सम्पादकीय : अहिंसा परमोधर्म: / जितेन्द्र यादव
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दीवार की तरफ देख रहा हूँ कि छिपकली एकाग्रचित और एकदम शांत भाव से अपने भोजन को झपट-झपटकर निगल रही है। बल्ब के प्रकाश में कीट-पतिंगों के लिए छिपकली किसी यमराज से कम नहीं है। बिल्ली की तो गणेश जी के वाहन से पता नहीं क्या दुश्मनी है, उसे देखते ही खूंखार बनकर उस पर टूट पड़ती है। कुत्तों को मौका मिलने की देरी भर है तुरंत मुर्गे-मुर्गियों को मुंह में दबोच लेते हैं। जल में रहने वालों को ही देखिए, बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। खाद्य पदार्थ की श्रृंखला में कीट को मेंढ़क खाता है, मेंढ़क को साँप खा जाता है और उस साँप पर बाज बाजी मार ले जाता है। जंगल का नजारा देखिए कि इतना बड़ा हाथी अपना पेट पेड़-पौधों से भर लेता है लेकिन शेर के लिए मांस के बगैर जिंदा रहना ही असंभव हो जाता है। जंगल का राजा शेर है वह दहाड़ता है तो जंगल दहल जाता है। मैं सोच रहा हूँ कि कमबख्त घास और फल-फूल खाकर शेर अपनी ताकत को नहीं दिखा सकता था? यानी ईश्वर ने भी सबसे ताकतवर जानवर को शुद्ध मांसाहारी ही क्यों बनाया। शुद्ध शाकाहारियों के लिए भी कोई ऐसा उदाहरण होना चाहिए था।
कहते हैं कि ईश्वर की मर्जी के बिना पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिलता है। फिर इस जीव-जगत में कुछ पशु-पक्षी और जंतुओं को मांसाहारी बनाने के पीछे उसकी मर्जी जरूर रही होगी। क्या वे शाकाहारी जीवन का निर्वाह नहीं कर सकते थे। एक दर्शन कहता है कि ‘जीव ही जीव का आहार है’ तो दूसरा दर्शन ‘अहिंसा परमो धर्म:’ का है। भारतीय दर्शन में देखा जाए तो बौद्ध और जैन धर्म ने अहिंसा पर सबसे ज्यादा बल दिया है। उसका तात्कालिक कारण था क्योंकि आर्यों के यज्ञ इत्यादि में पशुबलि एक धार्मिक मान्यता बन चुकी थी। इस फैली हुई हिंसा के कारण उन्होंने अहिंसा पर ज़ोर दिया। जैन धर्म में तो अहिंसा का अतिशय प्रभाव हावी हो गया था। अहिंसा पर अत्यधिक ज़ोर होने के कारण इस धर्म का सामाजिक विस्तार नहीं हो पाया। कल्पना करिये, मुंह बाधकर चलना कि हवा के द्वारा कोई किटाणु मुंह में प्रवेश न कर जाए अन्यथा पाप लगेगा। हिंसा का इतना सूक्ष्म बचाव क्या एक किसान के लिए संभव है। वह जब खेत में हल जोतता है तो हजारों किटाणु मरते हैं। किटाणुओं से बचाव के लिए दवा का छिड़काव भी करना पड़ता है अर्थात बिना किटाणु हिंसा के अन्न का उत्पादन संभव ही नहीं है। इसलिए जैन धर्म एक व्यापारी वर्ग तक ही सिमट कर रह गया।
हिन्दू धर्म में ही वैष्णव पंथ अहिंसा पर बल देता है किन्तु मांसाहारियों ने मांस खाने का रास्ता धर्म से ही निकाल लिया। शाक्त पंथ वाले दुर्गा या काली के नाम पर पशुबलि देते रहे हैं। दुनिया की करीब अस्सी प्रतिशत जनसंख्या मांसाहारी है। एक सर्वे के मुताबिक भारत में ही सत्तर प्रतिशत लोग मांसाहारी है। इससे जाहिर है कि मांसाहार को लेकर तमाम साधू, संतों के धार्मिक उपदेशों का असर जनमानस पर कम ही पड़ता है। बौद्ध धर्म को मानने वाला चीन मांसाहार में किसी देश से पीछे नहीं है। धार्मिक नजरिए से देखें तो ईसाई सबसे ज्यादा मांसाहारी है। भारतीय समाज में शाकाहारी भोजन सामाजिक श्रेष्ठता बोध की पहचान है। हर शाकाहारी व्यक्ति मांसाहारी व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखता है और जिसने लहसुन-प्याज तक का त्याग कर दिया है उसे तो गर्व की अनुभूति होती है और लगता है कि इस संसार में मैं ही महान और सात्विक व्यक्ति हूँ बाकी मनुष्य तुच्छ प्राणी हैं। एक शाकाहारी चाहता है कि पूरी दुनियाँ शाकाहारी बन जाए। किन्तु ऐसा होना काल्पनिक प्रतीत होता है। भारत का अधिकांश गरीब नदियों और तालाबों से मछ्ली मारकर खाता है क्योंकि उसके लिए वह जीविका और प्रोटीन दोनों का स्रोत है।
हिन्दू धर्म में शुद्धतावादी दृष्टिकोण हमेशा हावी रहा है। पवित्रता और श्रेष्ठता का संबंध मांस खाने से भी है। शूद्र जातियों का विश्लेषण करते हुए अंबेडकर का एक तर्क यह भी है कि जिन जातियों ने मांस खाना नहीं छोड़ा वे शूद्र की श्रेणी में आ गई। अंबेडकर के अनुसार ऋग्वेद में आर्य जातियों द्वारा भी मांस खाने का जिक्र मिलता है। सामाजिक और धार्मिक रूप से ब्राह्मणत्व का संबंध भी शुद्ध शाकाहारी भोजन से है। ब्राह्मण होकर मांस भक्षण करना पाप ही नहीं अपितु महापाप समझा जाता है। अमूमन यह कहते हुए सुना जा सकता है कि फलां व्यक्ति ब्राह्मण होते हुए भी मांस खाता है। अर्थात ब्रह्मणत्व की रक्षा के लिए निरामिष भोजन जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। किन्तु भारत में ही मिथिला और बंगाल के ब्राह्मण बड़े शौक से न केवल मछली खाते हैं बल्कि उनके रीति-रिवाज और अनुष्ठान का अंग भी है।
भारतीय समाज पवित्रता के लिए नहीं बल्कि अपनी विचित्रता के लिए जाना जाता है। उसके व्यावहारिक जीवन में कई विरोधाभाष दिखाई देते हैं जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। हिन्दू परिवारों में अधिकांश पुरुष मांस, मछली और अंडा खाते हैं लेकिन अधिकांश महिलाएं धार्मिक नजरिए से पाप -पुण्य की मान्यता के कारण खाने से परहेज करती हैं। यानि एक ही परिवार में महिला वर्ग और पुरुष वर्ग भोजन को लेकर आपस में बंटा हुआ है। बहुत से परिवारों में मांस खाने पर सख्त पाबंदी के बावजूद भी पुरुष चोरी-चुपके खा ही लेता है। समाजशास्त्री पहलू यह भी हो सकता है कि धार्मिक सत्संगों में बढ़-चढ़कर भाग महिलाएं ही लेती हैं। उन उपदेशों में मांस निषेध पर अत्यधिक ज़ोर रहता है दूसरा कारण यह भी है कि अनेक व्रत, उपवास, पूजा-पाठ के साथ धार्मिक क्रिया-कलाप में महिलाएं संलग्न रहती हैं (अभी हाल ही में जब कोरोना का प्रकोप था तो बड़े स्तर पर महिलाएं कोरोना प्रकोप को समाप्त करने के लिए देवी काली को धार चढ़ा रही थी।) शायद इसलिए मांसाहार को तिरस्कार की भावना से देखा जाता हो। मजेदार बात यह है कि घर के रसोई में महिलाओं का एकाधिकार होता है इसलिए कई घरों में पुरुष मांसाहार के लिए घर से बाहर पकाने का इंतजाम करते हुए देखे जाते हैं।
शाकाहार और मांसाहार का अंतर्द्वंद्व हिन्दू धर्म व्यवस्था में साफ दिखाई पड़ता है किन्तु इस्लाम में लगभग सर्व स्वीकार्य है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण बकरीद इत्यादि पर्व है, जहां बकरा से लेकर ऊंट तक की बलि बड़े उत्साह से दी जाती है। कई शुद्धतावादी हिन्दू इसी आधार पर मुस्लिम समुदाय से खान-पान की दूरी बनाते हैं कि मुस्लिम मांसाहारी होते हैं किन्तु धार्मिक और सामाजिक रूप से हिन्दू भी मांसाहार में पीछे नहीं हैं। इसका उत्कृष्ट नमूना पंचायत चुनावों में भी देखने को मिलता है जहां दारू और मुर्गे की जोड़ी ही कमाल दिखाती है। इसलिए यह भी एक मिथक की तरह ही है कि सिर्फ मुस्लिम ही मांसाहारी होते हैं। भारत में ही सबसे बड़े और आधुनिक बूचड़खाने ‘अल कबीर’ के मालिक गैर-मुस्लिम सतीश सब्बरवाल हैं।
अहिंसा एक व्यापक अवधारणा है। इसलिए इसे खाद्य पदार्थों तक सीमित करके देखना एकांगी दृष्टिकोण है। हो सकता है कि चींटी और मछली को चारा खिलाने वाला व्यक्ति भी व्यक्तिगत जीवन में अपने स्वार्थ और लोलुपता के लिए मनुष्य की हत्या कर देता हो। आधुनिक भारत में अहिंसा को सही मायने में किसी ने जीवन में उतारा तो निःसंदेह वे महात्मा गांधी थे। किन्तु उन्हें भी अंततः हिंसा का ही शिकार होना पड़ा। दंगा-फसाद, हत्या, बलात्कार जैसी घटनाओं से मनुष्यता ज्यादा खतरे में दिखाई पड़ती है। इसलिए अहिंसा को मनुष्य केन्द्रित बनाने की ज्यादा जरूरत है। इस अंक में धरोहर स्तम्भ के अंतर्गत प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरीशंकर परसाई की व्यंग्य रचना ‘एक गोभक्त से भेंट’ इस मुद्दे पर हमारे समाज को आईना दिखाती है।
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अपनी माटी का यह अंक कई अर्थों में अपने बीते अंकों से जुदा है। हर बार की तरह हमने 'बतकही' कॉलम में दो महत्त्वपूर्ण बातचीत और जोड़ने की कोशिश की है। जानेमाने कथाकार संजीव और प्रसिद्द रंगकर्मी सुधेश व्यास के विचारों से यह अंक समृद्ध बन सका है। प्रसिद्द दलित साहित्यकार डॉ. सुशीला टाकभौरे से बातचीत स्त्री विमर्श के लिहाज से भी उतनी ही ख़ास है जितनी दलित विमर्श की दृष्टि से। पत्रिका का सबसे मजबूत पक्ष इसका वैचारिकी कॉलम है जिसमें हमारे प्रतिबद्ध साथियों सहित जानकार वरिष्ठों को शामिल कर विचार प्रक्रिया को हमने आगे बढ़ाया है। इस बार प्रो. गजेन्द्र पाठक का 'गाजीपुर में कबीर' उनकी अपनी परिचित शैली लिखा गया भीतर तक भिगो देने वाला आलेख है। आपको यहाँ कहीं-कहीं हजारी बाबू की खुश्बू अनुभव होगी। साथी गजेन्द्र मीणा जी ने वर्तमान संदर्भों में आदिवासी विमर्श में दिखाई दे रहीं या अनुभव हो रहीं चुनौतियाँ पर बेबाक़ी से लिखा है। इसी क्रम में शिप्रा शुक्ला, श्रीनिवास त्यागी, डॉ. जे. आत्माराम, डॉ. विवेक कुमार यादव ने बात को आगे बढ़ाया है।
पत्रिका के प्रत्येक अंक में एक बड़ा हिस्सा दलित साहित्यिकी का रहता ही है, इस बार भी छह आलेख शामिल करके हम संतुष्ट हैं। शोधार्थी ज्योति पासवान ने कुछ नई स्थापनाएं देने का प्रयास किया है वहीं डॉ. दिनेश पाल का आलेख यथार्थ की नई इबारतों से हमें परिचय देता है। आलेख साहित्य के होकर भी समाजशास्त्र के ज्यादा करीब हैं। दलित विमर्श के सूत्र टटोलते हुए भक्तिकाल की पड़ताल करने में सफल डॉ. अनिल कुमार और राम यश पाल ने भी सार्थक हस्तक्षेप के साथ पत्रिका में कुछ नया जोड़ा है जिसे पढ़ा जाना चाहिए। अंक में आदिवासी विमर्श यानी 'हुल जोहार' और स्त्री विमर्श यानी 'सामानांतर दुनिया' कॉलम में दो-दो आलेख हैं जो अपनी बात कहने में पूरी तरह सक्षम हैं। 'लोक का आलोक' में प्रियंका दास ने सही मायने में चाय-बागान मजदूरों के दर्द को उकेरा है। वे अपने शोध के दौरान रात-रातभर जागकर मजदूरों के रतजगों में जाकर गीतों का मर्म जानती रहीं। यह नई तरह का काम अनुभव हुआ। संघर्ष के इस नए दस्तावेज़ का स्वागत किया जाना चाहिए। मनीष रंजन जी की भाषा में कहें तो सुशील द्विवेदी का आलेख अपनी माटी को सही मायने देता है। यह अपनी शैली और भाषा की बुनावट में न्यारा ही है।
'हिंदी की बिंदी' में हमारे प्रगतिशील मित्र ईशमधु तलवार के आकस्मिक देहावसान पर उन्हें याद करते हुए उन्हीं के कहानी संग्रह को केंद्र में रखकर एक आलेख लिखवाया है। पंकज मित्र की कहानियों पर शोध कर रहे दिनेश कुमार शर्मा ने भूमंडलीकरण को नवीन अर्थों में परिभाषित करने की कोशिश की है। इसी कॉलम में नेहा चौधरी ने अपने एम. फिल. के शोध को साझा किया है। अंक में सभी तरह के रचनाकार मिलेंगे। उपन्यासों पर आधारित शोध से जुड़े समस्त आलेख 'अनकहे-किस्से' में पढ़े जा सकते हैं। कई विश्वविश्वद्यालय के जानकारों ने इस हेतु नए दृष्टिकोण से काम करते हुए अपना कुछ लेखन हमसे साझा किया है। अपनी माटी का प्रयास रहता है कि देश के नए-नए रचनाकारों को पाठकों तक ले जा सकें। विभाजन का दर्द किसी से छिपा नहीं है। हमने इस अंक से एक कॉलम शुरू किया है जिसमें तीन आलेख केवल इसी दर्द को बयान कर रहे हैं। 'दीवार के उस पार'।
थर्ड जेंडर विमर्श आज बेहद ज़रूरी विमर्श के रूप में स्पेस बना चुका है। चौतरफा शोध जारी है। हमारी पत्रिका में ऐसी सामग्री का विशेष स्वागत रहता ही है। इस अंक में भी 'देशांतर' के अंतर्गत तीन रचनाएँ पढ़िएगा। वर्धा, जयपुर और कर्नाटक के मित्रों ने बहुत मेहनत से लिखा है। 'कवितायन' कविता पर केन्द्रित शोध और समीक्षाओं का स्थान है। यहाँ दो आलेख केवल और केवल कुँवर नारायण जी को केंद्र में लेकर प्रकाशित हैं। मिथक और मानवीय मूल्य जैसे आवश्यक विषय पर आपको नया पढ़ने को मिलेगा, ऐसी आशा है। 'नीति-अनीति' हमारे समाज-सिनेमा-शिक्षा से जुड़े हस्तक्षेप का कोना है। यहाँ हमारे ही साथी और शिक्षा में शोधरत विजय मीरचंदानी की पाठ्यक्रम को लेकर चीजों का बारीक विश्लेषण प्रस्तुत किया है वहीं देबांजना नाग की कुछ केस-स्टडी को छापकर हम बेहद प्रसन्न हैं। बनारस में रहकर देबांजना ने गंभीर कार्य किया है। इसका नोटिस लिया जाना चाहिए।
नाटक और रंगमंच से जुड़ी सामग्री भी अब आने लगी है। इस बार चुनिन्दा तीन आलेख पढ़ने योग्य है। एक लेखक तो बलदेवा राम खुद राजस्थान में रंगमंच परम्परा पर गंभीर शोधार्थी हैं। डॉ. नितिन सेठी ने पंडित राधेश्याम कथावाचक जी पर अच्छी सामग्री उपलब्ध करवाई है। यह सब आपको अर्पित है। मीडिया हमारे समय का बड़ा सच है। 'पत्रकारिता के पहाड़े' कॉलम में इससे जुड़ा प्रकाशन संभव हुआ है। तीनों लेखिकाओं ने तीन दृष्टिकोण से बात रखी है। देखकर बताइएगा कि दिशा कैसी है? इस अंक की सबसे बड़ी सफलता कहें तो जाने कि दिनों बाद कविताएँ छाप पा रहे हैं। बड़ी तसल्ली है। गजेन्द्र मीणा जी के सहयोग से गांधीनगर के ही डॉ. प्रमोद कुमार तिवारी जैसे संजीदा कवि और संगीत मर्मज्ञ से हम अब तक अछूते ही रहे। बड़े प्यारे इंसान हैं। इस अंक में उनकी कविताओं सहित कविता की यात्रा पर उनसे सप्रेम लिखवाया अंश छापा है। ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। इस अंक से हम अध्यापकों के अनुभव पक्ष को छापना आरम्भ कर रहे हैं। संवेदनशील और नवाचारी अध्यापकों को अपने मन की कहने का यहाँ अवसर मिलेगा ऐसी सोच है। पहला संस्मरण/आत्मकथ्य हमारे मित्र मोहम्मद हुसैन डायर का है। इस तरह कथेतर को छापकर हम संतोष भोग रहे हैं। 'कथेतर का कोना' में अलग से यात्रावृत्त, जीवनी साहित्य और रिपोर्ताज पर तीन आलेख आपको नई रोशनी के साथ आगे ले जाएंगे। इस अंक से हमने अंक में शामिल चित्रों और उनके चित्रकार पर हमारे ही साथी डॉ. संदीप कुमार मेघवाल के मार्फ़त संक्षिप्त टिप्पणी करने का आगाज़ किया है। यह अंक अथक परिश्रम के बाद आपके सामने है। ‘अपनी माटी’ की पूरी टीम ने जिस समर्पण भाव के साथ कार्य किया है, वह सराहनीय है। इस अंक के लिए चित्र डॉ. कुसुमलता शर्मा जी ने भेंट किए हैं। हम उनका आभार व्यक्त करते हैं।
हमारे मार्गदर्शक और सम्पादन मंडल ने कुछ विस्तार के साथ अपने समूह को
बढ़ाया है। हम राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर की प्रो. तनुजा सिंह का एक्सपर्ट के
तौर पर स्वागत करते हैं और सम्पादन मंडल में सह-सम्पादक के तौर पर शामिल डॉ. मैना
शर्मा, बलदेवा राम, डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर और डॉ. गोपाल गुर्जर का स्वागत है।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
सर सामजिक मिथक पर जोरदार आघात् करता अत्यंत प्रशंसनीय लेख ।लेख में यथार्थ को स्वीकार कर लेने एवं मिथ्या या सामाजिक दिखावे को त्यागकर जीवन की मूलभूत सच्चाई को स्वीकार कराने हेतु एक से बढ़कर एक उदाहरण प्रस्तुत किये गए है ।
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