शोध आलेख : मनीष वैद्य कृत ‘चूहेदानी’: भूमंडलीकरण और मानवीय संवेदनाओं का ह्रास / नेहा चौधरी
नामवर सिंह जी के शब्दों में “समाज अपनी वास्तविक
अभिव्यक्ति के लिए हमेशा की तरह व्यक्ति और व्यक्तित्व पैदा करता है।” समाज द्वारा
निर्मित लेखक का व्यक्तित्व ही साहित्य सृजन की बीच की वह कड़ी है,
जो
समाज एवं साहित्य को जोड़ता है एवं समाज को साहित्य से होते हुए पाठकों तक
पहुंचाता है। अपने समाज द्वारा निर्मित मनीष वैद्य भी एक ऐसा ही व्यक्तित्व हैं। उन्होंने अपने लेखन के द्वारा
अपने जीवन के रेशों को उधेड़ कर रखा है। मनीष वैद्य जी के शब्दों में “मेरा पूरा
बचपन संसाधन विहीन लेकिन आत्मीयता से भरे-पूरे
गांव में बीता, यहीं पढ़ाई हुई,
दोस्त
बने, छीना-झपटी हुई, लड़ाइयां
हुईं, अच्छे-बुरे
का ख्याल बना। जहां मैंने जी-तोड़ मेहनत करने पर भी मुस्कराते मजदूर देखे,
अपनी
फटीहाली में भी जिंदादिल किसान देखे, दिन-रात
घरों और खेतों में खटती औरतें देखी। उन्होंने मेरी संवेदनाओं को आकार दिया। वे
किरदार मेरी कहानियों से अछूते कैसे रह सकते हैं? वे बार-बार लौटकर आते हैं और मैं
उन्हें गाता हूँ वे मुझे झकझोर कर कहते हैं कि हमें और हमारी तकलीफों को तुम स्वर
नहीं दोगे, तो कौन देगा? यह मेरे ऊपर उनका
कर्ज है मुझे इसे चुकाना
ही होगा।” उनका संपूर्ण साहित्य इन मूक किरदारों को वाणी प्रदान करने की एक चेष्टा
है।
मनुष्य संपूर्ण ब्रह्मांड विचर ले परंतु शांति तो
वह प्रकृति की गोद में ही पाता है। सूर्य का तेज उसमें चेतना भरती है,
तो
चंद्रमा की ठंडक शीतलता। कल-कल
करती नदियां उसे गति प्रदान करती हैं, तो कोमल तृण-गुल्म संवेदना।
प्रकृति सदैव मानव की सहचरी रही है। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके मानव ने
भरपूर विकास किया है। परंतु अब वह अपनी महत्वाकांक्षा को शांत करने के लिए प्रकृति
का दोहन कर रहा है। मनीष वैद्य जी का लेखन मानव एवं प्रकृति के सहचर्य संबंध को
पुनः जीवित करने का एक प्रयास है। इनकी रचनाओं के मूल में भारतीय ग्रामीण जीवन है,
प्रकृति
का आग्रह है, खत्म होती मानवीय संवेदनाओं की
चिंता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का छल छद्म है। युग के जर्जर पात्र हैं,
जो
विकास की इस अन्धी दौड़ में स्वयं को ठगा हुआ पाते हैं।
“आक्सफोर्ड डिक्शनरी” के अनुसार
“भूमंडलीकरण” वह प्रक्रिया है “जिसके द्वारा पूरी दुनिया एकल बाजार बन जाती है।
इसका मतलब यह है कि वस्तुओं और सेवाओं पूंजी और श्रम का व्यापार दुनिया भर में
किया जाता है। अनुसंधान की सूचनाएं एवं परिणाम का प्रवाह सभी देशों में तेजी से
होता है।” इसके लिए वैश्वीकरण या ग्लोबलाइजेशन शब्द का भी प्रयोग किया जाता है।
फ्रांसिस फूकोयामा “अमेरिकीकरण” को ही “वैश्वीकरण” मानते हैं,
उनका
कहना है कि “इसे अमेरिकीकरण ही कहना चाहिए क्योंकि कुछ मामलों में अमेरिका विश्व
में आज भी सर्वाधिक उन्नत पूंजीवादी समाज है।”
‘चूहेदानी’ कहानी में स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय ग्रामीण परिवेश का वर्णन है। वर्णन है सरकार के आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से प्रभावित ग्रामीण समाज का, मानवीय संवेदनाओं का। कहानी में व्यक्त समस्याएं भले ही स्वतंत्रता पश्चात के भारतीय गांव से जुड़ी हो, परंतु आजादी के इतने साल बाद भी वह समस्याएं आज हमारे समाज में विद्यमान हैं। “वर्तमान सदैव अतीत पर नया प्रकाश फेंकता रहता है और इसी प्रक्रिया के कारण अतीत का जीवित अंश बराबर वर्तमान के साथ रहता है।”1 कहानी में ‘भूमंडलीकरण’ से पहले के ग्रामीण समाज एवं उसके बाद के ग्रामीण समाज का वर्णन है। भले ही ग्राम समाज भौतिक रूप से उतना उन्नत ना हो। परंतु संपूर्ण ग्राम परिवार का गुजर बसर होता था। अपने विकास के लिए वह किसी अन्य पर निर्भर नहीं था। गांव का अपना ही स्वतंत्र बाजार था, जो आत्मनिर्भर था। गांव में किसान, लोहार, बामन, सुतार, कुम्हार, मजदूर आदि सभी रहते थे। सभी आपस में आदान-प्रदान कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। सभी के कोठार अनाज से भरे रहते थे। साथ ही गांव के पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं को भी उनका हिस्सा मिलता था। कोई भूखा नहीं रहता था।
वहीं दूसरी ओर उस ग्रामीण समाज का वर्णन है,
जो
सरकार की आर्थिक नीतियों से त्रस्त है। आजादी को लेकर लोगों के मन में एक सशक्त
भारत का सपना था। परंतु आजादी के बाद के परिवेश को देखकर उनका आजादी से मोहभंग
होता है। तत्कालिक सरकार अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व व्यापार केंद्र जैसे
अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव में आकर भारतीय बाजार को बहुराष्ट्रीय कंपनियों
के लिए खुला छोड़ दिया था। “अहस्तक्षेप”* सिद्धांत ने बहुराष्ट्रीय
कंपनियों एवं पूंजी को राष्ट्रीय सीमा से मुक्त कर दिया था। बहुराष्ट्रीय कंपनियां
पूंजी के निवेश के लिए उचित संसाधनों की खोज में पूरे विश्व में भटक रही थी। अब उसे
सर्वथा अपना निवास बनाना था। “वह स्वाधीनता आंदोलन के सारे आदर्शों और मूल्यों को
मिटाती हुई स्वदेशी की भावना और उपनिवेशवाद विरोधी चेतना को नष्ट कर रही थी।”2
अब लोगों के लिए रोटी सबसे बड़ा प्रश्न था। उन्हें समझ में आ रहा था कि गुलामी से
आजादी और भूख से आजादी दोनों अलग बात है। आजादी के बाद विकास की जो नई धारा समाज
में प्रवाहित हुई उसमें कुछ प्रभुत्वशाली वर्ग ने इस प्रकार कब्जा जमा रखा था कि
उसकी बूंद तक ग्रामीण भारत में नहीं पहुंच पा रही थी। सत्ताधारी वर्ग अपना स्वार्थ
साध रहा था और जनता रोटी की तलाश में मजबूरी या अनिच्छा से ऐसे पेशों से जुड़ रही
थी जहां “उनके बच्चों के लिए रोटी का इंतजाम जहर से होता था एक का जहर दूसरे के
जीने का आधार बन चुका था।”3
फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए हरित क्रांति का
नारा दिया जा रहा था। सरकार के कर्मचारी गांव के किसानों को दाना-दाना बचाने के
नुस्खे सिखा रहे थे। तब उन कर्मचारियों द्वारा पहली बार यह बताया गया कि उनके
फसलों को चूहों एवं अन्य अनाज खानेवाले जीव-जंतुओं
से खतरा है। अब इन उच्च अधिकारियों के निशानों में यह चूहे थे। वे उन लोगों को
इन्हें मारना सिखा रहे थे और वहीं कुछ ऐसी जनजातियां भी हैं,
जो
चूहे खाकर जीवनयापन करने के लिए विवश हैं। पहले उनके पास दाने नहीं था। अब उनसे
चूहों को भी छीना जा रहा है और इस कार्य में जहर की छोटी पुड़िया काफी लाभदायक
सिद्ध हो रही थी। इस जहर को शहर के कस्बों में, छोटे
उद्योगों में बनाया जा रहा था। इस जहर से सैकड़ों परिवारों को रोटी नसीब हो रही थी।
कहानी में जहर द्वारा चूहों को मारना एक प्रतीक है, चूंकि
वे कमजोर हैं, इसलिए शोषण के भागीदार भी हैं।
हमें उनका अस्तित्व अपने लाभ में एक बाधा की तरह प्रतीत होता है तो हम उन्हें मार
देते हैं। कहानी की यह घटना पूंजीवादी समाज की “यूज एंड थ्रो”,
“हायर
एंड फायर” की संस्कृति को दर्शाती है।
भूमंडलीकरण की आड़ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने व्यावसायिक क्षेत्र को विस्तृत करने के लिए विकासशील देशों के घरेलू उद्योग एवं लघु उद्योगों को नष्ट करना आरंभ किया। प्रतिस्पर्धा की दौड़ में बचे रहने के लिए ये विशालकाय कंपनियां छोटे उद्योगों एवं व्यापार को खा रही थी। कहानी में दो प्रमुख पात्र हैं रफी और नूर। ये मात्र पात्र नहीं समय एवं समाज के प्रतीक भी हैं। “व्यक्तित्व केवल मनुष्य का ही नहीं होता युग और इतिहास भी व्यक्तित्व से युक्त होता है।”4 इतिहास से जुड़े ये व्यक्तित्व एवं समस्याएं आज भी हमारे समाज में उपस्थित हैं नूरी का कथन कि “अमेरिका कहीं के ...... तुझे पता भी है .. कि तूने कितने चूहे - खटमल मार डाले !”5 क्या आज कम प्रसांगिक है? पूंजी के बल पर तब अमेरिका छोटे एवं कमजोर राष्ट्रों का शोषण करता था और आज भी कर रहा है।
अपना व्यापार बढ़ाने के लिए भूमंडलीय कंपनियों ने
भारतीय ग्रामीण समाज को सबसे पहले अपना निशाना बनाया। ग्राम समाज स्वावलंबी था।
किसानों का अपनी भूमि के साथ माता का संबंध था। किसान खेती करता था साथ ही उसे
अपने पर्यावरण का भी ख्याल था। वह कृषि में ऐसी ही वस्तुओं का उपयोग करता था जिससे
उसकी धरती, पर्यावरण एवं जीव जंतुओं को कोई
नुकसान न हो। परंतु नयी आर्थिक योजनाओं के कारण अब खेत फैक्ट्रियों में बदल रहीं
थी और फसलें उत्पादन बनती जा रही थी। प्राकृतिक खाद, देसी
बीज के स्थान पर विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल किया जा रहा था। जहर अब कीटनाशक बन
चुका था। वन्य जीव-जंतु बेमौत मारे जा रहे थे। “अनाज
और सब्जियों की रगों में समाया जहर थाली पर पहुंच रहा था। लेकिन उत्पादन बढ़ रहा
था। चमकीली डिब्बों से निकलकर जहर अब सब तरफ फैल रहा था। यहां तक कि धरती हवा और
पानी में भी जहर घुल रहा था।”6 लाभ हो रहा था। यह धरती ना ठंडी हो रही
है ना गरम बल्कि खत्म हो रही है। “पूछो उनसे की असर किसमें बचा है धरती में,
पानी
में, हवा में। जब इनमें नहीं बचा तो जहर में कैसे
बचेगा?”7 यह मात्र रफी का प्रश्न नहीं है लेखक की चिंता भी है और आज
हमारे समाज की चिंता बन चुकी है। वैश्वीकरण के दौर में राष्ट्र बहुराष्ट्रीय
कंपनियों के हितों की रक्षा करने वाला राजनीतिक औजार बन गया है। पर्यावरण नियम
विकसित देशों के अनुसार बदलने लगे हैं। इस प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए अन्य
राष्ट्रों ने अपने व्यापारिक नियमों को बदला ताकि विदेशी निवेश बढ़े भले ही देशी
उद्योग खत्म हो जाए।**
पूंजी एवं मशीनों पर आधारित यह व्यवस्था पूरी तरह
यांत्रिक है। मानवीय संवेदनाओं का यहां कोई स्थान नहीं है। अपने लाभ के लिए यह
व्यवस्था संपूर्ण पृथ्वी को उत्पादन के कारखाने में बदल देना चाहती है। यह
व्यवस्था मानव के चेतना और संवेदना को उससे छीन लेती है। मानसिक एवं शारीरिक स्तर
पर उसका शोषण करती है। ये मोटे चूहे सब कुछ खाने में अमादा है जो खाने लायक नहीं
है वह भी सबूत नहीं बचता। कहानी में पहले ये चूहे नूरे के नींद में आकर उसकी नींद
और चैन खत्म करते हैं। और अंत में उनके अस्तित्व तक को खत्म कर देना चाहते हैं।
पहले चूहे अवचेतन में रहे । फिर वे उनकी देह से होते हुए दिल-दिमाग
में रहने लगे और अब वे उन्हें समूचा कुतर देने में अमादा है। ये शोषक पहले स्वयं
से कमजोर लोगों का शारीरिक स्तर पर शोषण करते हैं। उनके श्रम पर जीते हैं। फिर
धीरे-धीरे ये उनके दिल दिमाग अर्थात संवेदना एवं चेतना को भी खोखला बनाते हैं।
नूरे के देह में चूहे के दांत के निशान हैं। उसके शरीर से बहता रक्त,
समाज
का बहता रक्त है। आज उसका शरीर थोथा पड़ गया है। वह सब कुछ देखता है परंतु उसके मन
मस्तिष्क में, शरीर में, कोई
हरकत नहीं होती है। उसका शरीर जर्जर हो गया है। उसमें विद्रोह की ताकत नहीं है,
स्वयं
के बचाव का साहस नहीं है।”
पूंजीवादी समाज अपने पूंजीवादी सिद्धांत के आधार पर ही व्यक्ति के स्तर को ऊंचा
उठाने का वादा करता है, हालांकि
वह जिन संसाधनों को प्रयुक्त करता है उनसे वह वास्तव में मानव के खिलाफ ही जाता है।”8
रचनाकार का यह बिंब कि “थका हुआ सूरज अपनी जर्जर
पीली धूप को समेटे हाफंते हुए धीमी चाल से लौट रहा है। उसमें महज घिस कर चलने की
मजबूरी है।”9 समूचे समाज की थकी हुई निस्तेज पड़ी चेतना को दर्शाता है।
कहानी के पात्र कटु यथार्थ से प्रभावित हैं, रचनाकार
ने पात्रों की मनोदशा को बिना घालमेल के कहानी में प्रस्तुत किया है। ये पात्र
जर्जर थके हुए, अवसाद ग्रस्त जरूर प्रतीत होते
हैं। वे शोषित अवश्य हैं, परंतु
उन्हें अपनी शोषक की भलीभांति पहंचान भी है। इसलिए उनकी बस अब यही चाह है कि एक
मुकम्मल चूहेदानी बनाई जाए ताकि इन मोटे चूहों से समाज को मुक्ति मिल सके। निराशा
की अवस्था में भी उनकी मुट्ठियां बंधी हुई हैं, उसमें
कसाव है। देर है, तो बस उन्हें उछालने की।
यही वह चेतना की चिंगारी है, जिसे
लेखक अतीत से वर्तमान के लिए ढूंढ कर लाते हैं।
अपने तंत्र को सर्वत्र फैलाने के लिए इन व्यवसायिक कंपनियों ने सार्वजनिक क्षेत्रों में घुसपैठ आरंभ की। पहले सार्वजनिक क्षेत्र सरकार के अधीन थे। सरकार कल्याणकारी योजनाओं में उचित भूमिका निभाती थी। संपूर्ण समाज के विकास के लिए वह जवाबदेह थी। परंतु इस घुसपैठ के कारण सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों एवं कल्याणकारी योजनाओं से अपने हाथ खींच रही है। “सार्वजनिक को निजी बनाने के बहाने देश की अर्थव्यवस्था विदेशियों और उनके देशी दलालों के हाथ में सौंपी जा रही है .... देश की संपत्ति को जैसे-तैसे व्यक्तिगत संपत्ति बनाने का अभियान जारी है। सार्वजनिक हित पर व्यक्तिगत हित हावी होता जा रहा है। सामाजिक सफलता से व्यक्तिगत सफलता अधिक महत्वपूर्ण मानी जा रही है और अवसरवाद से आस्था आक्रांत हो रही है।”10 कहानी में काले चूहे रेलवे का काफी नुकसान कर रहे हैं जमीन खोदकर उसे खोखला कर दे रहे हैं। तो सरकार इन काले चूहों से निजात पाने के लिए सफेद चूहों को पालना चाहती है। कहानीकार यहां प्रश्न उछालता है कि “सफेद चूहों को देखकर काले चूहे भाग जाएंगे रेलवे को काले चूहों से नुकसान नहीं होगा। परंतु जब ये सफेद चूहे नुकसान करेंगे तब क्या करेंगे? “नोआम चोम्स्की” का कहना हैं कि “नवउदारवाद की नीतियां लोकतांत्रिक नियंत्रण और प्रतिभागिता को बर्बाद करने के लिए बनाई गई है। इनका पहला काम सार्वजनिक स्वरूप को छोटा करना और निर्णय लेने का अधिकार कॉरपोरेट जगत के निजी क्षेत्रों के ऐसे निरंकुश लोगों को दिया जाना जो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और कुछ शक्तिशाली राष्ट्रों में छाए रहते हैं।”
अंग्रेजी में बाजारवाद के लिए मुक्त व्यापार या
फ्री मार्केटिंग शब्दों का प्रयोग होता है। “भूमंडलीकरण” ने सदैव बाजारवाद को
बढ़ावा दिया है। बाजार व्यवस्था उत्पादन और उपभोक्ता पर आधारित होता है। इसके मूल
में पूंजी का लाभ होता है। भारत में जब विदेशी बाजार का आगमन हुआ तो उसकी चमक ने
सभी को प्रभावित किया। पहले हफ्ते में एक दिन हाट लगता था, वह
भी फीका और बदरंग होता था। वहीं अब विदेशी बाजार हर वक्त चमचमाते हुए खड़ा है।
उसकी चमक को प्राप्त करने के लिए लालायित मनुष्य लगातार उसकी चक्कर काट रहा है। खरीदने
के लिए सब कुछ उपलब्ध है। उसकी सत्ता इतनी मजबूत है कि स्वयं मानव और मानवीय
संवेदना खरीदे जानी वाली वस्तुओं की कतार में स्वयं को खड़ा पाती है। अपने लाभ के
लिए यह उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देती है, वह
लागत मूल्य को लाभगत पूंजी में बदलना चाहती है। “उपभोक्तावाद अमानुषिकता का सूचक
है।”11 वह स्वयं के लाभ के लिए मानवीय संवेदनाओं को खत्म करता है। जो
उत्पादन कर सकता है वही मूल्यवान है अन्यथा उसे उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। बाजार
की इसी प्रवृत्ति से मानवीय समाज भी प्रभावित होता जा रहा है। जो पूंजी उत्पादन
में समर्थ है वह केंद्र में है अन्यथा उसका वहाँ कोई स्थान नहीं है। कहानी में
नूरे और रफी में पूंजी के उत्पादन करने का सामर्थ्य नहीं है वे वृद्ध हो गए हैं। तो
वे आज अपने ही घर में, अपने ही परिवार द्वारा
हाशिये में धकेल दिए गए हैं। आज उनका अस्तित्व उनके घरवालों के लिए आंख में शर्म
के समान है। नूरे सोचता है कि जो औरतें रफी की मृत्यु पर दहाड़े मार कर रो रही है
यदि वे ही उसे दो वक्त की रोटी दे दिया करते तो शायद वह आज जीवित रहता। “व्यक्ति
की चेतना से सामाजिक चिंता और नैतिक दायित्व की भावना का लोप हो रहा है। इस
प्रक्रिया में सामाजिक व्यवस्था अमानवीय होती जा रही है और वह लगातार असामाजिक
मनुष्य पैदा कर रही है।”12 पहले संपूर्ण समाज का “विकास” होता था और आज
“ग्रोथ” या वृद्धि होती है। जो केवल एक व्यक्ति का होता है।
व्यक्तिगत स्वार्थ एवं लाभ पर आधारित इस व्यवस्था ने भ्रष्टाचार को खूब बढ़ावा दिया। अब बड़ी कंपनियां जहर का निर्माण कर रही थी। इनका जहर सभी को मार रहा था। परंतु मोटे काले चूहों पर इनका कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। ये अभी भी इमारतें, ट्रेन, सडकें, बांध, फाइलें, फसलें कुतर रहे थे। इनके दांतों का पैनापन बढ़ता ही जा रहा था। “गोदाम, बैंक, खजाने, सड़कें, बांध, कागज” सब इनके पेट में है। कहानी में डीजे पर फड़कता हुआ फिल्मी गाना बजाकर कीटनाशक की तस्वीरों वाले रंगीन पर्चों को फेंकना और बच्चों का उसके पीछे दौड़ते हुए उसे पकड़ने की कोशिश करना एवं अंत में वाहन का गियर बदलकर काले धुएं का बादल छोड़ते हुए आगे बढ़ जाना बाजार के चरित्र को उघाड़ कर रख देता है। कहानीकार ने फैंटेसी शैली, फ्लैश बैक शैली का प्रयोग किया है। अवचेतन मन की सहायता से उन्होंने यथार्थ को प्रकट किया है। कहानी का परिवेश आजादी के बाद का ग्रामीण भारत है, जो आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से त्रस्त है। प्रचुर मात्रा में उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग है। कहानी की मांग के अनुसार उन्होंने व्यंग्य भी प्रस्तुत किए हैं। यथार्थ का सजीव ढंग से चित्रण करने के लिए उन्होंने कई प्रतीकों का भी प्रयोग किया है।
लेखक का पत्रकार व्यक्तित्व ग्रामीण समाज का, उसकी मानवीय चेतना का हर एक कोना झांक आता है। समाज की समस्याओं का हल भी समाज में ही प्राप्त होता है। कहानी में अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी नूरे का एक मुकम्मल चूहेदानी बनाने का दृढ़ संकल्प इन समस्याओं का समाधान है। यहां चूहेदानी बनाना “सृजनशीलता” का प्रतीक है। “अल्बेयर कामू” लिखते हैं कि “उद्योग पर आधारित समाज उत्पादन कर सकता है किंतु सृजन नहीं।” बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो भी कुछ निर्मित करती है वह महज “प्रोडक्ट” (माल) होता है मौलिक सृजन नहीं। इसलिए मशीनों पर आधारित यह व्यवस्था मानवीय संवेदना को उसकी सृजनशीलता को अपने अनुरूप यंत्रवत बनाना चाहती है। हमारी मानवीय संवेदनाएं एवं सृजनशीलता ही हमें विकास के नए चरणों तक पहुंचाएगी। परंतु यहां हमें “विकास” की सच्ची सार्थकता को समझना होगा। मात्र भौतिक विकास ही विकास का मूल नहीं है। यह शब्द काफी विस्तृत है। मात्र विकास से काम नहीं चलेगा। हमें आवश्यकता है तो “सतत विकास” की अर्थात् “सृष्टि की संपूर्णता में विकास।” मानव जाति के विकास के साथ-साथ समाज और पर्यावरण के विकास का भी ध्यान रखना होगा। इन तीनों का सामंजस्य ही सही अर्थों में हमारा विकास करेगा।
संदर्भ
:
1
सिंह दिनकर,
रामधारी,
पंत
प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त, लोकभारती
प्रकाशन, इलाहाबाद, 2009,
पृ.
20
2
पांडे मैनेजर आलोचना की सामाजिकता,
वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय
संस्करण, 2008, पृ.
160
3
संपादक – हरिनारायण,
चूहे
दानी, कथादेश, अंक
12, फरवरी 2020, पृ.
70
4
सिंह दिनकर, रामधारी,
पंत
प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त, लोकभारती
प्रकाशन, इलाहाबाद, 2009,
पृ.
10
5
संपादक - हरिनारायण,
चूहेदान,
कथादेश,
अंक
12, फरवरी 2020, पृ.
72
6
वहीं, पृ. 73
7
वहीं, पृ. 70
8
खेतान प्रभा, वह
पहला आदमी अलब्येर कामू, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम
संस्करण, पृ. 164
9
संपादक हरिनारायण, चूहे
दानी, कथादेश, अंक
12, फरवरी 2020, पृ.
74
10 पांडे मैनेजर, आलोचना
की सामाजिकता, वाणी प्रकाशन,
दिल्ली,
द्वितीय
संस्करण, 2008, पृ.
160 -161
11 संपादक
आशीष त्रिपाठी, सम्मुख, राजकमल
प्रकाशन, दिल्ली, पहला
संस्करण, 2012, पृ.
13
12 पांडे मैनेजर, आलोचना की सामाजिकता, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, ब्रिटिश संस्करण, 2008, पृ. 160
शब्द
कुंजी :
* अहस्तक्षेप (Laissez Faire) - अहस्तक्षेप मुक्त अर्थव्यवस्था की विचारधारा है, जिसके प्रणेता स्कॉटिश अर्थशास्त्री एडम स्मिथ है। इन्होंने अपनी पुस्तक “दि बेल्थ ऑफ नेशन” (1776) में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया।
नेहा चौधरी, (एम फिल, हिन्दी विभाग),
क़ाजी नजरुल विश्वविद्यालय
पता – जीएफ-05, पार्वती शेल्टर, अपकार गार्डेन, आसनसोल, पश्चिम बंगाल
-713304
chowdhuryneha814@gmail.com, 7362976763
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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