शोध आलेख : दलित दृष्टि से मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के संत साहित्य में गुरु का महत्त्व/ डॉ. अनिल कुमार
शोध सार : मध्यकालीन
साहित्य और चिंतन में भक्तिकाल के ‘संत साहित्य’ का अपना विशिष्ट महत्त्व है। मध्यकाल में भक्ति
का जो स्वरूप दृष्टिगत होता है वह समाज की रूढ़ियों के संस्कार-परिष्कार और
नवनिर्माण की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। दलित चिंतन की दृष्टि से
भक्ति-आंदोलन अपने आप में एक अनोखा विद्रोह था, जो सामाजिक और आध्यात्मिक जागृति का समन्वित
रूप था। इस आंदोलन में धार्मिक दंभ और आडंबरपूर्ण विद्वता,
जाति-पांति उच्छेद की भावना
सहित सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध विद्रोह का ऐसा प्रबल स्वर है कि शताब्दियों बाद
आज भी उसकी प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनाई दे रही है। बहुत से विद्वान, भक्ति-आंदोलन को
लोक के विपरीत परलोक की चिंता का आंदोलन, बताकर प्रस्तुत करते हैं और अपनी रूढ़िवादी
दृष्टि का परिचय देते हुए इसे मानव-विकास की दृष्टि से हेय मानते हैं। वास्तव में
भक्ति को एक आंदोलन के रूप में ढालने वाले निर्गुण संत अपने समय की
सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों, भ्रांतियों और पूर्वाग्रहयुक्त धारणाओं के बेलाग समीक्षक
थे। वे मुल्ला-मौलवियों, पंड़े-पुजारियों एवं पुरोहितों यानी धर्म के ठेकेदारों के
निजी जीवन और उनके उपदेशों को आमने-सामने रखकर उनकी विसंगतियों को प्रखरता से समाज
के समक्ष रखते हैं, वह अपने आपमें बेमिसाल है। भक्तिकाल में जितने भी
धर्म-सम्प्रदायों का उद्भव और विकास हुआ उन सभी का उदय मूर्ति-पूजा, जाति-पांति, धर्म-सम्प्रदायों
की कर्मकांड़ी यांत्रिकता के विरुद्ध जनसामान्य वर्ग और उसके प्रतिनिधियों द्वारा
हुआ। यह और बात है कि बाद में जनसामान्य वर्ग के प्रतिनिधि उन्हीं बुराईयों से
ग्रस्त हो गये जिनसे उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी लड़ते-लड़ते मर गई।
बीज शब्द : धर्म, समाज, रूढ़ि,
पूर्वाग्रह, भक्ति, आध्यात्म, आंदोलन ।
मूल आलेख : उद्भव और विकास की दृष्टि से भारतीय इतिहास में
मध्यकालीन ‘भक्ति-आंदोलन’ भारतीय चिंतन परम्परा के साथ-साथ इस काल की विशेष
परिस्थितियों की उपज है। इसके सूत्र अतीत में मानव समाज के उद्भव और विकास में
खोजे जा सकते है। लेकिन मध्यकाल में दक्षिण से चलकर उत्तर में विकसित ‘भक्ति-भाव’ ने जब जन-जन के
मन को उद्वेलित कर भक्ति-भावना का प्रचार-प्रसार किया तो इसने एक आंदोलन का रूप
अख्तियार कर लिया। वैसे तो ‘भक्ति’ वैयक्तिक होती है लेकिन जब इस वैयक्तिक हलचल ने सामाजिक रूप
धारण कर लिया, तब उसे ‘आंदोलन’ कहना ही उचित है। अर्थ की दृष्टि से ‘आंदोलन’ सौम्यता से अपनी बात के लिए आग्रह करता है। यह
दीर्घकालीन होता है और नित् नवीन परिस्थितियों में नवीन भाव या विचारधारा को
व्यापक बनाता चलता है। आंदोलन परम्परागत व्यवस्था में वर्तमान व्यवस्था या विश्वास
में परिवर्तन-परिवर्द्धन करता चलता है। यानी आंदोलन की प्रकृति मूलतः सुधारवादी
होती है। वास्तव में आंदोलन मूल में यथास्थिति या जड़ता के विरुद्ध एक प्रगतिशीलता
या विकसनशीलता का भाव होता है। ‘‘आंदोलन जीवन में नवोन्मेष का अग्रदूत होता है। आंदोलन
समकालीनता के वृक्ष को हमेशा हरा-भरा रखता है। आंदोलित होना सहज होते हुए भी एक
विशेष मनःस्थिति है, जिसका तात्पर्य यह है कि हम वर्तमान स्थिति- यानी यथास्थिति - से संतुष्ट नहीं है।’’[1] यानी ‘आंदोलन एक तर्क
संगत विचार भूमि और एक सुनिश्चित लक्ष्य से उद्भूत होता है।
अतः मध्यकाल में भक्ति-भावना का जो प्रचार-प्रसार हुआ और
इसने जो देश-व्यापी रूप धारण किया उसे भक्ति-आंदोलन ही कहा जाना चाहिए। यह आंदोलन
हर तरह की कट्टरता का विरोधी है। इस आंदोलन की मूल चेतना समाज के उस वर्ग की
पक्षधर है जो ब्राह्मणवाद के षड्यंत्रों और उसके संरक्षकों के साथ इस्लामी धर्म के
मुल्ला-मौलवियों की कट्टरता से समान रूप से दलित-दमित तथा उत्पीड़ित था।
संत साहित्य की अनेक विशेषताओं में से सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण विशेषता है संत साहित्य में गुरु का महत्त्व। ‘दलित दृष्टि से
मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन के संत साहित्य में गुरु का महत्त्व’ विषय पर कुछ
लिखने से पहले ‘दलित दृष्टि’, ‘मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन’, ‘संत साहित्य’ और ‘गुरु’ शब्दों का स्पष्टीकरण जरूरी है।
यहाँ सबसे पहले दलित दृष्टि से तात्पर्य आधुनिक अस्मितावादी
विमर्शों में दलित विमर्श या दृष्टि से है। यह विमर्श समाज में दलित वर्ग की
दीन-हीन स्थिति के कारणों को जगजाहिर कर इस वर्ग की दीन-हीन स्थिति से छुटकारा
पाने का मार्ग प्रशस्त करता है। चूंकि दलितों की दीन-हीन दशा का सबसे प्रमुख कारण
हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था और उसके धर्मग्रंथ है। अतः आधुनिक चिंतन में दलित
वैचारिकी के पुरोधा डॉ. अम्बेडकर का निष्कर्ष था- ‘हिंदू धर्म और
उसके धर्म-ग्रंथ ही दलित दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हैं, और जब तक दलित उनमें आस्था रखते हैं, जीवित रहते
मुक्ति नहीं।’ इस तरह दलित दृष्टि मूलतः सामाजिक परिवर्तन संबंधी आंदोलन है। सभी प्रकार के
अन्यायों को समाप्त कर एक मानवतावादी समाज का निर्माण करना इस चिंतन या दृष्टि का
लक्ष्य है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी
तक चलने वाले ‘भक्ति-आंदोलन’ का महत्त्व है कि उसने न्याय, समानता व स्वतंत्रता का संदेश
जनता को दिया। यह सवर्णाश्रम व्यवस्था में दबी कुचली, प्रताड़ित, ऊँच-नीच की
भेद-भावना से तड़पती अस्पृश्य समझी जाने वाली जनता का आंदोलन था।
अतः स्पष्ट है कि भक्ति-आंदोलन— भावना के स्तर पर सबको
समानता का अधिकार प्रदान करता है। भक्ति आंदोलन ने जाति-पांति और ऊँच-नीच के भाव
को समाप्त कर भक्ति मार्ग में हिस्सेदारी लेने के अधिकार की घोषणा सबके लिए समान
रूप से की। ब्राह्मण एवं मुस्लिम धर्म की कठोरता व कट्टरवादिता के विरूद्ध यह एक
स्वाभाविक विद्रोह था। भक्तिकाल की चारों प्रमुख काव्यधाराओं (निर्गुण संत, सूफी, राम एवं कृष्ण)
ने सामंतों एवं ब्राह्मण-मुल्लाओं की धार्मिक ठेकेदारी यानी शास्त्रवादिता पर जमकर
प्रहार किये और लोकधर्म की स्थापना की। मध्यकालीन सामंती सरदार, अमीर-उमरे
बहुसंख्यक हिन्दू-मूस्लिम कारीगरों, शिल्पियों व गरीब किसानों और महिलाओं को उस समय
मानवोचित्त अधिकारों से भी वंचित किए हुए थे। इससे ये सभी वर्ग सत्ताधारियों के
विरुद्ध एकजुट हुए। परिणामस्वरूप दलितों, पीड़ितों और अपमानितों के विक्षोभ की अभिव्यक्ति
भक्ति-आंदोलन में हुई।
‘संत साहित्य’ से आशय भक्तिकाल
की निर्गुण शाखा के साहित्य से है। इस शाखा ने हिन्दू धर्म की विसंगतियों को समाज
के सामने रखा। वास्तव में इस काल में अपनी सभी विसंगतियों को ढोते हुए हिंदू शासक
ब्राह्मण वर्ग निर्देशित ढर्रे पर बहुसंख्यक दलित पिछड़े एवं स्त्री वर्ग पर
अवसरानुसार कभी दंड तो कभी प्रेम या फिर ईश्वर का ‘कहा’ बता-समझा कर अपनी सत्ता कायम किए हुए थे। लेकिन
इस्लाम के भारतीय समाज में संक्रमण से हिंदू शासक वर्ग के सामने एक नई चुनौती आ
गई। शासक और पुरोहित वर्ग का भला समाज के लोगों के कर्मकांडी और अंधविश्वासी बने
रहने पर ही था। इसके लिए पौराणिक कथाओं का समाज में प्रचार-प्रसार एक बड़ा माध्यम
बन रहा था। हिंदू धर्म अपने समाज के लोगों को अछूत घोषित कर रहा था तो यहीं
मुस्लिम धर्म सैद्धांतिक रूप से इन अछूतों को गले लगा रहा था और धार्मिक समानता और
सम्मान की बात उनसे कर रहा था। लेकिन व्यवहारिक रूप में वह भी हिन्दू धर्म के समान
कट्टरता और भेदभाव का व्यवहार उनके साथ कर रहा था। फलस्वरूप इस वर्ग के कुछ
समाजचेताओं ने ‘भक्ति’ के मार्फत अपने समाज को राह दिखाई। वास्तव में भारतीय सभ्यता और संस्कृति की
इस मानवतावादी और अध्यात्मवादी विचारधारा का नवोन्मेष चौदहवीं सदी के समाजचेता
संतों, भक्तों और
सूफियों की वाणी में प्रकट हुआ।
इस भक्ति-आंदोलन की अंतिम परिणति क्या रही यह महत्त्वपूर्ण
नहीं है, महत्त्वपूर्ण है
कि यह आंदोलन जिस उद्देश्य को लेकर चला- उसने तत्कालीन समाज की जड़ता व अंधकार को
दूर करने के लिए ज्ञान के प्रकाश की, नई किरणों के साथ एक युगांतकारी चेतना जागृत
करने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। इस काल में भारत का कोई कोना ऐसा नहीं बचा जहाँ
मानव-प्रेम का उपदेश देने और आस्था पैदा करने वाला कोई संत या भक्त पैदा न हुआ हो।
निर्गुण के साथ-साथ सगुण भक्ति के समर्थकों ने भी भक्ति और प्रेम पर बल दिया। मोटे
रूप में इसका एक कारण तो यह रहा जो भारत में ‘कांग्रेस’ की स्थापना के पीछे, अंग्रेज अधिकारी ए.ओ. ह्यूम का ‘सेफ्टी वाल्व’ का सिद्धांत था।
यानी यह पता चलता रहे कि आखिर भारतीय जनता क्या चाहती है,
जिससे कि वे उसी हिसाब से
अपनी रणनीति या कार्य प्रणाली बना सके। बहुसंख्यक दलित-वंचित निर्गुणिया जब अपने ‘भक्ति’ के अधिकार की
मांग कर रहे थे तो इससे पहले कि ज्यादा विद्रोह हो सवर्णों यानी सगुण भक्ति के समर्थकों
ने भी निर्गुणियों की भांति, भक्ति की कुछ बातें उनकी मानी और बहुसंख्यक वर्ग के
रोष को कुछ हद तक कम कर दिया। वास्तव में इस काल में भक्ति का दर्शन धर्म का दर्शन
बन गया था। ‘धर्म’ ने जिस तथ्य का
प्रतिपादन अनुभव या प्रातिभ ज्ञान के आधार पर किया भक्ति के दर्शन ने उसका
युक्तियुक्त समर्थन किया। समाज में धर्म क्रिया-पक्ष है तो भक्ति दर्शन मानव-जीवन
का विचार-पक्ष है।
‘गुरु’ शब्द के लिए
प्रसंगवश धर्मोपदेशक, मंत्रदाता, आचार्य, शिक्षक, अग्रणी नियामक, महान्, भारी, कठिन आदि शब्द प्रयुक्त होते रहे हैं। ‘गुरु’ शब्द की
व्युत्पत्ति की चर्चा करते हुए आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी ने लिखा है कि ‘यह मूलतः ‘गृ-शब्दे’ एवं ‘गृ निगरणे’ इन दोनों में से
किसी भी धातु के आधार पर बन सकता है। इस कारण इतना और भी बतलाया जाता है कि ‘‘गुरु शब्द का
वास्तविक अर्थ भी साधारणतः ‘शब्द’ अर्थात् उपदेश देने वाला अथवा कोई ऐसा महापुरुष
भी होना चाहिए जो किसी अन्य के अज्ञानांधकार को दूर कर पाने में समर्थ हो।’’[2] किन्तु, योग-साधना अथवा तंत्र-विधान के प्रसंग में यह भी
कहा जा सकता है कि ‘गुरु’ वस्तुतः वही हो सकता है जो या तो किसी प्रक्रिया-विशेष का
अभ्यास करा सके अथवा किसी विशिष्ट कार्य-पद्धति में मार्ग-निर्देशन करे।
इस प्रकार ‘गुरु’ के लिए कह सकते हैं कि यह न केवल उपदेश मात्र देता है।
प्रत्युत वह प्रयोग आदि का आदर्श भी बतला सकता है। गुरु ‘शब्द’ मात्र के विषय में भी कहा गया है कि- ‘गुकार सिद्धियों
का देने वाला, रेफ या रकार पापों को दग्ध या नष्ट कर देने वाला तथा इसमें प्रयुक्त उकार
स्वयं शंभुरूप है। इसी कारण इसके वाचक गुरुदेव को हम उनसे भिन्न नहीं कर सकते -
‘‘गुकारः सिद्धियः प्रोक्तो, रेफः पापस्य
दाहकः।
उकारः शम्भुरिव्युक्तस्त्रितमात्मा गुरुः स्मृतः।।’’
खैर! मोटे अर्थ में ‘गुरु’ शब्द ‘गु’ और ‘रु’ दो शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है- ‘जिसके अंतस का
दीया जल गया हो, जो शिष्य के मस्तिष्क और जीवन में विद्यमान अंधकार को नष्ट कर उसे ज्ञान रूपी
प्रकाश दे दे, वही गुरु कहा जा सकता है। गुरु व्यक्ति को आसानी से नहीं मिलता। गुरु को केवल
वे ही खोज सकते हैं, जिनके अंतःकरण में प्रकाश की खोज पैदा करने का जज्बा पैदा
हो गया हो, जिन्हें जीवन मृत्यु से घिरा हुआ दिखाई देता हो, कहा भी गया है कि गुरु ही सब
कुछ है, इष्ट है -
‘‘गुरुब्रह्मा
गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु साक्षात् परम् ब्रह्म, तस्मै श्री
गुरुवे नमः।’’
अर्थात् गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है, गुरु ही महेश्वर है, गुरु साक्षात् परब्रह्म है, ऐसे गुरु को नमन
है। श्वेताश्वतरोपनिषद के अंतिम मंत्र में ‘यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ’ - वाक्य से पता
चलता है कि गुरु में देवत्व की भावना का आरम्भ हो चुका था। बहरहाल निर्गुण संत
साहित्य के अध्ययेता ‘गुरु’ से आशय उस विशिष्ट व्यक्ति या माध्यम से लेते हैं जिसके
सहारे हम अपने समुचित विकास सहित अपनी समस्त समस्याओं का यथेष्ट समाधान भी कर सकते
हैं। अतः उसे परमेश्वर के समान स्थान दिया जाता है। निर्गुण संत साहित्य के
अध्ययेता डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने अपने शोध ग्रंथ ‘हिन्दी काव्य की निर्गुण
धारा’ के चौथे अध्याय ‘निर्गुण पंथ’ में ‘पथ-प्रदर्शक गुरु’ के नाम से एक बिन्दु पर अलग से विचार किया है।
वे लिखते हैं कि ‘‘साधुओं की संगति को ‘सत्संग’ का नाम दिया जाता है और वह वस्तुतः गुरु अथवा
मार्ग-प्रदर्शक की खोज में ही किया जाता है, क्योंकि साधक के लिए इस बात की कौन-सी गारन्टी
है कि वह ठीक राह पर चल रहा है जब तक उसे कोई व्यक्ति निश्चित मार्ग से विपथ होते
समय बतला न दे।’’[3] इस प्रसंग में वे अपनी बात को जारी रखते हुए कबीर को उद्धृत
कर कहते हैं कि उसके साथ एक ऐसा व्यक्ति रहना चाहिए जो उक्त यात्रा को स्वयं पूर्ण
कर चुका हो और जो उसके कष्टों तथा सुखों से अनभिज्ञ भी न हो। यदि कोई वस्तु किसी
एक स्थान पर पड़ी हो और तुम उसे दूसरी ओर ढूँढ रहे हो तो तुम्हें वह कैसे मिल सकेगी? तुम उसे तभी पा
सकते हो जब तुम्हारे साथ एक ऐसा व्यक्ति रहे जो उसके रहस्य से परिचित हो -
‘‘वस्तु कहीं ढूँढे कहीं, केहि विधि आवै
हाथ।
कह कबीर तब पाइए, भेदी लीजे साथ।।’’[4]
यह भेदी ही ‘गुरु’ है। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि निर्गुण संत साहित्य में
गुरु का जो इतना अधिक महत्त्व बताया गया है वह गुरु कौन था? वह किस वर्ण, जाति या गुणों
वाला था? उसका कार्य क्या
था? उस गुरु का
स्वरूप क्या था? वास्तव में जिस प्रकार भक्तिकालीन निर्गुण भक्ति ने सभी जातियों— मूलतः दलित
निम्न जाति व कोटि तथा अधमाधम जाति नारी के लिए भक्ति के द्वार खोल दिये उसी
प्रकार उसने सच्चे गुरु या सद्गरु के लिए जाति वर्ण एवं धर्म के भेद की दीवार भी
हटा दी थी। निर्गुण भक्ति में वैयक्तिक एवं सामाजिक दृष्टि से श्रेष्ठ यानी उदात्त
गुणों से सम्पन्न कोई भी संत ‘गुरु’ के पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है। संतों का गुरु मोक्ष
प्राप्ति के लिए ब्राह्मणों की भांति निम्न जाति या वर्ग के लोगों के लिए न तो
अनुष्ठान करता था और न ही उनके लिए स्वर्ग के द्वार खोलने का दावा करता था।
हिन्दू-मुस्लिम धर्मों के शास्त्र ज्ञान के विपरीत निर्गुण
संतों का अटूट विश्वास है कि जगत् के झंझटों से छुटकारा शास्त्राध्ययन और ईश्वर
भक्ति से नहीं बल्कि गुरु कृपा से ही संभव है। क्योंकि पहले तो निर्गुण संतों का
संबंध समाज के दलित-वंचित उस निम्न वर्ग से था, जिसे पढ़ने-लिखने का कोई अधिकार नहीं था। दूसरे
समय के साथ शास्त्र जड़ होते जाते हैं और भक्ति व्यक्ति को पराश्रित कर संतोषवृत्ति
अपनाने की ओर अग्रसर करती है। जबकि ‘गुरु’ विवेकवान व्यक्ति होता है जो समय और समाज को
गति देता है। अतः दलित दृष्टि से संतों के मन में गुरु का स्थान सर्वोच्च है। इन
संतों ने सद्गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना है। सभी निर्गुण संतों ने जीवन
में सद्गुरु या सत्गुरु को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उसे साक्षात्
परमात्मा के समान बताया है। मनुष्य को जन्म देकर माता-पिता तो उसे केवल इस संसार
में लेकर आते हैं लेकिन इस संसार के जीवन-संघर्षों में विजय के उपाय तो वह गुरु से
ही सीखता-समझता है। इसलिए गुरु को माता-पिता यहाँ तक कि सृष्टिकर्ता ईश्वर से भी
बड़ा माना गया है।
हिन्दी साहित्येतिहास के भक्तिकालीन निर्गुण संत साहित्य ने
वर्ण, जाति, कुल और धर्म की
परिसीमाओं का अतिक्रमण कर एक जन-आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया था। निर्गुण भक्ति
केवल ईश्वर-भक्ति का आंदोलन ही नहीं था। बल्कि निर्गुण भक्ति ने तद्युगीन
सामाजिक-धार्मिक जीवन में स्थित सवर्ण वर्णों या जातियों द्वारा निम्न वर्ण या
जातियों के प्रति किये गये अत्याचार, अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ असहमति और विरोध
निहित था। इससे भी बढ़कर निर्गुण मत में दलित वर्ग के लिए यह निर्देश था कि वे अपने
अस्तित्व और अस्मिता के लिए क्या-क्या करें और क्या-क्या न करें। इसमें तत्कालीन
दलित-वंचित जनमानस की आशाओं-आकांक्षाओं और आदर्शों की भी अभिव्यक्ति हुई थी।
भक्ति-आंदोलन पर आज विचार करते समय डॉ. मैनेजर पांडेय के इस
प्रस्ताव पर ध्यान रखना चाहिए कि – ‘‘भक्ति-आंदोलन और उसके साहित्य पर विचार करते समय उसके
सामाजिक-सांस्कृतिक आधार, विचारधारात्मक रूप और कलात्मक स्वरूप पर ऐतिहासिक दृष्टि से
विचार करना चाहिए। यही नहीं, वर्तमान संदर्भ में जन-संस्कृति के उत्थान के उस व्यापक
अखिल भारतीय आंदोलन की अर्थवत्ता और भक्ति-काव्य के कलात्मक तथा सौन्दर्यबोधात्मक
महत्त्व का विश्लेषण भी आवश्यक है। अतीत के साहित्य की आलोचना करते समय वाल्टर
बैंजामिन की इस धारणा पर ध्यान देना ज़रूरी है कि अतीत के अनुभव के रूप में उसका
मूल्यांकन करना अपर्याप्त है, वर्तमान के अनुभव के रूप में उसका विश्लेषण और मूल्यांकन
करना भी आवश्यक है।’’[5] इस दृष्टि से निर्गुण भक्ति सही मायनों में सामयिक, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों व अवधारणाओं की द्वंद्वात्मक अभिव्यक्ति है। इस बात से
इंकार नहीं किया जा सकता कि भक्तिकाल की निर्गुण भक्ति-धारा में समाज के दलित -
निम्न वर्ग के लोग थे, जो सम्प्रदाय इत्तर और वैदिक कर्मकांडी ब्राह्मणवादी
व्यवस्था में अनास्था रखने वाले व्यक्ति थे। इन निर्गुण संतों ने भक्ति के मार्फत
सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव एवं आर्थिक शोषण, धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांडों के निस्सार
खोखलेपन को जगज़ाहिर किया। इन संतों ने ‘न हिन्दू न मुसलमान’ का आदर्श समाज के समक्ष प्रस्तुत कर समाज में
एकात्मकता और भाईचारे की भावना के विकास का पुरजोर प्रयास किया। हाँ! जब ये संत ‘न हिन्दू न
मुसलमान’ की बात कहते हैं
तो इससे सीधा आशय है, इन दोनों वर्गों से भिन्न तीसरा वर्ग- शासित या दलित-वंचित
वर्ग।
भक्तिकालीन निर्गुण संतों ने आत्मज्ञान या ईश्वर या मोक्ष
तक पहुँचने के लिए परम्परागत ब्राह्मण-पुरोहित या धार्मिक ग्रंथ कथित आचार-व्यवहार
शासक के स्थान पर एक अन्य मध्यस्थ ‘गुरु’ को चुना। वैसे भक्तिकाल की दोनों प्रमुख- सगुण-निर्गुण
धाराओं के भक्तों एवं संतों ने मानव-जीवन में निर्विवाद रूप से गुरु के महत्त्व पर
बल दिया है।
एक तरह से निर्गुण संत साहित्य ही नही बल्कि सम्पूर्ण
भारतीय जीवन और साहित्य में गुरु को गौरवपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है क्योंकि
गुरु अंधकार व अज्ञान का निरोध करने वाला है -
‘‘गुशब्दस्त्वन्धकारः
स्याद्रशब्दस्तन्निरोधकः।
अन्धकार निरोधत्वाद् गुरुरित्याभिधीयते।।’’ - अद्वैतोपनिषद्
भारतीय पौराणिक ‘अवतार-धारणा’ भी एक तरह से बहुत हद तक गुरु के ही नजदीक
ठहरती है -
‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।’’ - भगवद्गीता, 47
‘जब जब होई धरम कै हानी,
बाढ़हिं असुर अधम
अभिमानी...
तब तब प्रभु धरि विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा’’ - तुलसीदास
भक्तिकाल के सभी संतों, भक्तों और सूफियों ने अज्ञान के अंधकार में
भटकने वाले जीव को भक्ति का प्रकाश दिखाने वाले एक विशिष्ट माध्यम के रूप में ‘गुरु’ का महत्त्व
स्वीकार किया है। इनकी आम धारणा के अनुसार गुरु की कृपा एवं उपदेशों के बिना न तो
मानसिक विकार ही दूर हो सकते हैं और न ही ईश्वर की प्राप्ति ही संभव है। ‘गुरु’ मानव देहयुक्त
होते हुए भी मानवी चेतना में ही निवास नहीं करते, बल्कि वे भगवत्मय होकर भगवद्रूप हो जाते हैं। डॉ.
रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी का इस संबध में मत है कि ‘‘गुरु एक ओर लौकिक ज्ञान
का उद्घाटक, प्रवत्र्तक एवं संस्थापक है तथा दूसरी ओर अलौकिक ज्ञान का निर्देशक भी, जिस प्रकार
ब्रह्म के शरीर ग्रहण का नाम अवतार है, उसी प्रकार ज्ञान के शरीर ग्रहण का नाम ‘गुरु’ है। ब्रह्म और
गुरु का अभेद इसी अर्थ में है। कहीं-कहीं तो ग्रंथ को भी गुरु रूप में ब्रह्म सदृश
मान्यता मिली है। सिक्ख धर्म में ‘गुरुग्रंथ’ साहब गुरु का स्थान ले चुके हैं। जीव (अज्ञानीद्ध) को शिव (ज्ञानीद्ध)
रूप देने वाले भगवान् शंकर जगद्गुरु हैं। इसी प्रकार वैष्णवों के श्रीगुरु, शाक्तों के
परमगुरु, कौलों के कुलगुरु, संतों के
ज्ञानगुरु, भक्तों के संतगुरु, साधकों के दीक्षागुरु, तांत्रिकों के गुह्य-गुरु, योगियों के
योग-गुरु, लोकायतों के
भोग-गुरु, कार्मिकों के
कर्म-गुरु बेधकों के कर्म-गुरु, विभिन्न धर्मों के धर्म एवं सम्प्रदाय गुरु आदि सभी एक आदि
गुरु के ही विभिन्न रूप हैं।’’[6] लेकिन गुरु का जैसा स्वरूप और महत्त्व निर्गुण संत साहित्य
में देखने को मिलता है, वैसा अन्य कहीं देखने को नहीं मिलता।
भक्तिकालीन सभी निर्गुण संतों ने निर्विवाद रूप से ‘गुरु’ को सर्वाधिक
महत्त्व दिया है। इसकी पृष्ठभूमि में एकमात्र ठोस कारण यह है कि जिन दलित जातियों
से ये निर्गुण संत संबंध रखते थे उन्हें समाज में किसी प्रकार के पढ़त-लिखत के अवसर
या अधिकार नहीं थे। इसलिए इन जातियों के अस्तित्त्व व विकास का सारा दारोमदार
अच्छी सूझ-बूझ वाले व्यक्तियों पर ही निर्भर था। संभवतः यही कारण है कि संत
दादूदयाल को शास्त्र का विरोध करते हुए कहना पड़ा - ‘मसि कागद के आसरे, क्यों छूटे संसार’ अर्थात् केवल कागज अैर स्याही के भरोसे इस
संसार से छुटकारा नहीं मिल सकता।
दमन और शोषण की शिकार अंत्यज और अवर्ण जातियों को समय-समय
पर अनेक व्यक्तियों ने नेतृत्त्व प्रदान किया और गैर-ब्राह्मण धर्म आंदोलन को
समाप्त होने से बचाये रखा। इस ‘‘जन चेतना आंदोलन की यह परम्परा देवासुर-संग्राम के तत्त्काल
बाद शुरू होती हुई दिखती है। जब विजेता आर्यों ने मूलनिवासी जनता को शूद्र-दास
बनाया, गंदे पेशों में
धकेला, मानवाधिकारों से
वंचित किया। यह जन चेतना उसी युग से लेकर आज तक मशलूम मानवता के लिए लड़ती आ रही
है।’’[7] इस जन चेतना को सबसे पहले नेतृत्त्व यक्षों ने दिया लेकिन
हिंदू धर्मग्रंथों में दलित वर्ग का नेतृत्त्व करने वालों को राक्षस, असुर, दैत्य, दानव आदि बताया
गया है। जबकि शब्दार्थ की दृष्टि से ‘राक्षस का अर्थ है, रक्षण करने वाला। निस्संदेह ये मूलनिवासी जनता
की रक्षा करते रहे होंगे। असुर का अर्थ है सुरा (शराब) न पीने वाला.... दानव का
अर्थ है दानशील व्यक्ति, जैसे राजा बलि।’[8] लेकिन बाद में
ब्राह्मण धर्मग्रंथों की कथा-कहानियों में राक्षस, असुर, दानव आदि का अर्थ समाज-विरोधी कार्य करने वाले
लोगों के लिए प्रचलित कर दिया गया।
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि भारतवर्ष ‘जलवायु और विशाल
नदी अपवाह तंत्रों’ के कारण मानव जीवन की परिस्थितियों के सर्वाधिक अनुकूल है।
जबकि भारत के बाहर के देशों एवं महाद्वीपों में ऐसी अनुकूलता मानव जीवन के लिए
ज्यादा नहीं है। अतः समय-समय पर बाहर से अनेक घुमन्तु जत्थे आते रहे। बाहर से आने
वाले इन घुमन्तु जत्थों ने भारत पर एकाएक आक्रमण कर साम-दाम-दंड-भेद की नीति का
पालन करते हुए तुर्कों, अरबों, यूरोपीय शक्तियों की भाँति यहाँ की मूलनिवासी जनता पर अपना
शासन स्थापित कर लिया। वास्तव में, ‘आर्यों ने सिंधु घाटी के शिल्पकारों पर अचानक
आक्रमण करके, उनके वैभवशाली नगरों को तहस-नहस कर दिया, वहाँ के नागरिकों का सामूहिक नरसंहार किया, धन-दौलत को लूटा
और जो जीवित रहे उन्हें दास, दस्यु, दैत्य, राक्षस, असुर, अनार्य, दानव, अस्पृश्य (अछूत) के नाम देकर वर्ण-व्यवस्था के अंतिम चरण
यानी सबसे नीचे ‘शूद्र’ बनाकर डाल दिया।’’[9] ब्राह्मण
सत्ता-व्यवस्था में व्यावहारिक दृष्टि से देखने में आता है कि जो व्यक्ति या वर्ग
ब्राह्मण सत्ता को चुनौती देते रहे उन्हें चातुर वर्ण-व्यवस्था से बाहर पंचम वर्ण
- अंत्यज वर्ग या वर्ण बाह्य वर्ग में डाल दिया। इतना ही नहीं दलित वर्ग को
नियंत्रित करने के लिए सवर्ण समाज के ब्राह्मण वर्ग ने अपने धर्मग्रन्थों, संहिताओं और
स्मृतियों का निर्माण किया। स्मृतियों विशेषकर ‘मनुस्मृति’ ने दलित वर्ग के नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण
भूमिका का निर्वाह किया। मनुस्मृति ने शूद्र वर्ग के रहने-खाने, ओढ़ने-पहनने, नगर में
घूमने-फिरने, शिक्षा ग्र्रहण करने पर अनेकानेक प्रतिबंध लगा दिए। ब्राह्मण धर्म-व्यवस्था ने
शूद्र वर्ग के लोगों की दशा पशु से भी बदत्तर बना दी। लेकिन इसके साथ ही यह भी
सत्य है कि दलित वर्ग के प्रति व्यवहृत इस अमानवीय व्यवहार, अंधे कानून और
अपमानपूर्ण उत्पीड़न को दलित वर्ग ने सहज ही स्वीकार नहीं किया था। भारतीय समाज के
इतिहास में अन्याय और उत्पीड़न के विरुद्ध कुछ समाजचेता दलित बुद्धिजीवियों ने दलित
वर्ग को मुक्ति की राह प्रत्येक काल में दिखाई। इस दृष्टि से वह दैत्य गुरु
शुक्राचार्य हो या फिर लोकायत-चार्वाक, बौद्ध सिद्ध-नाथ, निर्गुण संत, ज्योतिबा फुले-अम्बेडकर-पेरियार या फिर
समसामयिक दलित विमर्शकार कोई भी हो। इन्होंने दलित, खंडित, निम्न वर्ग में संघर्ष की चेतना को बनाए रखा।
उत्पीड़न व अन्याय के विरुद्ध मानव-अधिकार के लिए सत्तावादी या ब्राह्मणवादी समाज
उनके संघर्ष या स्वर को कभी भी पूरी तरह दबा नहीं सके।
दलित चेतना को बनाये रखने की यह परम्परा यक्षों के बाद
नागों, चार्वाक, विनायक, वीर, एकलव्य, शंबूक से होती
हुई बौद्ध धर्मानुयायी श्वपाक नामक चांडाल, सुनीत नामक भंगी और उपालि नामक नाई आदि पर आकर
ठहर सी जाती है। अंतिम मौर्य शासक बृह्दरथ की हत्या उसी के ब्राह्मण सेनापति
पुष्यमित्र शुंग ने की और इसके बाद दलित या श्रमण नायकों की हत्याओं का अंतहीन
सिलसिला शुरू हो जाता है। सारे देश में बौद्धों का कत्लेआम करने के लिए नागा
बाबाओं का क्रूर जेहादी गिरोह विकसित हुआ तथा ‘‘समूचे भारत से बौद्ध धर्म
का सफाया कर दिया गया। परिणामस्वरूप बचे हुए बौद्ध भिक्खु चीन-जापान भाग गए।
सैंकड़ों ने ऊँचे हिमालय, लद्दाख, भूटान, लाहुलस्पीति, किन्नौर, तिब्बत आदि में शरण ली। जो गरीब थे, नहीं भाग सकते थे, उन्हें शोषकों ने
अछूत बनाकर गाँवों की सीमाओं से बाहर खदेड़ दिया।’’[10]
इस प्रकार ब्राह्मण धर्म ने दलित जनचेतना को लगभग पूर्णतः
दबा दिया लेकिन दसवीं शताब्दी तक आते-आते ‘पीरों’ के रूप में पुनः दलित नेतृत्त्व दृष्टिगत होता
है। इन पीरों को ब्राह्मणवादियों ने तुर्क व नौगशा कहकर इनके प्रभाव को ख़ारिज
करने का प्रयास किया। नौगशा का सामान्य अर्थ है नौ गज लंबा। सामान्य से अधिक लंबा
होने के कारण इन दलित नायकों को असुर, राक्षस व दैत्य की उसी श्रेणी में डालने की
चेष्टा की गई जिसमें कभी यक्षों को डाला गया था। ‘वास्तव में नौगज़ा शब्द फारसी भाषा के ‘नौ गाजी’ का अपभ्रंश है।
फारसी में इसका अर्थ है – ‘‘नया धर्मवीर’’[11] दलित जनता के हक-हकूकों के लिए लड़ने वाले व जनता के दुखों
को दूर करने वाले व्यक्ति पीर या नौगशे कहलाए। आज भी उत्तर भारत के कोने-कोने में
(ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक गाँव के बाहर) विद्यमान नौगजे पीरों की मजार और
उनके प्रति दलित जनता की श्रद्धा इस बात का प्रमाण है।
दलित चिंतन की दृष्टि से निर्गुण संतों के पूर्ववर्ती
सिद्धों-नाथों ने गुरु के महत्त्व का बड़ा बखान किया है। ‘‘पीरों के बाद जनक्रांति
या गैर-ब्राह्मण धर्म परम्परा की यह मशाल निर्गुणियाँ संतों के हाथों में आई....
निर्गुण परम्परा अब श्रमण परम्परा का निर्वाह करने को तत्पर हुई।’’[12] अछूत समुदाय[13] से
रविदास (चमार) कबीर (जुलाहा) , नामदेव
(धोबी) धन्ना जी (जाट) दादू जी (धुनिया) नाभादास (डोम) , सैना (नाई)
विट्ठलदास (माली) पलटू साहब (अछूत
बनिया) आदि दलित नायक या गुरु हुए
जिन्होंने आम जनता में क्रांति का शंखनाद कर दलित वर्ग के आंदोलन को बनाये रखा।
ब्राह्मणवादियों ने दलित जातियों के साहित्य और श्रेष्ठ विद्वानों को योजनाबद्ध
ढंग से समय-समय पर समाप्त कर दिया या उनके चरित्र और विचारों को विकृत कर दिया। इस
बात को दलित जातियाँ बखूबी जानती-समझती थीं। इसलिए इनके पास ज्ञान प्राप्ति का एक
ही साधन था- योग्य और कुशल गुरु। निर्गुण संत साहित्य में गुरु के महत्त्व को इसी
तथ्य से आंका जा सकता है कि सभी निर्गुण संतों ने ‘गुरुदेव को अंग’ के रूप में अपनी-अपनी मान्यताएँ साखियों और
पदों के रूप में व्यक्त की हैं।
दलित चिंतन की दृष्टि से निर्गुण संतों के पूर्ववर्ती
सिद्धों-नाथों ने गुरु के महत्त्व का बड़ा बखान किया है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपने प्रसिद्ध
ग्रंथ ‘संस्कृति के चार
अध्याय’ में राहुल
सांकृत्यायन के मत से लिखा है कि ‘‘गुरु परम्परा का वास्तविक आरंभ सिद्धों ने किया। हाँ, कबीर आदि
निर्गुणियोँ संतों ने उस परम्परा को पुष्ट अवश्य किया।’’[14] यहाँ यह तथ्य ध्यातव्य है कि सिद्ध और निर्गुण संत दलित
जनता के प्रतिनिधि थे। बौद्ध सिद्ध मूलतः बौद्ध धर्मानुयायी होने के कारण
नैरात्मवादी थे। इससे उन्होंने अपने सद्गुरु को कभी भी परमात्मतत्त्व या
आत्मतत्त्व के स्थान पर प्रतिष्ठित न कर अपने किसी शरीरधारी गुरु विशेष या फिर
गुरु सम्प्रदाय के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की है। दलित चिंतन की दृष्टि से इन
बौद्ध सिद्धों के समक्ष किसी न किसी शरीरधारी सद्गुरु के उपदेश ही काम करते रहे
होंगे। सिद्ध तिल्लोपाद कहते हैं कि वह परमतत्त्व यानी ईश्वर न कहीं से आता है, न कहीं जाता है, न किसी स्थान पर
ठहरता है बल्कि गुरु के उपदेश से वह हृदय में प्रविष्ट होता है -
‘‘आवइ जाइ कहवि ण णइ। गुरु
उपएसें हिअहि समाइ।।’’[15]
इसी प्रकार मुनि राम सिंह कहते हैं कुतीर्थों का परिभ्रमण तभी तक किया जाता है
और धूर्तता भी तभी तक चलती है जब तक कि गुरु के अनुग्रह से देह में स्थित देव का
परिज्ञान नहीं हो जाता-
‘‘ताम कुतित्थइं परिभमइं
धुत्तिम ताम करंति।
गुरुहं पसाएं जा ण वि देहहं देउ मुंणति।।’’[16]
गुरु गोरखनाथ गुरु का महत्त्व बताते हैं कि गुरु की कथनी और
करणी में अंतर नहीं होता। हमारा गुरु कथनी-करनी में एकरूपता वाला और इससे भी बढ़कर
रहणीं या आचरण में समरूपता वाला है। जहाँ पर ऐसा योग है, वहाँ पर कोई रोग नहीं रहता क्योंकि ‘‘जहाँ जोग तहाँ
रोग न ब्यापैं, ऐसा परिष गुर करनां।’’[17] योगाभ्यास सिद्ध होने पर दैहिक या मानसिक कोई भी रोग नहीं
रहता। अतः जाँच-परख कर ऐसा ही गुरु बनाना चाहिए अन्यथा योग के स्थान पर रोग गले पड़
जाते हैं। यहाँ पर ‘‘जहाँ जोग तहाँ रोग न ब्यापैं, ऐसा परिष गुरु करनां’’ पर ध्यान दें तो
विदित होगा कि जोग शब्द का अर्थ त्याग व योग हो तो वहाँ दलित दृष्टि से परम्परागत
अर्थ से ज्यादा महत्त्वपूर्ण अर्थ निकलता है। हमें ऐसे पुरुष को गुरु बनाना चाहिए, जो त्यागमय जीवन
जीते हुए लोगों को परस्पर जोड़ सके, लोगों में समन्वय कर सके। ऐसा गुरु या नायक न होने से योग
के स्थान पर रोग गले पड़ जाएँगे। यानि दलित वर्ग का नेतृत्व नष्ट हो जाएगा।
‘गुरु’ निर्गुण संत
मार्ग की एक अनिवार्यता है, अपरिहार्यता है इसमें कोई संदेह नहीं। वह गोविंद से भी बड़ा
है।[18] वह अनंत
को दिखाने वाला अनंत महिमामंडित है।[19] संत
कबीर रूपक के माध्यम से गुरु को धोबी तथा सृष्टिकर्ता को साबुन समान बताकर गुरु को
ईश्वर से भी श्रेष्ठ बताते हैं।[20] गुरु
के समान कोई समीपी-सगा शुभचिंतक और हितकारी नहीं हो सकता।[21] गुरु-कृपा
से ही समुचित मार्ग का बोध होता है अन्यथा लोक वेद-मार्ग का अंधानुकरण कर पथभ्रष्ट
होता रहता है।[22] गुरु के इसी महत्त्व के कारण संत कबीर कहते हैं
कि ‘सीस दिये जो गुर
मिलै, तो भी सस्ता जान’[23] अर्थात् यदि गुरु
सिर को समर्पित कर देने पर भी मिल जाये तो सस्ता है।
संत रविदास कहते हैं कि गुरु ने ज्ञान रूपी दीपक देकर बाती
जला दी है जिससे जन्म-मरण से छुटकारा मिल गया।[24] गुरु
यदि कम ज्ञानी हो तो शिष्य तो निश्चित रूप से महाअंधा यानी मूर्ख ही होगा। गुरु के
ज्ञान-चक्षुओं के बिना किसी प्रकार भी भ्रम रूपी फंदों से निजात नहीं मिल सकती-
‘‘अंधला जौ पाइहिं, तो सिष भयौ
निरंध।
‘रैदास’ गुरु ग्यानं चाषू बिना,
किमि मिटइ भ्रम फंद।।’’[25]
संत रविदास एक स्थान पर गुरु को अपने युग के एक अध्यापक के
रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-
‘‘चल मन हरि चटसाल पढाऊँ।
गुरु की साटि ग्यान का अच्छर, बिसरै तौ सहज समाधि लगाऊँ।
प्रेम की पाटी सुरति की लेखनि ररौ ममौ लिखि आंक लखाऊँ।।’’[26]
इसलिए वे गुरु के वचनों को न भुलाने की सलाह देते हैं।[27] धनी
धरमदास ने कबीर की गुरु-रूप में अभ्यर्थना की है। सतगुरु धोबी के समान है जो चित्त
की कलुषता को ब्रह्माग्नि में भस्म कर निर्मल बना देता है—
‘‘सतगुरु धोबी जो मिले, दिल दाग छोड़ावै।
ब्रह्म अगिन परगट करै, कर्म भर्म जरावै।
गुरु गम बानी उफचरै पूरष दरसावै।
यह कबीर धर्मदास से, अच्छर परसावै।।’’[28]
यही कारण है कि धरमदास की दृष्टि में सतगुरु चारों वर्णों
से श्रेष्ठ हैं।[29]
संत नानक स्वीकार करते हैं कि सच्चा गुरु दुर्मति का नाश कर माया को शक्तिहीन बना
देता है, वह पथभ्रष्ट
लोगों को सत् पथ का निर्देश देता है।[30] गुरु
ही सच्चा तीर्थ है।[31] नानक
का स्पष्ट मत है कि इस संसार में जिसको जो कुछ मिला है, वह गुरु कृपा से ही प्राप्त हुआ है, चाहे कोई ऋषि, मुनि, योगी, तपस्वी ही क्यों
न हो—
‘‘गुरु के सबद तरे मुनि
केते, इन्द्रादिक
ब्रह्मादिक तरे।
सनक सनंदन तपसीजन केते, गुरपरसादी पारि तरे।’’[32]
संत दादूदयाल ने गुरु की विलक्षण शक्तियों का बड़ी व्यापकता
और विभोरता से वर्णन किया है। वे कहते हैं कि गुरु ने राह दिखाकर बंद ताले की चाबी
देकर सभी दरवाजे खोल दिये हैं।[33] दादू
का मत है कि मैंने न तो घर त्यागा, न वन गया और न ही कुछ पीड़ा भोगी बल्कि सतगुरु के उपदेश से
मन में ही मुझे इच्छित मिल गया।[34] उनका
मत है कि ‘वेदी कुरानौ ना
कह्या, सो गुर दीया
दिषाई।’[35] गुरु के बिना
अज्ञान दूर नहीं हो सकता।[36] गुरु
द्वारा प्रदत्त ज्ञान के पश्चात् ब्रह्म की अनुभूति एवं साक्षात्कार सहज ही हो
जाता है।[37] संत
रज्जब ने अपने गुरु दादू के प्रति श्रद्धा-भाव व्यक्त करते हुए कहा है—
‘‘रज्जब रचितं सास्त्र।
सर्वंगी सब सार।
गुर दादू की द्रिष्टि सौं। नीर क्षीर सुबिचार।।’’[38]
रज्जब गुरु को कुम्हार और शिष्य को कुम्भ के समान बताते हैं— ‘सेवग कुंभ कुंभार
गुर। घड़ि-घड़ि काढै खोट।’[39] इसलिए रज्जब कहते हैं—
‘‘गुर गरवा मिल्या, दीरघ दिल दरिया।
दरसन परसन होत ही, मंजन भल भरिया।।’’[40]
संत सुंदरदास[41] की
मान्यता है कि गुरु के बिना न तो ज्ञान प्राप्त होता है और न ध्यान । आत्म-ज्ञान ईश्वर-प्रेम ही प्राप्त
होता है। गुरु के बिना चित्त संशयग्रस्त रहता है, उसे ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग नहीं सूझता। संत
सुंदरदास को गुरु के समान दूसरा कोई हितैषी प्रतीत नहीं होता[42] और न
उदार ही।[43] गुरु
की महिमा गोविंद से भी अधिक है—
‘‘औरऊ कहाँ लौं कछु मुख तें
कहै बनाइ।
गुरु की तौ महिमा अधिक है गोविंद ते।।’’[44]
संत मलूकदास ब्रह्म और गुरु में किसी प्रकार की पृथकता
स्वीकार नहीं करते। उन्होंने अपने ऐसे ‘गुरु’ को सर्वसामान्य के लिए अगम्य बताया है।[45] मलूकदास
का गुरु बड़ा विचित्र, अद्भुत लीलाओं वाला हैं। न वह कुछ खाता है, न पीता है, न सोता है, न जागता है, न मरता है, न पैदा होता है।
वह पलभर में नाना रूपों को धरता है, तो पलभर में अकेला रह जाता है।[46]
निर्गुण संतों का गुरु ईश्वर से भी ऊपर है, वह सर्वोपरि है
क्योंकि वे ईश्वर के अस्तित्त्व को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने निर्गुण को हरि, राम, केशव, रहीम आदि कहा
ज़रूर लेकिन उनका निर्गुण बौद्धों के शून्यवाद पर आधारित था। इन निर्गुण संतों के
हाथ में न तो तलवार-त्रिशूल थे और न कमंडल बल्कि ये गृहस्थ कर्मकार थे। यक्षों, नागों, वीरों, विनायकों और
पीरों की भांति जनसामान्य दलितों में इन संतों के प्रति श्रद्धा से, इन जातियों
में इन संतों के प्रभाव का सहज ही अंदाजा लगाया जा
सकता है। लेकिन शोषक ब्राह्मण-व्यवस्था ने जैसे यक्षों को असुर, दैत्य, राक्षस कहकर
विनायकों को गणेश कहकर, वीरों को सेवक (महावीर हनुमान, लंगर वीरद्ध कहकर, नागों को कोबरा साँप कहकर,
बुद्ध को विष्णु का अवतार बना कर, पीरों को तुर्क तथा नौगशा कहकर विकृत किया।[47] उसी
प्रकार संत कबीर, रविदास, नानक, रज्जब, सुंदरदास, मलूकदास आदि को
राम, कृष्ण का पूजक
तथा वैष्णव धारा की भक्ति आंदोलन से तथा ईश्वर से जोड़कर, इन संतों के दलित नेतृत्त्व को समय के साथ
नियंत्रित कर खारिज करने का प्रयास किया।
इस प्रकार निर्गुण संतों ने गुरु को बहुत अधिक महत्त्व दिया
है। इन संतों ने गुरु के सद्गुरु होने के साथ-साथ शिष्य का भी योग्य, एकनिष्ठ और श्रद्धालु
होना आवश्यक बताया है। संक्षेप में, दलित दृष्टि से मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन के
निर्गुण संतों ने गुरु को सर्वाधिक महत्त्व दिया।
संदर्भ
[1] साहित्य-सृजन:
बदलती प्रक्रिया, शंभु गुप्त, सामायिक बुक्स, नई दिल्ली, सं. 2012, पृ. 11
[2] संत साहित्य के
प्रेरणा स्रोत, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, राजपाल एंड संज, कश्मीरी गेट, दिल्ली, सं.-1975, पृ. 119
[3] हिन्दी काव्य की
निर्गुण धारा, डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, पृ. 182
[4] वही, पृ. 182
[5] भक्ति-आंदोलन के
सामाजिक आधार, सं. गोपेश्वर सिंह, भारतीय प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, सं.-2009, पृ. 137
[6] मध्ययुगीन
भक्तिकाव्य में गुरु का स्वरूप, डॉ. रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी, अभिन्व भारती, इलाहाबाद, सं. 1983, पृ. 7
[7] गुरु रविदास की
हत्या के प्रमाणिक दस्तावेज, सतनाम सिंह, सम्यक् प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2006, पृ. 19
[8] गुरु रविदास की
हत्या के प्रमाणिक दस्तावेज, सतनाम सिंह, पृ. 19-20
[9] दलित साहित्य:
दशा और दिशा, सं. माताप्रसाद, भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली, सं.-2003, पृ. 11
[10] वही, पृ. 24
[11] वही, पृ. 24
[12] गुरु रविदास की
हत्या के प्रमाणिक दस्तावेज, सतनाम सिंह, पृ. 25
[13] वही, पृ. 25
[14] संस्कृति के चार
अध्याय, रामधारी सिंह
दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, 1983, पृ. 365
[15] संत सुधा सार, सं. वियोगी हरि, सिद्ध तिल्लोपाद, पृ. 29
[16] संत सुधा सार, सं. वियोगी हरि, मुनि रामसिंह, दोहा 12, पृ. 37
[17] वही, गोरखनाथ, पृ. 49
[18] ‘गुरु गोविंद दोऊ
खड़े, काके लागौं पाय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय।’
[19] कबीर ग्रंथावली, डॉ.
श्यामसुंदरदास, लोकभारती, साखी 1/3, पृ. 49
[20] गुरु धोबी सिष
कापड़ा, साबुन सिरजनहार।
सुरति सिल पर धोइयें, निकसे जोति अपार।
[21] सतगुरु सवांन को
सगा, सोधी सईं न दाति।
हरि जी सवंन को हितू हरिजन सईं न जाति।
[22] ‘पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि।’
[23] संत सुधा सार, सं. वियोगी हरि, कबीर, गुरुदेव कौ अंग, साखी 19, पृ. 112
[24] रैदास ग्रंथ., सं. डॉ..एन. सिंह, साखी 14, पृ. 138
[25] वही, पृ. 138
[26] संत सुधा सार, सं. वियोगी हरि, रैदास, पद 24, पृ. 167
[27] ‘कहै रैदास की वचन
गुरु के, सौ न जीअ तैं
टार।’, संत कवि रविदास, योगेश गुप्त, पृ. 38
[28] संत वचनावली, सं. डॉ. रामेश्वर
प्रसाद सिंह, पद 3, पृ. 116-117
[29] वही, पद 4, पृ. 117
[30] ‘‘दुरमति बाधा
सरपानि खाधा। मनसुख खाइया गुरुमुखि लाधा।सतिगुरु मिले अंधेरा जाइ। नानक हउमै भेटि
समाइ।।’’, श्री गुरुग्रंथ साहिब, पृ. 629
[31] गुरु सरि सागर
बोहियो गुरु तीरथ दरियाउ - वही, पृ. 629
[32] श्री गुरुग्रंथ
साहिब, पृ. 1125
[33] दादूदयाल ग्रंथावली, सं. परशुराम
चतुर्वेदी, साखी 5, पृ. 2
[34] वही, 1/73
[35] दादूदयाल ग्रंथावली, सं. परशुराम
चतुर्वेदी, साखी 5, 1/79
[36] वही, 1/58
[37] वही, 1/63
[38] रज्जबदास की
सर्बंगी, सं. शहाबुद्दीन
इराकी, पृ. 104
[39] वही, पृ. 116
[40] रज्जब बानी, डॉ. ब्रजलाल
वर्मा, पृ. 402
[41] ‘गुरु बिन ज्ञान नांहि, गुरु बिन ध्यान नांहि, गुरु बिन आतमा विचार न लहतु है।
गुरु बिन प्रेम
नांहि, गुरु बिन नेम नांहि, गुरु बिन सीलहू संतोष न गहतु है।
गुरु बिन प्यास
नांहि बुद्धि को प्रकास नांहि, भ्रमहू कौ नास नांहि, संसय रहतु है।
गुरु बिन बाट
नांहि, कौड़ा बिन हाट
नांहि, सुंदर प्रगट लोक
वेद यौं कहतु है।’ वही, पद 15, पृ. 66
[42] ‘औरऊ सनेही हम
नीके कदि देखे सोधि, जग मैं न कोऊ हितकारी गुरदेव सो’, सुंदर विलास, डॉ. किशोरी लाल गुप्त,
छंद 18, पृ. 68
[43] ‘कहत एक दियौ जिनि
राम नाम, गुरु सौ उदार कोउ
देख्यौ है न सुन्यौ है।’, वही, छंद 20, पृ. 69
[44] वही, छंद 22
[45] संत मलूकदास ग्रंथ., सं. बलदेव वंशी, पृ. 43
[46] वही, पृ. 43
[47] गुरु रविदास की हत्या के प्रामाणिक दस्तावेज, सतनाम सिंह, पृ. 26
डॉ. अनिल कुमार, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, अलीपुर, दिल्ली- 110036
dranilkumar036@gmail.com , 8130479556
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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