शोध आलेख : मंज़ूर एहतेशाम के उपन्यासों में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता / प्रेमचन्द मौर्य
शोध-सार :
मंजूर एहतेशाम अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में भारत के सेक्युलर मुसलमानों के आत्मसंघर्ष का जीता जागता दस्तावेज प्रस्तुत करते है। आजादी के बाद से लेकर उन्नीसवीं दशक तक के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव की प्रवृत्ति को मंजूर एहतेशाम ने अपने उपन्यासो में व्यापक संदर्भों में मुस्लिम मध्यवर्ग के जीवन और सोच को चिन्हित किया है। अपने उपन्यासों के माध्यम से एहतेशाम ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया है। सांप्रदायिक दंगा भारत की एक स्थायी समस्या बन चुकी है। सांप्रदायिक हिंसा तभी रूक सकती है जब हम सामुदायिक सदभाव के प्रचार-प्रसार के साथ ही अपनी राज-व्यवस्था को भी सक्षम और प्रभावी बनायेंगे। प्रस्तुत आलेख में मंजूर एहतेशाम के उपन्यासों एंव उनकी कहानियो के चरित्रों के माध्यम से भारत के मुस्लिम समुदाय के जीवन, प्रगतिशील विचारधारा, सहिष्णुता की भावना, उनकी समस्याओं, उनके संघर्ष, हिन्दू मुस्लिम एकता, दंगो के प्रति सोच, विभाजनकारी ताकतों के मंसूबो आदि का एक सामान्य मुस्लिम परिवार पर प्रभाव का विश्लेषण किया गया है।
बीज शब्द : मंजूर एहतेशाम, मुस्लिम, सांप्रदायिकता, सेक्युलरवाद, मिथक, सहिष्णुता।
मूल आलेख :
भारत में मुसलमान सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है किन्तु उसकी बहुत बड़ी आबादी हिंदी बोलने वालों की है। भारत में इस्लाम का परिचय बहुत पुराना है। ईसा की सातवीं शताब्दी में जब पश्चिमी देश इस्लाम के संपर्क में नहीं आये थे, इस्लाम ने एक युवा धर्म के रूप में भारत में प्रवेश किया। आमतौर पर यह माना जाता है कि इस्लाम तलवार के जोर पर फैला। हो सकता है दुनिया के और हिस्सों के लिए यह सच हो, पर भारत में यह एक मिथक के रूप में है। इस्लाम में यकीन रखने वाले सामंतो ने तलवार के जोर पर भारत में अपनी हुकुमत जरूर स्थापित की, किन्तु हिंसा के भय से बड़े पैमाने पर हुए धर्मांतरण के प्रमाण नहीं मिलते। भारत में धार्मिक आस्था और धार्मिक स्वतंत्रता जैसा माहौल रहा है। भारत में धर्मांतरण हुए, लेकिन उसके पीछे सामाजिक गतिशीलता के तत्व विद्यमान थे। जिन जातियों की स्थिति हिन्दू समाज में अच्छी नहीं थी उनके सदस्यों ने सामाजिक बराबरी और राजसत्ता के संरक्षण की खोज में इस्लाम की शरण ली। उच्च जातियों में कुछ ने संघर्ष किया, कुछ ने समर्पण किया और शेष ने यथास्थिति से समझौता कर लिया। इस तरह भारत में एक ऐसा समाज बना, जिसमें हिन्दू मुसलमान के बीच एक बुनियादी तनाव तो हमेशा बना रहा, पर साथ ही यह कोशिश भी बराबर बनी रही कि आपसी सहिष्णुता को बढ़ाया जाये। ब्रिटिशकाल में हिन्दू-मुसलमान के बीच दूरी लाने के सुनियोजित प्रयास किये गये। इसी का परिणाम था भारत का विभाजन। कांग्रेस की ओर से देश का विभाजन इस आधार पर स्वीकार किया गया था जिससे सांप्रदायिक समस्या हमेशा के लिए सुलझ जायेगी लेकिन विभाजन के सात दशक बाद हम पाते हैं कि देश की मुख्य समस्या सांप्रदायिकता ही बन गई है।
आज भी हमारा देश विभाजन की उसी पीड़ा से तड़पता हुआ इक्कीसवीं सदी में विकसित देशों को बराबर की टक्कर देते हुए नए आयाम स्थापित कर रहा है किन्तु सांप्रदायिक समस्याएँ उसी तरह मुँह बाए खड़ी है जो 1977 में थी। वर्तमान समय में ये समस्याएँ और भी प्रखरता से दिखने लगी है। सांप्रदायिक दंगा भारत की एक स्थायी समस्या बन चुकी है। दंगा कहने मात्र से हिंसा का वह रूप ठीक-ठीक सामने नहीं आता जिसे भारत में बढ़ती हुई हिंसा देश को कमजोर कर रही है। यह सांप्रदायिक हिंसा तभी रूक सकती है जब हम सामुदायिक सदभाव के प्रचार-प्रसार के साथ ही अपनी राज-व्यवस्था को भी सक्षम और प्रभावी बनायेंगे।
भारत में नब्बे के दशक का नजारा बहुत जटिल था। धर्मो के बीच ही नहीं, जातियों के बीच होड़ भी सेक्युलरवादी निष्ठाओं पर सवालियां निशान लगा रही थी। हिन्दू बहुसंख्यकवाद ने हिंदुओं के भीतर मण्डल आयोग की सिफारिशों से उपजे जातियों के बहुसंख्यकवाद से लोहा लेने के लिए तरह-तरह की राजनीति करने की शुरूआत कर दी थी। सोशल इंजीनिरिंग की अवधारणा सेक्युलरिकरण के विचार से समानांतर पनप रही थी। सेक्युलरवादियों को पहली बार लगा कि वे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। अगर उन्होंने अपनी स्थापित अवधारणाओं पर पुनर्विचार नहीं किया तो शायद जमीन उनके हाथों से निकल जायेगी। मंडल विरोधी आन्दोलन के उन बेहद उत्तेजक दिनों में खुद को सेक्युलर बताने वाले जातिगत आरक्षण का समर्थन करते हुए पाये गए। उनका मानना था कि कमजोर समुदाय के लोग व्यक्ति के रूप में आरक्षण द्वारा जब अन्य लोगों की बराबरी कर लेंगे तो सार्वजनिक जीवन में भिन्नता के सभी निशान मिट जायेगें। जबकि दूसरी बहुसंख्यक विचारधारा अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों को अलग से रहने और लाभ लेने की प्रक्रिया का विरोध कर रही थी। यही से सेक्युलरवाद के पक्ष और विपक्ष की खेमेबन्दी की शुरूआत हुई जहां इसके विरोध करने वाले सेक्युलरिज्म और सहिष्णुता के रूप में देखा तो वहीं इसके पक्षधरों ने सामाजिक विषमता मिटाने और वंचितों को अधिकार दिलाने का एक उपक्रम माना।
यही वह वक्त था जब हिंदी जगत में कुछ विख्यात बुद्धिजीवी भी अपनी सांप्रदायिकता विरोधी रचनाओं के माध्यम से सेक्युलरवाद के संकट पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। इसमें प्रभाष जोशी, राजेन्द्र यादव, किशन पटनायक, सच्चिदानन्द सिन्हा, राजकिशोर आदि प्रमुख हैं। हालांकि ये बुद्धिजीवी अकादमिक दायरों से बाहर पत्रकारिता, साहित्य और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की दुनिया के वासी थे, लेकिन आशीष नंदी द्वारा उठाये गये विवाद से उनका सीधा संबंध था। हिंदी के दायरे में सेक्युलरवाद का विवाद इस शब्द के अनुवाद पर तो केन्द्रित था ही, उसके साथ धर्म और पंथ के बीच फर्क करने से पैदा होने वाली समस्या से भी उसका गहरा ताल्लुक था।
इसी कड़ी में मंजूर एहतेशाम अपने प्रसिद्ध उपन्यासों ‘सूखा बरगद’, ‘दास्तान-ए-लापता’, ‘बशारत मंजिल’ अैर ‘मदरसा’ द्वारा उपन्यास जगत में उपस्थिति दर्ज कराते हैं और भारत के सेक्युलर मुसलमानों के आत्मसंघर्ष का जीता जागता दस्तावेज प्रस्तुत करते है। उनका ‘सूखा बरगद’ उपन्यास एक मात्र उपन्यास ही नहीं अपितु भारत में मुसलमान की दशा और दिशा क्या है, उसमें गरीबी और अशिक्षा का स्तर क्या है, उसका रहन-सहन क्या है, इन सबकी एक मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास मुस्लिम समाज के अंतर्विरोधों की गंभीर पड़ताल करता है। उसका रचना विन्यास काल की सीमा को लांघता हुआ उन्हें ‘राही मासूम रजा’ और ‘शानी’ सरीखे प्रसिद्ध उपन्यासकारों की श्रेणी में खड़ा कर देता है। मंजूर एहतेशाम ने ’सूखा बरगद’ में भारतीय मुस्लिम समाज के विकास से जुड़े जिन संवेदनशील मुद्दो को उठाया है उनकी आमतौर पर लोग चर्चा से भी घबराते हैं। धर्म, जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा और सांप्रदायिकता के जो प्रश्न स्वतंत्रता के बाद इस देश में पैदा हुए हैं उसकी असहनीय आँच इस समूचे उपन्यास में महसुस की जा सकती है।
’सूखा बरगद’ में मंजूर एहतेशाम ने मुस्लिम मध्यवर्ग की नारी की सोच और व्यवहार में आये परिवर्तनों को विस्तृत रूप से चित्रित किया है। जहां एक ओर रशीदा की माँ और उसकी समकालीन पीढ़ी है जो अशिक्षा, पर्दा-प्रथा जैसी रूढ़ियों में पली बढ़ी है, जो चाह कर भी इन परंपरागत बंधनों से मुक्त नहीं हो पाती है। वहीं दूसरी ओर रशीदा और रजिया की नयी पीढ़ी है, जो उच्च शिक्षा प्राप्त है जो आवश्यकतानुसार नौकरी भी करती हैं और रूढ़िगत आडंबरों पर प्रहार करने से भी नहीं चूकती हैं। रशीदा की निम्न बातों से हम उस समय के सामाजिक व भौगोलिक ताने-बाने को समझ सकते हैं। “उस उम्र में यह अन्दाज लगा पाना कि हम लोग किस भूगोल अथवा माहौल का कौन-सा हिस्सा है, सम्भव नहीं था। मुझे लगता, अब्बू के होते हमारे वास्ते दुनिया की चीज जुटायी जा सकती है। यह बात और है कि उस समय की कल्पना की दुनिया और आज में बड़ा अन्तर है। तब मुहल्ले के अलावा शहर फसीलों, दरवाजों और तालाबों का एक सिलसिला था जिसमें किन्हीं मुहल्लों में हमारे रिश्तेदार रहते थे, कहीं अब्बू-अम्मी के दोस्त या जान-पहचान वाले। हम आर्थिक रूप से किस वर्ग विशेष से सम्बन्धित हैं, अब्बू की आमदनी कितनी है, मजहब के नाम पर हमारा मुसलमान होना क्या अर्थ रखता है, सोच पाना सम्भव नहीं था। बस इतना मालूम था कि शहर में मुसलमानों के अलावा हिन्दू भी रहते हैं; जो कलमा नहीं पढ़ते, मस्जिद में नहीं आते, बकौल फफू के काफिर है, बुत पूजते हैं, इसलिए मरने के बाद जहन्नुम में जायेंगे”।1
इस उपन्यास में ‘फफू’ जैसी औरते भी है जो पति से अलग रहकर अपने आप को नमाज और इबादत में मुब्तिला करती हैं। यह उपन्यास मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज की आर्थिक और सांस्कृतिक संघर्ष का वर्णन ही नहीं अपितु संस्कृति की चिन्ता भी गहन रूप से करता है। आजादी के बाद मुस्लिम समुदाय के प्रति पल-पल बदलने वाली सामाजिक राजनीतिक स्थितियाँ किन-किन रूपों में परिवर्तित हुई और यह मुस्लिम समुदाय किस आन्तरिक पीड़ा और द्वंद से गुजरा इस उपन्यास में इसका सामाजिक विश्लेषण बेहतरीन तरीके से किया गया है। यही बिंदु है जिसको ध्यान में रखकर मंजूर एहतेशाम ने इस उपन्यास को लिखा। उनके एक पात्र का कथन इस प्रकार है- “रिश्तेदारों में हमारे दो मामू थे, एक ताया और तीन फूफियां। फिर और दूर के रिश्तेदार थे जिनसे एक चैथाई शहर बसा पड़ा था और कभी-कभी अम्मी के साथ मैं और सुहेल उसके घर भी जाते। तब दिमाग समझ नहीं पाता था, लेकिन अम्मी और अब्बू के तरफ रिश्तेदारों में जो खास फर्क था, वह यह कि अम्मी के सारे रिश्तेदार खुशहाल और खाते-पीते थे जबकि अब्बू की तरफ के ज्यादातर लोग गरीब और फटेहाल थे।’’2 ‘सूखा बरगद’ उपन्यास में उपन्यासकार ने एक ऐसे मुस्लिम परिवार का चित्रण किया है, जिसके विचार उदार है और उसकी विचारधारा सेक्युलर लेकिन यह परिवार अपनी व्यवहारिक कठिनाइयों के चलते परम्परा और आधुनिकता के बीच वैचारिक संघर्ष में हिचकोले खाते रहता है। रशीदा की माँ के संस्कार परम्परागत है तो वहीं उसके अब्बू की सोच नये जमाने के हिसाब की है। वे अपने बच्चों को मानसिक और बौद्धिक विकास की सही दिशा प्रदान करते हैं।
रशीदा एक स्थान पर बताती है कि नवाब साहब बहुत बड़े आदमी थे। जब वे अपने गाड़ी से जा रहे थे, उसी समय हम मामू के साथ गाँव जा रहे थे, तो उन्होंने यह कहकर गाड़ी सड़क के नीचे उतार दी थी कि नवाब साहब की गाड़ी आ रही है फिर उसके बाद मामू ने हाथ उठाकर सलाम किया था और बाकी बच्चों से भी सलाम करने को कहा था। सलाम करते हुए हाथों को देखकर गा़ड़ी जरा धीमी हुई थी, एक हाथ बाहर निकालकर हिलता, सलामों का जवाब देता आगे निकल गया था। अंदर बैठे नवाब साहब को मैं पूरी तरह देख भी नहीं पाई थी। “तुमने सलाम क्यों नहीं किया?’’ मामू ने सुहेल से पूछा था। उसके चुप रहने पर उन्होंने आगे जोड़ा था, अपने पूरे व्यंग्यात्मक स्वर में- “एक नस्ल के लिए एक ही इन्कलाबी काफी होता है बेटे। बाप के कदमों पर चले तो औंधे मुँह गिरोगे।’’3
वास्तव में “हिन्दू और मुसलमान कुछ इस तरह से करीब आये। एक दूसरे से मेल-जोल ऐसा बढ़ा कि रहन-सहन, रस्म व रिवाज, अकीदत व मुहब्बत और हद यह कि पूजा और इबादत में नाम-भर का फर्क रह गया। अगर एक तरफ मुसलमान कुछ मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाने लगे तो हिन्दू मस्जिदों के दरवाजे पर दुआएँ देने लगे। मंदिर कलश में ईरानी कला की झलक नजर आई तो दूसरी तरफ मस्जिद के गुम्बदों में कमल के फूल नजर आने लगा। दोनों कौमों के लोगों ने कुछ ऐसे तौर-तरीके अपनाएँ जो पूरी तरह से न तो इस्लामी थे और न पूरी तरह से हिन्दू थे, बल्कि हिन्दोस्तानी थे।’’4 यही वजह है कि इस्लामी दुनियाँ में भी भारत के मुसलमानों को ’हिन्दोस्तानी मुसलमान’ कहा जाता है। इनकी अलग पहचान बन गई है।
मंजूर एहतेशाम के उपन्यास ‘सूखा बरगद’ का केन्द्र भारत का वह मध्यवर्गीय समाज है जो अनेकानेक धार्मिक, रूढ़ियों और पिछड़ेपन का शिकार है। यह एक ऐसा समाज है जो धार्मिक आधार पर ही अपने तमाम निर्णय लेता है। जब भी वह कुछ नया करने की कोशिश करता है उसमें उसका मजहब और उसकी बातें मुँह बाये खड़ी हो जाती है। उपन्यास की स्त्री पात्र रशीदा का यह कहना है कि- “हुमेरा आपा और नजमा आपा बुर्का ओढ़े शाम को स्कूल की बस से घर लौटती और उसको आता देखकर आदमी मुँह मोड़कर खड़े हो जाते पर्दे और अदब के लिए।
“माँ की मर्जी है’’, छोटे मामू उनके स्कूल जाने से चिढ़कर कहते- “स्कूल में ऐसा क्या पढ़ाया जाता है जो घर पर नहीं पढ़ा जा सकता? समझाओं इसे।’’5 धार्मिक ख्यालों वाली और दिन-रात इबादत में लीन रहने वाली फफू छोटे बच्चों को डराते हुए यह शिक्षा देने का प्रयास करती है कि जो काम खुदा का है, उस काम को यदि कोई इन्सान करता है तो खुदा को नागवार लगता है। वैसे तो धर्म किसी भी समाज का अनिवार्य तत्व माना जाता है किन्तु मुस्लिम समाज में धर्म की जड़े बहुत ही गहरी है। वह मोमिन तभी हो सकता है- “जो दिल से इस्लामी आस्था के अनुसार खुदा पर इमान रखता हो और उसे अस्तित्व एवं गुण सामर्थ्य में किसी को साझेदार न ठहराये और ईस्लाम पर कर्मनिष्ठ हो। जबकि काफीर कुफ्र करने वाला अर्थात खुदा का इन्कार करने वाला।’’6
‘बशारत मंजिल’ उपन्यास में मंजूर एहतेशाम ने चित्रकला का शौक रखने वाले माहरू जमानी के भाई आरिफ को काजी कमालुद्दीन कुरान पढ़ने की और हाफ़िज़ा करने का दबाव लगातार देते थे, जिसके चलते वहन पढ़ सका और न ड्राइंग बना सका। काजी कमालुद्दीन का एतराज काफी कड़ा रहता था। “मुसलमानों के लिए मूर्ति पूजा ही नहीं मूर्ति बनाना भी हराम था और इन्सानों के आकार का कागज-कैनवास पर बनाना या उसमें रंग भरना भी।’’7 ‘बशारत मंजिल’ उपन्यास का एक पात्र संजीदा अली का परिवार 1857 की क्रांति के बाद जान बचाकर दिल्ली से भोपाल आ गया था। इसी क्रम में मौलवी साहब संजीदा अली के अलीगढ़ जाकर साइंस पढ़ने की बात से खुश होते हैं और मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन पर अफसोस जताते हुए कहते है- “साइंस जमाने का तकाजा और नये सोच का हासिल है। क्या करें लोग नहीं समझते कि मुसलमान दरअसल कितने पिछड़े हुए हैं और उन्हें साइंस की तालीम की कितनी जरूरत है।’’8
मौलवी साहब की सोच अत्यन्त व्यापक और प्रगतिशील है उनका स्पष्ट मानना था कि मुसलमान जमाने के साथ नहीं चलते और पुराने ढर्रों पर चलते हैं इसलिए उनका विकास आधुनिक दौर में भी नहीं हो पाया है जबकि विज्ञान या साइंस अरबी, उर्दू, फारसी से अलहदा है इसलिए इसका ज्ञानार्जन अलीगढ़ जैसे संस्थान में जाकर करना चाहिए। मंजूर एहतेशाम ने अपने उपन्यास ‘सूखा बरगद’ में अल्पसंख्यक मुसलमानों की सेक्युलरवादी सोच का बखूबी चित्रण किया है। आजादी की प्रथम लड़ाई 1857 की क्रान्ति को जिस प्रकार हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर लड़ा था और अंग्रेजों को बाहरी हुकूमत का प्रतीक मानकर संघर्ष किया वह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। अंग्रेजों ने इस बात को भली-भाँति जान लिया कि यदि हमें भारत पर राज करना है तो हमें दोनों धर्मों के बीच फूट डालनी होगी जिसकी शुरूआत सन् 1909 का वह अधिनियम था जिसमें मुसलमानों के लिए अलग से सीटे आरक्षित की गयी थी और उसी का नतीजा रहा भारत का विभाजन। इस प्रकार 1947 में अंग्रेजों ने बड़ी ही चालाकी से हिन्दू मुसलमानों की आपस की भाईचारे की छवि को पूरी तरह खण्डित कर दिया। पंडित नेहरू ने शीतयुद्ध के दौरान दो ध्रुवों में बंटी होने वाली दुनिया के बीच गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का आगाज किया और यह संदेश देने का प्रयास किया कि - “मेरा भारत देश किसी भी गुट में सम्मिलित नहीं है और इस तरह से भारत देश गुटनिरपेक्ष देशों का अगुआ बन गया। ठीक इसी प्रकार नेहरूजी ने भारत को एक सेक्युलरवादी धर्मनिरपेक्ष देश बनाने की मुहिम भी चलाई क्योंकि उनको लगता था कि यह देश यहाँ पर रहने वाले हर कौम का है और बहुसंख्यक हिन्दू समाज मुसलमानों की देखभाल सही ढंग से करेगा तो निश्चित ही यह देश दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति करेगा। हकीकत यह है कि आजादी के बाद भारत ने सेक्युलरवाद के जिस रूप को विकसित किया है, सभी धर्मो में एक समान फासले के सिद्धान्त पर नहीं बल्कि उसूली फासले के सिद्धान्त पर आधारित है। भारत का सेक्युलरवाद इंग्लैंड और फ्रांस के सेक्युलरवाद जैसा नहीं है। उसे चर्च और राज्य के टकराव की रोशनी में देखे जाने के बजाय धर्मबाहुल्य राज्य में विभिन्न धर्मो के बीच होने वाले टकरावों को टालने और साधारण जनता के लिए सामाजिक सह-अस्तित्व की गारंटी देने वाली परियोजना के संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है।
“आज के भारत के लिए सेक्युलरवाद का क्या तात्पर्य है? उनके पास इन सवालों के तीन संभव जवाब इस प्रकार है- (क) अल्पसंख्यक अधिकारों के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना, लेकिन साथ में (ख) धर्मांधता को अलगाव में डालने के लिए धार्मिक सहिष्णुता के संसाधनों का इस्तेमाल करना और आंतरिक सुधारों को बढ़ावा देना और अंत में (ग) व्यापक समान हित की पहले से मौजूद सभी गुंजाइशों को और मजबूत करना।’’9 मंजूर एहतेशाम ने अपने उपन्यास ‘कुछ दिन और’ में हिंदू और मुसलमानों के आपसी संघर्ष को ठीक ढंग से रेखांकित किया है। पप्पू (हिंदू) और जमीला (मुस्लिम) दोनों के माध्यम से उपन्यासकार ने एक ऐसे मनोविज्ञान का चित्रण किया है, जिसके सहारे हम उस समय के सामाजिक ताने-बाने को समझ सकते हैं।
“हम लोगों ने शादी कर ली। कोर्ट मैरिज नहीं हो सकती थी जमीला की पहली शादी तलाक नहीं है। जमीला का नाम निवेदिता है। यहां एक जगह नौकरी मिल गई है, बाकी सब ठीक हैं। फिर ज्योति कुछ दिनों के लिए पप्पू के पास गई थी और वापस आकर उसने बताया था कि पप्पू और जमीला, अब निवेदिता, हँसी-खुशी रह रहे हैं।
मंजूर एहतेशाम अपने उपन्यास ‘सूखा बरगद’ में हिंदू-मुस्लिम संघर्षों का क्या परिणाम होता है और कर्फ्यू में बंद घरों में लोग क्या करते होंगे? कुछ शायद किस तरह दूसरी बिरादरी को बेहतर सिखाया जाए, इसके मंसूबे बनाते रहे होंगे, कुछ उन लोगों के इंतजार में परेशान होंगे, जिन्हें पुलिस पकड़ कर ले गई थी, कुछ अम्मी की तरह दुआएं मांगते रहे होंगे कि अल्लाह सब ठीक कर दे। मुझे अब्बू याद है- बेचैनी से पूरे घर में टहलते। न उन्होंने बात की थी, न अम्मी से कुछ बोले थे। वह बेचैनी और गुस्से का भाव उनके चेहरे पर, जैसे उनका ऐसा मुवक्किल जो बेकसूर है, कल फाँसी पर टांग दिया जाएगा। वह लाचारी कि उसे बचाने के लिए वह खुद कुछ नहीं कर सकते। वह नपुंसक गुस्सा जिससे इंसान सिर्फ अपने आप पर ही उतार सकता है।’’10
वैसे भी जिस देश में अनेकानेक धर्म और संप्रदाय रहते हैं वहां इस तरह का टकराव होना कोई अनहोनी नहीं हैं। दुनिया में तो कई देश ऐसे भी हैं जहां आपस में ही लोग झगड़ते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान व इराक के सुन्नी-शिया, अहमदिया आदि फिरको में सांप्रदायिक दंगे होते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार आयरलैंड में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच लगभग 300 साल से युद्ध चल रहा है। भारत में भी मुसलमानों के आगमन से पूर्व शैव-शाक्त आदि संप्रदायों के बीच भीषण संघर्ष होते रहे हैं। हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के प्रति विद्वेष के एक साथ विद्यमान होने के दो कारण दिखाई देते हैं। एक तो यह कि सभी धर्म तर्क-वितर्क और बुद्धि-विवेक का विषय न होकर अंधविश्वास और अंधश्रद्धा का विषय बन गए हैं। जिसके फलस्वरूप मामूली-सी बात पर भी हमारी भावनाएं भड़क उठती हैं। दूसरा कारण यह है कि सभी धर्म सत्ता-पीठ के रूप में काम करते हैं और उनके बीच सत्ता का द्वंद चलता है। सत्ता की प्रतिस्पर्धा जब दंगे के रूप में प्रकट होती है तो धर्म की असली विसंगति सामने आती हैं। धर्म आदमी को बेहतर इंसान बनाने के बजाय उसे राक्षस बनाने लगता है।’’11
सांप्रदायिक दंगे, जो जातीय, नस्लीय, क्षेत्रीय, और भाषाई आधार पर होते हैं, किसी भी देश के लिए चुनौतीपूर्ण होते हैं। दंगे एक ऐसे अराजक वातावरण को पैदा करते हैं और कानून व्यवस्था को कमजोर करके कानून को अपने हाथ में लेते हैं और आपस में भिड़कर समस्याओं का समाधान भी ढूँढ़ने लगते हैं, जो समाज के लिए, देश के लिए अत्यंत घातक होते हैं। रशीदा कहती है कि- “मैं अभी सोचती थी कि हमारे जैसे मोहल्ले में जहां 90 प्रतिशत के लगभग मुसलमान रहते हैं, 10 प्रतिशत हिंदुओं के दिल पर क्या गुजर रही होगी? और आखिर ऐसा क्यों है कि जिस की खाल पर होली का रंग लग जाएगा, वह जहन्नुम हो जाएगा? शादियों में जो हम लोग उबटना खेलते हैं, वह भी तो लगभग होली जैसा ही होता है। और अगर कुछ लोग बुरा मानते हैं, नहीं खेलना चाहते रंग तो लोग उन्हें क्यों नहीं छोड़ देते, एक पर रंग डालना क्या जरूरी है? यह हिंदू-मुस्लिम दंगा है क्या, और क्यों? हमें क्लास में जो सब पढ़ाया गया उसमें शिवाजी की बहादुरी के कारनामें हैं और जो नन्हे चचा बात करते हैं तो शिवाजी ‘पहाड़ी चूहा’ हो जाते हैं?’’12 छोटी बच्ची रशीदा का यह मनोविज्ञान भारत के हर उस धर्मनिरपेक्ष मुसलमान का मनोविज्ञान है जो सांप्रदायिक दंगों से अत्यंत परेशान हो उठता है और स्वयं से सवाल पूछने लगता है कि आखिर में ये दंगे क्यों होते हैं और इन दंगों के होने से कुछ लोगों को क्या फायदे मिलते हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के बाद कुछ मुस्लिम नेताओं द्वारा अपने समुदाय के हितों की रक्षा करने के लिए अलगाववादी माँगे की गई। उसे हिंदुओं ने तुष्टिकरण की राजनीति कहा तथा देशभक्ति के खिलाफ माना। मेरे हिसाब से हिंदू-मुसलमानों के मध्य आपसी भाईचारा होने के बाद भी एक गहरा अंतर्विरोध है। अपने एक अन्य उपन्यास ’दास्तान-ए-लापता’ में मंजूर एहतेशाम ने भारत विभाजन और नये पाकिस्तान बनाने के मायने को लेकर गंभीर सवाल खड़ा किया है- “पाकिस्तान बनने से इस मुल्क के मुसलमान को फायदा नहीं हुआ? वहीं तमाम सूबेजोड़ या बाँटकर बनाया गया पाकिस्तान, जहां मुसलमानों की वैसे ही अक्सरियत थी? जहां बगैर पाकिस्तान बने भी मुसलमान का हुकुमत में दखल रहता है। बँटवारा न होता तो यह यूपी और बिहार भी इस तरह खराब होने से बच जाते। मिला क्या मुसलमानों को पाकिस्तान के नाम पर? चाँद-तारेवाला यह हरा झंडा जिसे वैसे भी मजारों पर लगाकर दिल बहलाया जा सकता था।’’13
मंजूर एहतेशाम ने अपने इसी उपन्यास में जमीर अहमद खान का एक धर्मनिरपेक्ष मुसलमान के रूप में चित्रण किया है। उनके बचपन के दोस्त विवेक हिंदू था। इन दोनों में गहरा संबंध था। अलीगढ़ से जब जमीर अहमद खान भोपाल वापस आते हैं तब यह वही दौर रहता है जब 1965 ई0 में भारत पाकिस्तान के मध्य युद्ध होने के उपरांत उनकी विचारधारा को और मुखर कर देता है। अनीशा उनसे बहस भी करती है- ‘‘फिर तुम किस तरह की सेक्युलर सोच समझकर दावा करते हो? अपने मजहब पर चलने वालों की क्यों आलोचना करते हुए उन्हें कम-समझ और इंसानियत की राह का रोड़ा कहते हो? खुद तुम्हारी आस्था और अकीदा है कहीं?’’14
इसका जवाब देते हुए जमीर अहमद खान ने बहुत ही तल्खी से कहा- “मैंने धर्म और मजहब के नाम पर भी जितना कुछ देखा है उसमें किसी प्रकार के ईमान-आस्था की गुंजाइश नहीं। सब कपट और धोखा धड़ी लगता है, अपना-अपना उल्लू सीधा करने की खातिर। मैंने जब भी मजहबी लोगों के खिलाफ कुछ कहा है तो इसी ऐतबार से। लेकिन अगर एक तरफ धर्म को साइंस का रुतबा हासिल नहीं तो दूसरी ओर साइंस को मजहब की तरह जिंदा सच्चाईयों से काटकर परम पावनता का दर्जा देना भी उतना ही गलत है। तो यह भी यकीन करो, मैं नाइहीलिस्ट नहीं हूँ। हाँ एक को नाइहिलिस्ट भी समझने की कोशिश मैं उसी तरह करता हूँ जैसे एक मजहब में आस्था रखने वाले को।’’15
आजादी के बाद से लेकर उन्नीसवीं दशक तक के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव की इसी प्रवृत्ति को मंजूर एहतेशाम ने अपने उपन्यासो में व्यापक संदर्भों में मुस्लिम मध्यवर्ग के जीवन और सोच को चिन्हित किया है। उनकी एक महत्वपूर्ण पात्र रशीदा की तरह त्रासदी भी यही है कि वह अपने जीवन में पत्रकार बनने का स्वप्न देखती है किंतु अंततोगत्वा आकाशवाणी में उद्घोषक हो जाती है। फिर भी वह टूटती नहीं है, सुहेल की तरह बिखरती नहीं है। वह अली हुसैन साहब के शब्दों को सुनकर घबराती भी नहीं और अपने आप को मजहब की सीमाओं में कैद भी नहीं करती है और शिक्षित होने के नाते स्वयं निर्णय भी लेती है तथा विजय से प्रेम भी करती है। उसकी यह सोच भारत में एक मिली-जुली संस्कृति के पल्लवन में अहम भूमिका अदा करती है। शायद मंजूर एहतेशाम ने भी ‘बरगद’ को ‘सुखा’ कहकर हमारी सूखने वाले संस्कृति के तरफ ही इशारा किया है कि भारत के बहुसंख्यक लोग देश में रहने वाले अल्पसंख्यक मुसलमान भाइयों का ख्याल रखेंगे तो निश्चित रूप से सूखने वाला बरगद फिर से अपनी जड़ों में खाद पानी महसूस करेगा और उसकी टहनियाँ भारतीय समाज को अपनी संपूर्णता में छाया प्रदान करेगी।
संदर्भ :
1.
मंज़ूर एहतेशाम : सूखा बरगद, राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2009, पृ. 32
2.
वही, पृ. 32
3.
वही, पृ. 39
4.
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह : हिंदी-उर्दू: साझा संस्कृति, चंचल चौहान,नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली 2010, पृ. 313
5.
मंज़ूर एहतेशाम : सूखा बरगद,राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2009, पृ. 34
6.
अल्लामा करजावी : इस्लाम मुसलमान और गैर-मुस्लिम, मधुरेश, संदेश संगम, नई दिल्ली, पृ. 05
7.
मंज़ूर एहतेशाम : बशारत मंजिल, राजकमल प्रकाशन 2012, पृ. 48
8.
वही, पृ. 52
9.
अभय कुमार दूबे : बीच बहस में सेक्युलरवाद, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 110002, 2005, पृ. 54-55
10.
मंज़ूर एहतेशाम : सूखा बरगद, राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2009, पृ. 43
11.
राजकिशोर : भारतीय मुसलमान मिथक और यथार्थ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 110002, 2004, पृ. 43- 44
12.
मंज़ूर एहतेशाम : सूखा बरगद, राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2009, पृ. 44
13.
मंज़ूर एहतेशाम : दास्तान-ए-लापता, राजकमल प्रकाशन, 2010, पृ. 89
14.
वही, पृ. 139
15.
वही, पृ. 139
प्रेमचन्द मौर्य, शोध-छात्र,
केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय, कासरगोड
bhuprem1993@gmail.com, 8795919347
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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