शोध आलेख : मेहरुन्निसा परवेज़ की दृष्टि में बाँछड़ा जाति की युवतियाँ / डॉ. दिनेश पाल
शोध सार : मंदसौर और रतलाम जिले की ‘बाँछड़ा’ जाति में वेश्यावृत्ति ने कब रिवाज व
परम्परा का रूप धारण कर लिया, वे समझ ही नहीं पाए। मशहूर कथाकार पद्मश्री
मेहरुन्निसा परवेज़ ने अपनी कहानी ‘ओढ़ना’ तथा ‘खेलावड़ी’ एवं सर्वेक्षण रिपोर्ट ‘हथेली में छाला पड़ गया मारूजी’ में बाँछड़ा जाति में व्याप्त
वेश्यावृत्ति को बारीकी से उकेरा है। बाँछड़ा जाति के लोग इस कुरीति की गिरफ्त में
इस कदर फंसे हैं कि अपनी बेटी को धंधे पर बैठाकर उसकी कमाई से उत्सव मनाते हैं और
भोज-भात करते हैं। उनकी फूल-सी बच्ची एक बंद कमरे में किसी वहसी के हाथों का
खिलौना बन सिसक रही होती है और बाहर उसके परिवार के लोग मदमस्त होकर नाच गा रहे
होते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि बेटियों को धंधा में ढकेलने वाला यही समाज
बहुओं को परदे में रखता है। भत्तावड़ी बनने की चाह रखने वाली बेटियों को भी यह समाज
खेलावड़ी बना डालता है।
बीज शब्द : बाँछड़ा, वेश्यावृत्ति, धंधा, आदिवासी, देह-व्यापार
मूल आलेख : आचार्य महावीर प्रसाद ‘द्विवेदी’ के शब्दों में ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’ समाज की विविधता को हम साहित्य के माध्यम से पूरी सहृदयता के साथ बारीकी से देख सकते हैं। साहित्यकार अपने आसपास के समाज को अपनी रचनाओं में बड़ी ही संजीदगी के साथ अभिव्यक्त करता है। प्रसिद्ध महिला कथाकार पद्मश्री मेहरुन्निसा परवेज़ के कथा-साहित्य को पढ़ते हुए, उनकी संवेदनशीलता और बारीकी को बखूबी देखा जा सकता है। उनके कथा-साहित्य पर तत्कालीन परिस्थिति एवं परिवेश की गहरी छाप देखने को मिलती है। लेखिका ने समाज को घूम-घूम कर अपनी आँखों से देखा है और मंथन किया है तब कहीं अपनी लेखनी को चलाया है, इसलिए इनकी कथा में कल्पना की अपेक्षा यथार्थ बहुत ज्यादा देखने को मिलता है। इनके सभी पात्र जीवंत मालूम होते हैं क्योंकि किसी भी पात्र को उसके समाज से ही उठाया है।
पद्मश्री मेहरुन्निसा परवेज जी ने अपने कथा-साहित्य
में प्रमुख रूप से आधुनिक संस्कृति से वंचित आदिवासी जीवन और निम्न मध्यवर्गीय
मुस्लिम परिवार की महिलाओं की त्रासदी को अभिव्यक्त किया है। लेखिका ने समाज में
व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वास,
जादू-टोना एवं
स्त्री-शोषण की समस्या को अपनी लेखनी से सिर्फ चित्रित ही नहीं किया है बल्कि समाज
में चेतना जागृत कर सुधारने की भी कोशिश की है। लेखिका ने ‘बाँछड़ा’ जाति में व्याप्त वेश्यावृत्ति को खत्म
करने के लिए अथक प्रयास किया। उनकी समस्या को साहित्य में चित्रित कर हम पाठकों के
समक्ष तो लायी हीं, साथ
हीं तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार को भी अपने सर्वेक्षण रिपोर्ट से भी अवगत करवाती है। ‘बाँछड़ा’ जाति की वेश्यावृत्ति समस्या
मध्यप्रदेश विधानसभा में भी बहस का मुद्दा बना। विधानसभा में यह मामला संभवतः
विधायक यशपाल सिंह सिसोदिया द्वारा उठाया गया था।
बाँछड़ा’ जाति मुख्य रूप से मध्यप्रदेश के
मंदसौर और रतलाम जिलों में पाई जाती है,
जो
राजस्थान का सीमावर्ती इलाका है। इस जाति के लोग अपना पेट पालने के लिए शुरूआत में
मालवा इलाके में नट-नाटक-नौटंकी का काम किया करते थे। ये अपने नाटक और संगीत को
लेकर मध्यप्रदेश, राजस्थान,
छत्तीसगढ़ आदि
राज्यों तक जाया करते थे। इन्होंने बड़े-बड़े हवेली व जमींदारों के यहाँ नृत्य-संगीत
करते-करते देह-व्यापार में दस्तक दे दी।
मेहरुन्निसा परवेज़ जी ने अपनी ‘ओढ़ना’ तथा ‘खेलावड़ी’ कहानी में बाँछड़ा जाति के जीवन व
जीविका को विस्तृत रूप से रेखांकित किया है। इनके द्वारा बाँछड़ा जाति पर ‘हथेली में छाला पड़ गया मारुजी’ शीर्षक से किया गया सर्वेक्षण रोंगटे
खड़ा कर देता है। इस जाति वालों की संस्कृति का अहम हिस्सा बन गया है कि अपनी
लड़कियों में से किसी एक को अनिवार्य रूप से देह व्यापार कराते हैं, भले ही उस लड़की का मन न हो, जबकि बहुओं को पर्दे में रखते हैं।
अमृतलाल नागर लिखते हैं कि, “स्त्री यदि स्वयं अपने पति से ही
वेश्या बनने का प्रस्ताव सुने तो फिर उसका आत्मविश्वास चूर-चूर हुए बिना नहीं रह
सकता।”1
लेकिन कई बार ऐसा देखा जाता है कि पति खुद पत्नी के लिए ग्राहक खोजकर लाता है।
आदिवासी जंगल में कंद-मूल तथा फल-फूल खाकर जी लेते थे, लेकिन कोई भी अनैतिक काम नहीं करते थे।
वेश्यावृत्ति आदिवासी समाज का तो बिल्कुल हिस्सा नहीं था, लेकिन बाहरी व्यापारियों के आदिवासी
समाज में प्रवेश करने के बाद यह धड़ल्ले से शुरू हो गया। डा॰ छाया चैकसे, संजीव के ‘धार’ उपन्यास की नायिका ‘मैना’ के हवाले से लिखती हैं कि, “खेत-खार, पेड़, रूख, कुँआ, तालाब हम और हमारा बाल-बच्चा तक आज
तेजाब में गल रहा है, भूख
में जल रहा है। पहले हम चोरी का चीज नहीं जानता था, भीख कभी नहीं माँगा............इज्जत
कभी नहीं बेचा, आज
हम सब करता है।’’2 भले
ही कभी भुखमरी व मजबूरी में शुरू हुआ हो लेकिन “धीरे-धीरे वेश्यावृत्ति कुछ आदिवासी
जातियों में परम्परा का रूप ले चुकी है। बाँछड़ा जाति में माता-पिता अपनी किसी एक
बेटी को जो ज्यादा सुंदर होती है, उसे अनिवार्य रूप से इस दलदल में ढकेलते हैं और
उसकी कमाई से खुद बैठकर खाते हैं। विडम्बना की बात यह है कि जिस दिन लड़की पहली बार
ग्राहक के साथ यौन-संबंध बनाती है, उस दिन उसके माता-पिता अपनी जाति वालों को भोज
देते हैं और खुशियाँ मनाते हैं।”3
मेहरुन्निसा परवेज़ जी अपने सर्वेक्षण
रिपोर्ट में विस्तार से ‘कुवांर तोड़ाई’ पर लिखती हैं, कि बाँछड़ा जाति के लोग “जिस दिन लड़की को धंधे पर बैठाते हैं,
उस दिन घर में
एक जश्न मनाया जाता है। शराब, मुर्गा, बकरा आदि खाया पिया जाता है। लड़की को
सजाया-संवारा जाता है, फिर
पहले से तयशुदा ग्राहक के हाथों सौंपा जाता है। सौंपने का नेग बड़ी बहन या बुआ आदि,
जो पहले से इस
काम में होती है, करती
है। पहले दिन तथा इसके बाद के कुछ और दिन लड़की बड़ी बहन या बुआ के कमरे से ही धंधा
करती है। बाद में उसके लिए नया कमरा दूसरे कमरों के बगल में बना दिया जाता है। इस
दिन लड़की को नई साड़ी आदि पहनायी जाती है। उस दिन का घर में होने वाला सारा खर्च
आने वाला ग्राहक देता है।”4 16 सितम्बर, 2011 को एक ‘रिवाज़’ नामक फिल्म रिलीज़ हुई, जिसके निर्देशक तथा निर्माता अशोक
कुमार नंदा हैं। इस फिल्म की कहानी भी ‘बाँछड़ी’ जाति जैसी ही है। यहाँ भी वैसा ही
रिवाज है। लड़की के अठारह साल होने पर उसके माता-पिता किसी ग्राहक को कौमार्य भंग
करने के लिए सौंपते हैं और ग्राहक से मोटी रकम लेकर अपने समाज वालों को भोज देते
हैं। उसके बाद से लड़की धंधा करने लगती है और उसकी कमाई पर माँ-बाप आराम से बैठकर
खाते हैं। जवानी ढलने के बाद उसकी शादी कर देते हैं। शादी के बाद वो धंधे पर बैठना
छोड़कर घर-गृहस्थी बसाती है। लड़की की इच्छा हो या न हो, घर-परिवार-समाज वाले उसे परम्परा व
रिवाज की दुहाई देकर जबरी धंधे में ढकेल देते हैं। ‘ओढ़ना’ कहानी की मुख्य पात्र ‘रानी’ वेश्या नहीं बनना चाहती, परन्तु उसे अपने परिवार वालों की वजह
से मजबूरी में यह काम करना पड़ता है। वह कहती है, “बुआ, बाबा से कह दो न मैं इस धंधे पर नहीं
बैठूँगी। मुझे यह सब पसंद नहीं हैं।’’5 लेकिन अनारोबुआ उसे समझाती हैं, “अरी, रोती क्यों हैं? डाल लो ओढ़ना। पहली बार और अन्तिम बार,
फिर तोराम-कसम
जिन्दगी भर का यह झंझट छूट जाएगा। तू, हम धंधों वाली की बिरादरी में आ जाएगी। घूंघट
करना, सिर
ढकना, यह
सब तो बहुओं का काम है। आज से तो तू इस घर की मालकिन हो जायेगी, सबको पालने वाली मुखिया तू देवी माँ की
तरह सबका कल्याण करेगी।’’6
‘खेलावड़ी’ कहानी में ‘लालमणि’ के माता-पिता उसे इस दलदल में नहीं फँसाना
चाहते थे, लेकिन
विपत्ति में पैसे की ख़ातिर उसे मामा-मामी को गोद देते हैं और मामा-मामी उसे
वेश्या बनाकर उसकी कमाई खाते हैं। “एक बूढ़ी खेलावड़ी बाँछड़ी ने उसके सिर पर
आशीर्वाद के रूप में हाथ रखकर जोर से घोषणा की- ‘आज से फूलमती, गोत्र भरतावस को खेलावड़ी का अधिकार
दिया जाता है। आज से उसका रूप देवी का होगी तथा उसे खेलावड़ी लालमणि कहकर पुकारा
जाएगा। देवी के रूप में वह अपने वंश तथा कुल की रक्षा करेगी।’’7 विधिवत उसे प्रतिस्थापित किया गया,
जैसे कि
राज्याभिषेक हुआ हो। देवदासी प्रथा की तरह यहाँ भी धार्मिक व दैवीय परिकल्पना से
जोड़ दिया जाता है। “उसे
अपने खेलावड़ी के जन्म पर प्रसन्नता नहीं हो रही थी। वह तो भत्तावड़ी थी, भत्तावड़ी-यानी पतिवाली। खेलावड़ी-यानी
धंधेवाली।’’8
वरिष्ठ खेलावड़ी उसे समझाते हुई बोली- “कज्जा (ग्राहक) का सब देखना, उसका मुख मत देखना। कज्जा का मुख याद
रखना खेलावड़ी का काम नहीं है। वह हमारा कोई नहीं, वह तो बस कज्जा है। आदमी की प्रीत बुरी
होती है। खेलावड़ी का प्रीत और रीत से कोई लेना-देना नहीं, समझी।’’9
मेहरुन्निसा जी सर्वेक्षण के दौरान
धंधारत ‘कस्तूरीबाई’
से पूछा कि ‘तुम्हें दुख नहीं होता, सब बहनों की शादी हो गयी और तुम्हारी
नहीं हुई। माँ-बाप के द्वारा यह बेइंसाफी कैसी लगती है?’ तो उसने बहुत ही दुःखी मन से जवाब
दिया- “भाग्य
का खेल है। जन्म देने वालों ने ही खुद हमें आग पर बैठा दिया तो शिकायत किससे करें?
हमारी जात में
ऐसा ही होता है। घर में बचपन से ही सब देखते रहते हैं, तो बुरा नहीं लगता। आदत-सी पड़ गयी है।
ऊपर वाले ने ही हमारे हाथ में यह रेखा बना दी है तो अपना दुखड़ा किससे कहें।”10 लड़कियाँ इसे अपने संस्कृति का हिस्सा
व जीवन की नियति समझ पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने को मजबूर हैं। बाँछड़ा जाति के कुछ
चिंतनशील व जागरूक युवा इस कुप्रथा को मिटाना चाहते भी हैं लेकिन यह समाज में कोढ़
का रूप ले चुका है, आसानी
से समाप्त नहीं होने वाला। लेखिका लिखती हैं कि उन लड़कियों के साथ बातचीत करके
अपनी गाड़ी की ओर लौटने लगी तभी भागते हुए एक नौजवान लड़का आया और कहने लगा,
“हुजूर माई-बाप
आप हमारे इस गंदे गाँव में क्यों आये? आये हो तो आप इन नन्हीं बच्चियों को ले जाओ,
वरना बड़ी होने
पर ये कसाई इनका माँस भी तौल-तौल कर बेचेंगे, इनको शर्म भी नहीं है, कुछ काम नहीं करते, बैठ कर खाते हैं, बेटी से धंधा कराते हैं और उसी की कमाई
खाते हैं, शराब
पीते हैं।”11
इतना कहकर वह रोने लगा।
ऐसा नहीं है कि वेश्यावृत्ति सिर्फ
बाँछड़ा जाति में ही व्याप्त है। देह व्यापार तो पूरे विश्व में पुरातन समय से चलता
आ रहा है। बड़े-बड़े शहरों में देह-व्यापार का धंधा धड़ल्ले से चल रहा है। सारे
नियम-कानून बस फाइलों में पड़े हैं। गीताश्री कहती हैं कि, “अनुमानतः देश (भारत) में तकरीबन एक
करोड़ सेक्स वर्कर हैं, जिनमें
से तीस प्रतिशत नाबालिग हैं।”12 यह बेहद दुःखद स्थिति है कि आजादी के सात दशक
बाद भी तमाम स्त्रियाँ देह-व्यापार को मजबूर हैं। ’’गुजरात के बनासकांठा जिले का वाडिया
गाँव यौनकर्मियों का गाँव के तौर पर बदनाम है। गुजरात का कोठा के नाम से पहचाने
जाने वाले इस गाँव ने पिछले 60 बरस में विकास के नाम पर सेक्स, शोषण एवं सरकार के दोहरे चरित्र के
अलावा कुछ नहीं देखा है।........... गाँव की ज्यादातर औरतों के लिए रोजमर्रा की
जिन्दगी का मतलब खाना, सोना
और अपने ग्राहकों की खातिरदारी करना होता है। 14-14 साल की लड़कियों का गर्भवती होना यहाँ
सामान्य माना जाता है।’’13 कई बार ऐसा होता है कि सरकारी लोग आदिवासी
क्षेत्र में पदभार ग्रहण करते हैं तो वहाँ की युवतियों को प्रेम का स्वांग रचकर
रखैल बना लेते हैं। मेहरुन्निसा परवेज़ ’कोरजा’ उपन्यास में इसकी चर्चा करते हुए लिखती हैं,
“यह कलेक्टर का
आर्डर था। इसलिए नौकरी के डर से सबने इस आर्डर को मान लिया और जिनका इन आदिवासी
लड़कियों से संबंध था, उन्होंने
चुपचाप शादी कर ली-चाहे वह कुँआरे हों, चाहे शादीशुदा, चाहे छः बच्चों का बाप हों, चाहे निपूते। जब उनका यहाँ से ट्रांसफर
हुआ तो क्या वे इन लड़कियों को साथ ले गए? नहीं, और वह आधी शहर की आधी गाँव की होकर रह गईं।’’14
‘रामशरण जोशी’
प्रश्न करते हुए
लिखते हैं कि, “क्या
यह सोचने की जरूरत नहीं है? क्यों आदिवासी युवतियों को चलताऊ रखैल, बेगार, यौनकर्मी के रूप में रखा जाता है?’’15 बिल्कुल यह झकझोरने वाला प्रश्न है।
21 अक्टूबर, 2015 को बातचीत के दौरान श्रीमती
मेहरुन्निसा परवेज़ ने बड़े भारी मन से कहा कि, “आज भी वही स्थिति है, और इसके लिए मुझे बहुत दुःख है कि कोई
सफलता नहीं मिल पाई। हालांकि मैंने लिखा और 25-26 लड़कियों को हमने वहाँ से निकाला भी,
छोटी-छोटी सी
थीं। मैंने लाकर वहाँ से जावड़ा के आदिवासी हॉस्टल में रखवा भी दिया था, उसमें एक लड़की स्नातक तक पढ़ी और मैंने
उसकी सर्विस करवा दिया था, फिर शादी कर ली, उसके बच्चे भी हैं। बाकी को तो ये लोग
त्योहारों के बहाने ले जाते हैं और फिर लौटाते नहीं हैं। इस बात का मुझे बहुत दुःख
है और मैं आज भी करना चाहती हूँ।”16
निष्कर्षतः हम देख सकते हैं कि
पद्मश्री मेहरुन्निसा परवेज़ जी ‘बाँछड़ा’ जाति के बीच व्याप्त वेश्यावृत्ति को
लेकर कितना चिंतित हैं। उन्होंने ‘ओढ़ना’ तथा ‘खेलावड़ी’ कहानी के साथ-साथ एक सर्वेक्षण रिपोर्ट
भी प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं वहाँ से कई नाबालिग बच्चियों को छात्रावास में
लाकर रखा ताकि उस दलदल से बाहर निकलकर बेहतर जीवन जी सकें। अफसोस, वे अपने प्रयास में सफल नहीं हो सकीं,
जिसका आज भी
उन्हें मलाल है। वेश्यावृत्ति इस देश के लिए बहुत ही कलंकित समस्या है। देश के कई
कोना में फल-फूल रहा है। जब तक सरकार सक्रियता के साथ बेहतर शिक्षा एवं रोजगार
मुहैया कराकर सख्ती से कानून के तहत इस पर प्रंतिबंध नहीं लगाएगी, तब तक यह समाप्त नहीं होने वाला है।
लाखों-करोड़ों लड़कियाँ इसी तरह वहसी पुरुषों के हाथ का खिलौना बनती रहेंगी और तमाम
प्रकार के बीमारियों का शिकार होती रहेंगी। यह सिर्फ नारी के लिए नहीं बल्कि पूरे
मानव समाज के लिए शर्मनाक त्रासदी है। विडम्बना ही है कि वेश्यावृत्ति की डोर
खींचने वाले पुरुषों के लिए वेश्या जैसा कोई सटीक शब्द इजाद नहीं हुआ है, जबकि वेश्यावृत्ति में उनका (ग्राहक का)
भी उतना ही योगदान है।
संदर्भ :
1. अमृतलाल नागर, ये कोठेवालियाँ, लोकभारती प्रकाशन पेपरबैक्स, इलाहाबाद, संस्करण 2016, पृ॰ सं॰ 39
2. शिवाजी देवरे एवं मधु खराटे, समकालीन हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी
विमर्श, विद्या
प्रकाशन कानपुर, संस्करण 2016, पृ॰ सं॰ 117
3. दिनेश पाल, मेहरुन्निसा परवेज़ का कथा साहित्य:
आदिवासी एवं मुस्लिम स्त्री, विकास
प्रकाशन, कानपुर, संस्करण 2020, पृ॰ सं॰ 173
4. मनोहर नलावड़े, मेहरुन्निसा परवेज़ का कथा साहित्य,
चन्द्रलोक
प्रकाशन, कानपुर,
संस्करण 2008,
पृ॰ सं॰ 223
5. मेहरुन्निसा परवेज़: सोने का बेसर, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1991, पृ॰ सं॰ 64
6. वही, पृ॰
सं॰ 64
7. मेहरुन्निसा परवेज़ : समर, ग्रंथ अकादमी, नई दिल्ली, संस्करण 2011, पृ॰ सं॰ 93
8.
वही,
पृ॰ सं॰ 94
9. वही, पृ॰
सं॰ 94
10. मनोहर नलावड़े : मेहरुन्निसा परवेज़ का कथा साहित्य, पृ॰ सं॰ 225
11. वही, पृ॰
सं॰ 227
12. गीताश्री : औरत की बोली, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृ॰ सं॰ 43
13.
जनार्दन,
रविकुमार गोंड़
एवं राकुश कुमार सिंह : आदिवासी: साहित्य, समाज और
संस्कृति, अनंग प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2017, पृ॰ सं॰ 11-12
14. मेहरुन्निसा परवेज़ : कोरजा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2011, पृ॰ सं॰ 106- 107
15. रामशरण जोशी, यादों
का लाल गलियारा दंतेवाड़ा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
संस्करण 2015, पृ॰ सं॰ 80
16. दिनेश पाल : मेहरुन्निसा परवेज़ का कथा साहित्य: आदिवासी एवं मुस्लिम स्त्री, पृ॰
सं॰ 226
डॉ. दिनेश पाल, सहायक प्राध्यापक (हिन्दी), जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा
8249225373, dinesh.dinesh.pal@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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