शोध आलेख : पिघले चेहरे : मानवीय मूल्य और जीवन यथार्थ / डॉ. संदीप रणभिरकर
शोध सार :
सच्चिदानंद चतुर्वेदी का उपन्यास ‘पिघले चेहरे’ साम्प्रदायिकता की आग में भस्म होती मानवीयता को रूपायित करने वाला एक अत्यंत सशक्त उपन्यास है। इस उपन्यास में लेखक ने अत्यंत बारीकी से 1984 के सिख विरोधी दंगों की ह्रदय-विदारक भीषण परिस्थिति को उद्घाटित करने का प्रयास किया है।पृष्ठभूमि भले ही 1984 के दंगों की हो किन्तु ऐसा प्रतीत होता है जैसे लेखक ने बड़ी संजीदगी से भीषण वर्तमान को ही परत दर परत खोल नग्न कर दिया हो। निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से यथार्थ का जीवंत चित्र ही अधिक उद्भासित होता है। अत्यंत सटीक रूप में यह उपन्यास वर्तमान विविध विमर्शों (यथा- स्त्री, पुरुष, दलित, सत्ता, बाजार आदि) की तहें खोलता हुआ विभिन्न ज्वलंत समस्याओं यथा- छद्म राष्ट्रीयता, धर्म व राजनीति का वास्तविक स्वरूप, आरक्षण का प्रश्न, साम्प्रदायिकता, मानसिक वैमनस्य, धार्मिक आडंबर, पुरुष की अहंग्रस्त मानसिकता, रिश्तों की सच्चाई, अवसरवादिता, ग्रामीण एवं शहरी मानसिकता का यथार्थ, विद्रुप होती मानवीयता, न्याय-व्यवस्था व प्रजातंत्र का भोंडापन, स्त्री-जीवन की त्रासदी आदि अनेक आयामों को अत्यंत सूक्ष्मता व बड़ी बेबाकी से उकेरा है।
बीज शब्द : हिंदी उपन्यास, साम्प्रदायिकता, स्त्री-विमर्श, सत्ता-विमर्श, अमानवीयता, अवसरवादिता, अपसंस्कृतिकरण, ग्रामीण एवं शहरी मानसिकता, धर्म एवं राजनीति, पुलिस व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, लोकतांत्रिक व्यवस्था, प्रशासन तंत्र, अर्थकेन्द्रित मानसिकता आदि।
मूल आलेख :
उपन्यास अपने समय का जीवंत आख्यान होने के साथ-साथ समय की विकराल स्थितियों में एक सार्थक हस्तक्षेप भी होता है। वह पाठकों के भीतर नूतन भाव-बोध के निर्माण के साथ ही उसकी सोच को विकसित करता है। उपन्यासों का उपजीव्य भले ही अतीत के पटल पर अंकित विविध घटनाएँ हों, जो लेखक की प्रतिभा के संस्पर्श सेनवीन रूप धारण कर पाठकों की ज्ञान क्षुधा को तृप्त करती हों, किन्तु पाठक जब उनसे गुजरता है तो वह महसूस करता है कि उसी के ह्दय के कई भाव नुमायाँ हो रहे हैं जिन्हें वह बरसों से जीता आ रहा है। अतः साहित्य न दिग्मूढ़ होता है न समयमूढ़, वह देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर समय से साक्षात्कार कराता है। साहित्य में अवस्थित कालजयी तत्त्व ही उसे समय से दो कदम आगे बढ़ाते हैं और उसकी हर काल में प्रासंगिकता निर्धारित करते हैं। क्रिस्टोफर कॉडवेल (‘विभ्रम और यथार्थ’) के अनुसार ‘कला का मोती समाज की सीपी से जन्म लेता है। जिस प्रकार मोती सीपी का उत्पाद है ठीक उसी प्रकार साहित्य भी समाज का उत्पाद है।’ सच्चा लेखक वही होता है जो इस उत्पाद को इतनी अर्थवत्ता प्रदान करता है कि उसकी महत्ता हर समय में अक्षुण्ण बनी रहती है।
‘अधबुनी रस्सी: एक परिकथा’ उपन्यास से साहित्य जगत में प्रविष्ट प्रख्यात उपन्यासकार प्रो. सच्चिदानंद चतुर्वेदी का ‘मझधार’ के पश्चात तीसरा अद्यतन उपन्यास है– ‘पिघले चेहरे’। इन उपन्यासों में लेखक की चिंतनात्मकता एवं कथ्य की विविधता की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। जहाँ प्रथम उपन्यास में आंचलिकता का पुट है, वहीं ‘मझधार’ मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी को उजागर करता है। किन्तु ‘पिघले चेहरे’ कई मायनों में विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण है।1984 के सिख विरोधी दंगों की पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह उपन्यास ऐतिहासिक तथ्यों को आधार बनाकर तत्कालीन परिस्थितियों पर समग्रतः भाष्य करने में सक्षम प्रतीत होता है। किन्तु प्रश्न यह उठता है कि जिन घटनाओं को आधार बनाकर रचनाकार कलम चलाता है क्या उसकी प्रभविष्णुता उसकी तात्कालिकता तक ही सीमित होती है? उत्तर है- नहीं। 1984 के दंगे हों या ऐसी अन्य घटनाएँ, इनका दंश व्यक्ति हर समय स्मरण मात्र से महसूस करता है। वक्त की संगीन कलम से उसके ग़मगीन ह्रदय पर लिखी गयी दुर्भाग्य एवं विवशताओं की ये इबारतें इतनी आसानी से नहीं मिटती। साथ ही तत्कालीन भयावह परिस्थितियों के बीज वर्तमान में भी यत्र-तत्र फैले देखे जा सकते हैं जिनके अंकुरित हो वटवृक्ष में रूपातंरित होने की आशंकाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता। अतः एक जागरुक रचनाकार का दायित्व यह होता है कि अपनी कलात्मकता एवं भविष्योन्मुख दृष्टि के जरिए इस रूप में उन घटनाओं एवं तथ्यों की वर्तमान से सम्पृक्ति करे कि पाठक भी अनायास अतीत के झरोखे से वर्तमान को निहारकर भविष्य को संवारने हेतु कृतसंकल्प हो जाए।
‘पिघले चेहरे’ उपन्यासइस बात पर बिलकुल खरा उतरता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो 1984 के कलेवर में लेखक ने बड़ी संजीदगी से भीषण वर्तमान को ही परत दर परत खोल नग्न कर दिया हो। निष्पक्ष एवंतटस्थ भाव से यथार्थ का जीवंत चित्र ही अधिक उद्भासित होता है। अत्यंत सटीक रूप में यह उपन्यास वर्तमान विविध विमर्शों (यथा- स्त्री, पुरुष, दलित, सत्ता, बाजार आदि) की तहें खोलता हुआ विभिन्न ज्वलंत समस्याओं यथा- छद्म राष्ट्रीयता, धर्म व राजनीति का वास्तविक स्वरूप, आरक्षण का प्रश्न, साम्प्रदायिकता, मानसिक वैमनस्य, धार्मिक आडंबर, पुरुषी अहंग्रस्त मानसिकता, रिश्तों की सच्चाई, अवसरवादिता, ग्रामीण एवं शहरी मानसिकता का यथार्थ, विद्रूप होती मानवीयता, न्याय-व्यवस्था व प्रजातंत्र का भोंडापन, स्त्री-जीवन की त्रासदी आदि अनेक आयामों को अत्यंत सूक्ष्मता व बड़ी बेबाकी से उकेरा है।
उपन्यास की कथा कन्नौज के निकट गंगा नदी के दक्षिणी तट पर बसे एक छोटे से गाँव ‘बागसर’ से प्रारम्भ होती है। ग्रामीण सौन्दर्य के साथ-साथ लेखक की दृष्टि ग्रामीण जीवन के परिवर्तनों पर भी पड़ती है। भले ही गाँव आज गाँव नहीं रहे, धीरे-धीरे उनका शहरीकरण हो रहा है, किन्तु गाँवों में आज भी कुछ तो ऐसा है जो उसे शहरों की भीड़ से अलगाता है। लेखक के अनुसार गाँवों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास से असुरक्षा पनपी है किन्तु असुरक्षा से सामूहिकता भी, दोनों परस्पर विरोधी चीजें हैं। गाँव में किसी परिवार पर कोई आफत-विपत पड़ जाए तो पूरा गाँव एक साथ उसकी सहायता के लिए उठ खड़ा होता है।लेकिन गाँवों में व्याप्त अपसंस्कृतिकरण तथा विषाक्त वातावरण का उल्लेख करने में भी लेखक नहीं चुकते– “कोई भी गाँव नदी पर तैरती एक नौका की भांति होता है और जैसे नौका पर सवार किसी एक यात्री की छोटी-सी भूल नौका को डुबो देती है, वैसे ही गाँव के किसी एक व्यक्ति की भूल गाँव का वातावरण विषाक्त कर देती है।”1 भगत, पलटन बाबा जैसे लोग गाँव को गाँव बनाए रखते हैं। जब 1984 के सिख विरोधी दंगे हो रहे थे तब कुछ सिख ट्रक ड्राईवर जब शहरों से दूर बागसर की सड़क पर शरण लेते हैं। तब पलटन बाबा की अगुआई में पूरा गाँव उनकी न केवल सुरक्षा करता है अपितु एकजूट होकर उनके भोजन का भी प्रबंध करता है– “जिसके घर में जो भी था घी, दूध, तेल, दाल और अनाज, उसने वह ख़ुशी से दिया और जिनके पास कुछ नहीं था उन्होंने अपने शरीर-श्रम से मदद की।...सिखों में से अब कोई शंकालु नहीं था वे सब आँसुओं से रो रहे थे। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि एक ही देश में दो प्रकार के हिन्दू कैसे हो सकते हैं।”2 गांववाले सिखों को आश्वस्त भी करते हैं कि ‘आदमी की औकात क्या, एक चिड़िया भी इस इलाके में पर नहीं मार सकती’। एक ओर शहर जहाँ धर्म की आड़ में शहरी लोग सिखों पर अमानवीयता एवं पाश्विक बर्बरता से युक्त होकर कहर ढा रहे थे, वहीं अभावों के बोझतले दबे हुए गाँववाले अपनी सहृदयता का परिचय दे रहे थे। अपनी जान बचाने पर जब ट्रक ड्राईवर अपनी ट्रकों पर लदा सामान गाँववालों को देते हैं तो वे आत्मसम्मान एवं स्वाभिमान का परिचय देते हुए लेने से मना कर देते हैं।
लेखक शहरी मानसिकता का भी पर्दाफ़ाश करते हैं। संवेदनहीन एवं अमानवीय नगरीय परिवेश का चित्रण करते हुए लेखक लिखते हैं– “नगर लोगों की भीड़ के अलावा और कुछ नहीं होते। इन्सानियत वहाँ मरुस्थल में जल की भांति सूख जाती है। वहाँ के अमीर और गरीब इंसान न रहकर भावना-शून्य यंत्र बन जाते हैं, जो पड़े-पड़े भावनाएँ रखने का ढोंग करते हैं।”3 इन नगरों में अर्थ की महत्ता सर्वोपरि होती है। अतः नगर में विपन्नता की मार झेलनेवाले गरीब केवल जनगणना के आँकड़ें मात्र होते हैं, इससे अधिक इनकी कोई पहचान नहीं होती। ऐसे लोग कुंठा एवं अवसाद से घिरकर अपनी ही प्रजाति के लोगों को निगलने के लिए तत्पर हो जाते हैं। राजनीतिक पार्टियाँ ऐसे ही गरीबों का लाभ उठाती हैं- चाहे किसी रैली में भीड़ जुटानी हो या कहीं दंगे करवाने हो। लेखक के अनुसार 1984 के सिख विरोधी दंगों में लूटपाट एवं हत्या का जो क्रम चला था, वह इन्हीं की करतूत थी।इनके अलावा शहरों में रहनेवाला एक और तबका है– मध्यवर्ग, जो सदैव इस भ्रम में रहता है कि उसकी अपनी विशेष पहचान है। मध्यवर्ग निर्बल और सबल दोनों वर्गों को बेवकूफ समझता है। वह निम्नवर्ग को दुत्कारता है, वहीं उच्च वर्ग (सबल) की जी-हुजूरी करता है। मध्यवर्ग की स्वार्थवादी प्रवृत्ति पर व्यंग्य कसते हुए लेखक लिखते हैं– “इसकी आदत कछुए जैसी होती है।अपने हाथ-पाँव बाहर तभी निकालता है, जब उसे आस-पास कोई फायदा होने का पूरा विश्वास होता है। लेकिन इन दंगों में इस तपके ने, अपने कछुए वाले चरित्र से हटकर, चूहे के चरित्र का निर्वाह किया था, भौतिक वस्तुओं के लालच ने, लगता है इसका चरित्र ही बदल दिया था।”4 लेखक के अनुसार गाँव के लोगों में न किसी प्रकार की पहचान का भ्रम होता है न किसी भी परिस्थिति में वे अपना चरित्र बदलते हैं। शहरी लोगों के समान राजनीतिक दलों के छलावे में ये लोग भी आते हैं, पर किसी स्वार्थ के कारण नहीं, अपनी सिधाई के कारण।
वर्तमान भारतीय परिदृश्य में साम्प्रदायिकता सबसे गंभीर समस्या है। प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि राजनीतिक दल वैयक्तिक स्वार्थों के लिए साम्प्रदायिकता की आड़ में धर्म का दोहन करते हैं और धर्म का एक विकृत रूप प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में चाहे कोई भी धर्म हो उसकी उत्पत्ति मानव समाज के कल्याण हेतु हुई है। धर्म का उद्देश्य समूचे समाज को एक शृंखला में पिरोना है। प्रेमचंद के अनुसार– “धर्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है अगर वह हमारी आत्मा को शान्ति और देह को सुख नहीं प्रदान कर सकता, तो मैं उसे पुराने कोट की भांति उतार फेंकना पसंद करूँगा। जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए, उससे जितनी जल्द हम अपना गला छुड़ा लें, उतना ही अच्छा।”5 चतुर्वेदी जी यह स्पष्ट करते हैं कि हमारे समाज में साम्प्रदायिकता के बीज स्कूलों में बचपन से ही बोये जाते हैं। देवदत्त को पंडित जी स्कूल में बताते हैं कि भारत में जितने भी मुसलमान रहते हैं, वे सब हिन्दुओं के दुश्मन हैं। उनकी बातों में आकर देवदत्त मुसलामानों से घृणा करने लगता है और परिणामस्वरूप बिना किसी कारण के इब्राहिमपट्टी वाले रहमान चाचा की हत्या कर देता है और दोनों गाँवों में दुश्मनी हो जाती है।
यही देवदत्त 1984 के दंगों में एक हाथ में तलवार एवं दूसरे हाथ में कुल्हाड़ी लेकर कानपुर में नर-संहार करता है। मुसलामानों के प्रति उसकी घृणा का राजनीतिक दल सिखों के खिलाफ इस्तेमाल करते हैं। तिलचट्टों (चोर, बदमाश, बलात्कारी) को साथ लेकर राजनीतिक दलों के मोहरे कई देवदत्त, धर्म की आड़ में पाशविक बर्बरता को अंजाम देते हैं। लेखक उस भीषण हत्याकांड का वर्णन करते हुए लिखते हैं– “उस नगर में उतने घातक हथियार कहाँ से आ गए थे? जमीं से उगे थे या आस्मान से बरसे थे?...शहर से उठकर आकाश में गूँजने वाली प्रलयंकारी ध्वनियाँ। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा शहर एक शिकारगाह हो और शिकार को घेरने के लिए शिकारी चारों ओर से हल्कारा लगा रहे हों। मोहल्ले के कुत्ते अपने प्राण देकर भौंक रहे थे।...उनके घर के किवाड़ चीरे जाने लगे.. वे कुछ समझ पाते इससे पहले ही पंद्रह-बीस लोग घर में घुस आये...देवदत्त ने अपनी कुल्हाड़ी से उनकी गर्दन पर एक जोरदार वार किया। उनकी गर्दन आधी कटकर आगे की ओर लुढ़क गई। खून फव्वारे जैसा फूटने लगा था।”6 लोगों का निर्दयतापूर्वक क़त्ल करना, घरों में ज़िंदा जला देना, बच्चे-औरतें आदि को छतों से नीचे फेंकना, दुकानें लूटना आम बातें हो गयी थीं। नंदा कौर ऐसी बच्ची थी जिसके घरवालों को पड़ोसी ने ही घर में ज़िंदा जला दिया था– “अपने जले हुए घर में घूम-घूमकर, अपने घर वालों को ढूँढता हुआ उसे देखकर ऐसा लग रहा था, मानो चिड़िया का कोई बच्चा, अपने जले हुए घोसले की राख में अपने बंधु-बांधवों को खोज रहा हो।”7
उस समय लोगों ने अपने पड़ोसी धर्म का भी निर्वाह नहीं किया। लेखक इस पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं–“पड़ोसी धर्म के उल्लंघन के ऐसे उदाहरण विश्व के सभ्य समाज में आज तक नहीं देखे गए। पता नहीं, तब इन हिन्दुओं का ‘जीवों पर दया करो’ वाला मंत्र कहाँ चला गया था।”8 अतः लेखक ने धर्म के आडम्बर पर भी खुल कर प्रहार किया है। मास्टर रुद्रदेव धर्म के ठेकेदारों को आड़े हाथों लेते हैं, वे धर्म के ठेकेदारों से प्रश्न करते हैं कि– “यह हिन्दू जाति आज अचानक इतनी बहादुर कैसे हो गई? मुहम्मद गोरी, गज़नी से लेकर बहादुर शाह जफ़र तक जो अपनी बेटी और चोटी नहीं बचा पाए, अंग्रेज़ों के साढ़े तीन सौ साल के शासन में झुके-झुके जिनकी कमरें स्थायी रूप से वक्र हो गईं और अपनी संतानों को जिन्होंने गुलामी करने के लिए, जहाज भर-भर कर मारिशस और सूरीनाम भेज दिया, वे आज सिखों से बदला लेने निकले हैं। आज इस देश में जो भी हो रहा है, वह किसी जाति का अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए भड़का हुआ आक्रोश नहीं, निरा अवसरवाद है, जिसे स्वार्थी राजनेताओं ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए हवा देकर भड़काया है।”8
राजनीति में धर्म एवं धर्म में राजनीति के हस्तक्षेप एवं उनके बलाबल का खामियाज़ा आम जनता को भुगतना पड़ता है। इसके उदाहरण के रूप में इंदिरा गांधी की हत्या एवं उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप सिख विरोधी दंगों को देखा जा सकता है। लेखक ने विस्तार से अत्यंत तटस्थ रूप में इंदिरा गांधी की हत्या के कारणों की भी मीमांसा की है। लेखक का मानना है कि राजनेता धर्म और राजनीति के अनुपात में जानबूझकर गड़बड़ी करते हैं, जिससे लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर अपने लिए मत बटोर सके। प्रजातंत्रीय व्यवस्था के लागू होने से धार्मिक संस्थाएँ केंद्र से खिसककर हाशिये पर चली गईं, जो धर्म के ठेकेदारों को नागवार था। उनकी सत्ता प्राप्ति की आकुलता ने ही ‘ओपरेशन ब्लू स्टार’ जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना को विवेकहीनता के चलते अंजाम दिया और इसमें धर्माधिकारी, कृपाचार्य, दुर्जनसिंह जैसे धर्म के ठेकेदार अपनी रोटियाँ सेंकते हैं। कृपाचार्य इंदिरा गांधी की हत्या पर कार्यकर्ताओं को दंगों के लिए उकसाते हैं और झूठे प्रलोभन भी देते हैं– “तुम्हारे हाथ में सैंकड़ों कार्यकर्ता हैं, संकेत पाते ही रात भर में सिखों को कच्चा चबा जाएँगे। एक तरफ मंची और दूसरी तरफ काँग्रेसी, सब काम जल्दी और आसानी से निपट जाएगा।”9 साथ ही कार्यकर्ताओं को विधानसभा पहुँचाने के सपने भी दिखाते हैं। गिरगिट की तरह रंग बदलना नेताओं की फितरत होती है। येनकेनप्रकारेण स्वार्थ की पूर्तता करना ही इनका एकमात्र लक्ष्य होता है। सिखों की हत्याओं के बाद इन राजनेताओं को उनके वोट भी चाहिए अतः अपनी दूरदृष्टि से वे अपनी स्वार्थपूर्ण राजनीति का परिचय देते हैं– “...प्रत्येक परिवार को कुछ सहायता राशि मुहैया करवाने की कोशिश करूँगा।...हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि कल चुनाव भी आएँगे और उनमें हमें इन्हीं सिखों से अपनी पार्टी के लिए वोट भी लेने होंगे। यही नहीं, केंद्र और राज्य सरकार द्वारा पुनर्वास के लिए जो धनराशी रिलीज की जाएगी, उसका बहुत बड़ा हिस्सा हमारे चुनाव-खर्च के काम आएगा।”10
दंगों के समय प्रशासन की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। यदि प्रशासन चुस्त हो तो संभव नहीं कि कहीं जान-माल का नुकसान हो। किन्तु 1984 के दंगों में प्रशासन एवं दंगाइयों की मिलीभगत का विस्तृत विवेचन कर लेखक ने राजनेता, पुलिस व्यवस्था, प्रशासन तंत्र आदि पर प्रश्नचिन्ह लगाकर उन्हें कठघरे में खड़ा किया है। भीषण हत्याकांड, लूटपाट होने पर भी कानपुर में प्रशासन हरकत में नहीं आता। और सुस्ताया प्रशासन जब हरकत में आता भी है तो मास्टर रुद्रदेव जैसे निरपराध और सीधे लोगों को नाहक परेशान करने लगता है।सैनिक एवं पुलिस का ईमान भी डगमगाने लगता है– रुद्रदेव सेना एवं पुलिस का व्यवहार देखकर खिन्न हो जाते हैं– “पिछले चौबीस घंटों में मैंने अपनी पुलिस का खण्डित ईमान देख लिया है और अब मैं अपने सैनिकों का खोखला ईमान देख रहा हूँ।”11 मास्टर रुद्रदेव जैसे सीधे आदमी की हत्या पर थाने की पंजिका में उन्हें एक खूंखार दंगाई दर्ज किया जाता है। क्योंकि पुलिसवालों को भी अपने फर्ज अदा करने के कुछ तो प्रमाण जुटाने पड़ेंगे ! इसके विपरीत असली दंगाइयों की अखबारों में फोटो छपने के बावजूद कोई गिरफ्तारी नहीं होती और पुलिसवाले दंगाइयों से अपना हिस्सा वसूलते हैं। कई जगह तो पुलिस ही दंगाइयों को उकसाती है। पुलिस पर नेताओं का इतना दबदबा था कि बिना उनसे पूछे वे दंगे से जुड़ी कोई एफ.आई.आर. भी नहीं लिखते।विविध जाँच समितियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि– “दिल्ली, कानपुर और बोकारो में घटी हिंसा पूर्व निर्धारित और पूर्व नियोजित थी तथा उसे प्रशासन और सत्ता दल के लोगों द्वारा अंजाम दिया गया था।”12
लेखक यह भी स्पष्ट करते हैं कि इन राजनेताओं का कुर्सी के अलावा कोई सगा नहीं होता। और इन लोगों के गिरने का कोई स्तर ही नहीं होता। धर्माधिकारी एवं कृपाचार्य जैसे लोग अपनी राजनीति चमकाने के लिए छात्रों का उपयोग करते हैं। देश के उज्वल भविष्य की पौध तैयार करने वाले शिक्षण संस्थान राजनीतिक प्रोपगेंडे के अड्डे बनते जा रहे हैं और छात्र इस राजनीति के शिकार हो रहे हैं। उपन्यास में कृपाचार्य जैसे लोग महाविद्यालय के छात्रावास में वर्षों से डेरा जमाए हुए हैं जो साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं और छात्रों को भ्रमित कर उनका इस्तेमाल करते हैं। वे न केवल छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं अपितु उनकी बलि चढ़ाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं है।‘मंच’ के कार्यकर्ता दो छात्रों को उठाकर लाते हैं और एक आरक्षण विरोधी कार्यक्रम में उन्हें ज़िंदा जला देते हैं। इन छात्रों की इस हत्या को वे बलिदान का रूप दे देते हैं– “सवर्ण युवकों का यह बलिदान, याद करेगा हिन्दुस्तान।” और इस घटना को अपने हितों के लिए भुनाने का भरसक प्रयास करते हैं। किन्तु सबसे बड़ी विडंबना है कि इन राजनेताओं की अपनी पार्टी के प्रति भी कोई प्रतिबद्धता नहीं है। गिरगिट को अपना आदर्श माननेवाले ये नेता अपनी हितसाधना हेतु पार्टी बदल लेते हैं। मंच के लिए अपना जीवन समर्पित करनेवाले मंच के कट्टर कार्यकर्ता कृपाचार्य काँग्रेस में शामिल हो जाते हैं। जिनके पास रहने के लिए कमरा नहीं था, जो छात्रावास में वर्षों पड़े हुए थे उनके विदेशों तक में सात सितारा होटल बन जाते हैं। किन्तु देवदत्त जैसे लोगों को इन नेताओं के प्रति अपनी वफादारी के चलते वर्षों तक जेल में सड़ना पड़ता है। कोई उनकी सुध तक नहीं लेता।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता ही संप्रभु होती है। भारतीय लोकतंत्र की स्थापना भी इसी महान उद्देश्य से हुई है।किन्तु प्रश्न यह है कि क्या सच में भारतीय लोकतंत्र इस महान एवं पवित्र उद्देश्य से परिचालित हो रहा है? क्या लोकतंत्र प्रदत्त समानता, धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता, शिक्षा आदि के अधिकारों की अनुपालना वास्तव में हो रही है? और अनायास ही दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ मस्तिष्क में कौंधती हैं जो वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती है– “यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है/ चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए।”13 उपन्यासकार ने भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के खोखलेपन एवं उसे एक मखौल बनाने वाले राजनेताओं पर तीखे व्यंग्य किए हैं। उनके अनुसार लोकतंत्र ने अपना चेहरा खो दिया है और एक छद्म मुखौटा धारण कर वह जन सामान्य के साथ छल कर रहा है– “हर प्रजातंत्र के अपने कुछ उसूल होते हैं, जिनकी तुलना रामराज्य वाले उसूलों से नहीं की जा सकती। यहाँ तो झूठा और मक्कार ही हाथी की पीठ तक पहुँचता है। प्रजातंत्र के अँधेरे और उजाले के भी अपने अर्थ होते हैं। इसका अँधेरा बड़े-बड़े ताले खोल सकता है और उजाला मुँह काला कर सकता है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय इसके लिए एक आउटडेटेड कथन है, एक्सपायर्ड स्टेटमेंट’।”14 इतना ही नहीं न्यायव्यवस्था भी पंगु हो चुकी है। सिख विरोधी दंगों में भीषण नरसंहार करनेवाले देवदत्त को न्यायाधीश सभी आरोपों से मुक्त कर देते हैं। इस बात से स्वयं देवदत्त भी चकित हो जाता है क्योंकि सैंकड़ों लोगों के सामने उसने क़त्ल को अंजाम दिया था, किन्तु न्यायाधीश के अनुसार पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे–“उस दिन उसे पता चला था कि भारत की न्याय-व्यवस्था कितनी पंगु है। उसने अपनी रिहाई के लिए धन्यावाद दिया था भारतीय प्रजातंत्र को और उसकी न्याय-व्यवस्था को जहाँ अंधे पीसते हैं और कुत्ते खाते हैं।”15 स्पष्ट है अन्याय जिधर उधर है शक्ति।
उपन्यासकार ने बड़ी संजीदगी से स्त्री अस्मिता के प्रश्न को भी वाणी प्रदान की है। विवाह के पश्चात औरत घर और घाट कहीं की नहीं रह जाती। देवी की शादी लोमहर्ष से हो जाती है। लोमहर्ष देवी को अपने साथ रहने की अनुमति प्रदान नहीं करता। उसके अनुसार वह उसके साथ तभी रह सकती है जब वह 12 वीं पास कर लेगी और लोमहर्ष एक लाख रुपये जमा कर लेगा। देवी के सारे अरमानों पर पानी फिर जाता है– “जहाँ जीवित रहने का अभिनय चल रहा होता है, वहाँ अरमानों के बारे में नहीं सोचा जाता।”16 वह जीवन के बोझ को ढोये जा रही थी, क्योंकि वह जानती थी कि एक बार आदत पड़ जाने पर, खराब से खराब परिस्थिति में भी जीवित रहा जा सकता है। उसके भीतर एक आक्रोश है किन्तु वह भी स्वयं के खिलाफ। इसीलिए वह खुद को चोट पहुँचाती रहती है। उसे स्वयं पर विश्वास है कि वह पति को अँधेरे से प्रकाश में ले जाएगी। फिर भी उसे संदेह है कि– “उसके पंख क्या स्वतंत्र उड़ान भरने लायक रहेंगे? सुना है कि जिस चिरैया को बहुत दिन तक पिंजड़े में कैद करके रखा जाता है, मुक्त कर दिए जाने पर भी उड़ने लायक नहीं रह जाती, वापस अपने पिंजड़े में आ जाती है, वहीं अपने को सुरक्षित समझती है।”17 पति की इच्छाओं की पूर्ति के लिए छोटे से बच्चे को संभालते हुए उसे लॉ की पढ़ाई करनी पड़ती है। पति के अहसानों के बदले वह उसे अपना शरीर समर्पित करती है– “उस समय उसे लगता कि वह एक गृहस्थ वेश्या है और पति के एहसानों के बदले में, अपना शरीर अनिच्छापूर्वक उसे समर्पित कर रही है।”18 उसका पति अपनी पहचान बनाने के लिए उसे एक रेस की घोड़ी की भांति इस्तेमाल करना चाहता है। इसीलिए उसे अधिवक्ता बनाता है, चुनाव लड़वाता है। देवी को ऐसे लगता है जैसे विवाह करके उसने स्वयं को पति के पास गिरवी रख दिया है। पति उसे हिदायत देता है कि आगे बढ़ने के लिए अपने औरत होने का भरपूर इस्तेमाल करो।देवी को लगता है कि उसका पति, पति कम और भडुआ ज्यादा है। उसे अपना जीवन सबसे सस्ता लगता है जिसे उसने अपने पति के पैरों के नीचे कालीन की भांति बिछा दिया है।
रिश्तों की सच्चाई को भी लेखक ने बड़ी ईमानदारी से चित्रित किया है। अर्थकेन्द्रित मानसिकता से युक्त समाज में उपयोगितावादी दृष्टि से हर रिश्ते को अंजाम दिया जाता है। पति के प्रति सम्पूर्ण जीवन समर्पित करनेवाली देवी जब अस्पताल में अंतिम साँसे गिन रही होती है, तब लोमहर्ष ऑपरेशन को लगने वाले एक लाख रुपयों के भय से वहाँ से भाग जाता है। उसमें दुःख का कोई भाव नहीं है। वह मृत्युशय्या पर सोयी पत्नी के लिए कहता है– “हमने इसे एक औरत से रेस की घोड़ी बनाया। हमें क्या पता था कि यह दगाबाज निकलेगी। अपनी रेस आधी छोड़ गई। अब हमारे इमामबाड़े की शोभा कौन बढ़ाएगा।”19 देवी के गाँववाले उसके इलाज के लिए पैसे इकठ्ठा करते हैं किन्तु उसका अहंग्रस्त पति पैसे नहीं देता। ‘सूखता हुआ तालाब’ उपन्यास में रामदरश मिश्र लिखते हैं कि ‘आज खून का रिश्ता पानी और पानी का रिश्ता खून बन गया है।’ यह बिलकुल सत्य प्रतीत होता है। देवदत्त का अपने माता, पिता एवं भाईयों के प्रति व्यवहार इस बात का प्रमाण है। देवदत्त के लिए स्वार्थ के आगे कोई रिश्ता मायने नहीं रखता। वह अपनी माँ को बुढ़िया व भाईयों को केंकड़ा पुकारता है। इसके विपरीत नंदा कौर एक सिख है जिसके पूरे परिवार को हिन्दुओं ने मौत के घाट उतार दिया। वह मास्टर रुद्रदेव के बेटे के साथ, जो कि एक हिन्दू है, विवाह कर लेती है और आज के परिवेश में कहीं-कहीं मानवीयता के शेष होने का संकेत भी देती है।
वर्तमान समाज देवदत्त जैसे लोगों से ही भरा पड़ा है। ऐसे लोगों के लिए लेखक कहते हैं–“मानव तो झूठा और स्वरचित परिस्थितियों के पीछे जीभ लटकाकर चलनेवाला कुत्ता है।”20 वर्तमान बाज़ारवादी परिवेश में मनुष्य से ज्यादा उस पर लगा हुआ टैग महत्त्वपूर्ण हो गया है। टैग के आधार पर ही उसका मूल्य आंका जाता है, और मूल्य के आधार पर ही उसको प्राथमिकता एवं महत्ता दी जाती है। उसी के आधार पर उसके साथ व्यवहार होता है। इसी स्थिति को स्पष्ट करते हुए लेखक लिखते हैं– “आज का मानव पता नहीं क्यों, पूरी तरह बिकाऊ हो गया है। बाजार में उसके खुल्लमखुल्ला दाम लगते हैं। चौराहे पर खड़ा सिपाही दो रुपये में, बाबू दस रुपये में, सरकारी मंत्री दस हजार में, दुकानदार छटाँक भर में, सरकारी मास्टर सेर भर आलू में, सैनिक एक बोतल रम में और भारत का मतदाता पाँच सेर चावल में बिकता है।”21
समग्रतः प्रस्तुत उपन्यास कथ्य एवं शिल्प दोनों दृष्टियों से विशिष्ट है। उपन्यास की भाषा ऐसी बन पड़ी है मानो काँच की स्वच्छ, समतल सतह से पाठक गुजर रहा हो। कथ्य की रवानी में कहीं कोई अवरोध नहीं है। कई संवाद अत्यंत मार्मिक रूप से जिंदगी की सच्चाई को बयाँ करते हैं, जिनके मूल में लेखक की मंझी हुई कलम एवं अनुभवों से परिपक्व चिंतनात्मकता दृष्टिगोचर होती है। अत्यंत संवेदनशील विषय पर कलम चलाकर लेखक ने अपने साहस के साथ-साथ पैनी सोच का परिचय दिया है। निश्चित रूप से वर्तमान रचनाओं की बाढ़ में 'पिघले चेहरे' एक सशक्त उपन्यास नजर आता है जो अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कराता है।
सन्दर्भ :
1. सच्चिदानंद चतुर्वेदी, पिघले चेहरे, अमन प्रकाशन, कानपुर, सं.2018, पृ. 11
2. वही, पृ. 109
3. वही, पृ. 111
4. वही, पृ. 111-12
5. प्रेमचंद, रंगभूमि, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, सं.2008, पृ.468
6. सच्चिदानंद चतुर्वेदी, पिघले चेहरे, अमन प्रकाशन, कानपुर, सं.2018, पृ. 85
7. वही, पृ. 114
8. वही, पृ. 86
9. वही, पृ. 82
10. वही, पृ. 118
11. वही, पृ. 92
12. सच्चिदानंद चतुर्वेदी, पिघले चेहरे, अमन प्रकाशन, कानपुर, सं.2018, पृ. 85
13. दुष्यंत कुमार, साए में धूप, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2009, पृ.13
14. सच्चिदानंद चतुर्वेदी, पिघले चेहरे, अमन प्रकाशन, कानपुर, सं.2018, पृ. 167
15. वही, पृ. 164
16. वही, पृ. 59
17. वही, पृ. 60
18. वही, पृ. 72
19. वही, पृ. 169
20. वही, पृ. 74
21. वही, पृ. 74
डॉ. संदीप रणभिरकर, सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग
राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बान्दरसिंदरी, किशनगढ़– 305801, जिला-अजमेर (राजस्थान)
sandeepvr25@gmail.com, 8503891642
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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