शोध आलेख : पंडित राधेश्याम कथावाचक : पारसी थियेटर से पारसी रंगमंच तक / डॉ. नितिन सेठी
शोध सार :
पंडित राधेश्याम कथावाचक पारसी थिएटर के पुरोधा रहे हैं। तत्कालीन पारसी थिएटर जो केवल मनोरंजन और पैसा कमाने का साधन मात्र बनकर रह गया था, उसमें भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का समावेश करने में राधेश्याम कथावाचक का महत्त्ववपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपने नाटकों के द्वारा समाज को शिक्षित करने का कार्य भी किया। नारायणप्रसाद ‘बेताब’, आगा मोहम्मद हश्र ‘कश्मीरी’ और पंडित राधेश्याम कथावाचक- इन तीनों ने ही अपनी प्रतिभा से रंगमंच की दुनिया में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान सुरक्षित किया। नाटकों के कथानक, उनकी भाषा-शैली, रंगमंचीय व्यवस्था, पात्रों का प्रस्तुतीकरण; इन सब पर भी राधेश्याम कथावाचक की पैनी दृष्टि होती थी। राधेश्याम के सुधारोन्मुखी नाटक एक प्रकार से नवजागरण के भाव लेकर आए। व्यवसायिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तियां जब धार्मिक और साहित्यिक प्रवृत्तियों से मिलीं, तो एक चमत्कारपूर्ण पारसी रंगमंच का अवतरण हुआ, जिसके एकमात्र सूत्रधार पंडित राधेश्याम कथावाचक कहे जा सकते हैं।
बीज शब्द : नाटक, रंगमंच, प्रस्तुतीकरण, नाट्यशास्त्र, व्यवसायिक नाटक कंपनियां, कथानक, चरित्रांकन और दृश्यांकन, सुधारोन्मुखी नाटक, हिंदी की प्रतिष्ठा, नाट्यचिंतन, नाट्यशिल्प, नाट्यमंचन और नाट्यभाषा आदि।
मूल आलेख :
न जाने कितने ही भावों की लहरों को
मानव अपने मन के सागर में बनने-बिगड़ने देता है। कहीं-कहीं कोई ऐसा भी भाव आ जाता
है, जिसको रोक पाना मानव के लिए आसान नहीं होता। यही भाव कला का रूप लेकर
सामने आते हैं। इन भावों को जब कागज़-कलम का साथ मिलता है तो साहित्य की सर्जना
होती है। ये भाव जब शब्दों के रूप में आते हैं तब इन्हें श्रव्य काव्य का नाम दिया
जाता है। जब इनमें किसी अनुकृति या हावभाव को जोड़ दिया जाता है, तब
ये दृश्य काव्य कहलाते हैं। नाटक दृश्य काव्य है। जनता इसे अपनी आँखों से
देखती-समझती है और आनंद लेती है। इसका अस्तित्व दृश्यों पर टिका है। भारतवर्ष में
अनेक ललित कलाओं के साथ-साथ रंगमंच की भी पर्याप्त पूछ रही है। रंगमंच अपने जन्म
के समय से ही जनता के सुख-दुख की सरल-सहज-सरस अभिव्यक्ति माना जाता है। संस्कृत भाषा
के काल में तो इसे अनेक नामों से रचा गया। भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’
के
रूप में नाटक का विस्तृत विवेचन किया। धनंजय ने ‘दशरूपक’ में
इसके रूपक, उपरूपक जैसे महत्वपूर्ण भेद किये। रूपक के दस
भेदों में से पहला भेद ‘नाटक’ ही कहा गया। संस्कृत-पाली-अपभ्रंश के
अनेक नाटककारों ने नाटक को अपने सृजन से समृद्धि प्रदान की और इसके स्वरूप में भी
उत्तरोत्तर विकास का मार्ग प्रशस्त किया। समय के प्रवाह के साथ रंगमंच और नाटक की
भाषा-शैली में भी अपेक्षित परिवर्तन हुए हैं। अठारहवीं सदी आते-आते नाटक पर
ब्रजभाषा का संस्कार आया। ‘आनंद रघुनंदन’ जैसे नाटकों को
ब्रजभाषा में ही रचा गया। तत्कालीन कालखंड में नाटक और रंगमंच का सर्वाधिक उद्धार
और उपकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया। अपने मौलिक-अनूदित कुल सत्रह नाटकों से
उन्होंने रंगमंच को एक नवीन ही रूप प्रदान किया। काशी में नेशनल थिएटर की स्थापना
से वहाँ भारतेंदु और उनके मंडल के अनेक रंगमंचीय नाटकों का प्रस्तुतीकरण हुआ।
हास्य, श्रृंगार, कौतुक, समाज-संस्कार और देशवत्सलता जैसी
प्रवृत्तियों से नाटक की विषयवस्तु को और समृद्ध किया गया। हिंदी नाट्यशास्त्र के
भवन की नींव भारतेन्दु ने ही रखी, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
संस्कृत नाट्यशास्त्र से उन्होंने प्रेरणा और प्रभाव के तत्त्व ग्रहण किए।
पाश्चात्य नाट्यशास्त्र के अनेक गुणों को भी उन्होंने अपने सिद्धांतों में जोड़ा।
तत्कालीन रंगमंच को स्थापित करने के लिए भारतेन्दु ने ‘नाटक’ नाम
से एक स्वतंत्र ग्रंथ का ही प्रणयन कर दिया था। इसी क्रम में बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’,
लाला
श्रीनिवासदास, किशोरीलाल गोस्वामी, पंडित बालकृष्ण
भट्ट, बाबू राधाकृष्ण दास जैसे नाटककारों ने रंगमंच के स्वरूप, प्रयोजन,
तत्व,
शैली
के बारे में भी अनेक नवीन उद्भावनाएँ कीं। इन सबसे खड़ी बोली में नाटक और रंगमंच
का स्वरूप निर्धारण पर्याप्त स्थिरता से हो सका। हिंदी में अपने नाट्यशास्त्रीय
तत्वों को पाकर रंगमंच को मानो नया जीवन ही मिल गया। भारतेंदु के साथ- साथ ही उस
समय एक और शैली भी चलती रही थी, जिसे हम लोग ‘पारसी थिएटर’
के
नाम से जानते हैं। परंतु वास्तव में इसे पारसी नाटक मंडली के नाम से पुकारा जाए तो
अधिक उचित होगा। एक और जहाँ भारतेन्दु युग में भारतेन्दु और उनके मंडल के अन्य
साहित्यकार नाटक को साहित्यिक और परिष्कृत रूप प्रदान करने का बीड़ा उठाए थे,
वहीं
दूसरी ओर पारसी नाटक मंडली व्यवसायिक रूप से रंगमंच का उपयोग कर रही थी।
पारसी रंगमंच के क्षेत्र में सबसे पहला ऐसा प्रयास हुआ था सन् 1870 में, जब ‘ओरिजिनल थिएट्रिकल कंपनी’ की स्थापना की गई। सेठ पिस्टनजी फ्रॉमजी इसके मालिक थे। इसके बाद ‘विक्टोरिया थिएट्रिकल कंपनी’, ‘अल्फ्रेड थिएट्रिकल कंपनी’, ‘न्यू अल्फ्रेड कंपनी’ जैसे संस्थान भी अस्तित्व में आए। पारसी रंगमंच की ये कंपनियाँ भरपूर व्यवसायिक थीं और जनता का मनोरंजन कर पैसा कमाना ही इनका एकमात्र उद्देश्य था। ‘न्यू अल्फ्रेड कंपनी’ के मालिक मोहम्मद अली ‘नाखुदा’ और सोहराबजी थे। सोहराब जी स्वयं प्रसिद्ध हास-परिहास के अभिनेता थे तथा कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर भी थे। 1 इसी कंपनी में नारायणप्रसाद ‘बेताब’ के बाद आगा मोहम्मद हश्र ‘कश्मीरी’ और पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अपनी प्रतिभा से अपना महत्वपूर्ण स्थान निर्धारित किया था। पंडित राधेश्याम कथावाचक का सम्बंध मुख्य रूप से नानक चंद खत्री की ‘न्यू अल्बर्ट’, माणिक जी जीवन जी मास्टर की ‘न्यू अल्फ्रेड’, लाला विशंभर सहाय व्याकुल की ‘व्याकुल भारत’ और श्री दुर्लभजी रावल तथा श्री लव जी त्रिवेदी की ‘सूरविजय नाटक समाज’ से था। उल्लेखनीय है कि ये सभी पारसी रंगमंच की पूर्णतया व्यवसायिक नाटक कंपनियां थीं।"2
पंडित राधेश्याम जी जिस समय नाटक लेखन के क्षेत्र में आए, तब अधिकांश नाटक कंपनियों के केवल दो ही उद्देश्य थे- अर्थोपार्जन और मनोरंजन। इसके लिए उन कंपनियों ने अपने- अपने ढंग से इंतजाम भी कर रखे थे। एक बार एक हिंदी के विद्वान ने पारसी कंपनी के मालिक से उनके नाटकों की आलोचना करते हुए कुछ सुधार करने की चर्चा की थी। उस पर उन्हें उत्तर मिला, "
हम यहां रुपया-पैसा पैदा करने आए हैं, कुछ साहित्य भंडार भरने नहीं । देशोद्धार और समाज सुधार का ठेका हमने नहीं ले रखा। हमें तो जिसमें रुपया मिलेगा वही करेंगे।
"3 इन सब बातों से पता चलता है कि तत्कालीन पारसी थियेटर किसी भी कलात्मकता या सांस्कृतिक परिदृश्य को अपने साथ लेकर नहीं चला था। भारतीय भूभाग की सांस्कृतिक चेतना भी उसके सामने अनुपयोगी थी। अजीब तरह के भौंड़े चरित्रांकन, ऊटपटांग सम्वाद अदायगी, स्तरहीन चुटकुलेबाजी तथा छेड़छाड़ से भरे दृश्यों और उसी तरीके के गाने; बस यही सब मिलकर तत्कालीन पारसी थियेटर का रंग रूप निर्धारित करते थे। इसमें उनकी कोई गलती भी नहीं थी, क्योंकि जनता की पसंद भी यहीं तक सीमित रह गई थी । अधिकांश नाटकों के नाम भी उर्दू के होते थे। नाटकों की भाषा व संवादों में भी उर्दू शब्दावली का ही प्रचलन था। कुल मिलाकर साहित्यिकता और कलात्मकता से कोसों दूर ये पारसी नाटक ही जनता के सर्वविध मनोरंजन के साधन थे। पंडित राधेश्याम जी ने अपने आरंभिक दौर में ‘पारसी रिपन थिएट्रिकल कंपनी’ का प्रसिद्ध नाटक देखा था। इसमें मेहर जी नसरवन जी ने कुशल अभिनय किया था। नाटक था ‘खून का खून’ जो शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ का अनूदित रूप था। इस संबंध में पंडित जी लिखते हैं, "इनके नाटक देख-देख कर बार-बार मुझे यह ख्याल भी आया कि ये नाटक वाले भारतेन्दु के ‘भारतदुर्दशा’ और ‘नीलदेवी’ जैसे नाटक क्यों नहीं खेलते। फिर यह भी ख्याल आया कि वे नाटक शायद तीन अंकों के नहीं हैं, छोटे हैं; इसलिए नहीं खेले जाते। वास्तव में तो आगे चलकर मैंने समझा कि शुद्ध हिंदी के नाटक खेलने का रिवाज़ ही उस समय पेशेवर नाटक कंपनियों में नहीं था। हिंदी के ऐसे नाटक तो क्लबों की ही चीज रहे।”4
आगे चलकर पंजाब के बाबू नानक चंद खत्री ने सन् 1910-11 में अपनी कंपनी के रामायण नाटक का संशोधन पंडित जी से करवाया।
खत्री जी न्यू अल्बर्ट कंपनी के मालिक थे। पंडित जी के हाथ लगते ही रामायण नाटक में आमूलचूल परिवर्तन हो गए। अपने कथानक, चरित्रांकन और दृश्यांकन में यह नाटक दर्शकों पर पर्याप्त प्रभाव छोड़ने में सफल रहा। जिसका करण खुश होकर नानक चंद जी ने रुपए 380 का पेरिस रीडों का हारमोनियम पंडित जी को भेंट किया था। पंडित जी तत्कालीन पारसी थियेटर के नाटक और रचना विधान को देखकर बहुत व्यथित थे। उनके मन में हमेशा यह विचार रहता था कि अभी बहुत कुछ आवश्यकता है, वर्तमान पारसी थियेटर में परिवर्तन की। बस यहीं से पारसी थियेटर का एक दूसरा रूप सामने आता है। यहाँ हम पारसी थियेटर को भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे देखते हैं, जिसमें भारतीयता के साथ-साथ हिंदी का भी बहुत बड़ा उद्धार हुआ। यह राधेश्याम जी का मौलिक चिंतन ही कहा जाएगा कि उन्होंने अपने पारिवारिक संस्कारों को अपने रंगमंचीय जीवन से लाकर संयोजित कर दिया, जिस कारण पारसी रंगमंच का एक उत्कृष्ट रूप हमारे सामने आया। उस समय पारसी रंगमंच के जितने भी नाटक लेखक उभर रहे थे, वे अपने उपनाम ‘बेकल’, ‘बेताब’, ‘जोहर’, ‘हसरत’ इस प्रकार के रखते थे। नाटकों की प्रचलित भाषा भी उर्दू ही थी। पंडित जी ने जब अपना नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ लिखा तो उसे हिंदी में लिखा और अपना उपनाम भी ‘कथावाचक’ रखा। यह कदम भविष्य में बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। आगे चलकर पंडित जी ने कुल सत्रह नाटक व एकाँकी लिखे; जिनमें ‘वीर अभिमन्यु’, ‘परिवर्तन’, ‘श्रवण कुमार’, ‘ईश्वर-भक्ति’, ‘उषा-अनिरुद्ध’, ‘कृष्ण-सुदामा’ आदि प्रसिद्ध हैं। पंडित जी ने ‘मेरा नाटक काल’ नामक पुस्तक की भी रचना की थी जिसमें उन्होंने अपनी ‘न्यू अल्फ्रेड नाटक कंपनी’ से सम्बद्ध होने से लेकर अपने जीवन के आत्मकथात्मक प्रसंगों को रखा है। ‘न्यू अल्बर्ट कंपनी’ के प्रभाव के बारे में राधेश्याम लिखते हैं, "वाक्यों की स्वाभाविकता पर जोर, झटकों के साथ-साथ स्पष्ट उच्चारणों में सोराबजी मुझे पूर्ण ही जँचते थे। मानो वे अपने सेंटेंसेस दर्शकों के कानों में इस प्रकार डालते थे, जैसे श्रावण में किसी बाग़ के भीतर शीतलमंद पवन हमें झकोरों द्वारा स्वतः ही आनंद देती है। मैंने उनके शब्दोच्चारण को शिष्यवत् माना।"5 पंडित जी ने यूँ तो नाट्यसिद्धांतों का कोई अलग से ग्रंथ तैयार नहीं किया परंतु उनके अनेक नाटकों में नाट्यविषयक संकेत और भूमिकाएँ मिलती हैं, जिनसे उनकी नाटक संबंधी मान्यताओं का विस्तार से पता चलता है। पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटक काल में पारसी रंगमंच के नाटकों के दीवाने दर्शकों में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए- “पहला धार्मिक नाटकों के प्रति रुचि की निरंतर अभिवृद्धि और दूसरा अधिक से अधिक रोमांचकारी, साहसयुक्त अथवा चमत्कार पूर्ण दृश्यों को देखने का उत्साह।”6
राधेश्याम जी की दृष्टि में नाटककार का उद्देश्य था आनंद एवं लोकमंगल की भावना की सृष्टि होना। वीर अभिमन्यु नाटक में नटी के शब्द हैं, “ऐसे समय में हमको किसी श्रेष्ठ नाटक के खेलने का विचार करना चाहिए। मनोरंजन के साथ ही साथ अपने देश और अपने समाज का भी कुछ उपकार करना चाहिए। अश्लील नाटकों ने नाटक के मुख्य तत्व को नष्ट कर दिया है, दर्शकों के विनोद स्थान को पथभ्रष्ट कर दिया है। जब कभी समयानुसार मनुष्य के आचरण में कुछ दोष आता है तो नाटक द्वारा भी कुछ अंशों में लोक सुधारा जाता है क्योंकि जो प्रभाव व्याख्यान से नहीं पड़ता, गान से नहीं पड़ता, वह अभिनय द्वारा पड़ जाता है।”7 मेरा नाटक काल में भी पंडित राधेश्याम लिखते हैं,”अश्लीलता न आने पाए और मनोरंजन कायम रहे। चरित्र-चित्रण स्वाभाविक होते हुए ऐसा हो, जिससे जनता को कुछ शिक्षा प्राप्त हो। सामाजिक दोषों को चुन-चुन कर स्टेज पर लाना और जनता को उन दोषों से वाकिफ़ कराना नाटक लेखक का बड़ा कर्तव्य है।”8 इसी प्रकार श्रवण कुमार नाटक के निवेदन में भी उनके यही भाव हैं,”कथानक चाहे ऐतिहासिक हो या काल्पनिक। नाटक के मंच पर उसकी सृष्टि इसीलिए है कि उसके द्वारा समाज को कुछ शिक्षा प्राप्त हो।’’9
पंडित राधेश्याम ने कथानक को नाटक का महत्त्वपूर्ण तत्व माना है। इस सम्बंध में उनका विचार है, "नाटक लेखन में सोचना बहुत पड़ता है, लिखना कम। पहले तो कथानक ही बनाने में बहुत डूबना पड़ता है। कथानक का महान होना ही कथाकार की प्रथम सफलता है।”10 पंडित राधेश्याम ने अपने सभी नाटकों के कथानक इस प्रकार रखे हैं कि इनमें लोककल्याण और लोकसुधार की भावना प्रबलता से दिखाई देती है। मनोरंजन तो वहाँ है लेकिन अश्लीलता का लेशमात्र भी नहीं है। सामाजिक दोषों को स्टेज पर लाना और जनता को उन दोषों से वाकिफ करवाना, उनके नाटकों का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना जा सकता है। इसीलिए उनके कथानक देशहित, समाजहित और व्यक्तिहित की भावना को सामने लेकर चलते हैं। पंडित राधेश्याम भाषा को सम्प्रेषण का मुख्य माध्यम मानते हुए लिखते हैं,” भाषा चमकदार होते हुए भी सरल इतनी हो कि पात्र के मुख से वाक्य निकलते ही जनता उसे समझ ले। संवाद ही नाटक की सफलता की बड़ी कुंजी कहलाते हैं।”11 भारतेंदु युग के साहित्यकार जहां अपने नाटकों में गीतों का कम प्रयोग करते थे, वहीं पारसी रंगमंच के लिए गीतों का प्रयोग अनिवार्य था; क्योंकि पारसी रंगमंच व्यवसायिक था। इसीलिए जनता को कुछ ऐसा देना उनकी मजबूरी भी थी। राधेश्याम लिखते हैं,”तब मैंने यह अनुभव किया कि दर्शक गानों से ज्यादा आकर्षित होते हैं। यदि गाने भी उनके मन और मस्तिष्क में बैठ जाएं तो वे बार-बार उस नाटक को देखने आते हैं।”12 पंडित राधेश्याम कथावाचक को रंगमंच की योजना का भी विशेष ज्ञान था क्योंकि वे अनेक वर्षों तक पारसी नाटक कंपनियों के लिए नियमित रूप से नाटक लेखन और निर्देशन करते रहे थे। अतः व्यवहारगत कठिनाइयों को वे भली-भाँति समझते थे। तभी वे लिखते हैं,”थिएटर कंपनियों के चलने-चलाने की बात बहुत ही कठिन कार्य है। स्टेज का उचित प्रबंध, एक्टरों की मिजाज़दानी, अच्छे नाटक लिख-लिखकर स्टेज करने कराने के अतिरिक्त बाहर का प्रबंध भी बड़ा खास काम है। पब्लिसिटी ठीक हो, सामान की निगरानी ठीक रहे, आग लगने की बात से पहरेदार सचेत रहें, टिकट बिक्री के घर में गबन न हो, गेट पर खड़े रहने वाले कर्मचारी बेईमान न हों, मैनेजर ऐसा न हो जो दर्शकों से रुपए लेकर अपनी जेब में डाले और उन्हें क्लासों में सिर्फ जुबानी हुक्म दे-देकर बिठाला करें आदि आदि।"13
राधेश्याम जी प्रगतिशीलता के पोषक थे परंतु व्यवसायिक कंपनियों से जुड़े होने के कारण कुछ रूढ़ियों को उन्हें न चाहते हुए भी बाँधे रखना पड़ा था। प्रेमचंद से हुए एक वार्तालाप में पंडित जी लिखते हैं,”ईश्वर भक्ति देखकर जहाँ वे (प्रेमचंद) अत्यंत आनंदित हुए, वहीं यह भी कहा,” चमत्कार इसमें क्यों लिखे हैं। मैंने कहा,”जनता अभी वैसी नहीं बनी है, जैसे तुम हो या तुम्हारे ख्याल के और थोड़े से दर्शक हैं। यह व्यवसायिक कंपनी का नाटक है। फेल हो जाए तो कंपनी ही फेल हो जाए। नब्बे फ़ीसदी पैसा हमें उसी जनता से मिलता है, जो चमत्कार पर ही पागल होकर तालियाँ बजाती है।”14
तत्कालीन पारसी नाटक कंपनियों में पात्रों के प्रस्तुतिकरण पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता था। किसी वीर मनुष्य का रोल बहुत सामान्य से व्यक्ति को दे देना प्रचलन में था। पंडित राधेश्याम सुझाव देते हुए लिखते हैं, “पार्ट की नेचर और एक्टर की नेचर मिलाकर पार्ट बाँटना चाहिए। पार्ट के अनुसार कद-रूप-उच्चारण भी देखना चाहिए। पर नाटक कंपनियों के मालिकों या डायरेक्टरों में यह अंधापन प्रायः रहता है कि वह अपने प्यारों को आगे बढ़ाने के लिए वे बड़े से बड़ा पार्ट उन्हें दे देते या दिला देते हैं; चाहे वे उस पार्ट के योग्य हो या न हो।”15 पंडित राधेश्याम ‘रामायण’ और ‘कृष्णायन’ जैसे ग्रंथों के रचयिता थे। इसीलिए उनके मन में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व का भाव था। वीर अभिमन्यु नाटक के आरम्भिक शब्द हैं, "पात्रों को समझा देना कि हाव-भाव में और उच्चारण में हिंदी और हिंदू जाति की प्रतिष्ठा का ध्यान रहे "।16 कृष्णावतार में भी नटी और नट का संवाद इस सम्बंध में उल्लेखनीय है-
नटी-तब तो नाटक की भाषा भी ब्रजभाषा ही रखी जाएगी।
नट- जी तो यही चाहता है परंतु दर्शकों पर अपने भावों का प्रभाव डालने के लिए हमें वही भाषा काम में लानी पड़ेगी, जो इस समय बोलचाल की भाषा है। कारण कि नाटक पठ्यकाव्य नहीं, श्रव्य और दृश्यकाव्य कहलाता है। 17 सन् 1910 से 1935 के बीच पारसी थियेटर में हिंदी और हिंदू के भाव स्पष्ट रूप से आने लगे, जो हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का समन्वय स्थापित करते थे। पूरे माध्यम का संस्कृत में बदलाव यहाँ रेखाँकित करने योग्य है।
धीरे-धीरे हिंदी मंच की स्वाभाविक पसंद बनती जा रही थी। इसने आगे चलकर देशकाल की सारी सीमाएँ पार कीं। साथ ही साथ, हिंदू अध्यात्म, दर्शन और प्रतीकों का प्रचार-प्रसार भी उस समय खूब बढ़ गया था। वीर अभिमन्यु और इसी प्रकार के अन्य नाटक, पुरुषोचित वीर रस से आप्लावित हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार करने लगे, जो खड़ी बोली हिंदी की भावना से परिपूर्ण थे। स्त्रियोचित उर्दू को इसने धीरे-धीरे पीछे छोड़ दिया। श्रृंगार रस तो शारीरिक सुख से बढ़कर दैवीय प्रतीक बन गया था। इसी के साथ वीरत्व की भावनाओं का भी इसमें समावेश हो गया था। देश की तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार पंडित जी ने अनेक बातों के समन्वय अपने नाटकों में किए।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने नाटकों में देश सुधार और समाज परिवर्तन की जो भावना उद्वेलित की, उनका असर पारसी रंगमंच पर भी निश्चित रूप से हुआ था। देखा जाए तो पारसी थियेटर को पारसी रंगमंच का रूप देने में पंडित राधेश्याम का बहुत बड़ा योगदान है। राधेश्याम के सुधारोन्मुखी नाटक एक प्रकार से नवजागरण के भाव लेकर आए। व्यवसायिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तियां जब धार्मिक और साहित्यिक प्रवृत्तियों से मिलीं, तो एक चमत्कारपूर्ण पारसी रंगमंच का अवतरण हुआ, जिसके एकमात्र सूत्रधार पंडित राधेश्याम कथावाचक कहे जा सकते हैं। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल के शब्दों में,” यह संगम भारतीय जीवन के उस लंबे गहन चरण में संभव भी था, जब एक ओर हम क्रमशः सीधे पश्चिम के संपर्क में आ रहे थे और दूसरी ओर जब हममें राष्ट्रीय चेतना, प्राचीन इतिहास-पुराण के गौरव की भावना तीव्र हो रही थी। धर्मनिष्ठ हिंदू जनता को, जो आर्य समाज और अन्य सुधारवादी आंदोलनों के कारण घर से बाहर आई थी; अपने गौरवपूर्ण चरित्र और महान आख्यान देखना भाता था। कोलकाता, मुंबई, अहमदाबाद, दिल्ली कानपुर आदि नगरों में जहाँ गाँवों-कस्बों से मजदूर मिस्त्री और बाबू लोग आए थे, उनके मनोरंजन के लिए कुछ ऐसी नई चीज की जरूरत थी जो अलौकिक श्रृंगारिक भी हो, साथ ही साथ मन बहलाने वाली या उपदेश देने वाली भी।”18
पंडित राधेश्याम कथावाचक ने पारसी थियेटर को पारसी भारतीय रंगमंच का रूप प्रदान करने में पर्याप्त अध्धयन, चिंतन और परिश्रम किये। पारसी थियेटर से उसकी रंगमंचीयता, रंग-साधनों का उपयोग, गीत-योजना आदि उन्होंने लिए। भारतेंदु से उनकी सामाजिक और राष्ट्रीयता की भावना के साथ पुनरुत्थान का दृढ़ संकल्प लिया। साथ ही साथ अपने पारिवारिक संस्कारों से पौराणिकता का आश्रय लिया। इन सब बातों को मिलाकर उन्होंने पारसी रंगमंच से भारतीय रंगमंच तक का विस्तृत वैभवशाली वितान स्थापित किया। नाट्यशास्त्र के सिद्धांतों को आत्मसात् करते हुए और उन्हें अपने नाटकों के युगानुकूल बनाते हुए पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अपने सृजन और निर्देशन से स्वयं को अमर कर लिया। तत्कालीन कालखंड में व्यवसायिक रंग मंडलियों में हिंदी का प्रयोग करके उन्होंने हिंदी को भी प्रतिष्ठित किया। हिंदी की प्रतिष्ठा में राधेश्याम जी का यह योगदान तो अत्यंत उल्लेखनीय कहा जाएगा। पंडित राधेश्याम कथावाचक का नाट्यचिंतन, नाट्यशिल्प, नाट्यमंचन और नाट्यभाषा, अपने अनेक आयामों में रंगमंच को उपकृत करते हैं। पारसी थियेटर को भारतीयता के चंदन संस्कारों से अभिरोचित कर, उसकी सुवास को जन-जन तक पहुँचाने में कथावाचक जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
संदर्भ :
- लक्ष्मीनारायण लाल, पारसी नाटक का रचना विधान, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृ. 60
- अशोक उपाध्याय, नाटककार पंडित राधेश्याम कथावाचक, पृ. 46
- श्री कृष्णदास, हमारी नाट्य परंपरा, पृ. 40
- डॉ. अशोक उपाध्याय, नाटककार पंडित राधेश्याम कथावाचक, पृ. 58
- पंडित राधेश्याम कथावाचक, मेरा नाटक काल, पृ. 43
- डॉ. अशोक उपाध्याय, नाटककार पंडित राधेश्याम कथावाचक, पृ. 62
- पंडित राधेश्याम कथावाचक, वीर अभिमन्यु, पृ. 2
- वही, मेरा नाटक काल, पृ. 303-304
- वही, श्रवण कुमार, पृ. ‘क’
- मेरा नाटक काल, पृ. 303
- वही, पृ. 304
- साहित्य संदेश, जुलाई-अगस्त 1955, पृ. 99
- मेरा नाटक काल, पृ. 155
- वही, पृ. 172
- वही, पृ. 55 56
- वीर अभिमन्यु, पृ. 5
- कृष्णावतार, पृ. 3 4
- डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, पारसी नाटक का रचना विधान, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृ. 65
डॉ. नितिन सेठी, सी-231, शाहदाना कॉलोनी, बरेली (243005)
9027422306, drnitinsethi24@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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