17]
दरअसल बोलचाल की
भाषा के तौर पर हिन्दी और उर्दू के बीच कोई भेद है ही नहीं। थोड़ा-बहुत भेद दोनों
के साहित्यिक रूपों को लेकर है और लिपि का भेद ही दोनों के अलगाव की सबसे बड़ी वजह
बनी हुई है। इन दोनों के अलगाव के बारे में धीरेन्द्र वर्मा बतलाते हैं – “आधुनिक साहित्यिक हिन्दी के दूसरे साहित्यिक रूप
का नाम उर्दू है... भाषा की दृष्टि से इन दोनों साहित्यिक भाषाओं में विशेष अंतर
नहीं है, वास्तव में दोनों का मूलाधार मेरठ-बिजनौर की खड़ी बोली है। अतः जन्म से
उर्दू और आधुनिक साहित्यिक हिन्दी सगी बहिनें हैं। विकसित होने पर इन दोनों में जो
अंतर हुआ उसे रूपक में यों कह सकते हैं कि एक तो हिन्दुस्तानी बनी रही और दूसरी ने
मुसल्मान धर्म ग्रहण कर लिया। साहित्यिक वातावरण, शब्द-समूह तथा लिपि में हिन्दी
और उर्दू में आकाश पाताल का भेद है। साहित्यिक हिन्दी इन सब बातों के लिए भारत की
प्राचीन संस्कृति तथा उसके वर्तमान रूप को देखती है; भारत
के वातावरण में उत्पन्न होने और पलने पर भी उर्दू शैली फ़ारस और अरब की सभ्यता और
साहित्य से जीवन-श्वास ग्रहण करती है।”[18] ‘उर्दू’ का शाब्दिक अर्थ ‘बाज़ार’ है। धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार – “वास्तव में आरम्भ में उर्दू बाजारू भाषा थी। शाही
दरबार से सम्पर्क में आनेवाले हिन्दुओं का इसे अपनाना स्वाभाविक था, क्योंकि
फ़ारसी-अरबी शब्दों से मिश्रित किन्तु अपने देश की एक बोली में इन भिन्न भाषा-भाषी
विदेशियों से बातचीत करने में इन्हें सुविधा रहती होगी। जैसे भारतीय भाषायें बोलने
वाले ईसाई-धर्म ग्रहण कर लेने पर अंग्रेजी से अधिक प्रभावित होने लगते हैं उसी तरह
मुसल्मान धर्म ग्रहण कर लेने वाले हिन्दुओं में भी अरबी फ़ारसी के बाद उर्दू का
विशेष आदर होना स्वाभाविक था। धीरे-धीरे यह उत्तर भारत की मुसल्मान जनता की विशेष
भाषा हो गई।”[19] धीरेन्द्र वर्मा के भाषिक चिंतन का विश्लेषण
करने पर यह ज्ञात होता है कि इनकी भाषा-संबंधी अवधारणाओं पर जॉर्ज ग्रियर्सन का
काफ़ी प्रभाव पड़ा है। अतः इनके हिन्दी-उर्दू संबंधी विचार भी ग्रियर्सन से काफ़ी
मिलते-जुलते रहे हैं। धीरेन्द्र वर्मा ने उर्दू की उत्पत्ति के संबंध में एक
अंग्रेज विद्वान ग्रैहम बेली महोदय के विचारों को भी उद्धृत किया है जो उर्दू की
उत्पत्ति पंजाबी से मानते हैं। हालाँकि पाश्चात्य विचारकों के मतों से प्रभावित
होने के बाद भी धीरेन्द्र वर्मा ने अंततः कम से कम यह तो स्वीकार किया कि “जो हो, बिना पूर्ण खोज के उर्दू की उत्पत्ति के
संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।”[20] दरअसल, आम बोलचाल की भाषा के तौर पर दोनों
भाषाओं में मूलतः कोई अलगाव नहीं है। यह तो बाद में हिन्दी और उर्दू के बीच अलगाव
पैदा करने की कोशिश की गई कि हिन्दी में संस्कृत के और उर्दू में अरबी-फ़ारसी के
शब्द भर दिये जाएँ। प्रमुख रूप से धर्म का नाम लेकर दोनों में अलगाव करने का
प्रयास किया जाता रहा है। बाबासाहेब डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर ‘हिन्दुस्तानी’ के आम बोलचाल वाले
रूप के समर्थक हैं। उनका मानना है कि “हिन्दू लेखकों
द्वारा हिन्दुस्तानी के संस्कृतीकरण और मुसलमान लेखकों द्वारा उसके अरबीकरण का
बड़ा खतरा है। यदि यह हो जाता है तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रभाषा न रहकर वर्गभाषा बन
जाएगी।”[21]
कई विद्वान उर्दू और हिन्दी के बीच केवल लिपि का भेद ही मानते हैं। यदि लिपि के इस भेद को हटाकर देखा जाय तो दोनों कोई एक ही भाषा के रूप में दिखाई देती हैं। बालकृष्ण भट्ट लिखते हैं – “यह कौन कहता है कि उर्दू कोई दूसरी वस्तु है सच पूछो तो उर्दू भी इसी हिन्दी का रूपान्तर है।”[22] बालकृष्ण भट्ट उर्दू को हिन्दी से अलग भाषा नहीं मानते। वे स्पष्ट करते हैं – “उर्दू भी अरबी-फारसी मिश्रित हिन्दी है। जो भाषा हिन्दुस्तान के नगर, ग्राम तथा सर्वसाधारण में बोली जाए वह सिवाय हिन्दी के दूसरी भाषा हो ही नहीं सकती।”[23] बालकृष्ण भट्ट सरकारी कामकाजी भाषा की तुलना में आम जनमानस की बोलचाल की भाषा को अधिक महत्व देते हैं। आम जनमानस की बोलचाल की भाषा में हिन्दी और उर्दू का भेद पता भी नहीं चलता। बालकृष्ण भट्ट आम बोलचाल की भाषा के रूप में उर्दू के अस्तित्व से ही इन्कार करते हैं। बालमुकुन्द गुप्त हिन्दी-उर्दू भेद का एकमात्र बड़ा कारण लिपि के अंतर को ही पाते हैं। उनके शब्दों में – “...हिन्दी के दो रूप हैं। एक उर्दू दूसरा हिन्दी। दोनों में केवल शब्दों का ही नहीं लिपिभेद बड़ा भारी पड़ा हुआ है। यदि यह भेद न होता तो दोनों रूप मिलकर एक हो जाता। यदि आदि से फारसी लिपि के स्थान पर देवनागरी लिपि रहती तो यह भेद ही न होता। अब भी लिपि एक होने से भेद मिट सकता है। पर जल्द ऐसा होने की आशा कम है।”[24] रामविलास शर्मा 8 सितम्बर 1873 ई. की ‘कवि-वचन-सुधा’ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखी गई पंक्तियों को उद्धृत करते हैं जिसका शीर्षक भारतेन्दु ने अंग्रेज़ी में दिया था – ‘Hindi versus Urdu, Philologically हिन्दी और उर्दू’। इसमें भारतेन्दु ने लिखा था – “हिन्दी और उर्दू में अन्तर क्या है हम बिना संकोच के उत्तर देते हैं कि भाषाओं में कुछ अन्तर नहीं है क्योंकि व्याकरण की विभक्तियाँ और नियम दोनों के एक हैं पर इतना ही अन्तर है कि हिन्दी में जिसके लिए हिन्दी शब्द नहीं मिलता वहाँ संस्कृत शब्द काम में आते हैं और उर्दू में सहज हिन्दी शब्द होने पर भी जहाँ शब्द नहीं मिलते हैं वहाँ तो अवश्य ही अरबी और फारसी के शब्द लिखे जाते हैं यही दोनों में अन्तर है।”[25]
भारतेन्दु यहाँ उर्दू और हिन्दी की मूलभूत एकता
की बात कहते हैं लेकिन उपर्युक्त पंक्तियों में ही उन्होंने उर्दू वालों पर यह
आरोप भी लगा दिया है कि जहाँ हिन्दी के शब्द मिलते भी हैं, वहाँ भी वे अरबी-फारसी
के शब्द ढूँढ़ते हैं। उन्हीं भारतेन्दु ने ‘उर्दू का स्यापा’ नाम से एक निबंध भी लिखा था। इससे कहीं न कहीं
उनके मन में हिन्दी और उर्दू को लेकर दुविधा दिखाई देती है। बालकृष्ण भट्ट भी इस
दुविधा से बच नहीं पाए। वे भी कहीं-कहीं हिन्दी के प्रति अति आस्थावान दिखाई पड़ते
हैं और इसी अंध आस्था के चलते उन्होंने उर्दू का विरोध भी कर दिया है – “यद्यपि हम लोगों की घरेलू भाषा में बहुत दिनों तक
मुसलमानों का आधिपत्य यहाँ होने से फारसी-अरबी कहीं-कहीं पर हंस के दल में कौआ के
समान आ मिला है। किन्तु हिन्दी का भंडार संस्कृत अब भी बनी हुई है... हिन्दी के
शब्द जिस अंश में चले जाते हैं उस अंश में नई गढ़न्त हम संस्कृत ही के सहारे से
करने लगते हैं। उर्दू और हिन्दी में यही फ़रक़ भी है कि उर्दू की नई गढ़न्त के लिए
सहारा अरबी-फारसी है, हिन्दी के लिए संस्कृत है। इससे सिद्ध हुआ कि हिन्दी का
प्रचार मानो संस्कृत ही को सहारा देना है जो अब केवल हिन्दी अक्षरों के प्रचार
मात्र से सुख साध्य है।”[26] एक ओर उर्दू को ‘हिन्दी
का रूपान्तरण’ और ‘अरबी-फारसी मिश्रित
हिन्दी’ बताने वाले बालकृष्ण भट्ट ने उपर्युक्त उद्धरण
में ‘फारसी-अरबी’ को ‘हंस के दल में कौआ के समान’ बताकर भारतेन्दु के समान ही अपनी दुविधा की
मनःस्थिति को प्रकट कर दिया है। हालाँकि इस उद्धरण में इतना तो स्पष्ट है कि उनका
मुख्य जोर संस्कृत शब्दों एवं हिन्दी अक्षरों अर्थात् देवनागरी लिपि के प्रचार पर
है।
हिन्दी और उर्दू में सबसे बड़ा अंतर लिपि का है। लेकिन यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि केवल लिपि में अंतर कर देने से भाषा नहीं बदल जाती। 1928 ई. में प्रकाशित ‘कुरआन मजीद’ के अनुवाद का प्रकाशन देवनागरी लिपि में करवाने वाले ख्वाजा हसन निजामी ने इसकी भूमिका में लिखा था – “तहकीकात के सिलसिले में मुझे यह मालूम हुआ था कि हिन्दुस्तान में एक करोड़ मुसलमान ऐसे हैं जो अरबी और फ़ारसी हुरुफ नहीं पढ़ सकते। अगर्चे उनकी बोलचाल तो उर्दू है, मगर लिखना-पढ़ना उनका हिन्दी हुरुफ में है। और चूँकि इस्लामी अन्जुमने और मुसलमान मुबल्लिग सिर्फ उर्दू हुरुफ के जरिए तबलीग करते हैं, इसलिए उनको कामयाबी नहीं होती या पूरी तरह कामयाब नतीजा नहीं निकलता।”[27] इस उद्धरण से विदित होता है कि किसी भी भाषा के लिए लिपि का मुद्दा बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है। प्रेमचंद की भाषा भारतीयों के आम बोलचाल की भाषा है जिसे हिन्दी वाले और उर्दू वाले, दोनों ही तहे-दिल से स्वीकार करते हैं। यह अकारण नहीं है कि प्रेमचंद की रचनाएँ भारत के विश्वविद्यालयों में हिन्दी एवं उर्दू दोनों के पाठ्यक्रमों में शामिल की जाती हैं, भेद केवल लिपि का होता है। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि प्रेमचंद ने अपनी शुरुआती रचनाएँ उर्दू लिपि में लिखी थीं लेकिन बाद में उन्होंने अपनी रचनाएँ देवनागरी लिपि में लिखीं। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि भारत में फारसी लिपि की तुलना में देवनागरी लिपि का प्रचलन कहीं ज्यादा है। एक उदाहरण पाकिस्तान का भी देखा जा सकता है कि पाकिस्तानी पंजाब में लोगों के बोलचाल की भाषा पंजाबी है जिसे लिखने के लिए वहाँ के लोग उर्दू की लिपि (फारसी लिपि) का व्यवहार करते हैं। तमिलनाडु और केरल के मंदिरों में संस्कृत के श्लोक तमिल एवं मलयालम की लिपि में लिखे मिलते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि उन श्लोकों की भाषा बदल जाती है। प्रेमचंद ने नवम्बर 1935 ई. के ‘हंस’ में लिखा था – “हिन्दुस्तानी भाषा के लिए हिन्दी लिपि रखना ही सुविधा की बात है।”[28]
इस संबंध में महावीरप्रसाद द्विवेदी कुछ ज्यादा ही हठी एवं भावुक दिखाई देते हैं जब
वे मुसलमानों से स्वदेश-प्रेम का वास्ता देकर हिन्दी लिपि (देवनागरी) अपनाने के
लिए कहते हैं – “...उर्दू के अख़बारों और रिसालों की भाषा अच्छी
तरह देवनागरी में लिखी जा सकती है, और लेख का मतलब समझने में किसी तरह की बाधा
नहीं आती।... देवनागरी लिपि के जाननेवालों की संख्या फ़ारसी लिपि के जाननेवालों से
कई गुना अधिक है। इस दशा में सारे भारत में फ़ारसी लिपि का प्रचार होना सर्वथा
असम्भव और नागरी लिपि का सर्वथा सम्भव है। यदि मुसल्मान सज्जन हिन्दुस्तान को अपना
देश मानते हों, यदि स्वदेश-प्रीति को भी कोई चीज़ समझते हों, यदि एक लिपि के
प्रचार से देश को लाभ पहुँचाना सम्भव जानते हों तो हठ, दुराग्रह और कुतर्क छोड़कर
उन्हें देवनागरी लिपि सीखनी चाहिए।”[29] रामविलास शर्मा भी इसी बात पर जोर देते हैं कि
उर्दू ‘हिन्दी जाति’ की ही एक भाषा है
और उर्दू बोलने वाले भी यदि देवनागरी लिपि का प्रयोग करें तो इन दोनों भाषाओं का
अंतर पूरी तरह से मिटाया जा सकता है जो देश की एकता को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाएगा।
हिन्दी और उर्दू के बारे में एक बात तो
स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है कि यदि लिपि की ओर ध्यान न देकर केवल आम बोलचाल की
भाषा पर ध्यान दिया जाय तो इन दोनों भाषाओं में कोई अंतर दिखाई नहीं देता। आवश्यकता
इस बात की है कि आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग साहित्य में भी हो। इससे इन दोनों
भाषाओं के बीच कोई अंतर नहीं रह जाएगा और यह राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी सहायक
होगा।
संदर्भ
[1] ओंकार ‘राही’; खड़ी बोली : स्वरूप और साहित्यिक
परम्परा; लिपि प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करण- 1975, पृ. 13-14
[2] वही; पृ. 14
[3] वही; पृ. 14
[4] वही; पृ. 16 (उद्धृत)
[5] वही; पृ. 16
[6] आचार्य रामचंद्र
शुक्ल; हिन्दी साहित्य का इतिहास; मलिक एण्ड कम्पनी, जयपुर; संस्करण – 2009, पृ. 96 (उद्धृत)
[7] वही; पृ. 96 (उद्धृत)
[8] रविनन्दन सिंह; ‘हिन्दी, उर्दू और
खड़ी बोली की ज़मीन’; साहित्य भंडार, इलाहाबाद; संस्करण – 2013, पृ. 60-61 (उद्धृत)
[9] वही; पृ. 61
[10] वही; पृ. 104-105
(उद्धृत)
[11] वही; पृ. 104 (उद्धृत)
[12] रामविलास शर्मा; भारत की
भाषा-समस्या; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्कऱण – 2003, पृ. 261 (उद्धृत)
[13] आचार्य रामचन्द्र
वर्मा; उर्दू-हिन्दी कोश (प्रस्तावना); लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; संस्करण - 2011
[14] वही
[15] रामविलास शर्मा; भारत की
भाषा-समस्या; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्कऱण – 2003, पृ. 260
[16] रामविलास शर्मा; भाषा और समाज; राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली; संस्करण – 2002, पृ. 312
[17] वही; पृ. 313 (उद्धृत)
[18] धीरेन्द्र वर्मा; ग्रामीण हिन्दी; साहित्य भवन
लिमिटेड, प्रयाग; संस्कऱण – 1950, पृ. 8-9
[19] वही; पृ. 10-11
[20] वही; पृ. 12
[21] डॉ. धर्मवीर; हिन्दी की आत्मा; समता प्रकाशन,
दिल्ली; संस्करण – 2002, पृ. 9 (उद्धृत)
[22] अभिषेक रौशन; बालकृष्ण भट्ट और
आधुनिक हिन्दी आलोचना का आरम्भ; अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद; संस्करण – 2009, पृ. 131 (उद्धृत)
[23] वही; पृ. 131 (उद्धृत)
[24] सत्यप्रकाश मिश्र
(सं.); बालमुकुन्द गुप्त के श्रेष्ठ निबंध; लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; संस्करण – 2005,
पृ. 4
[25] रामविलास शर्मा; भाषा और समाज; राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली; संस्करण – 2002, पृ. 319-320 (उद्धृत)
[26] अभिषेक रौशन; बालकृष्ण भट्ट और
आधुनिक हिन्दी आलोचना का आरम्भ; अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद; संस्करण – 2009, पृ. 134-135 (उद्धृत)
[27] रविनन्दन सिंह; ‘हिन्दी, उर्दू और
खड़ी बोली की ज़मीन’; साहित्य भंडार, इलाहाबाद; संस्करण – 2013, पृ. 110-111
(उद्धृत)
[28] रामविलास शर्मा; भ्रारत की
भाषा-समस्या; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्कऱण – 2003, पृ. 347
(उद्धृत)
[29] महावीरप्रसाद द्विवेदी; हिन्दी भाषा की
उत्पत्ति; इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग; संस्करण – 1925, पृ. 71
डॉ. गोपाल कुमार
अतिथि प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, पूर्णियाँ महिला महाविद्यालय,
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
एक टिप्पणी भेजें