शोध आलेख : एम.एन. श्रीनिवास की ‘संस्कृतीकरण’ की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में ‘रश्मिरथी’ का अनुशीलन /
स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद भी देश में जातिगत भेद-भाव कम नहीं हुआ, इस बात से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भी काफ़ी चिंतित रहते थे। उनकी इन्हीं
चिंताओं का प्रतिफल है, कालजयी
कृति ‘रश्मिरथी।’
महाभारतकालीन
कथा को आधार बनाकर दिनकर जी ने जाति-व्यवस्था संदर्भित जिन सावालों को उठाया,
वे आधुनिक
भारतीय समाज की ऐसी खाईयाँ हैं, जिन्हें भरे बिना सद्भावना-सम्पन्न, सुदृढ़ भारत का निर्माण करना कठिन
कार्य है। अपनी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का बुरा समझना न केवल राष्ट्रीय
एकता के लिए घातक है, बल्कि
मानवता के लिए भी विनाशकारी है। प्रसन्नता की बात है कि पिछले कुछ समय से देश में ‘संस्कृतीकरण’ का विस्तार होने लगा है, जनता जातिगत रूढ़ियों से ऊपर उठकर
सोचने लगी है। ‘सामर्थ्य’
को समुचित
सम्मान दिया जाने लगा है। प्रस्तुत आलेख में प्रख्यात समाजशास्त्री एम.एन.
श्रीनिवास की अवधारणा ‘संस्कृतीकरण’
परिप्रेक्ष्य
में ‘रश्मिरथी’
के अनुशीलन का
प्रयास किया गया है।
जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की एक कड़वी-सच्चाई है। जाति-व्यवस्था को समझे बगैर न भारतीय समाज को ठीक से समझा जा सकता है, न भारत के ऐतिहासिक, पौराणिक तथा मिथकीय ग्रंथों को, और न ही इसके आधार पर लिखी गई आधुनिक साहित्य की काव्य-कृतियों को। जाति-व्यवस्था का प्रभाव इतना व्यापक है कि यह भारतीय समाज के सभी क्षेत्रों एवं समाजों में दिखाई देता है। इसीलिए जर्मनी के प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर(Max Weber) ने भारत की चर्चा करते हुए कहा था कि “जाति-व्यवस्था भारतीय समाज का सार तत्त्व है।” समाजशास्त्र की दृष्टि से भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था के संदर्भ में डॉ. एम.एन. श्रीनिवास(MN Srinivas, 1916-1999) द्वारा प्रस्तुत ‘संस्कृतीकरण’ की अवधारणा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। एम.एन. श्रीनिवास की यह अवधारणा न केवल स्वातंत्र्योत्तर भारत की सामाजिक संरचना को समझने में सहायक है, बल्कि भारत में सदियों से प्रचलित मिथकीय कथाओं में नज़र आने वाले जातिगत, सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्ष को समझने में भी सहायक है। वह चाहे रामायण कालीन शम्बूक की कथा हो या फिर महाभारत कालीन महारथी कर्ण की कथा। पौराणिक कथाओं में चित्रित जाति-व्यवस्था की समस्याओं को आधार बना कर स्वतंत्र्योत्तर-काल में कई काव्य-कृतियाँ लिखी गईं, जैसे कि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा विरचित‘रश्मिरथी’ (1952), डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा लिखित ‘एकलव्य’(1958), जगदीश्वर चतुर्वेदी की ‘सूर्यपुत्र’(1975), नरेश मेहता की ‘शबरी’(1977), जगदीश गुप्त का ‘शम्बूक’, धर्मवीर भारती कृत ‘अंधायुग’(1954), कनुप्रिया (1959) इत्यादि। इनमें दिनकर जी द्वारा रचित ‘रश्मिरथी’ का विशिष्ट महत्त्व है, क्योंकि इस कृति में ‘संस्कृतीकरण’ की अवधारणा का विवेचन गहराई से किया गया है।
आज़ाद भारत का पहला दशक, यह वह दौर है जहाँ एक ओर पौराणिक कथाओं के आधार पर जाति-व्यवस्था को केंद्र में रखकर बड़े-बड़े काव्य रचे जा रहे थे तो दूसरी ओर, समाजशास्त्र के क्षेत्र में जी.एस घुर्ये, एम.एन. श्रीनिवास, डॉ. भीमराव आम्बेडकर, डी.एम. मजूमदार, कुप्पूस्वामी जैसे विद्वान भारत की सामाजिक एवं जाति-व्यवस्था के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त गढ़ रहे थे। इनमें एम.एन. श्रीनिवास द्वारा भारत की जातीय-व्यवस्था को समझने के लिए किए गए शोधकार्य का विशेष महत्त्व है। यह लगभग वही समय था, एक ओर एम.एन. श्रीनिवास अपने शोधकार्य के आधार पर समाजशास्त्र के क्षेत्र में ‘संस्कृतीकरण की अवधारणा’ को स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। दूसरी ओर, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ साहित्य-क्षेत्र में ‘कुरुक्षेत्र’ जैसा प्रसिद्ध पौराणिक-प्रबंधकाव्य लिखने के बाद भारत की जाति-व्यवस्था की कमजोरियों की बखिया उधेड़ते हुए ‘रश्मिरथी’ प्रबंधकाव्य की रचना कहते थे।
दिनकर जी अपने समय और समाज के पारखी रचनाकार थे। आज़ाद भारत का वह पहला दशक जहाँ एक ओर उच्च-वर्ग, निम्न-वर्ग की भावना और अधिक जड़ पकड़ रही थी, तो दूसरी ओर समाज में भंयकर रूप से जाति-प्रथा का दुष्प्रभाव फैल रहा था और उसके विरोध में संघर्ष भी तेज़ हो चुके थे। इन परिवर्तनों को दिनकर जी ध्यान से देख कर रहे थे।‘रश्मिरथी’ की भूमिका में दिनकर जी लिखते हैं “यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है। अतएव यह बहुत स्वाभाविक है कि राष्ट्र-भारती के जागरूक कवियों का ध्यान उस चरित की ओर जाए जो हज़ारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूल प्रतीक बन कर खड़ा रहा है।”(1) इस सन्दर्भ में, समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास का अभिप्राय विचारणीय है, उनका मत है कि भारत में जातिवाद को बढ़ावा देने में ब्रिटिश शासन की बड़ी भूमिका रही। ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत में क्षेत्रीय सत्ताएँ थीं। कुछ सीमाओं के बावजूद, एक ही क्षेत्र में रहने वाली विभिन्न सत्ताएँ आपस में सहयोग की स्थिति में रहती थीं। अंग्रेजी हुकूमत की स्थापना ने आखिरकार जातियों को उस क्षेत्रीय बन्धनों से मुक्त कर दिया, जो ब्रिटिश-पूर्व काल की राजनीतिक व्यवस्था में मौजूद थे। अंग्रेजी शासन ने जिन्न को बोतल से आज़ाद कर दिया था(2) और बाद में “अंग्रेजों ने जिस तरीके से भारतीयों को राजनीतिक सत्ता हस्तान्तरित की, उससे जातिवाद को राजनीतिक धरातल पर पाँव जमाने में मदद मिली।”(3)
जाति-व्यवस्था को समझने से पहले, संदर्भ-समूह (Reference Group)की अवधारणा को समझना आवश्यक है। इस संदर्भ में वेस्लेयन विश्वविद्यालय (Wesleyan University), संयुक्त राष्ट्र में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हर्बर्ट हाइमन (Herbert Hyman) का विचार ध्यातव्य है, उनका मत है कि मानव-व्यवहार तथा मानव के व्यक्तित्त्व के विकास में संदर्भ-समूह (Reference Group) यानी गैर-सदस्यता-समूहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । क्योंकि ये समूह अन्य-समूहों या समाजों के समक्ष ऐसे संदर्भ या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसके आधार पर वे न सिर्फ अपने अस्तित्त्व के बारे में सोचते हैं, बल्कि दूसरों की हैसियत का भी मूल्यांकन करते हैं। हाइमन की इस अवधारणा को विस्तार देते हुए प्रसिद्ध अमरीकी समाज-मनौवैज्ञानिक टी. न्यूकॉम्ब(T.Newcomb) ने इसके दो प्रकार माने- एक, सकारात्मक सन्दर्भ-समूह (Positive Reference Group) और दो, नकारात्मक सन्दर्भ समूह (Negative Reference Group)। न्यूकॉम्ब के अनुसार सकारात्मक सन्दर्भ-समूह, वह समूह है, जो प्रचलित नियम, कानून, मूल्य आदि को सही मानकर चलता है और उसके अनुरूप ही अपने व्यक्तित्त्व को ढालने की कोशिश करता है। दूसरी ओर नकारात्मक सन्दर्भ-समूह, ऐसा सन्दर्भ-समूह है जो न केवल प्रचलित नियम, कानून एवं मूल्यों को अस्वीकार करता है, बल्कि अपने समूह के प्रचलित नियम-कानूनों के विरुद्ध जाते हुए विपरीत पद्धतियों, नियमों को अपनाता है और उन्हें अपने समूह में प्रचारित करता है।
यहाँ,
सकारात्मक
संदर्भ-समूह को लेकर दो बातें कही जा सकती हैं, एक तो यह कि, सकारात्मक सन्दर्भ-समूह में एक व्यक्ति
अपने सन्दर्भ-समूह के साथ स्वयं को समायोजित कर रहने लगेगा, जिससे उस समूह की सामाजिक-व्यवस्था को
बनाये रखने में काफ़ी सहायता मिलती है, जैसे कि महाभारत काल के विदुर एवं संजय,
वे दोनों ही
निम्न जाति के थे पर वे अपने सन्दर्भ-समूह के साथ स्वयं को समायोजित कर रहे
थे। दूसरी ओर, अगर किसी व्यक्ति का सकारात्मक समूह
कोई गैर-सदस्यता समूह है, तो ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति का व्यवहार कुछ
हद तक अपने सदस्यता-समूह के नियमों के अनुरूप नहीं होगा और कभी-कभी वह उन नियमों
का विरोध भी कर सकता है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह कि अपने संदर्भ-समूह के
नियमों का पालन न करने वाले उस व्यक्ति का व्यवहार अपने समाज में किस हद तक वांछित
या अवांछित माना जाएगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति के संदर्भ-समूह
की प्रकृति कैसी है? अर्थात्
यदि उस व्यक्ति का संदर्भ-समूह खुली प्रकृति का है तो उसके व्यवहार को उसका समाज
में साधारणतः अवांछनीय नहीं माना जाएगा। परन्तु यदि उसके संदर्भ-समूह की प्रकृति
बन्द प्रकृति की है, तो
उसका व्यवहार बहुत हद तक अवांछनीय माना जाता है, जैसे कि महारथी कर्ण के साथ हुआ।
भारतीय संदर्भ में संदर्भ-समूह का सबसे अच्छा उदाहरण एम.एन. श्रीनिवास द्वारा प्रतिपादित ‘संस्कृतीकरण’(Sanskritization) की अवधारणा में देखी जा सकती है। एम.एन. श्रीनिवास ने इस अवधारणा को सबसे पहले ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में अपने डी-फ़िल. के शोध-प्रबन्ध में प्रस्तुत किया था। बाद में उन्होंने 1952 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "रिलीजन् ऍन्ड् सोसाइटी अमंग द कूर्ग्स ऑफ़ साउथ इन्डिया"(Religion and Society among the Coorgs of South India) में विस्तार से चर्चा की,जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि निम्न जाति के व्यक्ति ब्राह्मण जाति का अनुकरण करके अपनी जातीय स्थिति को ऊपर उठाना चाहते हैं। इस प्रक्रिया को पहले उन्होंने ‘ब्राह्मणीकरण’ कहा था। किंतु बाद में उन्होंने अपनी इस अवधारणा को विस्तार देते हुए इसके लिए ‘संस्कृतीकरण’ शब्द का प्रयोग किया। इसका प्रमुख कारण यह है कि मैसूर राज्य के निकट स्थित कूर्ग जाति भले ही ब्राह्मणों का अनुरकरण करती हो पर शेष भारत में ऐसी कई जातियाँ हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में प्रभु या सम्पन्न जातियों का अनुकरण करती हैं, जैसे उत्तर भारत की कुछ निम्न जातियाँ अपने क्षेत्र की प्रभु जाति यानी क्षत्रियों का अनुकरण करती हैं तो कई अन्य प्रदेश में कुछ जातियाँ वैश्यों की जीवन-शैली का अनुकरण करती है।
एम.एन. श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में कोई निम्न हिन्दू जाति अथवा ग़ैर हिन्दू पिछड़ी जाति अथवा निम्न जाति अथवा कोई जनजाति अथवा कोई दूसरा समूह जब किसी स्थानीय उच्चजाति का अनुसरण करे, शास्त्रीय व्यवहार को अपनाने लगे, अर्थात् क्षात्र धर्म का पालन करने लगे या ब्राह्मण-रीतियों का पालन करने लगे (जैसे कि माँस खाना छोड़ देना, तीर्थस्थान जाना, धार्मिक पुस्तकें पढ़ना, पूजा-पाठ करना आदि) तो उसे ‘संस्कृतीकरण’ कह सकते हैं। इस प्रक्रिया में वह समूह अपने लिए एक नया नाम अपना लेता है और ऊँची प्रतिष्ठा का दावा करने लगता है। क्योंकि यह वर्ग अपनी जाति या जन्म को नहीं बल्कि अपने ‘सामर्थ्य’ के आधार पर समाज में हैसियत दिए जाने की वकालत करता है। इसी प्रकार के अभिप्राय को दिनकर जी ने ‘रश्मिरथी’ में इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं-
“ऊँच-नीच
का भेद न माने, वही
श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म
जिसमें हो, सबसे
वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय
वही, भरी
हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे
श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।”(4)
एक
अन्य स्थान पर दिनकर कहते हैं कि जात-पात की भावना मनुष्य को छोटा बना देती है।
जाति व्यवस्था के संदर्भ में श्री रामसागर चौधरी ने दि. 28-2-61 को दिनकर जी को एक पत्र लिखा था,
उस पत्र का जवाब
देते हुए दिनकर जी ने दि. 4-3-61 को लिखा कि,“अपनी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति
का बुरा – यह
सिद्धान्त मानकर चलने वाला आदमी छोटे मिज़ाज का होता है।”(5)
“राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित
करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज ।।”(6)
दुर्योधन जब कर्ण को अंगराज बना देता है, पर वह भी जाति की भावना से मुक्त नहीं हो पाता है और यह कहता है कि इस ‘सूतपुत्र’ के शौर्य के आगे बड़े-बड़े राजकुमार भी टिक नहीं पाएंगे। यानी वह भी कर्ण की पहचान के लिए जाति (सूतपुत्र) का ही उल्लेख करता है।
“कर्ण भले ही सूतपुत्र हो अथवा श्वपच, चमार,
मलिन,
मगर, इसके आगे हैं, सारे राजकुमार ।।” (7)
समाज में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया कब शुरू होती है? इस पर एम.एन. श्रीनिवास रोचक जानकारी देते हैं, वे लिखते हैं, जब समाज में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनने लगती है या युद्ध की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगती है तब संस्कृतीकरण प्रक्रिया अधिक होती है। इतना ही नहीं जब लोग गाँव से नगर की ओर प्रवास करते हैं, तब भी संस्कृतीकरण की सम्भावना बनती है। महाभारत-काल में कुछ ऐसी ही परिस्थितियाँ थीं। उस समय एक ओर राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था तो दूसरी ओर जाति और कर्म या शौर्य के आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की भावना भी प्रबल थी, जिस कारण युद्ध का वातावरण निर्मित हो रहा था। क्योंकि यह माना जाने लगा था कि वीर योद्धा केवल उच्च कुल या जाति में ही नहीं बल्कि निम्न एवं पिछड़ी समझी जानी वाली जातियों व कुलों में भी जन्म ले सकते हैं और वे अपने शौर्य के अनुरूप समाज में अपना दर्जा पाने का हक़ रखते हैं और वे चाहते भी थे कि उनका मूल्यांकन उनकी जाति या जन्म के आधार पर नहीं बल्कि उनके सामर्थ्य, शौर्य एवं पराक्रम के आधार पर हो। इसलिए ‘रश्मिरथी’ में दिनकर लिखते हैं-
“मूल जानना बड़ा कठिन है, नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
जाति-जाति
का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर ।।”(8)
भारतीय
समाज में परिवर्तन को कभी भी सहजता से नहीं स्वीकार किया गया है, इसका मूल कारण है भारतीय समाज का नेचर
प्रायः बंद-प्रकृति का है। इसीलिए यहाँ किसी प्रकार के सामाजिक-परिवर्तन या विचलन
को यहाँ का समाज कभी भी आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता है। यही स्थिति महाभारत के
समय में भी थी। जब कर्ण क्षत्रियों की भाँति धनुर्विद्या सीखना चाहता था, तो उसे राजवंशियों को शिक्षा देने वाले
गुरु द्रोणाचार्य उसकी जाति के कारण उसे शिक्षा देने से मना कर देते हैं। और जब
महर्षि परशुराम उन्हें शिक्षा देते हैं, और कर्ण के शौर्य, पराक्रम, गुरु-भक्ति-परायणता से प्रसन्न हो कर
उसे अपना पुत्रतुल्य तक मानने लगते हैं, पर जब उन्हें यह ज्ञात होता हैं कि वह
ब्राह्मण-पुत्र नहीं हैं तो उसे शाप भी दे देते हैं। दिनकर ने इस घटना को मार्मिक
ढंग से अभिवर्णित किया है--
“मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,
पर,
अपनी विद्या का
अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ।
है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।”(9)
जब
एक अनजान योद्धा के रूप में परशुराम शिष्य कर्ण रंगभूमि में प्रवेश करता है और
अर्जुन को द्वन्द्व करने के लिए ललकारता है तो कृपाचार्य हस्तक्षेप करते हुए,
पहले उसे अपनी
जाति का परिचय देने के लिए कहते हैं और कहते हैं कि अर्जुन तो एक राजपुत्र हैं,
क्षत्रिय हैं,
वह यूँ ही किसी
भी जाति के व्यक्ति के साथ द्वन्द्व युद्ध के लिए तैयार नहीं हो सकता। अतः तुम्हें
युद्ध करना हो तो अपना नाम, गोत्र, जाति बताना होगा।
“द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा ।
“कृपाचार्य ने कहा– “ सुनो हे वीर युवक अनजान !
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है सन्तान ।”(10)
***
क्षत्रिय है, राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा ?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत रहो सभा में मौन,
नाम-धाम
कुछ करो, बताओ
कि तुम जाति हो कौन ?”(11)
इस पर कर्ण कहता है ...
“जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड,
मैं क्या जानू जाति? जाति है ये मेरे भुजदण्ड।”
---
“पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो मेरे भुजबल से.
रवि समाज दीपित ललाट से, और कवच-कुंडल से।”(12)
आशय यह है कि भारतीय समाज में परिवर्तन को सहज स्वीकार करने की प्रवृत्ति नहीं रही है। इसी विषय को एम.एन. श्रीनिवासन ने संस्कृतीकरण की अवधारणा में भी स्पष्ट किया है।
निष्कर्ष :
समाजशास्त्र
में ‘संस्कृतीकरण’
की अवधारणा का
अपना महत्त्व है। भले ही डी.एन. मजूमदार और कुप्पूस्वामी आदि विद्वानों ने
श्रीनिवास के विचारों की आलोचना करते हुए इस अवधारणा की सीमाओं की ओर संकेत किया
है जिसके फलस्वरूप एम. एन. श्रीनिवास ने अपनी अवधारणा में आवश्यक संशोधन भी किया
है। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ सीमाओं के बावजूद भारतीय समाज
की जाति-व्यवस्था को समझने में श्रीनिवास की यह अवधारणा का बहुत उपयोगी है।
क्योंकि एम.एन. श्रीनवास की यह अवधारणा न केवल भारत की जातीय-व्यवस्था की जटिलताओं
को समझने में उपयोगी है बल्कि यह विचारधारा इस बात को भी चुनौती देती है कि ‘जाति एक दृढ़ और अपरिवर्तनशील संस्था
है।’ जिस
प्रकार समाजशास्त्र के क्षेत्र में एम.एन. श्रीनिवास की संस्कृतीकरण की अवधारणा का
अपना एक महत्त्व है, ठीक
इसी प्रकार यह भी सत्य है कि रचना के छह दशक बाद भी दिनकर की काव्यकृति ‘रश्मिरथी’ की प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है
क्योंकि अनेक कानूनों, सामाजिक
आंदोलनों एवं सांविधानिक प्रावधानों के बावजूद भारतीय-समाज जाति-व्यवस्था के
बंधनों से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाया है। आज भी जाति के नाम पर राजनीति की
रोटियाँ सेकी जा रही हैं और शासन-व्यवस्थाएँ स्थापित हो रही हैं। भले ही आज भारत
ने भौतिक रूप से कई क्षेत्रों में अपार प्रगति हासिल कर ली है पर यह भी सच है कि
आज भी यहाँ के शहरों, गाँवों,
कस्बों व ढाणी
समाजों में जाति की श्रेष्ठता का अहंकार नष्ट नहीं हुआ है।
संदर्भ :
(1)दिनकर, रश्मिरथी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद-1, प्रथम संस्करण 1952 ई, पुनरावृत्ति 2008 ई, भूमिका, पृ.-ग
(2)एम.एन. श्रीनिवास, आधुनिक भारत में जाति, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2001, पहली आवृत्ति, 2009, पृ. 24
(3)वही, पृ. 23
(4)दिनकर, रश्मिरथी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद-1, प्रथम संस्करण 1952 ई, पुनरावृत्ति 2008 ई, प्रथम सर्ग पृ. 9
(5) https://janjwar.com/post/dinkar-ko-bhumihar-ke-khanche-men-rakhne-se-pahle-unka-yah-letter-.
(6) दिनकर, रश्मिरथी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद-1, प्रथम संस्करण 1952 ई, पुनरावृत्ति 2008 ई, पृ. 11
(7) वही, पृ. 12
(8) वही, पृ. 12
(9) वही, द्वितीय सर्ग पृ. 24
(10)वही, प्रथम सर्ग, पृ. 10
(11)वही, पृ. 11
(12)वही, पृ. 11
(13) सहायक ग्रंथ : जे. पी. सिंह, समाजशास्त्र : अवधारणाएँ एवं सिद्धान्त, PHI Learning Private Limited, Delhi-110092, तृतीय संस्करण, 2013
डॉ. जे. आत्माराम, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
9440947501, atmaram.hcu@gmail.com
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