शोध आलेख : विभाजन का संदर्भ और कृष्णा सोबती का कथा साहित्य / डॉ. तरुण

                                                                                शोध आलेख

                        विभाजन का संदर्भ और कृष्णा सोबती का कथा साहित्य (विशेष संदर्भ: सिक्का बदल गया)

                                                                                 डॉ. तरुण


शोध सार :

प्रस्तुत आलेख विभाजन के संदर्भ को आधार बनाकर हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में लिखी कहानियों का विश्लेषण करने का प्रयास करता है और इन्हीं संदर्भों में कृष्णा सोबती की कहानियों से गुज़रते हुए इस संदर्भ पर लिखी कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। ध्यातव्य हो कि सिक्का बदल गया नामक कहानी कृष्णा सोबती द्वारा लिखित बादलों के घेरे कहानी संग्रह में संकलित है। यह कहानी 1948 के आसपास लिखी गयी। सर्वप्रथम इस कहानी को अज्ञेय ने अपनी पत्रिका प्रतीक में प्रकाशित किया। इस कहानी में पाकिस्तान की पृष्ठभूमि में फँसे एक समृद्ध गैर मुस्लिम परिवार और उसकी मानसिकता को दिखाया गया है। इस लेख में विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखी कहानियों में विभाजन के संदर्भ को प्रस्तुत करते हुए यह स्थापना दी गयी है कि चाहे एक ही संदर्भ पर लिखी इन कहानियों की भाषा और पृष्ठभूमि बेशक अलग रही हो पर इनकी भावभूमि एक ही है। इनका लक्ष्य मानवता की त्रासदी को दिखाना रहा है। खासकर कृष्णा सोबती की कहानी सिर्फ विभाजन के दर्द को बयां करती कहानी बिल्कुल नहीं है बल्कि यह शाहनी के माध्यम से उस मानवीयता को बयान करने का प्रयास करती कहानी भी है जो विभाजन के दंश के बीच नफरत और उन्माद के साये में पलकर भी अपनी मानवता को खत्म नहीं होने देती।

बीज शब्द : स्वतंत्रता, विभाजन, कृष्णा सोबती, कहानी, सिक्का बदल गया, सांप्रदायिकता, आज़ादी, हिंदुस्तान, मानवीयता।

मूल आलेख :

भारत-पाक विभाजन भारत की ही नहीं अपितु विश्व इतिहास की त्रासदियों में से एक है। यह एक राजनीतिक ध्वंस से अधिक एक मानसिक ध्वंस के रूप में हिंदी कथा साहित्य में उभरा है और केवल हिंदी साहित्य में ही क्यों बल्कि भारतीय भाषाओं खासकर पंजाबी, उर्दू, सिंधी आदि भाषाओं के लेखकों ने भी इस विध्वंस को अपने साहित्य में जगह दी है।[1] उर्दू में सआदत हसन मंटो और राजेंद्र सिंह बेदी ने क्रमशः खोल दो, टोबाटेक सिंह और लाजवंती, पंजाबी में कुलवंत सिंह विर्ककी घास और लोचन बख्शी की धूल तेरे चरणों की, सिंधी भाषा में मोतीलाल जोतवाणी, गुलजार अहमद और शेख़ अयाज ने क्रमशः धरती से नाता, यादें, और पड़ोसी जैसी कहानियाँ लिखीं।[2]

हिंदी लेखकों ने विभाजन में टूटते नैतिक मूल्यों और मानवीय संवेदना के धरातल पर अपनी कहानियाँ लिखीं यहाँ विभाजन के दर्द का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक लेखक विभाजन पर कई कहानियाँ लिख कर भी अपने मन की बेचैनी को कम न कर सका। उसकी बेचैनी इतनी बढ़ी कि उसने अपने दर्द को बयां करने के लिये और कहानियाँ लिखीं और जब ये दर्द हद से बढ़ गया तो उसने उपन्यास का सहारा लिया। स्वयं कृष्णा सोबती ने सिर्फ विभाजन के संदर्भ को सिक्का बदल गयामें ही नहीं बल्कि अपनी अन्य कहानियों डरो मत मैं तुम्हारी रक्षा करूँगाऔर मेरी माँ कहाँमें भी अभिव्यक्ति दी है।

कृष्णा सोबती के अलावा अज्ञेय (रमंते तत्र देवता, शरणदाता, मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई, बदला), पांडेय बेचन शर्मा उग्र’ (चौड़ा छुरा, खुदाराम, खुदा के सामने, दोजख़ की आग, मलंग, शाप आदि), विष्णु प्रभाकर (मुरब्बी, शमशू मिस्त्री, ताँगेवाला, वह रास्ता, देशद्रोही, पड़ोसी, मेरा वतन आदि), उपेंद्रनाथ अश्क (चारा काटने की मशीन, टेबल लैंड), अमृतलाल नागर (आदमी जानाःअन्जाना), मोहन राकेश (मलबे का मालिक, परमात्मा का कुत्ता, क्लेम, कंबल आदि), कमलेश्वर (कितने पाकिस्तान, भटके हुए लोग, धूल उड़ जाती है), भीष्म साहनी (अमृतसर आ गया है), महीप सिंह (पानी और पुल), फणीश्वरनाथ रेणु (जलवा) आदि लेखक भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रहे।

भारत-पाक विभाजन भारत की सबसे क्रूरतम त्रासदियों में से एक है। हम कह सकते हैं कि सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की प्रतिक्रिया में अंग्रेजो ने जो क्रूर व्यवहार और ज्यादती हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ की थी उससे कम इस विभाजन के दौरान हमारे अपने भाई-बंदों ने न की होगी। स्वतंत्रता के बाद का कथा साहित्य अगर अब तक अपने से इसे मुक्त नहीं कर पाता तो इसमें उस दौरान घटी घटनाएं (दुर्घटनाएं) मुख्य किरदार निभाती हैं जिससे लेखक आज तक भी इससे प्रभावित नज़र आते हैं।

आज़ादी का उल्लास और विभाजन का दंश

स्वतंत्रता की १९वी वर्षगाँठ पर 'धर्मयुग' में गुलाबदास ब्रोकर ने लिखा, "इन अट्ठारह सालों में वह स्वप्न बिल्कुल बिखर चुका है। हमने खुद ही जाने अपने साथ कोई क्रूर मज़ाक किया था, ऐसा लगता है जब हम अपनी उस स्वप्निल कल्पनाओं के बारे में सोचने लगते है उस स्वप्न और इस यथार्थ को जब आस-पास रखकर देखते हैं तो हम कितने अंधे थे इसका होश हमें आता है। जो यथार्थ हमारे सामने है वो सचमुच ही भयावह है।[3] नए कहानीकारों के सामने स्वातंत्र्योतर यही मोहभंग और भयावहता थी जो उनकी अनुभूति भी थी जिसे कुछ लेखकों/कहानीकारों ने 'भोगा हुआ यथार्थ' कहा है। यही उनके 'अनुभव की प्रामाणिकता' भी थी। जिसके बारे में अवस्थी जी ने कहा था, "किसी भी सचेत व्यक्ति के लिए यह निरंतर अधिक प्रखरता से स्पष्ट होने वाला अनुभव है ऐसी स्थिति में अगर लेखक अपने अनुभव की प्रामाणिकता के प्रति सजग है। अपनी रचना के प्रति ईमानदार है तो उसे अप्रीतिकर के चित्रण में ही व्यस्त रहना पड़ेगा ।[4]

सन् 1947 में आज़ादी और विभाजन हिंदुस्तान (भारत-पाक) को एक साथ मिले। भारत और पाकिस्तान के शीर्ष नेतृत्व ने जो फ़ैसला किया था उसके प्रभावस्वरूप लाखों लोग मारे गये और घायल हुए, करोड़ों की संपदा खाक़ हो गयी। लाखों लोग अपनी ज़़मीन से बेदखल हो गये या कर दिये गये। हजारों महिलाओं और लड़कियों की अस्मत सरे बाजार नीलाम की गयी और सबसे ख़तरनाक यह हुआ कि सैंकड़ों सालों में हिंदू-मुस्लिम एकता और सांस्कृतिक भाईचारे की जो संस्कृति निर्मित हुई थी जिसने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में साथ-साथ कुर्बानियाँ दी थीं वह तहस-नहस हो गयी। मानवीय मूल्यों का जितना ह्रास विभाजन के दौरान हुआ उतना संभवत् अब से पहले कभी नहीं हुआ था। इसका राजनीतिक विश्लेषण यदि हिंदुस्तान की कहानी (जवाहरलाल नेहरू), आज़ादी की कहानी (मौलाना अबुल कलाम आज़ाद), भारत का विभाजन अथवा पाकिस्तान (डॉ. बी.आर. अंबेडकर), भारत गाँधी नेहरू की छाया में (गुरुदत्त), भारत विभाजन के गुनहगार (राममनोहर लोहिया) आदि पुस्तकों में मिलता है तो साहित्य के स्तर पर और मानवीय संवेदनाओं के स्तर पर हुई मूल्यगत तोड-फोड़ की जानकारी हमें भारतीय कथा-साहित्य में मिलती है। इस संदर्भ में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री का वो ऐतिहासिक भाषण ट्रीस्ट विथ द डेस्टिनी संदर्भवान है जहां पंडित नेहरू भारत की आजादी को प्रकाश और जीवन के रूप में एक कालखण्ड का संकेत करते हुए कहते हैं कि जब दुनिया सो रही होगी भारत प्रकाश और जीवन का एक नया सवेरा देखेगा।[5] पर नेहरू यहाँ एक सामयिक भूल कर गए थे जिस मध्यरात्रि में भारत को आजादी मिली उस मध्यरात्रि में पूरे यूरोप में सुबह हो रही थी। यह संकेत आजादी के उल्लास के मध्य की गयी भूलों और विभाजन के दंश की ओर भी संकेत करता है।[6] इस परिप्रेक्ष्य में स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में विभाजन का संदर्भ सिर्फ साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक और राजनैतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। यह एक ऐसा भयावह संदर्भ है जिसे बाद में नए कहानीकारों ने एक टेरर की स्थिति के रूप में व्याख्यायित किया। इसलिए नयी कहानी का संदर्भ यहाँ बिल्कुल सटीक बैठता है निर्मल वर्मा अपनी पुस्तक लेखक की आस्था में कहते हैं कि "यह 'टोटल टेरर' की स्थिति है। ऐसी स्थिति में अगर नई कहानी कुछ हो सकती है तो सिर्फ अँधेरे में एक चीख।"[7]

विभाजन की पृष्ठभूमि और सिक्का बदल गया’  

सिक्का बदल गयाउन कहानियों में शामिल है जो विभाजन की विद्रूपताओं और प्रभाव का मनोवैज्ञानिक धरातल पर मूल्याँकन करने के लिेये पाठक को आधारिक प्लॉट देती हैं। सन् 1947 में जो आज़ादी हमें मिली थी उसकी क़ीमत के रूप में हमने विभाजन को स्वीकारा था। सिक्का बदल गया का संसार इसी स्वीकार की परिणति में शाहनी की मनःस्थिति के माध्यम से पाकिस्तान में बरसों से रह रहे एक समृद्ध परिवार के उस दर्द को बयां करता है जो सत्ता परिवर्तन (विभाजन) के बाद होने वाले बदलाव के साथ-साथ बरसों से एक साथ रह रहे लोगों के मन में आए बदलाव का भी रेखांकन करता है। शाहनी की यह असमंजसता एक द्वंद्व की स्थिति को उद्घाटित करती है और यहीं कृष्णा सोबती स्वातंत्र्योत्तर कहानी को स्वतंत्रता पूर्व की कहानियों से अलगा देती हैं। संभवत इसीलिए फॉकनर ने कहानी के बारे में कहा था कि मनुष्य के ह्रदय का अपने से द्वंद्व ही एक ऐसी समस्या है जो अच्छे लेखन को निर्मित कर सकती है, क्योंकि एकमात्र वही सृजन की पीड़ा परिश्रम और लिखने के काबिल होती है।[8] और इसी संदर्भ को विकसित करते हुए देवीशंकर अवस्थी अपनी पुस्तक साहित्य विधाओं की प्रकृतिमें न केवल फॉकनर बल्कि फ्रैंक औ कोन्नोर को संकलित और उद्घाटित करते हुए उपन्यास के संबंध में भी निष्कर्ष निकालते हैं। उपन्यास की भांति कहानी भी एक आधुनिक कलारूप है अर्थात जीवन के प्रति हमारे निजी रुझान को यह कविता और नाटक की अपेक्षा अधिक अच्छे ढंग से पेश करती है।[9] और स्वातंत्र्योत्तर कहानी में उभरा यही द्वंद्व सुरेंद्र चौधरी अपनी पुस्तक हिंदी कहानी प्रक्रिया और पाठ में भी देखते हैं।[10]

सिक्का बदल गयाकहानी विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी एक मर्मस्पर्शी कहानी है जिसमे लेखिका ने कहानी की मुख्य किरदार शाहनी की मनःस्थिति के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया है कि सन् 1947 का विभाजन जिसमें हिंदुस्तान की ज़मीन के दो टुकड़े कर पाकिस्तान और भारत का निर्माण करने का दावा किया गया था वह दरअसल किसी भी तरह का निर्माण न होकर केवल निर्मिति के नाम पर विध्वंस था। उस दौर में केवल ज़मीन के ही दो टुकड़े नहीं हुए थे बल्कि दिलों के टुकड़े भी कर दिए गए थे। सिक्का बदल गयामें शाहनी का चरित्र दिलों में और मन में आए उस बदलाव के प्रभाव को दिखाते हुए संवाद करता है। कहानी में यह संवाद कहीं-कहीं दहशत में परिणत हो गया है। सिक्का बदल गयामें उस दहशत का संकेत कई जगह है, शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाई तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पांवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी। आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहाँ नहाती आ रही है। कितना लम्बा अरसा है।[11] उपरोक्त संकेत पकड़े बिना हम उस मनःस्थिति तक नहीं पहुँच सकते जहाँ शाहनी महसूस करती है कि वह एकाएक अपने ही समाज, अपने ही घर, अपने ही देश में परायी हो गयी है। विभाजन के रूप में भारत और पाकिस्तान ने सबसे बड़ी त्रासदी झेली थी जैसा कि हमने कहा विभाजन ने सिर्फ देश के ही दो टुकडे नहीं किये थे बल्कि इसने दिलों में भी दरार डाल दी थी एकाएक वे लोग जो सैंकड़ों वर्षों से अपनी संस्कृति और परंपरा को साथ-साथ निभाते आए थे एक राजनीतिक फ़रमान के मारफ़त अलग कर दिये गये थे। कृष्णा सोबती की कहानी सिक्का बदल गया दरअसल राजनीतिक सत्ता परिवर्तन या बदलाव की ओर संकेत करने की अपेक्षा मनःस्थिति में आए बदलाव की ओर संकेत करती है। कैसे शेरा, हुसैना और गाँव के लोग जिन्हें शाहनी ने पाला-पोसा था अचानक से उसे पराया कर देते हैं, शाहनी जरा चिन्तित स्वर से बोली, ''जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा नहीं। शेरे, आज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर...'' शाहनी कहते-कहते रुक गयी। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गये, पर पर आज कुछ पिघल रहा है शायद पिछली स्मृतियां...आंसुओं को रोकने के प्रयत्न में उसने हुसैना की ओर देखा और हल्के-से हँस पड़ी। और शेरा सोच ही रहा है, क्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा क्यों न हो? हमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियाँ तोला करते थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आँखों में उतर आयी। गंड़ासे की याद हो आयी। शाहनी की ओर देखा नहीं-नहीं, शेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस कत्ल कर चुका है पर वह ऐसा नीच नहीं...सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के हाथ उसकी आँखों में तैर गये। वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डाँट खाके वह हवेली में पड़ा रहता था और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए 'शेरे-शेरे, उठ, पी ले।' शेरे ने शाहनी के झुर्रियां पड़े मुंह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया। 'आखिर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गयी, वह शाहनी को ज़रूर बचाएगा। लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फिरोज की बात! सब कुछ ठीक हो जाएगा सामान बाँट लिया जाएगा!

सिक्का बदल गया कहानी विभाजन के दर्द को अपने में जज़्ब किए है और इसका उद्देश्य पाकिस्तान में लंबे समय से रह रहे एक गैर-मुस्लिम (हिंदू) परिवार के दर्द का मर्मस्पर्शी से चित्रण करने के साथ-साथ यह दिखाना है कि सत्ता (व्यवस्था) का सिक्का बदलते ही अपने साथ के लोगों का व्यवहार कैस बदल गया? सिक्का बदल गया कहानी हिंसा, कत्ल, दंगों, का चित्रण या विवरण नहीं देती जैसे की खुशवंत सिंह की ट्रेन टू पाकिस्तान या बाप्सी सिधवा की क्रैकिंग इंडिया में मिलता है बल्कि यह गर्म हवा फिल्म की भांति विभाजन के दौरान हुए मानवीय संवेदनाओं के ह्रास और नैतिक मूल्यों के पतन की ओर संकेत करते हुए हमारा ध्यान रिश्तों में आए बदलाव की ओर खींचती है।

सिक्का बदल गया कहानी का लक्ष्य कहानी की मुख्य चरित्र शाहनी के माध्यम से यह दर्शाना रहा है कि राजनीतिक सत्ता परिवर्तन ने किस प्रकार मनःस्थिति में परिवर्तन ला दिया है। कैसे सैंकड़ों सालों से रह रहीं दो भिन्न संस्कृतियाँ और धर्म के लोग जब एक हो गये और जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी धर्म, जाति, रीति-रिवाज, परंपराएँ भुलाकर आहूतियाँ दीं, संबंध कायम किये, एकता के सूत्र में बंध गए, वे एकाएक एक राजनीतिक फ़ैसले के परिणामस्वरूप सैंकड़ों सालों के रिश्ते को भुलाकर फिर से आमने सामने आ खड़े हुए। इस कहानी का लक्ष्य यह भी है कि विभाजन के दौरान राजनीतिक स्तरों पर हुई तोड़-फोड़ से अधिक तोड़-फोड़ मानसिक और नैतिक मूल्यों के स्तर पर हुई। कैसे जिस शेरा को शाहनी ने पाला पोसा था, जिन गाँव वालों के लिये शाहनी हमेशा काम आयी थी, जहाँ शाहनी ने अपनी असामियों मे बरक़त पायी थी वहाँ के लोग उनके अपने भाई-बंदे एकदम से शाहनी को पराया कर देते हैं। इस उलाहने के साथ कि शाहनी सिक्का बदल गया है अब कुछ नहीं हो सकता।   

कौन नहीं है आज वहां? सारा गांव है, जो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असामियां हैं जिन्हें उसने अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेकिन नहीं, आज उसका कोई नहीं, आज वह अकेली है! यह भीड़ की भीड़, उनमें कुल्लूवाल के जाट। वह क्या सुबह ही न समझ गयी थी?... ... बेगू पटवारी और मसीत के मुल्ला इस्माइल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के निकट आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की ओर देख नहीं पा रहा। धीरे से जरा गला साफ करते हुए कहा ''शाहनी, रब्ब नू एही मंजूर सी।

शाहनी के कदम डोल गये। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गयी। इसी दिन के लिए छोड़ गये थे शाहजी उसे? बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है क्या गुजर रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है...'इस कहानी में महत्वपूर्ण यह भी है कि कहीं न कहीं मनुष्य के भीतर एक द्वंद्व है। इस मनुष्य के दो मन हैं। एक मन कहता है कि शाह जी ने उन्हीं के भाई बंदों का गला काटकर अपनी तिजोरियाँ भरीं हैं यह मन शाहनी की हत्या तक की योजना बना लेता है एक मन है जो शाहनी को जबरन गाँव छोड़ने पर मजबूर करता है दूसरी ओर उसे कुछ रख लेने (सोना-चाँदी, रुपया-पैसा) के लिये भी कहता है। ''ट्रकें अब तक भर चुकी थी। शाहनी अपने को खींच रही थी। गाँववालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है। शेरे, खूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद खां ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवाजा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी आवाज से कहा'' शाहनी, कुछ कह जाओ। तुम्हारे मुंह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!'' और अपने साफे से आंखों का पानी पोंछ लिया। शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे गले से कहा, ''रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चा, खुशियां बक्शे...।''[12]

वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया। जरा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हम शाहनी को नहीं रख सके। शेरे ने बढ़कर शाहनी के पांव छुए, ''शाहनी कोई कुछ कर नहीं सका। राज भी पलट गया'' शाहनी ने कांपता हुआ हाथ शेरे के सिर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा ''तैनू भाग जागण चन्ना!'' (ओ चाँद तेरे भाग्य जागे) दाऊद खां ने हाथ का संकेत किया। कुछ बड़ी-बूढ़ियां शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी।''

यह मुख्य पात्र के विरोधी चरित्रों पर लेखिका का व्यंग्य उतना नहीं जितना कि इन विरोधी चरित्रों के मध्य अपनी मनोदशा को संभाल न पाने से उभरा द्वंद्व है। कहानी में यह स्वर गौण रहते हुए भी प्राथमिक है कि विभाजन ने मनुष्य के भीतर के विवेक और सकारात्मक दृष्टिकोण को समाप्तप्रायः कर नकारात्मकता का उद्वेलन भर दिया था। यह मनुष्य अपने भाई-बंदों, अपने लोगों के साथ ऐसे कुकृत्य कर रहा था जैसा करने की कल्पना भी उसने नहीं की थी। विभाजन के प्रभाव में लिखी गयी अन्य कहानियाँ खोल दो, शरणदाता, मलबे का मालिक, इस संदर्भ में उद्धृत की जा सकती हैं।

कृष्णा सोबती स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य की सर्वाधिक उल्लेखनीय लेखिका है। कृष्णा सोबती का लेखकीय व्यक्तित्व जिस परिवेश में विकसित हुआ वह परिवेश बंदिश से अधिक खुलेपन का पैरोकार था, यही कारण है कि उनका रचनात्मक विकास वस्तु के स्तर पर ही नहीं भाषा और शिल्प के स्तर पर होता रहा है। अपने और अपने समकालीनों के परिवेश और स्वभाव की जानकारी उनकी पुस्तक हम हशमत में बहुत बेहतर ढंग से दी गई है। अपने लेखन के बारे में उनका कहना है कि वो बहुत नहीं लिख पातीं क्योंकि जब तक उनके अंदर की कुलबुलाहट उनके भीतर का दबाव इतना अधिक न बढ़ जाए कि वे लिखे बिना न रह सकें, तब तक उनका लेखन संभव नहीं हो पाता।

कृष्णा सोबती का महत्व सिर्फ इस बात में नहीं की उन्होंने अपने साहित्य में अपने समकालीन संदर्भों को जगह दी बल्कि उससे अधिक इस बात में है कि उन्होंने जिस शिल्प के माध्यम से मानवीय संबंधों और संवेदनाओं का चित्रण किया वह उन्हें अपने समकालीन अन्य लेखकों से अलग पहचान दिलाता है। उनकी कहानियों के संवादों में जो संदर्भ विद्यमान रहता है कृष्णा सोबती उस संदर्भ को पाठक के सामने सीधे रूप में नहीं रखती तब भी पाठक उस पृष्ठभूमि या संदर्भ तक पहुँच जाता है। उनकी खासियत है कि इतिहास के पहलुओं पर बहुत अधिक शोध न करने के बाबजूद भी वे इतिहास के तथ्य खोजने की अपेक्षा इतिहास में कहीं किसी जगह दफ़्न मानवीय संवेदनाओं और संबंधों का समकालीन संदर्भों में चित्रण करती हैं। यह उनकी उपलब्धि समझी जानी चाहिए, सीमा नहीं कि वह अपने लेखन में इतिहास का संदर्भ लेते हुए भी साहित्य की प्राथमिकता को बनाए रखती हैं साथ ही उनका कथा साहित्य विश्लेषण करने की पूरी छूट भी पाठक को देता है।

एक स्त्री होने के बाबजूद वे यारों के यार और मित्रों मरजानी की भाषा का तेवर बहुत बोल्ड रखती हैं यह जानते हुए कि उन पर अश्लील होने के आरोप लगेंगे। इस संबंध में बी.बी.सी के एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया तो उनका कहना था कि भाषिक रचनात्मकता को हम मात्र बोल्ड के दृष्टिकोण से देखेंगे तो लेखक और भाषा दोनों के साथ अन्याय करेंगे। भाषा लेखक के बाहर और अंदर को एकसमान करती है। उसकी अंतरदृष्टि और समाज के शोर को एक लय में गूंथती है। उसका ताना-बाना मात्र शब्दकोशी भाषा के बल पर ही नहीं होता। जब लेखक अपने कथ्य के अनुरूप उसे रूपांतरित करता है तो कुछ नयाघटित होता है। मेरी हर कृति के साथ भाषा बदलती है। मैं नहीं-वह पात्र है जो रचना में अपना दबाव बनाए रहते हैं। ज़िंदगीनामा की भाषा खेतिहर समाज में उभरी है। दिलोदानिश की भाषा राजधानी के पुराने शहर से है, नई दिल्ली से नहीं। उसमें उर्दू का शहरातीपन है। ए लड़की में भाषा का मुखड़ा कुछ और ही है। उसकी गहराई की ओर संकेत कर रही हूँ। मित्रो मरजानी में मित्रों का भाषाई तेवर बिल्कुल अलग है। वह न बोल्ड है न अटपटा, उसे पढ़ते हुए वह अनोखी ज़रूर लगती है. स्वयं लेखक को अचंभित कर देने वाली। वह लेखक की नहीं उपन्यास की मित्रों की देन है। यारों के यार में जहाँ कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, जिन्हें कुछ लोग बोल्ड और कुछ लोग अश्लील कहते हैं। वह कहानी दफ्तर के रोजमर्रा के कार्य-कलापों और काम करने वालों के वाचन के इर्द-गिर्द घूमती है। फाइलों की एकरसता से उबरने के लिए कुछ मर्दानी गालियाँ कमजोरों के आक्रोश को ही प्रकट करती हैं। वह शायद समाज में इसीलिए इजाद भी की गई होंगी।[13] कृष्णा सोबती के लिए श्लील-अश्लील का मुद्दा उतना बड़ा नहीं है जितना की अपने समय के दबाव के प्रति वे सजग रहती हैं। हम हशमत (भाग-२) पुस्तक में जब वे आत्म साक्षात्कार करती हैं, तब वे अपने लेखन के बंध खोलती चलती हैं।

बादलों के घेरे[14] का निर्माण कैसे हुआ, भीम ताल और नौकुचिया ताल के बीच कैसे बादलों के घेरेकी मन्नो के चरित्र ने जन्म लिया। कैसे यारों के यार उपन्यास पूरा लिख जाने के बाद भी उसके शीर्षक के लिये उन्होंने जद्दोजहद की, मित्रो का चरित्र कहाँ मिला, ‘डार से बिछुड़ीमें कैसे उनका अनुभव उपजीव्य बना। इस सबकी दास्तान स्वयं कृष्णा सोबती अपने शब्दों में बयां करती हैं। हिंदी साहित्य में कृष्णा सोबती का महत्त्व इसलिये भी है कि स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में वे अकेली अपने समकालीन कहानीकारों और उनकी बहुत सारी कहानियों के समक्ष अपनी सीमित किंतु महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लाती रहीं। उन्हें बहुत लिखने का शौक नहीं था। अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में वे साहित्य में उतनी सक्रिय न भी रही हों लेकिन उनका साहित्य और इसकी संवेदना इस बात का प्रमाण है कि उनकी रचनाओं को साहित्य और पाठक समाज आज भी हाथों-हाथ लेता है। आज भी प्रकाशक उनकी रचनाएँ छापने के लिये और पाठक पढ़ने के लिये लालायित रहते हैं।    


[3] धर्मयुग, (सं) भारती, धर्मवीर 19 जनवरी 1964 पृ. 19

[4] देवीशंकर अवस्थी: संकलित निबंध(सं.) सिंह, मुरली मनोहर प्रसाद;  नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; प्रथम संस्करण 2006 ; पृ. 63

[5] “At the stroke of the midnight hour, when the world sleeps, India will awake to light and freedom.” – J.L Nehru

JAWAHARLAL NEHRU’S Speeches VOLUME 1 Publication Division, New Delhi, First Published 1953

[6] chrome://newtabhttp//en.wikipedia.org/wiki/Hazaaron_Khwaishein_Aisi

  देखें हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी’ - निर्देशक मिश्रा, सुधीर 2005 में प्रदर्शित फीचर फिल्म की आरंभिक पंक्तियाँ

[7] वर्मा, निर्मल; (सं.)आचार्य, नंदकिशोर; ‘लेखक की आस्थावाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर संस्करण 2005 पृ. 150

[8] अवस्थी, देवीशंकर रचना और आलोचनावाणी प्रकाशन दिल्ली संस्करण 1995 पृ. 134

[9] अवस्थी, देवीशंकर (सं) साहित्य विधाओं की प्रकृति राजकमल प्रकाशन दिल्ली पुनर्मुद्रित 2008 पृ. 114

[10] चौधरी, सुरेंद्र हिंदी कहानी प्रक्रिया और पाठ, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण 1998 पृ. 52

[11] कहानी के सभी उद्धरण इसी संग्रह से, सोबती, कृष्णा बादलों के घेरे(कथा संग्रह) राजकमल प्रकाशन, दिल्ली संस्करण 2006

[12] कहानी के सभी उद्धरण इसी संग्रह से, सोबती, कृष्णा बादलों के घेरे(कथा संग्रह) राजकमल प्रकाशन, दिल्ली संस्करण 2008

[14] सोबती, कृष्णा बादलों के घेरे(कथा संग्रह) राजकमल प्रकाशन, दिल्ली संस्करण 2008 

 

डॉ. तरुण, असिस्टेंट प्रोफेसर, शिवाजी महाविद्यालय, (दिल्ली विश्वविद्यालय)

dr.tarundu@gmail.com, 08700318608

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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