अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar
'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
आलेख : हिंदी आलोचना की वैचारिक यात्रा / विवेक भट्ट
हिन्दी की सैद्धान्तिक समीक्षा औपचारिक रूप से भारतेंदु युग में शुरु हुई
किंतु इससे पूर्व भक्तिकाल और रीतिकाल से ही समीक्षा के बीज दिखाई पड़ते हैं। हिन्दी
में शुद्ध व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात भारतेन्दु युग में गद्य के विकास के
साथ-साथ प्राप्त होता है। इसके पूर्व हिन्दी आलोचना के जो रूप प्रचलित थे उसका
श्रेय संस्कृत साहित्य को है। रीतिकाल में लक्षण ग्रंथों की एक लंबी परम्परा
प्राप्त होती है जिसका आधार संस्कृत का काव्यशास्त्र रहा। रीतिकालीन आलोचना भी
रीतिकालीन काव्य की तरह दरबारी परिवेश से प्रभावित रही। रीतिकालीन काव्य शास्त्रीय
विवेचना में सूक्ष्म विवेचन और पर्यालोचन का अभाव है, उसमें नए सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं हुआ। इसका एक प्रमुख
कारण यह था कि उस समय विवेचना भी गद्य में नहीं पद्य में की जाती थी। पद्य का माध्यम
विश्लेषण विवेचना के अनुपयुक्त है। इस काल में व्यावहारिक आलोचना का जो रूप
मिलता है वह गुण-दोष कथन करने वाली उक्तियों के रूप में ही है।
उन्नीसवीं सदी में ’57 के गदर के बाद देश में सांस्कृतिक जागरण
की लहर दौड़ चुकी थी। अंग्रेजी-शिक्षा के विकास का असर देश के शिक्षित समाज पर पड़
रहा था। देश में एक ऐसा सशक्त मध्यवर्ग तैयार हुआ जो व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय
एवं सामाजिक हितों की दृष्टि से सोचने लगा था और यह अनुभव करने लगा था कि सभी
दृष्टियों से हमारा देश अत्यंत हीन अवस्था में है। भारतेंदु बाबू और उनका युग
इसी प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि हैं। उनके समय हिन्दी आलोचना का आरंभ
पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ। ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’,
‘हिंदी प्रदीप’, आनंद कादम्बिनी’ आदि मुख्य पत्रिकाएँ थी जिनमें पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित होती थी।
यद्यपि इस दौर में हिन्दी आलोचना इतनी परिपक्व नहीं थी फिर भी पत्र-पत्रिकाओं
में प्रकाशित होने वाली इन आलोचनाओं ने हिन्दी आलोचना को एक नयी दिशा देने का काम
किया। हिन्दी की आरंभिक आलोचना के योगदान पर टिप्पणी करते हुए विश्वनाथ
त्रिपाठी कहते हैं, ‘‘वस्तुत: हिन्दी आलोचना का विकास
पश्चिम की नकल पर नहीं बल्कि अपने साहित्य को समझने एवं उसकी उपादेयता पर विचार
करने के लिए हुआ।’’[ii]
भारतेंदु युग की हिन्दी समीक्षा में उपयोगितावादी, नैतिक व राष्ट्रीय दृष्टिकोण प्रमुख रूप से दिखता है, अत: रूपवादी समीक्षाएँ इस काल में नहीं हुई।
द्विवेदीयुगीन आलोचना भी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से विकसित हुई। इस काल में
‘सरस्वती’ के अतिरिक्त ‘माधुरी’, ‘वीणा’, ‘विशाल भारत’
और ‘मर्यादा’ आदि
पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी आलोचना का आगे बढ़ी। महावीर प्रसाद द्विवेदी इस युग
के सर्वाधिक प्रमुख आलोचक रहे जिन्होंने सैद्धांतिक पक्ष में इतिवृत्तात्मकता और
नैतिक आदर्शवादी मान्यताओं को अत्यधिक महत्त्व दिया। उनके संपादन में निकलने
वाली ‘सरस्वती’ पत्रिका का इस युग की
रचना-प्रक्रिया तय करने में विशेष योगदान रहा। उन्होंने समय-समय पर ‘सरस्वती’ के माध्यम से अपने युग के रचनाकारों को
प्रेरित करने एवं मार्गदर्शित करने का कार्य किया। इस युग के लेखकों ने साहित्य
की रचना उसकी सामाजिक उपयोगिता को ध्यान में रख कर की। उन्होंने ज्ञान की साधना
पर बल दिया। वे प्राचीन भारत के ज्ञान-विज्ञान की खोज और पश्चिम के नये आलोक से
अपने देशवासियों को परिचित कराना चाहते थे। इसीलिए साहित्य संबंधी समझ को गहरा
करने के लिए अन्य भाषाओं की रचनाओं एवं पश्चिमी साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन
किया जिसका एक प्रमुख लाभ यह रहा कि आलोचना एक स्वतंत्र विषय के रूप में अपना स्वरूप
पा सकी।
हिन्दी में विशुद्ध आलोचना का सूत्रपात शुक्ल युग में हुआ। आचार्य रामचंद्र
शुक्ल इस युग के प्रमुख आलोचक रहे। उनकी आलोचना एवं साहित्यिक दृष्टि वैज्ञानिक, प्रगतिशील एवं इहलौकिक है। विकासवादी दृष्टिकोण को आधार बनाकर
वे कहते हैं कि हमें अपने अतीत से प्रेरणा लेकर आगे के विकास के लिए मार्ग प्रशस्त
करना चाहिए। वे बुद्धि और हृदय का संयोजन करके आलोचना कर्म में प्रवृत्त होते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृत काव्य शास्त्र एवं उस पर आधारित हिन्दी
आलोचना की पड़ताल कर निष्कर्ष निकाला कि यहाँ गुण-दोष विवेचन ही आलोचना का
उद्देश्य है। स्वयं शुक्लजी के शब्दों में ‘‘हमारे हिन्दी
साहित्य में समालोचना पहले-पहल केवल गुण-दोष-दर्शन के रूप में प्रकट हुई।’’[iii] उन्होंने आलोचना में रचनाकार के साथ-साथ रचना के महत्व को स्थापित
किया। गुण-दोष से आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं एवं अंतवृत्तियों पर ध्यान दिया।
उन्होंने केवल ‘साहित्य’ ही नहीं
पढ़ा बल्कि साहित्य के स्त्रोत जीवन को भी पढ़ा। मलयज के शब्दों में कहे तो ‘‘शुक्लजी के पहले की समीक्षा साहित्य के होने का प्रमाण शास्त्र में,
नीति और नियमों में देखती थी, शुक्लजी पहले
समीक्ष्ाक थे जिन्होंने साहित्य का प्रमाण स्वयं रचयिता के भीतर ढूँढ़ा।’’[iv]
उन्होंने अपनी आलोचना पद्धति से रचना और रचनाकार को आलोचना के
केंद्र में ला दिया।
शुक्ल युग में आलोचना को एक निश्चित गति और दिशा मिली। शुक्लजी ने रचना को
गुण-दोष के विवेचन से आगे बढ़ाकर रचना के मर्म को आलोचना के केन्द्र में लाने का
प्रयास किया। आलोचना के सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूपों में वे दुर्लंघ्य
हैं। उन्होंने आलोचना के ऐसे पैमाने स्थापित किए कि उनके बाद का हर आलोचक उनसे
किसी ना किसी रूप में प्रभावित है। उनके महत्व को रेखांकित करते हुए डॉ. रामविलास
शर्मा लिखते हैं कि ‘‘हिन्दी साहित्य में शुक्लजी का वही
महत्त्व है जो उपन्यासकार प्रेमचन्द या कवि निराला का।’’ उन्होंने
‘’बाह्य जगत् और मानव जीवन की वास्तविकता के आधार पर नए
साहित्य सिद्धान्तों की स्थापना की और उनके आधार पर सामन्ती साहित्य का विरोध
किया और देशभक्ति और जनतन्त्र की साहित्यिक परम्परा का समर्थन किया।‘’[v]
इसी युग में छायावादी साहित्य अपने चरम पर था जिस पर नंददुलारे
वाजपेयी, शांतिप्रिय द्विवेदी जैसे आलोचकों ने काम किया।
कृष्णशंकर शुक्ल, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. रामकुमार वर्मा, लक्ष्मीनारायण सुधांशु,
सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ आदि इस युग के अन्य प्रमुख आलोचक रहे।
शुक्लोत्तर आलोचकों में नन्ददुलारे
वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और डॉ. नगेन्द्र मुख्य हैं।
इन आलोचकों ने शुक्लजी की कई मान्यताओं का तर्कपूर्ण ढ़ंग से खंडन किया। उनकी
धारणाओं पर गंभीर और तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की। नंददुलारे वाजपेयी की समीक्षा
दृष्टि के निर्माण में छायावादी काव्य का प्रमुख योगदान रहा है। छायावाद की नूतन
कल्पना छवियों, भावों और भाषा-रूपों की ओर वे विशेष आकृष्ट
हुए। उन्होंने न केवल शुक्लजी की सीमाओं को उद्घाटित किया, अपितु छायावादी काव्य के संदर्भ में उनके दृष्टिकोण को भी नवीन साहित्यिक
संवेदना के उपयुक्त नहीं माना। छायावादोत्तर काल में उनके कई प्रमुख आलोचना ग्रंथ
प्रकाशित हुए- ‘आधुनिक साहित्य’, ‘नया
साहित्य: नये प्रश्न’, ‘कवि निराला’, ‘राष्ट्रीय साहित्य तथा अन्य निबंध’ आदि। वाजपेयीजी
ने इन आलोच्य ग्रंथों पर अपने पूर्वग्रह नहीं लादे वरन् बहुत पैनी दृष्टि रखते
हुए संतुलित लेखन किया है। काव्य में उन्होंने मुख्यत: सौन्दर्यानुसंधान किया
है और उसे जीवन-चेतना से संपृक्त रखा है, किंतु कथा-साहित्य
और नाटक की आलोचना में वे मुख्य रूप से मूल जीवन-चेतना और सामाजिक प्रभाव तथा
उनके परिदृश्य का आंकलन करते हैं।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने गहन अध्ययन और तर्कों से आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल की कई मान्यताओं का खंडन किया। उनके संपूर्ण साहित्य के केन्द्र में
मनुष्य और समाज रहा है। वह साहित्य को सामाजिक संदर्भों में देखने को और परखने
के पक्षधर हैं। वे लिखते हैं कि ‘‘मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने
का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता,
परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा
को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और
संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता
है।’’[vi]
वे जीवन्त मनुष्य और उसके समूह ‘समाज को
मनुष्य की सारी साधनाओं का केन्द्र और लक्ष्य’ मानते हैं।
वे कृति की आलोचना उसके ऐतिहासिक, पारम्परिक एवं सामाजिक
संदर्भ में करने के पक्षधर है। उनके अनुसार साहित्यकार अपनी परिस्थिति की उपज
होता है अत: उसका अध्ययन करने के लिए उसकी परिस्थितियों का अध्ययन करना अनिवार्य
है। ‘साहित्य सहचर’ निबंध में वे
लिखते हैं, ‘‘किसी रचना का संपूर्ण आनन्द पाने के लिए रचयिता
के साथ हमारा घनिष्ठ परिचय और सहानुभूति मनुष्यता के नाते भी आवश्यक हैं।
कवियों का जीवन उसकी कृतियों को समझने का प्रधान सहायक है।’’[vii]
जब हम रचनाकार की परिस्थितियों जिसमें उसके जीवन संबंधी सारी बातें
भी शामिल होती है, को अच्छे से जान लेते है तो समीक्षा अधिक
ईमानदारी से कर पाते हैं। नवीन मानववाद और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के कारण उनमें
एक लचीलापन है, आधुनिकता है जिस कारण उनका पांडित्य एवं
संस्कृत ज्ञान कहीं भी बोझ बनता नज़र नहीं आता।
डॉ. नगेन्द्र रसवादी आलोचक हैं। ‘रस सिद्धांत’
में रस का सांगोपांग विवेचन करते हुए उन्होंने इस सिद्धांत को पुन:
प्रतिष्ठित करने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है। वे साहित्य के परिवर्तनों को
युगीन संदर्भों से प्रभावित विकास के रूप में नहीं स्थूलता एवं सूक्ष्मता के
संदर्भ में देखते हैं। छायावाद को वह ‘स्थूल के प्रति
सूक्ष्म का विद्रोह’ मानते हैं तो वहीं प्रगतिवाद को ‘छायावादी सूक्ष्मता के प्रति स्थूलता का विद्रोह’ मानते
हैं। यद्यपि परिवर्तनों को देखने का यह संदर्भ ठीक नहीं लगता क्योंकि कोई भी युग
या वाद अपने पूर्ववर्ती युग या वाद की सभी विशेषताओं को छोडकर आगे नहीं बढ़ सकता।
वह उनका विद्रोह नहीं वरन् सतत् विकास होता है।
साहित्य में प्रगतिवादी आंदोलन की शुरूआत बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से मानी
जानी चाहिए क्योंकि इसी समय प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम सम्मेलन लखनऊ में सन्
1936 में हुआ जिसकी अध्यक्षता मुंशी प्रेमचन्द ने की थी। यद्यपि हमारे साहित्य
में प्रगतिशील तत्व पहले से मौजूद रहे हैं। पंत और निराला की कविताओं में
प्रगतिशीलता के संकेत देखे जा सकते हैं। संघ के प्रथम सभापति मुंशी प्रेमचन्द ने
कहा था, ‘‘प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है,
साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है।’’[viii]
उन्होंने साहित्यकार को स्वभावत: प्रगतिशील बताया तो इस
प्रगतिशीलता का लक्षण भी बताया, ‘‘वह अप्रिय अवस्थाओं का
अन्त कर देना चाहता है।’’[ix]
प्रगतिवाद का दृष्टिकोण वैज्ञानिक है और वह प्राचीन साहित्य का अध्ययन
तत्कालीन सामाजिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में करता है।
डॉ. रामविलास शर्मा प्रगतिशील आलोचना के प्रतिनिधि आलोचक हैं। प्रगतिशील
साहित्य का आरंभिक साहित्यिक संस्कार देने में उनकी ऐतिहासिक भूमिका है। उन्होंने
हिन्दी-भाषा और साहित्य की गौरवशाली परंपराओं का अनुसंधान करते हुए नवीन आलोचना
दृष्टि का विकास किया। वे मार्क्सवाद की समझ का उपयोग अपने ढ़ंग से करते हैं।
उनकी आलोचना में भारतीय लोक-परंपराओं, क्लासिकल
भारतीय साहित्य की उदात्त भावभूमि के साथ लोकचितवृत्ति की पकड़ रहती है। उन्होंने
समाज और साहित्य का मूल्यांकन करने की मार्क्सवादी पद्धति की व्याख्या करते
हुए ‘‘साहित्य: स्थायी मूल्य और मूल्यांकन’’ में लिखा, ‘‘प्राचीन साहित्य के मूल्यांकन में
हमें मार्क्सवाद से यह सहायता मिलती है कि हम उसकी विषय-वस्तु और कलात्मक सौन्दर्य
को ऐतिहासिक दृष्टि से देखकर उनका उचित मूल्यांकन कर सकते है।’’[x] ‘प्रेमचन्द’, ‘निराला’,
और ‘भारतेंदु युग’ जैसे
ग्रंथों में हिन्दी साहित्य के इन तीन प्रमुख रचनाकारों का मूल्यांकन करते हुए
न सिर्फ हिन्दी साहित्य की प्रगतिशीन धारा का विकास स्पष्ट किया वरन् हिन्दी
आलोचना को हिन्दी की जातीय परम्परा से भी जोड़ा। वे हिन्दी उन आलोचकों में से
है जो किसी रचना को रचनाकार से अलग कर देखने के पक्ष में नहीं हैं। उनका यह दृढ़
विश्वास है कि किसी भी रचना पर रचनाकार एवं उसकी परिस्थितियों का प्रभाव व्यापक
स्तर पर पड़ता हैं। उन्होंने प्रगतिशील लेखकों को अपना मानकर उनकी कमियों का
औचित्य स्थापित करने के लिए अपनी आलोचना या सिद्धान्तों का दुरूपयोग नहीं किया।
वे साफ कहते हैं कि प्रगतिशील लेखकों का वास्तविक विश्लेषण मूल्यांकन सार्वजनिक
रूप से होना चाहिए।
हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना को सक्रिय आंदोलन के रूप में आगे बढाने का काम
डॉ. नामवर सिंह लंबे समय से कर रहे हैं। वस्तुत: डॉ. सिंह हिन्दी आलोचना की ‘‘वाचिक परम्परा’’ के सबसे सशक्त हस्ताक्षर
हैं। रमेश दवे के अनुसार अभी हिन्दी में प्रवचनीय या वाचिक आलोचना जैसा तो कोई
मुहावरा बना नहीं फिर भी ‘‘संगोष्ठियों की आलोचना ऐसी ही
आलोचना है, जिसे प्रवचनीय आलोचना या वाचिकता का वाणी-विलास
कहा जा सकता है।’’[xi]
डॉ. सिंह के अनुसार किसी रचना का सबसे विशिष्ट गुण है- सर्जनात्मकता
। उनके अनुसार रचना में महत्वपूर्ण और मूल्यवान सर्जनात्मकता ही है। सर्जनशील
साहित्य के प्रति उनकी आस्था लगातार बनी रही है। उनकी शक्ति रचना के ‘अर्थ-विश्लेषण’ में है। वे रचना के महत्त्व के आगे
झुकने के लिए तैयार हो जाते हैं। विरोधियों की सर्जनशीलता को स्वीकार करने में भी
वह हिचकते नहीं हैं। वे रचना की प्रकृति एवं तात्कालिक प्रसंग-संदर्भ के अनुसार
लेखकों का मूल्यांकन-विश्लेषण करते हैं। वे समसामायिक साहित्य रचना का महत्त्व मानकर
आलोचना कार्य में प्रवृत्त होते हैं। उनके अनुसार यदि आप अपने समसामायिक साहित्य
का अध्ययन नहीं करते, उसमें रूचि नहीं रखते और उसमें माँज
कर अपनी दृष्टि निर्मल नहीं रखते तो आप किसी युग के साहित्य को नहीं देख सकते। इसी
कारण वे समसामायिक रचना के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आलोचक के रूप में सामने आते हैं।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विश्व में उपभोक्तावादी संस्कृति को
तेजी से बढ़ावा मिला। भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के
चलते विश्व भर में आधुनिकता और विकास की हौड़ लगी जिससे ना सिर्फ पर्यावरण को
नुकसान हुआ बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी क्षति पहुँची। बहुराष्ट्रीय
कंपनियों के आने से समाज का मध्यम एवं निम्न वर्ग व्यापक स्तर पर प्रभावित
हुआ और तुलनात्मक रूप से उनकी स्थिति और अधिक बदतर होती गई। यही वह दौर रहा
जिसमें दमित, दलित वर्ग के मुक्ति के संघर्ष तेज हुए। समाज
में हर स्तर पर मुक्ति के लिए आंदोलन हुए। साहित्य में ये आंदोलन विमर्श के
रूप में सामने आए और दलित, आदिवासी, स्त्री
विमर्शों पर साहित्य लिखा जाने लगा। वर्तमान समय की आलोचनाओं के केंद्र में ये
विमर्श ही हैं। ये आलोचनाएँ मुख्य रूप से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं
जिससे उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगाए जाते रहे हैं। हाल के वर्षों में
आलोचना का अखबारीपन हिंदी आलोचना के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने
आया है।
[i] आलोचना-समय और
साहित्य, रमेश दवे, भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण, 2005, पृ.43
[ii] हिन्दी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल
प्रकाशन, चौथी आवृत्ति, 1999, पृ.20
[iii] हिन्दी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल
प्रकाशन, चौथी आवृत्ति, 1999, पृ.49
[iv] समकालीन हिन्दी आलोचक और आलोचना, डॉ. रामबक्ष, हरियाणा
साहित्य अकादमी चण्डीगढ, प्रथम संस्करण, 1991, पृ.19
[v] हिन्दी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, चौथी आवृत्ति, 1999, पृ.55
[vi] ‘‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’’ निबंध से
उद्धृत
[vii] हिन्दी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल
प्रकाशन, चौथी आवृत्ति, 1999, पृ.144
[viii] हिन्दी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल
प्रकाशन, चौथी आवृत्ति, 1999, पृ.177
[ix] हिन्दी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल
प्रकाशन, चौथी आवृत्ति, 1999, पृ.177
[x] हिन्दी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल
प्रकाशन, चौथी आवृत्ति, 1999, पृ.182
[xi] आलोचना-समय और साहित्य, रमेश दवे, भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण, 2005, पृ.81
विवेक भट्ट, शोधार्थी, हिंदी विभाग, मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर
The best.
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