आलेख : जीवन और जीजिविषा की अदम्य अभिव्यक्ति : मैंगोसिल / दीक्षा
सिंह
नई कहानी के पुरोधाओं में
शामिल कमलेश्वर के शब्दों में मानें तो- “सृजन की पहली और अनिवार्य शर्त है-नया।”1
उदय प्रकाश की साहित्यिक नवीनता ही उनकी पहचान है। हालांकि वे इसी ‘नयेपन’ के प्रश्न को लेकर
तथा अन्य कई कारणों से काफी विवादित भी रहे। उन पर प्रायः विदेशी साहित्य के ज्ञान
का रौब जमाने और उनकी नकल का आरोप भी लगता रहा है। कहीं विद्वानों को ‘टेपचू’ में ‘ल्यू शुन’ के ‘आह क्यू’ की नकल, तो कहीं ‘तिरिछ’ मार्क्वेज के ‘क्रोनिकल
ऑफ द डेथ फोरटोल्ड’ का हिन्दी अनुवाद लगती है। उनकी लगभग सभी
कहानियाँ- छप्पन तोले की करधन, ...और अंत में
प्रार्थना, वारेन हेस्टिंग्स का सांड, पीली छतरी वाली लड़की, छतरियाँ, मोहन दास आदि
किसी-न-किसी वजह से विवादास्पद रहीं। ऐसे में उदय प्रकाश स्वयं यह आग्रह करते हैं
कि- “मुझे समझने के लिए समग्रता में समझना होगा... समय, समाज या इतिहास को समझने की जो व्याकुलता मेरे
भीतर है, मेरी कहानी की प्रविधि के लिए ‘छप्पन तोले का करधन’ से लेकर ‘वारेन हेस्टिंग्स
तक... समग्रता में देखना होगा।”2 आगे वे यह भी कहते हैं कि- “मौलिक तो
वही हो सकता है, जिसकी कोई स्मृति नहीं होती। परंपरा का अभिज्ञान
नहीं होता।”3 स्पष्ट है कि वे रचना को किसी-न-किसी परंपरा का अनवरत
विकास मानने के पक्षधर हैं, न कि नए और मौलिक के नाम पर उसके अजनबीपन और
बलात अलगाव के हिमायती। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह इसके समर्थन में कहते हैं कि-
“जागरूक कथाकार की हर कहानी उसके सामाजिक संघर्ष की दिशा में एक कदम होती है और
यही दिशा उसकी हर छोटी-से-छोटी कहानी को वृहत्तर अर्थवत्ता प्रदान करती है।”4
इस दृष्टि से उदय प्रकाश की हर रचना समाज से ही उत्पन्न होती हुई सामाजिक अंशों से
अपना निर्माण करती है। हालांकि उदय प्रकाश स्वयं को मूलतः कवि मानते हैं, लेकिन उनकी कहानियाँ भी किसी दृष्टि से कमतर
नहीं हैं। उनकी लंबी कहानियों में एक महाकाव्यात्मकता का पुट मिलता है। ऐसी ही एक
कहानी है- मैंगोसिल। यह कहानी भूमंडलीकरण, गरीबी, औद्योगीकरण, नगरीकरण, स्त्री-समस्या आदि गंभीर पड़ताल करती दिखाई देती
है, लेकिन जब कहानी परत-दर-परत खुलती है तो उपरोक्त
के इतर भी कई अन्य विषय केंद्र में आ जाते हैं। उदय प्रकाश की ये विशेषता है कि शुरुआत
में उन्हें पढ़ते हुए माथे पर बल देकर बेहद गंभीरता से एक-एक शब्द-वाक्य समझकर पढ़ना
पड़ता है, फिर अचानक वे बोझिल समुद्री दुनिया से धीरे-धीरे
साधारण दुनिया में प्रवेश कराते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता माथे का संकुचन मिटकर अपने
सामान्य रूप में आ जाता है। ‘मैंगोसिल’ कहानी एक रूपक कथा कही जा सकती है। यह पाठक
को मूर्त रूपों के ज़रिए अमूर्तता की ओर ले जाती है। इस ओर इशारा करते हुए शम्भु
गुप्त कहते हैं कि- “उदय प्रकाश कहानी लिखना शुरू करने से पहले कहानी की सार्थकता
और प्रासंगिकता पर एक सैद्धांतिक किस्म का भूमिकात्मक-सा विमर्श कहानी के प्रारम्भ
में देते हैं और पाठकों को ताकीद देते चलते हैं कि मेरी इस पेशकश के मद्देनजर ही
इस कहानी को लिया जाये।”5 कहानी के आरंभ में ही लेखक ‘प्रलय का प्राक्कथन’ शीर्षक में औद्योगीकरण के दुष्प्रभावों की तरफ संकेत
कर देता है। वास्तव में कहानी साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण की छत्रछाया में पल-बढ़ रहे
पूंजीवाद तथा उससे जनित भयावहता को उजागर करती है और साथ-ही-साथ उत्तराधुनिक समय में
रिश्तों-सम्बन्धों के खोखलेपन की भी व्यंजना करती है।
मूल्यांकन की सुविधा के
लिए यह कहानी दो भागों में बांटी जा सकती है। पूर्वार्ध भाग में एक स्त्री (शोभा) को
केंद्र में रखकर कहानी का ताना-बाना बुना गया है और दूसरे भाग में कहानी का मुख्य
किरदार सूर्यकांत (सूरी) अपनी बीमारी के साथ केंद्र में है। इन दोनों भागों में एक
सूत्र, जो सामान्य रूप से विद्यमान है- वह है लेखक अथवा
वाचक का अस्तित्व। खास बात यह है कि प्रारम्भ में ही रचनाकार की पक्षधरता निम्न-वर्ग
के प्रति झलक जाती है। लेखक स्वयं को भी समाज के उपेक्षित तबके के साथ ही शामिल
मानते हुए अपने वर्ग के जीवन-संकट की पड़ताल करते हुए कहता है कि- “हमारे जैसा जीवन
किसी भी व्यावसायिक नगर, राजनीतिक देश, या
सरकार के ‘मास्टर-प्लान’ के सामने हमेशा
अड़चन पैदा करता है।”6
प्रख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी विवेच्य कहानी
की मूल संवेदना पर अपना विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- “उदय प्रकाश के यहाँ
भूमंडलीय जानकारी और समाचारों की सरणि भी कथानक रूढ़ि बन गयी है... उदय प्रकाश के
कथा-साहित्य की नैतिकता मेरी समझ में इस विरोधाभास को उजागर करने में है कि ज्ञान, शक्ति और साधन में चकित कर देने वाली जादुई
वृद्धि के अनुपात में सत्ता क्रूर और अमानवीय हुई है। यह समीकरण अकाट्य है और उदय
प्रकाश का कथा-साहित्य मूलतः इस ऐतिहासिक नैतिक संकट की अभिव्यक्ति है।”7
वे ‘प्रलय का प्राक्कथन’ उपशीर्षक में ही सत्ता की पाशविक
महत्वाकांक्षाओं का पर्दाफाश कर देते हैं। लेखक की मानें तो ‘मैंगोसिल’ एक लाइलाज बीमारी
है, जिसमें शरीर के अनुपात में व्यक्ति का सिर
निरंतर बड़ा होता जाता है। बीमारी के परिचय के दौरान ही लेखक द्वारा ‘हमारा सिर’ शब्द का प्रयोग
संभवतः सम्पूर्ण मानव-समूह तथा उससे जुड़ी व्यवस्था का सूचक है। इस लाइलाज बीमारी
को कई-कई अर्थों में समझा जा सकता है। यह हमारी दुर्बुद्धिजीविता का, वैज्ञानिक उन्नति के दायरे में पनप रही
विनाश-लीला का, समाज में पनप रही गरीबी, पलती हुई बीमारी,
दमघोंटू बेरोजगारी और दीर्घकालिक भ्रष्टाचार का प्रतीक है। भले ही वास्तविकता में
इसका इलाज संभव न हो, लेकिन लेखक इसका उपचार एक किताब (जो कि भावी साहित्य
की निर्मलतम एवं शुद्धतम पराकाष्ठा हो) के रूप में देखता है। अभिधार्थ यह कि
दुनिया को सही मार्ग दिखाने की जिम्मेदारी एक ईमानदार रचयिता पर ही टिकी है।
संक्षेप में यह दिल्ली की
मलिन बस्तियों, सँकरी गलियों,
बजबजाती नालियों से उपजी दुर्गंधपूर्ण ज़िंदगियों की कहानी है, जिसमें शोभा अपने हमसफर चन्द्रकान्त थोराट के
साथ रहती है। शोभा का पूर्व पति ‘रमाकांत’ आवारा और निठल्ला होने के साथ-साथ दलाल और जुआरी
भी था। अपनी पत्नी को वह चंद रूपयों के लिए एक दरोगा और बिल्डर के हाथों सौंप देता
है, जहाँ वे दोनों शोभा का हर रोज बर्बरतापूर्वक
बलात्कार करते हैं। एक दिन शोभा इस जीवन से निजात पाने के लिए चन्द्रकान्त के साथ
भागकर घर बसा लेती है। वहीं आश्चर्यजनक रूप से उम्र के ढलते पायदान पर उसके दो
बच्चे अमरकान्त एवं सूर्यकांत (सूरी) जन्म लेते हैं जिसमें सूरी ‘मैंगोसिल’ नामक बीमारी से
ग्रसित होते हुए भी सभी चिकित्सकों की भविष्यवाणी को निरंतर झुठलाता हुआ आगे बढ़ता
रहता है, लेकिन एक दिन एक चीनी पिस्तौल के लिए वह
आत्महत्या कर लेता है। चीनी पिस्तौल के लिए आत्महत्या वस्तुतः बाज़ार का दुष्प्रभाव
दिखाने का सार्थक प्रयास कथाकार द्वारा किया गया है। सूरी हर दर्द सहते हुए जीने
की इच्छा करता है लेकिन बाज़ार के दबाव में आत्महत्या कर लेता है।
पिछले कई दशकों से उत्तराधुनिकता के साये में अस्मिताओं का आग्रह तेजी से बढ़ रहा है। स्वाभाविक रूप से कोई भी साहित्यकार इन अस्मिताओं से अछूता नहीं है। उदय प्रकाश भी अपने स्त्री-पात्रों को समय-समय पर समाज के घेरे में लाकर खड़ा कर देते हैं और कुछ ऐसी सफाई से सृजन-जाल बुनते हैं कि पाठक दूर से ही उस स्थिति की भनक पा जाता है। मसलन, ‘छप्पन तोले की करधन’ कहानी में एक वृद्धा की अपने ही परिवार में दुर्गति, ‘नेलकटर’ सरीखे आत्मकथ्य में अपनी ही माँ के प्रति अगाध प्रेम होते हुए भी उसे तिल-तिल कर मरते देखना, ‘हीरालाल का भूत’ जैसी कहानी में एक स्त्री का यौन-शोषण आदि सभी रचनाएँ उनके स्त्री पात्रों की अवस्थिति को दर्शाती हैं। ‘मैंगोसिल’ कहानी में भी बस्ती की दीप्ति और शालिनी जहाँ सस्ते विज्ञापनों और होटलों से काम चलातीं हैं, तो छाया मैडम अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए कुछ पुरुषों के रहमोकरम पर निर्भर हैं। चाहे अपार्टमेंट-संस्कृति का अजनबीपन हो या बस्तियों की चहल-पहल, स्त्री का दायरा और उसे देखने का नज़रिया लगभग समान ही है। उसके विषय में ज़्यादातर मर्दों की अपनी कल्पनाएँ होती हैं, जिसे यथार्थ रूप देने के लिए वे हरसंभव कोशिश करते हैं। शोभा जहाँ रमाकांत के लिए मिथ्या सम्मान और स्वार्थपूर्ति का जरिया है, वहीं दारोगा के अहं-तुष्टि का साधन भी- “नशा चढ़ते ही दरोगा कभी गाना गाने लगता, कभी गालियाँ देने लगता था। उसे पूरा यकीन था कि रमाकांत जैसे मरघिल्ले और आवारा, बेरोजगार पति के साथ रहते हुई शोभा उसके जैसे तंदरुस्त और पर्स-वर्दी वाले मर्द का साथ पाकर खुश हो जाती है और भीतर-भीतर उसे पसंद करती है।“8 और-तो-और एक स्त्री के अस्मिता की चीर-फाड़ और उसके आत्मविश्वास को टूटते-बिखरते हुए बस्ती के लोग चटखारे लेकर देखते- “शोभा जब कराहती हुई अपनी देह से अपना खून और दारोगा, बिल्डर और अपने पति रमाकांत का थूक, लार और वीर्य धो रही थी, तब उसे एहसास हुआ कि चार बजे के उस धुंधलके में, गली के उस पार से कई मर्द आँखें उसे घूर रहीं हैं।”9 वह हर रोज बलत्कृत होती, केवल दारोगा, बिल्डर और रमाकांत से ही नहीं, बल्कि उन कई जोड़ी वहशी आँखों से भी, जो इस रोज चलने वाले ज़िंदा ब्लू-फिल्म को देखने के लिए रातभर जागते। वहशीपन की पराकाष्ठा के बावजूद शोभा हार नहीं मानती, उसकी जिजीविषा उसे चन्द्रकान्त तक ले जाती है- “वह प्यार था या मुक्ति की दुर्निवार आकांक्षा, शोभा इसके बारे में दुविधा में थी।”10 शोभा कठिनाइयों से हार तो नहीं मानती, लेकिन अपने दम पर जीवनयापन करने में सक्षम होने के बाद भी अपनी यंत्रणा-मुक्ति के लिए वह चन्द्रकान्त जैसे पुरुष का ही सहारा लेती है। ऐसे में उदय प्रकाश अपने स्त्री पात्रों को अनंत स्वातंत्र्य नहीं दे पाते।
कहानी का पूर्वार्ध मूलतः विवाह-संस्था के अंतर्गत एक स्त्री के क्रूर एवं बर्बर
उपयोग-उपभोग का तीखा बयान करता है। “उदय प्रकाश पात्रों की पीड़ित, बेसहारा, असहनीय दारुण
स्थिति का चित्रण सीमांत पर जाकर खींचते हैं। दुर्गति के अंतिम छोर तक वे पीड़ित
पात्रों को ले जाते हैं।”11 ध्यातव्य है कि कहानी के स्त्री पात्र किसी
दैवीय गुणों से महिमामंडित नहीं किए गए हैं, बल्कि वे भी मानवीय
कमजोरियों से भरपूर हैं। शोभा अपने ही बलात्कारियों की जेबों से चोरी-चोरी
धन-संग्रह करती है। दरअसल इसके पीछे इंसानी कमजोरी से कहीं अधिक एक नारी की आर्थिक
विवशता और पराधीनता है, जो उसके ही गुनहगारों के आगे उसके स्वाभिमान को
तार-तार कर देती है। इसके अलावा वह चन्द्रकान्त के साथ रहते हुए भी कथावाचक के
प्रति झुकाव रखती है।
कहानी के दूसरे भाग में
दो कहानियाँ समानान्तर चलती हैं। एक सूरी के बड़े होते सिर की और दूसरी लेखक के
जीवन में अनवरत बढ़ते अपमान और गरीबी के साथ उसके स्वयं के द्वंद्व की। सूरी यहाँ
निरंतर विकासशील भौतिकता, पूँजीवाद, नगरीकरण और
औद्योगीकरण का ही प्रतिनिधित्व करता है। वह जब पृथ्वी-समान शोभा की जांघों पर अपना
सिर रखता तो वह- “किसी बच्चे का सिर नहीं, लोहा, रेत और सीसे की गरम और वजनदार कोई बोरी”12 होने
की अनुभूति देता। अमापनीय विध्वंस और विनाश का अंश छिपाए “मियानी के उस कोने के
धुंधलके से उसकी आँखें उन दोनों को इस तरह देख रही थीं, जैसे किसी सड़क दुर्घटना में ट्रक के पहिये के
तले कुचला गया कोई मरता हुआ व्यक्ति, सड़क पर आते-जाते
बाकी जीवित लोगों को देखता है।”13
आधुनिक संदर्भ में जितनी
तेजी से मानव-मूल्य बदल रहे हैं, उतनी ही भयावहता से
श्रम की परिभाषा भी परिवर्तित हो रही है। कहानी में दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में
रहस्यपूर्ण ढंग से आग लगना, उनमें रहने वालों को जबरन खदेड़ा जाना, कोलोनाइजर्स, प्रोपर्टीडीलर्स, आला पुलिस अधिकारी, प्रोफेसर, विद्वान आदि सभी की
मिलीभगत इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि- “साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का जवाब है।”14 उदय प्रकाश की रचनाओं
में क्षेत्रीयता कभी अंतर्राष्ट्रीयता से रूबरू होती है, तो कभी अंतर्राष्ट्रीय घटना-संदर्भों को वे
संकुचित कर राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर तक ले आते हैं। ‘मैंगोसिल’ कहानी में ही सूरी
के बहाने वे पूरी दुनिया से पाठकों का सामना करवाते हैं। सूरी के हर कथन में
अत्यंत गूढ दार्शनिकता का पुट मिलता है। मसलन, “अस्पताल तो उनके
लिए बनते हैं, जिनके लिए कारें, होटल, हवाई जहाज और बिल्डिंगें बनतीं हैं।”15 या कि “अपने बच्चों को वही लोग स्कूल भेजते हैं, जो अपने बच्चों से छुटकारा पाना चाहते हैं... स्कूल
तो नौकर तैयार करने की फ़ैक्टरी होते हैं।... दुनिया में सिर्फ दस से बीस प्रतिशत
लोग ही आदमी होते हैं। बाकी या तो चींटें या कॉक्रोच हैं, या कुत्ते, सुअर और बैल।”16
ध्यातव्य है कि यहाँ चींटें, कॉक्रोच, कुत्ते, सुअर, बैल ये सभी गरीबी, बीमारी, गंदगी, अवैतनिक वफादारी और
अथक परिश्रम का प्रतीक हैं। सूरी आगे कहता है- “अमेरिका ने इराक पर हमला सिर्फ तेल
के लिए किया है, लेकिन इस बात को छुपाने के लिए जितना रूपया खर्च
किया गया है, उतने में अमेरिका वैसे भी वहाँ से तेल खरीद सकता
है।”17 फिर वह भाषा पर चोट करते हुए कहता है- “अंग्रेजों के जमाने में
अंग्रेजी हमें गुलाम बनाती थी, अंग्रेजों के जाने
के बाद हिन्दी हमें गुलाम बनाती है।”18 ज़ाहिर है कि सूरी का दुनिया को
देखने का तरीका बेहद आलोचनात्मक तो है ही, साथ में वह तार्किक
विश्लेषण के साथ समस्या के मूल कारणों का निदान भी करते चलता है। यहाँ सूरी एक ‘प्रौढ़ शिशु’ के रूप में अपने
अधिकतम परिपक्वता के साथ उपस्थित है। पूरी कहानी का सम्पूर्ण निचोड़ ही सूरी के
कथनों में समाहित है, ऐसा कहना अनुचित न होगा।
वास्तव में सूरी की
समस्या लेखक की अपनी जीवनानुभूति का आभास दिलाती है। सूरी जीना चाहता है, लेकिन किसी को तकलीफ दिये बगैर। वह हर वक्त
अकेले ही अपने लगातार बड़े होते सिर और उसके दर्द व बोझ से जूझता रहता है। एक तरफ
उसे यह चिंता है कि अगर मैं एक सौ पाँच साल तक ज़िंदा रहा तो मेरा सिर कितना बड़ा
होगा? और वह संभालेगा कैसे? तो दूसरी तरफ वह यह भी सोचता है कि “क्या मेरा
सिर हिंदुस्तान है, जो धीरे-धीरे मर रहा है?”19 मौत को आश्चर्यजनक रूप से पीछे धकेलने और मजबूती
से लड़ने वाले सूरी का एक दिन अचानक ही महज़ एक चीनी पिस्तौल के लिए आत्महत्या कर
लेना ऊपरी तौर पर भूमंडलीय बाजारवाद का परिणाम लगता है, लेकिन गहराई से देखें तो उसका ‘ब्रेकिंग प्वाइंट’ बिमला
साहू के कुठाराघात से शुरू होता है। बिमला साहू यहाँ उस कठोर और निर्मम समाज का
प्रतिनिधित्व भी करती है, जो व्यक्ति की सर्वाधिक कमजोर नस पर वार करना
जानता है। सूरी के शारीरिक अक्षमता पर इतना कटु प्रहार उसकी सारी बौद्धिकता को
अतिशय भावुकता में बदल देता है- “धैर्य चेतना को प्रखर बनाता है और अपनी
सीमाओं-अपेक्षाओं को थहाने का विवेक भी देता है।”20 सूरी अपने धैर्य और
सहनशीलता से ही दुनिया को समझने की कोशिश करता है। वह ‘अन्ना अख्मातोवा’ की
पंक्तियों के जरिये दुनिया के पतनशील होने और उसे छिपाने की जद्दोजहद में फैले
आडंबरों पर सवाल करता है। कहानी में वह लेखक के ही सर्वाधिक निकट लगता है। उसकी
चिंता लेखक की ही चिंता है। उदय प्रकाश अपनी कहानियों में किसी-न-किसी रूप में
मौजूद रहते ही हैं। ‘डिबिया’, ‘अपराध’, ‘नेलकटर’, ‘तिरिछ’, ‘छप्पन तोले का करधन’, ‘मैंगोसिल’ आदि सभी में वे अपनी आत्मकथा कहते चलते हैं।
वास्तविक जीवन में अपने करीबियों की लगातार होती मृत्यु को सहने के कारण ही शायद
उनकी कहानियों में ‘मृत्यु’ एक आवश्यक तत्व के
रूप में आता है। वे एक साक्षात्कार में अपने “सम्पूर्ण लेखन(सृजन) को पाँच शब्दों-
मृत्यु, प्रत्यभिज्ञा,
मनुष्यता, ईमानदारी और प्रेम से गहरे रेखांकित या संकेतित
होना स्वीकारते हैं।”21
‘मैंगोसिल’ में एक लेखक द्वारा
अपने समय के यथार्थ को व्यक्त करने की ईमानदारी को उसे नकलची, नक्सलवादी, पागल कुत्ता, फासीवादी, सांप्रदायिक आदि
उपाधियों के तराजू में रखकर तौला जाता है। उसकी साफ़गोई ही उसे उत्तरोत्तर गरीबी और
अवसाद की ओर धकेलती है। वर्तमान का कटु सत्य ये है कि यदि एक लेखक अपने स्वाभिमान
से समझौता कर वाह्य-दबावों के आगे नतमस्तक हो जाये तो उसका अन्तर्मन उसे निरंतर
कचोटता रहेगा और सामाजिक यथार्थ की तटस्थ अभिव्यक्ति उसे व्यवस्था एवं सत्ता का
चिरशत्रु बना देती हैं। ऐसे में लेखक अपने द्वन्द्वों से निरंतर संघर्षरत रहता है।
सूरी का भी संघर्ष इन्हीं द्वन्द्वों से होकर गुज़रता है। वह दुनिया का यथार्थ
बर्दाश्त नहीं कर पाता और न ही अपने अंतर्द्वंद्वों को सह पाता है। इन सबसे
छुटकारा पाने के लिए मानो वह एक बहाना ढूँढता है और वह बहाना उसे चीनी पिस्तौल एवं
बिमला साहू के वाक-प्रहार में मिलता है। उदय प्रकाश की कहानियों को समझना जितना
आसान है, उतना ही कठिन भी। आसान इसलिए, क्योंकि वे अपनी हर रचना में सहजता एवं
सपाटबयानी के साथ तथ्यात्मक जानकारी देते हुए चलते हैं, लेकिन उनके पीछे की थाह पाना बेहद श्रमसाध्य है।
इस प्रकार वे पाठक के ऊपर हर ‘कहे’ में ‘अनकहे’ को ढूंढकर निकालने का दायित्व छोड़ जाते हैं। इस
कहानी में कुछ घटनाएँ कहीं-कहीं खटकती भी है। उदाहरणस्वरूप, शोभा का लेखक के प्रति आकर्षण तथा चन्द्रकान्त व
सूरी की मौन-स्वीकृति कहीं से भी सहज नहीं लगती। ऐसी कुछ परिस्थितियाँ रचना की
प्रवाहशीलता में बाधा उत्पन्न करती हैं। “रचना ऐसी होनी चाहिए कि उसके साथ चलने
में पाठक को बिल्कुल परिश्रम न करना पड़े।“22 कुल मिलाकर यह कहानी न
सिर्फ व्यवस्था के प्रति सजग है, बल्कि आश्चर्यजनक
घटनाओं और सिर्फ पात्रों द्वारा उस व्यवस्था के प्रतिरोध में लड़ने का साहस भी
जुटाती है।
संदर्भ
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उदय, अपनी उनकी बात, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
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- अज्ञेय, नदी के दीप,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
संस्करण-2015, पृष्ठ संख्या- द्वितीय संस्करण की भूमिका
दीक्षा सिंह
शोधार्थी, हिन्दी एवं
तुलनात्मक साहित्य विभाग,
केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय, कासरगोड
सम्पर्क : dsingh1877999@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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