'बालकों के विकास में बाल साहित्य का योगदान' / डॉ. कुमारी उर्वशी
बच्चे राष्ट्र के भविष्य हैं और बाल साहित्य
राष्ट्र की बहुमूल्य संपत्ति है। यह एक उच्च कोटि का सृजन कार्य है जिसके लिए असाधारण
प्रतिभा की आवश्यकता होती है। हार्वे डार्टन ने अपनी किताब 'चिल्ड्रेस 'बुक्स इन इंगलैंड'
में बच्चों की पुस्तकों के सम्बन्ध में कहा है कि बाल साहित्य से मेरा
अभिप्राय उन प्रकाशनों से है जिनका उद्देश्य बच्चों को सहजता से आनन्द देना है न कि
उन्हें शिक्षा देना अथवा सुधारना और न ही शांत बनाए रखना। लिलियन स्मिथ ए. एल. ए. ने
भी अपनी पुस्तक अनरिलक्टेंट ईयर्स में कहा है कि बाल साहित्य व्यापक साहित्य से असंबद्ध
रिक्त आकाश में विद्यमान नहीं है। वह सामान्य साहित्य का ही एक अंग है। और हिन्दी की
सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने भी कहा है कि मैं समझती हूँ कि उत्कृष्ट साहित्य
की जो परिभाषा है, बाल साहित्य की परिभाषा उससे भिन्न नहीं होती
क्योंकि मनुष्य की पूरी पीढ़ी बनाने का कार्य वह करती है। यह बालकों की रूचि और समझ
के अनुकूल लिखा जाता रहा है, जिससे बालकों का उत्साह तथा जिज्ञासा
बनी रहे। तभी वह बालकों के मन और बुद्धि के विकास में भी सहायक होगा।
बालक अपने आसपास उपस्थित प्रत्येक वस्तु
और घटना के विषय में जानने के लिए उत्सुक होते हैं। उनकी जिज्ञासा को तथा मानसिक शक्ति
को सही दिशा देने के लिए भारतीय प्राचीन साहित्य में भी विधान था। पंचतंत्र हितोपदेश, कथा-सरित्सागर और सिंहासन
बतीसी जैसी रचनाओं के लेखक के मन में निश्चित रूप से बालकों के व्यक्तित्व के विकास
की रूपरेखा बनी होगी। प्रसिद्ध कवि तथा कथाकार गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं
- ठीक से देखने पर बच्चे जैसा पुराना और कुछ नहीं है। देश,
काल, शिक्षा, प्रथा के अनुसार
वयस्क मनुष्यों में कितने नए परिवर्तन हुए हैं, लेकिन बच्चा हजारों
साल पहले जैसा था आज भी वैसा ही है। यही अपरिवर्तनीय, पुरातन,
बारम्बार आदमी के घर में बच्चे का रूप धरकर जन्म लेता है, लेकिन तो भी सबसे पहले दिन वह जैसा नया था, सुकुमार,
भोला, मीठा था, आज भी वैसा
ही है। इसकी वजह है कि शिशु प्रकृति की सृष्टि है, जबकि वयस्क
आदमी बहुत अंशों में आदमी के अपने हाथों की रचना होता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की मान्यता
है कि बालकों के कोमल, निर्मल और साफ मस्तिष्क को वैसे ही सहज
तथा स्वाभाविक बाल साहित्य की आवश्यकता होती है।
बीज शब्द - परिमार्जित, संस्कार पौराणिक, शिक्षण प्रणाली,
मनोवैज्ञानिक, संवेदनशील, मानवीय मूल्य।
मूल आलेख -
बाल साहित्य सामान्य साहित्य से पूरी तरह
भिन्न होता है। यह एक स्वतंत्र विषय है जिसके अंतर्गत बाल कथा, कविता, नाटक, एकाकी, जीवनी आदि प्रमुख विधाएँ आती हैं। इसके सृजन में साहित्यकार,
बाल मनोविज्ञान का ध्यान रखते हैं क्योंकि बाल साहित्य का सृजन बच्चों
के लिए ही किया जाता है। इसमें शाश्वत मूल्यों के साथ-साथ मनोरंजन का समावेश आवश्यक
है। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम तथा जवाहर 'इन्दु' ने कहा है - "बाल मनोविज्ञान का अध्ययन किए बिना
कोई भी रचनाकार स्वस्थ एवं सार्थक बाल साहित्य का सृजन नहीं कर सकता है। यह बिल्कुल
निर्विवाद सत्य है कि बच्चों के लिए लिखना सबके वश की बात नहीं है। बच्चों का साहित्य
लिखने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चा बन जाना पड़ता है। यह स्थिति तो बिल्कुल परकाया
प्रवेश वाली है।”1 बाल साहित्य
के प्रसिद्ध कवि सोहनलाल द्विवेदी ने बाल साहित्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है
"सफल बाल साहित्य वही है जिसे बच्चे सरलता से अपना सकें और भाव
ऐसे हों, जो बच्चों के मन को भाएँ। यों तो अनेक साहित्यकार बालकों
के लिए लिखते रहते हैं, किन्तु सचमुच जो बालकों के मन की बात,
बालकों की भाषा में लिख दें, वही सफल बाल साहित्य
लेखक हैं।”2
हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य के स्वरूप
पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं "आज के जीवन में बच्चों का जो स्वरूप है, वह किसी राजनीतिक
या पिछड़ी हुई सामाजिक विचारधारा से प्रभावित है। बच्चों को जिस मनोवैज्ञानिक साहित्य
और व्यवहार की आवश्यकता होती है, उसे बिल्कुल ही अलग कर दिया
गया है। तद्युगीन समाज और वातावरण के अनुकूल बच्चों को बनाना आवश्यक तो है,
किन्तु उनकी मूल प्रवृत्तियों को विकसित न होने देना, उनके प्रति अन्याय है। यदि इस परिप्रेक्ष्य में हम भारतीय बाल साहित्य को देखें
तो उसमें अधिकांश ऐसा है जो बच्चों को सदियों पीछे ले जाना चाहता है। वहीं जादू भरी
घाटियाँ, परी कथाएँ, पुराणों की कहानियाँ,
घुमाफिराकर परम्परागत रूप में सुनाते रहते हैं। ऐसे बहुत कम लोग हैं
जो बच्चों की वास्तविक आवश्यकता को ध्यान में रखकर पुस्तकें लिखते हैं।”3 डॉ. हरिकृष्ण देवसरे बालकों के साहित्य में अंधविश्वास,
चमत्कार जैसी चीजों के खिलाफ थे क्योंकि उन्हें लगता था कि बालकों पर
इनका दुष्प्रभाव हो सकता है।
बच्चों का साहित्य चूँकि बड़े ही लिखते
हैं इसलिए उनका बालकों की भावना, कल्पना
का पूर्णतः ख्याल रखना अत्यावश्यक हो जाता है। बालकों की दुनिया बड़ों की दुनिया से
सर्वथा अलग होती है तो उनका साहित्य भी अलग ही होगा। उनकी सरलता, जिज्ञासा, कौतूहल को स्वाभाविक रूप में स्वीकार कर ही
बाल साहित्य रचा जा सकता है। तथा समकालीन बाल साहित्य का स्वरूप समकालीन जीवन की दशाओं
और आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। आज जब बालक कदम – कदम पर
यथार्थ का सामना कर रहे हैं तो बाल साहित्य की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वह समकालीन
पारिवारिक और सामाजिक घटनाओं के यथार्थ को इस तरह दर्शाये कि बच्चों में जीवन मूल्यों
का यथोचित विकास हो। शंकर सुल्तानपुरी लिखते हैं "आज जब
मानव मूल्यों का विघटन हो रहा है, नैतिक मूल्य गिर रहे हैं। स्वार्थ,
भ्रष्टाचार, अनैतिकता का बोलबाला है और भारतीय
संस्कृति की गरिमा धूमिल हो रही है, ऐसे समय में बाल साहित्यकारों
की भूमिका बड़ी अहम है। उन्हें ऐसे बाल साहित्य सृजन की ओर उन्मुख होना है जो क्षणिक
मन बहलाव का न होकर स्थायी रूप से बच्चों के चरित्र विकास में, उनका मनोबल ऊँचा करने में प्रेरक सिद्ध हो।”(4) वर्तमान
सामाजिक जीवन के बदलते परिप्रेक्ष्य में बाल साहित्य के स्वरूप में बदलाव की जरूरत
महसूस की जा रही है। विश्व के बाल साहित्य की अमर पुस्तकों पर यदि हम विचार करें तो
हमें पता चलेगा कि इनकी अमरता का कारण यह है कि इनकी रचना सृजनेच्छा अथवा आत्माभिव्यक्ति
से प्रेरित होकर की गई थी। मार्क ट्वेन तथा आर.. एल. स्टीवेंसन
के उपन्यास बालकों में बहुत प्रिय हैं और इन उपन्यासों में लेखकों के बचपन की आकांक्षा
और कल्पना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। आत्माभिव्यक्ति की इच्छा से प्रेरित होकर बाल
साहित्य की रचना सरल काम नहीं है। महादेवी वर्मा कहती है कि बाल साहित्य का सृजन यदि
सहज होता तो सभी उसे कर सकते थे। फिर भी प्रत्येक देश में बाल साहित्य लिखा गया है
किंतु उन्हीं व्यक्तियों ने लिखा है जो अंत तक बालकों का सा हृदय रखते थे। एलिजाबेथ
नेस्बित भी कहती है कि यह वांछनीय है कि बालकों के गद्य लेखक अपने वयस्क हृदय में बचपन
की स्मृतियों तथा छापों को संजोए रहें और बच्चों के लिए कविता लिखने वालों में तो ये
गुण अनिवार्य रूप से विद्यमान होने चाहिए।
बाल साहित्य के आकाश में चमकते सितारे के
समान जयप्रकाश भारती जी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि एक आदर्श बाल साहित्यकार का
सबसे बड़ा गुण यह है कि वह स्वयं बालक बना रहे, अगर बालक जैसी सरलता उसमें होगी तभी वह बच्चे के लिए लिख सकेगा। सबसे बड़ी
बात है बच्चा बनने और बालमन को पूरी तरह समझने की चेष्टा। वैसे बात यह भी है कि सारा
जीवन लगा दें, तब भी बालमन को पूरी तरह समझना असंभव सा है क्योंकि
समाज के छल-कपट से प्रभावित होते हम बड़े, बचपन से छूटते जाते हैं। रवीन्द्र नाथ टैगोर के शब्दों में हम सत्य को भी असंभव
कहकर छोड़ देते हैं और बच्चे असंभव को भी सत्य कह कर ग्रहण कर लेते हैं।
हिन्दी बाल साहित्य के स्वरूप के विषय में
विभिन्न विद्वानों के विचारों से यह निष्कर्ष सामने आता है कि बाल साहित्य बच्चों को
स्वस्थ मनोरंजन देने के साथ-साथ उन्हें
वर्तमान परिवेश और परिस्थितियों के प्रति भी जागरूकता प्रदान करे। भूमण्डलीकरण के इस
21वीं सदी के दौर में वैज्ञानिक और यांत्रिक आविष्कारों, चिंतन-मनन, रहन-सहन, काम-काज की बदलती शैली से
बाल-मन भी प्रभावित है अतः बाल साहित्य भी परिष्कृत रूचि का होना
आवश्यक है। बच्चों की प्रवृत्तियों, आकांक्षाएँ, जिज्ञासा, कौतूहल
आदि सभी चीजें उनके मन से सम्बन्ध रखती हैं। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने लिखा है
"आज बाल साहित्य में जिस सैद्धान्तिक आधार भूमि की बात कही जा रही
है वह उसी बाल मनोविज्ञान पर अवलम्बित है जो बालक के विकास तथा बदलते हुए परिवेश में
सामन्जस्य स्थापित करने में उसके लिए सहायक होता है। बाल साहित्य के शास्त्रीय विधान
न केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, बल्कि साहित्य रचना की दृष्टि
से भी बड़ों के साहित्य शास्त्रीय विधानों से बिल्कुल अलग हो जाते हैं। बाल अनुभूति
की सरल और गेय शब्दों में छन्दबद्ध अभिव्यक्ति ही बाल गीत है। कहानियाँ सुनकर बच्चे
कुछ सीखते हैं, नए-नए सपने देखते हैं। उनके सामने सारा संसार
होता है, उनके मानसिक क्षितिज का विस्तार होता है और उनकी रूचि
गहरी होती है।”5 डॉ. सुरेन्द्र
विक्रम भी इसके सम्बन्ध में लिखते हैं - "सच तो यह है कि
बाल साहित्य का उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का निर्माण करना तथा उसके विकास के लिए
समुचित दिशा प्रदान करना होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से बाल साहित्य के लेखन एवं चुनाव
के लिए आवश्यक हो जाता हैं कि लेखक तथा अध्यापक बालक के व्यक्तित्व के विकास की विविध
अवस्थाओं में मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को पहचानें। बाल साहित्य बच्चों की दृष्टि के
अनुकूल उनका मनोविज्ञान समझकर उन्हीं के स्तर पर उतरकर, उन्हीं
की भाषा में उनके समझने योग्य अभिव्यक्ति के द्वारा लिखा जाना चाहिए।”6 बाल मनोविज्ञान को समझे बिना बाल साहित्य लिखना,
अंधेरे में तीर छोड़ने जैसा है। बच्चों का मन कोमल और लचीला होता है।
उन पर डाला गया प्रभाव अमिट और स्थायी होता है। इसलिए बाल मनोवृत्तियों का विज्ञान,
बाल मनोविज्ञान, बाल साहित्यकारों के बड़े काम की चीज है।
मनोरंजन तो किसी भी साहित्य की प्रमुख विशेषता
होती है। हिन्दी के बाल साहित्यकारों ने भी बाल मनोरंजन को केन्द्र में रखकर साहित्य
रचा है। कविता, गीत, नाटक, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि सभी
विधाओं में बाल मनोरंजन की प्रवृत्ति का पोषण हुआ है। इसके साथ-साथ ज्ञानवर्धन को भी खेल-खेल में शामिल कर लिया जाता
है। प्रकृति और पर्यावरण के साथ छोटे-छोटे वैज्ञानिक आविष्कारों
के बारे में भी बच्चों को सिखाने के लिए कविता, कहानी,
उपन्यास आदि विधाओं में बाल साहित्य लिखा गया है।
बाल साहित्य की भाषा के विषय में राजेन्द्र
कुमार शर्मा ने लिखा है "भाषा, भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। काव्य सृजन की प्रभावात्मकता
पर भाषा का सीधा प्रभाव पड़ता है। शिशुगीतों और बाल कविताओं में तो भाषा का विशेष महत्व
होता है। बाल कवियों के लिए बाल मनोविज्ञान के अनुरूप काव्य भाषा में सृजन करना,
वास्तव में एक गम्भीर चुनौती है। सामान्य साहित्य की रचना तो कोई भी
व्यक्ति कर सकता है, किन्तु बाल साहित्य सृजन सभी के बस की बात
नहीं होती है।"7 बाल साहित्य की भाषा सरल और कोमल होनी चाहिए तभी बालक उसे समझ सकेंगे
तथा बाल साहित्य के माध्यम से ही बालकों का भाषा ज्ञान भी विकसित होता है तो बाल साहित्य
के लेखक को इसका भी ध्यान रखना होता है। शब्द संयोजन, शब्दों की आवृत्ति, लय एवं
कोमल ध्वनि बालकों को प्रभावित करती हैं।
वात्सल्य की प्रवृति बाल साहित्य की प्रमुख
विशेषता है। यह नितान्त स्वाभाविक है कि बच्चे प्यार की भाषा समझते हैं। यही वजह है
कि बाल साहित्य में वात्सल्य भाव की मात्रा सर्वाधिक रहती है। बच्चों के प्रति प्रेम
और स्निग्धता दर्शाने वाला रस वात्सल्य है। बाल साहित्यों में बालकों के प्रति प्रेम
तो दर्शाया ही जाता है, साथ ही साथ बच्चों को भी
प्रेम प्रदर्शन, आत्मीयता का भाव रखने की प्रेरणा दी जाती है।
छोटे बालकों को परिवार, समाज, जीव-जंतु तथा प्रकृति से प्रेम करना बाल साहित्य ही सिखलाता है। राष्ट्र प्रेम
तथा देश भक्ति का भाव भी बाल साहित्य के माध्यम से भरा जाता है। इन माध्यमों से बाल
साहित्य एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करता है। डॉ. शिरोमणि सिंह 'पथ' ने लिखा है- "बाल कविता
की रचना ठीक उसी तरह होनी चाहिए जिस प्रकार माँ बच्चे का पालन पोषण करती है। उसी प्रकार
बाल कविता की प्रकृति होनी चाहिए जो बाल मन में एक खिलखिलाहट और स्वतंत्र भावों का
संचार करे जो न तो किन्हीं उपदेशात्मक या नैतिक बंधनों में बांधती हो, और न ही उबाऊ हो, जो बाल कविता केवल बाल मन को रिझाने
और लुभाने वाली और बिना किसी बोझ वजन के होनी चाहिए।"8
भारतीय संस्कृति, पर्व और त्योहार, भ्रष्टाचार
का विरोध, दलित चेतना जैसे सामाजिक सत्यों से भी बाल साहित्य
बालकों को अवगत कराता रहता है सटीक और सार्थक पात्र योजना तथा कल्पना का समावेश इसमें
प्रमुख स्थान रखते हैं। कुछ बाल साहित्यकारों ने तो भारत की महान हस्तियों को बाल साहित्य
में पात्रों की तरह प्रस्तुत किया है। महात्मा गांधी, नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री,
भगत सिंह, लक्ष्मीबाई, सुभाष चंद्र बोस जैसे महान व्यक्तित्व बालकों के प्रिय पात्र
भी रहे हैं।
प्लेटो के अनुसार, "बच्चों का शिक्षण बच्चों की पौराणिक,
धार्मिक, नीतिकथाओं, पवित्र
गाथाओं से प्रारंभ होना चाहिए। ये कहानियाँ सरल, सुबोध कविताएँ
भी हो सकती हैं।"9 प्लेटो
शिक्षा को मानव के क्रमिक विकास का साधन मानते हैं। शरीर के पूर्ण विकास के लिए जिस
प्रकार भाँति-भाँति के व्यायाम, खेलकूद,
विद्यार्थियों के शरीर की देख-रेख को महत्व दिया
जाता है, वहीं आत्मिक विकास के लिए सर्वगुणों के विकास को प्लेटो
ने आवश्यक माना। प्लेटो के अनुसार झूठ बोलना, चोरी करना,
दूसरों के दोष ढूँढना और हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ, मस्तिष्क के रोग हैं, जो बच्चों के सामने गलत आदर्श रखने
से उत्पन्न होते हैं। "मारिया मोंटेसरी के अनुसार शिक्षा
का उद्देश्य बच्चे के दिमाग में उस आदमी को जगाना है, जो सोया
हुआ है। शिक्षा का कार्य केवल निरीक्षण करना नहीं, बच्चे को रूपांतरित
करना (बदलना) है। जो शिक्षा मानव में सद्वृत्तियों
(अच्छी आदतों) को जागृत नहीं करती, जो उसे प्रेय से श्रेय की ओर नहीं ले जाती, जो उसके हृदय
में प्रविष्ट होकर उसे एक श्रेष्ठ जीवन-स्वप्न से नहीं भर देती,
वह शिक्षा नहीं है, केवल साक्षरता है और आज ऐसे
साक्षर मूर्खों की बढ़ती हुई संख्या ही जगत् की अनेक समस्याओं का कारण है।”10
वर्तमान शिक्षण प्रणाली ने बालकों को मशीन
बना दिया है, जिससे उनके सोचने और विश्लेषण करने की शक्ति दब जाती है। दूसरों से प्राप्त
ज्ञान बालकों के लिए जरूरी है, किन्तु
यह ज्यादा जरूरी इस ज्ञान को वह अपनी बुद्धि से परखकर अपना बनाए अन्यथा उसका बौद्धिक
विकास नहीं हो पाएगा। सामान्य तौर पर बालकों की मूल आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं,
जिनकी पूर्ति बाल साहित्य से होती है। क. सुरक्षा
की आवश्यकता, ख. आत्मीय सम्बन्ध की आवश्यकता,
ग. प्यार पाने और प्यार करने की आवश्यकता,
घ. प्रशंसनीय कार्य करने और उसकी स्वीकृति पाने
की आवश्यकता, ड. नीरसता से मुक्ति की आवश्यकता
और च. सौंदर्यानुभूति की आवश्यकता। इसके लिए जरूरी है कि माता-पिता बचपन से ही पाठ्यपुस्तकों से इतर पुस्तकें पढ़ने के लिए बच्चों को प्रेरित
करें। बच्चों की मानसिक आवश्यकता की पूर्ति का शक्तिशाली माध्यम अच्छा बाल साहित्य
ही है। आस-पास की सुपरिचित वस्तुओं, पशु-पक्षियों, खिलौनों की कहानियाँ उसे अपने अनुभवों को नए
संदर्भों में देखने का अवसर देती हैं। डॉ शकुंतला कालरा कहती हैं :- ”साहित्य जीवन का परिष्कार और पकड़ है इस विचार चिंतन
में बच्चों के विकास में बाल साहित्य और उसे रचने वाले साहित्यकारों की महत्वपूर्ण
भूमिका रही है और रहेगी।"11
वर्तमान में बाल साहित्य के स्वरूप में
परिवर्तन आया है। वैज्ञानिक तरक्की के साधनों ने पश्चिमी सभ्यता और भोगवाद का आधिपत्य
बढ़ा दिया है। लोक कथाओं, लोकगीतों का स्थान धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है।" आज विश्व भर में बच्चों
पर मीडिया के प्रभावों को लेकर सबसे अधिक चिंता उसके हिंसात्मक प्रभावों की है। मनोवैज्ञानिक
सर्वेक्षण के अनुसार बचपन में पड़ने वाले हिंसा के प्रभाव बड़े दूरगामी होते हैं। ये
बच्चे के विकास, चरित्र, आचरण, व्यवहार, विचार, स्वभाव,
कार्य-शैली आदि सबको प्रभावित करते हैं।12
लेमान हाप्ट ने बाल साहित्य की उपयोगिता
पर महत्त्वपूर्ण बात कही है - "पुस्तक पठन की महान उपयोगिता ज्ञान हमें कभी-कभी कटु
अनुभव से प्राप्त होता है। मुझे हमेशा ऐसा लगा है कि मनुष्य के लिए सबसे दुखद चीज यह
भावना है कि किसी अचूक और शत्रुतापूर्ण रीति से दुर्भाग्य ने अपने शिकार के लिए मुझे
ही चुना है। यह विचार अत्यंत कष्टदायक सिद्ध हो सकता है कि संसार में अकेला मैं ही
एक विशेष प्रकार के दुःख भार से दबा हुआ हूँ। ऐसी स्थिति में संभव है तुम्हारे हाथ
अचानक ऐसी पुस्तक पर पड़ जाए जो तुम्हें यह बताए कि ठीक इसी तरह का दुःख किसी और के
जीवन में भी आया था और उसने कैसे उस पर काबू पाया था। आपको यह एक विचित्र संयोग की
बात लगेगी किंतु होता अक्सर ऐसा ही है।”13
साहित्य बालकों के लिए तमाम अभावों की पूर्ति
का साधन है। अच्छे स्कूल, शिक्षक, साथी, संबंधी हर बालक को नहीं मिलते लेकिन अच्छा साहित्य
तो हर बालक को मिल ही सकता है। यह सच है कि बच्चों के जीवन में पुस्तकें माता-पिता और शिक्षकों का स्थान नहीं ले सकती, लेकिन पुस्तकों
का स्थान कोई अन्य चीज नहीं ले सकती छायावादी काव्य का प्रमुख स्तम्भ महादेवी वर्मा
जी ने सेंट्रल पेडागाजिकल इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद में बाल साहित्य
रचनालय का उद्घाटन करते हुए इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्त किए थे :-
"वस्तुतः बालक तो विश्व का सबसे व्यापक बुद्धि वाला, विशाल हृदय वाला नागरिक है। सच्चे अर्थ में हम उसी को विश्वनागरिक कह सकते
हैं। उसका धर्म ही जीवन धर्म है। जब हम प्रौढ़ हो जाते हैं तब धीरे-धीरे देश-काल की सीमाएँ हमें बांधने लगती हैं और उसी प्रकार बांध लेती हैं जिस प्रकार
नदी को उसके तट बांध लेते हैं और वर्षा में जो जल की तरलता सब ओर छाई रहती है वह तटों
में बंट जाती है। हम भी बड़े होकर प्रौढ़ होकर अपनी कल्पनाओं को एक निश्चित दिशा दे
लेते हैं। अपनी भावना को एक निश्चित लक्ष्य दे लेते हैं। अपनी बुद्धि की क्रिया को
एक सांचे में ढाल लेते हैं और इस प्रकार हमारा जीवन बंध जाता है। हम एक परिवार के एक
समाज के एक देश के प्राणी हो जाते हैं। संसार भर के जितने भी बालक हैं वे सब सारे विश्व
के बालक हैं। उन्हें इस बात का कोई बोध नहीं है कि हम किस देश के हैं, किस समाज के हैं और किस परिवार के हैं।..... बाल साहित्य
की रचना में, मेरे विचार में, सबसे बड़ी
बाधा तो मनोवैज्ञानिक है। साधारणतः हम सोचते हैं कि बालक के लिए लिखना ही क्या है?
हमारे विचार में, हमारी हीन भावनाओं में ऐसा लगता
है कि बालक के बहुत थोड़े ही विषय हैं और बहुत सहज ही उसे बहकाया जा सकता है,
किंतु उसे बहकाया नहीं जा सकता। आपमें से जो विद्वान हैं, जो विदुषी हैं, जानते होंगे कि कोई भी बालक दो मिनट में
आपको निरुत्तर कर देगा। उसकी जिज्ञासा इतनी बलवती है, उसकी कल्पना
इतनी विस्तृत है, उसकी भावना विश्व के हर जीवन को छूती है। और
निरंतर कुछ जानना चाहती है, कुछ पाना चाहती है। हम थक जाते हैं।
और कहते हैं कि इस समय नहीं, फिर, और वह
समय कभी नहीं आता क्योंकि हमारे जीवन में उसका उत्तर कभी नहीं आता, समाधान कभी नहीं आता आवश्यकता यह है कि हम यह समझें कि बालक की जिज्ञासा,
हमारी जिज्ञासा से विशाल है और उस जिज्ञासा को किसी एक दिशा में बांधना
बड़ा कठिन है।”14
किसी भी समाज का बाल साहित्य, सामाजिक यथार्थ का सूचक होता है। बाल साहित्य समाज
के जीवन दर्शन का सूचक होने के साथ-साथ उसके विकास की अवस्था का द्योतक भी होता है।
पाल हजार्ड ने अपनी पुस्तक 'बुक्स, चिल्ड्रेन्स
एंड मैन' में कहा है कि जिन वयस्कों ने शताब्दियों तक बच्चों
को ठीक ढंग से कपड़े पहनाने की बात तक नहीं सोची वे उनके लिए उपयुक्त पुस्तकों की व्यवस्था
करने की बात कैसे सोच सकते थे? अर्थात् जो समाज रोटी,
कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकताओं में ही फंसा हुआ है और निर्वाहमूलक
अर्थव्यवस्था से ऊपर अपने आपको नहीं उठा सका है वह बच्चों के लिए साहित्य की व्यवस्था
करने की बात सोच नहीं सकता है। विश्व के अधुनातन एवं समृद्धतम देशों में भी बच्चों
के लिए स्कूली पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य साहित्य की आवश्यकता अट्ठारहवीं शताब्दी में
महसूस की गई। उससे पहले 'बाल साहित्य' शब्द
की कल्पना किसी ने स्वप्न में भी नहीं की।
आज के बालक कल के नागरिक हैं, हम बालकों को जिस प्रकार का साहित्य देंगे उसी के
अनुसार कल के समाज का रूप निश्चित होगा। जब कभी हम अपने समाज अथवा राष्ट्र में किसी
बात की अत्यंत आवश्यकता अनुभव करते हैं तो उसकी सर्वप्रथम प्रतिक्रिया बाल साहित्य
पर होती है। चाहे कोई राष्ट्र लोकतंत्रीय हो अथवा समाजवादी उसकी सबसे बड़ी समस्या आज
यही है कि राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं का संचालन करने वाले साधारण जन-समुदाय को सच्चाई, ईमानदारी, (सहनशीलता,
विद्वता और मूल्यों की भावना जैसे महान गुणों से संपन्न कैसे किया जाए?
इस महत्वपूर्ण कार्य में बाल साहित्य बहुत बड़ा योगदान दे सकता है। वयस्कों
को तो बदलना संभव नहीं है लेकिन बालकों का परिष्कार बाल साहित्य कर सकता है। साहित्य
जीवन के महान मूल्यों का साधारणीकरण करता है। परीकथाओं और लोककथाओं के बीच पलने वाले
बच्चे में सच्चाई, ईमानदारी, निर्भीकता
और न्यायप्रियता के भाव सहज रूप से ही भर जाते हैं। पशुकथाएँ बालक की संवेदना को इतना
परिष्कृत करती है कि उसमें मानव-मानव के बीच तो क्या मानव और पशु के बीच भी भेद-भाव करने की गुंजाइश नहीं रहती।
वर्तमान युग की समस्या चरित्र की समस्या है। भौतिक साधनों की बहुलता
और वैज्ञानिक प्रगति ने मनुष्य के हाथ ऐसी शक्ति सौंप दी है, जिससे वह संसार का कल्याण और सर्वनाश दोनों ही कर
सकता है। आवश्यकता है ऐसे चरित्रवान व्यक्तित्व की जो इस शक्ति का सदुपयोग कर सके।
लोकतंत्र, समाजवाद, संयुक्त राष्ट्र संघ,
पंचवर्षीय योजनाएँ और अन्य राजनैतिक अथवा सामाजिक संस्थाएँ अपने में
बहुत अच्छी हैं किंतु उनका संचालन करने वाले व्यक्तियों का चरित्र ऊँचा नहीं है,
उनमें भ्रष्टाचार व्याप्त है। समानता और सद्भाव का उपदेश देने वाले नेता
की कथनी तथा करनी में भेद होता है। न्यायालयों में शपथ लेने के बाद भी हम झूठ बोलते
हैं। दूर-दूर तक समाज में चारित्रिक संकट ही नजर आता है।
21वीं सदी भूमंडलीकरण
और बाजारवाद की सदी है। बाल साहित्य भी बाजार के विस्तार में शामिल है। आज बाल साहित्य
नए-नए विषयों को तलाश रहा है। सरल, सहज,
सुगम भाषा में बाल साहित्य प्रस्तुत है। इंटरनेट, डिजिटल और ई-पुस्तकों के माध्यम से आधुनिक बाल साहित्य,
आधुनिक बालकों तक पहुँच बनाए हुए है।
बच्चा,
स्वभाव से अत्यंत कोमल, सरल, जिज्ञासु, उत्साह से लबालब, कल्पना
के पंख लगाकर आकाश पाताल एक करने वाला तथा इतना मौलिक, विलक्षण
संकल्पना वाला, जैसा और कोई कभी हो ही नहीं सकता। रचनात्मकता
उसमें कूट कूट कर भरी है। मेरी बिटिया रानी' कविता में सुभद्रा
कुमारी चौहान के भाव अगर देखें तो ऐसा ही बचपन हमारे सामने नाच उठता है।
"मैं बचपन को बुला रही थी।
बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी वह
छोटी सी कुटिया मेरी।।15
बच्चों की चेतना अलौकिक है, उनकी प्रेक्षण शक्ति अद्भुत है, विनोदप्रियता और ऊर्जा उसमें स्वतः ही विद्यमान है और सदैव नवीनता की ओर उन्मुख
उसका बाल-मन एक खोजी अन्वेषक की तरह हर समय क्रियाशील एवं सचेत
रहता है। इन सभी विशेषताओं के साथ-साथ बालमन इतना संवेदनशील है
कि जरा से आघात से सहम जाता है। विलियम वर्ड्सवर्थ अपने बाल्यकाल को स्मरण करते हुए
लिखते हैं।
"प्रत्येक बालक के पास कल्पना के पंख होते हैं,
अपने जिज्ञासु मन द्वारा वे सोचने के नए ढंग संजोते हैं। किंतु उड़ने
के पहले ही उनके पंख कुचल दिए जाते हैं, सृजनशीलता के बीज अंकुरित
होने के पहले मसल दिए जाते हैं।"16 सृजनशीलता के इस बीज को प्रस्फुटित होने में बाल साहित्य मदद करता है। बाल
साहित्य, बालकों की कल्पनाशीलता बढ़ाता है, उनके विश्वास और आस्था को सुरक्षा देता है। बच्चों को शिक्षा, जिज्ञासा एवं संस्कार से सम्पन्न करता है। मनुष्य को मनुष्य बनाने या यों कहें
कि एक सामाजिक जानवर में मनुष्यता के बीज डालने का कार्य करने वाले अवयव ही बाल साहित्य
है। बाल-साहित्य, नई कोपलों में संवेदना
जगाता है। वही नए जीवन की आधारशिला है।
आज का बच्चा बीस पच्चीस साल पहले के दौर
के बच्चे से एकदम अलग है। वह कहीं अधिक मेधावी, तेज-तर्रार और आधुनिकता से लैस है। वर्तमान समय में बच्चे
के व्यक्तित्व, रूचि और आवश्यकता को ध्यान में रखकर बाल साहित्य
का चयन करना होगा, क्योंकि आधुनिक बच्चे तर्क क्षमता में अपने
बड़ों से पीछे नहीं हैं। लेकिन सभी आधुनिक प्रवृत्तियों के बावजूद बच्चों के अन्तर्मन
में इस तथ्य को स्थापित करने में कि सच्चाई की हमेशा जीत होती है और झूठ कितना भी समर्थ
हो उसे हारना ही पड़ता है, बाल साहित्य ने अपनी महती भूमिका अदा
की है। हिन्दी के बाल साहित्य की एक सबसे प्रमुख विशेषता यह रही है कि उसने हमेशा ही
वंचित समाज को केन्द्र में रखा है। गड़ेरिया या लकड़हारा बाल साहित्य का एक
'प्लीजैंट फैंटसी' गढ़ते हैं और भारतीय आशावाद
का प्रतीक भी बनते हैं. क्योंकि ये पात्र वीर और सच्चे होते हैं
तथा आम जनता के लिए लड़ते हैं। कहानी के अंत में उसे कोई बड़ा खजाना मिल जाता है या
उसे कहीं का राजा बना दिया जाता है। यही भारतीय बाल साहित्य बालकों में आशा के भाव
भरता है और उन्हें ऐसी प्रेरणा देता है कि वे किसी भी परिस्थिति में जीवन के कठिन संघर्षो
का सामना कर सकें। "कला जीवन का एक कोण है जो मानव प्रवृत्तियों
के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। मानवता का धर्म ही मानवीय वृत्तियों को आधारभूत चेतना
प्रदान करता है। प्राणीमात्र की सेवा करना मनुष्यता की निशानी होती हैं जो बचपन के
संस्कारों से प्राप्त होती है।”17 इंसान के जीवन में बाल साहित्य की अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि पंचतंत्र
का अनुवाद दुनिया भर की लगभग सभी भाषाओं में हुआ है, और यह तथ्य
चौंकाने वाला है कि इसका अनुवाद 'गीता', 'कुरान शरीफ' और 'बाइबल'
से भी अधिक हुआ है। क्योंकि यह मानी हुई बात है कि जैसे शारीरिक पोषण
के लिए अच्छे भोजन, शारीरिक सुरक्षा के लिए कपड़े की आवश्यकता
होती है वैसे ही मानसिक के लिए अच्छे साहित्य की भी आवश्यकता होती है। बाल साहित्य,
बच्चों के मन में अच्छे बनने के प्रति एक ललक जगाता है। बच्चों के मन
में प्रकृति के प्रति जानवरों के प्रति बच्चों के मन में प्रेम जगाता है, उनके प्रति लगाव पैदा होते ही बच्चे ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं। फिर वे
मानव के साथ मानवेत्तर जगत से भी जुड़ जाते हैं। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि साहित्य
का एक काम उन लोगों के लिए बोलना है जो स्वयं नहीं बोल सकते। अतः बाल साहित्य इस क्षेत्र
में समाज और परिवेश को सजग करने का महत्वपूर्ण कार्य करता आ रहा है। बाल साहित्य जहाँ
एक तरफ कम उम्र के पाठकों को मनोरंजन प्रदान करता है, वहीं वह
उनकी चेतना और सजगता को भी उत्प्रेरित करता है। यह बालकों को एक संवेदनशील मनुष्य के
रूप में विकसित होने की स्थितियाँ देता है। वहीं यह नैतिकता को भी बचाने की जिम्मेदारी
निभाता है। नैतिकता हमारे अस्तित्व के लिए सामाजिक अनुशासन के लिए प्राथमिक शर्त होती है। नैतिकता का उन्मेश बाल साहित्य
में एक आवश्यक तत्व है।
इक्कीसवीं सदी में देश-दुनिया और समाज तेजी से बदला है। बच्चे इन सबसे अलग
कैसे हो सकते हैं। आज का बाल साहित्य भी इन सबसे अनभिज्ञ नहीं है। वह वर्तमान की चुनौतियों
को खुली आँख और खुले दिल से ले रहा है। समाज में व्याप्त अनैतिकता, चारित्रिक पतन, भ्रष्टाचार, विलगाव
आदि समस्याओं को यदि हल किए जाने के प्रति हम सोचें तो बाल साहित्य मुख्य जरिया बन
सकता है। "नीति-कथाओं और पौराणिक कथाओं
की प्रासंगिकता के पक्ष में विदेश के बाल साहित्य समीक्षक आज की राजनीतिक विचारधारा
और विभिन्न समाजों के नए मूल्यों की स्वीकृति का तर्क देते हैं।”18 आज बच्चों को आधुनिक जीवन की मनोवैज्ञानिक,
सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं का सामना
करना पड़ता है। चूँकि बाल साहित्य के माध्यम से उन्हें ये प्राप्त होते हैं। अतः बाल
साहित्य के पठन का प्रचार प्रसार करना अत्यावश्यक है। बच्चों के विकास के लिए बाल साहित्य
की उपयोगिता को झुठलाया नहीं जा सकता। बाल साहित्य बच्चों में ज्ञान-रूचि कल्पना जगाता है। बचपन में जिज्ञासा सर्वाधिक होती है। जिज्ञासा की पूर्ति
और कल्पना शक्ति के विकास में सबसे अधिक सहायक साहित्य होता है। पुस्तकों के माध्यम
से बच्चा दुनिया देखता है और अपनी छोटी - सी दुनिया के साथ तादात्म्य बिठाता है। विश्व
कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर के शब्दों में "बच्चों का अर्द्धचेतन
वृक्षों की तरह सक्रिय होता है जैसे वृक्ष में धरती से रस खींचने की शक्ति होती है,
वैसे ही बच्चे के मन में अपने चारों ओर के वातावरण से जरूरी खाद्य प्राप्त
करने की क्षमता होती है।”19
बाल-साहित्य, बच्चों में आत्मविश्वास तथा आत्म-विकास एवं आत्म निष्ठा का संचार करता है। इसके माध्यम से बच्चे स्वयं को आधुनिक
जीवन की चुनौतियों के अनुरूप ढालने में समर्थ होते हैं। वे समय की नब्ज पहचानते हैं,
युग सत्य की छवि को परख पाते हैं। बाल साहित्य आज वैज्ञानिक अप्रोच के
साथ प्राचीन मूल्यों, परम्पराओं को नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत
कर रहा है तथा बच्चों के सम्मुख भारतीय संस्कृति और उसकी महिमा को उद्घाटित कर रहा
है और यही अपनी धरोहर को सुरक्षित रखने का सबल माध्यम है। बालकों को सहृदय और संवेदनशील
बनाने वाला साहित्य संस्कृति की भी रक्षा में अग्रसर है।
निष्कर्ष -
बाल साहित्य सामान्य साहित्य से पूरी तरह
भिन्न होता है। यह एक स्वतंत्र विषय है जिसके अंतर्गत बाल-कथा, कविता, नाटक, एकांकी, जीवनी आदि प्रमुख
विधाएँ आती हैं। इसके सृजन में साहित्यकार, बाल मनोविज्ञान का
ध्यान रखते हैं क्योंकि बाल साहित्य का सृजन बच्चों के लिए ही किया जाता है। इसमें
शाश्वत मूल्यों के साथ-साथ मनोरंजन का समावेश आवश्यक है। 21वीं सदी में वैज्ञानिक और यांत्रिक आविष्कारों,
चिंतन मनन, रहन सहन, काम-काज की बदलती शैली से बाल मन भी प्रभावित है अतः बाल साहित्य भी परिष्कृत रूचि
का होना आवश्यक है। बाल साहित्य बच्चों की रूचि, योग्यता एवं
प्रतिभा को ध्यान में रखकर लिखा जाना चाहिए।
बाल साहित्य, संस्कृति, समाज, राष्ट्र, विश्व बंधुत्व, शिक्षा
और बच्चों के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण है। आवश्यकता है तो केवल
यह कि समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बाल साहित्य का महत्त्व हम बड़े
समझें और इसके समुचित विकास, प्रसार पर ध्यान दें। बाल साहित्य,
बच्चों में आत्मविश्वास तथा आत्म-विकास एवं आत्म
निष्ठा का संचार करता है। इसके माध्यम से बच्चे स्वयं को आधुनिक जीवन की चुनौतियों
के अनुरूप ढालने में समर्थ होते हैं।
संदर्भ -
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दिल्ली-प्रथम संस्करण, पृ. 106
18. अनुज (सं.)-कथा 19, अक्टूबर 2014 पृष्ठ संख्या
87
19. शकुंतला कालरा (सं.)
,हिन्दी बाल साहित्य विधा-विवेचन-नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम
संस्करण, पृ. 20
विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, रांची विमेंस कॉलेज, रांची
9955354365, urvashiashutosh@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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