शोध आलेख : दिल को झकझोरती तीसरी ताली / प्रियंका कुमारी गर्ग

                                      शोध आलेख : दिल को झकझोरती तीसरी ताली / प्रियंका कुमारी गर्ग 

शोध सार :

        प्रदीप सौरभ का उपन्यास 'तीसरी ताली' समाज में थर्ड जेंडर के विस्थापन का जीवंत आख्यान है। पत्रकार जीवन में मिले थर्ड जेंडर के अनुभवों को कहानी रूप में पढ़ना उनके वास्तविक जीवन से रूबरू कराता है। प्राकृतिक रूप से विपरीत लिंग में जन्मे बच्चों के प्रति परिवार और समाज का नजरिया उन्हें दूसरे लोक में धकेल देता है। कभी स्वार्थ अथवा मजबूरी के वशीभूत होकर भी कुछ लोग किन्नर बनना स्वीकार कर लेते हैं। समाज में सम्मान तलाशते थर्ड जेंडर अपने नियमों और रीति-रिवाजों के साथ समझौता करना पसंद नहीं करते। नाचने और गाने से इतर कुछ किन्नर आपराधिक कृत्यों में द्वारा समाज के प्रति लोगों के मन में भय को बढ़ावा दे रहे हैं, तो कुछ किन्नर अपने जीवट द्वारा सफलता की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। परंपरावादी और आधुनिकतावादी किन्नरों का विचार विमर्श उनकी प्रगतिशील सोच का परिचायक है। प्रस्तुत शोध-पत्र समाज में थर्ड जेंडर के जीवन, संघर्ष और विजय गाथा को समझने में सहायक सिद्ध होगा।

बीज शब्द : किन्नर, हिजड़ा, ट्रांसजेंडर, थर्ड जेंडर, एलजीबीटी, शोषण।

मूल आलेख :

        कमजोर वर्ग के प्रति सहानुभूति और सहयोग रखना समाज का दायित्व है। साहित्य समाज का प्रत्यक्ष सहयोग तो नहीं कर पाता, परंतु व्यक्ति की कार्यप्रणाली और मनोभावों का हृदयस्पर्शी चित्रण कर स्वानुभूति के माध्यम से समाज को उनके नजदीक ले जाता है। यही साहित्य का उद्देश्य एवं सफलता है। समय-समय पर हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श एवं आदिवासी विमर्श जैसे चिंतन ने उनके दर्द को प्रभावी रूप से अभिव्यक्ति प्रदान की है। हाल ही के वर्षों में किन्नर विमर्श का प्रारंभ समाज को एक ऐसे वर्ग के नजदीक ले गया है, जिसकी उपस्थिति मात्र व्यक्ति को असहज बना देती है। हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां प्रत्येक शुभ अवसर पर थर्ड जेंडर के आशीर्वाद को आवश्यक माना गया है। विडंबना तो यह है कि जो वर्ग अपने आशीर्वाद द्वारा हमारे शुभ कार्यों को गति प्रदान करता है, वह स्वयं एक उपेक्षित जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। सामान्य अवसरों पर थर्ड जेंडर के साथ बातचीत का व्यवहार भी लोगों की भौंह टेढ़ी कर देता है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा 'मैं हिजड़ा... मैं लक्ष्मी!' का शब्दांकन करने वाली वैशाली रोडे ने अपना अनुभव पुस्तक में लिखा-एक बार भरी दोपहरी में मैं कहीं जा रही थी। अभी घर के नीचे ही थी कि सामने से पंजाबी ड्रेस पहने एक हिजड़ा आते हुए दिखाई दिया। रास्ते में वह और मैं क्रॉस हो ही रही थी कि उसने कहा,”दीदी, जरा ये चेन लगाओगी... प्लीज!" उसके कुर्ते की पीछे की चेन नीचे आ गई थी। मैंने वह लगा दी। उसने मुस्कुराते हुए कहा, 'थैंक यू दीदी' और चला गया... मैं मुड़ने ही वाली थी कि तभी मुझे एहसास हुआ कि आसपास के सारे दुकानदार मेरी तरफ देख रहे थे... कैसी है ये औरत... एक हिजड़े की ड्रेस की चेन लगाती है! उनका यह नजरिया देखकर मुझे एहसास हुआ कि मैंने कुछ गलत किया है।"1 यह ऐसा वर्ग है जिसे स्वयं अपने परिवार के द्वारा विस्थापन भोगना पड़ता है। परिवार विकलांग अथवा पथभ्रष्ट संतान को तो स्वीकार कर लेता है, परंतु एक विषमलिंगी समर्थ बालक को साथ रखना उनके लिए चुनौती बन जाता है।आप इस बस्ती में रह नहीं सकते बाबूजी और अपनी बेटी को अपने साथ रख भी नहीं सकते... दुनिया में बदनामी और हंसी-हंसारत के डर से। हिंजड़ी के बाप कहलाना न आप बर्दाश्त कर पाएंगे और न आपके परिवार के लोग। लूली-लंगड़ी होती यह, कानी-कोतर होती, तो भी आप इसे अपने साथ रख सकते थे...।"2 

       किन्नर साहित्य में एलजीबीटी (लैसबियन, गे, बायोसेक्सुअल एंड ट्रांसजेंडर) समुदाय के जीवन का वर्णन किया गया है। हिंदी कथा साहित्य में समलैंगिकता विषय पर पहले भी इस्मत चुगताई ने 'लिहाफ', सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 'कुल्ली भाट' और फणीश्वर नाथ रेणु ने 'रसपिरिया' जैसी कहानियां लिखी हैं। राजकमल चौधरी का 'मछली मरी हुई', सुरेंद्र वर्मा का 'दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता' और पंकज बिष्ट का 'पंख वाली नाव' जैसे उपन्यास भी चर्चा के केंद्र रहे। किंतु इस कथा साहित्य में तृतीयलिंगी वर्ग के जीवन की जद्दोजहद बाहर नहीं आ पाई। सर्वप्रथम, नीरजा माधव ने 'यमदीप' उपन्यास द्वारा तृतीयलिंगी वर्ग के जीवन के गोपनीय पक्ष को दुनिया के सामने लाकर उनकी पीड़ा से साक्षात्कार करवाया। इसके बाद किन्नर समाज आधारित अन्य उपन्यास यथा प्रदीप सौरभ कृत 'तीसरी ताली', अनुसूया त्यागी कृत 'मैं भी औरत हूं', महेंद्र भीष्म कृत 'किन्नर कथा', 'मैं पायल...', चित्रा मुद्गल कृत 'पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा', निर्मला भुराडिया कृत 'गुलाम मंडी' एवं भगवंत अनमोल कृत 'ज़िन्दगी 50-50' प्रकाशित हुए। किन्नर केंद्रित इन उपन्यासों में 'तीसरी ताली' अपना विशिष्ट स्थान रखता है। पेशे से पत्रकार प्रदीप सौरभ का 'मुन्नी मोबाइल' के बाद यह दूसरा उपन्यास है। प्रदीप सौरभ ने अपने पत्रकार जीवन में मिले किन्नरों के अनुभवों को अपनी कुशल लेखनी से उपन्यास की शक्ल दी है। प्रदीप सौरभ ने उपन्यास की शुरुआत में ही लिखा है- 'मुन्नी मोबाइल' की तरह ही इस उपन्यास के नायक और खलनायक भी काल्पनिक नहीं हैं। यही कारण है कि थर्ड जेंडर के दर्द की यह कहानी हमें अंदर तक झकझोर जाती है। 

      ''यदि हिजड़ो के समुदाय को गौर से देखा जाए तो हम पाते हैं कि इनके समाज में कई प्रभाग एवं अनुभाग हैं। कुछ उनमें ऐसे हैं जो जन्म से ही तृतीय लिंग के हिसाब से पैदा होते हैं, तो कुछ ऐसे हैं जो शल्य चिकित्सा अर्थात बधिया प्रक्रिया के द्वारा हिजड़ा बन जाते हैं, कुछ ऐसे हैं जो शारीरिक तौर पर नर या मादा होते हैं परंतु मानसिक तौर पर अपने को उस लिंग से संपृक्त नहीं कर पाते हैं, जिस लिंग के साथ वे पैदा होते हैं।"3 'तीसरी ताली' उपन्यास अपने स्वरूप में एक केस स्टडी जैसा प्रतीत होता है, जहां थर्ड जेंडर के सभी वर्ग मौजूद हैं। कुछ थर्ड जेंडर के रूप में पैदा हुए हैं, तो कुछ समय के अनुसार परिवर्तित हुए हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो मजबूरी में थर्ड जेंडर बन गए हैं। सामान्य से थर्ड जेंडर में बदलने की प्रक्रिया में उनके मन की पीड़ा, छटपटाहट, बेचैनी और दर्द की दास्तान है 'तीसरी ताली'। यह दर्द परिवार और संतान दोनों को तोड़ कर रख देता है। गौतम साहब के परिवार में विनीत के जन्म पर होने वाला उत्साह उसके जननांग को देखकर थम जाता है।" असल में गौतम साहब के घर बेटा जरूर हुआ था, लेकिन कुछ दिनों के अंदर ही परिवार को पता चल गया था कि वह किसी काम का नहीं है। बढ़ने के साथ उसका पुरुषांग विकसित नहीं हुआ। डॉक्टरों के चक्कर लगाए। सबने एक ही जवाब दिया-बच्चे में स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षण हैं। मां के पेट में ग्यारहवें सप्ताह सेक्सुअल ऑर्गन को विकसित करने वाले हारमोन्स अपनी भूमिका पूरी नहीं कर पाए।"4 माता-पिता हर कीमत पर अपने बच्चे को स्वस्थ रखना चाहते हैं। प्रत्येक माता-पिता की यह एक स्वाभाविक इच्छा होती है। क्या बीतती होगी उन माता-पिता पर जिन्हें पता चले उनके बच्चे का पूरा भविष्य ही अंधकारमय है!बेटा पैदा होने के बाद गौतम साहब की चाल में जो अकड़ आई थी, वह ढीली पड़ने लगी थी। मोटे चश्मे के पीछे चमकने वाली आंखें भी झुक गई थीं। वे हमेशा झुंझलाये-झुंझलाये से दिखते। अजीब तरह की चिंता उनके माथे पर दिखती।.... बेतरतीबी ऐसी कि गौतम साहब कभी मोजा पहनना भूल जाते तो कभी उनकी कमीज पीछे से निकली होती या फिर आगे से। ऐसा लगता था जैसे उन पर कोई पहाड़ गिर गया हो।"5 विषमलिंगी संतान के प्रति भी माता-पिता एक साथ निष्ठुर नहीं हो पाते। वे कोशिश करते हैं समाज की नजरों से उसे छुपा कर अपनी ममता की गोद में बनाए रखने की। आनंदी आंटी अपनी बेटी निकिता की अस्पष्ट लैंगिक पहचान के बावजूद उसकी शिक्षा व्यवस्था के लिए हर संभव प्रयास करती हैं। किन्नरों के बार-बार समझाने के बावजूद वह अपनी बेटी उन्हें सौंपना नहीं चाहती।आनंदी आंटी हार मानने वाली नहीं थीं। उन्होंने निकिता को घर पर ही पढ़ाने का फैसला किया। आठवीं तक वह घर में ही पढ़ी। उसने प्राइवेट परीक्षा दी। पास हुई। लेकिन अब तक निकिता में हिजड़ों वाले गुण आकार लेने लग गए थे। कॉलोनी से लेकर रिश्तेदारों तक में निकिता का मजाक उड़ने लगा था। आनंदी आंटी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।....... आखिर दुनिया से हार कर एक दिन उन्होंने नीलम को बुलाया और निकिता उसे सौंप दी।"6 

        मणि कलिता के जन्म के बाद उसकी मां ने उसे देख कर आत्महत्या कर ली। बाद में उसकी बड़ी बहन को केवल इसलिए ससुराल से निकाल दिया गया कि उसकी बहन किन्नर है। दूसरी तरफ, बदलती हुई पहचान के बीच बढ़ते बच्चे की मनोदशा और भी अधिक अजीब होती है। उसे समझ नहीं आता उसके साथ क्या हो रहा है? जिस शरीर में वह रह रहा है, उसकी पहचान उससे अलग है। तीन बेटियों के बाद पैदा हुआ पुत्र विनीत एक लड़के के रूप में अपनी पहचान को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। बड़े होते-होते विनीत में शारीरिक बदलाव हो रहे थे और उसे भान हो रहा था कि वह भी अपनी बहनों की तरह एक लड़की है। परंतु पिता समाज के सामने उसे पुत्र की तरह ही प्रस्तुत कर रहे थे। इस स्थिति ने विनीत को बेचैन बना दिया। वह घर से बाहर निकलने में कतराने लगा।" उसे लड़कों के कपड़े पहनने में परहेज होने लगा। घर में जब कोई ना होता तो वह अपनी बहनों की पेंटी-ब्रा पहन लेता। बिंदी लगाता। लिपस्टिक लगाता। शीशे में घंटों अपने आप को निहारता।"7 ऐसी स्थिति में विनीत स्वेच्छा से एक रात को अलमारी से कुछ रुपए और अपनी बहनों के कुछ कपड़े लेकर हमेशा-हमेशा के लिए घर छोड़कर चला गया। कोई भी व्यक्ति जब स्वयं अपने लिए कदम उठाता है, तो उसके सभी परिणाम भी उसके अपने होते हैं। विनीत परिस्थितियों से लड़ विनीता बनकर आर्थिक रूप से सफल होता है। वास्तविक जीवन में कुछ ऐसे भी बच्चे होते हैं जो अपने घर से छूट कर इस नए माहौल के तनाव को झेल नहीं पाते। माता-पिता की सुरक्षित गोद के स्थान पर तालियों व ढोलक की आवाजें और ठुमके उन्हें असुरक्षा का बोध कराते हैं। आनंदी आंटी की बेटी निकिता को नीलम मातृवत स्नेह देने का प्रयत्न करती है। परंतु वास्तविकता यही है कि उसे भी एक दिन चुनरी पहनकर मुकम्मल हिजड़ा बनना है।" अपने को किसी से कम ना समझने वाली निकिता के अंदर अपने आधे-अधूरे होने का हीन भाव घर करने लगा। उसके दिमाग की खिड़की अभी इतनी बड़ी नहीं थी कि वह ऐसे लोगों से प्रेरित हो पाती जो उसकी तरह ही थे और समाज से मोर्चा लिए हुए थे। पढ़े-लिखे थे। अपना काम करते थे। ब्यूटी पार्लर से लेकर दूसरे अच्छे धंधों में लगे थे।"8 इस तनाव को झेलते-झेलते एक दिन निकिता ज्योति को चुनरी पहनाने की रस्म के दौरान अपने दिमाग का नियंत्रण खो बैठी और चूहे मारने की दवा की पूरी शीशी उसने अपने हलक से नीचे उतार ली। यह दोतरफा तनाव होता है जहां थर्ड जेंडर बालक दोनों परिवेश में अपने आपको अजनबी पाता है। किन्नरों के हंसते मुस्कुराते चेहरे के पीछे अपनी यात्रा के दौरान हार्मोनल परिवर्तन से उपजे तनाव की कहानी छुपी होती है। कुछ इससे लड़कर जीत जाते हैं और कुछ स्थिति के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं। 

   कुछ ऐसे भी तृतीयलिंगी होते हैं जो जन्मजात पूर्ण पुरुष अथवा स्त्री होते हैं। परंतु परिस्थितियों उन्हें मानसिक एवं शारीरिक रूप से विषमलिंगी बना देती हैं। ज्योति नाम का दलित युवक बाबू श्यामसुंदर सिंह के लिए लौंडेबाजी करता था। बलिया की भाषा में लौंडो को 'हाथी' कहा जाता है। जो युवक हाथी बनकर समलैंगिक संबंध स्थापित करते हैं, उनके पूरे परिवार के भरण पोषण का दायित्व भी हाथी पालने वाले पर होता है। यहां हाथी होना रुचि का विषय होने से अधिक आजीविका का विषय है। नृत्य कला में पारंगत होने के कारण ज्योति जैसे युवक हाथी बनने के लिए उपयुक्त माने जाते हैं। बाबू साहब के साथ रहने से ज्योति के अंदर भी स्त्री भाव जाग्रत हो गया था। ज्योति बाबू श्याम सुंदर सिंह का सबसे प्रिय हाथी होने के बावजूद एक दिन विरोधी पार्टी के लोगों के सिर्फ चुंबन करने से झूठा हो जाने के कारण बाबू श्याम सुंदर सिंह द्वारा त्याग दिया गया।ज्योति बलात्कार की शिकार औरत की तरह बाबू साहब के लिए भ्रष्ट हो चुका था।"9 त्यागा हुआ हाथी ज्योति समाज के द्वारा बार-बार यौन शोषण का शिकार हुआ और अपने परिवार का पेट भरने के लिए गाहे-बगाहे शरीर बेचने के लिए भी मजबूर हुआ। इस बार-बार के शोषण से ज्योति इतना अधिक व्यथित हो गया कि उसने स्वेच्छा से किन्नर बनना स्वीकार कर लिया।" माना मैं मर्द हूं, लेकिन ये समाज मुझसे मर्द का काम लेने के लिए राजी नहीं है। मुझे इस समाज ने मादा की तरह भोग की चीज में तब्दील कर दिया है। मैं मर्द रहूं, औरत रहूं या फिर हिजड़ा बन जाऊं, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पेट की आग तो बड़े-बड़ों को न जाने क्या-क्या बना देती है।"10 यहां एक पुरुष का अपनी मजबूरी में किन्नर बनना समाज के मुंह पर एक बहुत बड़ा तमाचा है। वह समाज जो एक पुरुष को इज्जत की रोटी नहीं दे सकता, वहां ताली बजाकर रोटी कमाना ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है। प्रदीप सौरभ की कलम ने अन्य कारणों से भी किन्नर बनने वाले पुरुषों की कहानी लिखी है। राजा जैसे युवकों को पुरुष जननांग काटकर उनके अपराध का दंड दिया जाता है। कुछ गोपाल गिरिया जैसे अपराधी प्रवृत्ति के लोग स्वार्थवश किन्नरों की गद्दी हथियाने के लिए अपनी मर्जी से अपना पुरुषत्व त्याग देते हैं। पुरुष से किन्नर बनने की प्रक्रिया शारीरिक रूप से बड़ी कष्टप्रद होती है।पुरुषांग को एक ही झटके में हलाल कर दिया। रक्त का सोता बहने लगा। घंटों खून बहता रहा। हिजड़ों में यह मान्यता है कि इस रक्त के बहने के साथ ही पुरुष का पुरुषत्व बह जाता है और उसमें नारीत्व के गुण प्रवेश कर जाते हैं। इसके बाद लकड़ी के एक गुटके के जरिए घाव को बंद कर दिया जाता है, ताकि पेशाब का रास्ता खुला रहे। खतना एक्सपर्ट गुटके के आसपास टांकों के जरिए उस छेद को योनि का आकार दे देता है। इसके बाद जख्म पर गर्म तेल डाला जाता है और जड़ी-बूटियों का लेप लगाया जाता है, ताकि जख्म जल्दी भर जाए। हिजड़ा बनाने की यह प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं होती, जब तक हिजड़ा बनने वाला युवक एक सिल पर बैठकर जोर नहीं लगाता है। वह तब तक सिल पर जोर लगाता है, जब तक उसके गुदा भाग से रक्त नहीं बहता। जब यह रस्म पूरी हो जाती है तो इसे नए बने हिजड़े का पहला रजोधर्म (मेन्सेज) माना जाता है।"11 

        ट्रांसजेंडर की तरह ही कुछ लोग सुविमल बाबू की तरह स्वाभाविक रूप से समलैंगिक होते हैं, तो कुछ यास्मीन और जुलेखा की तरह कारणवश विपरीतलिंगी से विमुख हो जाते हैं।शादी-ब्याह की बात भी शुरुआत में उसके मन में आती रही थी। लेकिन बाद में वह पुरुषों की परछाई से भी नफरत करने लगी। इस नफरत की वजह उसका बाप और उसका भाई था। बाप कौसर खान मां को हर वक्त जलील करता रहता था। गाहे-बगाहे वह उसकी कुटाई भी कर देता था। हिंसक था पूरी तरह। अपने बाप को देखकर जुलेखा को लगता था कि पुरुष बुनियादी रूप से हिंसक होता है।"12 जुलेखा पुरुष के हिंसक रूप को देखकर तो यास्मीन पुरुष के वहशी रूप को सहकर पुरुष गंध से नफरत करने लगीं। अपने ही ममेरे भाई आलम की बलात्कार की कोशिश को असफल करने वाली यास्मीन ने सदा-सदा के लिए पुरुष वर्ग से दूर होकर अपनी सहेली और चचेरी बहन जुलेखा में अपना साथी ढूंढ लिया। इनके अलावा कुछ लोग अनिल की तरह बायसेक्सुअल भी होते हैं जो पुरुष और स्त्री दोनों के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं। भारत में समलैंगिकता की स्वीकार्यता एक जटिल प्रश्न बनकर उभरी है। प्रसिद्ध लेखिका सुधा अरोड़ा लिखती हैं,”भारत में हम ऐसे किसी सामूहिक दृश्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। भारत में आज भी इसे एक ग्रंथि, एक टैबू के रूप में देखा जाता है। यह कितना बड़ा पाखंड है कि माता - पिता यह जानते हुए भी कि उनका बेटा समलैंगिक है, उसके जीवन की यह सच्चाई छुपाते हुए, उसके लिए आर्थिक रूप से अपनी से नीची हैसियत वाले परिवार की बेटी को बहू बना कर ले आते हैं और वह लड़की भी ताउम्र इस राज को अपने भीतर दफन कर पतिव्रता स्त्री का रोल निभाती चली जाती है। इसके पीछे सामाजिक स्वीकृति का ना होना ही एक प्रमुख कारण है।"13

     थर्ड जेंडर को समाज में सम्मानजनक स्थान न मिल पाने का कारण लैंगिक विषमता के साथ ही इस समाज के बारे में प्रचलित कुछ धारणाओं में छुपा है। थर्ड जेंडर को देखते ही लोग उन पर अविश्वास करते हैं।अरे, यह तो औरत नहीं, हिजड़ा है। हिजड़े तो अच्छे-भले लोगों को पकड़कर हिजड़ा बना देते हैं।"14 किन्नर गुरुओं के नियमों में अप्राकृतिक रूप से किन्नर बनाने की मनाही है। हिजड़ों की गुरु संत आशामाई का यह स्पष्ट निर्देश था,”कुदरत से खिलवाड़ करने का किसी को हक नहीं है। अपने फायदे के लिए किसी को हिजड़ा बनाना पाप है। ऐसा करने पर हिजड़े को सौ बार हिजड़े का ही जन्म लेना पड़ता है और फिर भी उसका पाप कम नहीं होता है।"15 वास्तविकता इसके उलट है। प्रदीप सौरभ ने अप्राकृतिक रूप से किन्नर बनाए गए ज्योति, राजा और गोपाल गिरिया जैसे पात्रों के माध्यम से हमें सच से रूबरू कराया है। केवल यही नहीं, किन्नरों पर चोरी, लूटपाट, वेश्यावृत्ति और भीख मांगने जैसे अन्य आरोप भी लगाए जाते हैं। इसी कारण इनके प्रति समाज में अविश्वास एवं भय की मनोवृति ने जन्म ले लिया है। इस मनोवृति ने इन्हें समाज से और अधिक दूर कर दिया है। कुछ किन्नर अधिक पैसा कमाने की चाह में, तो कुछ शारीरिक इच्छाओं के वशीभूत होकर सेक्स बिजनेस में लगे हुए हैं। रेखा चितकबरी स्वयं किन्नर होकर सेक्स बिजनेस की मलिका है। सुनयना जैसे किन्नरों को वह जोड़-तोड़ से अपने सेक्स रैकेट में शामिल करती है। इन लोगों के लिए पैसा ही सब कुछ है इन्हें अपने समाज के नियमों से कोई लेना देना नहीं है और ना ही इस बात से कि उनकी इन हरकतों से उनका पहले से अपमानित समाज और अधिक अपमानित होता है। कुछ कलावती मौसी जैसे उम्र दराज किन्नरों को अपना पेट भरने के लिए भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ता है। नेशनल हाईवे पर जिस्मफरोशी के नाम पर लोगों से लूटपाट करने वाले मल्लिका जैसे किन्नरों ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी है।शिक्षा की कमी, अन्य व्यवसाय में जुड़ने के सीमित अवसर, आर्थिक तंगी व परिवार का भावनात्मक लगाव ना होना ही अधिकांश किन्नरों को यौन कर्म की ओर ले जाता है। लोगों की सोच में यह रचा बसा है कि सारे किन्नर यौनकर्मी हैं, जो गलत है। इसी कारण इन्हें सामाजिक सम्मान नहीं मिल पा रहा है। इसी कारण इन्हें समाज में अवांछित माना जाता है।"16 

       ऐसा नहीं है कि किन्नर वर्ग का केवल अपराध जगत से जुड़ा चेहरा ही समाज के सामने है। शबनम बानो, लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी और मानवी बंदोपाध्याय जैसे बहुचर्चित चेहरों ने अपने संघर्ष से कामयाबी की दास्तान लिखी है। 'तीसरी ताली' उपन्यास में विनीत से विनीता बनी ट्रांसवुमन अपने परिवार की मदद से प्राप्त ब्यूटीपार्लर की शिक्षा को जरूरत के समय अपना हथियार बना कर 'गे वर्ल्ड' जैसा सफल पार्लर चलाती है। विनीता उन सभी थर्ड जेंडर की प्रतिनिधि बनकर सामने आती है, जो परिस्थितियों से समझौता कर केवल नाचना-गाना नहीं चाहते। विनीता 'द छक्का' रियलिटी शो के माध्यम से तीसरी दुनिया के असली लोगों को सामने लाती है जो हिजड़ों की बिरादरी से अपनी जान छुड़ाकर भागे और दूसरी दुनिया में स्थापित हुए। गुवाहाटी की मणि कलीता अपनी कथक शिक्षा द्वारा मणि गंधर्व महाविद्यालय की डांस डायरेक्टर बनकर सफल जीवन जी रही है। राजू नाम का ट्रांसजेंडर ग्रेजुएट होकर कमाठीपुरा में एड्स और टीवी से ग्रस्त वेश्याओं और हिजड़ों की सेवा में लगा हुआ है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ के एड्स को लेकर न्यूयॉर्क में हुए सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व भी कर चुका है। मशहूर डांसर सुप्रिया कपूर की ट्रांसजेंडर होने की आत्मस्वीकृति ने फिल्मी जगत में आग लगा दी। कोई सामान्य व्यक्ति कैसे स्वीकार करे कि एक ट्रांसजेंडर उनके बीच इतना सफल स्थान बना सकता है! विजय कृष्णा भी सबसे अपनी पहचान छुपाकर एक सफल फोटोग्राफर के रूप में अपना मुकाम बनाता है।  

      प्रदीप सौरभ ने थर्ड जेंडर के आर्थिक रूप से पतित एवं सबल पक्ष से इतर उनके मन के कोने में झांकने की सफल कोशिश की है। तालियां बजाते, लड़ते-झगड़ते, हंसते-मुस्कुराते चेहरों के पीछे जो दर्द, पीड़ा, अपमान और अकेलापन छुपा है, उसे प्रदीप की कुशल लेखनी ने बाहर लाया है। निकिता को पालने वाली नीलम और मंजू को मां की तरह प्यार करने वाली डिंपल के मन में कहीं ना कहीं एक मातृत्व की अभिलाषा है।असल में मंजू जब पैदा हुई तो उसके गरीब माता-पिता ने दान-दहेज के डर से उसे थोड़े से पैसों के लिए डिंपल को बेच दिया था। डिंपल का उस वक्त मातृत्व जाग्रत हो गया था। उसे बच्चे की आस थी। बच्चा वह जन नहीं सकती थी। वह कभी-कभी सोचती कि जो जन नहीं सकते वे बच्चों के ऊपर पड़ने वाले काले साए को दूर रखने का आशीर्वाद देते हैं। बच्ची को लेते वक्त उसका मातृत्व हिलोरे मार रहा था।"17 विनीता एक सफल पार्लर की मालकिन होने के बावजूद स्त्रीत्व की अभिलाषी है। ईश्वर प्रदत्त कमी को पूरा करने के लिए वह बेंगलुरु जाकर ब्रेस्ट सर्जरी और वेजाइना रिकंस्ट्रक्शन करवा कर अपने आप को एक पूर्ण स्त्री अनुभव करना चाहती है। उसकी स्त्रीत्व की आकांक्षा केवल शारीरिक भूख नहीं है। वह भावनात्मक रूप से एक सहारा चाहती है।सब पर अपना हुक्म और सिक्का चलाते-चलाते विनीता अकेली पड़ती जा रही थी। सभी उसकी बात एक इशारे पर मान लेते थे, पर अपने इस 'अहं' की जीत पर विनीता को अब खुशी नहीं मिलती थी। उसका दिल एक ऐसे व्यक्ति के लिए धड़कना चाहता था, जिसका अपना एक वजूद हो, अपनी एक शख्सियत हो। विनीता अपने शाही काम की मलिका थी, पर किसी के कंधों पर अपने इस 'अहं' को बिसारकर वह एक नीड़ बना लेने को तरसने लगी थी।"18 

      धारा 377 की असंवैधानिकता का संघर्ष और उत्सव कई प्रश्नों को जन्म देता है। ट्रांसजेंडरों में भी परंपरावादी और आधुनिकतावादी दो वर्ग मौजूद हैं। इन दोनों वर्गों में धारा 377 की असंवैधानिकता और राजनीति में स्थान बनाने को लेकर मतभेद है। कानपुर के सम्मेलन में परंपरावादी किन्नर बिरादरी अपने मत का प्रचार करती है।अगर सरकार धारा 377 जैसे कानून को अवैध घोषित कर देगी तो लोग बच्चे पैदा करना बंद कर देंगे...... समाज में आदमी आदमी से और औरत औरत से खुल्लम-खुल्ला प्यार करेंगे तो समाज का क्या होगा!.......हम राजनीति में घुस जाएंगे तो शादियों में गाना कौन गाएगा! राजनीति एक-दो साल! उसके बाद तो हमें तालियां ही बजानी हैं। उन्होंने शबनम मौसी का उदाहरण देते हुए कहा कि उसकी विधायकी धरी की धरी रह गई। चुनाव में हारने के बाद अब पेट भरने के लिए तालियां ही पीट रही है।"19 दूसरी तरफ, आधुनिक विचारों के समर्थक थर्ड जेंडर धारा 377 की असंवैधानिकता को समाज में सब की बराबरी के रूप में देखते हैं। थर्ड जेंडर अपने समाज में एक गिरिया रखते हैं जो समलैंगिक अथवा पूर्ण पुरुष हो सकता है। उनके अनुसार वह भी एक प्रकार की समलैंगिकता ही है। तो समाज में सामान्य जीवन जी रहे स्त्री-पुरुषों को भी समलैंगिक अधिकार प्राप्त होना चाहिए। वर्तमान की सांप्रदायिक और भ्रष्ट राजनीति से नाखुश समाज में शबनम मौसी का विधायक चुना जाना यही बताता है कि लोग अब नेताओं की जगह किन्नरों पर विश्वास करना चाहते हैं।नेता और भ्रष्टाचार एक दूसरे के दो नाम हैं। हम हिजड़े ही समाज को दीमक की तरह चाट रहे नेताओं से बचा सकते हैं। हम ही भ्रष्टाचार को दूर कर सकते हैं..... हमारे ना तो कोई रिश्तेदार हैं और ना ही इसकी संभावना। हमें तो पैदा होते ही गटर में फेंक दिया जाता है ऐसे में हम भ्रष्टाचार किसके लिए करेंगे।"20 थर्ड जेंडर की दो विचारधाराओं में मतभेद से यह तो स्पष्ट होता ही है कि वे समाज के विकास और समाज में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं।

          भगवान राम के आशीर्वाद के कारण नाचने-गाने को ही अपना जीवन मानने के मिथक से जुड़े ट्रांसजेंडर अपनी मान्यताओं के बोझ को ढोते हुए समाज में अपना जीवन जीने को विवश हैं। अपने परिवार से छूटे, कदम-कदम पर प्रताड़ित होते किन्नर एक दिन गुमनामी की मौत मर जाते हैं। उनकी अंतिम यात्रा भी उनके जीवन की तरह ही दर्दनाक होती है, जहां जूते-चप्पलों से शव को पीट-पीटकर रात के अंधेरे में दफना दिया जाता है, इस मनोकामना के साथ कि अगले जन्म में उसे तीसरी योनि में ना आना पड़े। 'तीसरी ताली' बार-बार एक प्रश्न को प्रतिध्वनित करती है- किन्नर कौन है? वह जो विषमलिंगी है अथवा वह जो समाज में अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है?”हिजड़े और आम आदमी में क्या अंतर है! दोनों को ही तो भगवान ने बनाया है। मैं तो उसे हिजड़ा मानता हूं, जो सच्चा फैसला नहीं कर पाते हैं और मौके पर पाछा दिखा कर भाग जाते हैं।"21 'तीसरी ताली' उपन्यास पुरुषत्व, स्त्रीत्व और तृतीयत्व के प्रश्न उठाता है। अगर पुरुषत्व का अर्थ शारीरिक सुदृढ़ता, सहयोग एवं कर्तव्यपालन है तो क्या हम विजय कृष्णा को पुरुष नहीं कह सकते? अगर स्त्री का अर्थ प्रेम, दया, ममता, और समर्पण है तो क्या डिंपल, नीलम और विनीता स्त्री नहीं हैं? अगर उन्हें तृतीय की श्रेणी में ही रखा जाए तो भी क्या वे सम्मान के हकदार नहीं हैं? जब लिंगचयन पर किसी भी व्यक्ति का नियंत्रण नहीं है, तब समाज को उनका अपमान करने का अधिकार किसने दिया? कम से कम ईश्वर की सत्ता होने के कारण ही सही, उन्हें बराबरी का हक दिया ही जाना चाहिए।

 संदर्भ :

1. लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी, मैं हिजड़ा... मैं लक्ष्मी!, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2018, पृ. 8

2. नीरजा माधव, यमदीप, सुनील साहित्य सदन, नई दिल्ली, संस्करण-2018, पृ. 93

3. डॉ सुनील कुमार त्रिवेदी, भारतीय वांग्मय और हिजड़ा समुदाय, जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका, थर्ड जेंडर विशेषांक, अगस्त-2016

4. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 41

5 प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 40

6. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 43

7. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 82

8. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 44

9. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 53

10. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 57

11. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 61-62

12. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 122

13. सुधा अरोड़ा, समलैंगिक और थर्ड जेंडर सहानुभूति के साथ स्वीकृति की जरूरत, थर्ड जेंडर विमर्श, सं- 

 शरद सिंह, भारतीय पुस्तक परिषद, नई दिल्ली, संस्करण- 2019, पृ. 100

14. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 25

15. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 30

16 महेंद्र भीष्म, किन्नर भी इंसान हैं!, थर्ड जेंडर विमर्श, सं- शरद सिंह, भारतीय पुस्तक परिषद, नई दिल्ली, संस्करण 2019, पृ. 45

17. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 31

18. वही, पृ. 184

19. वही, पृ. 135

20. वही, पृ. 138

21. वही, पृ. 56 

                     प्रियंका कुमारी गर्ग, सहायक आचार्य (हिंदी), राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर

gargpriyankak1985@gmail.com, 8875694077



        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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