शोध आलेख : हिंदी उपन्यासों में चित्रित किसानों की सामाजिक समस्या / सुभ्रांशिष बारिक
शोध सार :
ग्रामीण जन-जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति के क्रम में किसान और उसकी समस्यायों को लेकर कई हिंदी उपन्यास लिखे गए हैं। देश को समृद्ध और विकासशील बनाने में अन्न के उत्पादनकर्त्ता की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन वह स्वयं को प्राकृतिक आपदाओं के साथ ही साथ कर्ज, खाद, बीज, अशिक्षा, रोजगार के दूसरे साधन की तलाश, दहेज, नैतिकता, झूठी मान-मर्यादा वाली जाति प्रथा, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज़ को ढोनेवाली जर्जर रूढ़िवादी परंपरा आदि के चक्रव्यूह में फँसा हुआ पाता है। यह बात प्रेमचंद के उपन्यास ‘निर्मला’ से लेकर बेदखल, धरती धन न अपना, हलफनाम, फांस आदि उपन्यासों में देखने को मिलती है। श्रम के मूल्य की सरकारी अनदेखी के बीच किसान एक पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की पीड़ा को भी नजरंदाज कर देता है। आज भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण पनपे सत्ता और पूँजी के गठजोड़ ने किसानों को तिल-तिल मरने के लिए मजबूर कर दिया है। किसान विस्थापित होकर अनेक तरह के तनावों के दलदल में फँसकर आत्महत्या को मजबूर हो जाता है। ऐसे परिदृश्य में किसान की समस्याओं को उपन्यास में ज्यादा प्रमुखता देना समय की माँग है ।
बीज शब्द – उपन्यास, प्राकृतिक आपदा, दहेज, नैतिकता, जाति प्रथा, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज़, रूढ़िवादी परंपरा, श्रम का मूल्य, पितृसत्तात्मक समाज, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति, विस्थापन, आत्महत्या ।
मूल आलेख : ग्रामीण जीवन पर लेखन की परंपरा बहुत पुरानी है। जब से उपन्यास विधा वयस्क हुई तब से ग्रामीण जन-जीवन उपन्यास के केंद्र में रहा है। यदि प्रेमचंद के कथा साहित्य पर विचार करें तो हम आसानी से देख सकते हैं कि किसान, दलित, स्त्रियाँ और मजदूर उनके लेखन के केंद्र में रहे हैं। प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह, नागार्जुन, रामदरश मिश्र और विवेकी राय जैसे रचनाकारों ने अपने उपन्यासों में ग्रामीण जन-जीवन को अभिव्यक्त करके प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाया है। परंतु समकालीन उपन्यास लेखन में ग्रामीण जन-जीवन कम अभिव्यक्त हो रहा है और जो हो रहा है, उसमें प्रेमचंद एवं रेणु के लेखन वाली जीवंतता और अनुभव का ताप दिखाई नहीं देता।
फिर भी किसान जीवन से जुड़ी रचनाओं का स्रोत पूरी तरह सूखा नहीं है। अभी भी किसान जीवन से जुड़े जीवंत उपन्यास लिखे जा रहे हैं और उनकी चर्चा भी यहाँ प्रासंगिक होगी ।
आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहाँ श्रम का कोई मूल्य नहीं है । यही वजह है कि आज देश की बहुसंख्यक आबादी वाले किसानों की स्थिति बदतर हो चुकी है। वह अपने और परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम भी नहीं कर पा रहा है। समस्याओं के दलदल में फँसकर आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए विवश है। भारत सरकार की ही रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन दस से ज्यादा किसान देश में आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों की इस आत्महत्या से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, न जनता को और न ही सरकार को। देश का युवा वर्ग क्रिकेट, सिनेमा, मंदिर-मस्जिद और सोशल मीडिया में ही उलझा हुआ है। ऐसी स्थिति में साहित्य, मीडिया, सिनेमा एवं बुद्धिजीवी वर्ग का यह कर्त्तव्य बनता है कि इन मुद्दों पर बात करे और सरकार एवं जनता का ध्यान आकर्षण करें।
देश को समृद्ध और विकासशील बनाने में किसानों का अहम् योगदान रहा है। खाद्य के बिना जीवन की कल्पना असंभव है और अन्न का कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। तो इस अन्न को उगाने वाले तथा देश का पेट भरने वाले किसानों के लिए एक ‘किसान विमर्श’ खड़ा करने की सख्त जरुरत है।
प्रेम मानव जीवन का आधार है और इस प्रेम को आगे बढ़ाने के लिए विवाह रूपी संस्कार का सहारा लिया जाता है। परंतु हमारे समाज में विवाह बहुत मुश्किल और पेचीदा काम है। यहाँ केवल पुरुष-स्त्री के मन के मिलन से विवाह नहीं होता।
उसके साथ उसका धर्म, जाति, गोत्र, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति आदि चीजों का मिलना भी जरूरी है। अलग-अलग धर्म और जाति के बीच हमारा बंधुत्व भाव नहीं बन रहा है। फलस्वरूप हम एक विकसित समाज का गठन नहीं कर पा रहे हैं। एक समृद्ध और विकसित समाज का निर्माण करना है, तो विवाह रूपी व्यवस्था में संस्कार लाना बहुत जरूरी है। लेकिन किसान परिवार में विवाह एक बहुत बड़ी समस्या बनकर उभरी है। किसान के परिवार में लड़की का जन्म होते ही, उसकी शादी को लेकर माँ-बाप चिंतित हो जाते हैं। इसके पीछे दहेज की कुप्रथा है। ‘निर्मला’ उपन्यास में प्रेमचंद ने इस विषय को बहुत बारीकी से प्रस्तुत किया है। निर्मला की शादी जब दहेज के कारण टूट जाती है, तो निर्मला की माँ, बेटी की शादी तीन बच्चों के पिता के साथ करवा देती है और सोचती है-“किसी भाँति सिर का बोझ उतारना था, किसी भाँति लड़की को पार कराना था, उसे कुँए में झोंकना था। वह रूपवती है, गुणशील है, चतुर है, कुलीन है, तो हुआ करे, दहेज ही तो सारे दोष गुण हैं। प्राणों का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज का मूल्य है। कितनी विषम भाग्यलीला है!”[1] इसी प्रकार ‘गोदान’ में होरी की छोटी बेटी रूपा के साथ भी यही होता है।
ऐसी स्थिति आज भी किसान-मजदूर परिवारों में देखने को मिल जाती है। आर्थिक अभाव के कारण उनकीलड़कियों की शादी किसी अच्छी जगह नहीं हो पाती।
विवाह की इस समस्या को उपन्यासकार कमलाकांत त्रिपाठी ने ‘बेदखल’ उपन्यास में जीवंत रूप से प्रस्तुत किया है-“दुर्बली के एक ही लड़की थी, जिसे शंकर ने एक दरिद्र, घुमंतू, बूढ़े ब्राह्मण के साथ ब्याह दिया था। जिसकी पहले ही तीन-तीन शादियाँ हो चुकी थी। ... गरीबी और अवहेलना से जुझती तीनों बीवियां एक के बाद एक बिना कोई संतान दिए चल बसी थी। तब आई थी दुर्बली की बेटी, कच्ची उम्र की पितृहीन लड़की।
गौने के दो साल बाद ही सालिक राम पैदा हुआ था। एक साल बाद एक लड़की और पैदा हो गई। बिना किसी सहारे के दोनों बच्चों को संभालना और उसकी अपनी ही उम्र क्या थी। ग्यारह साल की थी जब शादी हुई थी, एक साल बाद गौना।”[2] ऐसी जगह जिस लड़की की शादी होगी, तो उसका भविष्य अंधकारमय ही होगा।
विवाह की सामाजिक रीति-नीति को ढ़ोते हुए यह वर्ग कर्ज रुपी चक्रव्यूह में आजीवन फँस कर रह जाता है। इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि जब वह सोचने लगता है कि यह सब किस्मत का खेल है और पूर्व जन्म का फल है। ‘किस्मत में जो है वही होगा ईश्वर की मर्जी के खिलाफ एक पत्ता तक नहीं हिलता।
’ वे लोग कभी यह नहीं सोचते कि मेहनतकश वर्ग की किस्मत ही क्यों फूटी है और अमीरों की किस्मत हमेशा क्यों चमक रही है ?
किसान-मजदूर या मध्यवर्गीय परिवार में प्यार करना बहुत बड़ा अपराध है। लड़का-लड़की के प्यार करने से मानो उनकी घर की इज्जत मिट्टी में मिल जाती है। बिना विवाह अगर लड़की गर्भवती हो गई है, फिर तो वह परिवार या समाज के नजर में संसार की सबसे घटिया, नीच स्त्री बन जाती है। ‘धरती धन न अपना’ उपन्यास में जगदीश चंद्र जी ने इस मुद्दे को दर्शाया है। जस्सो अपनी बेटी ज्ञानो के अविवाहित गर्भवती होने पर जहर देकर उसे मार देती है-‘‘ तीन दिन के बाद मंगू ने अपनी माँ को संखिया की डलिया ला दी। जस्सो उस पुड़िया को हाथ में पकड़े बहुत देर तक बैठी रोती रही। कई बार उसके जी में आया कि उस पुड़िया को नाली में फेंक दे, लेकिन जब सोचती कि सात-आठ महीने बाद उसकी कुँवारी बेटी के बच्चा जन्म लेगा, तो वह काँप जाती है।”[3]
झूठी मान-मर्यादा के चलते किसी के जीवन को समाप्त कर देना भी समाज में व्याप्त कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है। ज्ञानो और काली के प्रेम संबंध के बारे में पूरे गाँवों को पता था। दोनों की शायद गलती यही थी कि यह सब समाज के इजाजत के बिना हुआ था। यही काम अगर समाज में ढिंढोरा पीट कर लोगों को भोज देकर रीति-नीति से हुआ होता, तो धन्नो के गर्भवती होने पर उसे बधाइयाँ मिल रही होती।
राधा कृष्ण के प्रेम की पूजा तो सब लोग करते हैं, लेकिन जब व्यवहारिक बात आती है, तो पूरा समाज उसका विरोधी बन जाता है। प्रेम अपने आप में एक क्रांति है, क्योंकि सारे बंधनों को सारे दायरों को लाँघकर यह आगे बढ़ता है। प्रेम को अगर सामाजिक प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया जाए, तो समाज में व्याप्त अनेक समस्याओं का अंत अपने आप हो जाएगा।
वैसे भी किसान-मजदूर परिवार में लड़की की शादी किसी अच्छे खानदान में नहीं हो पाती है और दहेज़ प्रथा इसमें एक बहुत बड़ी समस्या बन कर खड़ी है।
किसान परिवार में लड़कियों को ज्यादा पढ़ने-लिखने नहीं दिया जाता। बचपन में ही कड़ी अनुशासन में रखा जाता है ताकि वह समाज के बने बनाए उस दायरे से बाहर न जा सके। अंतिम लक्ष्य भी यह होता है कि किसी तरह लड़की को घर से विदा कर दे तो माँ-बाप मुक्त हो जाए। शिबू की छोटी लड़की कलावती एक दिन स्कूल से घर देर रात तक लौटती है, तो गाँव में तरह-तरह की अफवाहें उड़ने लगती हैं। तो मंदिर का पुजारी कहता है-“हमें तो पहले से ही पता था कि एक दिन यह होकर रहेगा। और पढ़ाओ मुर्गियों को, जैसे पढ़-लिखकर बैरिस्टर बनेंगी।”[4] लोगों के और पुजारी के इस कुत्सित मानसिकता से प्रभावित होकर लड़की की पढ़ाई-लिखाई बंद करवा दी जाती है। यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिस समाज में महिलाओं के पढ़ने-लिखने पर पाबंदी है, वह समाज कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। लड़की अकेले कहीं जा नहीं सकती, रात को घर से नहीं निकल सकती, तो फिर कैसी आजादी?महिला तो आज भी गुलाम ही है। पुरुष के सहयोग बिना अगर वह दो कदम आगे भी नहीं चल सकती तो फिर यह आजादी झूठी है। कलावती की पढ़ाई छूट जाने के बाद वह घर में ही रह जाती है और एक दिन जंगल जाते समय उसे अकेली पाकर वन विभाग का सिपाही बलात्कार करने की कोशिश करता है। हम एक ऐसे समाज का गठन कर चुके हैं, जहाँ माँ, बेटी, बहन, बच्ची या बूढी कोई भी महिला सुरक्षित नहीं है। हमेशा एक डर के साये मे जी रहे हैं।
भारत में जाति एक ऐसी समस्या है, जिसका समाधान अभी असंभव-सा दिख रहा है। भले ही लोग गरीब से अमीर बन जाए, धर्म परिवर्तन कर ले, किसान से पूँजीपति बन जाए, जेंडर परिवर्तन कर ले, लेकिन अपनी जाति नहीं बदल सकते।
‘धरती धन न अपना’ उपन्यास में चौधरी की बातचीत से यह साफ झलकता है- “वाह-वाह...नंदसिंहा तेरे सिर पर अभी सींग तो उगे नहीं...पगला तू कुछ भी बन जा, लेकिन रहेगा चमार का चमार ही। जात कर्म से नहीं जन्म से बनती है।”[5] जिस जात से छुटकारा पाने के लिए नंदसिंह हिंदू से सिख और फिर सिख से ईसाई बन जाता है, लेकिन जात पीछा नहीं छोड़ती।
गाँवों में गलती कोई भी करे, चोरी कोई भी करे, सजा चमादड़ी के लोगों को ही मिलती थी। चौधरी पूरे गाँव में सभी को बिना प्रमाण के गाली देता है, किसी को भी पीट देता है, लेकिन सब मौन देखते रहते हैं और रहम की भीख माँगते रहते हैं। किसी के पास विरोध करने की हिम्मत नहीं।
जगदीश चंद्र गाँव की इस हालात को बयां करते हुए लिखते हैं-“चमादड़ी में ऐसी घटना कोई नई बात नहीं थी। ऐसा अक्सर होता रहता था। जब किसी चौधरी की फसल चोरी हो जाती, बर्बाद कर दी जाती, चमार चौधरी के काम पर न जाता, या फिर किसी चौधरी के अंदर जमीन की मालकियत का एहसास जोर पकड़ लेता तो वह अपनी साख बनाने और चौधरी मनवाने के लिए इस मुहल्ले में चला आता।”[6] पूरे गाँव के लोगों में हीन भावना, गुलामी की भावना घर कर चुका है। जाति के जकड़न में इतना जकड़ चुके हैं कि एक चौधरी का विरोध पूरा गाँव मिलकर नहीं कर पाता।
निर्दोष होकर भी गाली और मार खाते रहते हैं। सहजानंद सरस्वती किसानों की इस हालात को देखते हुए कहते हैं-“जिसके हाथ में संसार का गला हो और जिसकी एक करवट से संसार में प्रलय मचे, वही अपने को गया गुजरा और गैरों का समाज के कोटियों का कृपा पात्र मानने में धन्य समझे, वह निराली बात है।”[7]
किसान के मेहनत पर यह समाज आगे बढ़ रहा है। देश की आधी अर्थव्यवस्था किसान के ऊपर टिकी हुई है। किसान को किसी की सहायता की जरूरत नहीं है। वह अपने मेहनत से आराम से जी लेगा, लेकिन परजीवी लोग, अमीर एवं पूँजीपति किसान के सहयोग के बगैर आगे नहीं बढ़ सकते।
किसान को जिस दिन अपनी ताकत का एहसास हो जाएगा, वे एकजुट हो जाएँगे, उस दिन सत्ता पलट जाएगी।
दरअसल किसान के दिमाग को ‘इनफ्रेरिटी कमप्लेक्स’ की भावना घुन की तरह अंदर ही अंदर कमजोर करती जा रही है। इस मनोविकार से उसे ऊपर उठना होगा।
डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि-“गुलामों को यह एहसास करा दो कि वे गुलाम हैं। जब इन्हें पता चलेगा कि वे गुलाम हैं तो वह स्वयं ही अपनी गुलामी के खिलाफ बगावत कर उठेंगे।”[8] इस गुलामी का एहसास न होने के कारण और अपने अधिकार से अवगत न होने के कारण पूरा चमादड़ी गाँव चौधरी के सामने नतमस्तक रहता है। शिक्षा के अभाव से ‘गोदान’ का होरी भी स्वयं के उस हालात को पूर्व जन्म का कर्म फल मानता रहा है।
किसानी समाज में स्त्री को दूसरे दर्जे में रखा जाता है। यह पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को अनेक प्रकार के अधिकारों से वंचित रखने जैसा है। स्त्री को एक भोग-विलास की वस्तु व बच्चा पैदा करने की मशीन के तरह देखा गया है। यही कारण है कि महिलाओं के साथ आए दिन बलात्कार होते हैं, एसिड अटैक होते हैं। ‘डूब’उपन्यास में कैलाश गोराबाई को अपने प्रेम जाल में फाँसने की कोशिश में असफल होने पर गोराबाई का बलात्कार करवाता है। इन हरकतों से गोराबाई डर से चुप रह कर सोचती है, “कभी हाथ उठ गया कैलाश महाराज पर, तो अपने ही बचुआ के बाप की हत्या का पाप चढ़ेगा सिर। फिर बिटुआ हमें माफ करेगा भला! हमरी चिता को अग्नि देगा भला!”[9] बलात्कार ज्यादातर शोषित-पीड़ित, किसान-मजदूर परिवार की लड़कियों के साथ ही होता है। उच्च वर्ग इन लोगों के साथ अपनी पशु संपत्ति की तरह व्यवहार करता है। बलात्कार की खबर न फैले, इसलिए वे लोग पुलिस में खबर भी नहीं करते, खबर करें तो केस लड़ने के लिए पैसा नहीं है। खबर फैल गई तो लड़की की शादी में अड़चन आदि कई कारण हैं, जिसके चलते वे ऐसी हरकतों को भी चुपचाप सह जाते हैं ।
भारतीय किसान समाज की तथाकथित नैतिकता और मर्यादा की जाल में फँसा हुआ है। अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए वह हद से ज्यादा पैसा खर्च कर देता है। शिक्षा और आधुनिक सोच विचार से किसान अभी भी कोसों दूर हैं। अज्ञानता के चलते वह किसान से मजदूर बनता जा रहा है। धार्मिक और सामाजिक नीति-नियमों से वह जकड़ा हुआ है। कमलाकांत त्रिपाठी कहते हैं-“मरनी करनी पर औकात से ज्यादा खर्च और तीरथ-व्रत, देवी-देवता, भूत-प्रेत, ओझा-ओखाँ के हजारों चोंचले।
सब ने मिलकर किसानों को इतना पस्त कर दिया है कि उन्हें कोई कितना भी दबाए, वे सिर नहीं उठा सकते।”[10] धार्मिक रीति-रिवाज़ को ढोते-ढोते किसान सर्वस्वांत हो गया है। तीज-त्योहार पूजा-पाठ, तीर्थाटन आदि के चक्कर में कर्जदार हो गया है। मनुवादियों के इस षड्यंत्र के ऊपर जोतिबा फुले लिखते हैं-“पहले के ग्रंथ रचयिता धूर्त आर्य ब्राह्मणों ने किसानों को पाखंडी कुचक्रों में ऐसा फाँसा कि किसान के जन्म लेने से पहले ही उसकी माँ के ऋतुमति होने और उसके गर्भाधान संस्कार से प्रारंभ होकर उसकी मृत्यु तक ये झंझट नहीं छूटते और वह तरह-तरह से लूटा जाता है। इतना ही नही उसेक मरने के बाद उसके बेटे को श्राद्ध आदि के बहाने इस धर्म का बोझ भी सहते रहना पडता है।”[11] किसान जन्म से मृत्युपर्यंत धर्म, रीति-रिवाज के नामपर ब्राह्मण पंडित के ऊपर धन लुटाता रहता है। यही रीति-नीति किसान के उन्नति में बहुत बड़ा प्रतिबंधक बन जाता है।
भारतीय ग्राम में भौतिक विकास तो तेजी से हो रहा है, परंतु मानसिक विकास उस तेजी से नहीं हो पा रहा है। जिस वजह से वह आधुनिक समाज से पिछड़ता जा रहा है। आज भी किसान-मजदूर वर्ग जर्जर रूढ़िवादी परंपरा को ढ़ोते आ रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे धर्म, संस्कृति, नैतिकता, जातिवाद आदि चीजों को ढोकर आगे चलने की जिम्मेदारी इन्हीं लोगों को मिली हुई हैं। गाँव में चले आ रहे अंधविश्वास को लेखक ने इस वाक्य के द्वारा दर्शाया है- “गाँव के लड़के जमीन पर पानी डालकर, उसके कीचड़ में लोट-पोट कर ‘काले मेघा पानी दे नहीं तो अपना नानी दे’ गाते हुए पूरे गाँव में घूम आए। सुनाई पड़ा है कि बगल के गाँव में औरतों ने आधी रात के अंधेरे में नंगी होकर हल भी चलाया।
लेकिन सारे टोटकों के बावजूद अभी तक बारिश नहीं हुई।”[12]
भारतीय किसान समस्याओं के दलदल से घिरा हुआ है। ‘हलफनामे’[13] उपन्यास के सवेरा गाँव के वर्णन भारतीय ग्रामीण व्यवस्था का यथार्थ चित्र अंकित करता है। बाढ़, अकाल, बेमौसम बारिश, प्राकृतिक आपदाएँ, कर्ज, खाद, बीज, अशिक्षा, अंधविश्वास, सरकार की अनदेखी आदि चीजें किसानों के गले का फंदा तैयार कर रही हैं। खेती-किसानी करना जुआ खेलने जैसा है। विभिन्न चुनौतियों को अपनाते हुए संघर्ष करके अगर फसल ज्यादा पैदा हो गई, तो भी दिक्कत है। बाजार में उसका दाम घट जाता है और वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता।
अगर फसल ढंग से पैदा न हुई या कम हो गई तो किसान पूजा-पाठ, हवन-यज्ञ जैसे अंधविश्वास में चला जाता है। उसे लगता है यह सब करने से सब कुछ ठीक हो जाएगा।
लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसा कभी नहीं होता, “साहूकार से बीज उधार लेकर बोना उस पर हाड़तोड़ मेहनत करना फिर भाग्य और भगवान भरोसे वर्षारानी का इंतिजार, या फिर सूखा न पड़े इसलिए नदी और वामन महाराज को चढ़ावा चढाना। ...अगर फसल पहले जैसी या उससे भी कम हो तो अपने भाग्य को कोसता हुआ किसान जा पहुँचता है वामन महाराज के चरणों में ग्रहदशा सुधरवाने।”[14] आज भी सरकार किसानों की मूलभूत आवश्यकता खाद, बिजली, पानी की व्यवस्था नहीं कर पा रही है।
गाय और जमीन किसानों का सबसे बड़ा धन है। इसी गाय को पाने की लालसा में ‘गोदान’ उपन्यास का होरी दम तोड़ देता है। ‘फाँस’ उपन्यास में यही हाल मोहन दादा का होता है। भूखमरी के कारण अपना बैल कसाई को बेच देता है। गाँव के लोग उन्हे गोहत्यारा कहने लगते हैं। इससे परेशान हो कर मोहन दादा सिन्धु ताई के साथ प्रायश्चित करने केलिए एक बाबा के पास जाते हैं। जमीन बैल बेचकर जो थोडा पैसा बचा था वह सौ रुपये, सिंधुताई स्वामी निरंजन देव को देती है। ‘गोदान’ उपन्यास में धनिया का गोदान के रूप में पुरोहित को बीस आना देना और ‘फाँस’ उपन्यास में सिंधुताई का गोहत्या का प्रायश्चित के लिए पंडित को सौ रुपये देना, यह साबित करता है कि किसानों की स्थिति 1936 में जैसी थी आज भी कमोवेश वैसी ही है। निरंजन देव प्रायश्चित का एक गजब तरीका बताते हैं-“बैल के गले का फंदा गले में डालकर एक भिक्षा पात्र लेकर भीख मांगनी पड़ेगी। शुद्धि तक न घर में घुस सकते हैं, न मनुष्य की बोली बोल सकते हैं। बैल की बोली...बाँ। या फिर संकेत! समझे? इस पोला से अगले पोला तक। फिर मैं आकर प्रायश्चित और शुद्धि के लिए विधान करूंगा।”[15] वर्षों बीत गए लेकिन मोहन दादा फिर कभी नहीं बोले और वापस घर लौटकर कभी नहीं आए। धार्मिक अंधविश्वास ने एक बोलते-चलते इंसान को गूँगा-अपाहिज बना दिया।
किसान का अशिक्षित होना और अंधविश्वासी होना उसको और भी गर्त में ले जाता है और वह अपना शोषण करवाने का जरिया खुद ही चुनता है। गाँव में ज्यादातर यही देखने को मिलता है कि जो अनपढ़ है या जिसके पास कोई दूसरा काम धंधा नहीं है, वैसे लोग ही खेती-बाड़ी कर रहे हैं। यह बात सच है कि वर्तमान में रोजगार का कोई दूसरा साधन मिल जाए, तो किसान खेती-बाड़ी छोड़ देगा।
यह उसकी मजबूरी है कि वह खेती कर रहा है। पढ़े-लिखे या अमीर लोग खेती किसानी से जुड़े हुए नहीं हैं। पढ़ा-लिखा व्यक्ति किसानी करने को खुद का अपमान समझता है। जैसे ‘डूब’ उपन्यास में जनक सिंह के बारे में दद्दू कहते हैं-“आठ जमात पास लड़का और खेती-बाड़ी करे?... शिक्षा का इतना असम्मान भला कौन सह पाएगा? लोग टोकेंगे नहीं कि ठाकुर, यह क्या अनर्थ करते हो? आठ जमात तक पढ़े हुए लड़के से खेती-किसानी करवाते हो?”[16] आज के पढ़े-लिखे युवा वर्ग की यही दशा है। खेती से मोहभंग, परिवार से पलायन और संयुक्त परिवार का बिखरना आधुनिक समाज की एक गंभीर समस्या है। ‘गोदान’ उपन्यास के ऊपर टिप्पणी करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा था-“इस दौर की सबसे बड़ी घटना है संयुक्त परिवार का टूटना।
अभी यह प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई बल्कि और तेज हुई है। ...ऐसी नौकरी की है कि बूढ़े माँ-बाप समस्या हो गए हैं। इसी तरह होरी का परिवार एक-एककर टूटता जाता है।”[17] धीरे-धीरे एक ऐसा समाज बन रहा है, जहाँ पढ़े-लिखे व्यक्ति को नौकरी न मिले तो घर में बेकार बैठा रह जाता है, परंतु खेती करने में खुद को अपमानित महसूस करता है। दूसरी तरफ यह भी है कि किसान खेती करना छोड़ देगा तो करेगा क्या? रोजगार का कोई दूसरा स्थायित्व है नहीं।
तो जीवन गुजारने के लिए या परिवार पालने के लिए वह खेती मज़बूरी वश कर रहा है।
सत्ता और पूँजी के गठजोड़ ने किसानों को तिल-तिल मरने के लिए मजबूर कर दिया है। किसान विस्थापित होकर शहरों की तरफ भाग रहा है। जिस देश में शिक्षित लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार काम नहीं मिल रहा वहाँ मजदूरों को क्या मिलेगा? व्यवस्था ऐसी बन चुकी है कि किसान गाँव में खेती भी नहीं कर पा रहा और शहर में मर्यादा के साथ जी भी नहीं पा रहा है। किसानों की बढ़ती आत्महत्याएँ इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था जहरीली हो चुकी है। ईर्ष्या, लोभ, धन प्राप्त करने की अंधी दौड़ जैसी शहरी विकृतियाँ ग्रामीण समाज में भी प्रवेश कर गई हैं।
भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण संयुक्त परिवार तो टूट ही गए, अब एकल परिवार भी कई तरह के तनावों से गुजर रहे हैं। ग्रामीण जीवन से निकले युवा दोबारा अपने गाँव नहीं आना चाहते।
वे जिंदगी की जद्दोजहद में इतना आगे निकल जाते हैं कि उन्हें माँ-बाप, रिश्तेदार दिखाई नहीं देते।
इसलिए वृद्धावस्था की समस्या ग्रामीण जीवन में भी बढ़ रही है। ‘रेहन पर रग्घू’ में काशीनाथ सिंह बुजुर्ग पात्र रघुनाथ के माध्यम से लिखते हैं-“रघुनाथ भी चाहते थे कि बेटे आगे बढ़े।
वे खेत और मकान नहीं है कि अपनी जगह ही न छोड़ें।
लेकिन यह भी चाहते थे कि ऐसा भी मौका आये जब सब एक साथ हो, एक जगह हो, आपस में हँसे, गाएँ, लड़े-झगड़े, हा-हा हू-हू करे, खाएँ-पिएँ घर का सन्नाटा टूटे।
मगर कई साल हो रहे हैं और कोई कहीं है, कोई कहीं।
और बेटे आगे बढ़ते हुए इतने आगे चले गए हैं कि वहाँ से पीछे देखे भी तो न बाप नजर आएगा न माँ।”[18] कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान ग्रामीण जीवन सांस्कृतिक पतन की ओर अग्रसर है। उपभोक्तावादी होड़ और समाज में बढ़ते व्यक्तिवाद ने मनुष्य को आत्मकेंद्रित बना दिया है। संबंधों में भावना का स्थान गणित ने ले लिया है।
स्वाधीनता के बाद लोगों में सरकार के प्रति जो उम्मीदें थीं, जो आस्था थी, वो धीरे-धीरे टूटने लगी और लोग हताश-निराश होने लगे। विकास की जगह विनाश होने लगा और राजनीति की जगह राज की अनीति चलने लगी। किसान आर्थिक एवं सामाजिक रूप से कमजोर बनता गया। परिवार बढ़ने के साथ-साथ कृषि-जमीन कम होती गयी। जमीन का बँटवारा होने के कारण अमल ढंग से नहीं हो पाया। डॉ.हेमराज ‘निर्मम’ के मुताबिक-“सर्वप्रथम कृषि-भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटने लगी। निजी संपत्ति बना सकने के वैध अधिकार ने शताब्दियों से चली आ रही संयुक्त परिवार प्रथा को प्रबल धक्का दिया। भाईयों में आपस में जमीन बँटने लगी। जिस भूमि को संयुक्त परिवार में सभी जोतते थे, वह अब अलग-अलग बोई जाने लगी।”[19] खर्च बढ़ गए लेकिन अमल कम होने लगा। बीज, खाद, कीटनाशक सभी के दाम बढ़ गए। जमीन के टुकड़े-टुकड़े होने से कृषि योग्य जमीन भी कम होती गयी। आर्थिक समस्या के चलते उसे वह जमीन भी बेचनी पड़ी और किसान के जगह वह मजदूर बन गया। इस तरह एक बहुत बड़े मजदूर वर्ग का जन्म हुआ। सभी युवा वर्ग शहर में जाकर मजदूरी करने लगे। गाँव युवा विहीन हो गया।
इस प्रकार किसान आज भी अनेक प्रकार की समस्यायों में घिरा हुआ है । वह किसी भी प्राणी को जीवित रहने के लिए आवश्यक अन्न का उत्पादनकर्त्ता है और उसका कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। अन्न के बिना किसी मनुष्य का शारीरिक-मानसिक विकास हो पाना असंभव है। परंतु आज सभी लोग अपने-अपने निजी स्वार्थ में इस कदर डूबे हुए हैं कि कोई नहीं सोच रहा है कि यह अन्न कहाँ से आता है? कैसे आता है? जो किसान दिन-रात मेहनत करके दूसरों का पेट भरता है, वह खुद के लिए या अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने में सक्षम नहीं हो पा रहा है। समाज और सरकार ने उसे व्यवस्था की चक्की में इस कदर पिसा है कि लगता है कि आगामी समय में किसान के हाथों से उसकी पूरी जमीन जायदाद छीन जाएगी और मल्टीनेशनल कंपनियाँ खेती करने लगेगी।
फिर हर फसल का दाम दो गुना तीन गुना बढ़ जाएगा।
इसी कारण किसान सर उठा कर जी नहीं पाता और आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाता है। देश-दुनिया में कहीं भी इतनी मात्रा में किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं। पूरे विश्व में भारत को किसान आत्महत्या का केंद्र के रूप में देखा जाना निश्चित ही बेहद चिंतनीय बात है। हिंदी के उपन्यासकारों ने अपनी लेखनी से इन तथ्यों का संकेत देकर सराहनीय कार्य किया है। लेकिन इसके बावजूद किसान की समस्याओं को और ज्यादा प्रमुखता देना अति आवश्यक है।
सन्दर्भ :
1.
प्रेमचंद : निर्मला, भारती भाषा प्रकाशन, 1996, पृ. 35
2.
कमलाकांत त्रिपाठी : बेदखल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ. 7
3.
जगदीश चंद्र : धरती धन न अपना , आधार प्रकाशन, 2013, पृ. 262
4.
संजीव : फाँस, वाणी प्रकाशन, 2015, पृ. 11
5.
जगदीश चंद्र : धरती धन न अपना, पृ. 185
6.
वही, पृ. 17
7.
सहजानंद सरस्वती : किसान क्या करें, ग्रंथ शिल्पी, 2011, पृ. 48
8.
जोतिबा फुले : किसान का कोड़ा, सम्यक प्रकाशन, 2012, पृ. 9
9.
वीरेंद्र जैन : डूब , वाणी प्रकाशन, 2014, पृ. 129
10. कमलाकांत त्रिपाठी : बेदखल, पृ. 42
11. जोतिबा फुले : किसान का कोड़ा, पृ. 72
12. कमलाकांत त्रिपाठी : बेदखल, पृ. 122
13. राजू शर्मा : हलफनामे, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, 2007, पृ. 104
14. वीरेंद्र जैन : डूब, पृ. 24-25
15. संजीव : फाँस, पृ. 56
16. वीरेंद्र जैन : डूब, पृ. 51
17. सं.नामवर सिंह : प्रेमचंद और भारतीय समाज, राजकमल प्रकाशन, 2011, पृ. 164
18. काशीनाथ सिंह : रेहन पर रग्घू, राजकमल प्रकाशन, 2008, पृ. 133
19. डॉ. उत्तम भाई पटेल : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास में कृषक जीवन, पृ. 35
सुभ्रांशिष बारिक, हिंदी प्राध्यापक, ओडिशा
subhransisb@gmail.com, 9937496364
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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