शोध आलेख : असम की ‘चाय जनगोष्ठी’ के लोकगीतों में अंतर्निहित व्यथा-वंचना / प्रियंका दास
शोध सार:
उत्तर-पूर्व स्थित असम राज्य में अनेक जाति-जनजातियों का वास है। गारो, राभा, तिवा, चुतिया, आहोम, बोड़ो आदि समुदायमें एक असम की चाय जनगोष्ठी भी है। ब्रिटिश शासन के दौरान असम के चाय बागानों में मजदूरी कराने के उद्देश्य से भारत के विभिन्न अंचलों से नाना भाषा-भाषी और सांस्कृतिक विभिन्नता वाले श्रमिकों को असम राज्य में लाया गया। इनकी आर्थिक तंगी का यथोचित लाभ उठाते हुए बहला-फुसला कर अथवा जबरन असम लाकर इन श्रमिकों से दिन-रात श्रम कराया गया। अमानवीय व्यवहार, घोर यातना-वंचना और शोषण झेल रहे स्वभाव से परिश्रमी और निश्छल श्रमिक अपनी भूमि को लौटने में भी सक्षम नहीं थे। अतः असम आव्रजित इन नाना भाषी श्रमिकों ने आपसी सौहार्द से एक समन्वित व सम्मिश्रित समाज की निर्मिती की। भले ही इन श्रमिकों की आर्थिक-सामाजिक दशा कमजोर है परन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से चाय जनगोष्ठी अत्यंत समृद्ध समाज है। यही कारण है कि चाय जनगोष्ठी के लोकसाहित्य में विशेषकर लोकगीतों(झुमुर) में इनके जीवन की व्यथा, यातना, वेदना, वंचना, कुंठा आदि की सटीक और स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है। ये लोकगीत चाय जनगोष्ठी के इतिहास और वास्तविक दशा का जीवंत दस्तावेज हैं।
बीज शब्द : चाय जनगोष्ठी, आव्रजन, लोकगीत, झुमुर, सांस्कृतिक समन्वय।
मूल लेख :
मानव जीवन में सुख-दुःख, चिंता-द्वेष
आदि भाव धूप-छांह की भूमिका अदा करते हैं। दुःख, चिंता, द्वेष आदि जीवन में चिलचिलाती
धूप सी प्रतीत होती है। तो इसके विपरीत सुख, स्नेह, हर्षादि शीतल छाया की भांति मन
को तृप्ति की अनुभूति कराते हैं। जीवन में इनका आना-जाना एक सतत प्रक्रिया है।
परन्तु इन भावों की अधिकता होने पर मानव-मन अभिव्यक्ति की अपेक्षा रखता है। जिसके
प्रतिफलन में दुःखी अथवा चिंतित होने पर अवसादग्रस्त मानव चीत्कारता, क्रंदन करता
है तो वहीं सुख की अधिकता ठहाकेदार हँसी में झलकती है। इससे इतर सुख-दुःख की चरम
अभिव्यक्ति का माध्यम संगीत भी है। गीत-संगीत के माध्यम से अक्सर लोग अपनी भावनाओं
को व्यक्त करते हैं और यह मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण माध्यम भी है। ऐसे गीतों के भाव
किसी एक मनुष्य विशेष तक सीमित न रहकर समस्त समष्टि तक व्याप्त हो जाते हैं।
प्राचीन समय से आम जनमानस द्वारा रचित गीत पीढ़ी दर पीढ़ी संवाहिका की भूमिका निभाते
हैं। वास्तव में इन गीतों को ही लोकगीत की संज्ञा दी जाती है। इन गीतों के रचयिता
अज्ञात हैं। मूलतः ये गीत कालावधि से थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ किसी भी मानव समुदाय
की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थितियों और गतिविधियों को बखूबी उजागर करते हैं।
लोक साहित्य की सबसे प्रचलितविधा लोकगीतों में अत्यंत सरलता से किसी भी समाज की
छवि प्रखर रूप में प्रस्तुत होती है। अतएव, लोकगीतों के माध्यम से किसी भी जाति अथवा जनजातीय समूह की
परंपरागत रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार, जीवन शैली, हर्ष-विषाद, वेदना, कुंठा आदि सभी
का सहज बोध होता है।
ऐसा ही एक विशिष्ट जनसमुदाय है: असम
की चाय जनगोष्ठी। चाय जनगोष्ठी मूलतः ऐसे श्रमिकों का समाज है जो असम के चाय
बागानों और उद्योगों में पीढ़ी दर पीढ़ी जीविकोपार्जन करते आये हैं।सर्वविदित है कि पूर्वोत्तर
स्थित असम राज्य चाय-उत्पादन और उसके निर्यात में अग्रगण्य है। चाय की हरियाली से इस
राज्य के विशिष्ट वातावरण, हरित संस्कृति की सजह अनुभूति होती है। परन्तु इस राज्य
की आर्थिक समृद्धि यानी चाय उत्पादन के पीछे कमरतोड़ परिश्रम करने वाले श्रमिकों का
जीवन अत्यंत व्यथित है। यह तकरीबन 1837 ई० के आस-पास की बात है जब असम में पहली
बार चाय उद्योगों की स्थापना और चाय-निर्यात की योजना बनायी गयी थी। चाय बागानों
में श्रम कराने के उद्देश्य से भारत के अलग-अलग राज्यों से श्रमिकों को लाया जाने
लगा। वर्तमान में ये भिन्न भाषा-भाषी, भिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आये श्रमिक
जन ही चाय जनगोष्ठी के रूप में असम में अपनी पहचान दर्ज किये हुए हैं। डॉ० शुकदेव
अधिकारी के शब्दों में “चाह श्रमिकसकलर पितृभूमि पूर्बर बासस्थान जतेइ नहउक, असमत
एउलुक ‘चाह जनगोष्ठी’ आरु हेई बूलियेइ तेउंलुके निजके परिचय दि भाल पाय।”[1]
अर्थात् चाय श्रमिकों की पितृभूमि अथवा पूर्व वासस्थान चाहे कहीं भी हो, असम में
इन्हें ‘चाय जनगोष्ठी’ कहकर संबोधित किया जाता हैं। ये श्रमिक जन स्वयं भी अपना
परिचय चाय जनगोष्ठी के रूप में देकर आनंदित होते हैं।
चाय जनगोष्ठी लगभग सौ से भी अधिक जातियों और जनजातियों का
समन्वित समाज है। जातिगत स्तर पर अपार समन्वय के फलस्वरूप इनकी संस्कृति अत्यंत
समृद्ध और विशिष्ट है। इनके समाज में प्रचलित विभिन्न संस्कार तथा समय-समय पर
मनाये जाने वाले उत्सव आदि के नाना गतिविधियों में लोकगीत गाने तथा ढोल, मादल, नागरा,
ताल, खुल इत्यादि वाद्ययंत्रों के ताल पर झुमुर नृत्य करने की बड़ी पुरानी परंपरा
है। इन लोकगीतों के माध्यम से चाय श्रमिक समाज की एकदम सटीक प्रतिच्छवि उभरकर
सामने आती है। चाय जनगोष्ठी के लोगों की सामान्य जीवन शैली, उनकी व्यथा-कथा, इनके
साथ हुए छल-छद्म, अपने परिजनों तथा अपनी माटी से बिछड़ने की पीड़ा इन लोकगीतों की
अंतर्वस्तु हैं।
चाय जनगोष्ठी में प्रचलित लोकगीतों में भी विशेषकर झुमुर
गीतों में विभिन्न प्रान्तों से आव्रजित श्रमिकों के आगमन की वास्तविक
परिस्थितियों की थाह मिलती है। दरअसल, चाय की बढ़ती मांग की आपूर्ति के लिए ब्रिटिश
शासन व्यवस्था ने भारत के अलग-अलग प्रान्तों से कॉन्ट्रैक्ट के तहत वहाँ की गरीब
अवाम को झूठे वायदे कर असम आगमन की रजामंदी ले ली। इन श्रमिकों में से कुछ को
बहला-फुसला कर तो कुछ को जबरन रेलगाड़ियों में ठूँसकर लाया गया। इससे दरिद्र, लाचार
और निश्छल स्वभाव के इन चाय श्रमिकों को बेहतर जीवन-यापन की मात्र एक नयी आशा मिली।
इस संदर्भ में प्रचलित लोकगीत की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:
“चल मिनि आसाम जाब, देशे बड़ि दुःखरे, आसाम देशे रे मिनि
हारियाली चाह बागाने, पाताये पाताये टाकारे”[2]
गीत की पंक्तियों का तात्पर्य यह
है कि ब्रिटिशों द्वारा भेजे गये प्रतिनिधियों ने इन श्रमिकों के समक्ष असम राज्य की
एक ऐसी छद्म छवि प्रस्तुत की कि ये दरिद्र श्रमिक जन अपने सभी दुःख-तकलीफों आदि से
निजात पाने की प्रत्याशा में असम राज्य को चल पड़े। इन पंक्तियों में श्रमिक अपनी
पत्नी अथवा प्रेयसी को ‘मिनि’ कहकर संबोधित करते हुए यह कहता है कि हमें असम जाना
चाहिए। असम के हरे-भरे चाय बागानों की पत्तियों में पैसे लगे हुए हैं। इस प्रकार
सोना, चाँदी, रूपये-पैसे बटोरने की उम्मीद में तत्कालीन बिहार, उत्तर प्रदेश,
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल आदि अंचलों से अलग-अलग
समुदाय के लोग असम भूमि को आ पहुँचे।
वो कहते हैं न कि कथनी में और वास्तविक स्थिति में बहुत
अंतर होता है। बिल्कुल यही स्थिति चाय श्रमिकों की हुई जब असम आकर ये वास्तविकता से
रूबरू हुए। असम आने के बाद इनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाने लगा। दिन-रात के
कठोर परिश्रम, प्रताड़ना, मार-पीट से ऊबे हुए इन चाय मजदूर को अपनी जन्मभूमि को लौट
पाना भी मुमकिन नहीं रहा। तमाम असहनीय वेदना-वंचना को नियति मानकर ये जन असम में
ही सदा के लिए बस गये। इस तरह असम में चाय श्रमिकों की पाँचवीं-छठी पीढ़ी आज भी चाय
बागानों में श्रमरत हैं। चाय जनगोष्ठी में प्रचलित लोकगीत की निम्न पंक्तियों के
माध्यम से इनके साथ हुए अमानवीय व्यवहार तथा कुंठा का सहज बोध होता है:
“सरदार बले काम-काम, बाबू बले धरे आन
हे बिदेशी श्याम, फाँकि दिये आनाइलि आसाम
x x x
तबूये, हाजरा नाहय, छुटिर परे घरे जाय,
घरे किछु खाइते नाई, पाँचि निये दौरिणी गुदाम
हे निष्ठुर श्याम, फाँकि दिये आनाइलि आसाम”[3]
लोकगीत की ये पंक्तियाँ चाय
श्रमिकों के साथ हुए छल-छद्म के साक्ष्य ही कहे जाएंगे। असम के चाय बागानों में
नाम मात्र के श्रम के ऐवज में सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण जीवन की उम्मीद से आये इन
श्रमिकों को असम आकर सुकून का एक क्षण नसीब नहीं हुआ। दिन-रात बागान-सरदार के
आदेशानुसार श्रमरत रहना पड़ता था। तनिक भी सुस्ताने पर बाबू साहब के आदेश पर इन चाय
श्रमिकों की चमड़ी उधेड़ दी जाती थी। अतः कुंठित होकर ये श्रमिक जन लोकगीतों के
माध्यम से अपनी मनःस्थिति को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि विदेशियों द्वारा इन्हें
छल-कपट के सहारे असम लाकर बंधुवा मजदूर की भाँति श्रम कराया गया। इससे भी बड़ी
विडंबना तो यह है कि अथक परिश्रम के बदले चाय श्रमिकों को सुकून से दो जून की रोटी
तक नसीब नहीं होती थी। कई बार तो इनके घरों में अन्न का एक दाना नहीं रहता। ऐसी
स्थिति में बागानों के खाद्य गोदाम से भी कोई सहायता नहीं मिलती।
चाय बागानों में श्रमरत मजदूरों को अधिकतर समय अपना पेट
भरने के लिए नमक और माड़-भात पर आश्रित रहना पड़ता हैं। “माड़ भाते दिब लवण/ भरे पेट
बुझबि तखन”[4]यही
कारण है कि इनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। मूल तथाकथित समाज से अलग-थलग
बसाये गये ‘लेबर-लाइन्स’ अथवा ‘कुली लाइन्स’ कहे जाने वाले इन चाय श्रमिकों की
बस्ती झुग्गी-झोपड़ियों से बसी होती है; जहाँ सड़क, पेय जल, बिजली आदि न्यूनतम
मूलभूत सुविधाओं ने दस्तक न दी हो। जनप्रसिद्ध असमिया साहित्यकार हेम बरुआ जी कहते
हैं “बागिसार चारिसीमार भितरत बनुवार बाहिरे आन मानुहर प्रवेश निषेध, किजानि भावर
बीज परिले निमात बिलाक सजाग होई उठे।”[5]अर्थात्
बागानों के चौहदी में चाय श्रमिकों के अलावा अन्य लोगों का प्रवेश निषेध होता हैं।
इसके पीछे की कूटनीति यह है कि अन्य लोगों से संपर्क में आकर शोषण की मार झेल रहे
गूँगे श्रमिक सजग होकर ब्रिटिश शासन का विरोध करने लगेंगे। भिन्न प्रदेश से अलग-अलग
जाति के लोगों को लाने के पीछे यही मूल कारण था कि भाषायी और सांस्कृतिक विषमता के
कारण चाय बागानों के श्रमिकों का एकजूट होना असंभव होगा। कुल मिलाकर शोषण और
अत्याचार के विरोध के बीजांकुरण को रोकने हेतु इन श्रमिकों को बाहरी समाज से पृथक
और सीमित कर दिया गया। यही स्थिति आज भी है। इसीलिए असम में आज भी लेबर लाइन्स हैं
जहाँ केवल चाय श्रमिक ही वास करते हैं।
चाय जनगोष्ठी के लोकगीतों में ‘भांगा-फूटा घर’ (टूटे-फूटे
घर) का उल्लेख मिलता है। कीचड़ में खेलते चाय श्रमिकों के बच्चे अक्सर दिख जाते हैं।
होश संभालने भर से इन बच्चों से भी बागानों में काम कराया जाता हैं ताकि घर में
दो-चार पैसे की आमदनी बढ़े। इसीलिए कहा जाता है कि दुनिया के सबसे सस्ते श्रमिक चाय
बागानों में आज भी हैं। दिन-रात बागानों और उद्योगों में काम करने के बावजूद जीवन-यापन
हेतु इतनी दूभर स्थिति का सामना करना किसी भी व्यक्ति के मन को झकझोर देने वाला
होता है। चिलचिलाती धूप में निरंतर पसीने बहाते इन चाय मजदूरों को एक वक्त का भोजन
जुटाने के बाद आगे के लिए सोचना पड़ता है। ऐसे में किसी सगे-संबंधी का आगमन जैसे
घाव पर नमक का काम करता है। इतनी सोचनीय स्थिति में माड़-भात की काफी प्रासंगिकता
बढ़ जाती है। मेहमान और मेजबान दोनों का मान इसी पर आश्रित हो जाता है। इस संदर्भ
में चाय जनगोष्ठी में प्रचलित लोकगीत की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:
“मुलुके नाहि मिले काम
केइछि राखिब प्राण
सानजे खाइले बिहाने हय टान
परेर घरेर पर खाटाली
सकाल हलेई जाय बागाली
खाटे खाटे पिठे झरे घाम
आईर ऊपर दिगेर कुटुम आल
खाउवा-दाउवा सेरेगेलि
माड़-भात राखलि मान
लहु झराई कान्दिसे बेहराइन।”[6]
चाय श्रमिकों का जीवन अत्यंत
व्यथित और संघर्षशील हैं। इन श्रमिकों में भी महिलाओं की स्थिति तो और भी कष्टप्रद
हैं। अत्यंत कम उम्र में लड़कियों का विवाह हो जाता है। कुछ विवाहिता युवतियों के
कम आयु में गर्भवती होने के कारण मृत्यु हो जाती हैं। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:
“दुःख भोर जीबन रहिते ना पारे मन
सोचे छिली ग’ पढ़े-लिखे गढ़िबो जीबन
ना होइलो सपना मोर दि तोके पूरन
कम बोयोसे शादी दिलो, जीबन हामार भंगे गेलो”[7]
लयबद्ध पंक्तियों से आशय है कि
चाय श्रमिक समाज की युवतियाँ अपनी घर की आर्थिक स्थिति में सहयोग देने हेतु चाय
बागानों में शर्ताधीन होकर पत्ती तोड़ने का काम करती है। छोटी-छोटी जरूरतों की
पूर्ती हेतु इन्हें अपने सपनों को त्यागना पड़ता हैं। अन्य लड़कियों की तरह चाय
जनगोष्ठी की लड़कियाँ भी पढ़-लिख कर अपने जीवन को गढ़ना चाहती हैं। विडंबना तो यह है
कि पहले घर की जरूरतें इन्हें बढ़ने नहीं देती; और कुछ ही समय बाद लगभग किशोरावस्था
में ही इनका विवाह संपन्न कर दिया जाता हैं। इस तरह विवाह के पश्चात् कुछ अल्पायु
में ही काल की चपेट में आ जाती है तो कुछ पुनः ससुराल जाकर वहाँ की पारिवारिक
जिम्मेदारियों और जरूरतों में पिसने लगती हैं।
विवाह के पूर्व चाय बागानों में काम करती ये लड़कियाँ एक
ख्वाब लिए होती हैं कि किसी अच्छे और समृद्ध परिवार में इनका लग्न होगा। जिससे
इनका जीवन कुछ हद तक खुशहाल हो पाएगा। परंतु परिस्थिति इसके विपरीत होती है। विवाह
के बाद भी इनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं होता। इनकी सारी आशाएँ व आकांक्षाएँ धरी
की धरी रह जाती हैं। यहाँ तक कि इनके मायके से भी कोई खोज खबर नहीं ली जाती। नवविवाहिता
महिलाएँ पर्व त्योहारों में खासकर ‘करम पूजा’ (चाय जनगोष्ठी की सबसे प्रमुख और
लोकप्रिय उत्सव) में अपने मायके जाने की आस लिए होती हैं। प्रत्येक दिन के हर पहर
में अपने भाई की बात जोहती है कि उनका भाई ससुराल से विदा कर मायके ले जाएगा। जब
इनकी ये उम्मीद टूट जाती है तो व्यथित और कुंठित मन से पीहर न जा सकने की पीड़ाको
लयबद्ध करते हुए कहती हैं:
“कांशी फूल फुटि गेल
आशा मर टूटी गेल
दिने पहर देखलि डहर
भाया हामर नाहि आलइ घर।”[8]
दुःख-दर्द, दरिद्रता, कष्टप्रद
जीवन, वंचना, कुंठा आदि से जूझते चाय श्रमिक मन की क्षणिक आनंदानुभूति तथा कठोर
परिश्रम की थकान को मिटाने के लिए गीत-संगीत और घरेलु शराब (हाड़िया/चुलाई) का
सहारा लेते हैं। इसीलिए चाय श्रमिकों के समाज में नशीले पदार्थों का सेवन सामान्य दिनचर्या
का एक अहम हिस्सा बन चुका है।
“एक टिपा मदेर निशा
हाराइल हामार प्राणेर दशा”[9]
(तात्पर्य यह है कि
इनके मन की व्यथा, कुंठा और तन की थकान को मिटाने का एकमात्र जरिया ‘मदेर निशा’
यानी शराब का नशा है)
चाय बागानों में कार्यरत श्रमिकों
के जीवन में अनवरत चल रहे शारीरिक, मानसिक, आर्थिक शोषण और छल-छद्म से आहत होकर
इनके मन में कई बार जीवन के प्रति घोर निराशा व हताशा का संचार होता है। कुछ
श्रमिक तो इन व्यथा, वंचनाओं से छुटकारा पाने के निमित्त जीवन की समाप्ति को ही
बेहतर विकल्प मानते हैं। इनके समाज में प्रचलित लोकगीतों में कई जगह इस बात का
उल्लेख मिलता हैं। अपनी मूल भूमि को छोड़ असम आने के पश्चात् इनके साथ हुए घोर छल
से भी अधिक आहत करता है इनका गुलाम बन कर यहाँ रह जाना। इन स्वाभिमानी श्रमिकों का
मानना है कि गुलाम बनकर जीवन जीने से अच्छा है आत्महत्या कर लेना। चाय श्रमिकजन
ढोल, मादल की ताल पर इस भाव को कुछ यूँ अभिव्यक्त करते हैं:
“देश गेल जमीन गेल
ताउ हामरा भाबी ना
मानुष जे गुलाम हइलि मनस्तापे मरि ग’ ।”[10]
इसी संदर्भ से संबंधित कुछ और
पंक्तियाँ इस प्रकार उद्धृत हैं:
“मने उठे मनस्ताप
दिब नेकी जले झाँप
झाँप दिले डुबिया मरिब आर कि संसारे देखा ह’बे।”[11]
उपर्युक्त पंक्तियों से आशय यह है कि जीवन की निराशाजनक
परिस्थितियों से अकुताए चाय श्रमिकों के मन में बार-बार पानी में कूद कर ‘मनस्ताप’
अर्थात् आत्महत्या करने का विचार आता है। इस जीवन में ये श्रमिक जन इससे अधिक विषम
परिस्थिति नहीं देख सकते। इनके मन में जीवन के प्रति आसक्ति ही समाप्त हो चुकी है।
अतः पानी में डूब कर अपनी जान दे देना ही इन श्रमिकों को अधिक श्रेयस्कर लगता है।
अपनी जन्मभूमि छूटने का दर्द वैसे ही मन को अन्दर तक आहत
करता है। इसके बाद आव्रजित स्थान पर मिली घोर यातना, वंचना, पीड़ा, कुंठा, वेदना
आदि तो ‘करेला के ऊपर नीम चढ़ा’ वाली स्थिति है। बहरहाल, भारत के नाना प्रदेशों के
निवासी कोल, भील, मुंडा, ग्वाला, कुर्मी, उराँव, संथाल, गोंड, असुर, भूमिज, काँवर,
बराइक, बाउरी आदि लगभग सौ से भी अधिक जाति व जनजातियों का समन्वित समूह ही चाय
जनगोष्ठी हैं। इन्हें असम राज्य के चाय बागानों में काम कराने के उद्देश्य से झूठे
प्रलोभन देकर लाया गया। ये चाय श्रमिक अपनी भूमि की यादें और अपनी संस्कृति को
विरासत के रूप में लेकर असम आ पहुँचे। यही कारण है कि सांस्कृतिक दृष्टि से सजग और
समृद्ध चाय मजदूरों के समाज में प्रचलित लोकगीतों में अपनी माटी से बिछड़ने का दर्द
और असम आने के बाद मिली यातना तथा वंचना को बेहद साफगोई से अभिव्यक्ति मिली है।
जहाँ एक ओर असम आगमन के पूर्व के गीतों में इनके मूल स्थान की जीवन-शैली,
दरिद्रता, बेरोजगारी का उल्लेख है; वहीँ दूसरी ओर कुछ ऐसे भी गीत हैं जो असम की
पृष्ठभूमि को लेकर रचे गए। इन गीतों में सामाजिक, शारीरिक, आर्थिक शोषण और असम
भूमि के प्रति प्रेम भाव तथा असमिया संस्कृति के साथ सामंजस्य का संकेत मिलता है।
अंततः दुःख को जीवन का परम सत्य और नियति मानकर असम भूमि को निज जन्मभूमि और कर्मभूमि स्वरूप स्वीकार कर ये चाय श्रमिक असम राज्य के प्रति आजीवन समर्पित हैं। चाय जनगोष्ठी के नामचीन लेखक मेघराज कर्मकार अपने स्वरचित गीत के माध्यम से समस्त चाय श्रमिक समाज की असम के प्रति आत्मीयता को शब्द देते हुए कहते हैं, “आसाम हामनिके लागे, हामनी लागी आसामके”[12] अर्थात् असम हमारा है और हम सभी असम के हैं। समस्त चाय जनगोष्ठी अपने को असम की निज संतति कहते हुए असम को जन्मभूमि के रूप में आत्मसात करते हैं। “आसाम हामार जन्मभूमि/ हामनीकेर आसाम”[13](असम हमारी जन्मभूमि है, हमारा असम) इस प्रकार एक वृहत्तर असमिया समाज और संस्कृति के संवहन में असम की अन्य जाति और जनजातीय समुदाय की भाँति चाय जनगोष्ठी का भी अहम योगदान है।
संदर्भ :
[1]शुकदेव अधिकारी : चाह
जनगोष्ठीर लोकगीत लोक परंपरा आरु उत्सवर रूपरेखा,सरस्वती डी. एन. प्रकाशन,
गुवाहाटी, असम, 2015, पृष्ठ 27
[2]डिम्बेश्वर तासा : चाह
जनगोष्ठीर समाज- संस्कृति, असम प्रकाशन परिषद, गुवाहाटी, असम, 2012, पृष्ठ 47
[3]वही
[4]गणेश चंद्रकुर्मि : देउराम
तासा रचनावली, असम साहित्य सभा, जोरहाट, असम, 2013, पृष्ठ 608
[5]नकुल कुर्मी : असमर
प्रेक्षापटत चाह जनगोष्ठीर जीवन गाथा, असम चाह जनगोष्ठी साहित्य सभा, असम,
2019, पृष्ठ 12
[6]गणेश चंद्रकुर्मि : देउराम
तासा रचनावली, असम साहित्य सभा, जोरहाट, असम, 2013, पृष्ठ 608
[7]https://youtu.be/74FBiSHhGF4
(दिनांक- 12.09.2021,
समय- प्रातः 8:40)
[8]डिम्बेश्वर तासा : चाह
जनगोष्ठीर समाज- संस्कृति, असम प्रकाशन परिषद, गुवाहाटी, असम, 2012, पृष्ठ 49
[9]शुकदेव अधिकारी : चाह
जनगोष्ठीर लोकगीत लोक परंपरा आरु उत्सवर रूपरेखा,सरस्वती डी. एन. प्रकाशन,
गुवाहाटी, असम, 2015, पृष्ठ 44
[10]डिम्बेश्वर तासा : चाह जनगोष्ठीर
समाज- संस्कृति, असम प्रकाशन परिषद, गुवाहाटी, असम, 2012, पृष्ठ 48
[11]सुशील कुर्मी : नारायण
घाटोवार रचनावली, असम प्रकाशन परिषद, गुवाहाटी, असम, 2020, पृष्ठ 08
[12]सुशील कुर्मी : मेघराज
कर्मकार रचनावली, असम प्रकाशन परिषद, गुवाहाटी, असम, 2018, पृष्ठ भूमिका
[13]डिम्बेश्वर तासा : चाह जनगोष्ठीर समाज- संस्कृति, असम प्रकाशन परिषद, गुवाहाटी, असम, 2012, पृष्ठ 80
प्रियंका दास, शोधार्थी, हिंदी विभाग, तेजपुर
विश्वविद्यालय, तेजपुर, असम
pdas80362@gmail.com, 8876745197/6001590551
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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