शोध आलेख : दलित विमर्श की अवधारणा और भक्तिकालीन हिंदी साहित्य/ राम यश पाल
शोध सार :
प्रत्येक देश का साहित्य उस समाज का समुचित आख्यान होता है जो मानव-जीवन से संबंधित समस्त हलचलों को प्रतिबंधित करता है। वर्तमान में 'दलित' शब्द ऐसी जातियों की अस्मिता और अस्तित्व को रेखांकित करने में सक्षम है जिसे भारतीय समाज व्यवस्था में तथाकथित शूद्र-अतिशूद्र कहकर सदियों से अपमानित और शोषित किया जाता रहा है। आधुनिक दलित विमर्श का जो स्वरूप उपजा है, वह इन्हीं धारणाओं के बरक्स है। भारतीय समाज की संस्कृति वर्ण-वादी संस्कृति रही है जिसमें निम्न और उच्च जाति की धारणा मिलती है। इन्हीं निम्न और उच्च जातियों के विभाजन रेखा को प्रश्नांकित करते हुए, दोनों को समान भाव-भूमि पर व्याख्यायित करने की चेष्टा करती है। निश्चित ही यह चेष्टा आज के समय में लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन करती है जिसे हम दलित आंदोलन के रूप में जानते हैं। यह आन्दोलन हिंदी साहित्य को समय-समय पर गहरे स्तर पर प्रभावित करते रहा है जिसकी सुदीर्घ परम्परा बौद्धों, सिद्धों,नाथों तथा कालान्तर में व्यापक रूप में कबीर, रैदास आदि भक्तिकालीन कवियों के साहित्य में प्रखर रूप में विद्यमान पाते हैं। आधुनिक दलित वैचारिकी को इस सुदीर्घ परम्परा से जोड़कर देखने की आवश्यकता जान पड़ती है।
बीज शब्द :
मध्यकालीनता, आधुनिकता, उत्तरआधुनिकता, दलित, संस्कृति, विमर्श, अवधारणा, संवेदना, प्रासंगिकता, समाज, उपेक्षा, शोषण, अस्पृश्यता इत्यादि।
मूल आलेख :
‘दलित’ शब्द भारतीय समाज में एक खास वर्ग के लिए प्रयुक्त होता आधुनिक संवेदना का प्रतिफलन है, जिसका अर्थ हिंदी शब्दकोश में “मसला, रौंदा या कुचला।”1 हुआ बताया गया है। भारतीय समाज जाति व्यवस्था पर आधारित समाज रहा है जिसके कारण निम्न और उच्च जातीय संरचना की अवधारणा मिलती है, यानी समाज में जिसका दलन हुआ हो, दमन हुआ हो, समाज में किसी खास वर्ण के द्वारा उपेक्षित, घृणित समझा गया हो, जातीय-दंश में शोषण एवं सताया हुआ हो आदि समाज की ऐसी जातियों के समूह को आधुनिक संवेदना में दलित कहकर संबोधित किया जाता है।
'दलित' शब्द को डॉ.शिवराज सिंह ‘बेचैन’ ने परिभाषित करते हुए कहा है, “दलित वह है जिसे भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है।”2 इसी प्रकार दलित विचारक कँवल भारती का मानना है, “दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गंदे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है। जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतंत्र व्यवसाय करने से मना किया गया और जिस पर सछूतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की, वही और वही दलित हैं।”3
राजेंद्र यादव दलित शब्द की विस्तृत परिदृश्य में व्याख्या करते हैं और स्त्रियों को भी इसके दायरे में रखते हैं। उनके विचार में यह व्यापकता इसलिए भी है क्योंकि भारतीय समाज में वह चाहे जिस वर्ण या वर्ग की स्त्रियां रही हों, उनके साथ भी दमन की नीति, शोषण, सामाजिक, शैक्षणिक समेत अनेक सामाजिक संरचनाएं मिलती हैं। इसलिए “वे स्त्रियों को भी दलित मानते हैं। पिछड़ी जातियों को भी दलितों में शामिल करते हैं।”4.
‘दलित’ शब्द साहित्य और संवेदना के साथ जुड़कर ऐसी धारा की ओर बढ़ने का संकेत करता है जो समस्त मानवीय संवेदनाओं एवं उसके सरोकारों की यथार्थ अभिव्यक्ति है जिसमें समता, बंधुता आदि लोकतान्त्रिक मूल्य समाहित हैं। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है, “इस देश का एक संविधान आर्यावर्त में मनु महाराज ने रचा था और दूसरा देश के लिए फिर से स्वाधीन होने पर डॉ.अंबेडकर ने रचा। मनु के विधान में अंबेडकर के लिए स्थान नहीं था या नहीं जैसा था। अंबेडकर के विधान में मनु के लिए पूरा स्थान है।”5 इस टिप्पणी में मुख्यधारा से वंचित दलित अस्मिता के संपूर्ण इतिहास लेखन पर खड़े किए गए सवालों या वजहों का बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है।
दलित साहित्य लेखन के विषय में थोड़ा विवाद स्वानुभूति और सहानुभूतिपरक लेखन की अवधारणा को लेकर अवश्य है। दलित विचारकों का मानना है कि दलित की स्वानुभूति से अनुप्राणित रचना या साहित्य ही दलित साहित्य है और गैर-दलितों द्वारा लिखित साहित्य कितना भी दलित सवालों को सूक्ष्म से सूक्ष्म तौर पर उकेरें, किंतु एक 'फांक' की गुंजाइश हमेशा बनी रह जाती है, क्योंकि स्वयं के भोगे हुए यथार्थ की अपेक्षा, अनुभव पर आधारित यथार्थ की अंतर-क्रिया में अंतर स्वाभाविक तौर से रहता ही है। कँवल भारती की धारणा है कि "दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है। अपने जीवन-संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उसकी अभिव्यक्ति का साहित्य है।"6 यह ठीक है कि दलित साहित्य कला के लिए कला नहीं, अपितु जीवन और जीवन जिजीविषा का साहित्य है।
इस प्रकार दलित साहित्य लेखन के तीन रूप मिलते हैं। पहला, वह जो दलितों द्वारा लिखित साहित्य है जहां स्वानुभूति का व्यापक संसार है। दूसरा गैर-दलितों द्वारा लिखित साहित्य जिसका इतिहास बहुत पुराना है और तीसरा मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष के ढांचे पर दलित सन्दर्भ को समझने की दृष्टि पर जोर देता है। मोहनदास नैमिशराय ने लिखा है, “शोषक वर्ग के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए समाज में समता, बंधुता तथा मैत्री की स्थापना करना ही दलित साहित्य का उद्देश्य है।”7. इसलिए अधिकांश दलित विचारक मार्क्सवादी धारणा से दलित साहित्य की परख को तर्कसंगत स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि दलित साहित्य मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष का मात्र साहित्य नहीं है, क्योंकि सामाजिक गैर-बराबरी को सिर्फ आर्थिक गैर-बराबरी मात्र से नहीं देखा जा सकता। दलित साहित्य सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि व्यापक समाज-व्यवस्था से बेदखल पददलित, दुःख एवं संत्रास से उपजा साहित्य है जो मूल्य और अधिकार के साथ-साथ सामाजिक संदर्भों से जुड़कर समूचे समाज में अस्मिता और मूल्यों की पहचान बनाना चाहता है। दलित साहित्य सामाजिक स्तर पर जातिगत गैर-बराबरी का पुरजोर विरोध करता है। यह विरोध की प्रवृत्ति मराठी साहित्य, गुजराती साहित्य, राजस्थानी साहित्य आदि जो भी दलित साहित्य लेखन हो, इन सब में आक्रोश, पीड़ा और परिवर्तन का संकल्प जैसी बुनियादी चीजें समान रूप से मिलती हैं।
आज के उत्तर आधुनिकता के दौर में दलित विमर्श एक ज्वलंत मुद्दा बनकर उभरा है। हालांकि दलित चेतना का साहित्य भारतीय साहित्य इतिहास में बहुत पहले 'बुद्ध', नाथों, सिद्धों से होते हुए कालांतर में कबीरदास आदि संतों के यहां भारी मात्रा में मिलता है।
दलित साहित्य का वर्तमान में जो राष्ट्रीय जन-आंदोलन का स्वरूप है जिसके वैचारिक आधार डॉ. अंबेडकर तथा ज्योतिबा फुले हैं। इन दोनों व्यक्तित्वों का निर्माण इसी जमीन के जीवन-संघर्ष से उपजा हुआ है। "डॉ.अंबेडकर की आत्मकथा मी कसा झालो (मैं कैसे बना) से प्रेरणा लेकर दलित साहित्यकारों ने आत्मकथा विकसित की है जो समाज को दर्पण दिखाती है।"8. स्वयं ज्योतिबा फुले अपने जीवन संघर्ष में क्रियाशील रहकर सामंती-मूल्यों तथा सामाजिक गुलामी के विरुद्ध आवाज बुलंद की। डॉ.अम्बेडकर ने अपने चिंतन में अनेकों स्थलों पर इस बात पर जोर दिया है कि दलित का उत्थान एक राष्ट्र का उत्थान है। उन्होंने लिखा है, "जब तक आप अपनी सामाजिक व्यवस्था को नहीं बदलते, तब तक आप प्रगति के मार्ग पर एक कदम आगे भी नहीं बढ़ सकते...आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते।"9. यानी! सामाजिक गैर-बराबरी एक समतामूलक-राष्ट्र की संकल्पना के लिए बाधक है।
हिंदी साहित्य में दलित विमर्श के आंदोलन की उपलब्धियों पर बात करते हुए यह अवश्य ही स्वीकार्य है कि हंस जैसी साहित्यिक पत्रिका के संपादक, आलोचक 'राजेंद्र यादव' का भी अतुलनीय योगदान रहा है, “इस संदर्भ में राजेंद्र जी की पहल और उनके महत्त्व से कोई इनकार नहीं कर सकता, यह उनका ऐतिहासिक योगदान है।”10.
यह ठीक है कि वर्तमान संदर्भ में दलित साहित्य, स्त्री- साहित्य आदि अस्मितामूलक साहित्य जो अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व को लेकर पुरातन साहित्य एवं समाज के द्वारा निर्मित मानदंडों के बरक्स अनेकों सवालों से जूझ रहे हैं, आज इनके अभाव में साहित्य का समुचित विवेचन संभव नहीं है, किंतु इनकी अभिव्यक्ति सहसा आज ही अस्तित्व नहीं आयी, ऐसा नहीं है, इनका भी व्यापक इतिहास रहा है। यदि हिंदी सम्पूर्ण साहित्येतिहास-लेखन पर दृष्टिपात करें तो भक्तिकालीन साहित्य ऐसा दौर रहा है जिसमें आज के जैसे गहन सवालों की भी गंभीर चिंतनधारा मिलता है। इस प्रसंग में भक्तिकालीन संत साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस धारा के संतजन, “समूचे भारतीय परिदृश्य पर और हिंदी क्षेत्र में विशेषतः संत कहे जाने वाले कवि अधिकतर तथाकथित निम्न जातियों से उठकर ऊपर आए थे।”11. ये निम्न जातियां भारतीय समाज में फैले धार्मिक आडंबर, पाखंड, जातिगत(वर्णगत) असमानता जैसी अनेकों कुरीतियों को डटकर चुनौती दी जो भारतीय जनता में आपसी मतभेद और मनभेद दोनों स्तरों पर बांट रखा था। इसलिए इस युग को एक आंदोलन के रूप में भी हम पाते हैं।
जाहिर है, संत मत में जो वैचारिक प्रतिबद्धता दिखती है, वह इस आन्दोलन में बेहद महत्त्वपूर्ण है। कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब भारतीय समाज बाह्य और आंतरिक दोनों रूपों से आतंकित था। आंतरिक तौर पर वेद शास्त्र की नीति का वर्चस्व जो समाज को ऊंचा-नीचा जैसे विभागों में बांट, शोषण व्यवस्था का भ्रम जाल फैला रखा था और बाहरी तौर पर हिंदू और मुस्लिम की आपसी संघर्ष था जो धार्मिक पाखंडों में मनुष्य को मनुष्य से विभेद करता था। कबीर के काव्य में बार-बार “जाति जुलाहा नाम कबीरा, बनि बनि फिरौ उदासी।”12. आया है। कबीर का कई बार जाति का उल्लेख आकस्मिक नहीं है, वस्तुतः कबीर दर्शन का यह केंद्रीय बिंदु है जो इनकी चेतना को खास रूप में प्रदान करती है। कबीर के इस जातीय गुहार की गंभीर समझ के बिना न ही हम कबीर के समाज को समझ पाएंगे और न ही कबीर की चेतना को।
दरअसल! भक्तिकालीन संतों की खोज एक मानवीयता की खोज है, इसलिए उनका ध्येय मनुष्य को सामाजिक जकड़बन्दियों से मुक्ति की कल्पना रही है। निःसंदेह यह कल्पना यथार्थ की जमीन से ऊपजकर कालांतर में दादू,रैदास, नानक, मलूक आदि संत भक्तों तक फैली। इन संतों की जमीन स्वानुभूति की अपनी जमीन थी जो मानव जीवन के बुनियादी अधिकारों, अस्तित्वों और मर्यादाओं के साथ जीवन-जगत और ईश्वर में खुद को व्याख्यायित कर सके। संतों की यह पद्धति आज के दलित संवेदना से सीधा जुड़ती है।
भक्ति साहित्य सामूहिकता का साहित्य है। इस युग में जहां कबीर, रैदास आदि संत समाज के निम्न जाति व्यवस्था से मेल रखते थे, वहीं दूसरी ओर सूर और तुलसी, नंददास आदि सगुण-पंथी अभिजात वर्ग से आते थे तथा जायसी एवं कुतुबन, रहीम आदि मुस्लिम समुदाय से। यह सामूहिक एकजुटता शायद साहित्येतिहास में पहली बार हुआ था। इस सामूहिकता की प्रमुख विशेषता यह रही है कि भक्ति साहित्य के आवरण में सभी एक साथ रंगे होने के पश्चात भी इनका अपना-अपना वैचारिक संघर्ष रहा है जो एक खास तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ भक्ति साधना में उतरे थे, इसीलिए समाज में मानवता की खोज की दिशाएं अपनी-अपनी थीं। मुक्तिबोध ने लिखा है, "मध्यकालीन सामंती व्यवस्था में धरती पर सामंतों का अधिकार था तो धर्म पर उन्हीं के समर्थक पुरोहितों का। संतों ने धर्म पर से पुरोहितों का यह इजारा तोड़ा। खासतौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसान और अछूतों को सांस लेने का मौका मिला।"13.
कबीर मध्यकालीन समाज व्यवस्था के वर्चस्ववादी संरचना पर सवाल खड़ा कर, एक ऐसे मार्ग की खोज करते हैं जहां ईश्वर साधना में सभी की समान रूप से भागेदारी हो, उन्होंने कहा है -
“एक बूद एकै मलमूतर, एक चाँम एक गूदा।
एक जाति थैं सब उतपनाँ, कौन ब्राह्मण कौन सूदा ।।”14.
जाहिर है, कबीर का यह सवाल समाज की एकरूपता का द्योतक है। उन्हें पता है कि मनुष्य, मनुष्य में जो असमानता व्याप्त है वह ईश्वर ने नहीं, अपितु समाज के शास्त्रज्ञों एवं पुरोहितों ने किया है इसलिए वे इस मंत्रणा को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करते।
कबीर ‘लोक’ की व्यापक समझ रखते हैं, किंतु इनका लोक, तुलसी आदि सगुणवादियों के लोक से हटकर है। इन्होंने अपने तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक पहलुओं पर गंभीर विचार करते हुए एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें सब समान अधिकार रखते हों। कबीर का देश 'अमरदेसवा' है जहां कोई किसी की जाति नहीं पूछता-
“जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान।।”15.
इस मत के कवियों की यह बेबाकी निश्चय ही हीनताबोध पर आत्मगौरव का प्रमाण हैं, किंतु इस तरह की उक्तियों(वाणियों) का समाजशास्त्र यही कहता है कि कवि स्वयं भले ही आहत हो किंतु विरासत को आहत के पड़ाव पर नहीं छोड़ना चाहता, यह एक आंदोलन की मूल प्रवृत्ति है। इन कवियों की कविता सामाजिक विषमता को अच्छी तरह समझती है किंतु समझाना वही चाहती है जो उत्थान हेतु प्रेरणादायक हो।
इन संत कवियों में भक्ति और ईश्वर में अटूट विश्वास है, इसलिए समाज के वंचित तबके को ईश्वर आराधना में मोड़, मुक्ति की परिभाषा गढ़ते हैं। इनमें परंपरा और नवीनता का स्पष्ट बोध था, इसलिए परंपरा से उतना ही स्वीकार करते हैं जितना इनके विचार के प्रतिपादन के लिए वांछनीय बन पड़ा था। किंतु नवीनता की जो जमीन तैयार करते हैं, वह सर्व-सुलभ भी है, और हितकारी भी। इन सभी संत भक्तों के यहां परंपरागत धर्म के कर्मकांड, बाह्याचारों अथवा सांप्रदायिक असहिष्णुता का एकदम बहिष्कार हुआ और नवीन परिस्थितियों के अनुरूप सामाजिक व्यवस्था की संकल्पना हुई। यही कारण है कि कबीर 'अमरदेसवा' जैसे राज्य-व्यवस्था की संकल्पना करते हैं तो रैदास ‘बेगमपुरा’ जहां कोई गम न हो। जाहिर है यह ‘गम’ सामाजिक स्तर पर जिस प्रकार का रहा था उससे बिल्कुल मुक्त। संत रैदास ने लिखा है-
“ऐसा चाहूं राज्य मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट,बड़ो सभ सम बसैं,रैदास रहैं प्रसन्न ।”16.
सगुण भक्त कवियों में यदि किसी कवि के यहां निर्गुण और सगुण का समन्यवय रूप मिलता है तो तुलसीदास में। तुलसीदास ने निर्गुण के प्रभाव और वैचारिक सरोकारों दोनों को गंभीरता से समझा और अपनी अभिव्यक्ति में बड़े ही चालाकी से पिरोया। तुलसी तक आते-आते निर्गुण का प्रभाव अवश्य ही धीमा पड़ गया होगा क्योंकि तुलसी के पूर्व सूरदास ने ‘निर्गुण कौन देस को वासी’ ,सगुन रूपि तजि निरगुन ध्यावहु, इक चित इक मन लाई’, या फिर ‘यह निरगुन लै तिनहिं सुनावहुँ, जे मुड़िया बसै सन्यासी’, आदि अनेकों वचनों से निर्गुण मतवाद पर काफी कुछ अंकुश लगाते आए थे। अतः तुलसी के लिए बहुत अच्छा अवसर था कि दोनों को एक साथ रख, अपने चिंतन का परिष्कार करते, सो किया भी। तुलसी वर्णाश्रम धर्म के बड़े सजग कवि थे, यही कारण है कि संतों की वैचारिकी उन्हें कुमार्ग जान पड़ा है, और वर्णाश्रम व्यवस्था टूटने से क्षोभ भी प्रकट करते हैं-
“बेद-पुरान बिहाइ सुपंथु,कुमारग,कोटि कुचालि चली है।”17.
तुलसी साहित्य में जाति का समर्थन और खंडन दोनों मिलता है और भारी अंतर्द्वंद्व के साथ। जातियों का जहां पर समर्थ रूप दिखता है, वहां वेदवादी संरचना का पूरा समर्थन रूप में, यानि वेद की यथास्थितिवादी दृष्टि और जहां खंडन रूप उभर कर आया है, वहां जातिवादी संदर्भ में प्रगतिशील दिखे हैं-
“धूत कहो अवधूत कहो रजदूत कहो जुलाहा कहो कोई।
काहुकि बेटी सों बेटा न व्याहब कहुकि की जाति बिगार न सोई ।।”18.
किंतु इस प्रकार की संकल्पना का उनके 'रामचरितमानस' में अभाव है। बाद की रचनाओं में अवश्य ही मिल जाते हैं।. तुलसी के मानस में कई ऐसी पंक्तियाँ ‘ढोल,गंवार, सूद्र, पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी’ मिलती हैं जिससे यह समझा जा सकता है कि तुलसी निर्गुण संतों की वैचारिक क्रांति से बहुत कुछ संतुष्ट न थे। संतों ने जिस वेद अथवा शास्त्र संबंधी धारणा के विरोध में अनुभवयुक्त ज्ञान की वैज्ञानिक प्रतिस्थापना पर बल दिया था, वह तुलसी भक्ति पद्धति की विरोधिनी थी। रैदास ने अपनी वैज्ञानिक दृष्टि का परिचय देते हुए लिखा था-
“रविदास ब्राह्मन मति पूजिये,जउ होवै गुणहीन।
पूजहिं चरन चंडाल के, जऊ होवै गुन प्रवीन ।।”19
रैदास का झुकाव ज्ञान से अधिक था। तात्पर्य वह कोई भी जाति का हो, किंतु यदि ज्ञानवान है तो पूज्यनीय है। इसके बरक्स गोस्वामी जी कहते हैं कि-
“पूजिए विप्र सकल गुण हीना। शूद्र न पूजहिं गुनज्ञान प्रवीना ।।”20.
निष्कर्ष :
इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्तिकालीन साहित्य में व्यवहारिक और सैद्धांतिक दोनों रूपों में वैचारिक संघर्ष मौजूद रहा है, किंतु जिस वैचारिकता की वैज्ञानिक (तार्किक) कसौटी जितनी गंभीर रही है, उतना ही वह व्यापक असर तत्कालीन समाज एवं साहित्य समेत वर्तमान तक उपस्थित है। संतों की वाणियों में जिस तार्किकता का उदाहरण मिलता है, वह वर्तमान में भी सार्थक असर छोड़ता है, अपने युगीन परिस्थितियों के अनगिनत अंतर्विरोधों के बावजूद भी। भक्तिकालीन साहित्य सृजन में विशेषकर संतों के यहाँ जो वैचारिक तत्त्व मौजूद मिलता है, वह आधुनिक दलित संवेदना से कई अर्थों में जुड़ता है। उस युग के कबीर, रैदास, नानक, दादू आदि संतों की वाणियाँ इतनी प्रखर एवं तार्किक रही हैं कि आधुनिक संवेदना की कसौटियों में कसकर नवीन आधार प्रस्तुत किया जा सकता है।
संदर्भ :
1. रामचंद्र वर्मा : प्रामाणिक हिंदी कोश, लोक भारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997, पृ. 391.
2. ओमप्रकाश वाल्मीकि : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 15.
3. वही, पृ. 11.
4. वही, पृ. 15.
5. रामस्वरूप चतुर्वेदी : हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010, पृ. 17.
6. ओमप्रकाश वाल्मीकि : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 14.
7. वही, पृ. 22.
8. वही, पृ. 19.
9. भीमराव अम्बेडकर : जाति का विनाश (अनुवादक-राजकिशोर),फारवर्ड प्रेस,नई दिल्ली, 2019, पृ. 96.
10. राजेन्द्र यादव (सं.) : हंस (मासिक पत्रिका), दिल्ली, अगस्त-2004(अंक), पृ. 577.
11. रामस्वरूप चतुर्वेदी : हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010, पृ. 09.
12. श्यामसुंदरदास (सं.) : कबीर ग्रंथावली, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2008. पृ. 200.
13.गोपेश्वर सिंह (सं.) : भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार, जगतराम एण्ड संस, नई दिल्ली, 2018, पृ. 99.
14. श्यामसुंदरदास (सं.) : कबीर ग्रंथावली, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2008, पृ. 148.
15.हजारीप्रसाद प्रसाद द्विवेदी :कबीर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1999, पृ. 247.
16. सुभाष चंद्र : संत रविदास, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2012, पृ. 157.
17.गोस्वामी तुलसीदास : कवितावली (उत्तरकाण्ड), गीताप्रेस, गोरखपुर, सं-संवत-2074, पृ. 112.
18.वही, पृ. 120.
19. सुभाषचंद्र : संत रविदास, आधार प्रकाशन,पंचकूला (हरियाणा), 2012, पृ. 157.
20. गोस्वामी तुलसीदास : रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड), गीताप्रेस,गोरखपुर, सं-संवत-2074, पृ. 542.
राम यश पाल, शोधार्थी, केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय
8090323336, onlyramyash@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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