अध्यापकी के अनुभव : बहानों से परे सृजन के रास्ते / डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
(राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय मनोहरगढ़ (प्रतापगढ़, राजस्थान) में अगस्त 2018 से जुलाई 2019 तक)
सन् 2013 में पी-एच. डी. करने हेतु मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय,
उदयपुर गया था। वहाँ अक्सर सोशल मीडिया और विभिन्न समाचार पत्रों में सरकारी स्कूलों के ‘नकारेपन' से जुड़ी खबरें पढ़ता और इच्छा होती कि अगर मैं शिक्षक बन गया तो अपने क्षेत्र में बहुत कुछ करने का प्रयास करूंगा। सुधार करने के सपनें देखते वक्त अक्सर हिंदी फिल्मों के हीरो की तरह अपने आप को देखता। शिक्षक बनने का सपना 27 अगस्त, 2018 को पूरा हुआ। जॉइनिंग के लिए प्रतापगढ़ जिले के मनोहरगढ़ गांव के स्कूल में एक दिन पहले ही पहुंच गया। उसका कैंपस देखकर मैंने पिताजी को कहा कि यह स्कूल हमारी हो ही नहीं सकती। हालांकि बोर्ड पर स्पष्ट अक्षरों में लिखा हुआ था, ‘राजकीय
आदर्श उच्च माध्यमिक विद्यालय, मनोहरगढ़।' गाड़ी मोड़ कर पिताजी और मैं 3 किलोमीटर दूर विपरीत दिशा में चले गए। पर जब एक परिचित को फोन लगाया तब उसने इसकी पुष्टि की कि ये वही स्कूल है जहाँ पर मुझे ज्वाइन करना है। यह सुनकर मैं दंग रह गया। अक्सर उच्च माध्यमिक विद्यालय की बिल्डिंग बड़ी हुआ करती है, यह स्कूल तो मिडिल स्कूल के बराबर भी नहीं था। सुबह ज्वाइन किया तब मेरा सारा उत्साह फीका पड़ गया। इसके पीछे मुख्य कारण यह रहा कि एक तो प्राइमरी स्कूल के बराबर का छोटा केंपस, ऊपर से 684 विद्यार्थियों का नामांकन। कुल जमा सात कमरें। एक प्रिंसिपल साहब का कमरा, दूसरा ऑफिस कार्य का। पीछे बचे पाँच कमरे। इसमें चलता है सात सौ के लगभग विद्यार्थियों का राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय।
बारहवीं कक्षा का रजिस्टर देखा तो 64 विद्यार्थियों के नाम लिखे हुए थे। शिक्षा मनोविज्ञान और सरकारी नियम के तहत चालीस विद्यार्थी एक कक्षा में होने चाहिए, पर जमीनी हकीकत मेरे सामने थी। जैसे तैसे कक्षा 12 के क्लास रूम में पहुंचा तो माथा ठोक लिया। कमरा पाँचवी कक्षा के विद्यार्थियों के लिए बना था। बहुत सकड़ाई में 30 टेबल लगी थी। किसी तरह से 50-55 बच्चे बैठे हुए थे। शिक्षक के सम्मान में खड़े हुए तो वापस बैठने में बड़ी परेशानी आई। कुछ बच्चे नीचे गैलरी में भी बैठे हुए थे तो कुछ शिक्षक के पास छूटी हुई जगह में। इतनी तंग जगह में भी विद्यार्थियों को सहज रूप में बैठा देखकर मुझे ईश्वर नहीं, बल्कि ‘समाजवाद’ याद आ गया।
टपकती छत और टूटी हुई खिड़कियों से आते बरसाती पानी के बीच परसाई का निबंध ‘संस्कारों और शास्त्रों की लड़ाई' निबंध पढ़ाने लगा। क्लास रूम के दाहिनी तरफ देखा तो पानी पीने के लिए सिर्फ एक हैंडपंप और पेशाब घर के नाम पर सिर्फ दो जनों के एक साथ जाने की व्यवस्था,जो कि स्टाफ और विद्यार्थी दोनों के साँझा उपयोग के लिए थी। बालिकाओं के लिए और भी बुरी स्थिति। केवल दो जनों के लिए एक बिना छत, बिना ऊंची दीवार का बाथरूम। सफाई की बात करना मूर्खता है। सारी सरकारी योजनाएँ, मनोवैज्ञानिक पैमाना और नेताओं के दावे आँखों के सामने घूमने लगे। मुझे खुद को भी अपनी पुरानी सोच को लेकर शर्मिंदगी का अहसास हुआ। दूरदराज के क्षेत्रों में सरकारी विद्यालय कितनी दयनीय हालत में है और शिक्षक कितनी चुनौतियों में विद्यार्थियों को पढ़ाने का प्रयास कर रहा है।
लगभग 98% विद्यार्थी आदिवासी मीणा समुदाय के थे। उनकी शक्ल देखकर कहीं से भी नहीं लग रहा था कि इनमें कोई तेज बाकी है। संसाधन विहीन और संख्या से भरे हुए इस स्कूल में किस तरह से निभाह होगा? यह प्रश्न पहले ही दिन दिमाग में घूमने लगा। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह विद्यालय जिला मुख्यालय से मात्र पाँच किलोमीटर दूर था। हालांकि अब यह विद्यालय अपनी नई बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया है और वहां पर पीने के पानी, शौचालय की कमी कुछ हद तक दूर हो गई है, पर कमरों की समस्या अभी भी जस की तस है। शौचालय पर्याप्त मात्रा में न होने के कारण अभी भी कई विद्यार्थी समय बचाने के लिए खुले में जाने के लिए मजबूर हैं।
खैर! समस्याएं अपनी जगह, पर मुझे तो अपना काम करना था। हमारे देश के अधिकतर सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों को बंद कमरे में केवल ‘रटाऊ शिक्षा’ देना एक नियम सा बन गया है। कोई नवाचार ज्यादा समय तक देखने को नहीं मिलता है। सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि नवाचार करने वाले शिक्षक या तो लंबे समय तक अपने काम को बरकरार नहीं रख सकते या फिर संसाधनों का रोना रोने लग जाते हैं। उत्साही शिक्षकों को हतोत्साहित करने वाले शिक्षकों की भी कमी नहीं है। कई वर्षों से एक ही विद्यालय में जड़ के समान ठहरे शिक्षक और भी बड़ी चुनौती के रूप में सामने आते हैं जो यह मानते हैं कि इनका कुछ नहीं हो सकता। ऐसे शिक्षक मनोहर गढ़ में भी मिले।
बालकों के बीच पहला प्रयोग कक्षा 11 और 12 के विद्यार्थियों के लिए उनके विषय से जुड़े हुए पाठ्यक्रम के बहुविकल्पात्मक पेपर द्वारा उनकी मानसिक योग्यता परखने के रूप में था। इस कोशिश में भी कोई विशेष सफलता नहीं मिल पाई क्योंकि उन कक्षाओं के कई विद्यार्थी किताब पढ़ नहीं सकते थे। उनको पेपर पढ़ने में भी कठिनाई का महसूस हुई। समझ में नहीं आया कि अब इन्हें प्रेमचंद- हरिशंकर परसाई की प्रगतिशीलता पढ़ाऊँ, कबीर- जायसी का रहस्यवाद पढ़ाऊँ या फिर पहले किताब पढ़ना सिखाऊँ?
खैर तीन-चार सप्ताह के उपचारात्मक शिक्षण के प्रयोग से कुछ विद्यार्थियों में पाठ पढ़ने का आत्मविश्वास पैदा कर पाया। इसके बावजूद यह कहूँ कि कई विद्यार्थी फिर भी किताब पढ़ना नहीं सीख पाए तो यह एक सच्चाई समझी जाएँ।
एक रोज अचानक मेरी नजर स्कूल के बरामदे में बैठी कक्षा 6 के ब्लैक बोर्ड पर पड़ी। कुछ लड़कियाँ उस पर चॉक से बहुत ही सुंदर रंगोली बना रही थी। जैसे ही मैं पास पहुँचा, वे भाग खड़ी हुई। सातवीं कक्षा में बैठे शिक्षक ने उनको डांटते हुए ब्लैक बोर्ड को साफ करना चाहा, पर मैंने रोक दिया। पास में जाकर रंगोली को बड़े ध्यान से देखा तो पता चला कि इन नन्हे बच्चों ने बहुत खूबसूरत कार्य किया है। रंगोली को देखते हुए विचार आया कि क्यों न सभी विद्यार्थियों के लिए चित्रकारी प्रतियोगिता करवाई जाए। संस्था प्रधान के सामने बात रखी तो उन्होंने कहा,“डायर साहब! साढ़े छ: सौ बच्चों के बीच में ऐसी प्रतियोगिता करवाना बहुत मुश्किल है, आप बड़ी क्लासों को इसमें शामिल कर सकते हैं।” उनका कहना भी ठीक था। कक्षा 11 और 12 के विद्यार्थियों को इस प्रतियोगिता में शामिल करके उनके हुनर को परखना चाहा। विद्यार्थियों का समय उनके अध्ययन के लिए ही खर्च हो, इसका विशेष ध्यान रखते हुए प्रतियोगिता में शामिल होने वाले विद्यार्थियों को हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकारों के चित्र बनाने के लिए कहा। पोस्टर और कलर जब इन बच्चों के हाथ में आए तो उन्होंने इतनी बेहतरीन चित्रकारी की कि इसकी प्रशंसा विद्यालय में औचक निरीक्षण के दौरान आए अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने भी की। विद्यार्थियों और आसपास के परिजनों ने यह जानकारी दी कि स्कूल के इतिहास में पहली बार ऐसी प्रतियोगिता हुई है। यहाँ तक कि कई बच्चों ने अपने हाथों में पहली बार स्केच कलर लिया था। कक्षा 12 की छात्रा शांताकुमारी द्वारा निर्मित मुंशी प्रेमचंद का ब्लैक एंड वाइट चित्र सबसे खूबसूरत रहा, वहीं दूसरा स्थान कक्षा 11 के छात्र अनिल कुमार द्वारा बनाया गया मुंशी प्रेमचंद के रंगीन चित्र का रहा। भीलवाडा कॉलेज में प्रोफ़ेसर और मेरे मार्गदर्शक डॉ मनीष रंजन ने मुंशी प्रेमचंद के रंगीन फोटो को देखकर बहुत तारीफ की। इस प्रतियोगिता ने जहां बच्चों के हुनर को सामने लाने का प्रयास किया, वहीं विद्यार्थियों और मेरे बीच जो एक दूरी थी, उसे भी खत्म किया था। अब बालक मुझसे सहज रूप से मिल सकते थे और अपनी बात कह सकते थे।
इसी सहजता का फायदा उठाते हुए कक्षा 11 के बालकों ने एक बार भगत सिंह के विषय में चर्चा शुरू की।
उनकी समस्याओं और शंकाओं को दूर करने का प्रयास किया, पर असफल रहा। दिल में ख़याल आया कि क्यों न भगत सिंह से जुड़ी डॉक्यूमेंट्री इनको दिखाई जाए। पर आईसीटी लैब कहाँ और अगर आईसीटी सामग्री होगी तो भी तो इन छोटे-छोटे कमरों में लगाया कैसे जाए? चूंकि बच्चों की जिज्ञासा शांत करना जरूरी था, इसलिए अपने लैपटॉप द्वारा भगत सिंह की डॉक्यूमेंट्री ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ दिखाकर भगत सिंह के विचारों से रूबरू करवाया। यह कार्य भी स्कूल के इतिहास में पहली बार हुआ। हमारे शिक्षक साथी सत्यनारायण जी बहुत खुश हुए क्योंकि उन्होंने मुझे बताया कि स्कूल की कई छात्राओं ने इस आधुनिकता के युग में भी कभी भी टीवी तक नहीं देखी है। मेरे लिए यह चौंकाने वाली बात थी क्योंकि जहां हम डिजिटल इंडिया और संचार क्रांति की बात करते हैं, वहीं आदिवासी क्षेत्र में रहने वाले विद्यार्थी इस क्रांति से आज भी दूर है। विशेषकर लड़कियों को अपने पूरे शैक्षिक जीवन में ऐसे किसी माध्यम के पास भटकने तक नहीं दिया जाता। मोबाइल का दौर केवल वयस्कों के लिए आया, अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा। विशेषकर ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्र की बालिकाएं आज भी इस सुविधा से दूर है। लोगों को शक है कि लड़कियाँ मोबाइल से बिगड़ जाती है इसीलिए उन्हें उससे दूर रखना बहुत जरूरी है। समाज का यह तबका बंदिशे सिर्फ लड़कियों के लिए ही रखना चाहता है। शंका और बंदिशे लड़कों पर क्यों नहीं है? पर यह सवाल करे किससे?
इस डॉक्यूमेंट्री के बाद तो हमारा लैपटॉप ही इन बच्चों के लिए आईसीटी लेब बन गया। शिक्षा जगत से जुड़े बड़े-बड़े विद्वानों के व्याख्यान, विविध डॉक्यूमेंट्री,
नए प्रयोग, कई हिंदी फ़िल्में विद्यार्थियों के साथ बैठकर देखी और विद्यार्थियों के साथ- साथ अपना भी ज्ञान वर्धन किया।
आदिवासी अंचल अपनी लोक संस्कृति के लिए विशेष तौर से जाना जाता है। पर यह हमारा दुर्भाग्य है कि विद्यालयों में उनके लोक नृत्य को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता। ठीक इसी तरह से गैर आदिवासी क्षेत्रों के विद्यालयों में भी यह देखने को मिलता है। पाश्चात्य संगीत और नृत्य का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि आंचलिक लोक कलाएँ हाशिए पर जा रही है। यह मनोहरगढ़ के कुछ विद्यार्थियों में भी देखने को मिला। राजस्थान सरकार ने जब बाल सभा आयोजित करने का आदेश जारी किया तो पहले शनिवार को हुए कार्यक्रम में कुछ विद्यार्थियों द्वारा फूहड़ नृत्य प्रस्तुत किया गया जिसे थोड़ी ही देर बाद रुकवा दिया गया। यह कार्य विद्यालय के शिक्षकों को भी कुछ विशेष रुचिकर नहीं लगा। पर सरकारी आदेश था कि बाल सभा आयोजित करना आवश्यक है। मैं भी तो अपनी शेखी बघारने के लिए अवसर ढूंढ रहा था। एक नया तोड़ निकाला, वह था आंचलिक लोकगीत और लोकनृत्य। अपने इस नए प्रयोग को आकार कैसे दूँ, कौनसे विद्यार्थियों को इस कार्य के लिए चयनित करूं आदि प्रश्न अगले शनिवार तक दिमाग में घूमते रहे। फिर कुछ सोच कर यह तय किया कि विद्यालय का लाउडस्पीकर लगाकर सभी को सामूहिक नृत्य क्यों न कराया जाए। मेरी यह राय विद्यालय के शिक्षक मोहनलाल जी मीणा को पसंद आई। जैसे ही विद्यार्थियों को इकट्ठा करके लाउडस्पीकर चलाया, स्कूल के लगभग सभी बच्चे एक साथ स्थानीय नृत्य करने लगे। नृत्य के दौरान सभी के कदम सुर-ताल के साथ ऐसे चल रहे थे जैसे कि इस कार्य में यह वर्षों से निष्णात हैं। और यह सत्य भी है कि परंपरागत नृत्य के मामले में ये आदिवासी बालक पीढ़ियों से पारंगत हैं। इसके बाद तो हर शनिवार का इंतजार किया जाने लगा। शनिवारीय बाल सभा में अलग-अलग टीमें बनाकर, अलग-अलग लोकगीत, लोक नृत्य और लोक कथाएँ प्रस्तुत करने का अवसर मंच पर दिया जाने लगा। इन सब का प्रभाव यह पड़ा कि आसपास रहने वाले परिजनों का विद्यालय के प्रति लगाव बढ़ गया। वे देख रहे थे कि हमारे बच्चे भी लोक कलाओं को जी रहे हैं और बेधड़क अपनी प्रस्तुति दे रहे हैं।
विद्यार्थियों के साथ जुड़ने की यह कला आगे बहुत काम आई। जहां मुझे कई नए प्रयोग करने का रास्ता सुलभ हुआ, वहीं कुछ ऐसे विद्यार्थी तैयार हो गए जो बालसभा, आईसीटी लैब, साप्ताहिक टेस्ट और चित्रकारी जैसी गतिविधियों में हमेशा आगे रहकर रूपरेखा तैयार करते। एक अध्यापक के लिए इससे बड़ी कोई बात नहीं हो सकती है कि उसके विद्यार्थी खुद अपने स्तर पर व्यवस्था का संचालन करने लग जाए और नए-नए प्रयोगों के लिए उत्साहित हो जाएँ। इन प्रयोगों में कई जटिलताएं सामने आई, कई अवरोध प्रस्तुत हुए, पर उनसे पार पा लिया। विद्यालय परिवार के सामूहिक प्रयास से शिक्षक जीवन के पहले वर्ष में कई प्रयोग किए जिनमें ज्यादातर असफल हुए, पर जो सफल हुए उन्हें लेकर के संतुष्टि है। असफल प्रयोगों ने सीखने का बहुत रास्ता सुझाया। अब स्कूल मेरे लिए प्रयोगशाला थी, मनोहरगढ़ प्रयोगशाला।
शिक्षा जगत् को आज कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है, इसके पीछे कुछ शिक्षकों द्वारा अपने पेशे के प्रति वास्तविक जुड़ाव न हो पाना माना जाता है। चुनौतियों से घबराने वाले शिक्षक भी इस मामले में काफी अवरोध बने हुए हैं। पर ऐसे शिक्षकों की संख्या बहुत थोड़ी है। ऐसे कई शिक्षक हैं जो देश के सुदूर अंचल में जा कर के अपने प्रयोग कर रहे हैं, बिना किसी चमक-दमक और बिना किसी शोर-शराबे के। संसाधनों का रोना रोना आसान है, व्यवस्था के नकारेपन को कोसना आसान है, पर इन सब के बीच रहते हुए सृजन का कार्य करना मुश्किल है। ऐसे मुश्किल कार्यों को अंजाम देकर आज भी लाखों शिक्षक देश के भविष्य को सँवारने में लगे हुए हैं, चुपचाप।
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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