शोध आलेख : युद्ध की त्रासदी और स्त्री अस्मिता / शिप्रा शुक्ला
मूल आलेख : आधुनिक युग के आरंभ से ही
विश्व-स्तर पर तमाम मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टि से विचार
एवं चिंतन का विषय बनकर सामने आए हैं। आज सत्य के स्थान पर यथार्थ तथा भावना और
आस्था के स्थान पर विवेक एवं तर्क ने अपनी स्थिति निश्चित कर ली है। ऐसे में समाज
की सभी पारंपरिक संरचनाओं को वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टि से विश्लेषित किया जाने
लगा है।
अन्य विषयों की तरह ही स्त्री भी आधुनिक चिंतन
का प्रमुख विषय बनी, जिसकी
सदियों से चली आ रही पराधीनता की श्रृंखला को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में
विश्लेषित कर वर्तमान समय में उसकी समाज में स्थिति का मूल्यांकन विश्व भर में हुआ
है। इस दिशा में विश्व स्तर पर अस्तित्व में आए कई सिद्धांतों ने अपने-अपने स्तर
पर स्त्री विषयक विचार प्रस्तुत किए। इन सभी सिद्धांतों में नारीवादी आंदोलन एक
ऐसे सिद्धांत के रूप में उभरा जिसने उग्र एवं स्पष्ट तौर पर पितृसत्ता की अनेक
जटिल परतों को उघाड़ते हुए उसकी स्त्री-विरोधी प्रवृत्ति का पर्दाफाश किया। इसके
प्रभाव से विश्व भर में एक नारी विषयक चिंतन परंपरा आरंभ हुई। फलतः नारी अस्मिता
का प्रश्न एक व्यापक प्रश्न बनकर सामने आया।
मानव-अधिकारों के सिद्धांतों एवं व्यवहार में महिलाओं के परिप्रेक्ष्य को शामिल करने की कोशिश इस बात का प्रमाण है कि विश्व के सभी देश महिलाओं को वह प्रतिष्ठा व सम्मान प्रदान नहीं करा सके जिसकी वह मानव-रूप में हकदार है। नारीवादी चिंतकों ने हर स्तर पर स्त्रियों के अधिकारों की पैरवी की जिसमें प्रमुख स्थान अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का भी है। इसके संदर्भ में नारीवादियों का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों एवं विश्व राजनीति में सर्वथा पुरुषों की उपस्थिति ही रही है और वहाँ पूरी तरह स्त्रियों की अवहेलना हुई है। इस दिशा में प्रमुख नारीवादी चिंतक जे.एन. टिकनर (J.N. Tickner) का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आरंभ से ही पुरुषों का प्रभुत्व रहा है। अंतर्राष्ट्रीय विषयों में जो अनुभव मानव का अनुभव कहा जाता है वस्तुतः वह पुरुष का अनुभव है। इस प्रकार नारीवादी लेखकों ने अंतर्राष्ट्रीय संबंध एवं राजनीति में स्त्रियों की हिस्सेदारी के नकार को सामने लाते हुए स्त्री अस्मिता को एक नया आयाम प्रदान किया।
युद्ध इसी अंतर्राष्ट्रीय संबंध एवं विश्व राजनीति का एक प्रमुख अंग है जो आरंभ से ही पुरुष मानसिकता से परिचालित रहा है। जहाँ न तो प्रत्यक्षतः स्त्रियों की भागीदारी सुनिश्चित की गई और न ही युद्ध से उत्पन्न अनेक दुष्परिणामों का स्त्री के संदर्भ में कोई मूल्यांकन ही किया गया, जहाँ स्त्री अस्मिता अनेक स्तरों पर लहुलूहान होती है। यदि हम नारी अस्मिता के अर्थ पर विचार करें तो कह सकते हैं कि नारी अस्मिता ऐसा बोध है जिसमें स्त्री स्वयं को सभी भेदभावों से ऊपर देखते हुए एक संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में पाती है, जिसका स्व उसे स्त्री पुरुष की विभाजक रेखा में नहीं बाँटता बल्कि वह स्वयं एक मनुष्य होती है।
स्त्री अस्मिता का प्रश्न आज जिस रूप में विद्यमान है और वर्तमान समय में स्त्रियों की जो दशा है, वह किसी आकस्मिक घटना का प्रतिफलन नहीं है। इस पूरे प्रकरण का अपना एक संघर्षरत इतिहास रहा है। आज स्त्री मुक्ति को एक व्यापक संदर्भ में देखें जाने का अर्थ यह है कि कई शताब्दियों से इस दिशा में अनेक छोटी-बड़ी क्रांतियां, आंदोलन होते रहे हैं। आज स्त्रियों को जिन अधिकारों एवं कानूनों की मदद मिली है, आज से सौ वर्ष पहले ऐसी स्थिति बिल्कुल नहीं थी।
उल्लेखनीय है कि स्त्रियों को लेकर भारत ही नहीं विश्व की समूची सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ निरपेक्ष चिंतन करने में असमर्थ रही हैं। इस दिशा में नारीवाद, स्त्री मुक्ति आंदोलन एवं स्त्री अस्मिता का महत्त्वपूर्ण पैरोकार रहा है। इस सिद्धांत ने उन सभी सामाजिक एवं पारंपरिक रूढ़ियों परिपाटियों का विरोध किया है जो स्त्री अस्मिता के लिए बाधक हैं। पितृसत्ता हजारों साल से चली आ रही ऐसी व्यवस्था है जिसने स्त्री वर्ग का हर स्तर पर शोषण किया है। उसने स्त्री को एक साधन के रूप में प्रस्तुत किया, उसके नाम, रूप, जाति, गौत्र सब अपने संदर्भ में परिभाषित किए और इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरोध में नारीवादी विमर्श की नींव रखी गई। इसने नारी के विभिन्न अधिकारों की बात की उसके मूल्यों पर विचार किया और नारी संस्कृति के उन अँधेरे उपेक्षित व शोषित कोनों की गहन पड़ताल की जिसे सदियों से पुरुष ने अपने हितों के लिए दबा कर रखा। नारीवादी इस विमर्श ने स्त्री अधिकारों के प्रति सजगता के साथ स्त्री अस्मिता का समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र रचा।
इस पूरे आंदोलन की पृष्ठभूमि को समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घटने वाली चार घटनाओं को रेखांकित किया जा सकता है- पहली 1789 की फ्रांसीसी क्रांति जिसने स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व जैसी चिरवांछित मानवीय आकांक्षाओं को मानवीय अधिकारों की गरिमा देकर राजतंत्र और साम्राज्यवाद के बरअक्स लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वस्थ विकल्प को प्रतिष्ठित किया। दूसरी घटना भारत में राजा राममोहन राय की लंबी जद्दोजहद के बाद 1829 ईसवी में सती-प्रथा का कानूनी विरोध है जिसमें पहली बार स्त्री के अस्तित्व को मनुष्य के रूप में स्वीकारा, तीसरी घटना 1848 ई- में सिनेका फॉल्स (न्यूयॉर्क) में गिम्के बहनों के नेतृत्व में आयोजित 300 स्त्री पुरुषों की सभा है जिसमें स्त्री दासत्व की लंबी श्रृंखला को चुनौती देते हुए स्त्री मुक्ति आंदोलन की नींव रखी गई तथा चौथी घटना 1867 ईसवी में प्रसिद्ध अंग्रेज चिंतक जॉज स्टुअर्ट मिल द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में वयस्क स्त्री मताधिकार के लिए प्रस्ताव रखे जाने की है, जिसने कालांतर में स्त्री पुरुष के बीच स्वीकृत अनिवार्य कानूनी और संवैधानिक समानता को बल दिया। संयुक्त रूप से यह चारों घटनाएँ एक तरह से विभाजक रेखा है जिनके एक ओर पूरे विश्व में स्त्री उत्पीड़न की लगभग एक सी सार्वभौमिक परंपरा विद्यमान थी तो दूसरी ओर इससे मुक्ति की लगभग एक-सी अकुलाहट भरी संघर्ष गाथा।
स्त्री
मुक्ति की यह लहर उस समय पूरे यूरोप में कम-अज-कम सभी को प्रभावित कर रही थी। नारी
अस्मिता के सवाल पर अनेक ऐसे चिंतक एवं लेखक सामने आए जिन्होंने अपने विचारों एवं
लेखों द्वारा एक जीवंत बहस को जन्म दिया तथा पुरुषवादी समाज की संकीर्णताओं को
वैचारिक धरातल पर चुनौती दी। इस दिशा में ‘मेरी वॉल्स्टन क्राफ्ट’ का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जिनकी
पुस्तक-बिंडिकेशन ऑफ द राईट्स ऑफ वूमेन (स्त्री अधिकारों का औचित्य साधन) 1792 में प्रकाशित हुई जिसे आधुनिक काल में
नारीवादी विचारों की सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक के रूप में स्वीकारा जाता है।
वॉल्स्टन क्राफ्ट ने मूलतः औरतों के बारे में रूसो के विचारों पर कड़ा प्रहार करते
हुए, पूरे
यूरोप का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। उन्होंने इस बात को मानने से इंकार किया कि
स्त्रियाँ बुद्धि के मामले में पुरुषों से कमजोर होती हैं अथवा नाजुकता, सतहीपन उनका नैसर्गिक गुण है। उनका
दूसरा मत यह था कि यदि स्त्री-पुरुष बुद्धि के मामले में समान तरह से अधिकारी है
तो उसका प्रयोग करने की शिक्षा भी उसे समान रूप से देनी चाहिए। क्राफ्ट के पूरे
लेखन में लगातार इस बात पर बल दिया गया है कि किसी भी अच्छी समाज व्यवस्था का समाज
में भारी असमानता के साथ कोई मेल नहीं हो सकता। ‘मेरी वॉल्स्टन’ क्राफ्ट के उपरांत कई छोटे-बड़े लेखकों
द्वारा नारी प्रश्न को लेखन का केंद्र बनाया गया, जिनमें वर्जीनिया वुल्फ, सिमोन द बोउवार, जर्मेन ग्रियर, बेटीफ्रीडन, महादेवी वर्मा आदि प्रमुख हैं।
‘वर्जिनिया वुल्फ ‘ए रूम ऑफ वन्स ऑन’ में लिखती हैं कि "पितृसत्तात्मक व्यवस्था के स्त्री विषयक आप्त वचनों को शक की निगाह से देखना चाहिए व भावना के लाल प्रकाश में लिखी गई उक्तियाँ हैं, सत्य के श्वेत प्रकाश में नहीं।" (अग्रवाल रोहिणी, हिंदी साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि, पृ. 233.)सिमोन द बोउवार भी वर्जिनिया वूल्फ से पूरी तरह सहमत हैं। जहाँ वे कहती हैं कि अब तक औरत के बारे में पुरुषों ने जो कुछ भी लिखा है उस पूरे पर शक किया जाना चाहिए क्योंकि लिखने वाला न्यायाधीश व अपराधी दोनों है। जर्मन ग्रियर ‘दी फीमेल यूनिक’ में उग्र तेवर अपनाकर स्त्री की पराधीनता के लिए पुरुष की आत्म-केंद्रित मानसिकता पर प्रहार करती हैं। चूँकि पुरुष व्यवस्था पुरुष के अहम् अधिकार सत्ता के विस्तार का रूपक है। अतः इस षड्यंत्रकारी व्यवस्था का हिस्सा बनने के बजाय जर्मन ग्रियर इसे ध्वस्त कर देना चाहती हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि विश्व-पटल पर एक सुदीर्घ आंदोलन चला जो अपने में नारी मुक्ति और नारी अस्मिता से जुड़े प्रश्नों को आत्मसात किए हुए हैं। जिसने न केवल आज सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्त्री सवालों को सामने रखा बल्कि इन सभी क्षेत्रों में स्त्रियों की भागीदारी भी सुनिश्चित की है।
नारीवादी
सिद्धांत के अतिरिक्त मार्क्सवाद ने भी स्त्रियों के शोषण एवं उनकी गुलामी के
विविध कारणों की गहरी पड़ताल की है। नारी केंद्रित चिंतन की इस लंबी परंपरा पर ही
समाज में नारियों की स्थिति के बारे में मार्क्सवादी चिंतन टिका हुआ है। यह सच है
कि स्वयं मार्क्स ने यौन उत्पीड़न को अपने अध्ययन का प्रमुख विषय नहीं बनाया। लेकिन
वह अक्सर यह कहते थे कि समाज में नारी की स्थिति सामाजिक प्रगति का सूचकांक है
(माहेश्वरी सरला, नारी
प्रश्न, संस्करण-1998,
पृ.109.)। चूँकि मार्क्स ने पूरे मानव इतिहास व
समाज का व्यापक विश्लेषण करने वाली एक विचारधारा प्रस्तुत की इसलिए आधुनिक नारीवाद
विमर्श में भी मार्क्सवादी विचारधारा ने काफी अहम भूमिका निभाई। इस संदर्भ में
एंगेल्स की पुस्तक ‘परिवार
निजी संपत्ति’ व ‘राज्य की उत्पत्ति’ को इस विमर्श में एक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण योगदान के रूप में देखा जा सकता है। 1884 में आई इस पुस्तक में एंगेल्स लिखते
हैं- "पति पर महिला की आर्थिक निर्भरता का अर्थ यह है कि परिवार के दायरे में
पति बुर्जुवा होता है तथा पत्नी सर्वहारा। नारी की मुक्ति की पहली शर्त यह है कि
सभी नारियों को सार्वजनिक उद्यम में आना होगा।" (माहेश्वरी सरला, नारी प्रश्न, संस्करण-1998, पृ.110.)
इस प्रकार मार्क्सवाद ने नारी मुक्ति के प्रश्न को वैज्ञानिक विश्लेषण के जरिए सामाजिक उत्पादन संबंधों के प्रश्न तथा महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता के प्रश्न के साथ जोड़ा। मार्क्सवाद ने जिस प्रकार सामाजिक व्यवस्थाओं को इतिहास के विकास के साथ जोड़कर समझने की एक पूर्ण विकसित अवधारणा दी उसी प्रकार परिवार के भी वर्तमान रूप को अनिवार्य रूप से सामाजिक विकास के इतिहास के साथ जुड़ा हुआ बताया। इससे नारीवादी आंदोलन की एक नई तरह की धारा का विकास हुआ। इस धारा में नारी व पुरुष को अनिवार्य रूप से एक दूसरे का दुश्मन बताने की बजाय उत्पीड़ितों के एकाधिकार के आधार पर परस्पर सहयोग करने और एक नए समाज के विकास की दिशा में एकजुट होकर लग जाने का मार्ग दिखाया गया। इस प्रकार यथार्थवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद आदि सिद्धांतों से आगे बढ़कर नारीवाद ने स्त्री मुक्ति का जो व्यापक संघर्ष आरंभ किया उसके स्वरूप में समय के साथ परिवर्तनकारी बदलाव आते रहे। नारी जीवन में जो भी परिवर्तन आ रहे थे उनके मूल में सामाजिक विद्रोह का स्वतः स्फूर्त प्रभाव दिखाई देता है। इस तरह 19वीं सदी के अंत तक नए सामाजिक यथार्थ की गहराई से जाँच की जाने लगी तथा नारीवादियों ने कानून तथा सिद्धांतों के स्तर पर स्त्रियों के प्रति दोहरे मानदण्डों द्वारा हो रहे भेदभाव का पुरजोर विरोध किया। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को स्वीकारने के बावजूद क्यों अब भी राजनीतिक जीवन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों की अपेक्षा काफी कम है? क्यों तमाम प्रकार के रोजगारों एवं पेशों में महिलाओं की संख्या पुरुषों के बराबर नहीं है? क्यों अब भी समान कार्यों के लिए समान वेतन को लागू नहीं किया गया? क्यों स्त्रियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है? तथा क्यों महिलाओं को ही हमेशा सामूहिक हिंसा का शिकार बनना पड़ता है? इस प्रकार के तमाम सवाल बीसवीं सदी के मध्य तक सर उठाने लगे जिन्होंने ज्ञान-प्रसार तथा 19वीं-20वीं सदी के पिछली सभी उपलब्धियों पर प्रश्न-चिह्न लगाया और स्त्री विषयक यह आंदोलन उग्र-नारीवाद के रूप में सामने आया। जो आज तक विभिन्न स्तरों पर महिलाओं के अधिकारों को लेकर संघर्षरत है।
इस संदर्भ में पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह वक्तव्य नारीवादी दृष्टिकोण से साम्य स्थापित करता हुआ लगता है "हम यह कड़वी सच्चाई याद रखें कि पारंपरिक समाज हो या आधुनिक संसार की सभी सभ्यताएँ, स्त्री की दृष्टि से औछी प्रतीत होती हैं व पाखंडी भी। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ के दावेदार हों या स्त्री को गुलामी से आजाद कर शरीक-ए-हयात बनाने के दावेदार। अपनी आत्मा में झाँककर तो देखें समझ जाएंगे कि स्त्री को देवी बनाने के सभी प्रोजेक्ट असल में उसे व्यक्तित्व से वंचित करने के प्रोजेक्ट हैं। ऐसी कोशिशों की तार्किक परिणति होनी चाहिए। सामाजिक-राजनैतिक सत्तातंत्र में स्त्री व्यक्तित्व की बराबर की हैसियत होनी चाहिए। एक सहज स्वाभाविक अधिकार के रूप में किसी की कृपा के रूप में नहीं।" (अग्रवाल पुरुषोत्तम, विचार का अनंत, प्रथम संस्करण-2000, पृ. 71.)
इस तरह अब तक हमने देखा कि 14वीं-15वीं सदी के यूरोप से लेकर आज तक विभिन्न सिद्धांतों एवं उनके सिद्धांतकारों तथा अनेक क्रांतिकारी आंदोलनों ने नारी-मुक्ति की गुहार लगाते हुए उसकी एक स्वतंत्र मनुष्य के रूप में पहचान कायम करने में अपना अहम योगदान दिया है। अब हम युद्ध के संदर्भ में स्त्री अस्मिता पर विचार करेंगे। युद्ध जिसे एक हथियार के रूप में राष्ट्रों द्वारा प्रतिपक्ष के लिए इस्तेमाल किया गया है। किस तरह स्त्री अस्मिता को प्रभावित करता है तथा युद्ध काल में उत्पन्न विषमताएँ नारी-जीवन को किन रूपों में अवरुद्ध करती हैं इस पर विचार करेंगे।
युद्ध पुरुष वर्चस्व की मानसिकता पर आधारित कृत्य है। यह विध्वंस को बढ़ावा देता है। साथ ही सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से पुरुष तंत्र को मजबूत बनाता है। युद्ध का सबसे नकारात्मक एवं विचारणीय पक्ष यह है कि यहाँ स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है। युद्ध संबंधी सभी गतिविधियों में उसकी हिस्सेदारी प्रत्यक्ष रूप में न के बराबर है। पर युद्ध में लड़ने वाले पुरुष किसी-न-किसी स्त्री के पुत्र, पति, पिता अथवा भाई ही होते हैं अर्थात् परोक्ष रूप से इस युद्ध में स्त्रियों के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जो अब तक किया गया है। इन सबके बावजूद युद्ध की त्रासदी की दोहरी मार स्त्रियों की पीठ पर ही पड़ती है। कहने का आशय यह है कि युद्ध संबंधी पूरे घटनाक्रम में स्त्री सदा से उपेक्षित एवं पराजित रही है। युद्ध की त्रासदी ने सबसे ज्यादा स्त्रियों को अपना शिकार बनाया है। युद्ध जन्य कुप्रभाव अनेक स्तरीय व बहुआयामी है। परिवार समाज की इकाई है तथा स्त्री उस परिवार का केंद्र है। युद्ध के समय व्यापक स्तर पर सामाजिक एवं पारिवारिक क्षति होती है अर्थात् इस पूरे नुकसान का खामियाजा स्त्रियों को ही उठाना पड़ता है।
हम यह जान चुके हैं कि युद्ध मानव अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा है। पुरुषों के लिए यह मृत्यु का द्वार है। समाज में अव्यवस्था को बढ़ावा देने वाला है, अर्थव्यवस्था का नाश करने वाला है। विश्व-शांति का सबसे बड़ा शत्रु है और अंत में स्त्री जाति के लिए चौतरफी मार कराने वाला हथियार है। युद्ध की विनाशकारी परिणतियों का असर सबसे अधिक स्त्रीवर्ग पर पड़ता है। इस संदर्भ में नारीवादी चिंतन से पूर्व विशेष ध्यान नहीं दिया गया। नारीवादी चिंतकों में ‘जीन बेथ के एलस्टन’,सिंथिया इनलो,सान्ध्रा व्हाईट वर्थ तथा जे.एन. टिकनर ने अपने अनेक लेखों, शोधकार्यों एवं सर्वेक्षणों के माध्यम से स्त्री संबंधी सभी समस्याओं को युद्ध के संदर्भ में समझने और उनका समाधान निकालने का प्रयास किया है। जिन बेथ एल्स्टन की पुस्तक (वूमन एण्ड दि वार) परंपरागत युद्ध की प्रथाओं पर एक सुस्पष्ट नवचिंतन है। युद्ध को लेकर क्या कहा गया, क्या किया गया, और क्या दावे किए गए, इसके साथ ही गैर-परंपरागत आयामों को रखकर वे युद्ध का परीक्षण करती हैं।
युद्ध के दौरान होने वाले यौन अपराध, सामूहिक बलात्कार, हिंसा, अपहरण, लूटपाट आदि सभी अमानुषिक कृत्य महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं निजी अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इसके साथ ही उसे मनोवैज्ञानिक रूप से भी असंतुलन की अवस्था तक पहुँचा देते हैं। सामाजिक असुरक्षा तथा आर्थिक विषमता से उत्पन्न समस्याएँ भी सबसे ज्यादा स्त्रियों के लिए मुश्किलें पैदा करती है। इन लेखकों द्वारा किए गए विविध सर्वेक्षण इन्हीं प्रश्नों का समाधान एवं उनके कारण स्त्री के संदर्भ में ढूँढ़ते हैं। विश्व-स्तर पर अनेक संगठनों एवं संस्थाओं ने भी युद्ध के दौरान स्त्रियों की स्थिति पर अपने अध्ययन प्रस्तुत किए हैं। संयुक्त राष्ट्र की मानवीय विकास रिपोर्ट के मुताबिक "युद्ध के दौरान जनसंख्या के अस्त-व्यस्त होने के संदर्भ में स्त्री और बच्चे शरणार्थी, जनसंख्या का 80 प्रतिशत हिस्सा होते हैं। विश्व स्तर पर होने वाले सशस्त्र विवादों के फलस्वरूप यह शरणार्थी जनसंख्या 1970 में तीस लाख से बढ़कर 1994 में 2-7 करोड़ तक पहुँच गई। यह रिपोर्ट बोस्निया में युद्ध के दौरान होने वाले बलात्कारों के विषय में अपने अनुभव प्रस्तुत करती है। इसके अनुसार युद्ध के दौरान बलात्कार सिर्फ एक दुर्घटना नहीं होता वरन् क्रमबद्ध युद्ध राजनीति का हिस्सा होता है।" (बिरमानी आर.सी., समकालीन अंतर्राष्ट्रीय संबंध, प्रथम संस्करण-2007, पृ.235.)
बलात्कार
एक सामान्य प्रक्रिया नहीं है यह नारी-अस्मिता को तार-तार करने का पाश्विक कृत्य
है। इसके संबंध में मृदुला गर्ग की यह उक्ति एकदम सटीक लगती है जहाँ वे बलात्कार
के द्वारा स्त्री पर पड़ने वाले प्रभावों का गहराई से विश्लेषण करती हैं -
"बलात्कार, स्त्री
के स्त्री होने की अस्मिता का ही हनन नहीं करता, समाज में उसके स्तर, हैसियत व छवि पर भी प्रश्नचिह्न लगाता
है। साथ ही उसके मन में अपने भावात्मक व मानवीय संबंधों के बारे में संशय पैदा
करता है। उसे उन पर दुबारा सोच-विचार करने पर बाध्य करता है। जाहिर तौर पर स्त्री
में रोष तथा प्रतिशोध की चाह हो तब भी भीतर-भीतर वह द्वंद्व की स्थिति में रहती
है। अपनी योग्यता तथा उत्कृष्टता से उसका विश्वास न भी हटे पर साथी मर्दों पर
संदेह और अविश्वास की भावना जरूर प्रबल होती है। समस्या तब और जटिल हो जाती है जब
समाज में इतना भी परिवर्तन नजर न आए, जहाँ कम से कम उसके तथाकथित प्रगतिशील सदस्य
बलात्कार को इज्जत लूटना न मानकर हिंसा मानने को तैयार हों।" (गर्ग मृदुला,
आजकल पत्रिका,
मार्च 2014,
पृ.17.) वस्तुतः युद्ध कालीन बलात्कार शांति
काल से अधिक बर्बर होते हैं। ध्यातव्य है कि युद्ध कालीन वे नृशंसताएँ दीर्घकालिक
आघात के रूप में स्त्रियों को मानसिक प्रताड़ना पहुँचाती है। क्रिस्टिन टी. हेगन (Kristine
T. Hagen) अपनी
शोध The Nature and Psychological Consequences of War Rape for में युद्धकालीन बलात्कार की गहन पड़ताल
करते हुए इसकी पाँच विशेषताएँ बताती हैं - (1) व्यापकता (2) सार्वजनिक घटनाक्रम (3) बर्बरता (4) दासता (5) नैतिक सफाई। इस शोध में क्रिस्टिन
लिखती हैं - "द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान लगभग 19 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ।
पाकिस्तानी सैनिकों ने बांग्लादेश की लगभग 2 लाख महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार
किया। क्रोएशिया, बोस्निया
तथा हर्जेगोविना में युद्ध के दौरान लगभग 60 हजार बलात्कार के मामले सामने आए। 1994 में रवांडा के गृह-युद्ध में लगभग ढाई
से पाँच लाख महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किए गए। आगे वे बताती हैं एक अनुमान
के अनुसार युद्ध के दौरान 91 प्रतिशत बलात्कार सामूहिक होते हैं।"
(हेगन क्रिस्टन, द
नेचर एण्ड साइकोलॉजिकल कॉन्सिव्फ़वेन्सेस ऑफ वार रेप फॉर, पृ.15-16.)
एमनस्टी इंटरनेशनल के 2004 के रिपोर्ट के अनुसार युद्ध में स्त्रियों के साथ बर्बरतापूर्ण यौन उत्पीड़न के सबूत मिलते हैं जिसमें बताया गया है कि स्त्रियों के जननांगों को काटना उनके गुप्त अंगों के आसपास गोली मारना आदि युद्ध के दौरान सामान्य बात है। प्रथम व द्वितीय दो विश्वयुद्धों में कई देशों में सैन्य व अर्ध सैन्य बलों ने सामूहिक बलात्कार की अनगिनत घटनाओं को अंजाम दिया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बेल्जियम और रशिया औरतों के लिए सामूहिक मरण-स्थली बने वहीं दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान रूस, जापान, इटली, कोरिया और फिलीपिन्स जैसे देशों में बड़े पैमाने पर स्त्रियों को शोषित किया गया। इसके अतिरिक्त आपसी छोटी बड़ी मुठभेड़ों में अफगानिस्तान, अलजीरिया, अर्जेन्टीना, बांग्लादेश, ब्राजील, बोसनिया, कंबोडिया, कांगो, क्रोएशिया, साइप्रस, हैति, इंडोनेशिया, कुवैत, मोजाम्बिक निकार गुआ, पाकिस्तान, पेरु, रवांडा, सर्बिया, टर्की, ईरान, वियतनाम जैसे देशों की लंबी सूची है जहाँ यौन हिंसा की घटनाएँ हुई और बड़े-बड़े भाषणों राजनैतिक समझौते के बीच प्रतिरोधी आवाजें दब गईं अथवा दबा दी गई। गरिमा श्रीवास्तव क्रोएशिया हर्जेगोविना और बोस्निया के खिलाफ सर्बिया के युद्ध का मर्मांतक वर्णन करती हुई लिखती हैं "इनके खिलाफ युद्ध में सर्बिया ने नागरिक व सैन्य कैदियों के कुल 480 कैंप बनाए थे। क्रोएशिया व बोस्निया के नागरिकों को डराने के लिए उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार किए गए। आक्रमणकारी छोटे-छोटे समूहों में गाँव पर हमला करते जिनका पहला निशाना होती लड़कियाँ और औरतें। सामूहिक बलात्कार का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता ताकि दूसरे गाँव को अपने हश्र का अंदाजा हो जाए। युद्ध शुरू होते ही परिवार के परिवार गाँव छोड़कर भाग जाते। पीछे छूट जाते खेत, ढोर-डंगर और पकड़ ली गई औरतें जिनकी उम्र 10 से 60, 70 वर्ष तक हुआ करती।" (श्रीवास्तव गरिमा, पत्रिका पाखी, अंक-33.)
बोस्निया में युद्धोत्तर काल में लोगों के पास बची हुई अंतहीन, शब्दहीन कथाएँ थी। गरिमा श्रीवास्तव लिखती हैं "इनमें से एक का कहना था हमने अपनों की सामूहिक हत्याएँ देखी, निर्वस्त्र भगाई जाती औरतों के समूह को नदी में डूबते देखा है। मर चुका बच्चा गोद से चिपकाएँ, गाय सी डकारती पगलाई औरतों पर थूँक फेंकते सर्बियाई को देखा है और क्या देखना बचा है? लगता था जीवन कभी लौट पाएगा क्या?" (श्रीवास्तव गरिमा, पत्रिका पाखी, अंक-33.) हालाँकि जेनेवा कंवेंशन में युद्ध के दौरान यौन हिंसा और सैनिकों द्वारा स्त्रियों के एकल अथवा सामूहिक बलात्कार को मानवता के विरुद्ध जघन्य अपराध माना गया। लेकिन पूरे विश्व में युद्ध नीतियों के तहत स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा एक अलिखित चर्चा है।
1992 में हुए क्रोएशिया और सर्बिया के युद्ध में औरतों की दिल दहला देने वाली दुर्दशा को गरिमा श्रीवास्तव इस प्रकार बताती हैं। वे लिखती हैं- "वे (लड़कियाँ) बारी-बारी सर्व सैनिकों द्वारा ले जाई जाती और बलात्कार के बाद लुटी-पीटी घायल अवस्था में स्पोर्टस हाल में बंद कर दी जाती। सर्व सेनाओं ने घरों, दफ्तरों और कई स्कूलों की इमारतों को यातना शिविरों में बदल डाला था। एक बोस्नियाई स्त्री ने बताया- "पहले दिन हमारे घर पर कब्जा करके परिवार के मर्दों को खूब पीटा गया। मेरी माँ कहीं भाग गयी, बाद में उसका कुछ पता नहीं चल पाया। वे मुझे नोचने खसोटने लगे। भय और दर्द से मेरी चेतना लुप्त हो गई जब जगी तो मैं पूरी तरह नंगी और खून से सनी हुई फर्श पर पड़ी थी। यही हाल मेरी भाभी का भी था।" (श्रीवास्तव गरिमा, पत्रिका पाखी, अंक-35.)
यौन हिंसा के साथ-साथ युद्ध के दौरान वेश्यावृत्ति की दर में तेजी से वृद्धि होती है। सैनिक अड्डों के आसपास कई ऐसे सामाजिक ढाँचे बन जाते हैं जहाँ स्त्रियों को अगवा कर उन्हें वेश्यावृत्ति के लिए बेचा जाता है। ‘सान्ध्रा व्हाईट वर्थ अपने एक शोध में बताती हैं कि यौन हिंसा के मानसिक एवं भावनात्मक प्रभावों के अतिरिक्त युद्ध के दौरान अपने पति के मारे जाने, लापता होने अथवा नजरबंद होने से स्त्रियों पर अपने परिवार के भरण-पोषण का दायित्व बढ़ जाता है और उपयुक्त नौकरी और भूमि जैसे संसाधनों पर स्वामित्व न होने के कारण उनकी चुनौतियाँ और अधिक बढ़ जाती है। फलतः अपने अस्तित्व की रक्षा तथा जीवन-निर्वाह के लिए उन्हें गैर-कानूनी कार्यों जैसे वेश्यावृत्ति, नशीले पदार्थ की तस्करी आदि का सहारा लेना पड़ता है, जिस कारण समाज में अपराधों के दर में वृद्धि होती है।
सान्ध्रा व्हाईट वर्थ ने अपने शोध कार्य (जेंडर एण्ड पीस कीपिंग) के लिए कम्बोडिया में सुरक्षा के लिए भेजी गई संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना का व्यावहारिक अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने कंबोडिया में ‘यूनाइटेड नेशन ट्रांजेशनल अथोरिटी काउंसिल’ को चुना। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि "यू.एन.टी.ए.सी. (U.N.T.A.C.) के आने के तुरंत बाद इन सैनिकों की जरूरतें पूरी करने के लिए वेश्यावृत्ति की दर में अचानक तेजी आ गई। ‘कंबोडियन वुमन डेवलपमेंट एसोसिएशन’ के अनुमान वहाँ वेश्याओं की संख्या 1992 में छः हजार से बढ़कर इन शांति सैनिकों के आने के बाद पच्चीस हजार हो गई।" (बिरमानी आर.सी., समकालीन अंतर्राष्ट्रीय संबंध, प्रथम संस्करण-2007, पृ.385.)
उपरोक्त उद्धरणों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि युद्ध के दौरान होने वाली सैन्य गतिविधियों का शिकार सबसे बड़ी मात्रा में महिलाएँ ही होती हैं। इन युद्धों का परिणाम प्रत्यक्ष रूप से तो होता ही है। युद्ध के बाद भी इसके विनाशकारी प्रभाव लंबे समय तक स्त्री मानस पर अपनी अमिट छाप बनाए रखते हैं। यह अनेकस्तरीय मार स्त्रियों को सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक सभी रूपों में आहत करती है तथा इसके कई दूरगामी प्रभाव देखें जा सकते हैं जैसे संसाधनों का अभाव, निजी अस्मिता का हनन, व्यक्तिगत आघात, थकान आदि। दूसरी ओर इस पूरे वातावरण का मनोवैज्ञानिक रूप से प्रतिकूल प्रभाव भी स्त्रियों पर पड़ता है जिस कारण स्त्री का आत्म-नियंत्रण समाप्त हो जाता है। अवसाद, भय, दुस्वप्न, मानसिक तनाव आत्महीनता, निराशा, निजता का ह्रास, सामाजिक अलगाव जैसी मानसिक स्थितियाँ आत्महत्या को बढ़ावा देती हैं। क्रिस्टिन टी हेगन के अनुसार "पिछली 9 सदियों से युद्ध के दौरान बलात्कारों का घृणित सिलसिला चलता आ रहा है लेकिन,1998 में जाकर युद्ध के दौरान इसे अपराध की श्रेणी में रखा गया।" (हेगन क्रिस्टन, द नेचर एण्ड साइकोलॉजिकल कॉन्सिव्फ़वेन्सेस ऑफ वार रेप फॉर, पृ.21.)
उपरोक्त विवेचन से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि युद्ध एक विघटनकारी प्रक्रिया है जो पूरे मानव-समाज को नाना विसंगतियों एवं समस्याओं से न सिर्फ पीड़ित करती हैं वरन् एक ऐसे वातावरण का निर्माण करती है, जहाँ मनुष्य सामाजिक, आर्थिक एवं मानसिक तीनों स्तरों पर टूट सा जाता है और उसकी स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैसी हो जाती है। चूँकि स्त्री मानव समाज का ही अभिन्न अंग है अतः युद्ध की विभीषिका उसे भी नहीं छोड़ती बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि युद्ध कहीं भी हो, किसी के बीच हो उसका सबसे प्रतिकूल प्रभाव औरत पर पड़ता है। इस संदर्भ में यह कहना अधिक सटीक होगा कि युद्ध के दौरान स्त्री का जीवन स्वयं एक युद्ध बन जाता है।
संदर्भ
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पत्र-पत्रिकाएं
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रिपोर्ट
1. क्रिस्टिन टी हेगन (Kristine T. Hagen),‘द नेचर एण्ड साइक्लोजिकल कॉन्सिक्यून्सेस ऑफ़ वार रेप फॉर इंडिविजवल एंड कम्युनिटिज, इंटरनेशनल जनरल ऑफ साइक्लोजिकल स्टडीज, वॉल्यूम 2, दिसंबर 2010
शिप्रा शुक्ला, सहायक प्रवक्ता, हिंदी विभाग, तेजपुर विश्वविद्यालय, असम
8010222643, shiprajji@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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