आलेख : गाजीपुर में कबीर / प्रो. गजेन्द्र पाठक
पी. एन. सिंह की किताब है - ‘स्मृतियों की
दुनिया’। इस किताब में गाजीपुर की धरती और उसके जादुई आकर्षण का एक पूरा संसार है, जिसे पढ़ते हुए अपने स्मृति लोक
की एक तस्वीर याद आती है। दिल्ली विश्वविद्यालय में बी. ए. में मुझे दाखिला लेना
था।बिहार में उस वर्ष इंटरमीडिएट का रिज़ल्ट बहुत बाद में आया था। मुझे भय था कि दिल्ली
विश्वविद्यालय में मेरी दाखिला हो पाएगा कि नहीं। मेरे भाई का ससुराल है सुहवल में,
सरजू पांडेय उनके रिश्तेदार थे। सरजू पांडेय ने प्रो. मुनीस रज़ा को
एक सिफारिशी पत्र लिख दिया, जो उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय
के वाइस चांसलर थे। वह ख़त उर्दू में था। फारसी लिपि में। क्या लिखा था, मैं समझ नहीं पाया। उस सिफारिशी पत्र को लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के
उनके दफ़्तर पहुँचा। कुलपति के दफ़्तर को देखते हुए मेरा साहस जवाब दे गया। उस ख़त को
कुलपति के दरबान को सौंपकर उल्टे पाँव वापस आ गया। उस पर मुनीस रज़ा की क्या
प्रतिक्रिया रही होगी, यह जिज्ञासा आज तक बरक़रार है। मुझे इस
बात का अफ़सोस जिंदगी भर रहेगा कि गाजीपुर के दो सपूतों के बीच उस संवाद का साक्षी
नहीं बन पाया।
खैर, पी. एन. सिंह की किताब में राही मासूम रज़ा पर जो लेख है,
उसकी चर्चा कर रहा था। मुनीस रज़ा के इस पक्ष के बारे में शायद आप
लोगों को पता नहीं होगा जिसके बारे में तब पता चला, जब मैं
जे एन यू पहुंचा। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रावासों के नाम नदियों के
नाम पर हैं। यह परिकल्पना प्रो. मुनीश रज़ा की थी। यही नहीं, जेएनयू
के 1400 एकड़ के परिसर में भारत की सभी वनस्पतियों की उपस्थिति होनी चाहिए,
यह प्राक्कल्पना भी उन्हीं की थी। पूरा हिंदूस्तान और उसकी प्रकृति
अपनी सम्पूर्ण जीवंत जैव विविधता के साथ एक विश्वविद्यालय में रहे, इस सोच और स्वप्न को मैं प्रणाम करता हूँ। देश को जोड़ने की जो सूफी रवायत
थी उसी का विस्तार मुनीस रज़ा और राही मासूम रज़ा के चिंतन और लेखन में मुझे स्पष्ट
रूप से दिखाई पड़ता है। यह सोच इसी धरती(गाज़ीपुर) की सोच हो सकती है। मुझे बराबर
लगता है कि बाबर ने 600-700 साल पहले जो आकलन किया था कि इतनी पैदावार मिट्टी जहां
पर एक सूखी मृत छड़ी में कोंपले निकल पड़ने की आशंका थी, वह बिल्कुल
सही आकलन था।
पी. एन. सिंह ने राही मासूम की याद में जो लेख
लिखा है, उसका एक हिस्सा है कि “दरअसल वे
हमारे समय के कबीर थे।” आम तौर पर हिंदू-मुस्लिम संस्कृति पर जब बात होती है,
तो गंगा-जमुनी तहज़ीब की बात होती है। पी.एन. सिंह ने रेखांकित किया
है कि राही मासूम रज़ा गंगा-जमुनी तहज़ीब की बात नहीं करते, वे
केवल गंगा की बात करते हैं। उन्हें इस बात का भय नहीं है, कि
गंगा पर बात करने से वे गंगा-जमुनी तहज़ीब के विरोध में मान लिए जाएंगे, या कोई मज़हब उनसे ख़फ़ा हो जाएगा। यह साहस भी इसी धरती की उपज है।
मुझे बिस्मिल्लाह खां साहब याद आ रहे हैं। जब वे
अमेरिका गये, तो किसी
की तरफ से यह प्रस्ताव आया कि वे वहीं बस जाएं। उन्होंने कहा कि यह तो ठीक है
लेकिन उनकी जो गंगा है, “ उन्हें यहाँ कैसे ला पाएंगे,
मैं तो यहां हमेशा के लिए रह जाऊं, लेकिन मेरी
गंगा यहां नहीं आ पाएगी।”
एक दिन मैं केरल की एक नदी के तट पर खड़ा था, उस नदी का नाम है- ‘पुअर’ है,
जो तिरुवनंतपुरम से 30-40 किलोमीटर की दूरी पर बहती है। अद्भुत
सौंदर्य है। मलयालम में पुअर का अर्थ होता है- ‘फूल और पानी’। केतकी का फूल मैंने
यहीं देखा। लोग कविताओं में तरह-तरह की चीजों को ढूंढते रहते हैं, बहुत लोग कविता में आंदोलन खोजते हैं, कुछ आग खोजते
हैं और कुछ लोग धुआं से ही काम चला लेते हैं। हैदराबाद प्रवास के बाद से मक़दूम के
उस गीत ने मुझे काफी प्रभावित किया है- ‘फूल खिलते रहेंगे दुनिया में’। कालिदास ने
केतकी के इसी फूल को याद किया है और वह फूल शायद उन्हें भी उसी पुअर नदी के तट पर
मिला हो। यह कालिदास का प्रिय फूल है। ‘शिवपुराण’ में एक कथा है। शंकर भगवान को
फूलों में सबसे प्रिय केतकी ही था। अगर किसी ने शंकर भगवान को केतकी का फूल चढ़ा
दिया तो उसे शिवलोक प्राप्त हो जाता था। और कुछ नहीं करना था, केवल केतकी का फूल चढ़ाना था। लेकिन ये अब की बात नहीं बहुत पहले की बात
है। एक बार विष्णु जी और ब्रह्मा जी में इस बात को लेकर विवाद हुआ कि बड़ा कौन है
? दोनों ने कहा कि हम लोग तो आपस में समझ लेंगे, लेकिन पहले
शिवजी से निपट लेते हैं। शिवजी का थाह पाने के लिए ब्रह्मा और विष्णु ने दो रूप
धारण किया। ब्रह्मा जी ने पक्षी का रूप और विष्णु जी ने जंगली सूअर का रूप। विष्णु
जी तो धरती खोदते-खोदते थक हार कर शिवजी के सामने नतमस्तक हो गए कि प्रभु आपका पार
पाना मुमकिन नहीं है। लेकिन ब्रह्मा जी जब पक्षी के रूप में उड़ान भर रहे थे,
तो उन्हें ऊपर से गिरता हुआ एक फूल दिखाई पड़ा। वह केतकी का फूल था। ब्रह्माजी
ने पूछा कि कहां से आ रहे हो? एक पक्षी एक फूल से पूछ रहा है। फूल ने कहा कि मैं
शंकरजी के माथे से लुढ़क कर आ रहा हूँ। ब्रह्माजी खुश हो गए कि उन्होंने तो थाह पा
लिया। यह बात जब भगवान शंकर को पता चली तब उनके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। ब्रह्माजी
को सज़ा मिली कि उनकी पूजा इस धरती पर नहीं होगी और केतकी के फूल को यह कि आज के
बाद उसकी भी एंट्री बंद। आप समझ सकते हैं कि कालिदास को केतकी का फूल क्यों
बार-बार याद आता है! शायद मन में आशंका हो कि शंकर और पार्वती के जिस रूप का वर्णन
किया है, वह कोप का कारण हो सकता है और कहीं उनका हश्र भी
केतकी के फूल जैसा न हो ?
अंग्रेजी हुक़ूमत बंगाल और बिहार में नील की खेती
कराती थी, तो गाजीपुर में अफीम की।अफीम के
लिए जिन मासूम फूलों का उपयोग होता है उसे देखकर कातिल का चेहरा याद न आये यह कैसे
संभव है ? नील ने धरती को बंजर किया अफीम ने मासूम चेहरों को। सुना है फैक्ट्री से
रिसने वाले पानी में नशे की उम्मीद ने कई पीढ़ियों की जिंदगी को बंजर बना दिया। बहरहाल,
पी. एन. सिंह ने राही मासूम रज़ा को याद किए जाने के तीन ठोस कारण
बताएं हैं। पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण, अपने ‘आधा गाँव’ के
लिए। आप सबको पता है कि ‘आधा गाँव ’ पहले उर्दू में आया, फिर
हिंदी में आया। उर्दू जगत् ने ‘आधा गाँव’ को स्वीकार नहीं किया, लेकिन हिंदी जगत् ने उसे हाथों-हाथ लिया। आलोचना ने नहीं, हिंदी जनता ने। आलोचना में तो रामविलास शर्मा उसे अश्लील मान रहे थे। नामवर
जी मुरीद जरुर थे, लेकिन यह उपन्यास उन पर भारी पड़ा। जोधपुर
विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में इसे शामिल करने की प्रक्रिया में उनको जोधपुर ही
छोड़ना पड़ा।
दूसरा कारण अपनी एक वसीयत के लिए। तीसरा कारण
बताया है, महाभारत के संवादों के लिए। बात
हो रही थी कि राही मासूम रजा को गंगा पर भरोसा है; गंगा के किनारे पैदा हुआ
व्यक्ति रस्म अदायगी के लिए ही सही यमुना की बात क्यों करेगा? उनके भाई भूगोल के
प्रोफेसर थे, अत: उन्हें इतनी समझ तो थी ही कि जिस गंगा के
किनारे वे पैदा हुए हैं, उस गंगा में पहले ही एक जगह यमुना
मिल चुकी है। इसलिए गंगा में यमुना का भी पानी शामिल है। गंगा जैसी बड़ी नदियाँ
समुद्र से मिलने से पहले समुद्र के गुण से समृद्ध हो जाती हैं। कन्याकुमारी में
दक्षिण की तरफ जब आप मुहँ कर के खड़े होते हैं, वहां तीनों
सागर मिले हुए हैं। पता करने की कोशिश करिए कि हिंद महासागर का पानी कहाँ है,
अरबसागर का कहाँ है, बंगाल की खाड़ी का कहाँ
है? गांधीजी 1938 में वहां गए थे और वहीं पर उनकी इच्छा हुई कि अगर उनकी अस्थियाँ
उस लायक हों, जो विसर्जित हो सकें, तो वहीं पर विसर्जित होंगी,
जहाँ पर तीनों समुद्र का पानी एकाकार हुआ हो। 1948 में वह काम हुआ, कन्याकुमारी में गांधीजी की समाधि
इस बात का प्रतीक है कि हमारी संस्कृतियाँ कैसे बनती हैं !
‘महाभारत’ के संवाद आपके जनपद ने रचे हैं। वेदव्यास
महान थे लेकिन हिंदी में वेदव्यास को उतारना कोई छोटा काम नहीं था। यह वैसा ही था
जैसा ‘ज्ञानेश्वरी’ में कृष्ण को मराठी में उतरने का निवेदन हुआ। वेदव्यास के
‘महाभारत’ को आज की पीढ़ी नहीं पढ़ती है लेकिन, महाभारत के ‘डायलॉग्स’ जिन्हें राही मासूम रज़ा ने लिखा
है, वह जुबान पर है। चौथा कारण बताया, अपनी
सरोकार- हिंदुस्तानीयत की। भारत के साहित्यिक-सांस्कृतिक इतिहास में अमीर खुसरो से
बड़ा भारत पर भरोसा करने वाला और कोई दूसरा नहीं हुआ। खुसरो का मानना था कि जो कुछ
भी नया होगा वह भारत में होगा। भारत की लोकभाषाओं में होगा। बुद्ध का प्रकाश था यह
जो भक्ति आन्दोलन में भारतीय लोकभाषाओं के आत्मविश्वास का आधार बना। वे उन लोगों
से बहुत दुखी थे, जो बात-बात पर पूरब पश्चिम का मुंह जोहते
हैं। जिस देश में ‘पञ्चतंत्र’ जैसी रचनाएँ हों उस देश के साहित्यकारों के क्षीण
आत्मविश्वास से वे विचलित होते थे। राही मासूम रज़ा ने ‘महाभारत’ के संवादों के
जरिये ‘महाभारत’ ही नहीं भारत के इतिहास और उसकी परम्परा का पुनर्पाठ और अंतरपाठ
प्रस्तुत किया है। यह पाठ भारत और गंगा के प्रति दृढ़ भरोसे का ही नहीं उस भारत की
जनता के प्रति प्यार और भरोसे का प्रतीक है, जिसके भरे -पूरे
गाँव को उजाड़ने में सत्ता का खेल सदियों से जारी है। ’आधा गाँव’ का ‘महाभारत’ से
रिश्ता गाजीपुर जनपद ही समझ सकता है।
मुझे भक्ति आंदोलन की भी बात करनी है। बगल में बलिया
के द्विवेदीजी ने कबीर पर महत्त्वपूर्ण काम किया है। उसमें उन्होंने एक बहुत ही
महत्त्वपूर्ण बात कही है कि जिस समय हमारा भक्ति-आंदोलन था, जो हमारे लिए गौरव और उत्कर्ष का
विषय था, वही समय संस्कृत साहित्य के इतिहास में टीका युग था।
टीका युग का मतलब यह होता है कि जो कुछ अच्छा था वह सब हो चुका है, अब सिर्फ व्याख्याएं हो सकती हैं। अब नया कुछ नहीं हो सकता। वेद लिखे जा
चुके हैं, पुराण लिखे जा चुके हैं, वेदव्यास,
कालिदास हो चुके हैं, अब नया कुछ नहीं होना। अब
आप जरा देखें, कि उस टीका युग ने संस्कृत साहित्य के इतिहास
में जिस ‘टॉर्निंग पॉइंट’ को जन्म दिया, उसके बाद उसके
इतिहास में पंडितराज जगन्नाथ के बाद गाड़ी हिचकोले खाने लगी।यह कैसी विडम्बना है
कि संस्कृत को कोसने वाले कबीर को अपना उद्धारक संस्कृत के ही पंडित में मिला। गुलेरी
जी भी संस्कृत के थे। जयपुर से बनारस आये। बड़ी दुनिया देखी, कम
उम्र में ही कम लिखा लेकिन यश ? लिखा कि "परंपरा में, संस्कृति
के इतिहास में, सभ्यता में कुछ भी बिगड़ता नहीं है, कुछ भी रुकता नहीं है। कुछ लोग जो मानते हैं कि अब तक सब कुछ हो चुका,
वे गलत हैं। नहीं, अभी जो हुआ है वह अंतिम
नहीं है और बहुत कुछ होना है आगे। इसीलिए हमारा यह प्रयास चल रहा है। सारे प्रतिभाशाली
पैदा होकर प्रतिभा की संभावनाओं को खा -पीकर पचा नहीं गए बल्कि उन्होंने नए रास्ते
बनाये हैं जिनसे होकर और भी प्रतिभाएँ आनी हैं। बहुत नए काम होने हैं। यह भरोसा
अपनी भावी पीढियों के प्रति किसी भी रचना और सभ्यता के संसार में और किसी भी विचार
के संसार में, सबसे अधिक महत्त्व रखता है। "
‘आधा
गाँव’ में आप देखें, देश बंट रहा है। आप भूगोल बांट सकते हैं, इतिहास
नहीं बाँट सकते। परम्पराओं की कड़ी को नहीं तोड़ सकते। आपको याद होगा, भारत पाकिस्तान के बीच जब सरहद बांटनी थी, तो एक
व्यक्ति को, जो भूगोल का भी जानकार था, बुलाया गया। रेडक्लीफ नाम था। रेडक्लीफ साहब से कहा गया कि आप बहुत जल्दी
एक रेखा बनाइए, जिसे भारत- पाकिस्तान के नक़्शे के बीच चिपका
दिया जाए। रेडक्लीफ ने कहा कि मैंने तो देखा ही नहीं है भारत! अंग्रेज़ हुक्मरानों
ने कहा कि देखने की क्या जरूरत है? नक्शे पर खींच दो। वे जानते थे कि जोड़ने के लिए
देखने जानने की जरुरत होती है, तोड़ने के लिए नहीं। अंग्रेज़
तो ये काम कर ही चुके थे, उस्ताद थे, इस
मामले में। अफ्रीका का नक्शा आप उठाकर देखिये। स्केल से खींचा हुआ है। भारत में
स्केल से नक्शा खींचना मुश्किल था, क्योंकि यहाँ हिमालय से
निकलने वाली पाँच -पाँच नदियाँ मुश्किल पैदा कर रही थीं। रेडक्लीफ ने किसी तरह से
उस काम को अंजाम दिया। चार हजार पाउंड उस समय उनका मेहनताना तय हुआ था। विभाजन के
बाद दंगे हुए और उन दंगों में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 15 लाख लोग मारे गए,
10 लाख लोग बेघर हुए। रेडक्लीफ ने कहा कि उनके जीवन में इससे बड़ी
कोई और दुर्घटना हो नहीं सकती। चेक लेने से साफ इनकार कर दिया, कहा कि ये चेक तो ख़ून से सना हुआ है। ख़ून से सने हुए चेक को वे नहीं ले
सके और आत्मग्लानि के दंश और सदमें से ही उनका निधन भी हो गया। उनके मन में यह बात
बैठ गई थी कि उन्होंने जो रेखा खींची है, उसी वजह से इतने
निर्दोष लोग मारे गए।
पूरा ‘आधा गाँव’ रेडक्लीफ सिंड्रोम से ग्रस्त है।
धरती बाँटने वाली रेखा पहले दिल पर उभरती है। रेडक्लीफ रेखा सीमा पर होती तो एक
बात थी, हमारे दिल में रेडक्लीफ खींची
हुई है। उसी रेडक्लीफ की ‘ऑटोप्सी’ और ‘बायोप्सी’ राही मासूम रज़ा ने की है। ये
वही कर सकता है, जो गंगा को अपनी माँ मान सकता है और
‘महाभारत’ की कथा को घर- घर तक पहुंचा सकता है। मैं गाजीपुर की इस प्रतिभा को
प्रणाम करते हुए पी. एन. सिंह से एक वाक्य उधार लेते हुए, कबीर
के पास आपको ले चलूँगा जहाँ उन्होंने लिखा है कि- “ दर असल राही मासूम रज़ा हमारे
समय के कबीर हैं। ”
आपका ध्यान
मैं इस बात की तरफ आकृष्ट करूँगा कि कविता हमारे लिए कितनी उपयोगी है और साहित्य
का हमारे जीवन में कितना बड़ा योगदान है? अभी हमने कार्ल मार्क्स की 200 वीं
वर्षगांठ मनाई, अक्टूबर क्रांति के 100 साल मनाए, चंपारण के किसान सत्याग्रह आंदोलन के 100 साल मनाए और अगले साल से हम लोग
अवध के किसान आंदोलन की भी 100 वीं जयंती मनाएंगे और उससे कुछ पहले हम मानवता के
इतिहास पर जो सबसे बड़ा धब्बा है- पहला विश्वयुद्ध और उसके बाद का भी….।
कल बार-
बार मैंने रवींद्रनाथ ठाकुर को याद किया था। आर्य-अनार्य के सवाल पर गुरुदेव ने
विचार किया है। किसका ख़ून पवित्र है और किसका ख़ून अपवित्र है? लंबी बहस चली। ख़ून
की पवित्रता की जांच में हिटलर ने जो प्रयोग किया, वह प्रयोगशाला सिर्फ इतिहास का विषय रहे, यह हमारी ईश्वर से प्रार्थना है। भविष्य में इस धरती पर कोई दूसरा हिटलर
उस तरह का प्रयोग का दुस्साहस न करे, यह हम सपना देखना चाहते
हैं। किसी का ख़ून पवित्र नहीं है, न ही किसी का ख़ून
अपवित्र है। यह सोच बलिया की मिट्टी में पैदा हुई। उसका प्रमाण और उसका स्रोत रवींद्रनाथ
ठाकुर का विचार था। कहा कि आर्य- अनार्य और कौन कहां से आया, कौन कहां पर बस गया ये बात मायने नहीं रखती है, बात
ये मायने रखती है, कि सब एक जगह आकर बस गए। एक उपवन में कौन
सा पौधा कहां से आया, ये बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात तो यह है कि एक उपवन में मिलकर सब साथ-साथ खिल रहे हैं।
द्विवेदी जी ने कहा कि, “परंपरा और संस्कृति में
विशुद्धता की बात केवल बात की बात है। असल में सबकुछ अविशुद्ध है, सबकुछ में मिलावट है। शुद्ध है, केवल मनुष्य की
अदम्य जिजीविषा शक्ति” जीवित रहना दुनिया की सबसे बड़ी चाहत है। यक्ष युद्धिष्ठिर
संवाद को याद दिलाने की जरुरत नहीं है। मृत्यु के पायदान पर खड़ा हुआ व्यक्ति भी,
अंतिम समय तक जीवित रहना चाहता है, इससे
पवित्र बात कुछ नहीं है। इस बात को द्विवेदीजी ने महसूस किया और इसको सिद्ध करने
के लिए, उन्होंने दो-दो किताबें लिखीं। एक का नाम है - ‘कबीर’
और दूसरे का नाम है- ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’। एक आलोचना की किताब है, और दूसरा उपन्यास। कबीर द्विवेदी जी को ऐसे ही बैठे ठठाले नहीं मिले थे। कबीर
के लिए द्विवेदीजी ने एक लंबी यात्रा की और वह यात्रा बनारस तक की यात्रा नहीं थी।
द्विवेदी जी को कबीर बनारस में नहीं मिले, कबीर उन्हें
शांतिनिकेतन में मिले। बीस साल तक रवीन्द्रनाथ के आकर्षण में वे अनिश्चित आर्थिक
भविष्य के बावजूद जिस ‘इतिहास धारा’ पर अनुसन्धान करते रहे उसका प्रकाश बोध हिंदी
के लिए कितना जरुरी है इसे बताने की जरुरत नहीं। नामवर जी ने ‘दूसरी परंपरा की
खोज’ नाम से जो किताब लिखी है, कल मैं कह रहा था कि
गुरु-शिष्य परंपरा का एक नायाब उदाहरण है। मुझे कई बार लगता है कि ‘दूसरी परंपरा
की खोज’ उस रवायत के पास पहुंचने की विनम्र कोशिश है, जो
उन्हें साहित्य के इतिहास के उन गौरवशाली अध्यायों से जोड़ती है, जो जीवन में भूख और दुःख से त्रस्त रहने के बावजूद जीवन और मनुष्यता के
सौन्दर्य और उजास के लिए एक समानांतर दुनिया रचने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे।
मैंने उस निबंध की भी कल आपसे चर्चा की थी- ‘भारत
वर्ष में इतिहास की धारा’और मैंने आपसे कहा था कि रवीन्द्रनाथ ने 1911 में लिखा कि, “दो लोग हुए, जिन्होंने भारत वर्ष के इतिहास को सबसे ज्यादा बदला, पहले हुए बुद्ध और दूसरे हुए कबीर।” लेकिन रवींद्रनाथ ने केवल इतना ही
नहीं कहा, उन्होंने ये कहा कि भारतीय ज्ञान मीमांसा पर जब-जब
बोझ भारी हुआ है, (उपनिषद में आपको एक बात दिखाई पड़ेगी,
ईशा उपनिषद में आपको एक बात दिखाई पड़ेगी। उपनिषदकार ने लिखा है कि
वे लोग बहुत आगे गए, जिनके लिए ज्ञान, माध्यम
रहा। लेकिन वे लोग अंधकार में विलीन हो गए, जिनका ज्ञान ही
लक्ष्य हो गया। बुद्ध ने भी यह बात कही, कि "नाव जो है,
वह नदी पार करने के लिए है, नदी पार करने के
बाद नाव को उठाने की जरूरत नहीं है, उसको वहीं छोड़ दो।"
रवींद्रनाथ ने लिखा है कि “जब-जब ये बोझ भारी हुआ है, तब-तब
कबीर जैसे लोग, बुद्ध जैसे लोग धरती पर आए हैं। ज्ञान के बोझ
को हलका किया है। ”
"मटकी पटक मिलौ प्रितम से.." ये मटकी
है ज्ञान की। हम क्या करते हैं, पूरी जिंदगी मटकी उठाने में बिता देते हैं। एम.ए., एमफिल,
पी.एच.डी, डिलिट, लेख,
किताब वगैरह क्या नहीं करते हैं? कुछ लोग हैं, जो साढ़े आठ सौ पृष्ठों की एक-एक हजार पृष्ठों की किताब लिखते हैं,
उन्हें पढ़ेगा कौन? ज्ञान को बोझ बनाने वाले लोग और ज्ञान को हलका
करने वाले लोग...खैर मैं कबीर की कविताओं के पास आप लोगों को ले चलूँगा, लेकिन उससे पहले द्विवेदी जी की उस शांतिनिकेतन यात्रा की बात करना चाहता
हूं, जहाँ पर उन्हें कबीर मिले। द्विवेदी जी जब शांतिनिकेतन
पहुंचे, तो वहाँ की हवा में कबीर पहले से मौजूद थे। मशहूर
अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के नाना आचार्य क्षितिमोहन सेन ने कबीर को जिस प्रेम से
उजागर किया, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस पर कभी बात होनी
चाहिए। हम लोग अक्सर भाषाओं के नाम पर लड़ते हैं, लेकिन
बंगाल के लोगों ने हिंदी के लिए जो किया, वह अविस्मरणीय है। हमारी
पूरी आधुनिकता, पत्रकारिता बंगाल में विकसित हुई। भारतेंदु
अगर बंगाल नहीं गए होते तो हिंदी में नवजागरण नहीं आया होता। हिंदी का पहला अखबार
कलकता से निकला। ये सारी बातें छोड़ भी दीजिए तो भी सिर्फ आचार्य क्षितिमोहन सेन
के अवदान पर विचार करते हिंदी में बंगाल के योगदान को समझ सकते हैं।
आचार्य क्षितिमोहन सेन ने कबीर और रैदास की
रचनाओं की खोज में पूरे देश की यात्राएं की थी। रैदास की रचनाओं को पाने के लिए एक
बार वे 28 दिन तक मोकामा के कबीर मठ में पड़े रहे और वहां के महंत से बहुत मुश्किल
से कुछ दुर्लभ पांडुलिपियाँ हासिल कीं। आज हमारे बीच रैदास की रचनाएँ जिस रूप में
हैं उसमें क्षितिमोहन सेन का बड़ा योगदान है। कबीर, रैदास और दादू की बहुत सी रचनाएं ‘गुरुग्रंथ साहब’ की वजह
से है। ‘गुरुग्रंथ साहब’ में सबसे ज्यादा कबीर की रचनाएं हैं। डॉ. श्यामसुंदर दास
जिन्होंने पहली बार हिंदी में ‘कबीर ग्रंथावली’ का संपादन किया उन्हें इस बात को
लेकर परेशानी थी कि कबीर पर पंजाबी का इतना असर क्यों है? उन्हें ये बात शायद पता
नहीं थी कि अगर पंजाब ने कबीर को बचाया और उस वजह से अगर थोड़ी हिंदी चली भी गई हो,
तो भी कबीर तो बच गए। जिस
देश में विरोधी विचारों को गायब करने की लम्बी परम्परा रही हो वहाँ कबीर जैसे कवि
की कविताएँ अगर सिख पंथ की वजह से सुरक्षित रह गई हों तो यह कोई आश्चर्य का विषय
नहीं होना चाहिए। ये लगभग उसी तरह की बात है कि सहरपा तिब्बती की वजह से जीवित रहे।
आप थोड़ी देर के लिए कल्पना करें कि अगर ‘गुरु ग्रंथ साहब’ नहीं होता, तो हमारी निर्गुण कविता पता नहीं आज हमारे बीच होती भी या नहीं होती!
आचार्य क्षितिमोहन सेन ने सबसे अधिक कृतज्ञता -ज्ञापन ‘गुरुग्रंथ साहब’ के प्रति ही
किया है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शान्तिनिकेतन में जो
दृष्टि पाई उसका असर उनकी ‘कबीर’ नामक किताब में है। अब आप जरा देखिए कि अवध का
किसान आंदोलन अगर नहीं होता तो आज हमारे बीच प्रेमचंद नहीं होते, या प्रेमचंद जिस रूप में होते,
शायद उस वजह से हम प्रेमचंद को याद भी नहीं करते। एक बड़े आंदोलन का
असर साहित्य पर पड़ता है, जैसे भक्ति आंदोलन का असर भक्ति साहित्य
पर पड़ा। अवध का किसान आंदोलन, जिसके प्रणेता बाबा रामचंद्र
थे, बाहर से आए, मूल रूप से वे
महाराष्ट्र के थे। बाहर गिरमिटिया मजदूरों की यातना और उस यातना के बीच तुलसीदास
की कविता के मरहम की ताकत को उन्होंने अपनी आँखों देखा था। बाबा रामचंद्र ने
तुलसीदास की चौपाइयों के आधार पर पूरे अवध के किसानों को जागृत किया। ये कोई छोटा
काम नहीं था। बाबा रामचंद्र का अनुभव गाँधी की तरह अन्तर्राष्ट्रीय था और उनको
लगता था कि रूस में जो सोवियत आंदोलन हुआ है उसमें साहित्य की बड़ी भूमिका है। लेनिन
का एक बहुत बड़ा सपना था। लेनिन ने कहा कि हमारे आंदोलन का यह सपना है कि उन घरों
में भी टॉल्स्टॉय पहुंचे जिन घरों में रोटी नहीं है। ‘कल्चर’ और ‘लिटरेचर’ को
‘बेसिक इन्फरास्ट्रकचर’ में शामिल करने की कोशिश की।
1927 में भगत सिंह ने लिखा कि हम अपने
जनप्रतिनिधियों से क्यों नहीं पूछते कि आपकी सरकार जब बनेगी, तब तुलसी और कबीर के साहित्य को
पूरे देश की जनता तक पहुंचाने की आपकी क्या योजना है? ये भगत सिंह 1927 में लिख
रहे थे और यह काम लेनिन दस-पंद्रह साल पहले कर चुके थे। बाबा रामचंद्र ने अवध के
किसान आंदोलन में वही काम किया। आपको एक बात जानकर ताज्जुब होगा कि राजकुमार शुक्ल
जब गाँधी को लेकर चंपारण पहुंचे थे, वे भी तुलसीदास के मुरीद
थे। दूसरी तरफ हिंदी में क्या स्थिति थी?
हिंदी में स्थिति यह थी, कि किताबें लिखी जा रही थी कि देव
बड़े कवि हैं या बिहारी? ‘सरस्वती’ का पूरा युग अब लगभग समाप्त होने को था और उसने
जो वातावरण बनाया, वह युगांतकारी था। मैथिलीशरण गुप्त की
कविता किसान पर आई, 'सरस्वती' पत्रिका कितनी महत्त्वपूर्ण थी,
इसका पता सिर्फ इस बात से चलेगा कि दक्षिण अफ्रीका के प्रवास में
गाँधीजी हिंदी की सिर्फ एक पत्रिका मंगाते थे और वह ‘सरस्वती’ थी। लेकिन हिंदी की
आलोचना के केंद्र में रीति कविता थी- “बिहारी बड़े हैं या देव”? हम कृतज्ञ हैं
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के जिन्होंने इस पूरी बहस में आलोचना की जमीन ही बदल दी। रीति
कविता की तमाम कलाकारी के बावजूद उन्होंने ये कहने का साहस किया कि ये बंधी हुई
नालियों में बहने वाली कविता है। ये कोई छोटा आलोचक नहीं कह रहा है, हिंदी का सबसे बड़ा आलोचक कह रहा है, जिसने ‘कविता
क्या है’ नामक एक निबंध को लिखने के लिए, इक्कीस साल का समय
लिया। उस निबंध के अंत में शुक्ल जी ने लिखा है कि कविता की जरूरत किसे नहीं है?
दो-दो विश्वयुद्धों की पृष्ठभूमि में, आप देखिए कि पहले और
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कितने लोग मारे गए, भारत इसमें
कोई दर्शक नहीं था, भारत इसमें शामिल था। तिरसठ हजार भारत के
जवान इसमें मारे गए हैं, इंडिया गेट की स्मारक बताती है,
जिसमें हम शामिल थे ही नहीं, उस युद्ध में, जिससे हमारा कुछ बनता बिगड़ता नहीं। क्यों मारे गए ? उस पागलपन के दौर में
जहाँ कौन पवित्र है, कौन अपवित्र है अपना छायावाद, पूरा प्रेमचंद युग देखें, टी. एस. इलियट को आप देखें,
‘वेस्टलैंड’ पढ़ें, ‘वेस्टलैंड’ 'ओंम् शांति'
में खत्म होता है। वह कवि जो कह रहा है कि परंपरा और संस्कृति हमारी धड़कन में
महसूस होनी चाहिए और जिसने अमरीका छोड़कर इंगलैंड में बसने का निर्णय लिया है और
अमरीकी परम्पराहीनता के दंश से जूझ रहा हो। अब सिर्फ इंगलैंड की परंपरा ही नहीं
पूरी दुनिया की परंपरा का अवगाहन करना होगा। इलियट वेद के पास जाते हैं और कहते हैं
कि अब इस दुनिया का कोई भला नहीं होने वाला। सब नष्ट हो गए। उस भयावह वातावरण में
जरा बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दो-तीन दशकों को, उनकी
जटिलता को, उनके अतंर्विरोध को ध्यान में रखते हुए आप देखें
कि कबीर और तुलसी किस तरह से हमारी आलोचना के केंद्र में आए? क्या कारण है कि पांच
सौ- छह सौ साल पहले की कविता को हमारे आलोचकों ने पढ़ने लायक समझा?
भगत सिंह अगर तुलसी कबीर की बात कर रहे हैं, बाबा रामचंद्र अगर रामचरितमानस
पढ़ रहे हैं, तो यह यूं ही नहीं कर रहे हैं, जरूरत थी तब। स्वतंत्रता की चेतना जिस साहित्य में नहीं होगी, उस साहित्य की कोई जरूरत नहीं है। यह चेतना तुलसीदास की कविता में मौजूद
थी। इसीलिए बाबा रामचंद्र ने उन कविताओं का उपयोग किया। उसी आधार पर गांधी जी ने
रामराज्य की परिकल्पना की और गांधीजी के पूरे के पूरे विचार में भक्ति आंदोलन की
ऐतिहासिक भूमिका है। उनका जो चरखा है कबीर का, उनका जो
सत्याग्रह है, मीराबाई का है, रामराज्य
की परिकल्पना तुलसीदास की है। गांधीजी ने कभी यह भ्रम नहीं पाला कि वे जो कह और कर
रहे हैं पहली बार कर रहे हैं। कहा कि मैं कुछ भी नया नहीं कर रहा, दुनिया के बड़े विचारक यह भ्रम नहीं पालते कि वह पहली बार कुछ नया कर रहे
हैं या नया कह रहे हैं। कहा कि सब कुछ पहले से मौजूद है, वे तो
सिर्फ उनको ‘रीक्रिएट;
कर रहे हैं, ‘एडिट’
कर रहे। लेकिन हिंदी आलोचना में गाँधीजी, बाबा रामचंद्र,
भगत सिंह तथा लेनिन की आवाज
नहीं थी। यह आवाज दो आलोचकों की वजह से आई, एक का नाम आचार्य
रामचंद्र शुक्ल और दूसरे का नाम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। एक की वजह से
तुलसीदास और भक्ति आंदोलन आया, दूसरे की वजह से भक्ति आंदोलन
की एक नई व्याख्या आई और कबीर आए। कबीर पर आचार्य क्षिति मोहन सेन ने 1910 में वह
काम किया। रवींद्रनाथ ठाकुर ने जब उस अनुवाद को पढ़ा तो पंद्रह में एक किताब आई। आप
सब जानते हैं कि रवींद्रनाथ ठाकुर हिंदी के लिए बाहरी आदमी नहीं हैं, उनका एक घर भागलपुर में था। रवींद्रनाथ ठाकुर की जो पहली रचना है
‘भानुसिंह पदावली’ वह आपको पढ़ते हुए लगेगा कि मैथिली के कवि विद्यापति एक नए
अवतार में लिख रहे हैं।
रवींद्रनाथ के लिए हिंदी कोई पराई भाषा नहीं थी। एक
तरह से कहें तो रवींद्रनाथ विद्यापति और कबीर की तरह लिखना चाहते थे। ‘वन हंड्रेड
पॉएम्स ऑफ कबीर’ रवींद्रनाथ द्वारा आचार्य सेन के बांगला में अनुदित पदों का
अंग्रेजी में अनुवाद है। एलवीन अण्डर हिल से उसकी भूमिका लिखवाई। एलवीन अण्डर हिल
तब के इंगलैंड की सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी जाने वाली, यूरोपीयन मिस्टशिज़म पर (क्रिस्टियनिटी कैथोलिक) सबसे
ज्यादा पढ़ी जाने वाली लेखिका थीं। उन्होंने एक खूबसूरत संपादकीय लिखा, जिसमें उन्होंने यूरोपीय रहस्यवाद और भारतीय रहस्यवाद के बीच के संबंधों
की पड़ताल की है। ‘मेटाफिजिकल पोइट्री’ और भारत से कबीर की कविताओं को उन्होंने
जोड़ा है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल रवींद्रनाथ के भारी विरोधी
थे। विरोध का कारण आध्यात्मिकता और रहस्यवाद है। आप देखिएगा कि शुक्लजी के इतिहास
में जहां-जहां रहस्यवाद है, वहां वहां वे रहस्यवाद के प्रति तीखे हो गए हैं। सिद्ध-नाथों का रहस्यवाद,
कबीर का रहस्यवाद, छायावाद का रहस्यवाद उनको
लगता था और ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में भी लिखा गया है, कि
“अंग्रेज़ों को हमारी आध्यात्मिकता बहुत पसंद है।” शुक्लजी को हमारा समूचा
आध्यात्मिक साहित्य साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के हाथों मुफ्त में मिली हुई ऐसी
चीज थी जिसे वे उसका शातिर ढंग से उपयोग करते थे। भारत के आध्यात्मिक साहित्य को
अंग्रेज इसलिए पसंद करते हैं, जैसे बनारस में आप देखिएगा,
भारत के लोग जो श्रम कर रहे हैं, यहां के
विद्यार्थी जो इतना बड़ा काम कर रहे हैं, भारत के मजदूर जो
दिन-रात मेहनत कर रहे है, उस पर अंग्रेज़ों का कैमरा नहीं
जाता। कोई धूनी जलाए, गांजा पीते हुए साधु की फोटो खींचकर
दिखाते हुए कहते हैं कि देखो, यही भारत है। लंबे समय से भारत
की यही तस्वीर पेश करने की कोशिश हो रही है, शुक्लजी इस बात
से आहत थे। उन्हें जहां कहीं भी ऐसा दिखता था, वे कहते थे कि
इसको ‘डिलिट’ करो, ये हमारी कल्चर का हिस्सा नहीं है। उन्हें
लगता था कि रवींद्रनाथ ठाकुर रहस्यवाद के समर्थक थे, जो कि
सच्चाई नहीं है। ‘गीतांजलि’ पर जो पुरस्कार मिला उस पुरस्कार पर वही टिप्पणी की जा
सकती है, जो सारे पुरस्कारों पर की जाती है। आप देखिएगा
अक्सर सारे महत्त्वपूर्ण लेखकों की खराब किताबों को पुरस्कार मिलता है। ‘गीतांजलि’
रवींद्रनाथ ठाकुर की सबसे कमजोर रचना है, लेकिन उस साल उनको
पुरस्कार देना था तो जो उस साल किताब आई उसी को दिया जाएगा। पुरस्कार की एक शर्त
यह भी होती है, कि उस साल किताब आई होनी चाहिए। रवींद्रनाथ की
सारी रचनाएं महत्त्वपूर्ण है, ‘गीतांजलि’उनकी तुलना में कुछ
कमजोर अवश्य है। रामचंद्र शुक्ल ने सिर्फ ‘गीतांजलि’ के आधार पर रवींद्रनाथ का
आकलन कर लिया। ऐसा नहीं है, कबीर का अंग्रेज़ी में
रवींद्रनाथ ने जो अनुवाद किया है, आपको यह लगेगा, वह उसी तरह का अनुवाद है, जैसे ‘बुद्ध चरित’ नाम से
शुक्ल जी नें ‘Light of Asia’ का ब्रज भाषा में अनुवाद किया। मूल अंग्रेज़ी से वह
किताब कई गुना चमक उठी है। अक्सर हमारे गुरु केदारनाथ सिंह कहा करते हैं कि अच्छी
रचना वह है, जो अनुवाद में नष्ट हो जाए। लेकिन कई बार कमजोर
रचनाएं भी अनुवाद में चमक उठती हैं। रवींद्रनाथ ने कबीर का अनुवाद करके अच्छे को
और अच्छा बना दिया। मतलब आप समझिए कि सोने की अंगूठी में हीरा लगा दिया। अद्भुत
अनुवाद है। 1915 में ये किताब आई। अयोध्याप्रसाद खत्री ने पहली बार इंग्लैंड से दो
किताबें छपवाई थीं। दूसरी बार हिंदी का कोई पहला कवि पश्चिम से छपकर आया। कबीर को तब
भी हिंदी वालों ने नोटिस नहीं किया।
1928 में श्यामसुंदर दास ने जो लिखा, कि ‘कबीर ग्रंथावली’ की भूमिका
में बहुत गर्व से बताते हैं, कि “कबीर पढ़े लिखे नहीं थे।”
पढ़ाई लिखाई का क्या मतलब होता है, ये कोई पूछे श्यामसुंदर
दास से या यही कोई पूछे आचार्य शुक्ल से? शुक्लजी ने भी उसी रीति का निर्वाह किया,
“कहा कि कबीर की जो कविताएं हैं, उनमें
कवित्त्व नहीं है।” जब पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने पुस्तक निकाली, जो श्यामसुंदर दास के ही विद्यार्थी थे, अपने
विद्यार्थी की किताब देखकर उनकी आँख खुली, शुक्ल जी के भी
संज्ञान में ये बात आई और 1939 के दूसरे संस्करण में उन्होंने जरूर जोड़ दिया कि-
“जो भी हो प्रतिभा इनमें बहुत थी।” जब आप कवि मानते ही नहीं हैं, तो प्रतिभा किस बात की था? फिजिक्स की थी या केमिस्ट्री की थी? कवि के पास
अगर प्रतिभा है तो उसकी कविता अच्छी ही होगी! कविता भी अच्छी नहीं है, और कवि प्रतिभा भी नहीं है, तो ये बात कैसे चलेगी?
हिंदी के दो बड़े आलोचक ऐसे कह रहे थे, इसके बावजूद भक्ति आंदोलन केंद्र
में था, देश और दुनिया की स्थिति खराब थी, ऐसी कविताओं की हमें जरूरत थी कि अपने भीतर के पाखंड को हम तोड़ सकें,
एक मंच कर हम खड़े हो सकें, स्वतंत्रता की
चेतना से प्रेरित हों, हमें तुलसी-कबीर की जरूरत थी, हमें मीराबाई की जरूरत थी, इसके बावजूद इतना पाखंड
क्यों था आलोचना में? 1942 में दो काम हुए, गांधीजी 20 साल
की उस खामोशी के बाद, जद्दोजहद के बाद स्वाधीनता आन्दोलन का
एक नया संस्करण लेकर आए और उसी साल संयोगवश 1942 में किताब आई ‘कबीर’। उसके एक
वर्ष पूर्व रवींद्रनाथ और शुक्ल जी का निधन हो गया था। 42 का आंदोलन और ‘कबीर’ साथ
साथ आए। अब जरा देखिए उस किताब में, एक तो उन्होंने जो काम
किया, जिस के बारे में नामवर सिंह जी ने बड़ी अच्छी टिप्पणी
की है "कबीर पर यह कल्प दृष्टि है, द्विवेदी जी की।”
मान लीजिए मकूबल फ़िदा हुसैन कोई पेंटिंग बना रहे हैं, रज़ा
कोई पेंटिंग बना रहे हैं। मान लीजिए आप ‘महाभारत’ लिखने चले, ‘पद्मावत’ लिखने चले, ‘रामचरितमानस’ लिखने चले। तुलसीदास
ने रामचरितमानस लिखने के लिए 76 साल का समय लिया। ‘रामचरितमानस’ और ‘पद्मावत’ जैसे
महाकाव्य आप युवावस्था में नहीं लिख सकते, युवावस्था में तो
आप फुटकल कविताएं लिख सकते हैं। समय, अध्ययन, मैचोरिटी की आवश्यकता होती है।
आप कहानी और उपन्यास एक तैयारी में नहीं लिख सकते।
उस तरह फुटकल कविता और महाकाव्य भी आप एक साथ नहीं लिख सकते। उसके लिए, अलग-अलग तैयारी की जरूरत है। कबीर
का एक बहुत बड़ा क़द खड़ा करना था, क्योंकि हिंदी आलोचना में
जो कबीर के चित्र खींचे गए थे, शुक्लजी और श्यामसुंदर दास द्वारा,
वह चित्र बहुत खराब, हास्यास्पद भले ही न हों
कबीर की गरिमा के अनुकूल नहीं थे। किसी को आप कवि न मानें और किसी को आप अनपढ़ कह
दें, अनपढ़ कहने से खराब बात क्या हो सकती है? कोई बहुत
अच्छी कविता लिख रहा है, और आप उसे अनपढ़ आदमी कहेंगे तो
कैसा लगेगा, उसे क्यों कोई पढ़ेगा? और ये काम वे लोग कर रहे
थे, जो ‘कबीर ग्रंथावली’ निकाल रहे हों। आप एक तरफ ग्रंथावली
निकाल रहे हैं और दूसरी तरफ कह रहे हैं कि अनपढ़ हैं! और आप काशी हिंदू
विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष हैं! आपने नागरी प्रचारिणी सभा बनाई, कोई छोटा क़द तो श्यामसुंदर दास का था नहीं! हिंदी की सबसे बड़ी ऑथोरिटी
अगर ये सर्टिफिकट दे रही है कि कबीर अनपढ़ हैं, तो यह कितनी
गलत बात होगी! और यही काम उन्हीं के मित्र शुक्लजी ने भी किया। देखने में फर्क हो
सकता है, भावना एक ही थी। तो आप समझ सकते हैं कि द्विवेदी जी
पर कितना दबाव रहा होगा? द्विवेदी जी के लिए और एक चिंता की बात यह थी कि बंगाल
कबीर के प्रति इतना उत्साहित है, रवींद्रनाथ, क्षितिमोहन सेन, अंडरहिल आदि ने इतना अच्छा लिखा है,
लेकिन घर में ही अंधेरा है! “घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध”- आन गांव में तो सिद्ध हो चुका है, लेकिन घर में उसे कोई सम्मान नहीं? नामवरजी ने कहा कि इससे बेहतरीन आलोचना
का गद्य नहीं हो सकता। क्या किताब थी! किताब कैसे लिखी द्विवेदी जी ने? आप लोगों
में से अगर समाजशास्त्र के अध्यापक होंगे, तो आप जानते होंगे
कि साहित्य का भी एक समाजशास्त्र होता है। मादाम स्तेल ने फ्रांस में 1802 में ये
कोशिश की थी।
मादाम स्तेल ने यह बताया कि जिस समाज और देश में
स्त्रियों के प्रति सम्मान नहीं होगा, उस देश में उपन्यास लिखना संभव नहीं होगा। आप महाकाव्य
लिख सकते हैं लेकिन उपन्यास नहीं लिख सकते। इसके बावजूद भारत का पहला उपन्यास
‘कादंबरी’ है, जो बाणभट्ट का है। यह संस्कृत की रचना है। द्विवेदी
जी ने उसको आधार माना और यह बताया पश्चिम को कि देखो, तुमसे
1000 वर्ष पहले हमारे पास उपन्यास था और वह उपन्यास बाणभट्ट ने लिखा था। उपन्यास
का समाजशास्त्र तो 1918 में आ गया, लेकिन कविता का
समाजशास्त्र पहली बार ‘कबीर’ नामक पुस्तक में दिखाई पड़ेगा। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने
एक जगह लिखा, कि कबीर की कविता को समझना हो तो पहले, जुलाहा जाति को समझिए। लेकिन उनसे बहुत पहले ये काम द्विवेदी जी कर चुके
थे। पहले लिख रहे हैं कि जुलाह कौन है? और जिस तरह से काम किया है, वह भारत के सामाजिक इतिहास में लाजवाब है। वह एक विशाल सागर है, कितनी तैयारी के साथ आप एक कवि को खड़ा कर सकते हैं? कबीर को खड़ा करना,
एक 500-600 साल पुराने कवि को खड़ा करना है, जिसकी
कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं है, बड़ा ही मुश्किल पर महान
काम था। पंडितराज जगन्नाथ ने भवभूति के हवाले से कहा कि “कविता के संसार में वही आएँ,
जिसके पास एक हजार साल का धैर्य हो।
"वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी जी मुझे
तेजपुर में मिले थे, मैंने पूछा कि कुंवरनारायण और केदारनाथ सिंह की कितनी किताबें आप छापते
हैं, उन्होंने कहा कि दो सौ से तीन सौ, वह भी बिकती नहीं हैं। हिंदी के सबसे बड़े समकालीन कवियों की दो सौ से तीन
सौ कविताएं छपती हैं और वह भी बिकती नहीं हैं। खैर, पांच सौ
साल बाद, ये कोई कम समय नहीं होता, कितनी
बार जन्म लेना पड़ेगा, कितनी बार मरना पड़ेगा, अगर पुनर्जन्म की अवधारणा होती तो। अब कबीर का जो पुनर्जन्म कराना हो,
जुलाहा जाति के पास जाकर। ये वही जुलाहा जाति है, जिसने दुनिया को कपड़ा पहनाया। आप सब जानते होंगे कि भारत अकेला देश था,
जो पूरी दुनिया को कपड़ा पहनाता था। तब पहनाता था, जब हमारे पास रैमंड जैसी कंपनियां नहीं थीं। यही बुनकर जुलाहा जाति कपड़ा
बनाती थी। ढाका से लेकर रामेश्वरम तट तक, आप देखिए कांजीवरम
सिल्क, बनारस सिल्क को, भागलपुर,
ढाका हो, ये बुनकर कपड़ा बुनते थे। उनके मन
में विश्वास था इस बात का कि दुनिया में सबसे बड़ा है ब्रह्मा, जिसने इस संसार को बनाया। लेकिन ब्रह्मा के बाद मनुष्य को मनुष्य बनाने का
काम जुलाहा जाति ने (मैंने कल प्रम्युथियस कि बात की थी कि उसने मनुष्य को आग दी,
जिससे मनुष्य को मनुष्य बनाया )किया और उसने मनुष्यता को कपड़ा
पहनाया। मनुष्य और पशु में भिन्नता सिर्फ कपड़े का है। ये उसका स्वाभिमान था,
जो उसके भीतर से गर्व से कहता था। मैं जो काम कर रहा हूं, वह भगवान् के बाद सबसे पवित्र काम है।
आप कभी ‘पद्मावत’ पढ़कर देखिए। मलिक मुहम्मद
जायसी अपने करतार को किस तरह याद कर रहा है, कि तुमने क्या-क्या किया। उसमें बहुत खूबसूरत बात करते
हैं जायसी, कि “हे मेरे मौला, हे मेरे
करतार, तुमने इतना कुछ कर दिया। समुद्र बनाया, नदियां बनाईं, लेकिन तुमने कभी आराम नहीं किया।” जुलाहा
जाति भी बिना आराम किए कपड़ा बुनती रही। ब्रह्मा जी ने जितने मनुष्य बनाए थे,
उन सबको मनुष्य बनाना था, कपड़ा पहनाना था। लेकिन
हाय री हमारी वर्णाश्रम व्यवस्था, जिसने वेद के उलट राह
पकड़ी, वेद में कर्म और ज्ञान में कोई फांक नहीं थी। जो श्रम
करता था, वह भी ज्ञानी था। जो ज्ञानी था वह भी श्रम करता था।
ज्ञान और श्रम के बीच अद्भुत संगम था। लेकिन बाद में यह पाखंड आया कि जो जितना कम
काम करे, वह उतना ही पवित्र, जो जितना
महत्त्वपूर्ण काम करे उतना ही अपवित्र, और इसी का परिणाम हुआ
कि हमारी बहुत बड़ी श्रमिक सम्पदा धीरे -धीरे शूद्र बना दी गई। हमारे घर की माताएं-स्त्रियां
और सबसे भुक्तभोगी इस विशेष प्रसंग में बुनकर जुलाहा जाति को निकृष्ट मान लिया गया।कपड़ा
बुनते बुनते आंख चली जाती है, ज़रा अब्दुल बिस्मिल्लाह का
उपन्यास आप पढ़कर देखिए, वहाँ से बुनकरों का जीवन उठाकर आप
देखिए। सबसे अधिक मेहनत करते हैं, लेकिन उनको क्या मिलता है?
सबसे ज्यादा टी.बी. के मरीज वही हैं। श्रम का सम्मान नहीं, श्रम
का अपमान। द्विवेदी जी के बलिया में ही भारतेंदु जी ने व्याख्यान दिया- ‘भारत वर्ष
की उन्नति कैसे हो सकती है’, वह हिंदी नवजागरण का घोषणा पत्र
है। उन्होंने कहा कि हाय रे हमारे हिंदुस्तानवासी, कहाँ तो
थे कि एक ज़माने में पूरी दुनिया को कपड़ा पहनाते थे, कहाँ अब
हो कि तुम्हारे ऊपर जो गमछा है, वह अमरीका से आता है,
और धोती इंग्लैंड से आती है। ये कैसे हो गया? इसलिए हुआ कि आपने उन
श्रमशील बुनकरों को सम्मान नहीं दिया। वे धीरे-धीरे अपमान के शिकार हो गए। आप किसी
कलाकार या श्रमिक को उसका उचित पारिश्रमिक दें या न दें, सम्मान
तो कम से कम दें।
एक नारे के साथ इस्लाम आया, कि उनके पास कोई भेद नहीं होगा। एक
साथ इबादत करेंगे एक साथ खाना खाएंगे। लेकिन हुआ क्या ? “हिंदुअन की हिंदुआई देखी,
तुरकन की तुरकाई।” 1000 साल के हिंदू धर्म का ‘एक्सपेरिमेंट’ और 500
साल के इस्लाम का ‘एक्सपेरिमेंट’ करके कविता लिखी गई। कहा कि जो स्थिति हिंदू धर्म
में थी, वही इस्लाम में हो गई। जितनी जातियां हिन्दू धर्म में
थीं, उतनी ही इस्लाम में हो गईं। जुलाहा जाति की स्थिति जो
वहाँ थी, वही स्थिति यहाँ भी हो गई। आप एक हॉस्पिटल से बीमार
हो कर दूसरे हॉस्पिटल में जाइए और वहां से दूसरी बीमारी लेकर लौटिए, तो कोई मरीज़ की स्थिति की कल्पना कर सकते हैं ?कबीर की कविताओं में आपको
ये पीड़ा दिखेगी और इसे रेखांकित करने का काम द्विवेदी जी ने किया, कबीर को उजागर करने का काम। उन्होंने ये दिखाया कि कबीर की पीड़ा को जानना
है, तो पहले जुलाहा जाति के दर्द को जानो। उस दर्द से अगर आप
नहीं जुड़ेंगे, तो कबीर की कविता आपकी समझ में नहीं आएंगी। ये
कविता का समाजशास्त्र है। मैं कबीर की एक कविता के साथ अपनी बात को खतम करना चाहता
हूँ। आप जानते हैं, तुलसीदास ने ये लिखा था, “प्राकृत जन कीन्हीं गुण गाना, सिर धुनी गिरा लागि
पछिताना” सांसारिक मनुष्य की कथा नहीं लिखनी है, क्योंकि माँ
सरस्वती नाराज होती हैं। कि क्या रे, तुम्हें मैंने कलम दी
अलौकिक चीजों पर लिखने के लिए, और तुमने लौकिक लोगों पर
क्यों लिख दिया? लेकिन वहीं आप देखिए कि उसी तुलसीदास के यहाँ जब अपनी पीड़ा आती
है, तो कितनी चमक आ जाती है, उनकी कविता
में। दु:ख इतना ज्यादा था, आप देखिए रैदास, कबीर जायसी, रहीम, मीरा आदि के जीवन को। कबीर को ही देखें। हम सब
यह बता सकते हैं, हमारे पिता ये हैं और हमारी माँ ये हैं,
खाना मिले या न मिले, नौकरी मिले या न मिले,
लेकिन इतना सुकून तो है कि हम अपने माँ -बाप का नाम बता सकते हैं। कबीर
को यह न्यूनतम सांसारिक सुख भी नहीं मिला। “कबीर मरी मरहट रह्या, तब कोऊ न पूछै सार। हरि आदर आगे लिया ज्यूँ गऊ बच्छ की लार” कबीर की ‘ऑटोबायोग्राफी’
है यह। लहरतारा तालाब आप सबने देखा होगा, वहाँ किसी नवजात
बच्चे को छोड़ दिया जाए और एक किलकारी ले तो वह सीधे पानी में जा गिरेगा। मरहट में
जीवन के लिए नहीं मौत के लिए छोड़ा गया था।
कबीर मरने के लिए मगहर बाद में गए, पैदा होते ही मरघट में छोड़ दिए
गए। ककनूस कबीर का प्रिय पक्षी था। राख से जिंदगी हासिल करने वाला। कबीर ने मृत्यु
से मृत्यु तक की यात्रा थी। नीरु-नीमा अगर समय पर नहीं पहुंचते और शायद एक हिचकी
आती... तब आप मुझसे जीवन का सार पूछ रहे हो, मैं तो मरहट में
पैदा हुआ हूँ। लेकिन मुझे ईश्वर मिला, और उसने ऐसे गोद में
मुझे ले लिया, जैसे गाय अपने बछड़े को अपने हृदय में शामिल
कर लेती है। आप सबने एक नवजात गाय के बछड़े को देखा होगा। मुझे लगता है, मैंने पशु विज्ञान के विशारदों से बात की है। वे बताते हैं कि कोई माँ अपने
बच्चे को इतना प्यार नहीं करती(किसी प्राणी में नहीं) जितना प्यार गाय करती है,
बछड़े से। अपनी जीभ से उस नवजात के रक्त-मांस को चाटकर साफ करती है,
इतनी गंदगी को। ये प्यार की पराकाष्ठा है। देखिए कबीर क्या कह रहे
हैं, कि हम मनुष्य हैं, हमारी माँ ने
ऐसा नहीं किया, हमारी माँ ने तो सांसारिक लोकलाज को अपने
बच्चे से ज्यादा तवज्जो दी। उसका लोकलाज बचना चाहिए था, हम
बचें या न बचें। लेकिन एक गाय को किसी की भी चिंता नहीं है, उसके
लिए उसका बच्चा दुनिया की हर बात से ऊपर है, प्यारा है।
सन्दर्भ
1.
राही मासूम रजा -आधा गाँव
2.
हजारी प्रसाद द्विवेदी -कबीर
3.
हजारी प्रसाद द्विवेदी -हिंदी साहित्य की भूमिका
4.
रामचंद्र शुक्ल -हिंदी साहित्य का इतिहास
5.
रामचंद्र शुक्ल -चिंतामणि, भाग -1, 2, 3
6.
रामचंद्र शुक्ल -बुद्ध चरित
7.
पीताम्बर दत्त बडथ्वाल -गोरखबानी
8.
रवीन्द्रनाथ ठाकुर -भारत वर्ष में इतिहास की धारा
9.
नामवर सिंह -दूसरी परंपरा की खोज
10. पी .एन .सिंह -स्मृतियों की दुनिया
प्रो. गजेन्द्र पाठक, प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद (तेलंगाना)
gpathak.jnu@gmail.com, 8374701410
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
🙏💐
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें