अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
भारतीय नवजागरण के आईने में हिन्दी और अनुवाद / धीरज कुमार
शोध-सार -
भारत
में उपनिवेशवादी सरकार ने अपने शासन के स्थायित्व के लिए रेल, तार,
भूमि का बंदोबस्त आदि सुधार किए थे। इससे भारतीयों के एकरस जीवन में परिवर्तन हुआ।
कुछ भारतीय इसे अंग्रेजों की कृपा समझ कर अभिभूत हो गए थे। कुछ तो उन्हीं के
अनुरूप आचरण करके स्वयं को अन्य भारतीयों की तुलना में श्रेष्ठ समझने लगे। भारतीय
बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों का एक ऐसा भी वर्ग था जो भारतीय गौरवशाली अतीत के ‘जीवंत मूल्यों’ के महत्व के प्रति जागरूक था। यह वर्ग नवजागरण की
लहर से परिचित था और इस आयातित संस्कृति का विरोध करता था। इसमें कुछ बंगाली
भद्रसमाज के लोग जैसे राजा राममोहन राय,
बंकिम चंद्र तथा कुछ हिंदी भाषी जैसे भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके मण्डल के सदस्य
आदि सम्मिलित थे। इन्होंने समाज में अपने लेखन, अनुवाद और क्रियाकलापों के माध्यम से जागरूकता लाने
का प्रयास किया। इस संदर्भ में बांग्ला भाषा मे अंग्रेज़ी से और बांग्ला से हिन्दी
में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका पर इस लेख में प्रकाश डालने का प्रयास किया गया
है। साथ ही इस लेख में अनुवाद ने
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो भूमिका अदा की, उसका प्रभाव बदले हुए रूप में भारतीय समाज पर किस तरह
पड़ा, कि पड़ताल की गयी है।
बीज-शब्द - पुनर्जागरण, नवजागरण, बुद्धिवाद, आधुनिकता, शब्दकोश,
भाखा, कूपजल, विश्लेषण,
जीवंत
मूल्य।
मूल आलेख -
आजादी
प्राप्ति के समय भारतीय समाज में विविधता तथा समस्याओं के कई स्तर थे। इनमें से कई
समस्याएँ तो विविधता के कारण थी। आजादी के बाद लोगों ने कयास लगाने आरंभ किए थे
जिनमें एक यह भी था कि यह आजादी भारत में स्थायी नहीं रह पाएगी। निश्चित ही इस
विचार के पीछे उपर्युक्त विविधता थी। लेकिन आजादी के उपरांत भारतीय नेतृत्वकर्ताओं
ने लोकतंत्र की पद्धति को न केवल अक्षुण्ण बनाए रखा बल्कि आजादी के पूर्व की
इन्हीं विविधताओं को अपनी शक्ति बना लिया था। आजादी पूर्व भारत में स्वाधीनता की
चेतना का निर्माण और उसके प्रसार में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह भाषा ने
किया। इस चेतना के निर्माण के लिए पश्चिम के कई ग्रन्थों के भारतीय भाषाओं में तथा
भारतीय भाषाओं के आपस में हुए अनुवादों ने भी योगदान दिया। चाहे वह फ्रांस की
क्रांति और रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धान्त (Social Contract) हो या पूंजीवाद और मार्क्स का सिद्धान्त भारतीयों से
इनकी निकटता बढ़ाने में अनुवाद की भूमिका से शायद ही कोई इंकार कर सकता है।
पुनर्जागरण
पाश्चात्य समाज से भारत में आया था। भारतीय नवजागरण यूरोपीय पुनर्जागरण का देशी
प्रतिरूप था। दोनों मे कुछ तात्विक भिन्नताएँ थी। नवजागरण का तात्पर्य होता है “राजनीतिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक व वैचारिक जागरण से
अथवा मध्यकालीनता बोध से भिन्न आधुनिक और
वैज्ञानिक विचारों से युक्त नई चेतना।”1 प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा
ने 1977 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘महावीरप्रसाद
द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ के
माध्यम से हिन्दी नवजागरण की ओर ध्यान खींचा। इससे पहले सोलहवीं सदी का यूरोप इसी
तरह के विचारों में गोते लगा चुका था। पश्चिम में पुनर्जागरण ने सामाजिक, भाषिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक क्रान्ति की थी। “भारतीय नवजागरण सर्वप्रथम बंगाल में आया फिर ब्रिटिश
शासन-व्यवस्था से संपर्क और टकराहट की प्रक्रिया में पूरे देश में फैला।”2
निःसंदेह इसका वाहक बनी बांग्ला भाषा। इसका प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य
पर पड़ा और भाषाएँ इसका माध्यम बनी।
नवजागरण
के संदर्भ में एक प्रसिद्ध कथन है कि यह “दो जातीय संस्कृतियों की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक
ऊर्जा है।”3 इस टकराहट का आरंभ उस समय से
आरंभ होता है अब ब्रिटिश साम्राज्ञी ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत से व्यापार करने
की अनुमति प्रदान की। हालांकि कुछ यूरोपीय इससे पहले भी यहाँ आ चुके थे लेकिन उनका
उद्देश्य मात्र व्यापार था जो कि आरंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी का भी था। ब्रिटिश
सम्राट जेम्स प्रथम के दूत के रूप में जब पहले हाकिन्स और बाद में टामस रो भारत आए
तब यहाँ फारसी और उर्दू का व्यवहार होता था। इससे स्पष्ट है कि दो भिन्न भाषिक
संस्कृति वाले मनुष्यों में विचारों और वस्तुओं का आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम
से ही हुआ होगा। कालांतर में हुआ नवजागरण अनुवाद के माध्यम से ही ‘रचनात्मक ऊर्जा’ उत्पन्न कर सका। इस संदर्भ में अनुवाद एक उद्धरण
दृष्टव्य है “यह बात
सिर्फ अंग्रेज़ी नवजागरण के लिए ही नहीं नवजागरण मात्र के लिए कही जा सकती है।
भारतीय नवजागरण में अंग्रेजी और संस्कृत से हुए अनुवादों की वही भूमिका थी जो
यूरोपीय पुनर्जागरण के संबंध में ग्रीक और लैटिन के अनुवादों की थी।”4
पुनर्जागरण
का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो इसको एक चरणबद्ध प्रक्रिया माना जा सकता है। “हिंदी
साहित्य में भारतेंदु युग को जनजागरण का पहला दौर माना जाता है।”5
जनजागरण की शुरुआत तब होती है जब भारत में बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने
लगा। सामंती प्रथा का अंत, अवकाशभोगी
वर्ग का उदय, नए
महाद्वीपों की खोज, भूकेन्द्रक
ज्योतिष से सूर्यकेन्द्रक ज्योतिष की ओर जाना तथा दासप्रथा का अंत आदि विशेषतायें
पुनर्जागरण के अंतर्गत शामिल की जाती है। इस समय की रचनाओं के पीछे वैचारिक आग्रह
थे। यद्यपि रीतिकाल के अंतिम भाग में मौलिक कविता कम हुई थी, भाषा श्रंगारिक थी, लोगों को श्रृंगार रस की कविताएँ कंठस्थ हो चली थी, इसके बावजूद विश्ववैविध्य कम था। या कह सकते है कि
नहीं के बराबर था। अलंकारों और नायिका भेद के उदाहरण होते थे। ज्यादातर लेखक एक
बंधी हुई लीक पर चलते थे। जब पुनर्जागरण साहित्य में आया तो लेखकों ने किसी बंधन
या रीति को न मानते हुए, समाज को
जगाने का कार्य किया।
फ़्रांसीसियों
से प्रतिस्पर्धा तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के कारण कंपनी पर जब उसके अंश
धारको ने दवाब बढ़ाया तो अंग्रेजी राज की नीतियां अमानवीयता के चरम को स्पर्श करने
लगी। रुपए का अवमूल्यन,
भ्रष्टाचार, व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप आदि
से लोगों का ध्यान जीवन की कठोर वास्तविकताओं की ओर गया। जीवन संग्राम बढ़ा साथ ही
जातीय जीवन जागृत हुआ। अंग्रेजी शासन के घात प्रतिघात से लोगों को अपनी सभ्यता की
याद आई तथा उसको भी महत्व मिलना शुरू हो गया। यह याद दिलाने में राजा राममोहन राय
ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। “जिनको ‘राजा’ की उपाधि उत्तर मुग़ल शासक अकबर द्वितीय ने दी थी।”6
जनता ने अपने राजनीतिक अधिकारों को समझा और राष्ट्रीय भावों को प्रकट करना चाहा, जिसका माध्यम हिंदी भाषा बनी।
मुसलमानों
ने अपने धर्म का प्रचार बुद्धिवाद के आधार पर न करके तलवार के ज़ोर पर करना पसंद
किया जबकि अंग्रेज़ों ने बुद्धिवाद की रणनीति अपनाई। अंग्रेज़ों ने उपनिवेशवाद की
नीति के तहत न केवल बाहरी बल्कि आंतरिक रूप से भी राज़ करने का प्रयास किया। इस
आंतरिक रूप से राज़ करने के लिए अंग्रेज़ों ने अंग्रेजी भाषा को माध्यम बनाया। इसी
दौर में राजा राममोहन राय ने ब्रह्म-समाज
की और महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना की। अंग्रेजी राज़ ने अपने धर्म
प्रचार के लिए कई उपकरण ईज़ाद किये। इनमें अंग्रेजी धार्मिक पुस्तकों विशेषकर
बाइबिल का अनुवाद था। मैकाले ने भी अंग्रेजी शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया। लेकिन
अंग्रेजी जनमानस की भाषा नहीं थी और अपनी बात जनता तक पहुचाने के लिए जनता की भाषा
को उपयोग में लाना आवश्यक था। क्योंकि जब तक अंग्रेज़ों की बात जनता तक पहुंचेगी ही
नहीं तब तक जनता द्वारा बात मानने का सवाल ही नहीं है। इसलिए विलियम कैरे आदि
अंग्रेजों ने बाइबिल समेत कई पाश्चात्य ग्रन्थों का हिंदी अनुवाद किया और उनको
निःशुल्क वितरित किया।
धर्म
से हटकर अगर हम प्रशासन की बात करें तो शासन करने के लिए अफसरों को जनता की भाषा
से परिचित होना आवश्यक था। इसलिए शासन के सहयोग से उन्होंने फोर्टविलियम कॉलेज की
स्थापना की गयी। जिसमें उर्दू के अतिरिक्त हिंदी भाषा के अध्ययन-अध्यापन का प्रबंध किया। इसमें संस्कृत, अरबी, फ़ारसी के साथ हिंदी, बांग्ला, तमिल, मराठी और तेलुगु भाषाएँ भी पढ़ाई जाती थी। खड़ी बोली भी
इसी कॉलेज की देन है। 'एशियाटिक
सोसाइटी' ने भी हिंदी भाषा के उद्धार में
बहुत बड़ी भूमिका निभाई। विलियम जोंस ने रोमन वर्णमाला तैयार की जिसका प्रयोग हिंदी
में होने लगा। श्रीरामपुर की डेनिश मिशनरी ने अपने बाइबिल के हिंदी अनुवाद में
लिखा है कि ‘हिंदी
मूलतः संस्कृत से ही उपजी है तथा मुसलमानों के शासन काल से पहले पूरे भारत में
बोली जाती थी।’
भारतेंदु
हरिश्चंद्र ने रीतिकाल की विकृत सामंती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर
स्वस्थ परंपरा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बो दिए। इनके इस कृत्य में
शेक्सपियर के मर्चेंट ऑफ वेनिस के हिंदी अनुवाद ‘दुर्लभ बंधु’ के सहयोग से इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए भी
हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेंदु से माना जाता है। इन्होंने न
केवल साहित्य और अनुवादों का सृजन किया बल्कि अपने मण्डल के माध्यम से समकालीन
साहित्यकारों को प्रेरित भी किया। इनके पश्चात महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कमान
संभाली और बीस से अधिक पुस्तकों के अनुवाद किए। इनमें बड़ी संख्या संस्कृत और भाषा
की कृतियों की थी। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध बेकन विचार ग्रंथावली, हर्बर्ट स्पेन्सर की रचना एजुकेशन का ‘शिक्षा’ और जे॰ एस॰ मिल॰ के ग्रंथ लिबर्टी का अनुवाद है। उन्नीसवीं
सदी के अंतिम दशकों में मूलतः जर्मन भाषा में लिखित और बाद में अंग्रेजी में
अनूदित अर्न्स्ट हैकल की विश्वविख्यात रचना द रिडल्स ऑफ यूनिवर्स का आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी में ‘विश्वप्रपंच’ नाम से अनुवाद किया। हैकल की यह रचना विज्ञान से
दर्शन का तार्किक संबंध स्थापित करती है। इसका जलवा प्रगतिशील समाज में इस कदर
विद्यमान था कि तत्कालीन यूरोप की लगभग सभी भाषाओं में इसके अनुवाद हुए। प्रो॰
देवशंकर नवीन ने लिखा है कि ‘प्राणि
विज्ञान की इस कृति का अनुवाद आचार्य शुक्ल ने उस समय किया, जब हिंदी में कोई वैज्ञानिक शब्दकोश नहीं था। आचार्य
शुक्ल ने स्वयं उसके लिए शब्द गढ़े।’7 और यह पुस्तक भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में ख्याति
प्राप्त भारतेंदु जी ने देश की ग़रीबी, पराधीनता, शासकों
के अमानवीय शोषण के चित्रण को अपना लक्ष्य बनाया।
बीसवीं
सदी में हिंदी और भी ज्यादा विकसित हुई। साथ ही विभिन्न विषयों पर ग्रन्थ प्रकाशित
किये जाने लगे। इसमें सभा की 'मनोरंजन
पुस्तकमाला' और श्री नाथूराम प्रेमी की 'हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर’ सीरीज़ प्रमुख है। स्त्री-शिक्षा का प्रचार बढ़ने से भी हिंदी के पढने लिखने
वालों की संख्या बढ़ी। इसके बाद द्विवेदी युग के आरम्भ से हिंदी की पर्याप्त
श्रीवृद्धि हुई। आलंकारिक भाषा को छोड़ कर भारतेंदु जी के समय लोग हिंदी के विचारों
के प्रसार के उद्देश्य से इतना नहीं लिखते थे जितना कि अपने ह्रदय की उमंग के लिए।
हरिश्चंद्र के समय जो बंगाली साहित्य का अनुकरण हो रहा था, वह किसी न किसी अंश में रहा और हिंदी को
संस्कृतगर्भित बनाने में बहुत हद तक योगदान भी दिया। पारिभाषिक शब्दावली के
निर्माण के लिए भी कई प्रयत्न इस काल में हुए। नवजागरण काल की भाषा में
संक्षिप्तता तथा सारगर्भिता थी। भाषा के माध्यम से राष्ट्रीय स्वाधीनता का
उद्देश्य पूरा किया जाने लगा। खड़ी बोली अमीर खुसरो जैसे लोगों के द्वारा अपनायी
गयी थी जो मुग़ल साम्राज्य के विघटन के कारण पूर्ण रूप में प्रचलित हो गयी थी।
साहित्य में अभी भी ब्रज भाषा का वर्चस्व था।
भाषा
एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसका समाज पर सकारात्मक व नकारात्मक दोनों असर पड़ सकता
है। भाषा के ही कारण समाज में भारी युद्ध हुए तथा लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाई
और यह भाषा का ही प्रताप है कि दो दुश्मन देशों में शान्ति स्थापित हुई। पाश्चात्य
समाज में पोप के एकाधिकारों को चुनौती मिली क्योंकि वहाँ के बुद्धिजीवी
परस्थितियों को बदलना चाहते थे। जिसकी प्रेरणा उनको प्राचीन ग्रीक साहित्य के
अनुवादों से मिली थी। इस कारण से यूरोप के समाज में खूनी दौर का भी एक चरण आया। इस
संदर्भ में एक उदाहरण हम सोलहवीं सदी के फ्रांस से ले सकते है। वहाँ तत्कालीन समय
में एक अनुवादक हुए थे जिनका नाम एतीन दोले था। “इन महोदय ने प्लेटो का अनुवाद
किया जिससे तत्कालीन फ्रेंच सरकार रूष्ट हो गयी। फलतः उनको और उनकी रचनाओं को लाश
के साथ जला देने का हुक्म दिया गया।”8 भारत में भी आधुनिक काल की भौतिक
परिस्थितियों में बदलाव आया तथा नवजागरण और आगे बढ़ा। आधुनिक काल में साहित्य का
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी होने लगा। नवजागरण के कारण साहित्य अब समष्टि केंद्रित न
रहकर व्यक्ति केंद्रित हो गया था। हिंदी में अंग्रेजी के प्रभाव का सबसे बड़ा कारण
पाश्चात्य शिक्षा थी। पंडित नेहरू ने भी अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज’ में अंग्रेजी के महत्व पर पर ज़ोर दिया है। साहित्य
में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी पश्चिम की साइकोएनालिसिस थ्योरी का परिणाम था।
नवजागरण की भाषा आदर्शवादी न होकर यथार्थवादी थी।
यह
यथार्थवादिता अज्ञेय, जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी के उपन्यासों में स्पष्ट दिखाई देती
है। इनकी भाषा आलंकारिक न होकर स्पष्ट एवं सपाट है जिसने फिर भी अपनी सौम्यता नहीं
खोयी है। नवजागरण की भाषा अब उपदेश मात्र न रहकर, जीवन दर्शन कराने लगती है। चाहे प्रगतिवाद, छायावाद, अभिव्यंजनावाद, रहस्यवाद
हो सभी नवजागरण में उत्पन्न हुई धाराएँ हैं। लेकिन इस बात को भी अनदेखा नहीं किया
जा सकता कि हर बदलती धारा के साथ हिंदी का भी स्वरुप बदला। आधुनिक काल में विविध
प्रकार के विषयों पर कई लेखकों ने लिखा है फिर चाहे वह इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र
या विज्ञान हो। ये सभी अनुवादकों द्वारा अनूदित होकर जन-जन तक पहुंचे। भाषा में अनेकरूपता आना गलत नहीं होता
है। यह भाषा के विकास का परिचायक है, क्योंकि जितनी भाषा आगे बढ़ेगी उतने ही भाषा में नए रूप शामिल
होंगे। कबीर ने शायद इसी कारण 'संस्कृत' भाषा को कूप जल तथा 'भाखा' को बहता नीर कहा है। भारत में कई संस्कृतियों और जातियों का मिलन
होता है इसलिए निश्चित ही यहाँ बहुभाषिकता का होना सामान्य सी बात है।
अंग्रेजी
राज के काल में ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुस्तानी भाषाओं के साथ-साथ उर्दू को भी मान्यता दी। प्रशासनिक कार्यों में
अभी भी उर्दू मान्य थी। उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में कोलकाता के “आचार्य केशवचन्द्र सेन ने स्वामी दयानंद को संस्कृत
छोड़कर हिंदी को अपनाने की सलाह दी।”9 तब तक अंग्रेज़ों के खिलाफ
राष्ट्रीय आंदोलन काफी सक्रिय हो चुका था। बाद में स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, श्रद्धानन्द, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रानाडे, तिलक, रवीन्द्रनाथ
टैगोर, अरविंद घोष व सुभाष चन्द्र बोस जैसे
विद्वानों व राजनीतिज्ञों ने, जिनकी
अपनी मातृभाषा हिंदी नहीं थी, इस
निर्णय को सम्मान के साथ स्वीकार किया। जिस तरह से अंग्रेजी शासन तथा आधुनिकता का
सम्बन्ध है लगभग उसी तरह अनुवाद और नवजागरण का। अंग्रेजी शासन से भारतीय समाज में
आधुनिकता की लहर आई। हालांकि उद्देश्य भारतीयों को आधुनिक नहीं बल्कि अनुयायी
बनाना था। लेकिन इसी से इस शासन की पोल खुल गई और “श्वेत मनुष्यों के उत्तरदायित्व’ (White man’s burden)”10 की ‘सच्चाई’ आम हो गई। फलतः इनका नैतिक आधार ही डगमगा गया और सन
1947 में ताबूत में अंतिम कील ठोंक दी गई। वहीं दूसरी ओर विदेशी भाषा की कृतियो के
भारतीय भाषाओं में अनुवादों ने नवजागरण की गति को तीव्र करने में केंद्रीय भूमिका
का निर्वहन किया बदले में नवजागरण से भारतीय भाषाओं में अनुवाद को और बढ़ा दिया।
इनमें विदेशी भाषाओं के बांग्ला, हिंदी और
मराठी अनुवादों और अनुवादकों की चर्चा की जा सकती है।
भारत
में अंग्रेजी शासन ने आधुनिकता लाने के लिए पुरानी आर्थिक संरचना को बदला, ज़मीन का नया बंदोबस्त किया। ज़मीन पर व्यक्तिगत अधिकार
मिलने के कारण व्यावसायिक खेती होने लगी। प्रेस व समाचार पत्रों और पाश्चात्य
विचारधाराओं (जैसे- व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आदि) के कारण विचार स्वातंत्र्य की नींव
पड़ी। इसके कारण बुद्धिजीवियों ने अंग्रेज़ो के अत्याचारों का विरोध करना प्रारम्भ
कर दिया। अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं के अंग्रेजी अनुवाद करके यहाँ शासन करने की
चाबी तलाश करनी चाही तो भारतीयों ने अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं से अनुवाद करके इस
शासन की उखाड़ने में सहयोग लिया। ‘फोर्ट
विलियम कॉलेज’ और ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल’ की स्थापना इसी मानसिकता की उपज थी। किसी भी समाज और
संस्कृति को ग़ुलाम बनाने के लिए, उसकी
सभ्यता पर राज़ करने के लिए, उन लोगों
को जानना तथा उनकी संस्कृति में रचना बसना आवश्यक है। चूंकि भाषा संस्कृति की वाहक
भी होती है इसलिए भाषा और उसमें रचित साहित्य की समझ आवश्यक है। किसी भी संस्कृति
को नष्ट करने के लिए उसकी भाषा को मिटाना आवश्यक है। इस संदर्भ में लॉर्ड मैकाले
के कथन को उदधृत करना अप्रासंगिक ना होगा। 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश पार्लियामेंट
में लॉर्ड मैकाले ने वक्तव्य दिया कि “मैंने पूरे भारत का भ्रमण किया, लेकिन कहीं भी ऐसा आदमी नहीं मिला, जो भिखारी या चोर हो। मैंने पाया कि यहाँ के लोग
उच्च नैतिक मूल्यों एवं अत्यधिक क्षमता के धनी हैं, जिससे मुझे नहीं लगता कि हम कभी इस देश को जीत
पाएंगे। जब तक इसके मेरुदंड माने जाने वाली आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को न
तोड़ा जाए, तब तक हम इस देश पर अपना शासन जमा
नहीं पाएंगे। अतः मेरा प्रस्ताव है कि इसकी प्राचीन परंपरागत शिक्षा प्रणाली और
संस्कृति को बदला जाए, क्योंकि
जब भारत के लोग यह अनुभव करेंगे कि यह शिक्षा प्रणाली और संस्कृति आयातित है, हमारी भाषा और संस्कृति की तुलना में अंग्रेजी अच्छी
एवं महान है, तब वे
अपना स्वाभिमान खो बैठेंगे और स्थानीय संस्कृति से विमुख हो जाएंगे। अंततः वे वैसे
बन जाएंगे, जैसा हम चाहते हैं।”11
ऊपर
किए गए विश्लेषण से समझा जा सकता है कि हिंदी भाषा और अनुवादों ने राष्ट्रीय चेतना
के विकास में किस तरह से अपनी भूमिका का निर्वाह किया। स्वराज के संघर्ष में
राजनीतिज्ञ, समाजसेवी, बुद्धिजीवी या क्रांतिकारी सब ने, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी, हिंदी के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना लोगों में
पहुचाई। 'देश की बात' में सखाराम गणेश देउस्कर लिखते है कि ''पाश्चात्य सहवास से हमारे शरीर में जो विष घुल गया है, जिस जातीय अधःपतन के बीज चारों ओर बोये जा चुके हैं
उनकी अनिष्टकारिता दूर करने का एकमात्र उपाय है स्वदेश प्रेम। और यह स्वदेश प्रेम
बिना भाषा प्रेम के नहीं आ सकता।'' निश्चित
रूप से हिंदी भाषा का नवजागरण युग में, राष्ट्रीय संघर्ष के लिए योगदान प्रशंसनीय है। हिंदी भाषा ने
राष्ट्रीय संघर्ष के दौरान भारतीयों में नवचेतना का संचार किया और साथ ही साथ उनके
मन में अपनी सभ्यता और संस्कृति के लिए सम्मान बढ़ाया जिसके लिए भारतीय समाज हिंदी
भाषा का सदा ऋणी रहेगा।
सन्दर्भ
1.
व्याख्यान
‘नवजागरण का अर्थ’, प्रो॰ चन्द्रदेव यादव, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली https://www.youtube.com/watch?v=H6TJW5cIlmU
2.
http://www.uprtou.ac.in/other_pdf/MAHI-06%20304Hindi-OK.pdf
pg.1
3.
कृष्ण
दत्त पालीवाल,
मैथिलीशरण गुप्त प्रासंगिकता के अंतःसूत्र, 2004,
वाणी प्रकाशन, पृ.112
4.
रामस्वरूप
चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य व संवेदना का विकास, 1986,
लोकभारती प्रकाशन, पृ. 94
5.
रमन
सिन्हा, अनुवाद और रचना का उत्तर जीवन, 2002,
वाणी प्रकाशन, पृ. 37
6.
एस॰ के॰
पाण्डे॰ आधुनिक भारत, 2007, प्रयाग एकेडमी, इलाहाबाद,
पृ. 188
7.
देवशंकर
नवीन, अनुवाद(पत्रिका), अक्तूबर-दिसंबर 2019, अंक-181,
पृ. 14
8.
एन॰ ई॰
विश्वनाथ अय्यर, अनुवाद
कला, 2001, प्रभात प्रकाशन पृ॰146
9.
https://theomtemple.org/book/satyarth-prakash-hindi/ (front page)
10.
Hitchens, Christopher. Blood, Class, and Empire:
The Enduring Anglo–American Relationship (2004) pg. 63–64
11. देवशंकर नवीन, अनुवाद (पत्रिका), अक्तूबर-दिसंबर 2019, अंक-181, पृ.-14
धीरज कुमार
1328, टॉप फ्लोर, मुखर्जी नगर, नई दिल्ली
8447982010 dheerajyadavjnu@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें